Books - अध्यात्म के सही स्वरूप का पुनर्जागरण
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अध्यात्म के सही स्वरूप का पुनर्जागरण
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अध्यात्म के सही स्वरूप का पुनर्जागरण
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
गलने का नाम अध्यात्म
देवियो, भाइयो! आपको जहाँ कहीं भी वृक्ष- लता और पुष्प खिले हुए दिखाई पड़ें, समझ लेना कि यह जादू और चमत्कार उसका है, जो बीज गल गया। गले हुए बीजों का परिणाम आपको बगीचों के रूप में, फूलों के रूप में, उद्यानों के रूप में दिखाई पड़ता है। लेकिन जहाँ कहीं ऐसा दिखाई पड़ता हो कि सूखी हुई जमीन पड़ी है, सुनसान पड़ा हुआ है, जान लेना वहाँ कोई बीज गलने को तैयार नहीं हुआ। वहाँ बीजों ने गलने से इंकार कर दिया है। बीज जब कभी भी गले हैं, दुनिया में शांति आई है, दुनिया में खुशी आई है। दुनिया में व्यवस्था आई है, उन्नति आई है। हमारे भारतवर्ष में यह परंपरा रही है कि प्रत्येक व्यक्ति ने अपने जीवन की सार्थकता को इस बात से जोड़कर रखा कि मेरे गलने की प्रक्रिया कहाँ तक सफल रही। हर आदमी ने अपने आपसे हजार बार यह सवाल किया कि क्या मैं गलने में समर्थ हुआ? क्या मैं समाज के लिए गला? क्या मैं भगवान् के लिए गला? अगर गलने का जवाब यह आया कि हाँ, मैं गला, तो व्यक्तिगत जीवन में हरियाली आयेगी। सामाजिक जीवन में हरियाली आयेगी।
लेकिन मित्रो! जहाँ कहीं भी मनुष्य यह कह रहे होंगे कि हम नहीं गलेंगे, हम तो लेंगे और पायेंगे, वहाँ बड़ी मुश्किल आ जायेगी, कठिनाई आ जायेगी। वह अभागा देश ढलता हुआ चला जायेगा, पतित होता हुआ चला जायेगा, नष्ट होता हुआ चला जाएगा। वह व्यक्ति पतित होता हुआ चला जायेगा, नष्ट होता हुआ चला जायेगा, जिसके मन में गलने की तमन्ना नहीं है, गलने की उम्मीद नहीं है। जिसको केवल पाने की उम्मीद है, वह बड़ा स्वार्थी आदमी है। जिसको भगवान से सिर्फ पाना है, गुरु से सिर्फ पाना है, ऑफीसर से सिर्फ पाना है, स्त्री से सिर्फ पाना है, बाप से सिर्फ पाना है। जिसे सिर्फ पाना है, देना किसी को नहीं है, तो ऐसा मनुष्य बड़ा भाग्यहीन है और वह जीवन में दुःख पायेगा और दुःख देगा। दुःख देना इसके भाग्य में बदा है और दुःख पाना इसके भाग्य में बदा है। इसके मन में यह उमंग उत्पन्न नहीं होती कि हमको गलना है। गलने का नाम ही अध्यात्म है।
मित्रो! कभी भारतवर्ष में घर- घर में अध्यात्म था। इस समय के अध्यात्म को मैं अध्यात्म नहीं कहता। मैं तो सुबह भी आपको कह रहा था कि आज के अध्यात्म में विशुद्ध बहुरूपियापन है। कौन सा वाला? जिसमें हमने यह खयाल रखा कि कम पैसों में और कम कीमत में बड़ी चीज मिल जानी चाहिए। ठगे जाने वाले लोग और ठगने वाले लोग- दोनों की नीयत, दोनों की प्रक्रिया एक है कि कम पैसे में ज्यादा चीज मिलनी चाहिए। लॉटरी क्या है? यही कि हमको अपनी जेब में से एक रुपया खर्च करना चाहिए और तीन लाख प्राप्त करना चाहिए। कितने ही लोग हैं जिन्होंने लॉटरी के टिकट खरीदे हैं। आप उनके पास जाइये और इन्क्वायरी कीजिए कि आप लोगों में से कितने आदमी हैं जिन्होंने एक रुपये खर्च करके तीन लाख रुपये पाये हैं? आपको एक हजार में से नौ सौ निन्यानवे, एक लाख में से निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे व्यक्ति यह कहते हुए मिल जायेंगे कि हमारा एक रुपया बट्टेखाते में चला गया। जो मुनासिब कीमत चुकाये बिना लंबे- चौड़े ख्वाब देखता रहता है, उसका वह एक रुपया जाना ही चाहिए और बरबाद होना ही चाहिए।
अध्यात्म लॉटरी नहीं है
मित्रो! हमने अध्यात्म को सट्टे के रूप में, लॉटरी के रूप में इस्तेमाल किया। हमने कम से कम कीमत की चीज भगवान् को देने की कोशिश की। कम से कम चीज क्या है? जबान की नोंक, चमड़े की नोंक, जिससे कि हम सारे के सारे दिन बक- झक करते रहते हैं, गालियाँ देते रहते हैं, बेकार की बातें बकते रहते हैं, झूठ- सच बोलते रहते हैं और शेखी एवं शान बघारते रहते हैं। उसी गंदी जबान से हमने पंद्रह मिनट, दस मिनट या पाँच मिनट यह कोशिश की कि इससे कुछ मंत्र का उच्चारण कर लें। मैं आपसे मंत्र जप की बात नहीं कहता, अनुभव की बात कहता हूँ। मंत्र का जप अलग होता है। मंत्र का जप जबान से नहीं निकलता, हृदय से निकलता है और हृदय ऐसा होना चाहिए जिससे राम का नाम निकल सके। अभी तो हमारी जबान की नोंक से, उस कमीनी जीभ की नोंक से, जो कि सिवाय झूठ बोलने और बुरी बात बोलने की आदी थी, थोड़े से हरफ- अक्षर उच्चारण किये गये हैं। उससे कभी राम का नाम लिया, कभी हनुमान का नाम लिया, कभी गायत्री का नाम लिया, कभी किसी का नाम लिया और ख्वाब देखे। क्या ख्वाब देखे? यही कि भगवान्, जो सारी संपदाओं का स्वामी है, उसके प्यार का एक कण और एक किरण हमको भी मिल जाय, तो हम धन्य हो जायें। हमारा जीवन सार्थक हो जाये।
उसको प्राप्त करने के लिए हमने कितनी सारी चीजें देने की हिम्मत की और जुर्रत दिखाई। इतनी हिम्मत दिखाई कि जबान की नोंक में से थोड़े से हरफों का उच्चारण कर दिया करें। मित्रो! यह विशुद्ध रूप से लॉटरी लगाने वाली नीयत है कि इससे हमको दुनिया के लाभ और सुख- संपदाएँ, जिसमें कि दुनियाबी जीवों की भौतिक संपदाएँ भी जुड़ी हुई हैं, मिलनी चाहिए। जैसे कि हमको धन मिलना चाहिए। पैसा मिलना चाहिए, स्वास्थ्य मिलना चाहिए और हमारी शादी होनी चाहिए, बाल- बच्चे होने चाहिए और हमारी नौकरी में तरक्की होनी चाहिए। दुनिया के नौ सौ निन्यानवे फायदे हमको होने चाहिए। किस कीमत पर फायदा होना चाहिए? इस कीमत पर फायदा होना चाहिए कि हम अपनी गंदी जबान की नोंक से थोड़े से हरफों का उच्चारण करते हैं। आपकी समझ में यह बात आ गयी, पर मेरी समझ में नहीं आती कि एक हीरा जो पाँच हजार रुपये में आता है, उसे पाँच नये पैसे में दे दीजिए। बेटे, यह तेरे पाँच नये पैसे भी कोई और छीन लेगा, पर तुझे हीरा मिलने वाला नहीं है। नहीं साहब! हम तो पाँच पैसे में ही हीरा लेकर जायेंगे। बेटे, यह गलत बात है। ऐसा नहीं हो सकता। पाँच नये पैसे में हीरा कभी नहीं आयेगा।
साथियो! अध्यात्म का मतलब लोगों ने सिर्फ इतना कैसे मान लिया, यह देखकर मुझे बड़ी हैरत होती है। और बड़ा अचंभा होता है। इन थोड़े से हरफों का उच्चारण क्या हमको भगवान् को दिला सकता है? क्या हमारे जीवन में सुख- शांति आ सकती है? क्या हमको प्रगति के मार्ग पर चलने का मौका मिल सकता है? बिल्कुल नामुमकिन है। हिन्दुस्तान जैसा पूजा- पाठ करने वाला मुल्क दुनिया में शायद कहीं भी आपको नहीं मिलेगा। ईसाई लोग हर इतवार के दिन गिरजे में जाकर के घुटने टेक करके बैठ जाते हैं। थोड़ी देर प्रार्थना करके चले जाते हैं। हिन्दुस्तान में आपको अधिकांश लोग ऐसे मिलेंगे जो सारा दिन माला घुमाते ही मिलेंगे। कौन क्या कर रहा है। कोई रामायण पढ़ रहा है, कोई गीता पढ़ रहा है, कोई भागवत् पढ़ रहा है। सारे के सारे मस्तिष्क से विकृत, सारे के सारे मनोविकारों, बीमारियों के जखीरे जिनके ऊपर जमा हैं और असंख्य कठिनाइयों में दबे पड़े हैं। ये कौन आदमी हैं जिन्होंने राम के नाम का माहात्म्य जमीन से लेकर आसमान तक लिया और यह देखा कि हम सत्संग सुन लेंगे, कथा सुन लेंगे, भागवत् सुन लेंगे और यह जप कर लेंगे, वह जप कर लेंगे, तो जीवन मुक्त हो जायेंगे। जीवन धन्य हो जायेगा।
राम का नाम नहीं काम जरूरी
मित्रो! अध्यात्म वहाँ से शुरू होता है, जहाँ से आप राम का नाम लेना शुरू करते हैं और राम का नाम लेने के बाद राम का काम करने की हिम्मत दिखाते हैं और राम की ओर कदम बढ़ाने की जुर्रत करते हैं। राम की ओर कदम बढ़ाना वह है जिसमें हमको गलना सिखाया जाता है। प्राचीनकाल में हमारे ऋषियों ने जीवन का एक चौथाई हिस्सा गलना सिखाने के लिए छोड़ रखा था। उन्होंने हर इंसान से कहा था कि आपको अपनी जिंदगी का एक चौथाई हिस्सा गलने के लिए लगाना चाहिए। समाज को अच्छा बनाने के लिए, बेहतरीन बनाने के लिए लगाना चाहिए, लेकिन आज वह परंपराएँ समाप्त हो गयीं। इसलिए हिन्दुस्तान खुशहाल नहीं हो सकता। हो भी कैसे सकता है? जिस देश में समाज को ऊँचा उठाने के लिए, मानव जाति की पीड़ा और पतन को दूर करने के लिए आदमी कुरबानी करने के लिए तैयार न हों, वहाँ किस तरीके से खुशहाली आ सकती है?
मित्रो! हमारे अध्यात्म का क्रम ही गंदा हो गया। पहले अध्यात्म का क्रम साबुन के तरीके सा था। इसमें से कितने आदमी निकलते थे और दुनिया की सफाई करते थे तथा दुनिया में शांति लाते थे। लेकिन आज वही अध्यात्म का क्षेत्र बहिरंग जीवन से एवं अंतरंग जीवन से- दोनों से भिखारी हो गया। फिर हम कैसे कह सकते हैं कि हमारे अध्यात्म का बहिरंग जीवन भिखारियों का जीवन नहीं है। संतों के पास जाइये और तलाश कीजिए कि उनका बहिरंग जीवन क्या है? आपको उनका जीवन भिखारियों जैसा मालूम पड़ेगा। वे यहाँ से पैसा माँगते हैं, वहाँ से पैसा माँगते हैं। यहाँ रोटी माँगते हैं, वहाँ दान माँगते हैं, दक्षिणा माँगते हैं। उनका बहिरंग जीवन भिखारियों जैसा है। इसी तरह पंडित के पास जाइये, ज्ञानी के पास जाइये, पुरोहित के पास जाइये- सभी का बहिरंग जीवन भिखारियों जैसा है। मित्रो! हम कैसे कह सकते हैं कि उनका जीवन शानदार है। जिसका अंतरंग जीवन भिखारी है तो हम कैसे कहें कि इसके पास अध्यात्म की हवा आ गयी, अध्यात्म का नशा आ गया। मित्रो! भिखारी आदमी अध्यात्मवादी नहीं हो सकता। अध्यात्मवादी आदमी देने वाला होता है, प्यार करने वाला होता है। भक्ति का मतलब प्यार करना होता है।
लेकिन हमारा अंतरंग जीवन भिखारी जैसा है। जहाँ कहीं भी गये, हाथ पसारते हुए गये। लक्ष्मी जी के पास गये तो हाथ पसारते हुए गये, संतोषी माता के पास गये तो हाथ पसारते हुए गये। हनुमान जी के पास गये तो हाथ पसारते हुए गये। दर- दर पर हम कंगाल होकर गये। मित्रो! क्या अध्यात्मवादी दर- दर माँगने वाला कंगाल होता है? नहीं, अध्यात्मवादी कंगाल नहीं होता है। वह राजा कर्ण के तरीके से दानी होता है, उदार होता है, उदात्त होता है। लेकिन जब हम तलाश करते हैं कि हिन्दुस्तान में कहीं भी क्या अध्यात्म जिंदा है, तो हमको पुजारियों की संख्या ढेरों की ढेरों दिखाई पड़ती है, पर अध्यात्म हमको कहीं दिखाई नहीं पड़ता है। यह देखकर हमारी आँखों में चक्कर आ जाता है कि हिन्दुस्तान में से अध्यात्म खत्म हो गया। दूसरे देशों में अध्यात्म है। इंग्लैण्ड और दूसरे देशों में जब हम पादरियों को देखते हैं, जहाँ खाने- पीने और रहने की सुविधाएँ हैं, जहाँ सड़कें हैं, जहाँ रेलगाड़ियाँ हैं, जहाँ टेलीफोन हैं, जहाँ बिजली है, उन सुविधाओं को छोड़ करके अफ्रीका के कांगो के जंगलों में, हिन्दुस्तान के बस्तर के जिलों में, नागालैण्ड के जंगलों में चले जाते हैं, जहाँ सिवाय कष्ट और तकलीफ के और क्या मिल सकता है? वहाँ कोई चीज नहीं है। मेरे मन में आता है कि इनके पैर धोकर पीना चाहिए। क्यों? क्योंकि इन्होंने अपनी जिंदगी में अध्यात्म को समझा है। अध्यात्म का स्वरूप और मर्म समझा है कि अध्यात्म किसे कहते हैं और धर्म किसे कहते हैं।
मित्रो! हमने तो इनका मर्म कभी समझा ही नहीं। हमने तो रामायण को पढ़ने का मतलब ही धर्म मान लिया। हमने तो माला घुमाने को ही धर्म मान लिया। हमारी यह कैसी फूहड़ व्याख्या है? इन व्याख्याओं का मतलब कुछ भी नहीं है। जिस स्तर के हम लोग हैं, ठीक उसी स्तर की व्याख्या हम लोगों ने कर ली हैं। ठीक उसी स्तर के भगवान् को हमने बना लिया है। ठीक उसी स्तर की भगवान् की भक्ति को बना लिया है। सब चीजें हमने उसी तरह से बना ली हैं जैसे कि हम थे।
मित्रो! हमको संसार में फिर से अध्यात्म लाना है, ताकि हमारे और आपके सहित हर आदमी के भीतर एवं चेहरे में चमक आये, तेज आये और हम सब विभूतिवान होकर जियें। हम शानदार होकर जियें और जहाँ कहीं भी हमारी हवा फैलती हुई चली जाय, वहाँ चंदन की तरीके से हवा में खुशबू फैलती हुई चली जाय। गुलाब की तरीके से हवा में हमारी खुशबू फैलती हुई चली जाय। हम जहाँ कहीं भी अध्यात्म का संदेश फैलाएँ, वहाँ खुशहाली आती हुई चली जाय। इसलिए मित्रो! हम अध्यात्म को जिंदा करेंगे। उस अध्यात्म को, जो ऋषियों के जमाने में था। उन्होंने लाखों वर्षों तक दुनिया को सिखाया, हिन्दुस्तान वालों को सिखाया, प्रत्येक व्यक्ति को सिखाया। लेकिन वह अध्यात्म अब दुनिया में से खत्म हो गया, अब नहीं है। हिन्दुस्तान में तो नहीं ही रह गया है और दुनिया में कहीं रहा होगा तो रहा होगा। हिन्दुस्तान में हम फिर से उसी अध्यात्म को लायेंगे जिससे कि हमारी पुरानी तवारीख को इस तरीके से साबित किया जा सके। फिर हम दुनिया को वही शानदार लोग देने में समर्थ हो सकेंगे, जैसे कि वैज्ञानिकों ने दिये हैं।
मित्रो! वैज्ञानिकों को धन्यवाद है कि उन्होंने हमारे लिए पंखे दिये, बिजली दी, टेप रिकार्डर दिये, घड़ी दी। ये चारों चीजें लिए हम यहाँ बैठे हैं। उनको बहुत धन्यवाद है। और अध्यात्म विज्ञान का? अध्यात्म विज्ञान का अहसान इससे लाखों गुना बड़ा था। उसने हमारे बहिरंग जीवन के लिए सुविधाएँ दीं और आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य के भीतर दबी हुई खदानें, जिनमें हीरे भरे हुए हैं, जवाहरात भरे हुए हैं और जाने क्या- क्या भरे हुए हैं, उन्हें खोदकर, उभारकर बाहर निकाला। अध्यात्म इस छोटे से इंसान को, नाचीज इंसान को जाने क्या से क्या बना कर रख देता है। ऐसा है अध्यात्म, जो एक जुलाहे को कबीर बना देता है, एक छोटे से व्यक्ति को संत रविदास बना देता है, नामदेव बना देता है। यह छोटे- छोटे आदमियों को, बिना पढ़े लिखे आदमियों को जाने क्या से क्या बना देता है। यह बड़ा शानदार अध्यात्म है और बड़ा मजेदार अध्यात्म है।
शानदार अध्यात्म का पुनर्जागरण
मित्रो! इस शानदार अध्यात्म और मजेदार अध्यात्म से क्या मतलब है? और हमें क्या करना चाहिए? हमको उस अध्यात्म को पुनः जाग्रत करना चाहिए। हमको यह तलाश करना चाहिए कि हम वे ऋषि कहाँ से लायें? ब्राह्मण कहाँ से लायें? हम ज्ञानी कहाँ से लायें? पंडित कहाँ से लायें? वे व्यक्ति जिनके भीतर आध्यात्मिकता का प्रकाश आ गया है, वो व्यक्ति हम कहाँ से लायें? हमें बड़ी कठिनाई होती है कि हम ऐसे व्यक्ति कहाँ से लायें जो अपनी जिंदगी का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा लगा सकें। हमको बड़ी निराशा होती है, खासतौर से उन लोगों से जिनके ऊपर जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। जिनके घर में बच्चे बड़े हो गये हैं और जो कमाने- खाने लायक हो गये हैं, वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। जिनके पास घर में पैसा है, वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। लोभ और मोह ने इनको कसकर जकड़ रखा है और इनको हिलने नहीं देता। इसलिए हम उनको कहाँ से लायें जो वानप्रस्थ परंपरा की- अध्यात्म की रीढ़ हैं, जिन्होंने अध्यात्म को जिंदा रखा था और जिंदा रखेंगे, उन्हें हम कहाँ से लायें?
