Books - भगवान को मत बहकाइए
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भगवान को मत बहकाइए
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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्!
भगवान को हमने गढा है
देवियों, भाइयों! मित्रो! भगवान इसान नहीं है, फिर आप समझ लीजिए। भगवन एक शक्ति का नाम है। इस शक्ति को हमने अपनी जरूरत के मुताबिक़ अपने ध्यान की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए व्यक्ति के रूप में गढ़ लिया है। अगर मेढ़क भगवान को बनाएगा तो मेढ़क के तरीके से बनाएगा और मेंढक भगवान के भक्त होगे। आपको मालूम है कि नहीं, अगर कभी भगवान ने मेंढ़कों की बिरादरी में जन्म लिया होता तो वे मेंढक की शक्ल बनाएँगे। अगर कहीं हिरनों की दुनिया हुई और हिरनों ने भक्ति वह सिद्धांत सीख लिया तो आप यकीन रखिए कि भगवान हिरन के रूप में आएँगे, इनसान के रूप में नहीं आएँगे। अगर मच्छरों की दुनिया कहीं हुई और मच्छरों की दुनिया में भगवान की भक्ति का विस्तार कहीं फैल गया तब? भगवान क्या इनसान के रूप में आएँगे? नहीं, इनसान रूप में नहीं, मच्छर के रूप में आएँगे, क्योंकि यह जीव, यह प्राणी जिस स्तर का है, उसी स्तर का भगवान गढ़ लेता है। गढ़ लेता है? अरे बाबा! सुनता है कि नहीं, गढ़ लेता है। हमने भगवान गढ़ा हुआ है। किसका गढ़ा हुआ है? अपने ध्यान की, धारणा की, भावना की परिपुष्टि के लिए हमने भगवान को गदा है। तो क्या भगवान की शक्ल नहीं है? नहीं, भगवान की शक्ल नहीं हो सकती।
साथियों! जिसकी कोई शक्ल नहीं हो सकती, उसको आप क्या चीज खिलाएँगे? अरे साहब! हम तो चंदन चढ़ाएँगे, अक्षत चढ़ाएँगे ......... ।। क्या चढ़ाएँगे और कहाँ चढ़ाएँगे? चंदन चढ़ाने से, अक्षत चढ़ाने से, चीज खिलाने से, उसकी प्रशंसा करने से क्या वह प्रसन्न हो जाएगा? बेटे! ये चीजें बच्चों को शोभा देती हैं। नहीं साहब! हम आपकी प्रशंसा करेंगे। प्रशंसा वाली बात से मुझे एक कहानी याद आ गईं-
गधा और ऊँट, दोनों के ब्याह हुए। दोनों एक- दूसरे के ब्याह में गए। ऊँट के ब्याह में गधा गया। उसने कहा- "अहोरुपम्" अर्थात रूप तो आपका ही है। आपके बराबर सुंदर रूप तो और किसी का है ही नहीं। किसके रूप की बात हो रही है? ऊँट के। आपकी शक्ल भगवान ने जैसी बनाई है, सो आप ही आप हैं। जब ऊँट गधे के ब्याह में गया तो उसने कहा- "अहो ध्वनिः!"अर्थात आपकी जैसी ध्वनि तो बस एक कोयल की है और एक आपकी। किसकी? गधे की। आपस की यह प्रशंसा किसकी है? आपकी। आप कहते हैं भगवान जी! आप ऐसे हैं और आप भगत जी, बहुत अच्छे हैं। भगत जी आप तो आप ही हैं। उनने कहा कि भगवान जी!आप तो आप ही हैं। प्रशंसा के सहारे पर, जीभ की नोक के सहारे पर, मंत्रों के सहारे पर, अक्षरों के उच्चारण के सहारे पर आप भगवान से सब कुछ पा लेना चाहते हैं।
कीमत चुकाएँ, योग व तप द्वारा
मित्रो! आपके लिए ये सहारा नहीं हैं। बेशकीमती चीजें पाने के लिए आदमी को उनकी कीमतें चुकानी चाहिए। भक्ति के चमत्कार कभी आपने सुने हैं? आपने भक्ति के चमत्कार देखे हैं? न तो आपने देखे हैं और न आपने सुने हैं। आपने तो सिर्फ कहानियाँ सुनी हैं। भक्ति के चमत्कार और भक्ति के सिद्धांत सुने हों तो आपको ध्यान रखना पड़ेगा कि भक्त के जीवन में भक्ति जीवन का अंग होती है। भक्ति पूजा तक सीमित नहीं रहती, वह जीवन का अंग होती है। भक्ति जीवन का अंग कैसे हो सकती है, कल मैं यह बता रहा था। व्यक्तित्व का संशोधन करने के लिए उसे दो काम करने पड़ते हैं। इसमें उसको चौबीसों घंटे अपने आप अपनी धुलाई और धुनाई करनी पड़ती है। अपनी गंदगी को दूर करने के लिए अपने ऊपर डंडा लेकर वह इस कदर हावी हो जाता है। अपनी अवांछनीयता और अनैतिकता को दूर करने के लिए आदमी को इतना जागरूक और इतना सतर्क, इतना सशक्त रहना पड़ता है। तपश्चर्या इसी का नाम है। भगवान को पाने के एक तरीके का नाम है तप और दूसरा है योग। तप किसे कहते हैं? जीवन के संशोधन का नाम है तप, जो कल मैं आपको बता चुका हूँ।
घुला देना अर्थात योग
साथियो! कल मैं क्या कर रहा था? तप की व्याख्या कर रहा था। आज आप क्या कर रहे हैं? आज में योग की व्याख्या कर रहा हूँ, क्योंकि भगवान को पाने के लिए सिर्फ दो ही तरीके हैं। तीसरा तरीका आज तक न हुआ है और न कभी हो सकता है। योग क्या होता है? बेटे! घुला देना, मिला देने का नाम योग है। जब हम किसी के साथ किसी को घुला देते हैं तो योग हो जाता है। जब स्त्री अपने आप को पति के साथ में घुला देती है तो पति की दौलत की स्वामिनी हो जाती है। मर्द के खानदान की स्वामिनी हो जाती है। जब वह अपने आप को घुला देती है तो पति की संपदा पर अधिकार जमा लेती है। बूँद अब अपने आप को समुद्र में घुला देती है तो समूचे सागर पर हावी हो जाती है। नाला अपने आप को नदी में घुला देता है तो नदी हो जाता है। जब आप भगवान में अपने आप को घुला देते हैं तो आप भगवान हो जाते हैं; देवता हो जाते हैं, ऋषि हो जाते हैं ; महापुरुष हो जाते हैं, सिद्धपुरुष हो जाते हैं; चमत्कारी हो जाते है ; शर्त यही है कि आप अपने आप को घुला दें। घुला देने का तरीका