Books - आपत्तियों में धैर्य
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Language: HINDI
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आपत्तियों से चिन्तित न हों
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अनेक व्यक्ति आपत्तियों से इतने भयभीत रहते हैं कि वे तरह-तरह
की सच्ची और झूठी आपत्तियों की कल्पना करके अपने जीवन को
चिंताग्रस्त बना लेते हैं । यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो भूतकाल की गुजरी
हुई घटनाओं और भविष्यकाल की भली-बुरी संभावनाओं के लिए व्याकुल
होना निरर्थक है । पर ये व्यक्ति प्राय: वर्तमान का ख्याल छोड़कर पुरानी
घटनाओं का ही रोना रोया करते हैं अथवा भविष्यकाल में आने वाली
संभावित कठिनाइयों की कल्पना करके डरते रहते हैं । ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ
बुद्धिहीनता और डरपोकपन की परिचायक हैं । पुरानी या नई, कैसी भी
आपत्तियों के कारण चिंता करना सब तरह से हानिकारक है । इसमें हमारी
बहुत-सी शक्ति व्यर्थ ही नष्ट हो जाती है और हम अपने सम्मुख उपस्थित
वास्तविक समस्याओं को हल करने में भी असमर्थ हो जाते हैं ।
चिंता, मन में केंद्रीभूत नाना दुःखद स्मृतियाँ तथा भावी भय की आशंका से उत्पन्न मानवमात्र का सर्वनाश करने वाला उसकी मानसिक शारीरिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का हास करने वाला दुष्ट मनोविकार है । एक बार इस मानसिक व्याधि के रोगी बन जाने से मनुष्य कठिनता से इससे मुक्ति पा सके हैं, क्योंकि अधिक देर तक रहने के कारण यह गुप्त मन में एक जटिल मानसिक भावना ग्रंथि के रूप में प्रस्तुत रहता है । वहीं से हमारी शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को परिचालित करता है । आदत बन जाने से चिंता नैराश्य का रूप ग्रहण कर लेती है । ऐसा व्यक्ति निराशावादी हो उठता है । उसका संपूर्ण जीवन नीरस, निरुत्साह और असफलताओं से परिपूर्ण हो उठता है ।
चिंता का प्रभाव संक्रामक रोग की भाँति विषैला है । जब हम चिंतित व्यक्ति के संपर्क में रहते हैं तो हम भी निराशा के तत्त्व खींचते हैं और अपना जीवन निरुत्साह से परिपूर्ण कर लेते हैं । बहुत से व्यक्ति कहा करते हैं- ''भाई अब हम थक गए बेकाम हो गए । अब परमात्मा हमें सँभाल ले तो अच्छा है ।'' वे इसी रोने को रोते रहते हैं- ''हम बड़े अभागे हैं ? बदनसीब हैं,हमारा भाग्य फूट गया है दैव हमारे प्रतिकूल है हम दीन हैं गरीब हैं । हमने सर तोड़ परिश्रम किया परंतु भाग्य ने साथ नहीं दिया ।'' ऐसी चिंता करने वाले व्यक्ति यह नहीं जानते कि इस तरह का रोना रोने से हम अपने हाथ से अपने भाग्य को फोड़ते हैं ? उन्नति रूपी कौमुदी को काले बादलों से ढँक लेते हैं ।
