Books - बच्चे बढ़ाकर अपने पैरों कुल्हाडी़ न मारें
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आधुनिक सभ्यता की देन
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ईसा जन्मे तब लगभग 30 करोड़ जन संख्या थी। 1750 में दुगुनी से भी अधिक 75 करोड़ के लगभग हो गयी। 1850 में 110 करोड़ लोग इस पृथ्वी पर आ चुके थे। 1900 में 160 की जनसंख्या थी। 1920 में 181 करोड़, 90 लाख और 1940 में 224 करोड़ 60 लाख, 1961 में यह संख्या बढ़कर 306 करोड़ 90 लाख हो गई। जनसंख्या की यह बढ़ोत्तरी कम होने का नाम नहीं लेती, पृथ्वी में अधिक से अधिक 1600 करोड़ जनसंख्या का भाग उठाने की क्षमता है। इससे एक छटांक वजन भी बढ़ा तो पृथ्वी रसातल को चली जायेगी अर्थात् प्रलय हो जायेगी। यों भविष्य अविज्ञान है। उसके सम्बन्ध में समय से पूर्व कुछ नहीं कहा जा सकता। नियति का ऐसा कोई निर्धारण नहीं है कि अमुक घटना क्रम अमुक प्रकार से ही घटित होगा। परिस्थितियों के अनुसार भविष्य की कल्पनाएं अथवा सम्भावनाएं उलटी भी हो सकती हैं। भविष्य के सम्बन्ध में इतनी अनिश्चितता होते हुए भी उसकी कल्पना करना और सम्भावित परिणाम की उपेक्षा करना एक प्रकार से अनिवार्य ही है, क्योंकि इसके बिना न तो कोई योजना बन सकती है और न कुछ कार्य आरम्भ किया जा सकता है। हानि उठाने और असफल होने के लिए भला कोई क्या और क्यों कुछ काम आरम्भ करेगा। अनेक तथ्यों और निष्कर्षों का सहारा लेकर मनुष्य काफी सोच-विचार करता है और जब उसे यह विश्वास हो जाता है कि इस कार्य को इस प्रकार करने से इतना लाभ होगा तो ही वह उसे आरम्भ करता है। यह एक प्रकार से भविष्य निर्धारण ही तो हुआ। तीखी बुद्धि वाले अनेक तथ्यों के आधार पर दूर की सोचते हैं और ऐसे नतीजे पर पहुंचते हैं जो प्रायः समय की कसौटी पर खरे ही उतरते हैं। व्यक्तियों, संस्थाओं और सरकारों द्वारा प्रायः भावी योजनाएं बनाई जाती हैं। हर साल बजट इसी नुमान, आधार पर पास होते हैं। पंचवर्षीय योजनाओं में भविष्य की कल्पना को ही प्रधानता दी जाती है। समझदार व्यक्ति भी अपने जीवन की रीति-नीति बनाते हैं, कार्य-पद्धति निर्धारित करते हैं और उनमें हेर-फेर लाते हैं। यह सब भावी संभावनाओं को ध्यान में रखकर ही किया जाता है। भविष्य निर्धारण के सम्बन्ध में जिसकी दृष्टि जितनी अधिक स्पष्ट होगी वह उतना ही अधिक सुनिश्चित रहेगा और प्रगति कर सकेगा। ग्रह गणित वाले ज्योतिषियों और अतीन्द्रिय शक्ति से भविष्य कथन करने वालों की बात छोड़ दें, तो भी तथ्यों के आधार पर भावी संभावना की रूपरेखा प्रस्तुत करने वाले लोगों का महत्व बना ही रहेगा क्योंकि उस आधार पर वर्तमान गतिविधियों की स्थापना करने में महत्वपूर्ण योगदान मिलता है। अस्तु अब भविष्य-कथन प्रबुद्ध वर्ग में प्रचलित एक महत्वपूर्ण शास्त्र माना जाने लगा है और उसका उत्साह पूर्वक समर्थन-अभिवर्धन हो रहा है। भविष्य कथन की ज्ञान शाखा का विकास अमेरिका में उच्च स्तर पर हुआ है। वहां की सरकार ने प्रो. डेनियल वेल की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की जिसमें सन् 2000 में विश्व का क्या स्वरूप होगा इसके बारे में एक पूर्व परिकल्पना की है। समिति की रिपोर्ट पांच खण्डों में प्रकाशित हुई। इसके अतिरिक्त हडसेन इन्स्टीट्यूट के अध्यक्ष हरसन काइन तथा उनके सहयोगी एन्थोनी वीनर ने इसी विषय पर एक पुस्तक प्रकाशित की जिसका नाम है—‘दि ईयर 2000 ऐ फ्रेम वर्क फार स्पेकुलेशन।’ इसमें भी वर्तमान शताब्दी के अन्त तक विश्व के घटना क्रम का सुविस्तृत एवं तथ्यपूर्ण उल्लेख है। इस प्रकार के भविष्य कथन की पुस्तकें पिछले दिनों भी छपती रही हैं। जिन्हें ‘युटोपिया’ कहा जाता है। ऐसी अनेक युटोपियाओं का एक संकलन ‘येस्टपडैज टुमारोज’ नाम से प्रकाशित हुआ है। भूतकाल में यर्त्रा द जूवेनेल, टामस मूर, आल्ड्रस हक्सले, स्विपट, ब्रेल्सफोर्ड आदि विद्वानों ने समस्त विश्व अथवा उसके किसी भाग का भविष्य कथन करने वाली युटोपिया पुस्तकें प्रकाशित की हैं। युटोपिया अललटप्पू कल्पना उड़ानों पर आधारित नहीं होतीं, वरन् उनके पीछे वर्तमान गतिविधियों और भावी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही कुछ निष्कर्ष निकाला जाता है। विज्ञान की—प्रगति, औद्योगिक विकास, राज सत्ताओं की उलट-पुलट, जनसंख्या की वृद्धि, साधन स्रोतों की सीमा, मानवी प्रकृति में परिवर्तन, खपत और उत्पादन का सन्तुलन जैसे अनेक तथ्यों का सहारा लेकर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि भविष्य का ऊंट किस करवट बैठने वाला है। यह सभी तथ्य एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। किस तथ्य का रुझान किस ढलान की ओर लुढ़क रहा है और अगले दिनों उसमें क्या मोड़ आने वाला है, जो इस शतरंज को ठीक तरह समझ सकने की प्रखर कल्पना शक्ति संजोये हों और आवश्यक तथ्यों का सही रूप से संग्रह कर रहे हों, उनके लिए भविष्य का ऐसा निष्कर्ष निकाल सकना कुछ बहुत कठिन नहीं होता जो प्रायः सही ही उतरे। सम्पन्न देशों के बड़े व्यापार फर्म अपना एक विभाग ही इस भविष्य कथन की शोध करते रहने के लिए नियुक्त रखते हैं और उस पर प्रचुर खर्च करते हैं। भविष्य शास्त्र की ज्ञान शाखा के अन्तर्गत महत्वपूर्ण शोध कार्य अमेरिका की एक संस्था पिछले दिनों काम कर रही थी—नाम था उसका ‘रैड’। सेन्टामोनिका बीच के पास उसका विशाल भवन था उसमें अनेक बुद्धिजीवी—संसार की विभिन्न गतिविधियों का अध्ययन करके भावी सम्भावनाओं का आकलन करके उस दिशा में अमेरिका के विभिन्न वर्गों को उपयोगी सुझाव देने योग्य निष्कर्ष प्रस्तुत करते थे। इन्हीं शोधकर्ताओं में एक था—हरसन काहन। उसने उक्त संस्था छोड़कर ठीक उसी तरह का अपना अलग संस्थान बनाया। नाम रखा हरसन इन्स्टीट्यूट। जिसे लोग ‘थिंकटेंक’ अर्थात् ज्ञान सरोवर के नाम से भी पुकारते हैं। हरसन संसार के उच्चकोटि के ज्ञानवानों में से एक गिना जाता है। हरसन की महत्वपूर्ण पुस्तक है—‘आन थरमोन्यूक्लि आर बार’ इसमें अणु युद्ध उसकी सम्भावना तथा प्रतिक्रिया पर विस्तृत प्रकाश डाला है और सुझाव दिया है कि उस विभीषिका के संदर्भ में अमेरिका को क्या करना चाहिए इस पुस्तक ने जनता और सरकार के मस्तिष्क को बेतरह झकझोरा। पुस्तक की जहां उस प्रकाशक ने भूरि-भूरि प्रशंसा की वहां लेखक को ‘इडियट जीनियस’ कहकर तिरस्कृत भी किया गया। जो हो हरसन अपने शोध कार्य में दत्त-चित्त से लगा है। उसकी शोध संस्था में 75 व्यक्ति काम करते हैं। इनमें से 35 तो बहुत ही उच्चकोटि के विद्वान् तथा सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न हैं। 