क्या है? योग है। योग किसे कहते हैं बेटे! घुला देने को योग कहते हैं। घुला देना किसे कहते हैं? घुला देना यह है कि आदमी अपनी हस्ती को भगवान के सुपुर्द कर देता है। सुपुर्द कर देने का मतलब वह नहीं है, जो आप बार- बार कहते रहते हैं। आपको एक दिन हमने यह कहते हुए सुना था- '' सौंप दिया सब भार, भगवान तुम्हारे हाथों में।" अरे जालिम! अपनी जीभ बंद कर। क्या कह रहा है? इसका क्या अर्थ है? यह भी तुझे मालूम है कि नहीं। नहीं महाराज जी! भगवान को क्या अर्थ मालूम जो हम कह देंगे, सोई समझ जाएगा। नहीं बेटे! भगवान बहुत अक्लमन्द आदमी का नाम है। जो आप जीभ से कहते हैं, उसको वह नहीं समझता। जो आप दिल से कहते हैं, जो आपका ईमान कहता है, वह उसे समझता है। आपकी जवान की कीमत क्या है? दो कौडी है।
सारे दिन झूठ
नेता जी वोट माँगने आते हैं, सारे दिन झूठ बोलते हैं। क्यो साहब! आप तो हमारी पार्टी को वोट देंगे? हाँ, आपकी पार्टी को देंगे। कौन सी पार्टी है आपकी? आपने तो पहले ही कह दिया था कि कांग्रेस को बोट देंगे। अरे साहब! ध्यान नहीं रहा। आप तो वो मालूम पड़ते हैं- जनसंघ वाले, पर तो तो खतम हो गया। तो अब कौन से है? जनता पार्टी वाले हैं। ठीक है तो हम भी जनता पार्टी से है? आप भी जनता और हम भी जनता। हाँ, ठीक बात है अब कौन से आ गए? किसको वोट देंगे? आपकी पार्टी को देंगे। आपकी पार्टी कौन सी है? जो भी आपकी पार्टी है, उसी को दे देंगे। नहीं साहब! आप बताइए तो सही कि आपकी कौन भी पार्टी है? भाई! हम तो हैं हलधर- किसान पाटी के। ठीक है, आप भी हल चलाते हैं, हम भी हल चलाते हैं। आपको ही वोट देंगे। इसके बाद कौन आ गए? गाय बच्चे वाले। अरे भाई! किसको वोट देंगे है जो आपकी पार्टी है, उसी को वोट देंगे। गाय का दूध हमारा बच्चा पीएगा और बैलों को हम खेत में चलाएँगे। आपकी और हमारी पार्टी एक है। हम आपको ही वोट देंगे। सारे दिन नेताओं की तरह से आप झूठ का इस्तेमाल करते रहते है
जीभ से भगवान को न बहकाएँ
मित्रो! इसी तरह आप भगवान के लिए भी झूठ का इस्तेमाल करते है और कहते हैं कि हे भगवान! हम आपकी शरण में आ गए हैं, आपके चरणों में आ गए हैं। अरे बेहूदे, बेकार की बातें मत बक, कोई सुन लेगा। भगवान को मत बहका कि हम आपकी शरण में आ गए हैं, हम आपके भक्त हैं, हम आपके सेवक हैं। अपनी जीभ को काबू में रख और यह जान ले कि हम क्या कर रहे हैं और क्या कह रहे हैं। इसका क्या अर्थ होता है, यह भी मालूम है तुझे? यह जो तू कह रहा है, इसको कार्यान्वित कैसे किया जाएगा, यह भी तुझे मालूम है? नहीं साहब! हमें क्या मालूम है। हमने को जीभ से कह दिया। एक पंडित जी ने बता दिया था कि यह- यह कहते रहना, सोई भगवान समझ जाएगा और हम जीभ से भगवान को बहका लेंगे। जीभ से भगवान को मत बहकाइये।
भक्तों का इतिहास
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको भगवान का प्यार पाने के लिए, भगवान का अनुग्रह पाने के लिए भगवान की सहायता माने के लिए, भगवान की कृपा पाने के लिए। आपको एक काम करना चाहिए और वह है- '' भगवान की इच्छा पूरी कीजिए है क्या इच्छा पूरी करें? लोकमंगल के लिए। लोकमंगल के लिए, लोकहित के लिए, जनकल्याण के लिए प्राचीनकाल के भक्तों का इतिहास देखिए कि प्रत्येक भक्त के जीवन में परमार्थपरायणता जुड़ी हुई है। आपको तो मालूम नहीं है। आप तो यह समझ बैठे है कि भक्त उसे कहते हैं, जो कोठरी में जा बैठता है। न जाने आपको किसने बहका दिया है। चलिए हम आपको भक्तों का इतिहास बताते हैं? विवेकानन्द का इतिहास देखिए। दो घंटे ध्यान करते और सारी जिंदगी उनने लोकमंगल में लगा दी। भगवान बुद्ध का इतिहास देखिए। सारी जिंदगी में उनने क्या क्या किया? शंकराचार्य के इतिहास को देखिए कि उनने जिंदगी भर क्या किया? ऋषियों में से प्रत्येक का इतिहास देखिए। नागार्जुन का इतिहास देखिए। चाणक्य का इतिहास सुनाइए, चरक का इतिहास सुनाइए। वाग्भट्ट का इतिहास, व्यास का इतिहास सुनाइए। ऋषियों में से हरेक का इतिहास सुनाइए। थोड़े समय तक वे राम नाम लेते रहे होंगे, यह तो मैं नहीं कहता कि उनने राम का नाम नहीं लिया और रामायण उनने नहीं पढ़ी। अपना संशोधन करने के लिए जरूर पढ़ी होगी, लेकिन बाकी समय में भगवान का काम किया है। लोकहित के काम किए हैं, परमार्थ के काम किए हैं, जनकल्याण के काम किए है। आपके सामने तो जहाँ जनकल्याण के काम आते हैं, परमार्थ के काम आते हैं, वहाँ आप अँगूठा दिखाते हैं और यह कहते हैं कि भक्ति हमारे भीतर आ गई।
भगवान दो रूपों में आते हैं