मित्रो! आज आदमी लोभ में और मोह में इतना डूब गया है और बहाना यह बनाता है कि मैं तो भागवत् पढ़ता हूँ, रामायण पढ़ता हूँ। बेटे, तेरी काहे की रामायण और कहाँ की भागवत्? तू इन्हें बदनाम करता है। गायत्री को भी बदनाम करता है, संतोषी माता को भी बदनाम करता है। बेटे, तू बेकार में अध्यात्म का नाम बदनाम करता है। जैसा तू कमीना है, जैसा तू चालाक है, जैसा तू लोभी है, जैसे तू मोह में डूबा हुआ है, वैसे ही तू भगवान् को भी क्यों बनाये देता है। भगवान् शानदार हैं और उनको शानदार ही रहने दे। नाम लेना बंद कर दे। तेरे राम का नाम लेने से क्या फायदा? राम का नाम और बदनाम हो जायेगा। कोई यह कहे कि हम तो गुरु जी के चेले हैं और वहाँ शराब पीने और जुआ खेलने में पकड़ा जाय तो गुरुजी भी बदनाम होंगे। लोग कहेंगे कि तेरा गुरु भी चालाक होगा, चल बता, कहाँ है तेरा गुरु? उसको भी गिरफ्तार करके लायेंगे। जिस तरह से हम हैं, उसके कारण भगवान् भी गिरफ्तार कर लिया जायेगा। जैसे कुछ हम हैं, उसी तरीके से भगवान् भी पकड़ा जायेगा। इसलिए आप भगवान का नाम लेना बंद कर दीजिए।
मित्रो! हमें ऐसे अध्यात्मवादियों की, राम का नाम लेने वाले मनुष्यों की जरूरत है, जो शानदार आदमी हों, इज्जतदार आदमी हों। जिन्होंने इसका महत्त्व समझा हो कि शानदार और इज्जतदार जिंदगी कैसे जियी जा सकती है, हमें ऐसे आदमियों की आवश्यकता है। लेकिन बड़ी भारी मुश्किल यह है कि ऐसे आदमी कहाँ से लायें? यह देखकर हमारी आँखों में आँसू आ जाते हैं। तो क्या ऐसे आदमियों की कमी है? नहीं, कोई कमी नहीं है। जो रिटायर हो चुके हैं, ऐसे ढेरों आदमी भरे पड़े हैं जिनके घर वाले चाहते हैं कि हे भगवान्! यह मौत के मुँह में चला जाय, मर जाय, तो अच्छा है। घर में इनकी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन वे इतने मोह में डूबे हुए हैं कि घर से निकल नहीं सकते। कौन हैं वे आदमी? वे आदमी जिनके बच्चे कमाने लायक हो गये हैं, जिनके पास गुजारे के लायक दो पैसे मौजूद हैं। वे नहीं निकलेंगे। हम और आप निकल सकते हैं, लेकिन वे कभी नहीं निकलेंगे।
संतों की नयी पीढ़ी का निर्माण
इसलिए मित्रो! हमने यह निश्चय किया है कि अब हम ब्राह्मणों की नई पीढ़ी पैदा करेंगे और संतों की नयी पीढ़ी पैदा करेंगे। किस तरीके से पैदा करेंगे? हम एक- एक बूँद घड़े में इकट्ठा करके एक नयी सीता बनायेंगे। जिस प्रकार से ऋषियों ने एक- एक बूँद रक्त देकर के एक घड़े में एकत्र किया था और उस घड़े को सँभाल करके जमीन में गाड़ दिया था। फिर उस घड़े में से सीता पैदा हो गयी थीं। आध्यात्मिकता को पैदा करने के लिए हम उन लोगों के भीतर, जिनके भीतर पीड़ा है, जिनके अंदर दर्द है, लेकिन घर की मजबूरियाँ जिनको चलने नहीं देतीं। घर की मजबूरियों की वजह से जो एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकते, अब हमने उनकी खुशामद करनी शुरू कर दी है। हमने उन लोगों के लिए रास्ता छोड़ दिया है और उनको नमस्कार कर लिया है जिनकी गर्दन को लक्ष्मी ने, मोह ने और लोभ ने दबोच लिया है। इनसे अब हमें कोई आशा नहीं रही।
मित्रो! अब हमने आपका पल्ला पकड़ा है जिनके पास बीबी- बच्चों की जिम्मेदारियाँ हैं। जिनको अपना पेट भरने की जिम्मेदारी है, हमने आपकी खुशामद करना शुरू कर दिया है। हमने उन लोगों की ओर से मुँह मोड़ लिया है, जिनकी ओर से निराशा थी। संतों की ओर से हमने मुँह मोड़ लिया है। संतों से हमें कोई आशा नहीं रही। हिन्दुस्तान में छप्पन लाख संत हैं और सात लाख गाँव हैं। हर गाँव पीछे आठ संत आते हैं। अगर संतों में संतपन रहा होता, तो हर गाँव में धर्म की भावनायें उत्पन्न करने के लिए, निरक्षरों की समस्याओं को दूर करने के लिए, सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए, नशेबाजी को दूर करने के लिए, माँसाहार को दूर करने के लिए, दुराचार को दूर करने के लिए हम एक गाँव पीछे आठ आदमी मुकर्रर कर सकते थे। आठ आदमी अगर मुकर्रर हो जाते तो हिन्दुस्तान का कायाकल्प हो जाता। फिर वह प्राचीनकाल का वही सभ्य देश हो जाता। पर हम जानते हैं कि संसार में बहुत सारे नशे हैं, उनमें से एक नशा अध्यात्म भी है, जो आदमी को संकीर्ण बना देता है और बुज़दिल बना देता है और चालाक बना देता है। इस अध्यात्म ने लोगों को चालाक और बुज़दिल बना दिया।
मित्रो! हम उनसे क्या आशा करेंगे जो लम्बे तिलक लगाते हैं और लम्बी कंठी पहनते हैं। यह किसी काम आ सकती है? किसी काम नहीं आने वाली। वे चालाक आदमी हैं, इसलिए हमने संतों को नमस्कार कर लिया। हमने उनके बहुत चक्कर काट लिए और बहुत खुशामदें कर लीं, उनकी बहुत प्रार्थना कर ली और उनके बहुत हाथ- पैर जोड़ लिए कि हिन्दुस्तान बड़ा गरीब है, बड़ा दुःखी है और बड़ा पिछड़ा हुआ देश है। आप इसके लिए अपना पसीना बहाने के लिए खड़े हो जायें, तो हर मनुष्य के भीतर ईमान जगाया जा सकता है, शांति लाई जा सकती है, प्रेरणा भरी जा सकती है। भगवान् जगाया जा सकता है। पर उनसे हमको कोई उम्मीद नहीं रही, क्योंकि जिस आदमी ने लॉटरी लगाना सीख लिया, सट्टा लगाना सीख लिया। फिर ऐसा आदमी कड़ी मेहनत क्यों करेगा? मजदूरी क्यों करेगा? नौकरी क्यों करेगा? जिस आदमी के हाथों नुस्खा लग गया है कि हमारे पाप तो गंगाजी में डुबकी मारने के बाद दूर हो ही जाना है। और सवा रुपये की सत्य- नारायण की कथा सुनने के बाद बैकुंठ मिल जाने वाला है। इतने सस्ते नुस्खे जिसके हाथ लग गये हैं, भला वो त्याग का जीवन जियेगा क्यों? कष्टमय जीवन जियेगा क्यों? त्याग करने के लिए तैयार होगा क्यों? संयम और सदाचार का जीवन व्यतीत करने के लिए अपने आपसे जद्दोजहद करनी पड़ती है। उसके लिए तैयार होगा क्यों? उसको तो किसी ने ऐसा नुस्खा बता दिया है कि तुमको समाज के लिए कोई त्याग करने की जरूरत नहीं है। अपने आपको संयमी और सदाचारी बनाने के लिए और तपस्वी बनाने के लिए कोई जरूरत नहीं है। आप तो सवा रुपये की कथा कहलवा लिया करिये और आपके लिए बैकुंठ का दरवाजा खुला हुआ पड़ा है।
मित्रो! यह झूठा और बेबुनियादी अध्यात्म जिनके दिमाग पर हावी हो गया है, उनको मैं अब कैसे बता सकता हूँ कि आपको त्याग करना चाहिए और सेवा करनी चाहिए और कष्ट उठाने चाहिए। उनके लिए यह नामुमकिन है जो इतना सस्ता नुस्खा लिए बैठे हैं। वे शायद कभी भी तैयार नहीं होंगे। उनको मैं कैसे कह सकता हूँ। हमारा अध्यात्म कैसा घृणित हो गया है। मुझे दुःख होता है, बड़ा क्लेश होता है, मुझे रोना आता है, मुझे बड़ी पीड़ा होती है और मुझे बड़ा दर्द होता है, जब मैं अध्यात्म की ओर देखता हूँ जिसका कलेवर रावण जैसा बढ़ा हुआ है। जब मैं रामायण के पाठ होते हुए देखता हूँ, शत- चंडी यज्ञ होते हुए देखता हूँ और अखण्ड कीर्तन होते हुए देखता हूँ। रावण के तरीके से धर्म का कलेवर बढ़ा हुआ देखता हूँ, तो यह मालूम पड़ता है कि इसमें से प्राण निकल गया। जीवन इसमें से निकल गया। इसमें से दिशायें निकल गयीं। इसमें से रोशनी निकल गयी। इसमें से जिंदगी निकल गयी। अब यह अध्यात्म की लाश खड़ी है।
मित्रो! कहीं अखण्ड कीर्तन हो रहे हैं, कहीं अखण्ड रामायण पाठ हो रहा है, कहीं क्या हो रहा है, कहीं क्या हो रहा है? यह सारे के सारे कर्मकाण्ड बड़े जोरों से चल रहे हैं। लेकिन जब हम वही अखण्ड पाठ करने वालों और अखण्ड रामायण पढ़ने वालों के जीवनों को देखते हैं कि क्या उनके भीतर वह माद्दा है, जो अध्यात्मवादी के भीतर होना चाहिए? क्या इनके जीवन के क्रियाकलाप वह हैं, जो अध्यात्मवादी के होने चाहिए? हमको बड़ी निराशा होती है जब यह मालूम पड़ता है कि सब कुछ उलटा- पुलटा हो रहा है। अध्यात्म की दिशायें अच्छी हैं, पर हो बिल्कुल उलटा रहा है।
नई पीढ़ी को आवाहन
मित्रो! यह सब देखकर हमको बड़ा दुःख होता है। इसलिए निराश होकर हमको यह कहना पड़ा। आप लोगों को, जवान आदमियों को कहना पड़ा कि आप लोग आइए और अपने बच्चों को कहिए कि उन्हें एक महीने भूखों रहना पड़ेगा और एक महीना बिना कपड़ों के रहना पड़ेगा। आप ऐसा कहिए और खुद ही उस अभाव की पूर्ति करने के लिए खड़े हो जाइये, जिस अभाव की पूर्ति करने के लिए संतों ने मना कर दिया है, जिस अभाव की पूर्ति करने के लिए पुरोहितों ने मना कर दिया है। जिस अभाव की पूर्ति करने के लिए धर्मगुरुओं ने मना कर दिया है और जिस अभाव की पूर्ति करने के लिए पुजारियों ने मना कर दिया है और रामायण पाठ करने वालों ने मना कर दिया है। और जिनके पास पैसा है, उन्होंने मना कर दिया है। जिनके पास समय है, उन्होंने मना कर दिया है। हर एक ने मना कर दिया है। उनसे निराश होकर के हमने आपका पल्ला पकड़ा है। हम आपकी, उन आदमियों की खुशामद करते हैं, जिनके ऊपर गृहस्थी की बड़ी जिम्मेदारी पड़ी है। जिनके दो- दो, चार- चार बच्चों की शादियाँ करने को पड़ीं हैं। जिनके लिए माँ- बाप के लिए खर्च उठाने के लिए पड़ा है। हम उन सभी की खुशामद करने के लिए निकले हैं और हमने मुनासिब कदम उठाया है।
मित्रो! यह कदम हमने कहाँ से सीखा? यह कदम हमने अपने एक पड़ोसी देश से सीखा। वह कौन सा देश है? वह हिन्दुस्तान की सीमा से लगा हुआ बर्मा देश है। बर्मा के बाद में एक और देश में चले जाइये जो बर्मा की सीमा को पार करके आता है। उसका नाम स्याम है। हमारे इस पूर्वी एशिया का बड़ा मालदार देश है। सम्पन्न देश है, खुशहाल देश है। विद्या की दृष्टि से वहाँ बिना पढ़े लोग नहीं हैं। वहाँ अशिक्षित लोग नहीं हैं। बीमार लोग नहीं हैं। देश जरा सा है, लेकिन खुशहाली का ठिकाना नहीं। यह खुशहाली किस तरीके से आ गयी? यह सारा का सारा देश बौद्ध है। एक ही देश दुनिया में है जो विशुद्ध रूप से बौद्ध है। आपको दुनिया की तवारीख में देखने का हो, हिस्ट्री में देखने का हो, तो वहाँ जाइये जहाँ कि पूरी गवर्नमेन्ट बौद्ध है। दुनिया भर में वह एक ही देश है और उसका नाम है ‘स्याम’। प्राचीनकाल में वहाँ बौद्ध भिक्षु हुआ करते थे। अब तो बौद्ध भिक्षु नहीं रहे। अब तो भिक्षुक रह गये हैं।
मित्रो! भिक्षु और भिक्षुक का फर्क तो आप जानते हैं? भिक्षु और भिक्षुक में जमीन आसमान का फर्क है। भिक्षु अलग होते हैं, जो संसार में शांति स्थापित करने के लिए अपना जीवन अर्पित करने के लिए तत्पर रहते हैं। और भिक्षुक? भिक्षुक भिखारियों को कहते हैं। प्राचीनकाल में भिक्षु थे। भिक्षु किसी तरीके से रोटी तो खा लेते थे, लेकिन अपनी सारी जिंदगी का बहुमूल्य ज्ञान लोगों को बाँटते रहते थे और बिखेरते रहते थे। किसी जमाने में बौद्ध भिक्षुओं की बहुत बड़ी संख्या थी। भगवान् बुद्ध जिस किसी के पास गये, उसको उन्होंने यही नसीहत दी और यही उपदेश दिया कि आपको भिक्षु हो जाना चाहिए। नये छोकरे आये। उन्होंने कहा कि गुरुदेव क्या आज्ञा है? उन्होंने कहा- बेटा! भिक्षु हो जा। भिक्षु का मतलब हराम की कमाई खाने वाला नहीं है। भिक्षु का मतलब वह है- जो अपने आपको तपाता है। जो अपने आपको मुसीबत में डालता है। जो अपने आपको दुःख में धकेलता है। जो अपने आपको अभाव में धकेलता है। जो अपने आपको कंगाली में धकेलता है। इन सब चीजों में धकेलने के बाद अपनी खुशहाली को दुनिया में बिखेर देता है। उस आदमी का नाम है- भिक्षु।
भिक्षुक नहीं, भिक्षु बनें
मित्रो! भगवान् बुद्ध के पास जो नये लड़के आये, उन्होंने उनसे कहा- ‘बेटे, तुमको भिक्षु हो जाना चाहिए।’ उनने कहा- ‘गुरुदेव आपकी आज्ञा है तो मैं हो जाता हूँ।’ लड़कियाँ आईं और उन्होंने कहा- ‘गुरुदेव! हमारे लिए क्या आज्ञा है? आप हमें धर्म का मार्ग बताइये। हमको खुशहाली का मार्ग बताइये। हमारे संतान नहीं होती। बेटी, बेटे दिलवाने का रास्ता बताइए।’ उन्होंने कहा- ‘बेटी को जहन्नुम में झोंक दे और तू मेरे साथ आ जा। समाज में जा। महिला समाज में अज्ञान फैला हुआ है, उसको दूर करने के लिए आगे बढ़।’ बस क्या था? उन छोकरियों ने भी बुद्ध का प्रकाश ग्रहण किया और भिक्षु हो गयीं। ढाई लाख के करीब उन्होंने नौजवानों को भिक्षु और भिक्षुणी बनाया। किसने बनाया? भगवान् बुद्ध ने। क्या किया उन्होंने? हिन्दुस्तान में वाममार्ग की विचारधारा के नाम पर हिंसाएँ, अनाचार का जो साम्राज्य छाया हुआ था। दुनिया में अज्ञान का जो अँधेरा छाया हुआ था। उन ढाई लाख व्यक्तियों ने अपने आपको गला करके और बरबाद करके दुनिया में खुशहाली पैदा की और शांति पैदा की, उन्नति पैदा की।
मित्रो! धीरे- धीरे वे बौद्ध भिक्षु लुप्त होते चले गये और जैसे हिन्दुस्तान में भिक्षुक पैदा हो गये हैं, उसी तरीके से बौद्धों में भी वही हवा आई। उसमें भी भिक्षुक पैदा हो गये हैं और भिक्षु खत्म हो गये हैं। अब स्याम देश में क्या करना पड़ा? वहाँ के लोग बहुत समझदार हैं। उन्होंने कहा कि हममें से हर एक आदमी को एक साल के लिए संन्यास लेना चाहिए और एक साल के लिए भिक्षु बनना चाहिए। वहाँ के प्रत्येक परिवार की परंपरा है कि एक वर्ष के लिए हर आदमी को भिक्षु होना ही चाहिए। बौद्ध विहारों में रहना ही चाहिए। बौद्ध विहारों में रहकर तप करना ही चाहिए। तप करने का मतलब समाज के लिए, सेवा करने के लिए, कष्ट उठाने के लिए होता है। सारे के सारे स्याम देश में इस परंपरा को जीवंत रखने का अब एक ही तरीका है कि बौद्ध विहार इस बात की जिम्मेदारी उठाते हैं कि हम देश को साक्षर बनायेंगे। एक महीने ट्रेनिंग देने के बाद उनको ग्यारह महीने के लिए अध्यापक बनाकर भेज देते हैं।
जब स्कूलों की एक महीने की छुट्टी होती है, उस समय में आदमी को विहारों में रहना पड़ता है और विहार में रहने के बाद में फिर वे चले जाते हैं। जिन्होंने हाई स्कूल पास किया है, वे प्राइमरी स्कूल को पढ़ाते हैं। जिन्होंने एम.ए. किया है, वे बी.ए. वाली क्लास को पढ़ाते हैं। अस्पतालों से लेकर समाज सेवा के असंख्यों कार्यों तक सारे के सारे जो कार्य होते हैं, उन बौद्ध भिक्षुओं द्वारा होते हैं। सब मिलाकर दुनिया भर में एक लाख बौद्ध भिक्षुओं द्वारा होते हैं। सब मिलाकर दुनिया भर में एक लाख बौद्ध भिक्षु हैं, जो स्याम के मठों में निवास करते हैं। एक चला जाता है और दूसरा आ जाता है। गवर्नमेंट ने भी केवल चोर, उठाईगीरों को पकड़ने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली है। चुंगी वसूल करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर रखी है, लेकिन सार्वजनिक कार्यों की सारी की सारी जिम्मेदारी बौद्ध धर्म के ऊपर छोड़ रखी है। बौद्ध विहार अपनी आवश्यकता जनता से मिले दान से, दक्षिणा से पूरी कर लेते हैं। क्योंकि हर आदमी जानता है कि हम एक साल के लिए वहाँ बौद्ध विहार में गये थे। हम एक साल वहाँ रहे थे और रोटी हमको वहीं से मिली थी, कपड़ा हमको वहीं से मिला था। इसलिए हमको अपनी कमाई का एक हिस्सा बौद्ध विहार को देना चाहिए, ताकि अपने देश की शिक्षा और संस्कृति को जिंदा रखा जा सके।
मित्रो! वहाँ का हर आदमी यही समझता है कि हमारी कमाई का एक हिस्सा विहार को जाना ही चाहिए। भिक्षुओं की ज्यादातर आवश्यकताएँ इसी से पूरी हो जाती हैं, अगर कुछ कमी पड़ती है तो उसे गवर्नमेंट पूरा कर देती है। बस, सारे के सारे देश का यही हाल है। वहाँ का सिक्का क्या है? वहाँ का सिक्का इतना शानदार और मजबूत है कि उसके बराबर सारे एशिया में किसी का सिक्का नहीं है। वहाँ करोड़ों रुपया उस देश का जमा है। हर आदमी के पीछे आमदनी और माली हालत इतनी अच्छी है कि और किसी की भी नहीं है। स्याम देश के बारे में शायद अपने अखण्ड ज्योति के जनवरी के अंक में पढ़ा हो, जिसमें मैंने इस देश के बारे में लिखा है। स्याम देश के बारे में मेरे पास एक किताब है, फुरसत मिल जाय तो आप उसे पढ़ना कि वहाँ की खुशहाली सारे एशिया में किस तरीके से बढ़ी।
मित्रो! अब हम अपने देश की खुशहाली बढ़ायेंगे और दुनिया की खुशहाली बढ़ायेंगे। न केवल भौतिक खुशहाली बढ़ायेंगे, न केवल लोगों के अन्दर से गरीबी दूर करेंगे, वरन् इंसान के भीतर दीनता के जो भाव समा गये हैं, उन्हें भी दूर करेंगे। यह बीमारी उससे भी ज्यादा कष्टदायी है, जो हमको बुखार, खाँसी, दर्द, घुटने की बीमारी और कमर के दर्द के रूप में कष्ट देती है। उससे हजार गुना ज्यादा जबरदस्त दीनता की बीमारियाँ हैं, जो हमारे ऊपर हावी हो गयी हैं और जिन्होंने हमारा ईमान, हमारा दिल और हमारा दिमाग चकनाचूर करके फेंक दिया है। अब हम उसी शान से लड़ाई लड़ेंगे जिस तरीके से स्याम के निवासी लड़ते रहे हैं।
दीपक बनें, औरों के लिए जलें
मित्रो! हमने आपकी खुशामद की और आपने हमारी प्रार्थना मंजूर कर ली। हमारे लिए यह बहुत ही प्रसन्नता की बात है। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं है। जब हम आप जैसे नौजवानों को, नई पीढ़ी के लोगों को, खासतौर से उन आदमियों को जिनके पास बीबी- बच्चों की जिम्मेदारियाँ है, उनका पेट भरने का वजन जिनके ऊपर लदा हुआ है। हम आपको पा करके कितने खुश हैं, कह नहीं सकते। अब हम उन भाग्यहीन लोगों को चैलेंज करेंगे, जिनके ऊपर न घर की जिम्मेदारियाँ हैं, न पैसे की जिम्मेदारियाँ हैं। न रोटी कमाने की चिंता है। रोटियाँ तो उनके घर में संदूकों में भरकर रखी हुई हैं और जिनके ऊपर जिम्मेदारियों का एक कण भी नहीं है। लेकिन अभागे मनुष्य सिवाय इसके- अपने पेट के लिए, पैसे के लिए, अपनी हवस पूरी करने के लिए और वासनाओं को पूरा करने के लिए जिंदगी तबाह करते रहते हैं।
बच्चो! हम आपको दुनिया के सामने नमूने के तौर पर पेश करेंगे। हम आपको अपनी कुर्सी पर खड़ा करेंगे। मेज पर खड़ा करेंगे और दुनियावालों को दिखायेंगे कि ईमानवाले ऐसे होते हैं कि उनके ऊपर वजन भी पड़ा हो, कष्ट भी पड़ें हों, मुसीबत भी पड़ी हो, गरीबी की मार भी पड़ी हो, बड़ी जिम्मेदारियों का बोझ भी पड़ा हो, फिर भी वे शानदार आदमी होते हैं। आप हमारी इज्जत हैं, आप हमारी शान हैं। भारतवर्ष की आध्यात्मिकता की जीवंत मिसाल हैं। आपके आने की हमको बहुत खुशी है। हम आपसे बड़े महत्त्वपूर्ण काम कराना चाहेंगे। लेकिन आपसे महत्त्वपूर्ण काम कराने से पहले हमको एक काम करना पड़ेगा। क्या करना पड़ेगा? यह काम करना पड़ेगा कि आप स्वयं इस लायक हो जायें कि दूसरों को प्रकाश देने की स्थिति में आ जायें। दीपक पहले स्वयं जला करता है। दीपक में रोशनी पहले खुद पैदा होती है। उसमें खुद रोशनी हो जायेगी तो बाहर भी प्रकाश फैलायेगा। दुनिया में आपने ऐसा कोई दीपक देखा है जिसके अंदर स्वयं प्रकाश न हो और बाहर प्रकाश करता फिरता हो। दुनिया में ऐसा प्रकाश कहीं हो ही नहीं सकता। हम आपको प्रकाशवान बनायेंगे। हम आपके भीतर प्राण भरेंगे। हमने जो यहाँ आपको एक महीने के लिए बुलाया है, उसमें कुछ ऐसी कीमती चीजें देने के लिए बुलाया है जिसको पा करके आप निहाल हो जायेंगे।
मित्रो! हम आपको क्या चीज देंगे? यहाँ सामान्यतः मोटे रूप से शिक्षण चलता रहेगा। हमारे दो प्रवचन होते रहेंगे। उनकी कोई कीमत है? आपने अखण्ड ज्योति पढ़ी है और हमेशा मेरे प्रवचन सुने हैं। हमारे व्याख्यान आपने दूसरी जगह भी सुने होंगे। मेरे विचारों की आपको जानकारी है। आपको अगर जानकारी न होती तो आप यहाँ क्यों आते? मेरे पास कोई और विचार बाकी रह नहीं गया है, जो मैंने कभी अखण्ड ज्योति में छापा न हो और पुस्तकों में छापा न हो। ठीक है आपके समय का आक्षेप होता हुआ चला जाय, इसलिए हम यहाँ दो प्रवचन बराबर करते रहेंगे। एक घंटे सबेरे किया करेंगे और एक घंटे शाम को करेंगे। आपकी भूख दूर करने के लिए जिस तरह हम आपको दो बार खाना खिलाते हैं और फुर्ती लाने के लिए दो बार चाय पिलाते हैं। इसी तरीके से दो डोज हम आपको रोज पिलाते रहेंगे जो हमारे व्याख्यानों के हैं। हम आपको यहाँ कर्मकाण्ड सिखाएँगे। यहाँ से आपको धर्ममंच से लोकशिक्षण करने के लिए समाज में जाना पड़ेगा। उसके लिए हम आपको थोड़ी सी बातें सिखाएँगे और आपको जानकारियाँ देंगे कि समाज का नया निर्माण करने के लिए आपको क्या- क्या क्रियाकलाप और क्या- क्या निर्माण करने पड़ेंगे। उन कामों की भी जानकारियाँ आपको देंगे। लेकिन यह दोनों ही जानकारियाँ गौण हैं। यह दोनों ही शिक्षण गौण हैं। यह दोनों ही बातें गौण हैं। असली बात यह नहीं है।
जीवात्मा का तेज- ब्रह्मवर्चस
असली बात क्या है? असली बात यह है कि आपकी जीवात्मा के अंदर हमें वह तेज भरना है, जिसको ‘ब्रह्मवर्चस’ कहते हैं। ब्रह्मवर्चस आपके भीतर पैदा हो जाय, तो आप न जाने क्या से क्या करने में समर्थ होंगे। अगर आपके अंदर ब्रह्मवर्चस पैदा न हो सका, तो मित्रो! आप मिट्टी के आदमी हैं, धूल के आदमी हैं, कीड़े हैं, मच्छर हैं और मक्खियाँ हैं। ऐसी स्थिति में यदि हम आपको प्रधान बनाकर कहीं भेज देंगे, तो अपनी मिट्टी पलीत करा करके आयेंगे और हमारी भी मिट्टी पलीत करा करके आयेंगे। आपको हम गायत्री परिवार का प्रेसीडेंट बना दें, तो अभी आप धूल के बराबर हैं, मिट्टी के बराबर हैं। आप गायत्री परिवार को तबाह करेंगे और हमको तबाह करेंगे तथा अपने को तबाह करेंगे। तीनों को तबाह करेंगे। अगर हम आपको कोई पद सौंप दें और अमुक काम सौंप दें, तो इससे कोई काम बना है? नहीं, इससे कोई काम नहीं बना है।
मित्रो! काम किससे बनता है? काम उससे बनता है जिस जीवात्मा के भीतर प्रकाश भरा हुआ है। ऐसे आदमी जहाँ कहीं भी गये हैं, खराब परिस्थितियों को भी अच्छा बनाते चले गये हैं। बुरे लोगों को अच्छा बनाते चले गये हैं। बुरी परिस्थितियों पर कब्जा करते चले गये हैं। अँधेरे में रोशनी पैदा करते हुए चले गये हैं। और जिनके दिल और दिमाग सो गये थे, उनको जगाते हुए चले गये हैं। कौन? जो स्वयं जगा हुआ है। आपको स्वयं जगा हुआ इंसान बनाने के लिए हमने इस शिविर में बुलाया है। न जाने क्यों एक पुरानी घटना हमको बार- बार याद आ जाती है। कुंभ का मेला लगा हुआ था, जैसे यहाँ कल से कुंभ मेला प्रारंभ होने वाला है। उसी तरह कुंभ मेले में एक स्वामी जी आये थे। स्वामी जी ने इसी तरीके से व्याख्यान दिया था, जैसे हम आपको यहाँ दे रहे हैं। हमको स्वामी जी का नाम याद आ रहा है। उनके जो गुरु थे, आँखों से अंधे थे। उन्होंने अपने विद्यार्थी से कहा कि बेटे! तू मुझे कुछ देगा क्या? मैंने तुझे विद्या दे दी, प्यार दे दिया, बल दे दिया। तू भी कुछ देगा क्या?