300 पौंड भारी इस ‘मोटू’ भविष्य वक्ता की संसार भर में चलते-फिरते कम्प्यूटर के रूप में ख्याति है। समय-समय पर की गई उसकी राजनैतिक और औद्योगिक भविष्य वाणियां अब तक सही निकलती रही है। हरसन ने (1) बढ़ती हुई जनसंख्या (2) बढ़ती हुई सम्पन्नता (3) बढ़ते हुये सरकारी नियन्त्रण (4) बढ़ती हुई वैज्ञानिक प्रगति (5) और बढ़ती हुई स्वार्थपरता की ओर संसार का ध्यान आकर्षित किया है और कहा है समय रहते इस पांच विभीषिकाओं को रोका जाय अन्यथा अगली शताब्दी की असाध्य समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, वर्तमान प्रगति अगले दिनों मनुष्य जाति के गले में पड़ा हुआ फांसी का फन्दा सिद्ध होगी। क्या यही प्रगति है? निस्संदेह मनुष्य ने पिछली शताब्दियों में असीमित प्रगति की है। अपने इस युग को प्रगति युग माना जाता है। इस प्रगति के लिये कहा जाता है कि जो जानकारियां एवं सुविधाएं पूर्वजों को प्राप्त थीं, इनकी तुलना में अपनी उपलब्धियां कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हैं। यह दावा इस हद तक ही सही है कि निस्सन्देह बढ़ोत्तरी हुई है, पर प्रगति किस दिशा में हुई है यह विचारणीय है। बढ़ना उत्थान की दिशा में भी हो सकता है और पतन की ओर भी। साधनों की मात्रा बढ़ाने में नहीं वरन् उनका सदुपयोग कर सकने बुद्धिमत्ता के बढ़ने पर ही यह कहा जा सकता है कि—प्रगति हुई। यदि बढ़ते हुए साधन विनाश-विग्रह और पतन के लिये प्रयुक्त किये जा रहे हैं तो यही कहना पड़ेगा कि इस उन्नति की तुलना में वह अभावग्रस्तता अच्छी थी जिसमें मनुष्य स्नेह सद्भाव, और चैन सन्तोष के साथ रहने देता था। वर्तमान प्रगति किस दिशा में हुई है उससे हमने क्या पाया है? मानसिक, शारीरिक और सामाजिक सुख-शान्ति के बढ़ने में—मानवी मूल्यों को बढ़ाने में उससे कितना योगदान मिला है। यह विचारने योग्य बात है। योरोप का सबसे प्रगतिशील व्यवसायी देश है—पिश्चमी जर्मनी और इस महाद्वीप का सबसे अधिक सम्पन्न देश फ्रांस। इन दोनों देशों की प्रजा बहुत सुसम्पन्न और साधनों से भरपूर है। इस समृद्धि का उपयोग व्यक्तिगत विलासिता के अतिरिक्त और भी हो सकता है यह सोचने की उन्हें फुरसत नहीं है। विलासिता की मस्ती ही उन्हें जीवन की उपलब्धि प्रतीत होती है। अकेले पेरिस नगर में 1500 क्लब ऐसे हैं जिसमें युवा नर-नारी निर्वासन होकर नृत्य करते और राग-रंग में लीन रहते हैं। नशेबाजी आकाश चूमने लगी है। पश्चिम जर्मनी में 4 लाख पुरुष और 2 लाख स्त्रियां ऐसी हैं जो अहर्निशि नशे में चूर पड़े रहते हैं। फ्रांस में एक लाख आबादी के पीछे हर साल 10 व्यक्ति नशे की अधिक से दुर्घटना ग्रसित होकर बेमौत मरते हैं। अमेरिका में नशेबाजी के कारण मरने वालों की वार्षिक संख्या 3,50,000 पहुंच चुकी है। रूस जब अमेरिका से हर क्षेत्र में बाजी मारने में कटिबद्ध है तो नशेबाजी में ही पीछे क्यों रहे? उस देश में 20 अरब रुबल अर्थात् भारतीय सिक्के के अनुसार 200 अरब रुपये की ‘वोदका’ शराब पीयी जाती है। अस्त-व्यस्त, अनिश्चित आशंकाग्रस्त एवं एकाकी जीवन का तनाव इतना भारी पड़ रहा है कि लोग नींद की गोली खाये बिना मस्तिष्कीय उत्तेजना से पीछा छुड़ा ही नहीं पाते। यह नींद की गोलियां दैनिक आहार में शामिल हो गई हैं। दिन-दिन बढ़ता तनाव—नशीली गोलियों का घटता प्रभाव—अधिक मात्रा में सेवन करने के लिये विवश करता है उस समय तो लगता है कि अनिद्रा की व्यथा से छुटकारा पाने का अस्त्र हाथ लग गया किन्तु शरीर के सूक्ष्म संस्थानों में यह विषाक्तता इतनी गहराई तक घुस जाती है कि उनमें विविध प्रकार की व्याधियां उठ खड़ी होती है। सन्तानोत्पादन पर तो नशेबाजी का और भी बुरा प्रभाव पड़ता है। अमेरिका में हर वर्ष ढाई लाख बच्चे