एक सुप्रसिद्ध विद्वान का कथन है- ''आपके जीवन में नाना पुरानी दुःखद, कटु चुभने वाली स्मृतियाँ दबी हुईं पड़ी हैं । उनमें नाना प्रकार की बेवकूफियाँ अशिष्टताएँ मूर्खता से युक्त कार्य भरे पड़े हैं । अपने मन-मंदिर के किवाड़ उनके लिए बंद कर दीजिए । उनकी दुःख भरी पीड़ा, वेदना, हाहाकार की काली परछांई वर्तमान जीवन पर मत आने दीजिए । इस मन के कमरे में इन मृतकों को, भूतकाल के मुरदों को दफना दीजिए । इसी प्रकार मन का वह कमरा बंद कर दीजिए जिसमें भविष्य के लिए मिथ्या भय, शंकाएँ निराशापूर्ण कल्पनाएँ एकत्रित हैं । इस अजन्मे भविष्य को भी मन की कोठरी में दृढ़ता से बंद कर दीजिए । मरे हुए अतीत को अपने मुरदे दफनाने दीजिए । आज तो ''आज'' की परवाह कीजिए । ''आज'' यह मदमाता, उल्लासपूर्ण ''आज'' आपकी अमूल्य निधि है । यह आपके पास है । आपका साथी है । ''आज'' की प्रतिष्ठा कीजिए । उससे खूब खेलिए, कूदिए और मस्त रहिए और उसे अधिक से अधिक उल्लासपूर्ण बनाइए । ''आज'' जीवित चीज है । ''आज'' में वह शक्ति है जो दु:खद कल को भुलाकर भविष्य के मिथ्या भयों को नष्ट कर सकता है ।''
इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि भविष्य के लिए कुछ न सोचें, या न विचारें ? नहीं, कदापि नहीं । इसका तात्पर्य यही है कि आगे आने वाले ''कल'' के लिए व्यर्थ ही चिंता करने से काम न चलेगा, वरन अपनी समस्त बुद्धि, कौशल, युक्ति और उत्साह से आज का कार्य सर्वोत्कृष्ट रूप में संपन्न करने से चलेगा । यदि हम ''आज'' का कार्य कर्तव्य समझकर संपूर्ण एकाग्रता और लगन से पूर्ण करते हैं, तो हमें ''कल'' की (भविष्य की) चिंता करने की आवश्यकता नहीं है । इसी प्रकार आप उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते हैं ।
ईसाइयों में प्रार्थना का एक अंश इस प्रकार है ''हे प्रभु! हमें आज का भोजन दीजिए । हमें आज समृद्ध कीजिए ।'' स्मरण रखिए प्रार्थना का तात्पर्य है कि ''आज'' हमें भोजन, आनंद, समृद्धि प्राप्त हो । इसमें न तो बीते हुए कल के लिए शिकायत है और न आने वाले ''कल'' के लिए याचना का भय । यह प्रार्थना हमें ''आज'' (वर्तमान) का महत्त्व स्पष्ट करती है । यदि हम आज को आदर्श रूप में अधिकतम आनंद से व्यतीत कर लें तो हमारा भावी जीवन स्वयं समुन्नत हो सकेगा । सैकड़ों वर्ष पूर्व एक निर्धन दर्शनवेत्ता ऐसे पर्वतीय प्रदेश में घूम रहा था, जहाँ लोग कठिनता से जीविकोपार्जन कर पाते थे । एक दिन उसने उन्हें एकत्रित किया और एक लघु भाषण में कहा- ''कल'' की चिंताओं में निमग्न आत्माओ! कल के भय, चिंताओं और अंधकार में क्यों इस सुनहरे वर्तमान को नष्ट कर रहे हो ? कल स्वयं अपनी चिंता करेगा । यदि तुम आज को अधिकाधिक आनंद, संतोष और आदर्श रूप में व्यतीत कर सको तो उत्तम है । परमेश्वर स्वयं तुम्हारे भविष्य को समुन्नत करने में प्रयत्नशील है ।'
' महापुरुष ईसा ने कहा है- ''कल की चिंता मत करो ।'' पर इसका वास्तविक मर्म बहुत कम लोग समझते हैं । आप कहेंगे कल की चिंता कैसे न करें ? हमारा परिवार है, हमारे बच्चों की शिक्षा, वस्त्र, भोजन, मकान की विषम समस्याएँ हैं ? कल हमें उनके विवाह करने हैं ? क्या रुपया एकत्रित किए बिना काम चलेगा ? हमें बीमा पॉलिसी में रुपया जोड़ना चाहिए ? हमारी आज नौकरी लगी है, कल छूट भी सकती है, आज हम स्वस्थ हैं, कल बीमार पड़ेंगे तो कैसे काम चलेगा ? वृद्धावस्था में हमारा क्या होगा ?
