Books - ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना है
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Language: HINDI
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व्रतशील बनें और बनायें
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इन दिनों भी उसी पुरातन प्रक्रिया का पुनरावर्तन होने जा रहा है। प्रतिभाओं को अचिन्त्य चिन्तन और कुकृत्य स्तर के आचरण से विरत करने वाली विचारक्रान्ति का समायोजक बनना है। लोगों को सत्य और तथ्य को स्वीकारने के लिए व्रतशील बनाया जाना है। अनुपयुक्त मान्यताओं, आदतों और क्रिया-कलापों के क्षेत्र में शालीनता का समावेश करने के लिए सहमत ही नहीं, व्रतशील भी बनाया जाना है। इसके लिए जो करना है, उसे विचार क्रान्ति समझा जा सकता है। पर उसके लिए धनुष-वाण जैसे साधन जुटाने भर से सब कुछ संभव नहीं हो जायेगा। इसके लिए प्रत्यंचा चढ़ाने वाले भुजदण्ड और योद्धाओं की भी आवश्यकता पड़ेगी। इसके लिए प्रचार माध्यम के साथ प्रचारकों की भी आवश्यकता पड़ेगी। वे न हों तो, प्रचार में संलग्न व्यक्तियों, साधनों, उपकरणों के पीछे प्रचण्ड आत्म-शक्ति का नियोजन न बन पड़ने पर प्रदर्शन भरा ढकोसला ही खड़ा हो सकेगा। कोई ठोस प्रयोजन सम्पन्न न हो सकेगा।
सृजन-शिल्पियों को निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए जन सम्पर्क वाले क्रिया-कलापों में प्रधान रूप से संलग्न रहना पड़ेगा। व्यक्तियों को बदलने में संदेश नहीं, सम्पर्क की क्षमता काम करती है। नारद जीवन भर सम्पर्करत रहे, वही उनकी भक्ति और साधना थी। सर्वोपरि महत्त्व काम समझ कर भगवान ने उन्हें उसी प्रयोजन में निरन्तर निरत रहने के लिए आदेश दिया था।
पारस छूकर लोहे का सोना बनने वाली उक्ति प्रसिद्ध है। पर उससे भी बढ़कर सत्य एवं तथ्य यह है कि प्रचण्ड आत्मशक्ति सम्पन्न व्यक्ति अनायास ही समुदाय और वातावरण को इतना अधिक प्रभावित करते हैं, कि उनके सांकेतिक क्रिया-कलाप भी गजब की परिस्थितियां उत्पन्न कर सकते हैं। इसका एक जीवित उदाहरण देखना हो तो शान्ति कुंज के सूत्र संचालक की क्षमता और उसकी व्यापक क्षेत्र में बिखरी पड़ी परिणति पर दृष्टिपात किया जा सकता है कि क्रिया-कलाप ही सब कुछ नहीं होते, उनके पीछे काम करने वाले व्यक्तित्व ही अदृश्य शक्ति के रूप में अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति में गजब ढाते देखे जा सकते हैं।
युग शिल्पियों को जन-जन से सम्पर्क साधने और उन्हें युग चेतना से अनुप्राणित करने की आवश्यकता पड़ेगी। जिन माध्यमों से इस प्रक्रिया को पूरी करेंगे, उसे मोटे-तौर पर वाणी और लेखनी के माध्यम से जनमानस को उभारने की विधि-व्यवस्था समझा जा सकता है; पर इसके पीछे उन व्यक्तित्वों का संलग्न रहना आवश्यक है, जो सम्पर्क में आने वाले लोगों में यह संदेह उत्पन्न न करें कि दूसरों को दिखाई जाने वाली बातों का प्रवक्ता ने पहले अपने निजी जीवन में समावेश क्यों नहीं किया? वह जैसा दूसरों को बनाना चाहता है, उस स्तर का पहले स्वयं क्यों नहीं बना?