विद्यार्थी बोला- ‘गुरुदेव! मेरे पास क्या है? मैं क्या दे सकता हूँ।’ लौंग का एक जोड़ा लेकर गुरुदेव के पास गया और बोला कि गुरुदेव! दक्षिणा में बस यही है हमारे पास। बेटे, लौंग के जोड़े का मैं क्या करूँगा? यह मेरे किस काम आने वाला है? तो फिर क्या चीज दूँ? मेरे पास क्या है बताइये? मैं तो साल भर आपके पास पढ़ा हूँ और रोटी भी तो मैंने यहीं से खाई है। कपड़ा भी तो आपने ही पहनाया है। अब मेरे पास क्या चीज रह जाती है जो मैं आपको दूँ।
गुरुदेव बोले- बेटे तेरे पास इतनी कीमती चीज है, जो तुझे भी मालूम नहीं है। मेरे पास क्या चीज है? तेरे पास है तेरा वक्त, तेरा श्रम, तेरा पसीना, तेरा हृदय, तेरा मस्तिष्क, तेरी बुद्धि, तेरी भावनाएँ। तेरे पास यह इतनी बड़ी चीजें हैं कि उसका रुपये से कोई सम्बन्ध नहीं है। रुपया तो इसके सामने धूल के बराबर है, मिट्टी के बराबर है। रुपया किसी काम का नहीं है इसके आगे। तेरे पास ये चीजें है, उन्हें तू मुझे दे दे।
विद्यार्थी को उमंग आ गयी। उसने कसम खाकर कहा- ‘गुरुजी! कसम खाकर के कहता हूँ कि यह जिंदगी आपके लिए है और इसे आपके लिए ही खर्च करूँगा।’ बस, वह निहाल हो गया। आँखों से अंधे गुरु की आँखें चमक पड़ीं। कौन से गुरु की? स्वामी बिरजानन्द की। स्वामी बिरजानन्द की आँखें मथुरा में अंधी हो गयीं थीं। बाहर की आँखें तो अंधी बनी रहीं, लेकिन भीतर की आँखों में ऐसी रोशनी आई, कि चेहरा चमक पड़ा। खुशी का कोई ठिकाना न रहा। उन्होंने उस विद्यार्थी से, जिसका नाम था ‘दयानन्द’- से कहा कि ‘बच्चे! तू जा। पाखंड खंडिनी पताका लेकर जा। पहला काम तुझे लोगों के मस्तिष्क की सफाई का करना पड़ेगा। पहला काम लोगों को ज्ञान देना नहीं है, रामायण पढ़ाना नहीं है, गीता पढ़ाना नहीं है, मंत्र देना नहीं है।’
नहीं, गुरुजी! शंकरजी का मंत्र दे दीजिए। अरे बाबा! शंकर जी भी मरेंगे और तू भी मरेगा। पहले अपने को भीतर- बाहर से धोकर के साफ कर ले। धोया नहीं जायेगा तो बात कैसे बनेगी। पाखाने का कमोड लेकर के आप जाइये। गुरुजी! इसमें गंगा जल डाल दीजिए। बेटे, इसमें गंगा जल डालने की बजाय तो यह जैसी है वैसी ही पड़ी रहने दे। मित्रो! इन्सान को जब तक धोया नहीं जायेगा और उसमें आप राम का नाम डालेंगे, हनुमानजी का नाम डालेंगे, गणेश जी का नाम डालेंगे और रामायण का नाम डालेंगे, तो रामायण की मिट्टी पलीत हो जायेगी और कृष्ण जी की मिट्टी पलीत हो जायेगी और वह गंदगी जहाँ की तहाँ बनी पड़ी रहेगी।
मित्रो! आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने के लिए क्या करना पड़ता है? इसमें पहला काम सफाई का होता है, चाहे वह समाज की सफाई हो, चाहे व्यक्ति की सफाई हो, चाहे किसी की सफाई हो। सफाई किये बिना अध्यात्म का रंग किसी पर चढ़ा ही नहीं है। कपड़ा रँगने से पहले आपने उसे धोया था न? अगर आपने धोया नहीं होगा, तो कपड़े का रंग कभी भी नहीं आ सकता। राम का नाम कपड़ा रँगने के बराबर है। इसके पहले हमको वह काम करना पड़ता है, जिसको हम संयम कहते हैं। जिसको हम तप कहते हैं। जिसको हम योगाभ्यास कहते हैं। तप क्या होता है? संयम क्या होता है? और योगाभ्यास क्या होता है? इनसे आपके शरीर और मन पर अर्थात् बहिरंग और अंतरंग में जो पाप और दुष्प्रवृत्तियाँ हावी हो गयी हैं, उनको साफ करना पड़ता है।
अध्यात्म का मर्म- आत्म परिष्कार
मित्रो! आपने इनको साफ किये बिना अगर राम का नाम लिया है, तो बिल्कुल बेकार है। आपने हनुमान का नाम लिया तो बिल्कुल बेकार है। आपको किसी ने बहका दिया है कि राम का नाम लेने से पाप दूर हो जाते हैं। यह नहीं हो सकता। पाप दूर होने के बाद में राम का नाम लिया जाता है, तो सार्थक हो जाता है। राम के नाम से कहीं किसी का पाप दूर हुआ है? पाप दूर करने के बाद में राम का नाम लिया जाय, तो वह सार्थक हो जायेगा। असली सिद्धान्त यही है, जो मैंने वेदों में, उपनिषदों में, स्मृतियों में, पुराणों में पाया है और जिस पर मैं यकीन करता हूँ। मैं इस बात पर यकीन नहीं करता कि कोई आदमी- कमीना आदमी दुष्टता का, चांडाल का, पापी और पिशाच का जीवन जिया करे और राम का नाम लिया करे तो उसकी मुक्ति हो जायेगी। यह बिल्कुल असंभव है। वह किसी तरह से मुक्त नहीं हो सकता। जब तक आदमी अपने मन को साफ नहीं कर लेता, हृदय को साफ नहीं कर लेता, तो राम का नाम कहाँ से लेगा?
इसलिए मित्रो! क्या हुआ? उनके गुरु स्वामी बिरजानन्द ने यह आज्ञा दी कि पहले लोगों के दिलों की और दिमाग की एवं जमाने की सफाई करनी चाहिए, जो कि इतने गलीज हो गये हैं। समाज की व्यवस्था के लिए लोगों के दिलों और दिमागों की सफाई करने का काम उनको सौंपा। किसको सौंपा? स्वामी दयानन्द को। स्वामी दयानंद कुंभ के मेले में आये और उन्होंने अपना झंडा गाड़ा। उस पर ‘‘पाखंड खण्डनी पताका’’ लिखा हुआ था, जैसे कि आपके झंडे पर ‘युग निर्माण योजना’ लिखा हुआ है। कुंभ के मेले में वे महीने भर तक व्याख्यान करते रहे। किसी ने मजाक उड़ाया, किसी ने ढेला मारा, किसी ने पत्थर मारा। किसी ने गालियाँ दीं। कोई आया हँसी उड़ाकर चला गया। कोई मजाक उड़ाकर चला गया। सब चले गये और स्वामी जी खड़े रहे। उन्हें बड़ी निराशा हुई कि एक महीने तक मैंने व्याख्यान दिये, लेकिन कोई आदमी सुनने के लिए नहीं आया। जो आये थे, वे नाराज होकर चले गये और मजाक उड़ाकर चले गये। मैं जो करना चाहता था, वह काम सफल न हो सका।
फिर क्या हुआ? स्वामी जी की समझ में आ गया कि इसकी वजह क्या है? मेरे पास बस ज्ञान है। मुझे रामायण कहना आता है बस। ज्ञान से कुछ काम बनेगा क्या? ज्ञान से कुछ काम नहीं बन सकता। मुझे तो वह शक्ति इकट्ठी करनी चाहिए, जिसको हम ‘आत्मबल’ कहते हैं। आत्मबल प्राप्त करने के लिए स्वामी दयानंद वहाँ से चले गये। गंगोत्री के पास एक स्थान ऐसा है जहाँ पाँच नदियाँ आपस में मिलती हैं। वह सुहावना स्थान है। उस जगह को उन्होंने अच्छा समझा। वहाँ एक गुफा देखी और वहीं रहने लगे। तीन साल तक वहीं रहे और आत्मचिंतन करते रहे, उपासना करते रहे। तीन साल के बाद जब उनको भीतर से महसूस हुआ, तो वे उस प्रकाश को ले करके आये। इसके पश्चात् वे जहाँ कहीं भी गये, प्रकाश फैलाते चले गये। सबसे पहले वे अजमेर गये। वहाँ एक बहुत बड़ा प्रेस स्थापित किया। वहाँ से वैदिक ऋचाओं और आर्यसमाज के ग्रंथों का प्रकाशन होने लगा। इसके बाद वे बंबई चले गये। बम्बई में आर्य समाज की स्थापना हुई। वे जहाँ कहीं भी गये, आर्य समाज की हवा फैलती हुई चली गयी और एक फिजा पैदा होती हुई चली गयी। और दिशा पैदा होती हुई चली गयी। काम करने वाले व्यक्ति भी उनको ऐसे- ऐसे जबरदस्त मिले। उस जमाने में उनको लाला लाजपतराय मिले, सर्वदानंद उनको मिले। जाने कौन- कौन मिले। बड़े गजब के आदमी थे। वे सब बड़े- बड़े लोहे के आदमी थे, स्टील के आदमी थे, जो उनको मिले। किसको मिले? स्वामी दयानंद जी को मिले।
मित्रो! स्वामी दयानंद जी को इतने जबरदस्त आदमी क्यों मिले? क्योंकि वे स्वयं अपने भीतर आत्मबल का संबल लिए हुए थे। हम और आप जैसे होते, तो हमारे पास कोई कुत्ता भी नहीं आता। हम और आप जैसे लोगों की मिट्टी पलीत हो सकती है, लेकिन जिनके पास सामर्थ्य है, उनके पास अच्छे व्यक्ति आये हैं और हमेशा आयेंगे और आते रहेंगे। उसके लिए उनका भंडार कैसे खाली हो जायेगा जिनके भीतर स्वयं भंडार भरा हुआ है। उनके भंडार कभी खाली हो सकते हैं? कभी नहीं हो सकते। इस धरती पर एक से एक बढ़िया और एक से एक बेहतरीन आदमी आये हैं और जरूर आयेंगे। स्वामी दयानन्द ने जो काम किया, मैं भी वही करना चाहता था।
मित्रो! आप इस कुंभ के अवसर पर यहाँ एक महीने के लिए आये हैं, गंगा किनारे आये हैं। वहाँ आये हैं, जहाँ हिमालय का द्वार खुला हुआ है। आप शान्तिकुञ्ज में आये हैं तो यहाँ से आप वह चीज ले करके जायें, जो हमारे व्याख्यानों से हजार गुनी ज्यादा कीमती है और जिसका हम शिक्षण करने वाले हैं। यहाँ पर हम जो आपको कर्मकाण्ड और हवन की विधि, संस्कार आदि सिखाने वाले हैं, उससे लाख गुना ज्यादा कीमती वह चीज है, जिसे कमाकर यदि आप ले जाएँ तो आपकी यह कमाई बड़ी शानदार होगी और बड़ी महत्त्वपूर्ण होगी और जिंदगी भर काम देगी। उससे आपका भी काम चल जायेगा और हमारा भी काम चल जायेगा। आपका भी उद्धार हो जायेगा, हमारा भी उद्धार हो जायेगा। आप उस चीज को ले करके जाएँ, जो हम आपको देना चाहते हैं। आप क्या चीज ले करके जायेंगे? आप यह चीज लेकर के जाएँ- एक भगवान् की भक्ति, भगवान् पर विश्वास, भगवान् की निष्ठाएँ। इन्हें आप इकट्ठा करके ले जाएँ।
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपका असली कार्यक्रम वही है जो अभी हमने आपको बताया। नकली कार्यक्रम यह है कि आप विचारों की दुनिया में खोये रहें, अच्छे विचार आपके ऊपर हावी रहें। बुरे विचार आपके ऊपर हावी न होने पायें। इसलिए हमने सारे का सारा आठ घंटे का कार्यक्रम बना दिया है। चाहें तो आप उस आठ घंटे के कार्यक्रम में उलझे रहें जिससे कहीं बुरे ख्याल आपके ऊपर हावी न हो जाएँ। और अच्छे विचार घेरे रहें। असल में आप इन सब बातों से दो फुट ऊँचे उठ कर रहना और यह सोचना कि हम यहाँ किसलिए आये हैं? यही कि हम यहाँ से शक्ति के पुंज ले करके जायेंगे और शक्ति की धाराओं को लेकर जायेंगे। शक्ति की धारायें कहाँ से आयेंगी? और शक्ति की धारायें हमें कहाँ लाना चाहिए?