विकलांग पैदा होते हैं। पिछले वर्ष ऐसे बच्चों की संख्या डेढ़ करोड़ से ऊपर निकल गई थी। इंग्लैंड में हर 40 नवजात शिशुओं में एक विकलांग या अर्ध विक्षिप्त उत्पन्न होता है। हांगकांग में 87 के पीछे एक—स्पेन में 75 पीछे एक—आस्ट्रेलिया में 53 पीछे एक बच्चा विकलांग पैदा होता है इसका एकमात्र कारण नशेबाजी की नर एवं नारियों की बढ़ती हुई आदतें, रात को नींद की गोली लेना ही माना गया है। विवाहों और तलाकों की अमेरिका में पूरे उत्साह के साथ धूम है। 1913000 नये विवाह और 5,34,000 तलाक। हर साढ़े तीन विवाहों में से एक को तलाक लेनी पड़ती है। उस देश में इन दिनों 3 करोड़ महिलाएं विवाह के झंझट में फंसने की अपेक्षा अविवाहित जीवनयापन कर रही हैं और प्राप्त हुये कटु अनुभव को दुबारा दुहराने की हिम्मत नहीं कर रहीं हैं। पारिवारिक भ्रष्टता का बच्चों पर कितना बुरा असर पड़ता है इसका अनुमान इस एक ही जानकारी से लग जाता है कि 18 वर्ष की आयु तक पहुंचने से पूर्व ही हद छह में से एक अमेरिकी लड़के को किसी बड़े अपराध में जेल की हवा खा लेनी पड़ती है। यह तरक्की का एक पहलू है जो आंखों से दिखाई पड़ती है और मोटी बुद्धि भी प्रत्यक्ष परिणामों के आधार पर जिसकी विभीषिका को समझ लेती है किन्तु अन्य असंख्य तस्वीरें ऐसी हैं जो पर्दे की ओट में खड़ी रहने के कारण अपने संहारी प्रभाव से जन-साधारण का अपरिचित जैसी स्थिति में डाले भुलाये रहती हैं। उदाहरण के लिये नशे को ही लें। नशेबाजी के उपकरण और मादक द्रव्य बनाने में लगभग उतनी ही जन-शक्ति और सम्पत्ति लगती है जितनी कि युद्ध व्यवसाय में। मनुष्यों ने जितनी आयु युद्ध की वेदी पर चढ़ाई उसका हिसाब लगाया जा सकता है। मनुष्य की औसत आयु साठ वर्ष की मानी जाय और युद्ध में मरने वालों की औसत उम्र 35 साल तो यह कहा जा सकता है कि औसत सैनिक ने अपनी 25 वर्ष की आयु युद्ध देवता की वेदी पर समर्पित कर दी। यदि लड़ाई में एक लाख मनुष्य मरे हों तो मानवी उम्र के 25 लाख वर्ष उसमें होम दिये गये, यह तथ्य स्वीकार किया जा सकता है। अब नशेबाजी को लीजिये यदि संसार की आधी आबादी नशा पीती मानी जाय और उन दो सौ करोड़ मनुष्यों में से हर मनुष्य अपने जीवन के दस वर्ष नशे की वेदी पर कम कर रहा हो तो कहा जायेगा कि बीस अरब वर्ष नशा खा गया। यह युद्ध से कम नहीं वरन् बढ़ा-चढ़ा विनाश है। इन साधनों को उत्पन्न करने और बनाने में जो श्रम एवं धन लगता है उस पूंजी की युद्ध पूंजी से और युद्ध श्रम से तुलना की जाय तो—इस आधार पर भी नशा आगे है और युद्ध पीछे। बारूद जल जाती है और धमाके के बाद उसका पीछे कोई उत्पादक परिणाम नहीं रहता। नशे के उपकरण भी पीने के साथ-साथ नष्ट हो जाते हैं, इतने तक दोनों की समता है। किन्तु नशे का प्रभाव पीछे भी बना रहता है। जो लोग पीते हैं वे आधि-व्याधियों से घिरते जाते हैं और रोते-कलपते, सिसकते-कराहते जिन्दगी के दिन काटते हैं। उन का बुरा प्रभाव पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता चला जाता है। कहते हैं कि नशा पीने से सुस्ती दूर होती है और गम गलत होता है। फिर ऐसे काम ही क्यों किये जायं जो सुस्ती और गम पैदा करें। भलमनसाहत का हल्का-फुल्का जीवन जिया जा सकता है और सुस्ती तथा गम उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से बचा जा सकता है। यदि ध्वंस के स्थान पर सृजन को नियोजित किया जाय और नशे के स्थान पर दूध उद्योग खड़ा कर दिया जाय