Books - ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना है
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Language: HINDI
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ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना है
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इन दिनों सबसे बड़ी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का कार्य एक ही है—युग सृजेताओं की अग्रिम पंक्ति में खड़े होना। पीछे खड़े रहने वाले, झंझट में न पड़ने की दृष्टि से तो अपने को सुरक्षित अनुभव करते हैं; पर वस्तुतः वे रहते अतिशय घाटे में हैं। उत्तरदायित्वों से मुंह छिपा लेने में, हर संभावना को मूक-दर्शक बने देखते रहने वालों की उदासी अपनाने में यह जोखिम भी है, कि उन्हें ऐसा कुछ हस्तगत नहीं हो पाता—जिस पर गौरव किया जा सके। आलसी-प्रमादी किसी प्रकार दिन गुजार लेते हैं; पर गिने अर्धमृतकों में ही जाते हैं। मनुष्य जीवन की गरिमा और जिम्मेदारी ही जिसकी समझ में न आई, उसके लिए पेट-प्रजनन भर में जिन्दगी के दिन रोते-कलपते काट लेने के अतिरिक्त ऐसा कुछ हस्तगत हो नहीं पाता, जिससे सन्तोष, सम्मान पाने और सिर ऊंचा उठा कर प्रज्ञावानों, प्रगतिशील-वरिष्ठों की तरह चलने का अवसर मिल सके। पिछड़ेपन से ग्रसित लोग यह समझ ही नहीं पाते कि समुन्नत और सुसंस्कृत स्तर की रीति-नीति अपनाने वाले कितनी प्रसन्नता, प्रशंसा और समाज-समुदाय पर अनुदानों की झड़ी लगा देने वाले मंच पर उन्हीं को छाया देखा जा सकता है। कभी सात ऋषि-तपस्वी और आठ वसु-मनीषी ही सतयुग को बुलाने और पकड़े रखने में पूरी तरह समर्थ रहे थे। अनुयायी तो उन्हें बड़ी संख्या में सहज ही मिलते रहे और बात बन गयी। आज तो जनगणना के अनुसार 60 लाख धर्मधारी अपनी आजीविका इसी व्यवसाय से प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त कथा-वाचकों, कीर्तनकारों, उपदेशकों और मार्गदर्शकों में अपने को सम्मिलित बताने वालों की संख्या प्रायः इतनी ही और हो सकती है। इस प्रकार अपने देश में ही तथाकथित मार्गदर्शक-प्रवक्ताओं की, संख्या एक करोड़ से ऊपर निकल जाती है।
धर्म, राजनीति, समाज, विभिन्न वर्गों के संगठनों पर छाये हुए, इतनी बड़ी संख्या वाले मार्गदर्शक प्रवक्ताओं द्वारा किसी भी क्षेत्र को, किसी भी मंच को सुनियोजित करने में सफलता क्यों नहीं मिल रही है? इस अत्यन्त विकट किन्तु साथ ही अत्यन्त सरल प्रश्न का उत्तर एक ही है कि दूसरों से जो कराने की अपेक्षा की जाती है, उसमें अग्रणी कहलाने वाले प्रायः असफल ही रहते हैं। कथनी और करनी में अन्तर रहने पर उसका प्रभाव शून्य के बराबर रह जाता है। रंगमंच में आकर्षक वेष-भूषा बना कर अभिनेता न जाने क्या-क्या बकते-गाते रहते हैं; पर इन नारों की वास्तविकता जानने के कारण, मनोरंजन पाने के कितनी उच्चस्तरीय अनुभूतियों के साथ असाधारण उपलब्धियां अनुभव करते हैं।