इस प्रकार की बातें ठीक हैं । एक विचारशील मस्तिष्क में ये विचार आने चाहिए । हमारा सुझाव है कि आप ''कल'' के लिए अपने आप को शक्तिशाली बनाने के लिए योग्यतर, स्वस्थ, आर्थिक दृष्टि से संपन्न होने के लिए नई योजनाओं को कार्यान्वित करें । भावी जीवन के लिए जितना संभव हो तैयारी कीजिए परिश्रम, उद्योग, मिलनसारी द्वारा समाज में अपना स्थान बनाइए पर चिंता न कीजिए । योजना बनाकर दूरदर्शितापूर्ण कार्य करना एक बात है चिंता करना दूसरी बात है । चिंता से क्या हाथ आवेगा ? जो रही सही शक्ति और मानसिक संतुलन है वह भी नष्ट हो जाएगा । चिंता तो आपको उत्साह, शक्ति और प्रसन्नता से पंगु कर देगी । जिस कठिनाई या प्रतिरोध को आप अपनी व्यक्तिगत शक्तियों से बखूबी जीत सकते थे, वह पर्वत सदृश कठिन प्रतीत होगी । चिंता आपके सामने एक ऐसा अंधकार उत्पन्न करेगी, कि आपको उस महान शक्तिकेंद्र का ज्ञान न रह जाएगा जो आदिकर्त्ता परमेश्वर ने आपके अंग-प्रत्यंग में छिपा रखा है ।
युद्ध, बीमारी, दिवाला या दु:खद मृत्यु के अंधकारपूर्ण रुदन में, शुभ चिंतन और अशुभ चिंतन में केवल यह अंतर है-अच्छा विचार वह है जो कार्य-कारण के फल को तर्क की कसौटी पर परखता है, दूर की देखता है और किस कार्य से भविष्य में क्या फल होगा इसका संबंध देखकर भावी उन्नति की योजनाएँ निर्माण करता है । सृजनात्मक विचार भावी निर्माण में पुरानी गलतियों की सजा के अनुभवों और संसार की कठोरताओं को देख-भाल कर अपनी उन्नति के लिए योजना प्रदान करता है । अच्छे चिंतन में संग्रहीत सांसारिक अनुभवों के बल पर उत्साह और आशा का शुभ्र आलोक है, कार्यनिष्ठा और साहस का बल है, शक्ति और कुशलता का पावन योग है, कार्य से भागकर नहीं वरन गुत्थियों को सुलझाकर अपूर्व सहनशक्ति का परिचय देने का विधान है ।
बुरी विचारधारा का प्रारंभ ही डर और घबराहट से होता है । कठिनाइयों आ रही हैं हमें वह कार्य करना ही पड़ेगा जो साधारणत: हमने नहीं किया है पैसा और शक्ति पास में नहीं रहेगी, फिर क्या किया जाएगा-ऐसी फालतू गलत कल्पनाएँ आकर शक्ति और उत्साह का विनाश कर देती हैं । मानसिक संतुलन नष्ट हो जाता है । इच्छाशक्ति और मनोबल पिछली गलतियों की स्मृति और वेदनाओं से नष्ट या पंगु हो जाता है । पश्चात्ताप एवं आत्मग्लानि के अंधकार में ऐसा व्यक्ति रही सही शक्ति को भी खो बैठता है । यह गलत कल्पनाएँ चिंता जैसी राक्षसी की ही संतानें हैं ।
आजकल पागलखानों तथा शफाखानों में मानसिक रोगों के जितने बीमार आते हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं, जो चिंता-भार के कारण मन को संतुलित नहीं रख सके हैं । उनके मस्तिष्क में बीते हुए जीवन का हृदयद्रावक हाहाकार, कल्पना, मौन रुदन है । प्रिय व्यक्ति के विछोह की आकुलता, पीड़ा और दुस्सह वेदना है । हजारों रुपयों की हानि की कसक है । समाज में दूसरों द्वारा की हुई मान हानि की