बेटे! भक्ति जब आती है तो करुणा लेकर आती है। जब वह करुणा लेकर आती है तो आदमी दूसरों की सहायता किए बिना, सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन में योगदान दिए बिना रह नहीं सकता। आदमी के भीतर जब करुणा आएगी तो वह बिखरती चली जाएगी। भगवान जब मनुष्य के अंतराल में आते हैं तो संग्रही, विलासी के रूप में नहीं आते। वासना के रूप में नहीं आते। कैसे आते हैं भगवान? अरे साहब! भगवान रात को आते हैं और सपने में आते हैं, वंशी बजाते आते हैं, घोड़े पर सवार होकर आते हैं, बैल पर सवार होकर आते हैं। बेकार की, पागलपन की बातें करना बंद कीजिए। भगवान इस तरह से नहीं आते, आप समझते क्यों नहीं। भगवान किसी के भीतर आते हैं तो दो तरीके से आते हैं- एक तो वे इस माने में आते हैं कि आदमी को आत्मसंशोधन के लिए मजबूर कर देते हैं। अपनी समीक्षा करने के लिए, अपने दोष और दुर्गुणों को देखने के लिए अपने आप को बेहतरीन बनाने के लिए, भगवान जब आते हैं तो बाध्य कर देते हैं और निरंतर यह कहते रहते है कि अपने आप को धो, अपने आप को साफ कर, अपने आप को उज्ज्वल बना, ताकि मैं तुझे गोदी में लेने में समर्थ हो सकूँ। चलिए, हम एक उदाहरण देकर आपको समझाते हैं। एक बच्चे ने कहा- "मम्मी! हमको गोदी में ले लीजिए।" मम्मी ने कहा- '' 'बेटे! जरा सा ठहरना पड़ेगा।" "क्यों ?" "तैने टट्टी कर ली है और देख तूने उसमें हाथ खराब कर लिया है और कपड़ा खराब कर लिया है।" "नहीं मम्मी! गोदी में ले लो।" "नहीं बेटे! जरा तुझे ठहरना ही पड़ेगा।" '' 'हमको कब तक ठहरना पड़ेगा मम्मी?" "जब तक कि आपके कपड़े नहीं धोए जाएँगे, जब तक कि आपका शरीर नहीं धोया जाएगा। जब तक धो नहीं लेंगे, तब तक हम गोदी में नहीं ले सकते।" "नहीं मम्मी! गोदी में उठा लीजिए। आप तो मम्मी हैं ।" "हाँ बेटे! मम्मी हैं, पर अभी गोदी में नहीं लेंगे।"
भजन- जीवन की एक पद्धति
बच्चे हमको प्राणों से भी अधिक प्यारे लगते हैं, पर आप गोदी में चढ़ने के हकदार उससे पहले नहीं हो सकते। कब तक? जब तक कि आपने अपने आप को धोया नहीं। आप क्यों नहीं समझते इस मोटी सी बात को? आपने इतनी मोटी बात को समझने से इनकार क्यों कर दिया? नहीं साहब! भगवान गोदी में ले लेगा। किस कीमत पर भगवान गोदी में ले लेगा, जरा बताना तो सही? भजन की कीमत पर ले लेगा। क्या होता है भजन? बकवास को भजन कहते हैं? अक्षरों के उच्चारण को भजन कहते हैं? अक्षरों के उच्चारण को भजन किसने कहा था? भजन में अक्षरों का उच्चारण भी शामिल है, लेकिन अक्षरों के उच्चारण तक भजन को हम सीमाबद्ध नहीं कर सकते। भजन जीवन की एक पद्धति है, आध्यात्मिक जीवन की एक शैली है, जीवनयापन करने का एक विधान है। इसमें दो बातें अनिवार्य रूप से जुड़ी हुईं हैं- , आदमी के व्यक्तिगत जीवन का संशोधन अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है और दूसरा लोकहित जुड़ा हुआ है। प्राचीनकाल के प्रत्येक ऋषि का उदाहरण आप सुन लीजिए। भगीरथ से लेकर भी आदमी आप बताइए, जिसने कि लोकहित के लिए, परमार्थ प्रयोजनों के लिए आपके तरीके से अँगूठा दिखा दिया हो। जहाँ उनने ये बहाने बनाए हो कि हमें परमार्थ के लिए टाइम नहीं है। परमार्थ के लिए हमें फुरसत नहीं है। हम व्यस्त रहते हैं, हमको आर्थिक तंगी है, हमारा दिमाग खाली नहीं है। हमारा मन नहीं लगा। आप हमेशा निन्यानवे बहाने बनाते रहते हैं। जहाँ भगवान को अपेक्षा है, जहाँ भगवान आपसे माँगता है, वहाँ आप अँगूठा दिखाते रहते हैं। भक्त ऐसे होते हैं? नहीं, भक्त ऐसे नहीं होते।
बगदाद की जमीला
मित्रों! भक्त वजनदार होते हैं, भारी- भरकम होते हैं। भक्त दयालु होते हैं और भगवान की दुनिया का ख्याल रखते हैं। किस तरह का ध्यान रखते हैं? बेटे! इस संदर्भ में मैं आपको द्रौपदी के तरीके से एक और घटना सुनाना चाहता हूँ। घटना बगदाद की है। एक बार बगदाद की जमीला ने अपनी सारी जिंदगी भर की कमाई के पैसे जमा करके रखे थे कि हम भी काबा जाएँगे। मुसलमानों के धर्म में यह बात लिखी हुई है कि आदमी को कोशिश करनी चाहिए कि एक बार वह हज करने के लिए काबा जरूर जाए। जमीला ने कुरान में पढ़ रखा था, इसलिए उसने अपने पैसे बचाकर रखे थे कि जब कभी मौका आएगा तो मैं भी वहाँ जाऊँगी और एक बार हज करूँगी। पैसे थे, तैयारी भी हो गई थी, लेकिन उस साल क्या हो गया? उस साल सब जगह बड़े जोर का अकाल पड़ गया। मनुष्य भूखे मरने लगे, बच्चे भूखे मरने लगे। पैसे- पैसे के लिए त्राहि त्राहि होने लगी। सब तड़पने लगे। दवा का कहीं इंतजाम नहीं, बच्चों के लिए दूध का कहीं इंतजाम नहीं रहा। काबा- हज जाने के लिए जमीला ने जो पैसा बचा रखा था, वह सब उस काम में लगा दिया। उसने वहा कि इन बच्चों को जिंदा रहना चाहिए। बच्ची की जिंदगी की हिफाजत करने के लिए हमारा पैसा खरच कर दिया जाना चाहिए। उनने वह सारा का सारा पैसा, जो हजयात्रा के लिए बचाकर रखा था, खरच कर डाला। लोगों ने पूछा- "' अब आप हजयात्रा पर कैसे जाएँगी ?" उसने कहा- '' अब हम कैसे जा सकते है? हज के लिए किराया फिर कहाँ से लाएँगे? अब हमारे लिए हज जाना मुश्किल है।" यह कौन कह रहा है? बगदाद की जमीला कह रहीं है।
हज कबूल हुआ
खुदाबंद करीम के यहीं मीटिंग बैठी। हर साल खुदाबन्द करीम काबा जाने वालों में से कुछ आदमियों की हजयात्रा कबूल करते थे। बाकी की ना कबूल कर देते थे। जितने लोग हज करने जाते थे, सबकी यात्रा कबूल नहीं होती थी। आप भी ध्यान रखना। भगवान आप में से हरेक की तीर्थयात्रा कबूल नहीं करता। आपने कर दी, आपकी मरजी। आपने अर्जी लगा दी, अब कबूल करना, न करना उसकी मरजी है कि किसकी कबूल होगी और किसकी नहीं होगी? कबूल होना अलग बात है और करना बात अलग है। दोनों बातें एक नहीं हो सकतीं। आपने कर दी और यह कबूल हो जाएगी, ऐसा नहीं हो सकता। अर्जी कितनी जाती हैं? उनमें से सलेक्शन किस- किस का होता है? हर एक का सलेक्शन नहीं हो सकता इसलिए क्या हुआ? खुदाबंद करीम के यहाँ जब मीटिंग जैसी तो उसमें यह पता लगाया गया कि इस बार किस- किस की यात्रा कबूल हुई? फरिश्ते बैठे हुए थे। उनने बताया कि खुदाबंद करीम ने आज की मीटिंग में इस साल में केवल एक आदमी की हजयात्रा कबूल की और बाकी की ना कबूल कर दी। किसकी कबूल की? उसका नाम था जमीला।