जो ढर्रे से ऊंचे उठकर, वरिष्ठ स्तर की सूझ-बूझ उगा पाते हैं, उनके लिए यह जिम्मेदारी एक अनिवार्य आवश्यकता बनकर सामने आ खड़ी होती है कि कुछ बड़े कदम उठाने चाहिए। कुछ बड़े अनुदान—बड़े वरदान पाने की उमंग उभरनी चाहिए। ऐसे लोगों को क्रमबद्ध रूप से दोनों कदम आगे बढ़ाते हुए लक्ष्य के उच्च-शिखर पर जा पहुंचने की, यशस्वी पर्वतारोहण जैसी साहसिकता जुटानी पड़ती है। इस उपलब्धि के लिए आत्म-परिष्कार और समाज सुधार के दोनों ही प्रयासों को साथ-साथ अपनाते हुए समग्र प्रगति की दिशा में चल पड़ना होता है।
नेतृत्व का अपना आनन्द है। मार्गदर्शकों की यश-गाथा अनन्त काल तक चर्चा का विषय बनी रहती है और मरण के उपरान्त भी यश-शरीर को जीवन्त बनाये रहती हैं। सेवा-साधना का—धर्म-धारणा का उपक्रम अपनाना किन्हीं शूर-साहसियों से ही बन पड़ता है; पर जो ऐसा आदर्श प्रस्तुत कर सकते हैं, वे कृत-कृत्य भी हो जाते हैं। अनुकरण करने वालों के लिए ऐसी परम्परा विनिर्मित करते हैं, जिसका अवलम्बन लेकर वे भी साधारण न रहकर असाधारण बन सकें। ऐसे अग्रगामियों को ही देवमानव या युगपुरुष की संज्ञा मिलती है।
धर्म, राजनीति, समाज, विभिन्न वर्गों के संगठनों पर छाये हुए, इतनी बड़ी संख्या वाले मार्गदर्शक प्रवक्ताओं द्वारा किसी भी क्षेत्र को, किसी भी मंच को सुनियोजित करने में सफलता क्यों नहीं मिल रही है? इस अत्यन्त विकट किन्तु साथ ही अत्यन्त सरल प्रश्न का उत्तर एक ही है कि दूसरों से जो कराने की अपेक्षा की जाती है, उसमें अग्रणी कहलाने वाले प्रायः असफल ही रहते हैं। कथनी और करनी में अन्तर रहने पर उसका प्रभाव शून्य के बराबर रह जाता है। रंगमंच में आकर्षक वेष-भूषा बना कर अभिनेता न जाने क्या-क्या बकते-गाते रहते हैं; पर इन नारों की वास्तविकता जानने के कारण, मनोरंजन पाने के कितनी उच्चस्तरीय अनुभूतियों के साथ असाधारण उपलब्धियां अनुभव करते हैं।
जो ढर्रे से ऊंचे उठकर, वरिष्ठ स्तर की सूझ-बूझ उगा पाते हैं, उनके लिए यह जिम्मेदारी एक अनिवार्य आवश्यकता बनकर सामने आ खड़ी होती है कि कुछ बड़े कदम उठाने चाहिए। कुछ बड़े अनुदान—बड़े वरदान पाने की उमंग उभरनी चाहिए। ऐसे लोगों को क्रमबद्ध रूप से दोनों कदम आगे बढ़ाते हुए लक्ष्य के उच्च-शिखर पर जा पहुंचने की, यशस्वी पर्वतारोहण जैसी साहसिकता जुटानी पड़ती है। इस उपलब्धि के लिए आत्म-परिष्कार और समाज सुधार के दोनों ही प्रयासों को साथ-साथ अपनाते हुए समग्र प्रगति की दिशा में चल पड़ना होता है।
नेतृत्व का अपना आनन्द है। मार्गदर्शकों की यश-गाथा अनन्त काल तक चर्चा का विषय बनी रहती है और मरण के उपरान्त भी यश-शरीर को जीवन्त बनाये रहती हैं। सेवा-साधना का—धर्म-धारणा का उपक्रम अपनाना किन्हीं शूर-साहसियों से ही बन पड़ता है; पर जो ऐसा आदर्श प्रस्तुत कर सकते हैं, वे कृत-कृत्य भी हो जाते हैं। अनुकरण करने वालों के लिए ऐसी परम्परा विनिर्मित करते हैं, जिसका अवलम्बन लेकर वे भी साधारण न रहकर असाधारण बन सकें। ऐसे अग्रगामियों को ही देवमानव या युगपुरुष की संज्ञा मिलती है।