साथियो! इसमें कुछ काम आपका है और कुछ काम हमारा है। कुछ आप कीजिए, कुछ हम करेंगे। कुछ काम बेटा करता है और कुछ बाप करता है। बाप किताबों का इंतजाम करता है, फीस का इंतजाम करता है। बाप बेटे के लिए खाने का इंतजाम करता है और बेटा पढ़ने का इंतजाम करता है। किताबों को लेकर बैठा रहता है। बेटे का काम बेटा करता है और बाप का काम बाप करता है। दोनों मिलकर जब काम करते हैं, तो बेटा एम.ए. अच्छे डिवीजन में पास हो जाता है। फर्स्ट डिवीजन में पास हो जाता है। अगर बाप अपना काम करने से इंकार कर दे कि हम इसकी सहायता नहीं करेंगे। हमारे पास फीस नहीं है। हम रोटी नहीं खिलायेंगे, भाग जाओ। तो फिर बेचारा बच्चा पढ़ेगा तो सही, किन्तु कोई गारण्टी नहीं है कि वह अच्छे डिवीजन में ही पास हो जाय। इसी तरह यदि बाप सारे का सारा सामान मुहैया करा दे और बेटा इंकार कर दे कि पिताजी! हमको नहीं पढ़ना है। आप पैसा देते हैं, तो ठीक है। आपने कापी मँगा दी तो ठीक है। ट्यूशन लगा दिया तो अच्छा है, लेकिन हमको फुरसत नहीं है। हम नहीं पढ़ेंगे। हम तो सिनेमा देखेंगे। बेटे, तब भी मुश्किल है। दोनों के सहयोग से काम चलेगा। आप अपना काम करना और हम अपना काम करेंगे। हम और आप दोनों मिलकर अगर काम करेंगे, तो एक अच्छी मंजिल पार कर लेंगे और जिसको पाने के लिए आपको बुलाया है, वह आप जरूर ले करके जायेंगे।
मित्रो! इसके लिए आपको क्या करना चाहिए? आपको भगवान् की उपासना करनी चाहिए। भगवान् की उपासना क्या होती है? भगवान् के समीप जा बैठना। भगवान् के समीप जा बैठना किसे कहते हैं? जैसा भगवान् होता है, उसी तरह से जब हम बन जाते हैं, तो उसको हम उपासना कहते हैं। आग जल रही होती है। उसमें हम लकड़ी डाल देते हैं, तो यह उपासना हो जाती है। आग जैसी है, वैसा ही या तो लकड़ी को बनना पड़ेगा या फिर लकड़ी जैसी है वैसे ही आग को बनना पड़ेगा, तभी तो बात बनेगी। आग अपनी जगह बनी रहे और लकड़ी अपनी जगह बनी रहे, तो यह कैसे हो सकता है? पानी और मिट्टी को हम मिला देते हैं, तो या तो मिट्टी को पानी बनना पड़ेगा या फिर पानी को मिट्टी बनना पड़ेगा। यह कैसे हो सकता है कि पानी अलग रखा रहे और मिट्टी अलग रखी रहे। भगवान् की उपासना आप करें और भगवान् की विशेषताओं को, भगवान् के गुणों को और भगवान् की धाराओं को अपने भीतर आप धारण न करें, यह कैसे हो सकता है? आप उनमें मिल जाइए या अपने में उन्हें मिला लीजिए। उपासना इसी का नाम है। इससे कम में कोई उपासना नहीं हो सकती।
मित्रो! आपने किसी को हरफों का उच्चारण करना सिखा दिया, मुबारक। इसे जिंदा रहना चाहिए, बंद नहीं करना चाहिए। हरफों का उच्चारण करने में बुराई भी क्या है? पहले आप गंदे गाने गाया करते थे और सीलोन रेडियो सुना करते थे। उसके स्थान पर अब कुछ हरफों का उच्चारण करना आपने सीख लिया है, तो उसमें बुराई की क्या बात है? यह अच्छी बात है। कोई खराब बात नहीं है। लेकिन बात इतने से ही बनने वाली नहीं है। आप भगवान् जैसे विशाल, भगवान् जैसे महान् होने के लिए अपने अन्दर वे प्रेरणाएँ और वे दिशाएँ पैदा कीजिए, वह गर्मी पैदा कीजिए, वह महानताएँ पैदा कीजिए, तो आपकी उपासना सफल मानी जायेगी।
गुरुजी! उपासना के लिए कर्मकाण्ड? हाँ बेटे! आपको थोड़े से कर्मकाण्ड भी सिखाएँगे। क्या सिखाएँगे? आपको गायत्री मंत्र की उपासना सिखाएँगे। गायत्री मंत्र से बढ़िया कोई मंत्र दुनिया में नहीं है। मेरा तो इस पर अटूट विश्वास है। एक बात याद रखना कि जप या उपासना भावनापूर्वक होनी चाहिए, बिना भावना के नहीं। बिना भावना के अगर आप जप कर रहे होंगे, तो आपको नींद आ जायेगी। फिर कहेंगे कि गुरुजी! पहले तो हमारा बड़ा मन लगता था, लेकिन अब नहीं। अच्छा, बता बेटा, तूने भावना के साथ कब किया? एक दिन भी तो नहीं किया। तूने जबान की नोंक से उच्चारण किया। परन्तु जबान की नोंक से उच्चारण करने पर न कोई परिणाम होते हैं, न कोई मन लगता है, न कोई उसमें निष्ठा होती है, न कोई बात बनती है। क्यों? क्योंकि तूने जबान की नोंक से किया था। यहाँ जबान की नोंक से मत करना। यहाँ भावना पूर्वक जप करना।
मित्रो! गायत्री और यज्ञ हमारी भारतीय संस्कृति के माता- पिता हैं। गायत्री का स्थूल रूप, गायत्री का बहिरंग रूप वह है जो हम पालथी मारकर बैठे रहते हैं और जप करते रहते हैं। यज्ञ का स्थूल रूप वह है जो वेदी बनाते हैं, समिधा लगाते हैं और घी होमते हैं, आरती उतारते हैं। यह सब स्थूल रूप है। यह इसका सूक्ष्म रूप नहीं है। सूक्ष्म रूप की गायत्री अलग है और सूक्ष्म रूप का यज्ञ अलग है। सूक्ष्म रूप की गायत्री को आपको यहाँ लगातार करते रहना चाहिए। प्रातःकाल साढ़े चार बजे हम घंटी बजाते हैं, तब उठेंगे। सवा छः बजे आपको चाय के लिए बुलाते हैं। आपके इस तरह पौने दो घंटे बन जाते हैं। पौने दो घंटे में ही आपको शौच, स्नानादि से निवृत्त हो जाना चाहिए। इससे निवृत्त होने के पश्चात् आपको अपनी उपासना में बैठ जाना चाहिए।
उपासना में मात्र जप करना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उसके साथ ध्यान भी जुड़ा हुआ है। दानवीर कर्ण की उपासना में सूर्य का ध्यान भी शामिल था। कौन सा वाला? जिसका कल मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि यज्ञ एकता का प्रतीक है। यज्ञ अग्नि का प्रतीक है, तेज का प्रतीक है, ब्रह्मवर्चस का प्रतीक है। उसका बहिरंग रूप वह है जो हम हवन करते हैं। लेकिन उसका अंतरंग रूप वह है, जो सूर्य के रूप में दिखाई पड़ता है। आप सबेरे जप किया करें और इसके लिए पालथी मारकर बैठ जाया कीजिए। धूपबत्ती जलानी हो तो जला लीजिए। साथ ही सूर्य भगवान् को अर्घ्य चढ़ाने के लिए एक पात्र में पानी रख लीजिए। खुले आकाश में कहीं बैठ जाइये, कमरे में बैठ जाइये अथवा बाहर बैठ जाइये। मैं तो आजकल बाहर ही बैठता हूँ। ऊपर वाला कमरा है उसको बंद कर देता हूँ और जहाँ सितारे चमकते हैं, खुला आसमान चमकता है, वहाँ बैठ जाता हूँ और भगवान् का ध्यान करता रहता हूँ। उसकी लीला को देखता रहता हूँ। प्रकाश की रोशनी ग्रहण करता रहता हूँ। आप भी यहाँ एक महीने तक ऐसे ही करना।
मित्रो! प्रातःकाल जहाँ कहीं भी आप को, सारे के सारे स्थान में जहाँ सुन्दर स्थान मालूम पड़ता हो, एकान्त मालूम पड़ता हो, जहाँ से खुला आसमान दिखाई पड़ता हो, आप वहाँ बैठ जाना और ध्यान करना। आँखें बंद करके मन ही मन गायत्री का जप करना और भावना करना कि ज्ञान की गंगा में बह रहे हैं। शान्तिकुञ्ज में ज्ञान की गंगा प्रवाहित हो रही है। यह तीर्थ गंगोत्री है जहाँ आप निवास करते हैं। यहाँ से ज्ञान की गंगा का उद्गम होता है। इसको उत्पन्न करने वाले कई एक हैं। हम लोगों की कई सम्मिलित दुकानें हैं। कौन सी? शान्तिकुञ्ज उनमें से एक है। शान्तिकुञ्ज का बहिरंग रूप हमने बनाया है। यहाँ पत्थर इकट्ठा करने, ईंटें इकट्ठा करने की जिम्मेदारी हमारी है। लेकिन यह सब इकट्ठा करने के पहले इसमें जो प्रेरणाएँ भरी पड़ी हैं, जो दिशायें भरी पड़ी हैं, जहाँ से हम इस भारतवर्ष को भगवान् बुद्ध की तरीके से हजारों और लाखों की संख्या में वो व्यक्ति देने वाले हैं, जिससे हमारी प्राचीन परंपराएँ पुनः जाग्रत हो सकें।मित्रो! यह दुकान जिन्होंने बनाई है, उसमें केवल हम ही हिस्सेदार नहीं हैं, वरन् एक और हमारा शेयर होल्डर है। और वे हैं- हमारे गुरुदेव। जब आप प्रातःकाल ध्यान करेंगे, उपासना करेंगे, तब आप यह अनुभव नहीं करेंगे कि हम एकाकी जप कर रहे हैं, एकाकी ध्यान कर रहे हैं। वस्तुतः यहाँ कोई शक्ति आती है। हम केवल अकेले ध्यान नहीं कर रहे होते हैं, वरन् वास्तव में ही कोई शीतलता की लहरें आती हैं और आपको कंपन उत्पन्न हो जाता है और आपके शरीर में पसीना उत्पन्न हो जाता है। आपके अंदर सिहरन और फुरकन पैदा हो जाती है। प्रातःकाल में आप यह अनुभव करेंगे।
आप सूर्य का ध्यान करना। आँखें बंद कर लेना और ध्यान करते हुए आप यह अनुभव करना कि सूर्य, प्रकाश का सूर्य नहीं, चमक वाला सूर्य नहीं, वरन् ज्ञान का सूर्य है- ‘सविता देवता’। सविता देवता अलग है और सबेरे निकलने वाला सूर्य अलग है। सबेरे निकलने वाला सूर्य प्रतीक है- सिम्बल है। यह सविता का सिम्बल है, लेकिन असली सूरज नहीं है। असली सूरज वह है, जिसको हम सविता देवता कहते हैं, आदित्य कहते हैं। ज्ञान का सूर्य, तप का सूर्य, ब्रह्मवर्चस का सूर्य है वह, जिसका आप ध्यान करते हैं। उसकी सारी की सारी किरणों में आप कमर तक डूबे हुए हैं। क्रमशः कमर के ऊपर से नीचे तक, बाहर से लेकर भीतर तक प्रकाश किरणें प्रवेश कर रही हैं। सूरज के धूप में जहाँ आप खड़े हुए हैं, वहाँ ऊपर से ब्रह्मवर्चस आता है और वह आपके मस्तिष्क में आता है, फेफड़ों में आता है। आपके पावों से लेकर कमर तक और हाथों से लेकर जो आपकी कर्मेन्द्रियाँ हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, दोनों ही ज्ञान की गंगा से और प्रकाश के रूप में ब्रह्मवर्चस से ओतप्रोत होती चली जा रही हैं। आप इस तरीके से जप करना और ध्यान करना। एक घंटा हो सके तो एक घंटा करना। सवा छः बजे आपको बंद करना ही पड़ेगा। जल्दी उठना चाहें तो आप जल्दी भी उठ सकते हैं। आपको यहाँ कोई रोक नहीं है। लेकिन साढ़े चार बजे सुबह आपको हर हालत में उठ ही जाना पड़ेगा। इससे पहले आपको उठना है तो उठ सकते हैं, लेकिन आप उठें शांति से। दूसरों को डिस्टर्ब न करें। चिल्लायें नहीं, जोर- जोर से श्लोक नहीं पढ़ें, चुपचाप उठ जायें और नित्यक्रिया से निवृत्त होकर जगह- जगह पर नल लगे हुए हैं, पंप लगे हुए हैं, वहाँ स्नान कर लें।
स्नान करने के पश्चात् में प्रातःकाल में जो भी समय आपको मिल जाता है, उसमें जप और ध्यान कर लिया करें। जप कितना हो गया, संख्या की गणना करने की आवश्यकता नहीं है। संख्या की गणना कराने की ओर हम आपका ध्यान बटाना नहीं चाहते। हम आपका ध्यान भगवान् में लगाये रहना चाहते हैं। आप माला गिनेंगे तो आपका ध्यान भंग होगा और छिन्न- भिन्न होता चला जायेगा। कितनी माला हो गयी और कितनी गिनती हो गयी, आप इसी झगड़े और जंजाल में फँस जायेंगे। इसलिए अब आपकी माला गणना खत्म। अब आपको जप के रूप में भी ध्यान, प्रकाश में ज्ञान के रूप में भी ध्यान, ज्ञान की गंगा का भी ध्यान करना होगा। ज्ञान की गंगा आपके बाहरी शरीर को छू नहीं रही है, वरन् आपके हृदय को भी धो रही है। मन को भी धो रही है। आपकी बुद्धि को भी धो रही है। आपके चित्त को भी धो रही है। आपके अहंकार को भी धो रही है। सारी मलीनताओं को और पापों को धोती चली जा रही है। कौन धोती चली जा रही है? ज्ञान की गंगा। असली गंगा यही है, जिसका मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ।
मित्रो! असली सूरज वह नहीं है, वरन् सविता है जिसकी ओर मैंने आपको इशारा किया। ब्रह्मवर्चस, आत्मबल, आत्मतेज का स्रोत वही है। वही सूर्य आपका उद्धार करेगा। उसी के भीतर से आपके अंदर स्फुरणा और प्रेरणा आयेगी। आज से आप यही करना, बस, आपके लिए यही काफी है। बाकी हम करेंगे आपके लिए, हमारे गुरुदेव करेंगे आपके लिए और हमारा भगवान् करेगा आपके लिए, जिसके इशारे पर नये कार्य के निर्माण प्रारंभ किये गये हैं। हमारे इशारे पर यह कार्य प्रारंभ नहीं किये गये हैं। आप हमारे बुलाने पर यहाँ नहीं आये हैं। कोई बड़ी जबरदस्त सत्ता इस समय काम कर रही है जो आपको घसीट लायी है, खींच लायी है और जो आपको इस ओर चलने के लिए मजबूर करती है। आप उसकी प्रेरणा पर आए हुए हैं। वही प्रेरणा जो आपको यहाँ तक घसीट कर लायी है, आपको आत्मबल देगी। आपको ब्रह्मवर्चस देगी। आपकी जीवात्मा को धोने में सहायता करेगी। वह गंगा आपकी मलीनता को धोयेगी। वह प्रकाशपुञ्ज आपके भीतर गर्मी पैदा करेगा। एक महीने के भीतर आप आत्मबल लेकर जाना। यह बात मैंने आपको सुबह की निवेदन किया।
इसके बाद में यहाँ का टाइम टेबिल सवा छः बजे से शुरू होता है, जिसमें माताजी आपको चाय के लिए बुलाती हैं। इससे आप साढ़े छः बजे तक निवृत्त हो जाते हैं। पौने सात बजे से प्रवचन शुरू हो जाता है जो पौने आठ बजे तक चलता है। आठ बजे के बाद हमारे दूसरे कार्य आरंभ हो जाते हैं। यहाँ आपको धर्म- मंच के माध्यम से किस तरीके से लोक निर्माण करना पड़ेगा? सारे के सारे शिक्षण दिये जाते हैं। आपकी वाणी को खोला जाना है, जो आपका मुख्य हथियार होगा। जहाँ कहीं भी आप जायेंगे, जिन लोगों से भी आप मिलेंगे, उसमें आपके स्त्री- बच्चे भी शामिल हैं, उसमें आपके पड़ोसी भी शामिल हैं। उसमें आपके संबंधी, कुटुम्बी भी शामिल हैं। आपके समाज के लोग भी शामिल हैं। जहाँ कहीं भी आप जायेंगे, जबान तो खोलनी ही पड़ेगी। जबान नहीं खोलेंगे, संकोच में बैठे रहेंगे, तो बात कैसे बनेगी? जबान के द्वारा ही तो हम आपके मन की आग दूसरों के मस्तिष्क में प्रवेश करा सकेंगे। इसलिए यहाँ आपको प्रवचन करने का बराबर प्रशिक्षण करेंगे। अधिकांश समय इसमें लगाया जायेगा कि आपको बोलने की कला आ जाए।
इसके बाद हम आपको लोगों के पास भेजेंगे। मुख्य रूप से दो आदमियों के पास भेजेंगे- एक तो लाखों आदमी वे हैं जो कि हमारे संपर्क में आये और प्रकाश प्राप्त न कर सके। हम आपको जामवंतों की तरीके से भेजेंगे और यह कहेंगे कि जहाँ कहीं भी हनुमान बैठे हुए आपको दिखाई पड़ें। वे सिर पर हाथ रखकर बैठे होंगे और कह रहे होंगे कि मैं किस तरीके से छलाँग लगाऊँ? समुद्र तो बड़ा लम्बा है। सीता की खबर मैं किस तरीके से लगाऊँ? जिस तरीके से जामवंत ने कहा- ‘‘हनुमान! आपको अपने बल का ज्ञान नहीं है। आप छलाँग तो लगाइए।’’ उसी तरीके से हमारे पास बहुत से हनुमान बैठे हुए हैं। वे एक लाख की संख्या में हैं। शाखा के कार्यकर्ताओं के रूप में, सक्रिय सदस्यों के रूप में, अखण्ड ज्योति के पाठकों के रूप में वे बैठे हुए हैं। उनमें बहुत जीवट है। जीवट न होती तो उनको हमने क्यों बाँध करके रखा है? हमने उनको क्यों बुला करके रखा है? सम्बन्ध बनाकर क्यों रखा है?
मित्रो! जिस तरीके से माली अच्छे से अच्छे फूलों को चुन लेता है, हमने भी अपने कुटुम्ब में और परिवार में अच्छे मोतियों को चुनकर रखा है। अच्छे मोतियों को चुनकर जिस तरीके से माला बनाई जाती है, हमने भी अच्छे मोतियों को चुनकर रखा है। लेकिन इन मोतियों और हीरों पर खराद लगाई जानी बाकी है। यहाँ से जाने के बाद में हम आपको उन कार्यकर्ताओं के पास भेजने वाले हैं जो सारे देश भर में फैले हुए हैं। उनको आपको प्रेरणा देनी चाहिए, शिक्षा देनी चाहिए, हिम्मत बढ़ाना चाहिए और जोश दिलाना चाहिए और उनका मार्गदर्शन करना चाहिए। उनको उद्बोधन देना चाहिए। इस तरह क्रिया के सम्बन्ध में हमारा प्रातःकाल का प्रवचन होगा। आपको जहाँ कहीं भी हमारे कार्यकर्ता मिलें, उनसे क्या कहें? आपको जनता के पास जाना पड़ेगा, जो अभी तक हमारे संपर्क में नहीं आये हैं। अभी तो उन्होंने केवल यह जाना है कि गुरुजी गायत्री हवन कराने वालों में से हैं और जप कराने वालों में से हैं। जप कराकर उद्धार की शिक्षा देते हैं और हवन कराकर सब मनोकामना पूर्ण करने की शिक्षा देते हैं। हमारे बारे में उन्हें इतनी ही जानकारी है, जो मक्खी और मच्छर के बराबर जानकारी है। हमको वे समझते हैं कि ये तो गायत्री का जप सिखाने वाले हैं। जप करना माने गुरुजी का चेला होना मानते हैं वे। जप करने वाला गुरुजी का चेला नहीं हो सकता। बेटे जप करने से हम शुरुआत कराते हैं, जप कराने से आखिर नहीं कराते। आखिर तक यह बड़ा लम्बा हो जाता है।
इसलिए मित्रो! क्या करना पड़ेगा? जनता के पास इस नये निर्माण की विचारधारा को पहुँचाना पड़ेगा। नये निर्माण की विचारधारा का अर्थ होता है- व्यक्ति की महानता को जागृत करने की विचारधारा, समाज को नवजीवन देने की विचारधारा, जिसका अर्थ होता है- व्यक्ति का निर्माण, परिवार का निर्माण, समाज का निर्माण, समग्र निर्माण, धर्म का निर्माण। सायंकाल को जो हमारे प्रवचन होंगे, उसकी दिशा यह होगी कि जब कभी आपको जनता के मध्य स्टेज पर खड़ा कर दिया जाए, तो जनता तक अभी तक जहाँ हमारा प्रकाश नहीं पहुँच पाया है, उनको आपको क्या- क्या कहना पड़ेगा? उनसे आपको क्या कहना चाहिए, यह शिक्षण हम आपको शिविर में देंगे। व्याख्यान देने की शैली, कर्मकाण्डों की शैली दूसरे लोग सिखाते रहेंगे। कौन से वाले कर्मकाण्ड? जिनका सहारा लेकर, संबल लेकर के बच्चों को खड़ा करना आपको सिखाना है। हमारे त्यौहार और संस्कार ऐसे संबल हैं जिनसे हम परिवार निर्माण करने की शैली सिखा सकते हैं। धर्ममंच से हम जो कुछ भी सिखाएँगे, धर्ममंच पर खड़े होकर के सिखाएँगे, समाज के मंच पर नहीं। हम समाज के और अर्थशास्त्र और राजनीति के मंच पर नहीं खड़ा होना चाहते। हम धर्म के मंच पर खड़े होना चाहते हैं, क्योंकि हृदय तक यही हमारी बात को पहुँचा सकता है।
इंजेक्शन द्वारा खून के दौरे में दवाई पहुँचाने के लिए एक महीन सुई की जरूरत होती है। उसमें सुराख होना चाहिए। अगर सुई सुराख वाली नहीं होगी, तो हम खून में दवा नहीं पहुँचा सकते। धर्म उसी चीज का नाम है, अध्यात्म उसी चीज का नाम है, जो मनुष्य के हृदय तक पहुँच सकता है। राजनीति दिमाग तक पहुँच सकती है। समाजशास्त्र लोगों के विचारों को दिमाग तक पहुँचा सकता है। अर्थशास्त्र लोगों की प्रेरणाएँ दिमाग तक पहुँचा सकता है। हृदय तक पहुँचाने की सामर्थ्य इनमें से किसी में नहीं है। हमारा सारा का सारा कार्य जो प्रारंभ होता है, लोगों के हृदय तक अपनी बात पहुँचाने से होता है। इसलिए हमेशा हमारा आधार वही रहेगा, जिसको हम धर्म कहते हैं। धर्ममंच के माध्यम से हम आपको बहुत सी बातें बताना चाहते हैं। हम यह चाहते हैं कि सोलह संस्कार, जो प्राचीनकाल में जिंदा थे, फिर जिंदा हों। हर घर में वेदमंत्रों की ऋचाएँ गूँजें, भारतीय संस्कृति का संदेश जा पहुँचे। हम चाहेंगे कि गाँवों में त्यौहार मनाये जाएँ और उसमें भारतीय संस्कृति की ऋचाएँ गूँजें। हमारे संदेश, हमारे शिक्षा की जानकारी लोगों को मिले।
