Books - बच्चे बढ़ाकर अपने पैरों कुल्हाडी़ न मारें
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
मनुष्येत्तर प्राणियों की संख्या वृद्धि
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
धरती पर प्राणियों के लिए सीमित संख्या में ही स्थान और साधन हैं। यदि वे अपनी संख्या बढ़ाने पर स्वेच्छापूर्वक नियन्त्रण न करते तो फिर प्रकृति को अपनी निर्मम कुल्हाड़ी चलानी पड़ेगी। इसी प्रकार लोग यदि समर्थता, पुरुषार्थ परायणता, तितिक्षा और संघर्षशीलता की अवज्ञा करके शौक मौज का विलासी जीवन जीने लगेंगे तो भी ऐसी अकर्मण्यता और सभ्यता जन्मेगी जिसे प्रकृति की परिभाषा में निकम्मापन माना जाता है विलासी, आलसी और जागरूकता रहित प्राणियों को नियति यन्त्र में पिस कर नष्ट ही होना पड़ता है। सन्तानोत्पादन की जो क्षमता प्राणियों को मिली है, यदि वह निर्वाध गति से चलती रही तो एक ही प्राणी कुछ शताब्दियों में सारी धरती को घेर लेगा। हाथी को ही लें, उसकी प्रजनन गति मन्द मानी जाती है। 30 वर्ष की आयु में वह पिता बनने योग्य होता है और उसकी प्रजनन शक्ति इसके बाद 90 वर्ष तक रहती है। 10 वर्ष के अन्तर से हथिनी माता बनती है। अर्थात् एक हाथी युगल अपने जीवनकाल में 6 बच्चे देता है। इतने पर भी गणित कहता है कि यदि उसकी सारी सन्तानें जीवित रहें तो 700 वर्षों की अवधि में एक हाथी का वंश 19 लाख हो जायेगा। चक्रवृद्धि गति से यह स्वाभाविक है आश्चर्यजनक नहीं। यह तो मन्द प्रजनन अभ्यासी और सशक्त काया वाले हाथी की बात हुई। दुर्बल काया और अति प्रजनन की प्रकृति वाले पिछड़े जीवों की बात ली जाय तो उनकी वंश वृद्धि के परिणाम तो इतने आश्चर्यजनक होंगे कि यदि उनकी सभी सन्तानें बनी रहें तो दस बीस वर्ष में ही वे पृथ्वी को अपने वंशजों से ढक लेंगे। 17 जनवरी 1969 को नई दिल्ली से प्रसारित एक विज्ञप्ति में विश्व-स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञों ने अपना मत व्यक्त करते हुए बताया कि चूहे तथा चुहिया के एक जोड़े से पैदा हुई सन्तानों से तीन वर्षों में 35 करोड़ चूहे हो सकते हैं। लेकिन प्रकृति ऐसा होने नहीं देती। यदि चूहों की मनमानी चल सकी होती तो तीन वर्षों में पृथ्वी पर अकेले चूहे इतने हो जाते कि चलने वाले व्यक्ति का हर अगला पांव एक चूहे की देह पर पड़ता। प्रकृति ने चूहों पर यह प्रतिबन्ध लगा दिया है कि वे प्रति वर्ष अधिक से अधिक 60 बच्चे पैदा करें। मनुष्य भी यदि इसी ढंग से बच्चे पैदा करते रहे तो एक दिन अपने आप उनकी प्रजनन शक्ति समाप्त हो जायेगी। आज-कल ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है, जो प्रजनन की क्षमता खो चुके हैं या खो रहे हैं। मक्खी एक बार में 120 अण्डे देती है। गर्मी के दिनों में वह 6 बार अण्डे देती है। दस दिन में बच्चे भी निकल आते हैं और वह भी 14 दिन की आयु में प्रजनन (पावर ऑफ रिप्रोडक्शन) के योग्य हो जाते हैं। 