इस पर बाकी फरिश्तों ने आपत्ति की, जिब्रायल कहने लगा- "हुजूर। जमीला को हमने नहीं देखा। हम तो काबा के दरवाजे पर चौकीदारी करते थे और हमारे पास सारे के सारे लोगों के नाम नोट हैं, लेकिन जमीला का तो कहीं नाम भी नहीं है। आपने जमीला की हजयात्रा कैसे कबूल कर ली, वह तो गई भी नहीं।" खुदाबंद करीम ने कहा- "हमारी निगाह में जो हज है, वह ईमान के द्वारा होना चाहिए, पैरों के द्वारा नहीं। पैरों के द्वारा तो पोस्टमैन भी घूमते रहते हैं। पैरों के द्वारा दूसरे लोग भी घूम सकते हैं। ग्वाले भरि दिन घूमते रहते हैं। भिखारी भी घूमते रहते हैं। घूमने से क्या हो सकता है? घूमने से कुछ नहीं होता। हमने कबूल कर लिया।" किसका हज कबूल का लिया? जमीला का।
आत्मशोधन का महत्त्व समझें
साथियो! मैं क्या कह रहा था? यह कह रहा था कि अगर आप अपने जीवन में भजन का मूल्य समझते हो, भगवान का मूल्य समझते हों और यह समझते हों कि इसका हमारे जीवन से ताल्लुक है और भजन को हमारे जीवन में प्रवेश करना चाहिए तो फिर मैं आपसे बार- बार यह प्रार्थना करूँगा कि जीवन का चौथा वाला चरण, जो प्रत्यक्षतः भगवान से संबंध रखता है, उसका सदुपयोग कीजिए। उससे कम कीमत पर भगवान प्रसन्न नहीं होते और भगवान को इससे ज्यादा कीमत चुकाने की किसी से अपेक्षा नहीं है। आप ज्यादा कीमत क्यों चुकाएँगे? आपने तो एक गलती कर डाली है। आपने भजन का एक हिस्सा पकड़ लिया है। ईश्वरप्राप्ति के एक हिस्से में वह भी एक हिस्सा है। आपने सबसे सरल वाला वह प्वाइंट पकड़ लिया है, जिसमें 'हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए।' आपने रंग चोखा वाला भजन पकड़ लिया है। भजन के अलावा और कुछ नहीं है क्या? जीवन का संशोधन और आत्मसंशोधन कुछ नहीं है क्या? अपने आप का सुधार कुछ नहीं है क्या? स्वाध्याय की, संयम की क्या जरूरत हो सकती है? अरे साहब! बड़ी मुश्किल आ जाएगी। हम अपने मन के ऊपर, विचारों के ऊपर कैसे नियंत्रण कर पाएँगे, कैसे संयम कर पाएँगे? यह तो बहुत कठिन है। तो क्या करेंगे? बस, वही सबसे सरल वाला हिस्सा पकड़ लिया है। यह भूल गए कि उपासना चार चरणों वाली होती है। उपासना का संवर्द्धन करने के लिए उपासना को परिपक्व करने के लिए, उपासना को मजबूत बनाने के लिए, उपासना को सामर्थ्यवान, सिद्ध और चमत्कारी बनाने के लिए इन चार चीजों की जरूरत होती है। यह मैं कल आपको बता चुका हूँ। अब मैं आपकी समझदारी के लिए क्या कहूँ?
आप भी उस जाट की तरह हैं
मित्रो! आपकी समझदारी तो मुझे ऐसी मालूम पड़ती है कि जैसे राजस्थान का एक जाट था। उसकी समझदारी जैसी है आपकी समझदारी। क्या समझदारी थी उसकी? राजस्थान का एक जाट मेले में गया। वहाँ बहुत तेज धूप पड़ रही थी। राजस्थान में धूप बहुत पड़ती है। कहीं कोई छाया भी नहीं थी, कहीं पेड़ भी नहीं थे। रेगिस्तान था, जहाँ मेला लग रहा था। उसने आवाज लगाई और लोगों से कहा कि हमारे पास एक खाट बिकाऊ है। खाट माने चारपाई। लोगों ने सोचा कि गरम रेत में, जहाँ पैर जलते हैं, यदि चारपाई मिल जाए तो रात को उस पर सो जाएँगे और दिन में उसको खड़ा करके उसकी छाया में बैठे रहेंगे। जाट ने आवाज लगानी शुरू कर दी कि हमारे पास चारपाई बिकाऊ है। लोगों ने कहा कि कहाँ है? चारपाई और उसका कितना दाम है? दाम भी बहुत कम बता दिया। कह दिया कि दो रुपए की चारपाई है। दो रुपए की चारपाई है, दो रुपए की चारपाई है तो हम फौरन ले लेंगे। वह चिल्लाता रहा कि चारपाई बिकाऊ है ........... लोगों ने कहा कि दीजिए न हमको। दो रुपए हम आपको दे रहे हैं लीजिए दो रुपए। अच्छा तो आप ऐसा कीजिए कि जो जो खरीददार हैं, वहाँ उस पेड़ के पास चलिए, वहीं पर हम आपको चारपाई देंगे। उसमें जो कमी है, वह आप देख लेना, फिर चारपाई खरीद लेना। बहुत सारे लोग आ गए। अच्छा, आप सब बैठ जाइए। अब हम चारपाई के गुण दोष बताते हैं, फिर आप लेना। दो रुपए में कहीं चारपाई नहीं मिलती। इसमें कुछ कमी है, इसलिए सस्ते में दे रहे हैं। पहले आप सुन लीजिए, फिर लेना हो तो लेना, नहीं तो मत लेना। शांतिपूर्वक सब बैठ गए। उसने कहा कि चारपाई में थोड़ी कमी है, तीन पाये नहीं हैं। इसमें दो पाटी नहीं हैं। दो सेरे नहीं है। और कुछ कमी है? हाँ, थोड़ी कमी और रह गई है इसमें। बीच का झाबड़- झोल नहीं है। (बीच में जो रस्सी बुनी जाती है, उसे देहात में झाबड़ झोल कहते हैं)। दो सेरे नहीं हैं, तीन पाये नहीं हैं, दो पाटी नहीं हैं, बीच का झाबड़- झोल नहीं है, फिर क्या है इसमें? उसने थैले में से एक पाया निकाल कर दिखा दिया और कहा कि इसे ले जाइए। लोगों ने कहा कि- धत् तेरे की, इसका हम क्या करेंगे?