मित्रो! आपको एक घंटे का समय पूजा के लिए मिल जाता है। सुबह का एक घंटा समय पूजन के लिए बहुत होता है। अगर आप एक घंटा सच्चे मन से प्रकाश को ग्रहण करते हुए चले जाएँ और सच्चे मन से ज्ञान की गंगा में नहाते हुए चले जाएँ, तो यह पर्याप्त है। इतने से ही आपकी धुलाई और रँगाई के दोनों काम हो जायेंगे। ज्ञान की गंगा में, गायत्री की गंगा में नहा करके आपकी धुलाई जरूर हो जायेगी और सूर्य का प्रकाश जो आप लेने वाले हैं, उससे आपके भीतर चमक जरूर पैदा हो जायेगी। अभी आप करके देखना। यहाँ एक महीना करना, फिर आप देखना कि आपके अंदर कोई चमक आई कि नहीं आई। आपके चेहरे पर चमक आयेगी, आपकी आँखों में चमक आयेगी, मस्तिष्क में चमक आयेगी, वाणी में चमक आयेगी और आप देखेंगे कि हम कितने धुले हुए उज्ज्वल बनते चले जा रहे हैं। यह प्रातःकाल का सवा छः बजे के बाद का समय है, जब आपको इसे ग्रहण करना है।
मित्रो! हम आपको वही बात कहेंगे, जो हमसे किसी ने कही है। हम अपनी ओर से क्या कह सकते हैं और क्या कहने लायक हैं। लेकिन जो प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण शिक्षण हमको मिला है, वह हम आपको सिखाएँगे। जो हमसे कहा गया है, वही हम आपसे कहेंगे और कोई चीज हमारी कहने की नहीं हैं। जो हमारे मार्गदर्शक ने, हमारे गुरु ने और हमारे आगे चलने वाले ने हमको सिखाया है, इसके अलावा हम कोई नयी बात आपको सिखाने वाले नहीं है। व्यक्ति निर्माण के लिए और समाज निर्माण के लिए- दोनों बातें एक साथ जुड़ी हुई है। व्यक्ति उठेगा तो समाज उठेगा। समाज उठेगा, तो व्यक्ति उठेगा। व्यक्ति और समाज को हम अलग नहीं कर सकते। घड़ी और पुर्जे को हम अलग नहीं कर सकते। घड़ी चलेगी तो पुर्जे की कीमत बढ़ेगी। पुर्जा ठीक होगा तो घड़ी चलेगी। दोनों आपस में जुड़े हुए हैं। व्यक्ति अकेला उत्थान कर ले, अकेला कल्याण कर ले और समाज की उपेक्षा कर दे, यह नामुमकिन है। समाज के साथ में जुड़ा हुआ आदमी आगे बढ़ सकता है। अकेला आदमी तो बढ़ ही नहीं सकता। अकेला घड़ी का पुर्जा क्या कर सकता है। घड़ी में मिला रहेगा तभी तो उसका मूल्य है।
मित्रो! मुख्य बात जो अभी मैंने आपको बताई है, उसमें सबसे अधिक ध्यान जो आपको देना है, वह इस बात पर देना है कि ज्ञान की गंगा का ध्यान जो आप करेंगे और प्रकाश का ध्यान जो आप करेंगे, वह तो होगा ही। लेकिन आप चौबीस घंटे यह अनुभव करेंगे कि कोई ज्ञान की गंगा, कोई भावना की गंगा, कोई प्रेरणा की गंगा हर वक्त आपको, आपके हृदय को, आपकी भावना को छू रही है। आप हर समय यह अनुभव करेंगे कि प्रकाश की किरणें अज्ञात लोक से चली आ रही हैं और आपके हृदय को छू रही हैं। आपके मस्तिष्क को छू रही हैं, वाणी को छू रही हैं और अंतःकरण को छू रही हैं। यही हमारा बल है, यही हमारी संपत्ति है, यही हमारा शिक्षण है। यही हमारा अनुदान है, यही हमारा आशीर्वाद है, जिसको लेकर के आप जायेंगे और हमारा काम करेंगे, अपना उद्धार करेंगे। देश का उद्धार करेंगे, मानव जाति का उद्धार करेंगे, हमारा उद्धार करेंगे। वह प्रकाश ले करके आप जायेंगे, जिसके लिए हमने आपको बुलाया है।
आज की बात समाप्त।
॥ ऊँ शान्तिः॥
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
गलने का नाम अध्यात्म
देवियो, भाइयो! आपको जहाँ कहीं भी वृक्ष- लता और पुष्प खिले हुए दिखाई पड़ें, समझ लेना कि यह जादू और चमत्कार उसका है, जो बीज गल गया। गले हुए बीजों का परिणाम आपको बगीचों के रूप में, फूलों के रूप में, उद्यानों के रूप में दिखाई पड़ता है। लेकिन जहाँ कहीं ऐसा दिखाई पड़ता हो कि सूखी हुई जमीन पड़ी है, सुनसान पड़ा हुआ है, जान लेना वहाँ कोई बीज गलने को तैयार नहीं हुआ। वहाँ बीजों ने गलने से इंकार कर दिया है। बीज जब कभी भी गले हैं, दुनिया में शांति आई है, दुनिया में खुशी आई है। दुनिया में व्यवस्था आई है, उन्नति आई है। हमारे भारतवर्ष में यह परंपरा रही है कि प्रत्येक व्यक्ति ने अपने जीवन की सार्थकता को इस बात से जोड़कर रखा कि मेरे गलने की प्रक्रिया कहाँ तक सफल रही। हर आदमी ने अपने आपसे हजार बार यह सवाल किया कि क्या मैं गलने में समर्थ हुआ? क्या मैं समाज के लिए गला? क्या मैं भगवान् के लिए गला? अगर गलने का जवाब यह आया कि हाँ, मैं गला, तो व्यक्तिगत जीवन में हरियाली आयेगी। सामाजिक जीवन में हरियाली आयेगी।
लेकिन मित्रो! जहाँ कहीं भी मनुष्य यह कह रहे होंगे कि हम नहीं गलेंगे, हम तो लेंगे और पायेंगे, वहाँ बड़ी मुश्किल आ जायेगी, कठिनाई आ जायेगी। वह अभागा देश ढलता हुआ चला जायेगा, पतित होता हुआ चला जायेगा, नष्ट होता हुआ चला जाएगा। वह व्यक्ति पतित होता हुआ चला जायेगा, नष्ट होता हुआ चला जायेगा, जिसके मन में गलने की तमन्ना नहीं है, गलने की उम्मीद नहीं है। जिसको केवल पाने की उम्मीद है, वह बड़ा स्वार्थी आदमी है। जिसको भगवान से सिर्फ पाना है, गुरु से सिर्फ पाना है, ऑफीसर से सिर्फ पाना है, स्त्री से सिर्फ पाना है, बाप से सिर्फ पाना है। जिसे सिर्फ पाना है, देना किसी को नहीं है, तो ऐसा मनुष्य बड़ा भाग्यहीन है और वह जीवन में दुःख पायेगा और दुःख देगा। दुःख देना इसके भाग्य में बदा है और दुःख पाना इसके भाग्य में बदा है। इसके मन में यह उमंग उत्पन्न नहीं होती कि हमको गलना है। गलने का नाम ही अध्यात्म है।
मित्रो! कभी भारतवर्ष में घर- घर में अध्यात्म था। इस समय के अध्यात्म को मैं अध्यात्म नहीं कहता। मैं तो सुबह भी आपको कह रहा था कि आज के अध्यात्म में विशुद्ध बहुरूपियापन है। कौन सा वाला? जिसमें हमने यह खयाल रखा कि कम पैसों में और कम कीमत में बड़ी चीज मिल जानी चाहिए। ठगे जाने वाले लोग और ठगने वाले लोग- दोनों की नीयत, दोनों की प्रक्रिया एक है कि कम पैसे में ज्यादा चीज मिलनी चाहिए। लॉटरी क्या है? यही कि हमको अपनी जेब में से एक रुपया खर्च करना चाहिए और तीन लाख प्राप्त करना चाहिए। कितने ही लोग हैं जिन्होंने लॉटरी के टिकट खरीदे हैं। आप उनके पास जाइये और इन्क्वायरी कीजिए कि आप लोगों में से कितने आदमी हैं जिन्होंने एक रुपये खर्च करके तीन लाख रुपये पाये हैं? आपको एक हजार में से नौ सौ निन्यानवे, एक लाख में से निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे व्यक्ति यह कहते हुए मिल जायेंगे कि हमारा एक रुपया बट्टेखाते में चला गया। जो मुनासिब कीमत चुकाये बिना लंबे- चौड़े ख्वाब देखता रहता है, उसका वह एक रुपया जाना ही चाहिए और बरबाद होना ही चाहिए।
अध्यात्म लॉटरी नहीं है
मित्रो! हमने अध्यात्म को सट्टे के रूप में, लॉटरी के रूप में इस्तेमाल किया। हमने कम से कम कीमत की चीज भगवान् को देने की कोशिश की। कम से कम चीज क्या है? जबान की नोंक, चमड़े की नोंक, जिससे कि हम सारे के सारे दिन बक- झक करते रहते हैं, गालियाँ देते रहते हैं, बेकार की बातें बकते रहते हैं, झूठ- सच बोलते रहते हैं और शेखी एवं शान बघारते रहते हैं। उसी गंदी जबान से हमने पंद्रह मिनट, दस मिनट या पाँच मिनट यह कोशिश की कि इससे कुछ मंत्र का उच्चारण कर लें। मैं आपसे मंत्र जप की बात नहीं कहता, अनुभव की बात कहता हूँ। मंत्र का जप अलग होता है। मंत्र का जप जबान से नहीं निकलता, हृदय से निकलता है और हृदय ऐसा होना चाहिए जिससे राम का नाम निकल सके। अभी तो हमारी जबान की नोंक से, उस कमीनी जीभ की नोंक से, जो कि सिवाय झूठ बोलने और बुरी बात बोलने की आदी थी, थोड़े से हरफ- अक्षर उच्चारण किये गये हैं। उससे कभी राम का नाम लिया, कभी हनुमान का नाम लिया, कभी गायत्री का नाम लिया, कभी किसी का नाम लिया और ख्वाब देखे। क्या ख्वाब देखे? यही कि भगवान्, जो सारी संपदाओं का स्वामी है, उसके प्यार का एक कण और एक किरण हमको भी मिल जाय, तो हम धन्य हो जायें। हमारा जीवन सार्थक हो जाये।
उसको प्राप्त करने के लिए हमने कितनी सारी चीजें देने की हिम्मत की और जुर्रत दिखाई। इतनी हिम्मत दिखाई कि जबान की नोंक में से थोड़े से हरफों का उच्चारण कर दिया करें। मित्रो! यह विशुद्ध रूप से लॉटरी लगाने वाली नीयत है कि इससे हमको दुनिया के लाभ और सुख- संपदाएँ, जिसमें कि दुनियाबी जीवों की भौतिक संपदाएँ भी जुड़ी हुई हैं, मिलनी चाहिए। जैसे कि हमको धन मिलना चाहिए। पैसा मिलना चाहिए, स्वास्थ्य मिलना चाहिए और हमारी शादी होनी चाहिए, बाल- बच्चे होने चाहिए और हमारी नौकरी में तरक्की होनी चाहिए। दुनिया के नौ सौ निन्यानवे फायदे हमको होने चाहिए। किस कीमत पर फायदा होना चाहिए? इस कीमत पर फायदा होना चाहिए कि हम अपनी गंदी जबान की नोंक से थोड़े से हरफों का उच्चारण करते हैं। आपकी समझ में यह बात आ गयी, पर मेरी समझ में नहीं आती कि एक हीरा जो पाँच हजार रुपये में आता है, उसे पाँच नये पैसे में दे दीजिए। बेटे, यह तेरे पाँच नये पैसे भी कोई और छीन लेगा, पर तुझे हीरा मिलने वाला नहीं है। नहीं साहब! हम तो पाँच पैसे में ही हीरा लेकर जायेंगे। बेटे, यह गलत बात है। ऐसा नहीं हो सकता। पाँच नये पैसे में हीरा कभी नहीं आयेगा।
साथियो! अध्यात्म का मतलब लोगों ने सिर्फ इतना कैसे मान लिया, यह देखकर मुझे बड़ी हैरत होती है। और बड़ा अचंभा होता है। इन थोड़े से हरफों का उच्चारण क्या हमको भगवान् को दिला सकता है? क्या हमारे जीवन में सुख- शांति आ सकती है? क्या हमको प्रगति के मार्ग पर चलने का मौका मिल सकता है? बिल्कुल नामुमकिन है। हिन्दुस्तान जैसा पूजा- पाठ करने वाला मुल्क दुनिया में शायद कहीं भी आपको नहीं मिलेगा। ईसाई लोग हर इतवार के दिन गिरजे में जाकर के घुटने टेक करके बैठ जाते हैं। थोड़ी देर प्रार्थना करके चले जाते हैं। हिन्दुस्तान में आपको अधिकांश लोग ऐसे मिलेंगे जो सारा दिन माला घुमाते ही मिलेंगे। कौन क्या कर रहा है। कोई रामायण पढ़ रहा है, कोई गीता पढ़ रहा है, कोई भागवत् पढ़ रहा है। सारे के सारे मस्तिष्क से विकृत, सारे के सारे मनोविकारों, बीमारियों के जखीरे जिनके ऊपर जमा हैं और असंख्य कठिनाइयों में दबे पड़े हैं। ये कौन आदमी हैं जिन्होंने राम के नाम का माहात्म्य जमीन से लेकर आसमान तक लिया और यह देखा कि हम सत्संग सुन लेंगे, कथा सुन लेंगे, भागवत् सुन लेंगे और यह जप कर लेंगे, वह जप कर लेंगे, तो जीवन मुक्त हो जायेंगे। जीवन धन्य हो जायेगा।
राम का नाम नहीं काम जरूरी
मित्रो! अध्यात्म वहाँ से शुरू होता है, जहाँ से आप राम का नाम लेना शुरू करते हैं और राम का नाम लेने के बाद राम का काम करने की हिम्मत दिखाते हैं और राम की ओर कदम बढ़ाने की जुर्रत करते हैं। राम की ओर कदम बढ़ाना वह है जिसमें हमको गलना सिखाया जाता है। प्राचीनकाल में हमारे ऋषियों ने जीवन का एक चौथाई हिस्सा गलना सिखाने के लिए छोड़ रखा था। उन्होंने हर इंसान से कहा था कि आपको अपनी जिंदगी का एक चौथाई हिस्सा गलने के लिए लगाना चाहिए। समाज को अच्छा बनाने के लिए, बेहतरीन बनाने के लिए लगाना चाहिए, लेकिन आज वह परंपराएँ समाप्त हो गयीं। इसलिए हिन्दुस्तान खुशहाल नहीं हो सकता। हो भी कैसे सकता है? जिस देश में समाज को ऊँचा उठाने के लिए, मानव जाति की पीड़ा और पतन को दूर करने के लिए आदमी कुरबानी करने के लिए तैयार न हों, वहाँ किस तरीके से खुशहाली आ सकती है?
मित्रो! हमारे अध्यात्म का क्रम ही गंदा हो गया। पहले अध्यात्म का क्रम साबुन के तरीके सा था। इसमें से कितने आदमी निकलते थे और दुनिया की सफाई करते थे तथा दुनिया में शांति लाते थे। लेकिन आज वही अध्यात्म का क्षेत्र बहिरंग जीवन से एवं अंतरंग जीवन से- दोनों से भिखारी हो गया। फिर हम कैसे कह सकते हैं कि हमारे अध्यात्म का बहिरंग जीवन भिखारियों का जीवन नहीं है। संतों के पास जाइये और तलाश कीजिए कि उनका बहिरंग जीवन क्या है? आपको उनका जीवन भिखारियों जैसा मालूम पड़ेगा। वे यहाँ से पैसा माँगते हैं, वहाँ से पैसा माँगते हैं। यहाँ रोटी माँगते हैं, वहाँ दान माँगते हैं, दक्षिणा माँगते हैं। उनका बहिरंग जीवन भिखारियों जैसा है। इसी तरह पंडित के पास जाइये, ज्ञानी के पास जाइये, पुरोहित के पास जाइये- सभी का बहिरंग जीवन भिखारियों जैसा है। मित्रो! हम कैसे कह सकते हैं कि उनका जीवन शानदार है। जिसका अंतरंग जीवन भिखारी है तो हम कैसे कहें कि इसके पास अध्यात्म की हवा आ गयी, अध्यात्म का नशा आ गया। मित्रो! भिखारी आदमी अध्यात्मवादी नहीं हो सकता। अध्यात्मवादी आदमी देने वाला होता है, प्यार करने वाला होता है। भक्ति का मतलब प्यार करना होता है।
लेकिन हमारा अंतरंग जीवन भिखारी जैसा है। जहाँ कहीं भी गये, हाथ पसारते हुए गये। लक्ष्मी जी के पास गये तो हाथ पसारते हुए गये, संतोषी माता के पास गये तो हाथ पसारते हुए गये। हनुमान जी के पास गये तो हाथ पसारते हुए गये। दर- दर पर हम कंगाल होकर गये। मित्रो! क्या अध्यात्मवादी दर- दर माँगने वाला कंगाल होता है? नहीं, अध्यात्मवादी कंगाल नहीं होता है। वह राजा कर्ण के तरीके से दानी होता है, उदार होता है, उदात्त होता है। लेकिन जब हम तलाश करते हैं कि हिन्दुस्तान में कहीं भी क्या अध्यात्म जिंदा है, तो हमको पुजारियों की संख्या ढेरों की ढेरों दिखाई पड़ती है, पर अध्यात्म हमको कहीं दिखाई नहीं पड़ता है। यह देखकर हमारी आँखों में चक्कर आ जाता है कि हिन्दुस्तान में से अध्यात्म खत्म हो गया। दूसरे देशों में अध्यात्म है। इंग्लैण्ड और दूसरे देशों में जब हम पादरियों को देखते हैं, जहाँ खाने- पीने और रहने की सुविधाएँ हैं, जहाँ सड़कें हैं, जहाँ रेलगाड़ियाँ हैं, जहाँ टेलीफोन हैं, जहाँ बिजली है, उन सुविधाओं को छोड़ करके अफ्रीका के कांगो के जंगलों में, हिन्दुस्तान के बस्तर के जिलों में, नागालैण्ड के जंगलों में चले जाते हैं, जहाँ सिवाय कष्ट और तकलीफ के और क्या मिल सकता है? वहाँ कोई चीज नहीं है। मेरे मन में आता है कि इनके पैर धोकर पीना चाहिए। क्यों? क्योंकि इन्होंने अपनी जिंदगी में अध्यात्म को समझा है। अध्यात्म का स्वरूप और मर्म समझा है कि अध्यात्म किसे कहते हैं और धर्म किसे कहते हैं।
मित्रो! हमने तो इनका मर्म कभी समझा ही नहीं। हमने तो रामायण को पढ़ने का मतलब ही धर्म मान लिया। हमने तो माला घुमाने को ही धर्म मान लिया। हमारी यह कैसी फूहड़ व्याख्या है? इन व्याख्याओं का मतलब कुछ भी नहीं है। जिस स्तर के हम लोग हैं, ठीक उसी स्तर की व्याख्या हम लोगों ने कर ली हैं। ठीक उसी स्तर के भगवान् को हमने बना लिया है। ठीक उसी स्तर की भगवान् की भक्ति को बना लिया है। सब चीजें हमने उसी तरह से बना ली हैं जैसे कि हम थे।
मित्रो! हमको संसार में फिर से अध्यात्म लाना है, ताकि हमारे और आपके सहित हर आदमी के भीतर एवं चेहरे में चमक आये, तेज आये और हम सब विभूतिवान होकर जियें। हम शानदार होकर जियें और जहाँ कहीं भी हमारी हवा फैलती हुई चली जाय, वहाँ चंदन की तरीके से हवा में खुशबू फैलती हुई चली जाय। गुलाब की तरीके से हवा में हमारी खुशबू फैलती हुई चली जाय। हम जहाँ कहीं भी अध्यात्म का संदेश फैलाएँ, वहाँ खुशहाली आती हुई चली जाय। इसलिए मित्रो! हम अध्यात्म को जिंदा करेंगे। उस अध्यात्म को, जो ऋषियों के जमाने में था। उन्होंने लाखों वर्षों तक दुनिया को सिखाया, हिन्दुस्तान वालों को सिखाया, प्रत्येक व्यक्ति को सिखाया। लेकिन वह अध्यात्म अब दुनिया में से खत्म हो गया, अब नहीं है। हिन्दुस्तान में तो नहीं ही रह गया है और दुनिया में कहीं रहा होगा तो रहा होगा। हिन्दुस्तान में हम फिर से उसी अध्यात्म को लायेंगे जिससे कि हमारी पुरानी तवारीख को इस तरीके से साबित किया जा सके। फिर हम दुनिया को वही शानदार लोग देने में समर्थ हो सकेंगे, जैसे कि वैज्ञानिकों ने दिये हैं।
मित्रो! वैज्ञानिकों को धन्यवाद है कि उन्होंने हमारे लिए पंखे दिये, बिजली दी, टेप रिकार्डर दिये, घड़ी दी। ये चारों चीजें लिए हम यहाँ बैठे हैं। उनको बहुत धन्यवाद है। और अध्यात्म विज्ञान का? अध्यात्म विज्ञान का अहसान इससे लाखों गुना बड़ा था। उसने हमारे बहिरंग जीवन के लिए सुविधाएँ दीं और आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य के भीतर दबी हुई खदानें, जिनमें हीरे भरे हुए हैं, जवाहरात भरे हुए हैं और जाने क्या- क्या भरे हुए हैं, उन्हें खोदकर, उभारकर बाहर निकाला। अध्यात्म इस छोटे से इंसान को, नाचीज इंसान को जाने क्या से क्या बना कर रख देता है। ऐसा है अध्यात्म, जो एक जुलाहे को कबीर बना देता है, एक छोटे से व्यक्ति को संत रविदास बना देता है, नामदेव बना देता है। यह छोटे- छोटे आदमियों को, बिना पढ़े लिखे आदमियों को जाने क्या से क्या बना देता है। यह बड़ा शानदार अध्यात्म है और बड़ा मजेदार अध्यात्म है।
शानदार अध्यात्म का पुनर्जागरण
मित्रो! इस शानदार अध्यात्म और मजेदार अध्यात्म से क्या मतलब है? और हमें क्या करना चाहिए? हमको उस अध्यात्म को पुनः जाग्रत करना चाहिए। हमको यह तलाश करना चाहिए कि हम वे ऋषि कहाँ से लायें? ब्राह्मण कहाँ से लायें? हम ज्ञानी कहाँ से लायें? पंडित कहाँ से लायें? वे व्यक्ति जिनके भीतर आध्यात्मिकता का प्रकाश आ गया है, वो व्यक्ति हम कहाँ से लायें? हमें बड़ी कठिनाई होती है कि हम ऐसे व्यक्ति कहाँ से लायें जो अपनी जिंदगी का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा लगा सकें। हमको बड़ी निराशा होती है, खासतौर से उन लोगों से जिनके ऊपर जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। जिनके घर में बच्चे बड़े हो गये हैं और जो कमाने- खाने लायक हो गये हैं, वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। जिनके पास घर में पैसा है, वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। लोभ और मोह ने इनको कसकर जकड़ रखा है और इनको हिलने नहीं देता। इसलिए हम उनको कहाँ से लायें जो वानप्रस्थ परंपरा की- अध्यात्म की रीढ़ हैं, जिन्होंने अध्यात्म को जिंदा रखा था और जिंदा रखेंगे, उन्हें हम कहाँ से लायें?