6 पीढ़ियों में जन्मे, यदि सब बच्चों को किसी प्रकार जीवित रखा जा सके तो वे 1/4 मिलियन क्यूबिक घन फीट अर्थात् 250000 घन फीट जगह एक मक्खी के जोड़े के बच्चों के द्वारा एक मौसम में घेरी जा सकती है। (एक घन फुट का अर्थ एक फुट लम्बा, एक फुट चौड़ा और एक फुट ऊंचा स्थान होता है।) अब यदि संसार में पाई जाने वाली सब मक्खियों का हिसाब लगायें तो मालूम पड़ेगा कि इस पृथ्वी जितनी कई पृथ्वियां तो केवल मक्खियों के रहने के लिये ही आवश्यक हो जायेंगी। प्रकृति उनके लिए अपना संहार अस्त्र प्रयोग करती है। साधारण-सी सर्दी आते ही मक्खियां मरकर अपने आप नष्ट हो जाती हैं। मनुष्य समाज के लिए भी यही बात हो सकती है। प्रजनन की गति जितनी बढ़ेगी मनुष्यों के स्वास्थ्य और शारीरिक क्षमतायें गिरती हुई चली जायेंगी और वे मौसम के हलके से परिवर्तनों को भी सहन करने की स्थिति में नहीं रहेंगी। तब बीमारियां, नये-नये रोग इस तरह बढ़ेंगे कि असमर्थ व्यक्ति अपने आप नष्ट हो जायें, केवल वे लोग बचेंगे जिनके स्वास्थ्य वीर्य नाश की बीमारी से सुरक्षित हों। यदि मनुष्य अपने आप नहीं संभलता तो प्रकृति को विवश होकर यह सामूहिक दण्ड प्रणाली मानव जाति के लिए भी लागू करनी ही पड़ेगी। आजकल बीमारियों में मृत्यु दर की वृद्धि और नये-नये रोगों की उत्पत्ति उसी का संकेत करती है, आग की स्थिति कितनी भयानक हो सकती है। इसकी तो कल्पना करते भय लगता है। एक सीप (आइस्टर) एक वर्ष में 60 मिलियन (एक मिलियन=10 लाख) अण्डे देती है, इस तरह एक जोड़े से पैदा होने वाली पांच पीढ़ियों से ही जितनी सीपियां पैदा हो जायेंगी, उनका यदि एक स्थान पर ढेर किया जा सके तो वह ढेर पृथ्वी के आकार से आठ गुना बड़ा होगा। कार्डफिश नामक मछली एक करोड़ अण्डे देती है, यदि सभी अण्डों में से बच्चे निकल आयें तो उन्हें रहने के लिये समुद्र भी पूरा न पड़े। इन्हें कम करने के लिए प्रकृति ने ऐसे शत्रु तैयार किये हैं, जो इन्हें खाते रहें, मछलियों को अनिवार्य बन्ध्याकरण का दण्ड भी भुगतना पड़ता है। यदि मनुष्य भी स्वयं सचेत न हो तो एक दिन वह स्थिति अपने आप बन जायेगी, जब या तो जनसंख्या स्वयं एक दूसरे को मार कर खा लेगी। (युद्ध, महामारी, अकाल भी इसी के रूप हो सकते हैं।) या फिर स्त्रियों में बन्ध्यात्व बढ़ जायेगा और वे बच्चे ही पैदा न कर सकेंगी। हाथी संसार में सबसे धीमी प्रजनन (ब्रीडिंग) वाला जीव है। वह 30 वर्ष की आयु से बच्चे देना प्रारम्भ करता है, यदि वह 30 और 60 वर्ष की आयु के बीच 6 बच्चे पैदा करे और इसी अनुपात से वे बच्चे भी आगे प्रजनन करते रहें तो 500 वर्ष में ही एक जोड़े हाथी से डेढ़ करोड़ हाथी पैदा हो जायेंगे। अर्थात् पृथ्वी पर तब केवल हाथी ही हाथी हों और किसी को रहने, खाने-पीने के लिये स्थान और साधन ही शेष न रहें। प्रकृति में वह जबर्दस्त समझ और शक्ति है