आप केवल माला का आसरा लिए बैठे हैं
मित्रो! यह किसकी कहानी है? आपकी कहानी है। आप कौन हैं? आप तो बेअकल जाट हैं, जो एक पाए की चारपाई लिए फिरते हैं। चारपाई माने माला। केवल माला लिए बैठे हैं। आप लोगों की जिंदगी का अधिकांश भाग माला के सुपुर्द हो गया। बेटे! माला के ऊपर मैं निछावर हूँ, माला जपते- जाते मेरी उँगलियाँ घिस गई। अभी भी इस बुढ़ापे में चार घंटे बैठ जाते है। एक बजे रात्रि में अपनी माला लेकर चुपके से बैठे जाते हैं और चार बजे तक, जब आपको अपनी सबसे प्यारी चीज नींद पसंद आती है, हमको नींद से भी बेहतर माला लगती है। माला को हम छाती से लगाते हैं। माला की हम इज्जत करते हैं। माला हमारे रोम- रोम में बसी है। हम माला को गाली देंगे? हम कोई नास्तिक हैं? हम कम्युनिस्ट हैं? हम कौन हैं?
माला के साथ सेवा
हम तो आपको इस बात का एहसास करा देना चाहते हैं कि माला चाहे जैसी चमत्कारी क्यों न हो यह उस वक्त तक किसी का काम नहीं करेगी और न ही आज तक किसी का काम किया है, जब तक कि आप उसमें दूसरी चीजों की सहायता पैदा न कर दे। माला के साथ−साथ आपके जीवन में सेवा के लिए भी स्थान रहना चाहिए। आपको अपने समय का एक हिस्सा भगवान के लिए भी लगाना चाहिए। आप अपने समय का एक हिस्सा अपने लिए लगाएँ, घर वालों के लिए लगाएँ। सात घंटे सोया करें। आठ घंटे रोटी कमा करके अपने बाल- बच्चों का पेट भरा करें। सात और आठ घंटे मिलाकर पंद्रह घंटे हो गए। पाँच घंटे आप निजी कामों के लिए रखें अर्थात नहाने- धोने, खाने- पीने आदि के लिए फिर भी आप चौबीस घंटों में चार घंटे भगवान के लिए लगा सकते हैं।
सेवा की आवश्यकता और स्वरूप
जनसाधारण की गतिविधियाँ और क्रिया- कलाप केवल अपने तक ही सीमित रहते हैं। सामान्य व्यक्ति अपना सुख और हित देखना ही पर्याप्त समझता है। वह सोचता है कि अपने लिए पर्याप्त साधन सुविधाएँ जुट जाएँ, अपने लिए सुखदायक परिस्थितियाँ हो, इतना ही काकी है। शेष सब चाहे जिस स्थिति में पड़े रहें। स्वार्थपरता इसी का नाम है। स्व के संकुचित दायरे में पड़े व्यक्तियों की रीति- नीति इसी स्तर की होती है। जब उसकी परिधि विस्तृत होती चलती है, व्यक्ति अपनेपन का विकास करता है तो उसमें दूसरों के लिए भी कुछ करने की उमंग उठने लगती है और व्यक्ति सेवा मार्ग पर अग्रसर होने लगता है।
जीवन साधना से आत्मिक चेतना का विकास जैसे- जैसे होने लगता है सेवा की टीस उसी स्तर की उठने लगती है और व्यक्ति स्वयं की ही नहीं सबकी सुख- सुविधाओं और हित- अहित की चिंता करने लगता है, उसका ध्यान रखने लगता है। परमार्थ साधन में लगे व्यक्तियों को उससे भी उत्कृष्ट आनंद और आत्मसंतोष अनुभव होता है जो स्वार्थ पूर्ति में ही लगे व्यक्तियों को प्राप्त होता है।
पुण्य- परमार्थ, लोकमंगल, जनकल्याण, समाजहित आदि सेवा- साधना के ही पर्यायवाची नाम हैं और इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है। जिन व्यक्तियों ने भी इस पद्धति से जीवन सार्थकता की साधना की, मनुष्य और समाज का स्तर ऊँचा उठाने के लिए योगदान दिया, सामाजिक सुख- शांति में बाधक तत्त्वों का उन्मूलन करने के लिए प्रयत्न किए, समाज ने उन्हें सर आँखों पर उठा लिया। महापुरुषों के रूप में आज हम उन्हीं नर- रत्नों का स्मरण और वंदन करते हैं।
मानवी सभ्यता और संस्कृति के विकास में सबसे बड़ी बाधा है व्यक्ति और समाज को त्रस्त करने वाली समस्याएँ। आज जिधर भी देखा जाए उधर अभाव, असंतोष, चिंता, क्लेश व कलह का ही बाहुल्य दिखाई देता है। यों पिछले सौ- पचास वर्षों में वैज्ञानिक प्रगति इतनी तीव्र गति से हुई है कि उनसे कुछ पहले उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। जीवन को सहज और सुविधामय बनाने के लिए विज्ञान ने एक से बढ़कर एक उपाय किए हैं और वे सफल भी रहे हैं परंतु उनसे न व्यक्ति सुखी हुआ है न समाज में शांति आई है सुविधा बताने और पीड़ाओं को दूर करने के लिए अनेकानेक