मित्रो! आज आदमी लोभ में और मोह में इतना डूब गया है और बहाना यह बनाता है कि मैं तो भागवत् पढ़ता हूँ, रामायण पढ़ता हूँ। बेटे, तेरी काहे की रामायण और कहाँ की भागवत्? तू इन्हें बदनाम करता है। गायत्री को भी बदनाम करता है, संतोषी माता को भी बदनाम करता है। बेटे, तू बेकार में अध्यात्म का नाम बदनाम करता है। जैसा तू कमीना है, जैसा तू चालाक है, जैसा तू लोभी है, जैसे तू मोह में डूबा हुआ है, वैसे ही तू भगवान् को भी क्यों बनाये देता है। भगवान् शानदार हैं और उनको शानदार ही रहने दे। नाम लेना बंद कर दे। तेरे राम का नाम लेने से क्या फायदा? राम का नाम और बदनाम हो जायेगा। कोई यह कहे कि हम तो गुरु जी के चेले हैं और वहाँ शराब पीने और जुआ खेलने में पकड़ा जाय तो गुरुजी भी बदनाम होंगे। लोग कहेंगे कि तेरा गुरु भी चालाक होगा, चल बता, कहाँ है तेरा गुरु? उसको भी गिरफ्तार करके लायेंगे। जिस तरह से हम हैं, उसके कारण भगवान् भी गिरफ्तार कर लिया जायेगा। जैसे कुछ हम हैं, उसी तरीके से भगवान् भी पकड़ा जायेगा। इसलिए आप भगवान का नाम लेना बंद कर दीजिए।
मित्रो! हमें ऐसे अध्यात्मवादियों की, राम का नाम लेने वाले मनुष्यों की जरूरत है, जो शानदार आदमी हों, इज्जतदार आदमी हों। जिन्होंने इसका महत्त्व समझा हो कि शानदार और इज्जतदार जिंदगी कैसे जियी जा सकती है, हमें ऐसे आदमियों की आवश्यकता है। लेकिन बड़ी भारी मुश्किल यह है कि ऐसे आदमी कहाँ से लायें? यह देखकर हमारी आँखों में आँसू आ जाते हैं। तो क्या ऐसे आदमियों की कमी है? नहीं, कोई कमी नहीं है। जो रिटायर हो चुके हैं, ऐसे ढेरों आदमी भरे पड़े हैं जिनके घर वाले चाहते हैं कि हे भगवान्! यह मौत के मुँह में चला जाय, मर जाय, तो अच्छा है। घर में इनकी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन वे इतने मोह में डूबे हुए हैं कि घर से निकल नहीं सकते। कौन हैं वे आदमी? वे आदमी जिनके बच्चे कमाने लायक हो गये हैं, जिनके पास गुजारे के लायक दो पैसे मौजूद हैं। वे नहीं निकलेंगे। हम और आप निकल सकते हैं, लेकिन वे कभी नहीं निकलेंगे।
संतों की नयी पीढ़ी का निर्माण
इसलिए मित्रो! हमने यह निश्चय किया है कि अब हम ब्राह्मणों की नई पीढ़ी पैदा करेंगे और संतों की नयी पीढ़ी पैदा करेंगे। किस तरीके से पैदा करेंगे? हम एक- एक बूँद घड़े में इकट्ठा करके एक नयी सीता बनायेंगे। जिस प्रकार से ऋषियों ने एक- एक बूँद रक्त देकर के एक घड़े में एकत्र किया था और उस घड़े को सँभाल करके जमीन में गाड़ दिया था। फिर उस घड़े में से सीता पैदा हो गयी थीं। आध्यात्मिकता को पैदा करने के लिए हम उन लोगों के भीतर, जिनके भीतर पीड़ा है, जिनके अंदर दर्द है, लेकिन घर की मजबूरियाँ जिनको चलने नहीं देतीं। घर की मजबूरियों की वजह से जो एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकते, अब हमने उनकी खुशामद करनी शुरू कर दी है। हमने उन लोगों के लिए रास्ता छोड़ दिया है और उनको नमस्कार कर लिया है जिनकी गर्दन को लक्ष्मी ने, मोह ने और लोभ ने दबोच लिया है। इनसे अब हमें कोई आशा नहीं रही।
मित्रो! अब हमने आपका पल्ला पकड़ा है जिनके पास बीबी- बच्चों की जिम्मेदारियाँ हैं। जिनको अपना पेट भरने की जिम्मेदारी है, हमने आपकी खुशामद करना शुरू कर दिया है। हमने उन लोगों की ओर से मुँह मोड़ लिया है, जिनकी ओर से निराशा थी। संतों की ओर से हमने मुँह मोड़ लिया है। संतों से हमें कोई आशा नहीं रही। हिन्दुस्तान में छप्पन लाख संत हैं और सात लाख गाँव हैं। हर गाँव पीछे आठ संत आते हैं। अगर संतों में संतपन रहा होता, तो हर गाँव में धर्म की भावनायें उत्पन्न करने के लिए, निरक्षरों की समस्याओं को दूर करने के लिए, सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए, नशेबाजी को दूर करने के लिए, माँसाहार को दूर करने के लिए, दुराचार को दूर करने के लिए हम एक गाँव पीछे आठ आदमी मुकर्रर कर सकते थे। आठ आदमी अगर मुकर्रर हो जाते तो हिन्दुस्तान का कायाकल्प हो जाता। फिर वह प्राचीनकाल का वही सभ्य देश हो जाता। पर हम जानते हैं कि संसार में बहुत सारे नशे हैं, उनमें से एक नशा अध्यात्म भी है, जो आदमी को संकीर्ण बना देता है और बुज़दिल बना देता है और चालाक बना देता है। इस अध्यात्म ने लोगों को चालाक और बुज़दिल बना दिया।
मित्रो! हम उनसे क्या आशा करेंगे जो लम्बे तिलक लगाते हैं और लम्बी कंठी पहनते हैं। यह किसी काम आ सकती है? किसी काम नहीं आने वाली। वे चालाक आदमी हैं, इसलिए हमने संतों को नमस्कार कर लिया। हमने उनके बहुत चक्कर काट लिए और बहुत खुशामदें कर लीं, उनकी बहुत प्रार्थना कर ली और उनके बहुत हाथ- पैर जोड़ लिए कि हिन्दुस्तान बड़ा गरीब है, बड़ा दुःखी है और बड़ा पिछड़ा हुआ देश है। आप इसके लिए अपना पसीना बहाने के लिए खड़े हो जायें, तो हर मनुष्य के भीतर ईमान जगाया जा सकता है, शांति लाई जा सकती है, प्रेरणा भरी जा सकती है। भगवान् जगाया जा सकता है। पर उनसे हमको कोई उम्मीद नहीं रही, क्योंकि जिस आदमी ने लॉटरी लगाना सीख लिया, सट्टा लगाना सीख लिया। फिर ऐसा आदमी कड़ी मेहनत क्यों करेगा? मजदूरी क्यों करेगा? नौकरी क्यों करेगा? जिस आदमी के हाथों नुस्खा लग गया है कि हमारे पाप तो गंगाजी में डुबकी मारने के बाद दूर हो ही जाना है। और सवा रुपये की सत्य- नारायण की कथा सुनने के बाद बैकुंठ मिल जाने वाला है। इतने सस्ते नुस्खे जिसके हाथ लग गये हैं, भला वो त्याग का जीवन जियेगा क्यों? कष्टमय जीवन जियेगा क्यों? त्याग करने के लिए तैयार होगा क्यों? संयम और सदाचार का जीवन व्यतीत करने के लिए अपने आपसे जद्दोजहद करनी पड़ती है। उसके लिए तैयार होगा क्यों? उसको तो किसी ने ऐसा नुस्खा बता दिया है कि तुमको समाज के लिए कोई त्याग करने की जरूरत नहीं है। अपने आपको संयमी और सदाचारी बनाने के लिए और तपस्वी बनाने के लिए कोई जरूरत नहीं है। आप तो सवा रुपये की कथा कहलवा लिया करिये और आपके लिए बैकुंठ का दरवाजा खुला हुआ पड़ा है।
मित्रो! यह झूठा और बेबुनियादी अध्यात्म जिनके दिमाग पर हावी हो गया है, उनको मैं अब कैसे बता सकता हूँ कि आपको त्याग करना चाहिए और सेवा करनी चाहिए और कष्ट उठाने चाहिए। उनके लिए यह नामुमकिन है जो इतना सस्ता नुस्खा लिए बैठे हैं। वे शायद कभी भी तैयार नहीं होंगे। उनको मैं कैसे कह सकता हूँ। हमारा अध्यात्म कैसा घृणित हो गया है। मुझे दुःख होता है, बड़ा क्लेश होता है, मुझे रोना आता है, मुझे बड़ी पीड़ा होती है और मुझे बड़ा दर्द होता है, जब मैं अध्यात्म की ओर देखता हूँ जिसका कलेवर रावण जैसा बढ़ा हुआ है। जब मैं रामायण के पाठ होते हुए देखता हूँ, शत- चंडी यज्ञ होते हुए देखता हूँ और अखण्ड कीर्तन होते हुए देखता हूँ। रावण के तरीके से धर्म का कलेवर बढ़ा हुआ देखता हूँ, तो यह मालूम पड़ता है कि इसमें से प्राण निकल गया। जीवन इसमें से निकल गया। इसमें से दिशायें निकल गयीं। इसमें से रोशनी निकल गयी। इसमें से जिंदगी निकल गयी। अब यह अध्यात्म की लाश खड़ी है।
मित्रो! कहीं अखण्ड कीर्तन हो रहे हैं, कहीं अखण्ड रामायण पाठ हो रहा है, कहीं क्या हो रहा है, कहीं क्या हो रहा है? यह सारे के सारे कर्मकाण्ड बड़े जोरों से चल रहे हैं। लेकिन जब हम वही अखण्ड पाठ करने वालों और अखण्ड रामायण पढ़ने वालों के जीवनों को देखते हैं कि क्या उनके भीतर वह माद्दा है, जो अध्यात्मवादी के भीतर होना चाहिए? क्या इनके जीवन के क्रियाकलाप वह हैं, जो अध्यात्मवादी के होने चाहिए? हमको बड़ी निराशा होती है जब यह मालूम पड़ता है कि सब कुछ उलटा- पुलटा हो रहा है। अध्यात्म की दिशायें अच्छी हैं, पर हो बिल्कुल उलटा रहा है।
नई पीढ़ी को आवाहन
मित्रो! यह सब देखकर हमको बड़ा दुःख होता है। इसलिए निराश होकर हमको यह कहना पड़ा। आप लोगों को, जवान आदमियों को कहना पड़ा कि आप लोग आइए और अपने बच्चों को कहिए कि उन्हें एक महीने भूखों रहना पड़ेगा और एक महीना बिना कपड़ों के रहना पड़ेगा। आप ऐसा कहिए और खुद ही उस अभाव की पूर्ति करने के लिए खड़े हो जाइये, जिस अभाव की पूर्ति करने के लिए संतों ने मना कर दिया है, जिस अभाव की पूर्ति करने के लिए पुरोहितों ने मना कर दिया है। जिस अभाव की पूर्ति करने के लिए धर्मगुरुओं ने मना कर दिया है और जिस अभाव की पूर्ति करने के लिए पुजारियों ने मना कर दिया है और रामायण पाठ करने वालों ने मना कर दिया है। और जिनके पास पैसा है, उन्होंने मना कर दिया है। जिनके पास समय है, उन्होंने मना कर दिया है। हर एक ने मना कर दिया है। उनसे निराश होकर के हमने आपका पल्ला पकड़ा है। हम आपकी, उन आदमियों की खुशामद करते हैं, जिनके ऊपर गृहस्थी की बड़ी जिम्मेदारी पड़ी है। जिनके दो- दो, चार- चार बच्चों की शादियाँ करने को पड़ीं हैं। जिनके लिए माँ- बाप के लिए खर्च उठाने के लिए पड़ा है। हम उन सभी की खुशामद करने के लिए निकले हैं और हमने मुनासिब कदम उठाया है।
मित्रो! यह कदम हमने कहाँ से सीखा? यह कदम हमने अपने एक पड़ोसी देश से सीखा। वह कौन सा देश है? वह हिन्दुस्तान की सीमा से लगा हुआ बर्मा देश है। बर्मा के बाद में एक और देश में चले जाइये जो बर्मा की सीमा को पार करके आता है। उसका नाम स्याम है। हमारे इस पूर्वी एशिया का बड़ा मालदार देश है। सम्पन्न देश है, खुशहाल देश है। विद्या की दृष्टि से वहाँ बिना पढ़े लोग नहीं हैं। वहाँ अशिक्षित लोग नहीं हैं। बीमार लोग नहीं हैं। देश जरा सा है, लेकिन खुशहाली का ठिकाना नहीं। यह खुशहाली किस तरीके से आ गयी? यह सारा का सारा देश बौद्ध है। एक ही देश दुनिया में है जो विशुद्ध रूप से बौद्ध है। आपको दुनिया की तवारीख में देखने का हो, हिस्ट्री में देखने का हो, तो वहाँ जाइये जहाँ कि पूरी गवर्नमेन्ट बौद्ध है। दुनिया भर में वह एक ही देश है और उसका नाम है ‘स्याम’। प्राचीनकाल में वहाँ बौद्ध भिक्षु हुआ करते थे। अब तो बौद्ध भिक्षु नहीं रहे। अब तो भिक्षुक रह गये हैं।
मित्रो! भिक्षु और भिक्षुक का फर्क तो आप जानते हैं? भिक्षु और भिक्षुक में जमीन आसमान का फर्क है। भिक्षु अलग होते हैं, जो संसार में शांति स्थापित करने के लिए अपना जीवन अर्पित करने के लिए तत्पर रहते हैं। और भिक्षुक? भिक्षुक भिखारियों को कहते हैं। प्राचीनकाल में भिक्षु थे। भिक्षु किसी तरीके से रोटी तो खा लेते थे, लेकिन अपनी सारी जिंदगी का बहुमूल्य ज्ञान लोगों को बाँटते रहते थे और बिखेरते रहते थे। किसी जमाने में बौद्ध भिक्षुओं की बहुत बड़ी संख्या थी। भगवान् बुद्ध जिस किसी के पास गये, उसको उन्होंने यही नसीहत दी और यही उपदेश दिया कि आपको भिक्षु हो जाना चाहिए। नये छोकरे आये। उन्होंने कहा कि गुरुदेव क्या आज्ञा है? उन्होंने कहा- बेटा! भिक्षु हो जा। भिक्षु का मतलब हराम की कमाई खाने वाला नहीं है। भिक्षु का मतलब वह है- जो अपने आपको तपाता है। जो अपने आपको मुसीबत में डालता है। जो अपने आपको दुःख में धकेलता है। जो अपने आपको अभाव में धकेलता है। जो अपने आपको कंगाली में धकेलता है। इन सब चीजों में धकेलने के बाद अपनी खुशहाली को दुनिया में बिखेर देता है। उस आदमी का नाम है- भिक्षु।
भिक्षुक नहीं, भिक्षु बनें
मित्रो! भगवान् बुद्ध के पास जो नये लड़के आये, उन्होंने उनसे कहा- ‘बेटे, तुमको भिक्षु हो जाना चाहिए।’ उनने कहा- ‘गुरुदेव आपकी आज्ञा है तो मैं हो जाता हूँ।’ लड़कियाँ आईं और उन्होंने कहा- ‘गुरुदेव! हमारे लिए क्या आज्ञा है? आप हमें धर्म का मार्ग बताइये। हमको खुशहाली का मार्ग बताइये। हमारे संतान नहीं होती। बेटी, बेटे दिलवाने का रास्ता बताइए।’ उन्होंने कहा- ‘बेटी को जहन्नुम में झोंक दे और तू मेरे साथ आ जा। समाज में जा। महिला समाज में अज्ञान फैला हुआ है, उसको दूर करने के लिए आगे बढ़।’ बस क्या था? उन छोकरियों ने भी बुद्ध का प्रकाश ग्रहण किया और भिक्षु हो गयीं। ढाई लाख के करीब उन्होंने नौजवानों को भिक्षु और भिक्षुणी बनाया। किसने बनाया? भगवान् बुद्ध ने। क्या किया उन्होंने? हिन्दुस्तान में वाममार्ग की विचारधारा के नाम पर हिंसाएँ, अनाचार का जो साम्राज्य छाया हुआ था। दुनिया में अज्ञान का जो अँधेरा छाया हुआ था। उन ढाई लाख व्यक्तियों ने अपने आपको गला करके और बरबाद करके दुनिया में खुशहाली पैदा की और शांति पैदा की, उन्नति पैदा की।
मित्रो! धीरे- धीरे वे बौद्ध भिक्षु लुप्त होते चले गये और जैसे हिन्दुस्तान में भिक्षुक पैदा हो गये हैं, उसी तरीके से बौद्धों में भी वही हवा आई। उसमें भी भिक्षुक पैदा हो गये हैं और भिक्षु खत्म हो गये हैं। अब स्याम देश में क्या करना पड़ा? वहाँ के लोग बहुत समझदार हैं। उन्होंने कहा कि हममें से हर एक आदमी को एक साल के लिए संन्यास लेना चाहिए और एक साल के लिए भिक्षु बनना चाहिए। वहाँ के प्रत्येक परिवार की परंपरा है कि एक वर्ष के लिए हर आदमी को भिक्षु होना ही चाहिए। बौद्ध विहारों में रहना ही चाहिए। बौद्ध विहारों में रहकर तप करना ही चाहिए। तप करने का मतलब समाज के लिए, सेवा करने के लिए, कष्ट उठाने के लिए होता है। सारे के सारे स्याम देश में इस परंपरा को जीवंत रखने का अब एक ही तरीका है कि बौद्ध विहार इस बात की जिम्मेदारी उठाते हैं कि हम देश को साक्षर बनायेंगे। एक महीने ट्रेनिंग देने के बाद उनको ग्यारह महीने के लिए अध्यापक बनाकर भेज देते हैं।
जब स्कूलों की एक महीने की छुट्टी होती है, उस समय में आदमी को विहारों में रहना पड़ता है और विहार में रहने के बाद में फिर वे चले जाते हैं। जिन्होंने हाई स्कूल पास किया है, वे प्राइमरी स्कूल को पढ़ाते हैं। जिन्होंने एम.ए. किया है, वे बी.ए. वाली क्लास को पढ़ाते हैं। अस्पतालों से लेकर समाज सेवा के असंख्यों कार्यों तक सारे के सारे जो कार्य होते हैं, उन बौद्ध भिक्षुओं द्वारा होते हैं। सब मिलाकर दुनिया भर में एक लाख बौद्ध भिक्षुओं द्वारा होते हैं। सब मिलाकर दुनिया भर में एक लाख बौद्ध भिक्षु हैं, जो स्याम के मठों में निवास करते हैं। एक चला जाता है और दूसरा आ जाता है। गवर्नमेंट ने भी केवल चोर, उठाईगीरों को पकड़ने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली है। चुंगी वसूल करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर रखी है, लेकिन सार्वजनिक कार्यों की सारी की सारी जिम्मेदारी बौद्ध धर्म के ऊपर छोड़ रखी है। बौद्ध विहार अपनी आवश्यकता जनता से मिले दान से, दक्षिणा से पूरी कर लेते हैं। क्योंकि हर आदमी जानता है कि हम एक साल के लिए वहाँ बौद्ध विहार में गये थे। हम एक साल वहाँ रहे थे और रोटी हमको वहीं से मिली थी, कपड़ा हमको वहीं से मिला था। इसलिए हमको अपनी कमाई का एक हिस्सा बौद्ध विहार को देना चाहिए, ताकि अपने देश की शिक्षा और संस्कृति को जिंदा रखा जा सके।
मित्रो! वहाँ का हर आदमी यही समझता है कि हमारी कमाई का एक हिस्सा विहार को जाना ही चाहिए। भिक्षुओं की ज्यादातर आवश्यकताएँ इसी से पूरी हो जाती हैं, अगर कुछ कमी पड़ती है तो उसे गवर्नमेंट पूरा कर देती है। बस, सारे के सारे देश का यही हाल है। वहाँ का सिक्का क्या है? वहाँ का सिक्का इतना शानदार और मजबूत है कि उसके बराबर सारे एशिया में किसी का सिक्का नहीं है। वहाँ करोड़ों रुपया उस देश का जमा है। हर आदमी के पीछे आमदनी और माली हालत इतनी अच्छी है कि और किसी की भी नहीं है। स्याम देश के बारे में शायद अपने अखण्ड ज्योति के जनवरी के अंक में पढ़ा हो, जिसमें मैंने इस देश के बारे में लिखा है। स्याम देश के बारे में मेरे पास एक किताब है, फुरसत मिल जाय तो आप उसे पढ़ना कि वहाँ की खुशहाली सारे एशिया में किस तरीके से बढ़ी।
मित्रो! अब हम अपने देश की खुशहाली बढ़ायेंगे और दुनिया की खुशहाली बढ़ायेंगे। न केवल भौतिक खुशहाली बढ़ायेंगे, न केवल लोगों के अन्दर से गरीबी दूर करेंगे, वरन् इंसान के भीतर दीनता के जो भाव समा गये हैं, उन्हें भी दूर करेंगे। यह बीमारी उससे भी ज्यादा कष्टदायी है, जो हमको बुखार, खाँसी, दर्द, घुटने की बीमारी और कमर के दर्द के रूप में कष्ट देती है। उससे हजार गुना ज्यादा जबरदस्त दीनता की बीमारियाँ हैं, जो हमारे ऊपर हावी हो गयी हैं और जिन्होंने हमारा ईमान, हमारा दिल और हमारा दिमाग चकनाचूर करके फेंक दिया है। अब हम उसी शान से लड़ाई लड़ेंगे जिस तरीके से स्याम के निवासी लड़ते रहे हैं।
दीपक बनें, औरों के लिए जलें
मित्रो! हमने आपकी खुशामद की और आपने हमारी प्रार्थना मंजूर कर ली। हमारे लिए यह बहुत ही प्रसन्नता की बात है। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं है। जब हम आप जैसे नौजवानों को, नई पीढ़ी के लोगों को, खासतौर से उन आदमियों को जिनके पास बीबी- बच्चों की जिम्मेदारियाँ है, उनका पेट भरने का वजन जिनके ऊपर लदा हुआ है। हम आपको पा करके कितने खुश हैं, कह नहीं सकते। अब हम उन भाग्यहीन लोगों को चैलेंज करेंगे, जिनके ऊपर न घर की जिम्मेदारियाँ हैं, न पैसे की जिम्मेदारियाँ हैं। न रोटी कमाने की चिंता है। रोटियाँ तो उनके घर में संदूकों में भरकर रखी हुई हैं और जिनके ऊपर जिम्मेदारियों का एक कण भी नहीं है। लेकिन अभागे मनुष्य सिवाय इसके- अपने पेट के लिए, पैसे के लिए, अपनी हवस पूरी करने के लिए और वासनाओं को पूरा करने के लिए जिंदगी तबाह करते रहते हैं।
बच्चो! हम आपको दुनिया के सामने नमूने के तौर पर पेश करेंगे। हम आपको अपनी कुर्सी पर खड़ा करेंगे। मेज पर खड़ा करेंगे और दुनियावालों को दिखायेंगे कि ईमानवाले ऐसे होते हैं कि उनके ऊपर वजन भी पड़ा हो, कष्ट भी पड़ें हों, मुसीबत भी पड़ी हो, गरीबी की मार भी पड़ी हो, बड़ी जिम्मेदारियों का बोझ भी पड़ा हो, फिर भी वे शानदार आदमी होते हैं। आप हमारी इज्जत हैं, आप हमारी शान हैं। भारतवर्ष की आध्यात्मिकता की जीवंत मिसाल हैं। आपके आने की हमको बहुत खुशी है। हम आपसे बड़े महत्त्वपूर्ण काम कराना चाहेंगे। लेकिन आपसे महत्त्वपूर्ण काम कराने से पहले हमको एक काम करना पड़ेगा। क्या करना पड़ेगा? यह काम करना पड़ेगा कि आप स्वयं इस लायक हो जायें कि दूसरों को प्रकाश देने की स्थिति में आ जायें। दीपक पहले स्वयं जला करता है। दीपक में रोशनी पहले खुद पैदा होती है। उसमें खुद रोशनी हो जायेगी तो बाहर भी प्रकाश फैलायेगा। दुनिया में आपने ऐसा कोई दीपक देखा है जिसके अंदर स्वयं प्रकाश न हो और बाहर प्रकाश करता फिरता हो। दुनिया में ऐसा प्रकाश कहीं हो ही नहीं सकता। हम आपको प्रकाशवान बनायेंगे। हम आपके भीतर प्राण भरेंगे। हमने जो यहाँ आपको एक महीने के लिए बुलाया है, उसमें कुछ ऐसी कीमती चीजें देने के लिए बुलाया है जिसको पा करके आप निहाल हो जायेंगे।
मित्रो! हम आपको क्या चीज देंगे? यहाँ सामान्यतः मोटे रूप से शिक्षण चलता रहेगा। हमारे दो प्रवचन होते रहेंगे। उनकी कोई कीमत है? आपने अखण्ड ज्योति पढ़ी है और हमेशा मेरे प्रवचन सुने हैं। हमारे व्याख्यान आपने दूसरी जगह भी सुने होंगे। मेरे विचारों की आपको जानकारी है। आपको अगर जानकारी न होती तो आप यहाँ क्यों आते? मेरे पास कोई और विचार बाकी रह नहीं गया है, जो मैंने कभी अखण्ड ज्योति में छापा न हो और पुस्तकों में छापा न हो। ठीक है आपके समय का आक्षेप होता हुआ चला जाय, इसलिए हम यहाँ दो प्रवचन बराबर करते रहेंगे। एक घंटे सबेरे किया करेंगे और एक घंटे शाम को करेंगे। आपकी भूख दूर करने के लिए जिस तरह हम आपको दो बार खाना खिलाते हैं और फुर्ती लाने के लिए दो बार चाय पिलाते हैं। इसी तरीके से दो डोज हम आपको रोज पिलाते रहेंगे जो हमारे व्याख्यानों के हैं। हम आपको यहाँ कर्मकाण्ड सिखाएँगे। यहाँ से आपको धर्ममंच से लोकशिक्षण करने के लिए समाज में जाना पड़ेगा। उसके लिए हम आपको थोड़ी सी बातें सिखाएँगे और आपको जानकारियाँ देंगे कि समाज का नया निर्माण करने के लिए आपको क्या- क्या क्रियाकलाप और क्या- क्या निर्माण करने पड़ेंगे। उन कामों की भी जानकारियाँ आपको देंगे। लेकिन यह दोनों ही जानकारियाँ गौण हैं। यह दोनों ही शिक्षण गौण हैं। यह दोनों ही बातें गौण हैं। असली बात यह नहीं है।
जीवात्मा का तेज- ब्रह्मवर्चस
असली बात क्या है? असली बात यह है कि आपकी जीवात्मा के अंदर हमें वह तेज भरना है, जिसको ‘ब्रह्मवर्चस’ कहते हैं। ब्रह्मवर्चस आपके भीतर पैदा हो जाय, तो आप न जाने क्या से क्या करने में समर्थ होंगे। अगर आपके अंदर ब्रह्मवर्चस पैदा न हो सका, तो मित्रो! आप मिट्टी के आदमी हैं, धूल के आदमी हैं, कीड़े हैं, मच्छर हैं और मक्खियाँ हैं। ऐसी स्थिति में यदि हम आपको प्रधान बनाकर कहीं भेज देंगे, तो अपनी मिट्टी पलीत करा करके आयेंगे और हमारी भी मिट्टी पलीत करा करके आयेंगे। आपको हम गायत्री परिवार का प्रेसीडेंट बना दें, तो अभी आप धूल के बराबर हैं, मिट्टी के बराबर हैं। आप गायत्री परिवार को तबाह करेंगे और हमको तबाह करेंगे तथा अपने को तबाह करेंगे। तीनों को तबाह करेंगे। अगर हम आपको कोई पद सौंप दें और अमुक काम सौंप दें, तो इससे कोई काम बना है? नहीं, इससे कोई काम नहीं बना है।
मित्रो! काम किससे बनता है? काम उससे बनता है जिस जीवात्मा के भीतर प्रकाश भरा हुआ है। ऐसे आदमी जहाँ कहीं भी गये हैं, खराब परिस्थितियों को भी अच्छा बनाते चले गये हैं। बुरे लोगों को अच्छा बनाते चले गये हैं। बुरी परिस्थितियों पर कब्जा करते चले गये हैं। अँधेरे में रोशनी पैदा करते हुए चले गये हैं। और जिनके दिल और दिमाग सो गये थे, उनको जगाते हुए चले गये हैं। कौन? जो स्वयं जगा हुआ है। आपको स्वयं जगा हुआ इंसान बनाने के लिए हमने इस शिविर में बुलाया है। न जाने क्यों एक पुरानी घटना हमको बार- बार याद आ जाती है। कुंभ का मेला लगा हुआ था, जैसे यहाँ कल से कुंभ मेला प्रारंभ होने वाला है। उसी तरह कुंभ मेले में एक स्वामी जी आये थे। स्वामी जी ने इसी तरीके से व्याख्यान दिया था, जैसे हम आपको यहाँ दे रहे हैं। हमको स्वामी जी का नाम याद आ रहा है। उनके जो गुरु थे, आँखों से अंधे थे। उन्होंने अपने विद्यार्थी से कहा कि बेटे! तू मुझे कुछ देगा क्या? मैंने तुझे विद्या दे दी, प्यार दे दिया, बल दे दिया। तू भी कुछ देगा क्या?