कि वह इस शारीरिक योग्यता वाले पशु की जनसंख्या को भी अनियन्त्रित नहीं होने देती। उन्हें वह हिसाब से मारती रहती है। यह उदाहरण यह बताते हैं कि यदि मनुष्य आत्म-नियन्त्रण के द्वारा जनसंख्या वृद्धि के लिये तैयार नहीं होता, तब या तो उसे अप्राकृतिक परिवार नियोजन प्रणाली भक्षण करेगी अथवा प्रकृति स्वयं ही अपनी संहारक प्रक्रिया द्वारा नष्ट करके रख देगी। प्रकृति का दंड विधान इस विपत्ति से निपटने के लिए प्रकृति ने एक क्रूर कुल्हाड़ी भी तैयार रखी है, वह है समर्थ का चुनाव। जो सुयोग्य और समर्थ होते हैं वे ही प्रकृति की विविध चुनौतियों को स्वीकार करते हुए संघर्ष करते हुए और उस आधार पर अपनी विकसित योग्यता का परिचय देकर जीवित बने रहते हैं। जो इस लड़ाई में हारते हैं वे मौत के मुंह में चले जाते हैं। जो जीव जितना अधिक प्रजनन करेगा उसकी सन्तानें उतनी ही दुर्बल और स्वल्प जीवी होंगी। जो इस आग से खेलने में समझदारी का उपयोग करते हैं उन्हें काट-छांट की कैंची उतना ही कम कष्ट देती है। जीवन संग्राम एक ऐसी सचाई है जिससे न तो इनकार किया जा सकता है और न बचा जा सकता है। चैन से बैठने और मौज मजा करने की कल्पना भर कोई करता रह सकता है पर प्रकृति उसे वैसा करने नहीं देती। आलसी अपनी संघर्षशीलता वाली प्रतिभा गंवाते चले जाते हैं, फलतः समय की चुनौती से जूझने लायक क्षमता उनमें रहती ही नहीं। ऐसी दशा में अयोग्य और और असमर्थ को हटाकर संसार के सौन्दर्य को बनाये रखने के लिए नियति के संचालन-सूत्र, कुशल माली की तरह अपना काम करते हैं। वे इस बात की परवा नहीं करते हैं उन्हें दयालु कहा जायेगा अथवा निर्दयी। आलसी और प्रमादी वर्ग के विशालकाय प्राणी धरती पर से अपना अस्तित्व समाप्त कर बैठे। परिस्थितियों से लड़ने के लिए जिस कठोरता और सजगता की आवश्यकता है उसे यदि अक्षुण्य न रखा गया तो अकर्मण्यता का अभ्यस्त व्यक्ति क्रमशः दुर्बल होता चला जायेगा और फिर उसकी अनुपयोगी सत्ता को स्थिर न रखा जा सकेगा। उत्तरी योरोप में 125064 वर्गमील क्षेत्र और कुल 3540000 की जनसंख्या का एक छोटा सा देश है उसका नाम है ‘‘नार्वे’’। नोर्डकिन अन्तरीप इसी देश के उत्तरी तट पर स्थित है। इस अन्तरीप में 6 माह तक तो दिन-रात दिन ही दिन बना रहता है अर्थात् सूरज चमकता है शेष 6 माह दोपहर में भी सूरज दिखाई नहीं पड़ता। नार्वे प्रकृति के उक्त विलक्षण दृश्य से भी बढ़कर एक ऐसे रहस्य का उद्घाटन दिन-रात करता रहता है जिसके लिये आज दुनिया भर के सभी देशों में पृथक मन्त्रालय खुले हुए हैं तो भी समस्या नियन्त्रण में नहीं आती। वह विश्वव्यापी समस्या है ‘‘जनसंख्या की असीमित वृद्धि’’ संख्या शास्त्रियों का अनुमान है कि प्रति वर्ष संसार की आबादी एक करोड़ बीस लाख बढ़ रही है। प्रोफेसर हीजवान फास्टर का कथन है कि 13 नवम्बर 2026 दिन शुक्रवार को मनुष्य जाति का इसलिये अन्त हो जायेगा कि