जलन है, समाज अफसर, रूढ़ियों तथा पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह है । कोई पिटते-कुटते ऐसे जड़ निराशावादी हो गए हैं कि उनका जैसे आनंद का श्रोत ही सूख गया है । इन्हीं अनुभवों के बल पर वे भविष्य में भय से उत्पन्न दुष्प्रवृत्तियों के शिकार हैं । अपनी प्रतिकूलता के दूषित विचार उनके अंतःकरण की उत्तम योजनाओं को क्षणभर में धूल में मिला देते हैं । मनुष्य की मानसिक शक्तियों को क्षय कर चिंता में फँसाने वाला भय महाराक्षस है । भय की प्रथम संतान चिंता है । इन स्मृतियों तथा भावी दुःस्वपनों का द्वंद्व मानसिक रोगों के रूप में प्रकट होता है । अव्यक्त आशंकाएँ कुकल्पनाएँ संस्काराधीन होती हैं, वे रोग के रूप में उद्भूत होकर किसी प्रकार अपनी परितृप्ति चाहती हैं ।
चिंता, मन में केंद्रीभूत नाना दुःखद स्मृतियाँ तथा भावी भय की आशंका से उत्पन्न मानवमात्र का सर्वनाश करने वाला उसकी मानसिक शारीरिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का हास करने वाला दुष्ट मनोविकार है । एक बार इस मानसिक व्याधि के रोगी बन जाने से मनुष्य कठिनता से इससे मुक्ति पा सके हैं, क्योंकि अधिक देर तक रहने के कारण यह गुप्त मन में एक जटिल मानसिक भावना ग्रंथि के रूप में प्रस्तुत रहता है । वहीं से हमारी शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को परिचालित करता है । आदत बन जाने से चिंता नैराश्य का रूप ग्रहण कर लेती है । ऐसा व्यक्ति निराशावादी हो उठता है । उसका संपूर्ण जीवन नीरस, निरुत्साह और असफलताओं से परिपूर्ण हो उठता है ।
चिंता का प्रभाव संक्रामक रोग की भाँति विषैला है । जब हम चिंतित व्यक्ति के संपर्क में रहते हैं तो हम भी निराशा के तत्त्व खींचते हैं और अपना जीवन निरुत्साह से परिपूर्ण कर लेते हैं । बहुत से व्यक्ति कहा करते हैं- ''भाई अब हम थक गए बेकाम हो गए । अब परमात्मा हमें सँभाल ले तो अच्छा है ।'' वे इसी रोने को रोते रहते हैं- ''हम बड़े अभागे हैं ? बदनसीब हैं,हमारा भाग्य फूट गया है दैव हमारे प्रतिकूल है हम दीन हैं गरीब हैं । हमने सर तोड़ परिश्रम किया परंतु भाग्य ने साथ नहीं दिया ।'' ऐसी चिंता करने वाले व्यक्ति यह नहीं जानते कि इस तरह का रोना रोने से हम अपने हाथ से अपने भाग्य को फोड़ते हैं ? उन्नति रूपी कौमुदी को काले बादलों से ढँक लेते हैं ।
एक सुप्रसिद्ध विद्वान का कथन है- ''आपके जीवन में नाना पुरानी दुःखद, कटु चुभने वाली स्मृतियाँ दबी हुईं पड़ी हैं । उनमें नाना प्रकार की बेवकूफियाँ अशिष्टताएँ मूर्खता से युक्त कार्य भरे पड़े हैं । अपने मन-मंदिर के किवाड़ उनके लिए बंद कर दीजिए । उनकी दुःख भरी पीड़ा, वेदना, हाहाकार की काली परछांई वर्तमान जीवन पर मत आने दीजिए । इस मन के कमरे में इन मृतकों को, भूतकाल के मुरदों को दफना दीजिए । इसी प्रकार मन का वह कमरा बंद कर दीजिए जिसमें