विद्यार्थी बोला- ‘गुरुदेव! मेरे पास क्या है? मैं क्या दे सकता हूँ।’ लौंग का एक जोड़ा लेकर गुरुदेव के पास गया और बोला कि गुरुदेव! दक्षिणा में बस यही है हमारे पास। बेटे, लौंग के जोड़े का मैं क्या करूँगा? यह मेरे किस काम आने वाला है? तो फिर क्या चीज दूँ? मेरे पास क्या है बताइये? मैं तो साल भर आपके पास पढ़ा हूँ और रोटी भी तो मैंने यहीं से खाई है। कपड़ा भी तो आपने ही पहनाया है। अब मेरे पास क्या चीज रह जाती है जो मैं आपको दूँ।
गुरुदेव बोले- बेटे तेरे पास इतनी कीमती चीज है, जो तुझे भी मालूम नहीं है। मेरे पास क्या चीज है? तेरे पास है तेरा वक्त, तेरा श्रम, तेरा पसीना, तेरा हृदय, तेरा मस्तिष्क, तेरी बुद्धि, तेरी भावनाएँ। तेरे पास यह इतनी बड़ी चीजें हैं कि उसका रुपये से कोई सम्बन्ध नहीं है। रुपया तो इसके सामने धूल के बराबर है, मिट्टी के बराबर है। रुपया किसी काम का नहीं है इसके आगे। तेरे पास ये चीजें है, उन्हें तू मुझे दे दे।
विद्यार्थी को उमंग आ गयी। उसने कसम खाकर कहा- ‘गुरुजी! कसम खाकर के कहता हूँ कि यह जिंदगी आपके लिए है और इसे आपके लिए ही खर्च करूँगा।’ बस, वह निहाल हो गया। आँखों से अंधे गुरु की आँखें चमक पड़ीं। कौन से गुरु की? स्वामी बिरजानन्द की। स्वामी बिरजानन्द की आँखें मथुरा में अंधी हो गयीं थीं। बाहर की आँखें तो अंधी बनी रहीं, लेकिन भीतर की आँखों में ऐसी रोशनी आई, कि चेहरा चमक पड़ा। खुशी का कोई ठिकाना न रहा। उन्होंने उस विद्यार्थी से, जिसका नाम था ‘दयानन्द’- से कहा कि ‘बच्चे! तू जा। पाखंड खंडिनी पताका लेकर जा। पहला काम तुझे लोगों के मस्तिष्क की सफाई का करना पड़ेगा। पहला काम लोगों को ज्ञान देना नहीं है, रामायण पढ़ाना नहीं है, गीता पढ़ाना नहीं है, मंत्र देना नहीं है।’
नहीं, गुरुजी! शंकरजी का मंत्र दे दीजिए। अरे बाबा! शंकर जी भी मरेंगे और तू भी मरेगा। पहले अपने को भीतर- बाहर से धोकर के साफ कर ले। धोया नहीं जायेगा तो बात कैसे बनेगी। पाखाने का कमोड लेकर के आप जाइये। गुरुजी! इसमें गंगा जल डाल दीजिए। बेटे, इसमें गंगा जल डालने की बजाय तो यह जैसी है वैसी ही पड़ी रहने दे। मित्रो! इन्सान को जब तक धोया नहीं जायेगा और उसमें आप राम का नाम डालेंगे, हनुमानजी का नाम डालेंगे, गणेश जी का नाम डालेंगे और रामायण का नाम डालेंगे, तो रामायण की मिट्टी पलीत हो जायेगी और कृष्ण जी की मिट्टी पलीत हो जायेगी और वह गंदगी जहाँ की तहाँ बनी पड़ी रहेगी।
मित्रो! आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने के लिए क्या करना पड़ता है? इसमें पहला काम सफाई का होता है, चाहे वह समाज की सफाई हो, चाहे व्यक्ति की सफाई हो, चाहे किसी की सफाई हो। सफाई किये बिना अध्यात्म का रंग किसी पर चढ़ा ही नहीं है। कपड़ा रँगने से पहले आपने उसे धोया था न? अगर आपने धोया नहीं होगा, तो कपड़े का रंग कभी भी नहीं आ सकता। राम का नाम कपड़ा रँगने के बराबर है। इसके पहले हमको वह काम करना पड़ता है, जिसको हम संयम कहते हैं। जिसको हम तप कहते हैं। जिसको हम योगाभ्यास कहते हैं। तप क्या होता है? संयम क्या होता है? और योगाभ्यास क्या होता है? इनसे आपके शरीर और मन पर अर्थात् बहिरंग और अंतरंग में जो पाप और दुष्प्रवृत्तियाँ हावी हो गयी हैं, उनको साफ करना पड़ता है।
अध्यात्म का मर्म- आत्म परिष्कार
मित्रो! आपने इनको साफ किये बिना अगर राम का नाम लिया है, तो बिल्कुल बेकार है। आपने हनुमान का नाम लिया तो बिल्कुल बेकार है। आपको किसी ने बहका दिया है कि राम का नाम लेने से पाप दूर हो जाते हैं। यह नहीं हो सकता। पाप दूर होने के बाद में राम का नाम लिया जाता है, तो सार्थक हो जाता है। राम के नाम से कहीं किसी का पाप दूर हुआ है? पाप दूर करने के बाद में राम का नाम लिया जाय, तो वह सार्थक हो जायेगा। असली सिद्धान्त यही है, जो मैंने वेदों में, उपनिषदों में, स्मृतियों में, पुराणों में पाया है और जिस पर मैं यकीन करता हूँ। मैं इस बात पर यकीन नहीं करता कि कोई आदमी- कमीना आदमी दुष्टता का, चांडाल का, पापी और पिशाच का जीवन जिया करे और राम का नाम लिया करे तो उसकी मुक्ति हो जायेगी। यह बिल्कुल असंभव है। वह किसी तरह से मुक्त नहीं हो सकता। जब तक आदमी अपने मन को साफ नहीं कर लेता, हृदय को साफ नहीं कर लेता, तो राम का नाम कहाँ से लेगा?
इसलिए मित्रो! क्या हुआ? उनके गुरु स्वामी बिरजानन्द ने यह आज्ञा दी कि पहले लोगों के दिलों की और दिमाग की एवं जमाने की सफाई करनी चाहिए, जो कि इतने गलीज हो गये हैं। समाज की व्यवस्था के लिए लोगों के दिलों और दिमागों की सफाई करने का काम उनको सौंपा। किसको सौंपा? स्वामी दयानन्द को। स्वामी दयानंद कुंभ के मेले में आये और उन्होंने अपना झंडा गाड़ा। उस पर ‘‘पाखंड खण्डनी पताका’’ लिखा हुआ था, जैसे कि आपके झंडे पर ‘युग निर्माण योजना’ लिखा हुआ है। कुंभ के मेले में वे महीने भर तक व्याख्यान करते रहे। किसी ने मजाक उड़ाया, किसी ने ढेला मारा, किसी ने पत्थर मारा। किसी ने गालियाँ दीं। कोई आया हँसी उड़ाकर चला गया। कोई मजाक उड़ाकर चला गया। सब चले गये और स्वामी जी खड़े रहे। उन्हें बड़ी निराशा हुई कि एक महीने तक मैंने व्याख्यान दिये, लेकिन कोई आदमी सुनने के लिए नहीं आया। जो आये थे, वे नाराज होकर चले गये और मजाक उड़ाकर चले गये। मैं जो करना चाहता था, वह काम सफल न हो सका।
फिर क्या हुआ? स्वामी जी की समझ में आ गया कि इसकी वजह क्या है? मेरे पास बस ज्ञान है। मुझे रामायण कहना आता है बस। ज्ञान से कुछ काम बनेगा क्या? ज्ञान से कुछ काम नहीं बन सकता। मुझे तो वह शक्ति इकट्ठी करनी चाहिए, जिसको हम ‘आत्मबल’ कहते हैं। आत्मबल प्राप्त करने के लिए स्वामी दयानंद वहाँ से चले गये। गंगोत्री के पास एक स्थान ऐसा है जहाँ पाँच नदियाँ आपस में मिलती हैं। वह सुहावना स्थान है। उस जगह को उन्होंने अच्छा समझा। वहाँ एक गुफा देखी और वहीं रहने लगे। तीन साल तक वहीं रहे और आत्मचिंतन करते रहे, उपासना करते रहे। तीन साल के बाद जब उनको भीतर से महसूस हुआ, तो वे उस प्रकाश को ले करके आये। इसके पश्चात् वे जहाँ कहीं भी गये, प्रकाश फैलाते चले गये। सबसे पहले वे अजमेर गये। वहाँ एक बहुत बड़ा प्रेस स्थापित किया। वहाँ से वैदिक ऋचाओं और आर्यसमाज के ग्रंथों का प्रकाशन होने लगा। इसके बाद वे बंबई चले गये। बम्बई में आर्य समाज की स्थापना हुई। वे जहाँ कहीं भी गये, आर्य समाज की हवा फैलती हुई चली गयी और एक फिजा पैदा होती हुई चली गयी। और दिशा पैदा होती हुई चली गयी। काम करने वाले व्यक्ति भी उनको ऐसे- ऐसे जबरदस्त मिले। उस जमाने में उनको लाला लाजपतराय मिले, सर्वदानंद उनको मिले। जाने कौन- कौन मिले। बड़े गजब के आदमी थे। वे सब बड़े- बड़े लोहे के आदमी थे, स्टील के आदमी थे, जो उनको मिले। किसको मिले? स्वामी दयानंद जी को मिले।
मित्रो! स्वामी दयानंद जी को इतने जबरदस्त आदमी क्यों मिले? क्योंकि वे स्वयं अपने भीतर आत्मबल का संबल लिए हुए थे। हम और आप जैसे होते, तो हमारे पास कोई कुत्ता भी नहीं आता। हम और आप जैसे लोगों की मिट्टी पलीत हो सकती है, लेकिन जिनके पास सामर्थ्य है, उनके पास अच्छे व्यक्ति आये हैं और हमेशा आयेंगे और आते रहेंगे। उसके लिए उनका भंडार कैसे खाली हो जायेगा जिनके भीतर स्वयं भंडार भरा हुआ है। उनके भंडार कभी खाली हो सकते हैं? कभी नहीं हो सकते। इस धरती पर एक से एक बढ़िया और एक से एक बेहतरीन आदमी आये हैं और जरूर आयेंगे। स्वामी दयानन्द ने जो काम किया, मैं भी वही करना चाहता था।
मित्रो! आप इस कुंभ के अवसर पर यहाँ एक महीने के लिए आये हैं, गंगा किनारे आये हैं। वहाँ आये हैं, जहाँ हिमालय का द्वार खुला हुआ है। आप शान्तिकुञ्ज में आये हैं तो यहाँ से आप वह चीज ले करके जायें, जो हमारे व्याख्यानों से हजार गुनी ज्यादा कीमती है और जिसका हम शिक्षण करने वाले हैं। यहाँ पर हम जो आपको कर्मकाण्ड और हवन की विधि, संस्कार आदि सिखाने वाले हैं, उससे लाख गुना ज्यादा कीमती वह चीज है, जिसे कमाकर यदि आप ले जाएँ तो आपकी यह कमाई बड़ी शानदार होगी और बड़ी महत्त्वपूर्ण होगी और जिंदगी भर काम देगी। उससे आपका भी काम चल जायेगा और हमारा भी काम चल जायेगा। आपका भी उद्धार हो जायेगा, हमारा भी उद्धार हो जायेगा। आप उस चीज को ले करके जाएँ, जो हम आपको देना चाहते हैं। आप क्या चीज ले करके जायेंगे? आप यह चीज लेकर के जाएँ- एक भगवान् की भक्ति, भगवान् पर विश्वास, भगवान् की निष्ठाएँ। इन्हें आप इकट्ठा करके ले जाएँ।
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपका असली कार्यक्रम वही है जो अभी हमने आपको बताया। नकली कार्यक्रम यह है कि आप विचारों की दुनिया में खोये रहें, अच्छे विचार आपके ऊपर हावी रहें। बुरे विचार आपके ऊपर हावी न होने पायें। इसलिए हमने सारे का सारा आठ घंटे का कार्यक्रम बना दिया है। चाहें तो आप उस आठ घंटे के कार्यक्रम में उलझे रहें जिससे कहीं बुरे ख्याल आपके ऊपर हावी न हो जाएँ। और अच्छे विचार घेरे रहें। असल में आप इन सब बातों से दो फुट ऊँचे उठ कर रहना और यह सोचना कि हम यहाँ किसलिए आये हैं? यही कि हम यहाँ से शक्ति के पुंज ले करके जायेंगे और शक्ति की धाराओं को लेकर जायेंगे। शक्ति की धारायें कहाँ से आयेंगी? और शक्ति की धारायें हमें कहाँ लाना चाहिए?