उस दिन जनसंख्या इतनी अधिक हो जायेगी कि लोगों को खड़े होने तक की जगह न रह जायेगी। डा. जेम्स बर्नर के आंकड़े इससे भी भयंकर हैं। लन्दन की स्वास्थ्य कांग्रेस का भी कथन है कि अब से 80 वर्ष बाद संसार, जनसंख्या वृद्धि के कारण महाप्रलय के गर्भ में चला जायेगा और मनुष्य अपने आप लड़ झगड़ कर, प्राकृतिक प्रकोपों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट होकर नेस्त नाबूद हो जायेगा। यह आंकड़े जितने सत्य हैं, जितने भयानक हैं शुतुरमुर्ग की भांति उतना ही मनुष्य उससे मुंह छुपाना चाहता है। कहते हैं रेगिस्तानी शुतुरमुर्ग जब अपने शिकारी को देखता है तो भयग्रस्त होकर अपना मुंह बालू में घुसेड़ कर सुरक्षित हो जाने की कल्पना करता है इस बीच शिकारी वहां पहुंच जाता है और उसकी अपनी भूल के कारण ही बड़ी आसानी से उसका आखेट कर लेता है। प्रकृति मनुष्य की मूर्खता पर प्रहार करने के लिए कितनी निर्दयता पूर्वक तैयारी कर रही है उसका दर्शन करना हो तो नार्वे जाना चाहिये और वहां पाने वाले चूहे की सी आकृति वाले विचित्र जंतु ‘‘लेमिंग’’ की जीवन पद्धति और उसके परिणाम का अध्ययन करना चाहिये। ‘‘लेमिंग’’ ठीक चूहों जैसे ही होते हैं किन्तु इनकी दुम छोटी है। इनके दो ही काम मुख्य हैं एक खाते रहना दूसरा बच्चे पैदा करते रहना। लगता है पूर्व जन्म में अधिक सन्तान पैदा करने वाले ही भाग-भाग कर नार्वे जाते हैं और इस जन्म में ‘‘लेमिंग’’ के रूप में शरीर धारण कर अपनी विभुक्षित वासना पूरी करने का प्रयत्न करते हैं। पर उनकी यह मूर्खता ही उनके महानाश का कारण बनती है। महाप्रलय के जो संकेत प्रो. हीजवान, माल्थस, डा. जेम्स बर्नर आदि ने दिये हैं उनका जीता-जागता दृश्य नार्वे में देखा जा सकता है। मादा लेमिंग दिन-रात बच्चे पैदा करती रहती है फलस्वरूप कुछ ही दिनों में पहाड़ियों की पहाड़ियां ‘‘लेमिंगो’’ से ऐसे भर जाती हैं जैसे बरसात में पानी। रहने के लिए, शरीर छुपाने के स्थान नहीं रहते तो बिलबिलाते हुये इधर-उधर भागते हैं। दांव लगता है भेड़ियों, भालू और लोमड़ियों का। वे इन्हें खा पीकर बराबर कर देते हैं। कई बार शत्रु भी इनकी संख्या घटा नहीं पाते तब वे चींटी की तरह तीन-तीन चार-चार फुट की कतार बनाकर समुद्र की ओर चल पड़ते हैं। बेचारे इतने कायर और कमजोर होते हैं कि दिन में चल भी नहीं सकते कमजोर के लिये हर जगह दुश्मन तैयार रहते हैं इसी भय से वे रात में चलते हैं और किसी तरह समुद्र तक पहुंच जाते हैं पर वहां भी उन्हें सिवाय ‘‘आत्म-हत्या’’ के कुछ हाथ नहीं आता। समुद्र में कूद-कूल कर अपनी जान गंवा देते हैं थोड़े बहुत बच जाते हैं वह लौटकर आते हैं और फिर से प्रजनन और विनाश का यही क्रम प्रारम्भ हो जाता है। मनुष्य, प्रकृति के इस निर्दय सत्य से कुछ सीखता व संभलता तो दुर्गति की जो स्थिति सामने दौड़ती आ रही है वह कम न हो जाती? बच्चे यों न बढ़ाइये