भविष्य के लिए मिथ्या भय, शंकाएँ निराशापूर्ण कल्पनाएँ एकत्रित हैं । इस अजन्मे भविष्य को भी मन की कोठरी में दृढ़ता से बंद कर दीजिए । मरे हुए अतीत को अपने मुरदे दफनाने दीजिए । आज तो ''आज'' की परवाह कीजिए । ''आज'' यह मदमाता, उल्लासपूर्ण ''आज'' आपकी अमूल्य निधि है । यह आपके पास है । आपका साथी है । ''आज'' की प्रतिष्ठा कीजिए । उससे खूब खेलिए, कूदिए और मस्त रहिए और उसे अधिक से अधिक उल्लासपूर्ण बनाइए । ''आज'' जीवित चीज है । ''आज'' में वह शक्ति है जो दु:खद कल को भुलाकर भविष्य के मिथ्या भयों को नष्ट कर सकता है ।''
इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि भविष्य के लिए कुछ न सोचें, या न विचारें ? नहीं, कदापि नहीं । इसका तात्पर्य यही है कि आगे आने वाले ''कल'' के लिए व्यर्थ ही चिंता करने से काम न चलेगा, वरन अपनी समस्त बुद्धि, कौशल, युक्ति और उत्साह से आज का कार्य सर्वोत्कृष्ट रूप में संपन्न करने से चलेगा । यदि हम ''आज'' का कार्य कर्तव्य समझकर संपूर्ण एकाग्रता और लगन से पूर्ण करते हैं, तो हमें ''कल'' की (भविष्य की) चिंता करने की आवश्यकता नहीं है । इसी प्रकार आप उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते हैं ।
ईसाइयों में प्रार्थना का एक अंश इस प्रकार है ''हे प्रभु! हमें आज का भोजन दीजिए । हमें आज समृद्ध कीजिए ।'' स्मरण रखिए प्रार्थना का तात्पर्य है कि ''आज'' हमें भोजन, आनंद, समृद्धि प्राप्त हो । इसमें न तो बीते हुए कल के लिए शिकायत है और न आने वाले ''कल'' के लिए याचना का भय । यह प्रार्थना हमें ''आज'' (वर्तमान) का महत्त्व स्पष्ट करती है । यदि हम आज को आदर्श रूप में अधिकतम आनंद से व्यतीत कर लें तो हमारा भावी जीवन स्वयं समुन्नत हो सकेगा । सैकड़ों वर्ष पूर्व एक निर्धन दर्शनवेत्ता ऐसे पर्वतीय प्रदेश में घूम रहा था, जहाँ लोग कठिनता से जीविकोपार्जन कर पाते थे । एक दिन उसने उन्हें एकत्रित किया और एक लघु भाषण में कहा- ''कल'' की चिंताओं में निमग्न आत्माओ! कल के भय, चिंताओं और अंधकार में क्यों इस सुनहरे वर्तमान को नष्ट कर रहे हो ? कल स्वयं अपनी चिंता करेगा । यदि तुम आज को अधिकाधिक आनंद, संतोष और आदर्श रूप में व्यतीत कर सको तो उत्तम है । परमेश्वर स्वयं तुम्हारे भविष्य को समुन्नत करने में प्रयत्नशील है ।'
' महापुरुष ईसा ने कहा है- ''कल की चिंता मत करो ।'' पर इसका वास्तविक मर्म बहुत कम लोग समझते हैं । आप कहेंगे कल की चिंता कैसे न करें ? हमारा परिवार है, हमारे बच्चों की शिक्षा, वस्त्र, भोजन, मकान की विषम समस्याएँ हैं ? कल हमें उनके विवाह करने हैं ? क्या रुपया एकत्रित किए बिना काम चलेगा ? हमें बीमा पॉलिसी में रुपया जोड़ना चाहिए ? हमारी आज नौकरी लगी है, कल छूट भी सकती है, आज हम स्वस्थ हैं, कल बीमार पड़ेंगे तो कैसे काम चलेगा ? वृद्धावस्था में हमारा क्या होगा ?