साथियो! इसमें कुछ काम आपका है और कुछ काम हमारा है। कुछ आप कीजिए, कुछ हम करेंगे। कुछ काम बेटा करता है और कुछ बाप करता है। बाप किताबों का इंतजाम करता है, फीस का इंतजाम करता है। बाप बेटे के लिए खाने का इंतजाम करता है और बेटा पढ़ने का इंतजाम करता है। किताबों को लेकर बैठा रहता है। बेटे का काम बेटा करता है और बाप का काम बाप करता है। दोनों मिलकर जब काम करते हैं, तो बेटा एम.ए. अच्छे डिवीजन में पास हो जाता है। फर्स्ट डिवीजन में पास हो जाता है। अगर बाप अपना काम करने से इंकार कर दे कि हम इसकी सहायता नहीं करेंगे। हमारे पास फीस नहीं है। हम रोटी नहीं खिलायेंगे, भाग जाओ। तो फिर बेचारा बच्चा पढ़ेगा तो सही, किन्तु कोई गारण्टी नहीं है कि वह अच्छे डिवीजन में ही पास हो जाय। इसी तरह यदि बाप सारे का सारा सामान मुहैया करा दे और बेटा इंकार कर दे कि पिताजी! हमको नहीं पढ़ना है। आप पैसा देते हैं, तो ठीक है। आपने कापी मँगा दी तो ठीक है। ट्यूशन लगा दिया तो अच्छा है, लेकिन हमको फुरसत नहीं है। हम नहीं पढ़ेंगे। हम तो सिनेमा देखेंगे। बेटे, तब भी मुश्किल है। दोनों के सहयोग से काम चलेगा। आप अपना काम करना और हम अपना काम करेंगे। हम और आप दोनों मिलकर अगर काम करेंगे, तो एक अच्छी मंजिल पार कर लेंगे और जिसको पाने के लिए आपको बुलाया है, वह आप जरूर ले करके जायेंगे।
मित्रो! इसके लिए आपको क्या करना चाहिए? आपको भगवान् की उपासना करनी चाहिए। भगवान् की उपासना क्या होती है? भगवान् के समीप जा बैठना। भगवान् के समीप जा बैठना किसे कहते हैं? जैसा भगवान् होता है, उसी तरह से जब हम बन जाते हैं, तो उसको हम उपासना कहते हैं। आग जल रही होती है। उसमें हम लकड़ी डाल देते हैं, तो यह उपासना हो जाती है। आग जैसी है, वैसा ही या तो लकड़ी को बनना पड़ेगा या फिर लकड़ी जैसी है वैसे ही आग को बनना पड़ेगा, तभी तो बात बनेगी। आग अपनी जगह बनी रहे और लकड़ी अपनी जगह बनी रहे, तो यह कैसे हो सकता है? पानी और मिट्टी को हम मिला देते हैं, तो या तो मिट्टी को पानी बनना पड़ेगा या फिर पानी को मिट्टी बनना पड़ेगा। यह कैसे हो सकता है कि पानी अलग रखा रहे और मिट्टी अलग रखी रहे। भगवान् की उपासना आप करें और भगवान् की विशेषताओं को, भगवान् के गुणों को और भगवान् की धाराओं को अपने भीतर आप धारण न करें, यह कैसे हो सकता है? आप उनमें मिल जाइए या अपने में उन्हें मिला लीजिए। उपासना इसी का नाम है। इससे कम में कोई उपासना नहीं हो सकती।
मित्रो! आपने किसी को हरफों का उच्चारण करना सिखा दिया, मुबारक। इसे जिंदा रहना चाहिए, बंद नहीं करना चाहिए। हरफों का उच्चारण करने में बुराई भी क्या है? पहले आप गंदे गाने गाया करते थे और सीलोन रेडियो सुना करते थे। उसके स्थान पर अब कुछ हरफों का उच्चारण करना आपने सीख लिया है, तो उसमें बुराई की क्या बात है? यह अच्छी बात है। कोई खराब बात नहीं है। लेकिन बात इतने से ही बनने वाली नहीं है। आप भगवान् जैसे विशाल, भगवान् जैसे महान् होने के लिए अपने अन्दर वे प्रेरणाएँ और वे दिशाएँ पैदा कीजिए, वह गर्मी पैदा कीजिए, वह महानताएँ पैदा कीजिए, तो आपकी उपासना सफल मानी जायेगी।
गुरुजी! उपासना के लिए कर्मकाण्ड? हाँ बेटे! आपको थोड़े से कर्मकाण्ड भी सिखाएँगे। क्या सिखाएँगे? आपको गायत्री मंत्र की उपासना सिखाएँगे। गायत्री मंत्र से बढ़िया कोई मंत्र दुनिया में नहीं है। मेरा तो इस पर अटूट विश्वास है। एक बात याद रखना कि जप या उपासना भावनापूर्वक होनी चाहिए, बिना भावना के नहीं। बिना भावना के अगर आप जप कर रहे होंगे, तो आपको नींद आ जायेगी। फिर कहेंगे कि गुरुजी! पहले तो हमारा बड़ा मन लगता था, लेकिन अब नहीं। अच्छा, बता बेटा, तूने भावना के साथ कब किया? एक दिन भी तो नहीं किया। तूने जबान की नोंक से उच्चारण किया। परन्तु जबान की नोंक से उच्चारण करने पर न कोई परिणाम होते हैं, न कोई मन लगता है, न कोई उसमें निष्ठा होती है, न कोई बात बनती है। क्यों? क्योंकि तूने जबान की नोंक से किया था। यहाँ जबान की नोंक से मत करना। यहाँ भावना पूर्वक जप करना।
मित्रो! गायत्री और यज्ञ हमारी भारतीय संस्कृति के माता- पिता हैं। गायत्री का स्थूल रूप, गायत्री का बहिरंग रूप वह है जो हम पालथी मारकर बैठे रहते हैं और जप करते रहते हैं। यज्ञ का स्थूल रूप वह है जो वेदी बनाते हैं, समिधा लगाते हैं और घी होमते हैं, आरती उतारते हैं। यह सब स्थूल रूप है। यह इसका सूक्ष्म रूप नहीं है। सूक्ष्म रूप की गायत्री अलग है और सूक्ष्म रूप का यज्ञ अलग है। सूक्ष्म रूप की गायत्री को आपको यहाँ लगातार करते रहना चाहिए। प्रातःकाल साढ़े चार बजे हम घंटी बजाते हैं, तब उठेंगे। सवा छः बजे आपको चाय के लिए बुलाते हैं। आपके इस तरह पौने दो घंटे बन जाते हैं। पौने दो घंटे में ही आपको शौच, स्नानादि से निवृत्त हो जाना चाहिए। इससे निवृत्त होने के पश्चात् आपको अपनी उपासना में बैठ जाना चाहिए।
उपासना में मात्र जप करना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उसके साथ ध्यान भी जुड़ा हुआ है। दानवीर कर्ण की उपासना में सूर्य का ध्यान भी शामिल था। कौन सा वाला? जिसका कल मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि यज्ञ एकता का प्रतीक है। यज्ञ अग्नि का प्रतीक है, तेज का प्रतीक है, ब्रह्मवर्चस का प्रतीक है। उसका बहिरंग रूप वह है जो हम हवन करते हैं। लेकिन उसका अंतरंग रूप वह है, जो सूर्य के रूप में दिखाई पड़ता है। आप सबेरे जप किया करें और इसके लिए पालथी मारकर बैठ जाया कीजिए। धूपबत्ती जलानी हो तो जला लीजिए। साथ ही सूर्य भगवान् को अर्घ्य चढ़ाने के लिए एक पात्र में पानी रख लीजिए। खुले आकाश में कहीं बैठ जाइये, कमरे में बैठ जाइये अथवा बाहर बैठ जाइये। मैं तो आजकल बाहर ही बैठता हूँ। ऊपर वाला कमरा है उसको बंद कर देता हूँ और जहाँ सितारे चमकते हैं, खुला आसमान चमकता है, वहाँ बैठ जाता हूँ और भगवान् का ध्यान करता रहता हूँ। उसकी लीला को देखता रहता हूँ। प्रकाश की रोशनी ग्रहण करता रहता हूँ। आप भी यहाँ एक महीने तक ऐसे ही करना।
मित्रो! प्रातःकाल जहाँ कहीं भी आप को, सारे के सारे स्थान में जहाँ सुन्दर स्थान मालूम पड़ता हो, एकान्त मालूम पड़ता हो, जहाँ से खुला आसमान दिखाई पड़ता हो, आप वहाँ बैठ जाना और ध्यान करना। आँखें बंद करके मन ही मन गायत्री का जप करना और भावना करना कि ज्ञान की गंगा में बह रहे हैं। शान्तिकुञ्ज में ज्ञान की गंगा प्रवाहित हो रही है। यह तीर्थ गंगोत्री है जहाँ आप निवास करते हैं। यहाँ से ज्ञान की गंगा का उद्गम होता है। इसको उत्पन्न करने वाले कई एक हैं। हम लोगों की कई सम्मिलित दुकानें हैं। कौन सी? शान्तिकुञ्ज उनमें से एक है। शान्तिकुञ्ज का बहिरंग रूप हमने बनाया है। यहाँ पत्थर इकट्ठा करने, ईंटें इकट्ठा करने की जिम्मेदारी हमारी है। लेकिन यह सब इकट्ठा करने के पहले इसमें जो प्रेरणाएँ भरी पड़ी हैं, जो दिशायें भरी पड़ी हैं, जहाँ से हम इस भारतवर्ष को भगवान् बुद्ध की तरीके से हजारों और लाखों की संख्या में वो व्यक्ति देने वाले हैं, जिससे हमारी प्राचीन परंपराएँ पुनः जाग्रत हो सकें।मित्रो! यह दुकान जिन्होंने बनाई है, उसमें केवल हम ही हिस्सेदार नहीं हैं, वरन् एक और हमारा शेयर होल्डर है। और वे हैं- हमारे गुरुदेव। जब आप प्रातःकाल ध्यान करेंगे, उपासना करेंगे, तब आप यह अनुभव नहीं करेंगे कि हम एकाकी जप कर रहे हैं, एकाकी ध्यान कर रहे हैं। वस्तुतः यहाँ कोई शक्ति आती है। हम केवल अकेले ध्यान नहीं कर रहे होते हैं, वरन् वास्तव में ही कोई शीतलता की लहरें आती हैं और आपको कंपन उत्पन्न हो जाता है और आपके शरीर में पसीना उत्पन्न हो जाता है। आपके अंदर सिहरन और फुरकन पैदा हो जाती है। प्रातःकाल में आप यह अनुभव करेंगे।
आप सूर्य का ध्यान करना। आँखें बंद कर लेना और ध्यान करते हुए आप यह अनुभव करना कि सूर्य, प्रकाश का सूर्य नहीं, चमक वाला सूर्य नहीं, वरन् ज्ञान का सूर्य है- ‘सविता देवता’। सविता देवता अलग है और सबेरे निकलने वाला सूर्य अलग है। सबेरे निकलने वाला सूर्य प्रतीक है- सिम्बल है। यह सविता का सिम्बल है, लेकिन असली सूरज नहीं है। असली सूरज वह है, जिसको हम सविता देवता कहते हैं, आदित्य कहते हैं। ज्ञान का सूर्य, तप का सूर्य, ब्रह्मवर्चस का सूर्य है वह, जिसका आप ध्यान करते हैं। उसकी सारी की सारी किरणों में आप कमर तक डूबे हुए हैं। क्रमशः कमर के ऊपर से नीचे तक, बाहर से लेकर भीतर तक प्रकाश किरणें प्रवेश कर रही हैं। सूरज के धूप में जहाँ आप खड़े हुए हैं, वहाँ ऊपर से ब्रह्मवर्चस आता है और वह आपके मस्तिष्क में आता है, फेफड़ों में आता है। आपके पावों से लेकर कमर तक और हाथों से लेकर जो आपकी कर्मेन्द्रियाँ हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, दोनों ही ज्ञान की गंगा से और प्रकाश के रूप में ब्रह्मवर्चस से ओतप्रोत होती चली जा रही हैं। आप इस तरीके से जप करना और ध्यान करना। एक घंटा हो सके तो एक घंटा करना। सवा छः बजे आपको बंद करना ही पड़ेगा। जल्दी उठना चाहें तो आप जल्दी भी उठ सकते हैं। आपको यहाँ कोई रोक नहीं है। लेकिन साढ़े चार बजे सुबह आपको हर हालत में उठ ही जाना पड़ेगा। इससे पहले आपको उठना है तो उठ सकते हैं, लेकिन आप उठें शांति से। दूसरों को डिस्टर्ब न करें। चिल्लायें नहीं, जोर- जोर से श्लोक नहीं पढ़ें, चुपचाप उठ जायें और नित्यक्रिया से निवृत्त होकर जगह- जगह पर नल लगे हुए हैं, पंप लगे हुए हैं, वहाँ स्नान कर लें।
स्नान करने के पश्चात् में प्रातःकाल में जो भी समय आपको मिल जाता है, उसमें जप और ध्यान कर लिया करें। जप कितना हो गया, संख्या की गणना करने की आवश्यकता नहीं है। संख्या की गणना कराने की ओर हम आपका ध्यान बटाना नहीं चाहते। हम आपका ध्यान भगवान् में लगाये रहना चाहते हैं। आप माला गिनेंगे तो आपका ध्यान भंग होगा और छिन्न- भिन्न होता चला जायेगा। कितनी माला हो गयी और कितनी गिनती हो गयी, आप इसी झगड़े और जंजाल में फँस जायेंगे। इसलिए अब आपकी माला गणना खत्म। अब आपको जप के रूप में भी ध्यान, प्रकाश में ज्ञान के रूप में भी ध्यान, ज्ञान की गंगा का भी ध्यान करना होगा। ज्ञान की गंगा आपके बाहरी शरीर को छू नहीं रही है, वरन् आपके हृदय को भी धो रही है। मन को भी धो रही है। आपकी बुद्धि को भी धो रही है। आपके चित्त को भी धो रही है। आपके अहंकार को भी धो रही है। सारी मलीनताओं को और पापों को धोती चली जा रही है। कौन धोती चली जा रही है? ज्ञान की गंगा। असली गंगा यही है, जिसका मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ।
मित्रो! असली सूरज वह नहीं है, वरन् सविता है जिसकी ओर मैंने आपको इशारा किया। ब्रह्मवर्चस, आत्मबल, आत्मतेज का स्रोत वही है। वही सूर्य आपका उद्धार करेगा। उसी के भीतर से आपके अंदर स्फुरणा और प्रेरणा आयेगी। आज से आप यही करना, बस, आपके लिए यही काफी है। बाकी हम करेंगे आपके लिए, हमारे गुरुदेव करेंगे आपके लिए और हमारा भगवान् करेगा आपके लिए, जिसके इशारे पर नये कार्य के निर्माण प्रारंभ किये गये हैं। हमारे इशारे पर यह कार्य प्रारंभ नहीं किये गये हैं। आप हमारे बुलाने पर यहाँ नहीं आये हैं। कोई बड़ी जबरदस्त सत्ता इस समय काम कर रही है जो आपको घसीट लायी है, खींच लायी है और जो आपको इस ओर चलने के लिए मजबूर करती है। आप उसकी प्रेरणा पर आए हुए हैं। वही प्रेरणा जो आपको यहाँ तक घसीट कर लायी है, आपको आत्मबल देगी। आपको ब्रह्मवर्चस देगी। आपकी जीवात्मा को धोने में सहायता करेगी। वह गंगा आपकी मलीनता को धोयेगी। वह प्रकाशपुञ्ज आपके भीतर गर्मी पैदा करेगा। एक महीने के भीतर आप आत्मबल लेकर जाना। यह बात मैंने आपको सुबह की निवेदन किया।
इसके बाद में यहाँ का टाइम टेबिल सवा छः बजे से शुरू होता है, जिसमें माताजी आपको चाय के लिए बुलाती हैं। इससे आप साढ़े छः बजे तक निवृत्त हो जाते हैं। पौने सात बजे से प्रवचन शुरू हो जाता है जो पौने आठ बजे तक चलता है। आठ बजे के बाद हमारे दूसरे कार्य आरंभ हो जाते हैं। यहाँ आपको धर्म- मंच के माध्यम से किस तरीके से लोक निर्माण करना पड़ेगा? सारे के सारे शिक्षण दिये जाते हैं। आपकी वाणी को खोला जाना है, जो आपका मुख्य हथियार होगा। जहाँ कहीं भी आप जायेंगे, जिन लोगों से भी आप मिलेंगे, उसमें आपके स्त्री- बच्चे भी शामिल हैं, उसमें आपके पड़ोसी भी शामिल हैं। उसमें आपके संबंधी, कुटुम्बी भी शामिल हैं। आपके समाज के लोग भी शामिल हैं। जहाँ कहीं भी आप जायेंगे, जबान तो खोलनी ही पड़ेगी। जबान नहीं खोलेंगे, संकोच में बैठे रहेंगे, तो बात कैसे बनेगी? जबान के द्वारा ही तो हम आपके मन की आग दूसरों के मस्तिष्क में प्रवेश करा सकेंगे। इसलिए यहाँ आपको प्रवचन करने का बराबर प्रशिक्षण करेंगे। अधिकांश समय इसमें लगाया जायेगा कि आपको बोलने की कला आ जाए।
इसके बाद हम आपको लोगों के पास भेजेंगे। मुख्य रूप से दो आदमियों के पास भेजेंगे- एक तो लाखों आदमी वे हैं जो कि हमारे संपर्क में आये और प्रकाश प्राप्त न कर सके। हम आपको जामवंतों की तरीके से भेजेंगे और यह कहेंगे कि जहाँ कहीं भी हनुमान बैठे हुए आपको दिखाई पड़ें। वे सिर पर हाथ रखकर बैठे होंगे और कह रहे होंगे कि मैं किस तरीके से छलाँग लगाऊँ? समुद्र तो बड़ा लम्बा है। सीता की खबर मैं किस तरीके से लगाऊँ? जिस तरीके से जामवंत ने कहा- ‘‘हनुमान! आपको अपने बल का ज्ञान नहीं है। आप छलाँग तो लगाइए।’’ उसी तरीके से हमारे पास बहुत से हनुमान बैठे हुए हैं। वे एक लाख की संख्या में हैं। शाखा के कार्यकर्ताओं के रूप में, सक्रिय सदस्यों के रूप में, अखण्ड ज्योति के पाठकों के रूप में वे बैठे हुए हैं। उनमें बहुत जीवट है। जीवट न होती तो उनको हमने क्यों बाँध करके रखा है? हमने उनको क्यों बुला करके रखा है? सम्बन्ध बनाकर क्यों रखा है?
मित्रो! जिस तरीके से माली अच्छे से अच्छे फूलों को चुन लेता है, हमने भी अपने कुटुम्ब में और परिवार में अच्छे मोतियों को चुनकर रखा है। अच्छे मोतियों को चुनकर जिस तरीके से माला बनाई जाती है, हमने भी अच्छे मोतियों को चुनकर रखा है। लेकिन इन मोतियों और हीरों पर खराद लगाई जानी बाकी है। यहाँ से जाने के बाद में हम आपको उन कार्यकर्ताओं के पास भेजने वाले हैं जो सारे देश भर में फैले हुए हैं। उनको आपको प्रेरणा देनी चाहिए, शिक्षा देनी चाहिए, हिम्मत बढ़ाना चाहिए और जोश दिलाना चाहिए और उनका मार्गदर्शन करना चाहिए। उनको उद्बोधन देना चाहिए। इस तरह क्रिया के सम्बन्ध में हमारा प्रातःकाल का प्रवचन होगा। आपको जहाँ कहीं भी हमारे कार्यकर्ता मिलें, उनसे क्या कहें? आपको जनता के पास जाना पड़ेगा, जो अभी तक हमारे संपर्क में नहीं आये हैं। अभी तो उन्होंने केवल यह जाना है कि गुरुजी गायत्री हवन कराने वालों में से हैं और जप कराने वालों में से हैं। जप कराकर उद्धार की शिक्षा देते हैं और हवन कराकर सब मनोकामना पूर्ण करने की शिक्षा देते हैं। हमारे बारे में उन्हें इतनी ही जानकारी है, जो मक्खी और मच्छर के बराबर जानकारी है। हमको वे समझते हैं कि ये तो गायत्री का जप सिखाने वाले हैं। जप करना माने गुरुजी का चेला होना मानते हैं वे। जप करने वाला गुरुजी का चेला नहीं हो सकता। बेटे जप करने से हम शुरुआत कराते हैं, जप कराने से आखिर नहीं कराते। आखिर तक यह बड़ा लम्बा हो जाता है।
इसलिए मित्रो! क्या करना पड़ेगा? जनता के पास इस नये निर्माण की विचारधारा को पहुँचाना पड़ेगा। नये निर्माण की विचारधारा का अर्थ होता है- व्यक्ति की महानता को जागृत करने की विचारधारा, समाज को नवजीवन देने की विचारधारा, जिसका अर्थ होता है- व्यक्ति का निर्माण, परिवार का निर्माण, समाज का निर्माण, समग्र निर्माण, धर्म का निर्माण। सायंकाल को जो हमारे प्रवचन होंगे, उसकी दिशा यह होगी कि जब कभी आपको जनता के मध्य स्टेज पर खड़ा कर दिया जाए, तो जनता तक अभी तक जहाँ हमारा प्रकाश नहीं पहुँच पाया है, उनको आपको क्या- क्या कहना पड़ेगा? उनसे आपको क्या कहना चाहिए, यह शिक्षण हम आपको शिविर में देंगे। व्याख्यान देने की शैली, कर्मकाण्डों की शैली दूसरे लोग सिखाते रहेंगे। कौन से वाले कर्मकाण्ड? जिनका सहारा लेकर, संबल लेकर के बच्चों को खड़ा करना आपको सिखाना है। हमारे त्यौहार और संस्कार ऐसे संबल हैं जिनसे हम परिवार निर्माण करने की शैली सिखा सकते हैं। धर्ममंच से हम जो कुछ भी सिखाएँगे, धर्ममंच पर खड़े होकर के सिखाएँगे, समाज के मंच पर नहीं। हम समाज के और अर्थशास्त्र और राजनीति के मंच पर नहीं खड़ा होना चाहते। हम धर्म के मंच पर खड़े होना चाहते हैं, क्योंकि हृदय तक यही हमारी बात को पहुँचा सकता है।
इंजेक्शन द्वारा खून के दौरे में दवाई पहुँचाने के लिए एक महीन सुई की जरूरत होती है। उसमें सुराख होना चाहिए। अगर सुई सुराख वाली नहीं होगी, तो हम खून में दवा नहीं पहुँचा सकते। धर्म उसी चीज का नाम है, अध्यात्म उसी चीज का नाम है, जो मनुष्य के हृदय तक पहुँच सकता है। राजनीति दिमाग तक पहुँच सकती है। समाजशास्त्र लोगों के विचारों को दिमाग तक पहुँचा सकता है। अर्थशास्त्र लोगों की प्रेरणाएँ दिमाग तक पहुँचा सकता है। हृदय तक पहुँचाने की सामर्थ्य इनमें से किसी में नहीं है। हमारा सारा का सारा कार्य जो प्रारंभ होता है, लोगों के हृदय तक अपनी बात पहुँचाने से होता है। इसलिए हमेशा हमारा आधार वही रहेगा, जिसको हम धर्म कहते हैं। धर्ममंच के माध्यम से हम आपको बहुत सी बातें बताना चाहते हैं। हम यह चाहते हैं कि सोलह संस्कार, जो प्राचीनकाल में जिंदा थे, फिर जिंदा हों। हर घर में वेदमंत्रों की ऋचाएँ गूँजें, भारतीय संस्कृति का संदेश जा पहुँचे। हम चाहेंगे कि गाँवों में त्यौहार मनाये जाएँ और उसमें भारतीय संस्कृति की ऋचाएँ गूँजें। हमारे संदेश, हमारे शिक्षा की जानकारी लोगों को मिले।
मित्रो! आपको एक घंटे का समय पूजा के लिए मिल जाता है। सुबह का एक घंटा समय पूजन के लिए बहुत होता है। अगर आप एक घंटा सच्चे मन से प्रकाश को ग्रहण करते हुए चले जाएँ और सच्चे मन से ज्ञान की गंगा में नहाते हुए चले जाएँ, तो यह पर्याप्त है। इतने से ही आपकी धुलाई और रँगाई के दोनों काम हो जायेंगे। ज्ञान की गंगा में, गायत्री की गंगा में नहा करके आपकी धुलाई जरूर हो जायेगी और सूर्य का प्रकाश जो आप लेने वाले हैं, उससे आपके भीतर चमक जरूर पैदा हो जायेगी। अभी आप करके देखना। यहाँ एक महीना करना, फिर आप देखना कि आपके अंदर कोई चमक आई कि नहीं आई। आपके चेहरे पर चमक आयेगी, आपकी आँखों में चमक आयेगी, मस्तिष्क में चमक आयेगी, वाणी में चमक आयेगी और आप देखेंगे कि हम कितने धुले हुए उज्ज्वल बनते चले जा रहे हैं। यह प्रातःकाल का सवा छः बजे के बाद का समय है, जब आपको इसे ग्रहण करना है।
मित्रो! हम आपको वही बात कहेंगे, जो हमसे किसी ने कही है। हम अपनी ओर से क्या कह सकते हैं और क्या कहने लायक हैं। लेकिन जो प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण शिक्षण हमको मिला है, वह हम आपको सिखाएँगे। जो हमसे कहा गया है, वही हम आपसे कहेंगे और कोई चीज हमारी कहने की नहीं हैं। जो हमारे मार्गदर्शक ने, हमारे गुरु ने और हमारे आगे चलने वाले ने हमको सिखाया है, इसके अलावा हम कोई नयी बात आपको सिखाने वाले नहीं है। व्यक्ति निर्माण के लिए और समाज निर्माण के लिए- दोनों बातें एक साथ जुड़ी हुई है। व्यक्ति उठेगा तो समाज उठेगा। समाज उठेगा, तो व्यक्ति उठेगा। व्यक्ति और समाज को हम अलग नहीं कर सकते। घड़ी और पुर्जे को हम अलग नहीं कर सकते। घड़ी चलेगी तो पुर्जे की कीमत बढ़ेगी। पुर्जा ठीक होगा तो घड़ी चलेगी। दोनों आपस में जुड़े हुए हैं। व्यक्ति अकेला उत्थान कर ले, अकेला कल्याण कर ले और समाज की उपेक्षा कर दे, यह नामुमकिन है। समाज के साथ में जुड़ा हुआ आदमी आगे बढ़ सकता है। अकेला आदमी तो बढ़ ही नहीं सकता। अकेला घड़ी का पुर्जा क्या कर सकता है। घड़ी में मिला रहेगा तभी तो उसका मूल्य है।
मित्रो! मुख्य बात जो अभी मैंने आपको बताई है, उसमें सबसे अधिक ध्यान जो आपको देना है, वह इस बात पर देना है कि ज्ञान की गंगा का ध्यान जो आप करेंगे और प्रकाश का ध्यान जो आप करेंगे, वह तो होगा ही। लेकिन आप चौबीस घंटे यह अनुभव करेंगे कि कोई ज्ञान की गंगा, कोई भावना की गंगा, कोई प्रेरणा की गंगा हर वक्त आपको, आपके हृदय को, आपकी भावना को छू रही है। आप हर समय यह अनुभव करेंगे कि प्रकाश की किरणें अज्ञात लोक से चली आ रही हैं और आपके हृदय को छू रही हैं। आपके मस्तिष्क को छू रही हैं, वाणी को छू रही हैं और अंतःकरण को छू रही हैं। यही हमारा बल है, यही हमारी संपत्ति है, यही हमारा शिक्षण है। यही हमारा अनुदान है, यही हमारा आशीर्वाद है, जिसको लेकर के आप जायेंगे और हमारा काम करेंगे, अपना उद्धार करेंगे। देश का उद्धार करेंगे, मानव जाति का उद्धार करेंगे, हमारा उद्धार करेंगे। वह प्रकाश ले करके आप जायेंगे, जिसके लिए हमने आपको बुलाया है।
आज की बात समाप्त।
॥ ऊँ शान्तिः॥