तो हर व्यक्ति को एक किलो दूध हर रोज मिलता रह सके ऐसी व्यवस्था हो सकती है। साथ ही खाद, गोबर और बछड़ों से अनुत्पादक जमीन उपजाऊ बना कर खाद समस्या सर्वदा के लिए हल की जा सकती है। मानवी बुद्धि के ध्वंस और सृजन का एक छोटा-सा उदाहरण है कि वह युद्ध एवं नशे के नाम पर कितनी बड़ी बर्बादी करता और अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारता है। प्रगति या अभिशाप निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि पुरखों की अपेक्षा हम शिक्षा, सम्पत्ति एवं सुविधा साधनों की दृष्टि से कुछ आगे ही बढ़े हैं। अब से दो शताब्दी पहले रेल, मोटर, वायुयान, बिजली, रेडियो, आदि कहां थे। इतने स्कूल, कालेज भी नहीं थे और कल-कारखाने भी कहां थे। जिन बातों में हम पूर्वजों से आगे बढ़ रहे हैं उनमें एक बात यह भी सम्मिलित है कि हम ऊंचे उठ रहे हैं। चरित्र, साहस, मजबूती एवं दूरदर्शिता की दृष्टि से न सही शरीरों की ऊंचाई तो कुछ बढ़ ही गई है। वैज्ञानिक अन्वेषण के अनुसार पिछले सौ वर्षों में मर्दों की ऊंचाई का औसत 9 सेन्टीमीटर और स्त्रियों का 3.5 सेन्टीमीटर बढ़ गया है। सौ वर्ष पहले 14 से 16 वर्ष के किशोर जितने ऊंचे होते थे उसकी तुलना में वे अब 17 सेन्टीमीटर अधिक ऊंचे होते हैं। इस प्रकार किशोरावस्था में यह वृद्धि चरम सीमा पर है। इसकी तुलना में बच्चों, तरुणों और वृद्धों पर अपेक्षाकृत बहुत कम फर्क पड़ा है। युवावस्था के चिन्हों के प्रकट होने में सौ वर्षों में दो वर्षों की जल्दी होने लगती है। अब लड़कों में 12 और 14 वर्ष के बीच तथा लड़कियों में 10 और 12 वर्ष के बीच यौवन चिन्हों का प्रकटीकरण आरम्भ हो जाता है जबकि 100 वर्ष पहले इससे दो वर्ष बाद होता था। इन दिनों संसार में सबसे लम्बा पुरुष अमेरिका का राबर्ट इग है जिसकी ऊंचाई 9 फुट 6 इंच है। स्त्रियों में सबसे लम्बी स्त्री वर्लिन निवासी मारीना वेग है यह 8 फुट 4 इंच ऊंची है। पुरुषों में राबर्ट इग के बाद दो व्यक्तियों का नम्बर आता है। वे दोनों ही 9 फुट 3 इंच के हैं। इनमें से एक इंग्लैंड के टी. इवान्स और दूसरे फिनलैण्ड के कामानस हैं। बिजली, रेडियो, रेल, मोटर, जहाज, तार, टेलीफोन आदि अनेकों वैज्ञानिक उपकरण हमारे लिए अनेकों सुविधा साधन जुटा रहे हैं। कल-कारखानों ने उद्योग व्यवसायों को बढ़ाया और मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक धनी हुआ है। स्वास्थ्य, शिक्षा, चिकित्सा, विज्ञान, शासन जैसे क्षेत्रों में आशाजनक प्रगति हुई है। इन सब पर दृष्टिपात करते हुए सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हम पुरखों की अपेक्षा कहीं आगे हैं। केवल दो ही क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें क्रमशः निरन्तर पीछे हटते और नीचे गिरते चले आये हैं, वे हैं सद्भावना और चरित्र-निष्ठा। सम्भवतः इन्हें चतुरता और स्वार्थ परायणता की तुलना में हेय समझा गया है। प्रतिगामी माना गया है और उन्हें उपहासपूर्वक पीछे छोड़ दिया गया है। फलतः बढ़े हुए सुविधा साधन रहते हुए भी हम अपेक्षाकृत अधिक दरिद्र, अधिक दुखी और अधिक दयनीय बन गये हैं। आज का मनुष्य बहुत निराश है, पर उसका कारण अभाव, भय या पीड़ा नहीं वरन् ‘आस्थाओं की समाप्ति’ है। आदमी सोचता है वह किसलिए जिये—किसके लिए जिये—कौन उसे प्यार करता है—किससे वह प्यार करे। इन प्रश्नों के उत्तर उसे नहीं मिलते। फलतः वह अधिकाधिक निराश होता चला जाता