प्रयास किए गए हैं पर उनसे समस्याएँ कम होने के स्थान पर बही ही हैं। पहले कहीं सूखा और अकाल पड़ता था तो सौ- दो सौ मील दूर पर रहने वालों को भी उसकी खबर नहीं चलती थी। फलस्वरूप जरा सी अधिक बारिश होने पर फसलें बिगड़ जाने से एक क्षेत्र के लोग भूखों मर जाते तो दूसरे क्षेत्रों में अन्न की प्रचुरता रहती। आज दुनिया के किसी भी कोने में अकाल पड़ता है तो यातायात के साधन इतने बद गए हैं कि दूसरे कोने से तुरत सहायता पहुँचाई जा सकती है। एक दूसरे के 'सुख- दुःख में सहायता करने की ऐसी व्यवस्था बन जाने पर भी लोग समस्याग्रस्त और संकटग्रस्त देखे जा सकते हैं। यदि कहा जाए कि समस्याएँ पाले की अपेक्षा कहीं ज्यादा बढ़ गई हैं तो अत्युक्ति न होगी।
आज से हजारों वर्ष पहले का मनुष्य जिनके बारे में कल्पना भी नहीं कर सकता था, वे सुविधाएँ और साधन उपलब्ध होने पर भी लोग अपने आप को पूर्वापेक्षा अधिक अभावग्रस्त, रुग्ण, चिंतित, एकाकी, असहाय और समस्याओं से घिरा हुआ अनुभव करते हैं। भौतिक प्रगति के बढ़ जाने पर, साधन संपन्नता पहले की अपेक्षा अधिक होने पर तो यह होना चाहिए था कि हम सुखी और संतुष्ट रहते, लेकिन गहन आत्मनिरीक्षण करने पर इस अवधि में हम अपने को पहले से अधिक गिरा, पिछड़ा और बिगड़ा पाते हैं। शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, पारिवारिक सौजन्य, सामाजिक सद्भाव, आर्थिक संतोष और आंतरिक उल्लास के सभी क्षेत्रों में हमारा स्तर गिरा है। इस दृष्टि से आज की सुविधा संपन्नता और पूर्वकाल की सुविधा परिस्थितियों की तुलना की जाए तो भी यही लगता है कि उस असुविधा भरे समय के निवासी आज के हम लोगों की तुलना में असंख्य गुने सुखी और संतुष्ट थे। तब की और अब की परिस्थितियों में साधन- सुविधा की दृष्टि से भले हो विकास हुआ हो, परंतु सुख- शांति की दृष्टि से हमारा पतन ही हुआ है।
लोकसेवियों को इस पतन का निराकरण करने के लिए प्रस्तुत होना चाहिए तथा समस्याओं की जड़ खोजकर उन्हें खोदने में अपनी सेवा- साधना आरंभ करनी चाहिए। परिस्थितियों के कारण यह दीन- हीन दुर्दशा नहीं हुई है। परिस्थितियाँ तो पहले की अपेक्षा अब कहीं बहुत अधिक वस्तुतः इस पतन के लिए हमारे आंतरिक स्तर की विकृति ही उत्तरदायी है। व्यक्ति और समाज में इन दिनों जो दुःख दारिद्रय की काली घटाएँ घुमड़ रही हैं, उसका कारण भावना स्तर में अवांछनीय विकृतियों का आ जाना ही है। इसका समाधान करना हो, आसन्न पतन का यदि निराकरण करना को तो अमुक समस्या के अमुक समाधान से काम नहीं चलेगा, वरन सुधार की प्रक्रिया वहीं से आरंभ करनी होगी जहाँ से कि ये विभीषिकाएँ उत्पन्न होती हैं।
इस स्तर की सेवा प्रत्येक व्यक्ति नहीं कर सकता और न इस तथ्य को ही समझ पता है। फिर भी सेवा को उमंग तो हो, उसे अन्य रूपों में भी किया जा सकता है। विभिन्न तरह से सेवा साधना की जाती है और की जानी चाहिए। मोटे रूप में इन सेवाओं की (( १ )) जनजीवन की जटिलताएँ सुलझाने, सुविधाएँ बढ़ाने तथा (२) पीड़ा का निवारण करने के रूप में विभाजित किया जा सकता है। जो लोग जनजीवन की जटिलताओं और उत्पीड़न का कारण मानवीय स्तर में आई विकृतियों या पतन को मानते हैं। वे इस महत्त्वपूर्ण कार्य में लगे हैं, पर जिन्हें यह तथ्य ठीक से समझ नहीं आता और जो असुविधा तथा पीड़ा को ही मनुष्य व समाज की मुख्य समस्या समझते हैं, वे उस स्तर की सेवा में लगते हैं। वह सेवा भी प्रशंसनीय और सराहनीय है।
आज की बात समाप्त।
।। ॐ शांति: ।।
चिंतन बिंदु
योजना बनाते रहने का समय बीत गया, अब तो करना ही करना शेष है।
जिसका प्रत्येक कर्म भगवान को, आदर्शों को समर्पित होता है, वही सबसे बड़ा योगी है।
असहायों की ओर से जब हम मुँह मोड़कर चलते हैं, तो ईश्वर की पुकार का निरादर करते हुए चलते हैं।
उच्च उद्देश्यों से जुड़े हुए कर्तव्यपालन का ही दूसरा नाम कर्मयोग है।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्!