इस प्रकार की बातें ठीक हैं । एक विचारशील मस्तिष्क में ये विचार आने चाहिए । हमारा सुझाव है कि आप ''कल'' के लिए अपने आप को शक्तिशाली बनाने के लिए योग्यतर, स्वस्थ, आर्थिक दृष्टि से संपन्न होने के लिए नई योजनाओं को कार्यान्वित करें । भावी जीवन के लिए जितना संभव हो तैयारी कीजिए परिश्रम, उद्योग, मिलनसारी द्वारा समाज में अपना स्थान बनाइए पर चिंता न कीजिए । योजना बनाकर दूरदर्शितापूर्ण कार्य करना एक बात है चिंता करना दूसरी बात है । चिंता से क्या हाथ आवेगा ? जो रही सही शक्ति और मानसिक संतुलन है वह भी नष्ट हो जाएगा । चिंता तो आपको उत्साह, शक्ति और प्रसन्नता से पंगु कर देगी । जिस कठिनाई या प्रतिरोध को आप अपनी व्यक्तिगत शक्तियों से बखूबी जीत सकते थे, वह पर्वत सदृश कठिन प्रतीत होगी । चिंता आपके सामने एक ऐसा अंधकार उत्पन्न करेगी, कि आपको उस महान शक्तिकेंद्र का ज्ञान न रह जाएगा जो आदिकर्त्ता परमेश्वर ने आपके अंग-प्रत्यंग में छिपा रखा है ।
युद्ध, बीमारी, दिवाला या दु:खद मृत्यु के अंधकारपूर्ण रुदन में, शुभ चिंतन और अशुभ चिंतन में केवल यह अंतर है-अच्छा विचार वह है जो कार्य-कारण के फल को तर्क की कसौटी पर परखता है, दूर की देखता है और किस कार्य से भविष्य में क्या फल होगा इसका संबंध देखकर भावी उन्नति की योजनाएँ निर्माण करता है । सृजनात्मक विचार भावी निर्माण में पुरानी गलतियों की सजा के अनुभवों और संसार की कठोरताओं को देख-भाल कर अपनी उन्नति के लिए योजना प्रदान करता है । अच्छे चिंतन में संग्रहीत सांसारिक अनुभवों के बल पर उत्साह और आशा का शुभ्र आलोक है, कार्यनिष्ठा और साहस का बल है, शक्ति और कुशलता का पावन योग है, कार्य से भागकर नहीं वरन गुत्थियों को सुलझाकर अपूर्व सहनशक्ति का परिचय देने का विधान है ।
बुरी विचारधारा का प्रारंभ ही डर और घबराहट से होता है । कठिनाइयों आ रही हैं हमें वह कार्य करना ही पड़ेगा जो साधारणत: हमने नहीं किया है पैसा और शक्ति पास में नहीं रहेगी, फिर क्या किया जाएगा-ऐसी फालतू गलत कल्पनाएँ आकर शक्ति और उत्साह का विनाश कर देती हैं । मानसिक संतुलन नष्ट हो जाता है । इच्छाशक्ति और मनोबल पिछली गलतियों की स्मृति और वेदनाओं से नष्ट या पंगु हो जाता है । पश्चात्ताप एवं आत्मग्लानि के अंधकार में ऐसा व्यक्ति रही सही शक्ति को भी खो बैठता है । यह गलत कल्पनाएँ चिंता जैसी राक्षसी की ही संतानें हैं ।
आजकल पागलखानों तथा शफाखानों में मानसिक रोगों के जितने बीमार आते हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं, जो चिंता-भार के कारण मन को संतुलित नहीं रख सके हैं । उनके मस्तिष्क में बीते हुए जीवन का हृदयद्रावक हाहाकार, कल्पना, मौन रुदन है । प्रिय व्यक्ति के विछोह की आकुलता, पीड़ा और दुस्सह वेदना है । हजारों रुपयों की हानि की कसक है । समाज में दूसरों द्वारा की हुई मान हानि की जलन है, समाज अफसर, रूढ़ियों तथा पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह है । कोई पिटते-कुटते ऐसे जड़ निराशावादी हो गए हैं कि उनका जैसे आनंद का श्रोत ही सूख गया है । इन्हीं अनुभवों के बल पर वे भविष्य में भय से उत्पन्न दुष्प्रवृत्तियों के शिकार हैं । अपनी प्रतिकूलता के दूषित विचार उनके अंतःकरण की उत्तम योजनाओं को क्षणभर में धूल में मिला देते हैं । मनुष्य की मानसिक शक्तियों को क्षय कर चिंता में फँसाने वाला भय महाराक्षस है । भय की प्रथम संतान चिंता है । इन स्मृतियों तथा भावी दुःस्वपनों का द्वंद्व मानसिक रोगों के रूप में प्रकट होता है । अव्यक्त आशंकाएँ कुकल्पनाएँ संस्काराधीन होती हैं, वे रोग के रूप में उद्भूत होकर किसी प्रकार अपनी परितृप्ति चाहती हैं ।