साइक्लोपटेरस नाम की मछली एक बार में 80000 से लेकर 1360000 तक अण्डे देती है। मनुष्यों की तरह उसकी भी यह मूढ़ मान्यता है कि बच्चे सौभाग्य का प्रतीक होते हैं। अपनी इस मूर्खता के कारण ही उसका जीवन सदैव संकट में बीतता है। मादा अपने पति का कामुक वृत्ति का लाभ लेती है। अण्डे दिये और पति का सौंपे। आप तो घूमने फिरने निकल गई और पति महोदय पर उस तरह बोझ आ पड़ा, जैसे अन्धाधुन्ध बच्चे करने वाले पुरुषों पर उनके भरण-पोषण, आजीविका, वस्त्र, शिक्षा आदि का दबाव पड़ता है। न तो लड़कों को पौष्टिक आहार मिल पाता है, न विकास की समुचित परिस्थितियां। उसका परिवार छाती का पीपल बना उसे ही त्रास देता रहता है। नर इस बड़े ढेर को कभी सिर, कभी पूंछ से हिलाता रहता है। फिर भी कई बार उन्हें पर्याप्त शुद्ध जल नहीं मिल पाता, आवश्यक ऑक्सीजन नहीं मिल पाती। सैकड़ों अण्डे इसी में मर जाते हैं। जो बच जाते हैं वे भी अधिकांश कमजोर और बीमार ही बने रहते हैं। शक्तिशाली निर्बलों को खा जाते हैं, किसी को इसका उदाहरण देखना हो तो बहुसंख्यक सन्तानों वाली इस मछली को देख लें। छोटी-छोटी मछलियां भी इसे चारों तरफ से सताती रहती हैं। कौवे तथा बगुले आदि पक्षी तो इसके लिये यमराज हैं। वे चोंच मार-मारकर नर को अधमरा कर देते हैं और बच्चे-बच्चे खा-पीकर बराबर कर देते हैं। फिर भी शायद प्रकृति ने उसे इसलिये पैदा किया है कि मानो वह मनुष्य के लिये उदाहरण छोड़ना चाहती हो—देखलो सन्तान की संख्या बढ़ाने, अपनी समर्थता का बिलकुल ध्यान न देने का यही परिणाम होता है। इतना होने पर भी न नर मानता है, न मादा। हर तीसरे महीने फिर वही, उतने ही अण्डों की फौज तैयार कर देते हैं। नर अपनी कामुकता का शिकार होता है। मादा तो फिर घूमने निकल जाती है और नर महोदय को फिर वही झंझट और संकट वाला जीवन। सबसे अधिक बच्चे पैदा करने वाला, जीवन भर भय-ग्रस्त, कमजोर आपत्तियों में डूबा हुआ। उसे न कभी समुद्र में सैर का आनन्द मिल पाता है, न तरह-तरह की वस्तुयें खाने-पीने का। थोड़े ही दिन में परलोक की तैयारी करने लगता है। कार्डफिश भी ऐसी ही मछली है, एक बार में 6000000 अण्डे देने वाली। इस मछली का ही तेल है जो औषधियों के काम में लिया जाता है। कमजोर होने के कारण अपनी सुरक्षा भी नहीं कर पाती। सारे समुद्र में कुल पांच होती पर स्वस्थ और समर्थ होती तो क्योंकर यह दशा होती। तरबोट मछली 9000000 अण्डे देती है। बच्चे भोजन के टुकड़ों पर ऐसे लड़ते हैं, जैसे मांस के एक टुकड़े के लिये कई चीलें। यादवों की तरह का मुशल पर्व मनता है, सारे बच्चे लड़-झगड़कर मर जाते हैं। यही दशा कमजोर नस्ल वाली लिंग मछली की होती है, यह एक बार में 28000000 अण्डे देती है। यह अनुभव करना चाहिये कि संसार में संख्या नहीं, समर्थता जीतती है। एक भेड़िया सैकड़ों बकरियों को मार डालता है। कहते हैं कि सिंह के सारे जीवन में दो