भगवान को हमने गढा है
देवियों, भाइयों! मित्रो! भगवान इसान नहीं है, फिर आप समझ लीजिए। भगवन एक शक्ति का नाम है। इस शक्ति को हमने अपनी जरूरत के मुताबिक़ अपने ध्यान की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए व्यक्ति के रूप में गढ़ लिया है। अगर मेढ़क भगवान को बनाएगा तो मेढ़क के तरीके से बनाएगा और मेंढक भगवान के भक्त होगे। आपको मालूम है कि नहीं, अगर कभी भगवान ने मेंढ़कों की बिरादरी में जन्म लिया होता तो वे मेंढक की शक्ल बनाएँगे। अगर कहीं हिरनों की दुनिया हुई और हिरनों ने भक्ति वह सिद्धांत सीख लिया तो आप यकीन रखिए कि भगवान हिरन के रूप में आएँगे, इनसान के रूप में नहीं आएँगे। अगर मच्छरों की दुनिया कहीं हुई और मच्छरों की दुनिया में भगवान की भक्ति का विस्तार कहीं फैल गया तब? भगवान क्या इनसान के रूप में आएँगे? नहीं, इनसान रूप में नहीं, मच्छर के रूप में आएँगे, क्योंकि यह जीव, यह प्राणी जिस स्तर का है, उसी स्तर का भगवान गढ़ लेता है। गढ़ लेता है? अरे बाबा! सुनता है कि नहीं, गढ़ लेता है। हमने भगवान गढ़ा हुआ है। किसका गढ़ा हुआ है? अपने ध्यान की, धारणा की, भावना की परिपुष्टि के लिए हमने भगवान को गदा है। तो क्या भगवान की शक्ल नहीं है? नहीं, भगवान की शक्ल नहीं हो सकती।
साथियों! जिसकी कोई शक्ल नहीं हो सकती, उसको आप क्या चीज खिलाएँगे? अरे साहब! हम तो चंदन चढ़ाएँगे, अक्षत चढ़ाएँगे ......... ।। क्या चढ़ाएँगे और कहाँ चढ़ाएँगे? चंदन चढ़ाने से, अक्षत चढ़ाने से, चीज खिलाने से, उसकी प्रशंसा करने से क्या वह प्रसन्न हो जाएगा? बेटे! ये चीजें बच्चों को शोभा देती हैं। नहीं साहब! हम आपकी प्रशंसा करेंगे। प्रशंसा वाली बात से मुझे एक कहानी याद आ गईं-
गधा और ऊँट, दोनों के ब्याह हुए। दोनों एक- दूसरे के ब्याह में गए। ऊँट के ब्याह में गधा गया। उसने कहा- "अहोरुपम्" अर्थात रूप तो आपका ही है। आपके बराबर सुंदर रूप तो और किसी का है ही नहीं। किसके रूप की बात हो रही है? ऊँट के। आपकी शक्ल भगवान ने जैसी बनाई है, सो आप ही आप हैं। जब ऊँट गधे के ब्याह में गया तो उसने कहा- "अहो ध्वनिः!"अर्थात आपकी जैसी ध्वनि तो बस एक कोयल की है और एक आपकी। किसकी? गधे की। आपस की यह प्रशंसा किसकी है? आपकी। आप कहते हैं भगवान जी! आप ऐसे हैं और आप भगत जी, बहुत अच्छे हैं। भगत जी आप तो आप ही हैं। उनने कहा कि भगवान जी!आप तो आप ही हैं। प्रशंसा के सहारे पर, जीभ की नोक के सहारे पर, मंत्रों के सहारे पर, अक्षरों के उच्चारण के सहारे पर आप भगवान से सब कुछ पा लेना चाहते हैं।
कीमत चुकाएँ, योग व तप द्वारा
मित्रो! आपके लिए ये सहारा नहीं हैं। बेशकीमती चीजें पाने के लिए आदमी को उनकी कीमतें चुकानी चाहिए। भक्ति के चमत्कार कभी आपने सुने हैं? आपने भक्ति के चमत्कार देखे हैं? न तो आपने देखे हैं और न आपने सुने हैं। आपने तो सिर्फ कहानियाँ सुनी हैं। भक्ति के चमत्कार और भक्ति के सिद्धांत सुने हों तो आपको ध्यान रखना पड़ेगा कि भक्त के जीवन में भक्ति जीवन का अंग होती है। भक्ति पूजा तक सीमित नहीं रहती, वह जीवन का अंग होती है। भक्ति जीवन का अंग कैसे हो सकती है, कल मैं यह बता रहा था। व्यक्तित्व का संशोधन करने के लिए उसे दो काम करने पड़ते हैं। इसमें उसको चौबीसों घंटे अपने आप अपनी धुलाई और धुनाई करनी पड़ती है। अपनी गंदगी को दूर करने के लिए अपने ऊपर डंडा लेकर वह इस कदर हावी हो जाता है। अपनी अवांछनीयता और अनैतिकता को दूर करने के लिए आदमी को इतना जागरूक और इतना सतर्क, इतना सशक्त रहना पड़ता है। तपश्चर्या इसी का नाम है। भगवान को पाने के एक तरीके का नाम है तप और दूसरा है योग। तप किसे कहते हैं? जीवन के संशोधन का नाम है तप, जो कल मैं आपको बता चुका हूँ।
घुला देना अर्थात योग
साथियो! कल मैं क्या कर रहा था? तप की व्याख्या कर रहा था। आज आप क्या कर रहे हैं? आज में योग की व्याख्या कर रहा हूँ, क्योंकि भगवान को पाने के लिए सिर्फ दो ही तरीके हैं। तीसरा तरीका आज तक न हुआ है और न कभी हो सकता है। योग क्या होता है? बेटे! घुला देना, मिला देने का नाम योग है। जब हम किसी के साथ किसी को घुला देते हैं तो योग हो जाता है। जब स्त्री अपने आप को पति के साथ में घुला देती है तो पति की दौलत की स्वामिनी हो जाती है। मर्द के खानदान की स्वामिनी हो जाती है। जब वह अपने आप को घुला देती है तो पति की संपदा पर अधिकार जमा लेती है। बूँद अब अपने आप को समुद्र में घुला देती है तो समूचे सागर पर हावी हो जाती है। नाला अपने आप को नदी में घुला देता है तो नदी हो जाता है। जब आप भगवान में अपने आप को घुला देते हैं तो आप भगवान हो जाते हैं; देवता हो जाते हैं, ऋषि हो जाते हैं ; महापुरुष हो जाते हैं, सिद्धपुरुष हो जाते हैं; चमत्कारी हो जाते है ; शर्त यही है कि आप अपने आप को घुला दें। घुला देने का तरीका क्या है? योग है। योग किसे कहते हैं बेटे! घुला देने को योग कहते हैं। घुला देना किसे कहते हैं? घुला देना यह है कि आदमी अपनी हस्ती को भगवान के सुपुर्द कर देता है। सुपुर्द कर देने का मतलब वह नहीं है, जो आप बार- बार कहते रहते हैं। आपको एक दिन हमने यह कहते हुए सुना था- '' सौंप दिया सब भार, भगवान तुम्हारे हाथों में।" अरे जालिम! अपनी जीभ बंद कर। क्या कह रहा है? इसका क्या अर्थ है? यह भी तुझे मालूम है कि नहीं। नहीं महाराज जी! भगवान को क्या अर्थ मालूम जो हम कह देंगे, सोई समझ जाएगा। नहीं बेटे! भगवान बहुत अक्लमन्द आदमी का नाम है। जो आप जीभ से कहते हैं, उसको वह नहीं समझता। जो आप दिल से कहते हैं, जो आपका ईमान कहता है, वह उसे समझता है। आपकी जवान की कीमत क्या है? दो कौडी है।