है। आन्तरिक खोज को मिटाने को कभी वह हिप्पी, अव्यवस्थित पलायनवादी बनता है और कभी उद्दण्ड, उच्छृंखल, आततायी के रूप में क्रूर-कर्म करता है। भीतरी असन्तोष की आग को बुझाने के लिए वह इन दो घड़ों को टटोलता, पर उनमें भी पानी कहां है। तेल भरी इन कुप्पियों को उड़ेलने पर भी उसे उद्विग्नता से छुटकारा कहां मिलता है। निर्धन देशों को अगणित समस्याओं में उलझे हुए देखकर कहा जाता है कि इनकी सुख-शांति, धनाभाव के कारण नष्ट हो गई है इसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि दरिद्रता वश लोग कुमार्ग अपनाने पर उतारू होते हैं। पर ऐसा सोचना तथ्यों के विपरीत है। क्या गरीबी ही अपराधों की एकमात्र जड़ है? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें अमीर और गरीब देशों के बीच चल रही अपराध वृद्धि की होड़ का अनुपात देखना होगा। अमेरिका में हर व्यक्ति की औसत आमदनी 5000 रु. वार्षिक है। फिर भी उस देश में प्रति सैकिण्ड 18 अपराध होते हैं। उत्तर प्रदेश औसत आमदनी की दृष्टि से 260 रु. वार्षिक पर गुजारा करता है, पर उसमें ढाई मिनट पर एक अपराध होने का औसत है। कहां एक सैकिण्ड में 18 और कहां ढाई मिनट में एक। यह लगभग ढाई हजार गुना अन्तर हुआ। रूस भी अमेरिका से हर बात में होड़ लगा रहा है। वहां कठोर शासन तथा नियन्त्रित समाज व्यवस्था है। आर्थिक कठिनाइयां भी बहुत नहीं हैं फिर भी अपराध चिन्ताजनक गति से बढ़ रहे हैं। ब्रिटेन वालों की शिकायत है कि 14 वर्ष से कम उम्र के लड़के लड़कियां भी इन्हीं थोड़े दिनों में दूनी संख्या में शराबी हो गये हैं। वे इस छोटी उम्र में अन्य बुरी लतों से ग्रस्त होकर मन की आवश्यकता पूरी करने के लिए तरह-तरह के अपराधों को अपनाते हैं। सचाई यह है कि लक्ष्य विहीन जीवन सदा अशान्त ही रहेगा भले ही विलासिता के कितने ही अधिक साधन उपलब्ध होते चलें निर्धनों और अशिक्षितों की तुलना में धनी और सुशिक्षित लोग अधिक खिन्न उद्विग्न पाये जाते हैं। अमेरिकी चलचित्रों में अभिनय करने वाली अभिनेत्रियों में कुछ समय पूर्व मैरिलिन मोनरो मूर्धन्य स्थान पर थी। अपनी सुन्दरता कला, स्फूर्ति, मुसकान, थिरकन और सुरीली आवाज के कारण वह करोड़ों चित्रपट दर्शकों के मस्तिष्क पर छाई रहती थी। वह कला प्रेमियों के हृदय की रानी रही है—उसने अपने अभिनय का पूरा मूल्य वसूल किया, करोड़ों रुपये कमाये और ऊंचे दर्जे के धनी तथा सुखी लोगों में गिनी गई। उससे प्रणय निवेदन करने के लिए एक से एक सुन्दर, स्फूर्तिवान तथा साधन सम्पन्न व्यक्तियों की लम्बी लाइन लगी रहती थी। इनमें जो-जो सर्वोत्तम जंचे उन्हें उसने वरण भी किये। लेकिन दूर का आकर्षण—अधिक निकट आने पर समाप्त हो गया और कुछ ही दिन बाद तलाक देनी पड़ी। यह परीक्षण उसने बार-बार नये उत्साह और नये अनुभव लेकर किया। एक के बाद एक तीन विवाह किये और उन सबको तलाक दे दिया। एक भी उसे इस लायक न जंचा जिसे वह हृदय दे सकती और उसका हृदय पा सकती। किसी से भी उसे सुख नहीं मिला। इसलिए निराश होकर उसने यह प्रयोग बन्द कर दिया और इस निश्चय पर पहुंची कि विवाह से कोई लाभ नहीं वरन् एक जंजाल ही गले में बांधना है। स्टेज पर हंसते-हंसते उसने प्रायः जवानी काट दी। वाहवाही भी मिली और पैसा भी, पर शान्ति एवं सन्तोष का कभी एक क्षण भी उसने नहीं देखा। लोगों से—उनके व्यवहार से—जमाने के ढर्रे से उसके मन में बेहद घृणा पनपती रही; एक आंख से कटाक्ष और दूसरी आंख