ही बच्चे होते हैं पर उनकी शक्ति और सामर्थ्य के आगे जंगल के हाथी, गैंडे जैसे भीमकाय जीव भी पानी भरते हैं। संख्या ही यदि बलवान होती तो आइस्टर सीप संसार में सबसे शक्तिशाली होती। एक जोड़ा आइस्टर एक वर्ष में 66—33 (अर्थात् 66 के आगे तैंतीस शून्य) अण्डे देता है। इनका ढेर बनाया जाये तो वह पृथ्वी के आकार से आठ गुना बड़ा हो पर यह स्थिति आने ही नहीं पाती। समुद्र के छोटे-छोटे जीव की इनकी असमर्थता का लाभ उठाते हैं और थोड़े ही दिनों में इन्हें खा पीकर बराबर कर देते हैं। जनसंख्या वृद्धि का प्रकृति समाधान पृथ्वी पर बढ़ने वाले जनसंख्या के भार को कम करने के लिए प्रकृति विभिन्न उपायों से काम लेती है। आस्ट्रेलिया में खरगोश बहुतायत से पाये जाते हैं। खरगोश होता भी शीघ्र प्रजनन करने वाला प्राणी। एक जोड़ी खरगोश से एक बार में कम से कम 6 बच्चे पैदा होते हैं। खरगोश जब 6 माह का होता है, तभी उसमें प्रजनन शक्ति आ जाती है। एक बार बच्चा देना आरम्भ करने के बाद वह हर तीसरे माह 6 बच्चे देता चला जाता है। इस तरह वर्ष में एक जोड़े से 24 बच्चे ऐसे होते हैं, जो 6 माह बाद स्वयं भी बच्चे पैदा करने लगते हैं। 9 वें महीने 36 और बारहवें महीने 72 और कुल मिलाकर एक जोड़े से एक वर्ष में 24 + 36 + 72 = 132 खरगोश पैदा हो जाते हैं। चक्रवृद्धि ब्याज की दर से यह संख्या बढ़ती रहती है। यदि एक खरगोश 5 वर्ष जीवित रहे तो इस अवधि में उसके परिवार की संख्या 132 + 144 + 288 + 576 + 1152 + 2304 + 4608 + 9216 + 18432 + 36864 + 73728 + 447556 + 295112 = 190112 हो जायेगी। यह एक जोड़े की पैदाइश होगी। बाबाजी कुल 5 वर्ष के ही होंगे यदि ऐसे बाबाओं की संख्या कुल बीस ही हो जाये तो वहां खरगोशों की संख्या इस अवधि में 11802240 (एक करोड़ 18 लाख दो हजार दो सौ चालीस हो जाये)। आस्ट्रेलिया का कुल क्षेत्रफल 30 लाख वर्ग मील है और वहां की जनसंख्या कुछ 90 लाख है। यदि प्रकृति ने इन्हें अपने ही अनुपात से बढ़ने दिया होता तो आज आस्ट्रेलिया में एक भी तो आदमी न होता। हरियाली का एक भी तिनका न होता। दैवयोग से आस्ट्रेलिया में मांसभक्षी जीव भी नहीं पाये जाते, इसलिये इनके अस्तित्व को वहां कोई खतरा भी नहीं है। खरगोशों का वहां एक छत्र साम्राज्य होता। तो भी वहां खरगोश कम क्यों हैं, यह जानने की उत्कंठा वैज्ञानिकों में पैदा हुई जनसंख्या का अध्ययन किया। उन्होंने टेलेफोटो-लेन्स (ऐसे कैमरे जो किसी स्थान पर लगा दिये जाते हैं, फोटो खींचने वाला पीछे चला जाता है और दूर से ही फोटो लेता रहता है।) लगाकर बड़े-बड़े समूहों के चित्र लिये। सभी चित्र बड़े मजेदार थे और यह दिखा रहे थे कि उनमें जल और अन्न के सीमित कोटे को प्राप्त करने के लिए कितनी मार-पीट होती है। आपस में ही उनके लड़-झगड़कर नष्ट होते दिखाई देने वाले यह चित्र आज भी ‘आस्ट्रेलियन न्यूज एण्ड इन्मार्मेशन ब्यूरो’ के पास सुरक्षित हैं। एक चित्र जो ‘किनशिप आफ ऐनिमल एण्ड मैन’ पुस्तक, जिसके लेखक मार्गन हैं, में पेज नम्बर 92 में छपा है बड़ा ही कौतूहल वर्द्धक है वह। एक छोटे से गड्ढे में पानी पीने के लिये खरगोशों का समूह उमड़ पड़ा है। वे एक दूसरे के ऊपर चढ़कर सबसे पहले आगे पहुंचकर पानी प्राप्त करने की आपा-धापी में हैं। गड्ढा छोटा है पानी बहुत कम। सब आपस में झगड़ते हैं कितने ही युद्ध में मर जाते हैं, कितने ही प्यास और भूख से तड़पकर दम तोड़ देते हैं। लम्बा परिवार ‘असह्य भार’ इसी प्रकार अमेरिका में पाया जाने वाला ओपोसम जीव भी शीघ्र प्रजननशील है वह बिल्ली की तरह का जीव है। इसके पेट में थैली होती है जिसमें वह अपने बच्चों को रखती है पर वह काओला और कंगारूओं से भिन्न जाति का जीव है। लम्बे परिवार की दुर्गति देखनी हो तो इस ‘‘ओपोसम’’ के पास रहकर कुछ समय बिताना चाहिये। यदि ओपोसम की जीवन पद्धति देखलें तो पता चल जायेगा कि संसार में शासन और प्रभाव उन लोगों का रहता है जो शक्तिशाली और बलवान होते हैं भले ही उनकी संख्या न्यूनतम क्यों न हो। इसके विपरीत जनसंख्या की वृद्धि एक भार है जो कि परिवार, समाज, राष्ट्र और जातियों की गरिमा को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। ओपोसम एक साथ ग्यारह-बारह बच्चे देती है। अंगूठे-अंगूठे भर के कमजोर बच्चों को थैली में शरण मिलती है। ‘‘कमजोरों को सौ फजीते’’ वाली कहावत—बेचारे बाहर निकलें तो चील, कौवे, बाज चाहे जिसके शिकार बनें। निर्बलता के शिकार बच्चे थोड़ा बड़े भी हो जाते हैं तो भी बेचारी मादा से ही चिपके रहते हैं। कामुक नर तो कहीं अन्यत्र उच्छृंखलता बरत रहा होता है। मादा की पीठ में नहीं समाते तो कोई पूंछ में लटका रहता है, कोई गर्दन में सबके सब अपने दांतों से मां के बाल पकड़े रहते हैं। मां भी सोचती है क्या मुसीबत पाली—बच्चे हुए या आफत। सारे जिस्म को नोंचते रहते हैं। बड़े हो जाते हैं तो भी पिण्ड नहीं छोड़ते और इसी बीच 11-12 बच्चों की एक नई टोली पेट में से आ जाती है। यह भी थैली में घुसने लगते हैं सो जैसे तमाम भाइयों में जमीन, जायदाद के बंटवारों में झगड़ा होता है ऐसे ही यह भाई भी आपस में लड़ने लगते हैं ओपोसम खीझ जाती है तब पहले वालों को पकड़-पकड़कर भगा देती है पर तब तक दूसरी टोली तंग करने लगती है। बेचारी का जीवन इसी संकट में बीत जाता है और वह थोड़े ही दिन में मर जाती है। मनुष्यों के परिवारों में भी अधिक सन्तान के यही परिणाम होते हैं। परिवार ही क्यों मनुष्य समाज के लिए भी यह स्थिति खतरे की घंटी है। जनसंख्या विस्फोट के अगले दिनों क्या दुष्परिणाम होंगे, समय रहते यदि नहीं चेता गया तो प्रकृति अपना निर्मम प्रहार किस रूप में करेगी कहा नहीं जा सकता। उपरोक्त उदाहरण में से इन संभावनाओं के अनुमान तो लगाये ही जा सकते हैं जो जनसंख्या विस्फोट के कारण उत्पन्न होगी।