पढ़ाने से पहले पढ़ना पड़ता है, जलाने से पहले जलना पड़ता है, बनाने से पहले बनना पड़ता है। इन शाश्वत सत्यों को हमें स्वीकार कर ही लेना चाहिए और युग निर्माण प्रक्रिया को आत्म-निर्माण से आरम्भ करके दिखाना चाहिए। अपनी छवि उज्ज्वल होगी, तो सामने आने वाले हर दर्पण में उसी का प्रतिबिम्ब उभरा हुआ परिलक्षित होगा।
हम स्वयं ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना चाहते हैं। हमारे क्रिया-कलाप अन्दर और बाहर से उसी स्तर के बनें जैसा कि हम दूसरों द्वारा क्रियान्वित किये जाने की अपेक्षा करते हैं।
***
*समाप्त*
सृजन-शिल्पियों को निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए जन सम्पर्क वाले क्रिया-कलापों में प्रधान रूप से संलग्न रहना पड़ेगा। व्यक्तियों को बदलने में संदेश नहीं, सम्पर्क की क्षमता काम करती है। नारद जीवन भर सम्पर्करत रहे, वही उनकी भक्ति और साधना थी। सर्वोपरि महत्त्व काम समझ कर भगवान ने उन्हें उसी प्रयोजन में निरन्तर निरत रहने के लिए आदेश दिया था।
पारस छूकर लोहे का सोना बनने वाली उक्ति प्रसिद्ध है। पर उससे भी बढ़कर सत्य एवं तथ्य यह है कि प्रचण्ड आत्मशक्ति सम्पन्न व्यक्ति अनायास ही समुदाय और वातावरण को इतना अधिक प्रभावित करते हैं, कि उनके सांकेतिक क्रिया-कलाप भी गजब की परिस्थितियां उत्पन्न कर सकते हैं। इसका एक जीवित उदाहरण देखना हो तो शान्ति कुंज के सूत्र संचालक की क्षमता और उसकी व्यापक क्षेत्र में बिखरी पड़ी परिणति पर दृष्टिपात किया जा सकता है कि क्रिया-कलाप ही सब कुछ नहीं होते, उनके पीछे काम करने वाले व्यक्तित्व ही अदृश्य शक्ति के रूप में अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति में गजब ढाते देखे जा सकते हैं।
युग शिल्पियों को जन-जन से सम्पर्क साधने और उन्हें युग चेतना से अनुप्राणित करने की आवश्यकता पड़ेगी। जिन माध्यमों से इस प्रक्रिया को पूरी करेंगे, उसे मोटे-तौर पर वाणी और लेखनी के माध्यम से जनमानस को उभारने की विधि-व्यवस्था समझा जा सकता है; पर इसके पीछे उन व्यक्तित्वों का संलग्न रहना आवश्यक है, जो सम्पर्क में आने वाले लोगों में यह संदेह उत्पन्न न करें कि दूसरों को दिखाई जाने वाली बातों का प्रवक्ता ने पहले अपने निजी जीवन में समावेश क्यों नहीं किया? वह जैसा दूसरों को बनाना चाहता है, उस स्तर का पहले स्वयं क्यों नहीं बना?
पढ़ाने से पहले पढ़ना पड़ता है, जलाने से पहले जलना पड़ता है, बनाने से पहले बनना पड़ता है। इन शाश्वत सत्यों को हमें स्वीकार कर ही लेना चाहिए और युग निर्माण प्रक्रिया को आत्म-निर्माण से आरम्भ करके दिखाना चाहिए। अपनी छवि उज्ज्वल होगी, तो सामने आने वाले हर दर्पण में उसी का प्रतिबिम्ब उभरा हुआ परिलक्षित होगा।
हम स्वयं ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना चाहते हैं। हमारे क्रिया-कलाप अन्दर और बाहर से उसी स्तर के बनें जैसा कि हम दूसरों द्वारा क्रियान्वित किये जाने की अपेक्षा करते हैं।
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*समाप्त*