से असीम तिरस्कार का दुहरा खेल उसे आये दिन खेलना पड़ा। अन्त में वह थककर चूर हो गई। अंतर्द्वंद्वों ने उसे भीतर ही भीतर खोखला कर डाला, ढलती आयु में उसने अपना पेशा छोड़ दिया। छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। मानसिक तनावों ने उसकी निद्रा छीन ली। अनिद्रा के साथ-साथ खीज भरे उद्वेग उसे सताते रहे। आन्तरिक विक्षोभों से संतप्त होकर उसने एक दिन यही फैसला किया कि इतनी नीरस और कर्कश जिन्दगी जीने से कोई लाभ नहीं। सो उसने मुसीबत के वक्त थोड़ा-बहुत साथ देने वाली नींद की गोलियों को ही अपनी छाती से लगाया। शीशी खोली और एक के बाद एक दर्जनों गोलियां खाती चली गई। अन्त में उन्हीं के साथ लिपट कर सदा के लिए सो गई। सवेरे दरवाजा तोड़कर उसका मृत शरीर निकाला गया तो उस पर विषाद और निराशा की गहरी छाया छाई हुई थी यों चेहरे की सुन्दरता तब भी बनी हुई थी और दौलत भी अपनी जगह सुरक्षित थी। आज की प्रगति जिसे सभ्यता का नाम दिया जाता है, देखने में आंखों को चकाचौंध उत्पन्न होता है, बहुत आकर्षण होते हुए भी नितान्त खोखली है क्योंकि उसके पीछे न तो ऊंचे लक्ष्य हैं और न कोई आदर्श। मात्र विलास, तृष्णा और अहंकृति की पूर्ति के लिए विविधविध आडम्बर बनाने में लोग निरत रहते हैं। जिस तरह भी हो सके बिना नीति-अनीति का विचार किये अधिकाधिक सुख-साधन एकत्रित किये जायं और जितना उपभोग सम्भव हो उसे बिना किसी मर्यादा का ध्यान रखे पूर्ण स्वेच्छाचारी बनकर भोगना चाहिए। इसी तथाकथित प्रगति और सभ्यता का दुष्परिणाम आज हम सब के सामने है। साहित्य में 7 लाख रुपये का नोबुल पुरस्कार प्राप्त कराने वाले अंग्रेजी भाषा के 87 वर्षीय महाकवि एजरा पाइन्ड का भी 1972 में देहावसन हुआ है। उनने अपनी अधिक लोकप्रिय कविता में यह बताने का प्रयत्न किया है हम सभ्यता के व्यामोह में फंसे हुए वस्तुतः आदिमकाल के जंगलीपन को अपनाने के लिए चल पड़े हैं। स्टेनिसलाव ऐंड्रेस्की न तो कवि हैं और न साहित्यकार। वे विशुद्ध विज्ञानवेत्ता हैं, पर उन्होंने आज के वैज्ञानिक युग को भ्रान्तियों का जमाना कहा है और इस तथ्य को उन्होंने ‘जादूगरों की दुनिया’ नामक ग्रन्थ में भली प्रकार सिद्ध किया है। वे कहते हैं हम खोजते और बनाते तो बहुत कुछ हैं, पर उसका जो प्रयोग-उपयोग करते हैं उस से प्रगति का नहीं अवगति का ही पथ-प्रशस्त होता है। साधनों की वृद्धि स्तर की क्षति प्रगति और उन्नति के नाम पर मनुष्य ने ऐसे साधनों का ही विकास किया है जिनके कारण वह स्वयं को अधिकाधिक साधन-सुविधाओं से सम्पन्न कर सके। उसका स्वयं का नैतिक, चारित्रिक और आत्मिक स्तर ऊंचा उठ सके, ऐसे कोई प्रयास विशेष नहीं हुए। परिणाम यह हुआ कि साधन-सुविधाओं से लैस मनुष्य, जो पहले जीविकोपार्जन और जीवन संघर्ष में ही व्यस्त रहता था अब खाली और सुविधामय रहने लगा। स्पष्ट है कि खाली दिमाग में कुछ न कुछ करने की बात उठती ही रहती है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि आज का मनुष्य संकल्प, लक्ष्य व जीवन शिक्षा के अभाव में अवगति की ओर ही अग्रसर हुआ और कतिपय बुद्धिजीवियों ने इस अवगति को मनुष्य का सहज स्वभाव निरूपित करते हुए उसे पतन के गर्त में गिरने के लिए और भी योग दिया। कामुक उत्तेजना, सेक्स, यौन आनन्द और ऐसी ही क्षुद्र क्रीड़ाओं को ही जीवन का तत्व निरूपित करने के जो प्रयास चल रहे हैं उन्हें दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाना चाहिए। आजकल कामुक उत्तेजना भड़काने के लिए जितना साहित्य लिखा और छापा जा रहा है, जितनी तस्वीरें बिक रही हैं, जितने गीत, वाद्य, अभिनय और फिल्म चल रहे हैं उन सबके बनाने, प्रचारित करने और उपयोग करने में जितनी धन-शक्ति और जन-शक्ति लगती है उसका लेखा-जोखा लिया जाय तो प्रतीत होगा कि यह उद्योग युद्ध और नशे की तुलना में किसी भी प्रकार कम नहीं है। उसके दुष्परिणाम उन दोनों के सम्मिलित उपद्रव की अपेक्षा कहीं बढ़कर हैं। इस भड़की हुई उत्तेजना से लोग अपना शारीरिक, मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य किस बुरी तरह नष्ट करते हुए खोखले बनते जा रहे हैं उसके निष्कर्षों का मूल्यांकन करने पर प्रतीत होता है कि यह मन्द गति से सम्पन्न होने वाली आत्म-हत्या है। उसके सामाजिक दुष्परिणाम कितने भयानक होते हैं—गृहस्थ जीवन की शालीनता किस प्रकार नष्ट होती है और पीढ़ियां किस प्रकार कुसंस्कारी बनती जाती हैं, इसका विवेचन सहज ही नहीं हो सकता। प्रकृति की एक सामान्य-सी क्रीड़ा को जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता के स्तर तक पहुंचा देना इसी बुद्धि चमत्कार का काम है जिसने कामुकता भड़काने के कुकृत्य को एक अच्छा-खासा व्यवसाय बनाकर रख दिया है। तरह-तरह के श्रृंगार प्रसाधन इसी वर्ग में गिन लिये जायें तब तो यह संसार का सर्वप्रथम उद्योग बन जायेगा और प्रतीत होगा कि अन्न उत्पादन से भी अधिक शक्ति कामोत्तेजना भड़काने के लिये झोंक दी गई है। ध्वंस में लगी इस मानवी क्षमता के कारण चारित्रिक स्तर में गिरावट, रोग, बीमारियां, अशक्तता और उच्छृंखलता जैसे अनर्थ वह दुष्प्रवृत्तियां तो बढ़ ही रही हैं उनमें एक अनर्थ ही इतना भयंकर है कि उसके लिए विश्व के सभी मनीषी, विचारक, वैज्ञानिक और राजवेत्ता हर कोई चिन्तित है। वह समस्या है अनियन्त्रित सन्तानोत्पादन के कारण उत्पन्न होने वाला जनसंख्या विस्फोट। अनियन्त्रित सन्तानोत्पादन और मौज-मजे की जिन्दगी इस युग की दो ऐसी दुष्प्रवृत्तियां हैं जो प्रकृति के सुव्यवस्थित क्रिया-कलापों को चुनौती देकर महाकाल की विविध विधि आपत्तियों में धकेल देने के लिए बाध्य कर रही है। जनसंख्या नियमन आज की खाद्य, शिक्षा, चिकित्सा आजीविका एवं युद्ध वजन से भी बड़ी समस्या है। उस एक समस्या को मूल और अन्यों को पत्ते कहा जा सकता है। जड़ को सींचने, सम्भालने से काम चलेगा, पत्ते पोतने से नहीं। जनसंख्या सीमित हो तो धरती के अनुदानों से, प्रकृति सम्पदा से लाभान्वित रहा जा सकता है और विभिन्न प्रकार के टकरावों से बचा जा सकता है अस्तु यदि संसार के विचारशील लोग इस समस्या के समाधान के विभिन्न उपाय सोच रहे हैं और विवेकवान वर्ग विभिन्न प्रयोग कर रहे हैं तो यह सराहनीय चेष्टा ही कही जायगी। एक ओर मानवता भूख की समस्या से भयाक्रांत है तो दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि उस समस्या को और भी विकराल बनाये दे रही है। इन समस्याओं का हल खोजने के लिये संसार के मूर्धन्य मस्तिष्क चिन्तित हैं। कई उपाय सोचते हैं, पर इन समस्याओं पर काबू पाने का कोई कारगर उपाय हाथ नहीं लग रहा है। हां इतना अवश्य स्पष्ट हो जाता है कि आत्यंतिक परिणाम जो भी हो, अन्तिम उपाय जो भी निकले, अगली शताब्दी तक यदि इस समस्या पर व्यक्तिगत, पारस्परिक और सामाजिक दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया तो उसके बड़े भयंकर परिणाम होंगे