सारे दिन झूठ
नेता जी वोट माँगने आते हैं, सारे दिन झूठ बोलते हैं। क्यो साहब! आप तो हमारी पार्टी को वोट देंगे? हाँ, आपकी पार्टी को देंगे। कौन सी पार्टी है आपकी? आपने तो पहले ही कह दिया था कि कांग्रेस को बोट देंगे। अरे साहब! ध्यान नहीं रहा। आप तो वो मालूम पड़ते हैं- जनसंघ वाले, पर तो तो खतम हो गया। तो अब कौन से है? जनता पार्टी वाले हैं। ठीक है तो हम भी जनता पार्टी से है? आप भी जनता और हम भी जनता। हाँ, ठीक बात है अब कौन से आ गए? किसको वोट देंगे? आपकी पार्टी को देंगे। आपकी पार्टी कौन सी है? जो भी आपकी पार्टी है, उसी को दे देंगे। नहीं साहब! आप बताइए तो सही कि आपकी कौन भी पार्टी है? भाई! हम तो हैं हलधर- किसान पाटी के। ठीक है, आप भी हल चलाते हैं, हम भी हल चलाते हैं। आपको ही वोट देंगे। इसके बाद कौन आ गए? गाय बच्चे वाले। अरे भाई! किसको वोट देंगे है जो आपकी पार्टी है, उसी को वोट देंगे। गाय का दूध हमारा बच्चा पीएगा और बैलों को हम खेत में चलाएँगे। आपकी और हमारी पार्टी एक है। हम आपको ही वोट देंगे। सारे दिन नेताओं की तरह से आप झूठ का इस्तेमाल करते रहते है
जीभ से भगवान को न बहकाएँ
मित्रो! इसी तरह आप भगवान के लिए भी झूठ का इस्तेमाल करते है और कहते हैं कि हे भगवान! हम आपकी शरण में आ गए हैं, आपके चरणों में आ गए हैं। अरे बेहूदे, बेकार की बातें मत बक, कोई सुन लेगा। भगवान को मत बहका कि हम आपकी शरण में आ गए हैं, हम आपके भक्त हैं, हम आपके सेवक हैं। अपनी जीभ को काबू में रख और यह जान ले कि हम क्या कर रहे हैं और क्या कह रहे हैं। इसका क्या अर्थ होता है, यह भी मालूम है तुझे? यह जो तू कह रहा है, इसको कार्यान्वित कैसे किया जाएगा, यह भी तुझे मालूम है? नहीं साहब! हमें क्या मालूम है। हमने को जीभ से कह दिया। एक पंडित जी ने बता दिया था कि यह- यह कहते रहना, सोई भगवान समझ जाएगा और हम जीभ से भगवान को बहका लेंगे। जीभ से भगवान को मत बहकाइये।
भक्तों का इतिहास
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको भगवान का प्यार पाने के लिए, भगवान का अनुग्रह पाने के लिए भगवान की सहायता माने के लिए, भगवान की कृपा पाने के लिए। आपको एक काम करना चाहिए और वह है- '' भगवान की इच्छा पूरी कीजिए है क्या इच्छा पूरी करें? लोकमंगल के लिए। लोकमंगल के लिए, लोकहित के लिए, जनकल्याण के लिए प्राचीनकाल के भक्तों का इतिहास देखिए कि प्रत्येक भक्त के जीवन में परमार्थपरायणता जुड़ी हुई है। आपको तो मालूम नहीं है। आप तो यह समझ बैठे है कि भक्त उसे कहते हैं, जो कोठरी में जा बैठता है। न जाने आपको किसने बहका दिया है। चलिए हम आपको भक्तों का इतिहास बताते हैं? विवेकानन्द का इतिहास देखिए। दो घंटे ध्यान करते और सारी जिंदगी उनने लोकमंगल में लगा दी। भगवान बुद्ध का इतिहास देखिए। सारी जिंदगी में उनने क्या क्या किया? शंकराचार्य के इतिहास को देखिए कि उनने जिंदगी भर क्या किया? ऋषियों में से प्रत्येक का इतिहास देखिए। नागार्जुन का इतिहास देखिए। चाणक्य का इतिहास सुनाइए, चरक का इतिहास सुनाइए। वाग्भट्ट का इतिहास, व्यास का इतिहास सुनाइए। ऋषियों में से हरेक का इतिहास सुनाइए। थोड़े समय तक वे राम नाम लेते रहे होंगे, यह तो मैं नहीं कहता कि उनने राम का नाम नहीं लिया और रामायण उनने नहीं पढ़ी। अपना संशोधन करने के लिए जरूर पढ़ी होगी, लेकिन बाकी समय में भगवान का काम किया है। लोकहित के काम किए हैं, परमार्थ के काम किए हैं, जनकल्याण के काम किए है। आपके सामने तो जहाँ जनकल्याण के काम आते हैं, परमार्थ के काम आते हैं, वहाँ आप अँगूठा दिखाते हैं और यह कहते हैं कि भक्ति हमारे भीतर आ गई।
भगवान दो रूपों में आते हैं
बेटे! भक्ति जब आती है तो करुणा लेकर आती है। जब वह करुणा लेकर आती है तो आदमी दूसरों की सहायता किए बिना, सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन में योगदान दिए बिना रह नहीं सकता। आदमी के भीतर जब करुणा आएगी तो वह बिखरती चली जाएगी। भगवान जब मनुष्य के अंतराल में आते हैं तो संग्रही, विलासी के रूप में नहीं आते। वासना के रूप में नहीं आते। कैसे आते हैं भगवान? अरे साहब! भगवान रात को आते हैं और सपने में आते हैं, वंशी बजाते आते हैं, घोड़े पर सवार होकर आते हैं, बैल पर सवार होकर आते हैं। बेकार की, पागलपन की बातें करना बंद कीजिए। भगवान इस तरह से नहीं आते, आप समझते क्यों नहीं। भगवान किसी के भीतर आते हैं तो दो तरीके से आते हैं- एक तो वे इस माने में आते हैं कि आदमी को आत्मसंशोधन के लिए मजबूर कर देते हैं। अपनी समीक्षा करने के लिए, अपने दोष और दुर्गुणों को देखने के लिए अपने आप को बेहतरीन बनाने के लिए, भगवान जब आते हैं तो बाध्य कर देते हैं और निरंतर यह कहते रहते है कि अपने आप को धो, अपने आप को साफ कर, अपने आप को उज्ज्वल बना, ताकि मैं तुझे गोदी में लेने में समर्थ हो सकूँ। चलिए, हम एक उदाहरण देकर आपको समझाते हैं। एक बच्चे ने कहा- "मम्मी! हमको गोदी में ले लीजिए।" मम्मी ने कहा- '' 'बेटे! जरा सा ठहरना पड़ेगा।" "क्यों ?" "तैने टट्टी कर ली है और देख तूने उसमें हाथ खराब कर लिया है और कपड़ा खराब कर लिया है।" "नहीं मम्मी! गोदी में ले लो।" "नहीं बेटे! जरा तुझे ठहरना ही पड़ेगा।" '' 'हमको कब तक ठहरना पड़ेगा मम्मी?" "जब तक कि आपके कपड़े नहीं धोए जाएँगे, जब तक कि आपका शरीर नहीं धोया जाएगा। जब तक धो नहीं लेंगे, तब तक हम गोदी में नहीं ले सकते।" "नहीं मम्मी! गोदी में उठा लीजिए। आप तो मम्मी हैं ।" "हाँ बेटे! मम्मी हैं, पर अभी गोदी में नहीं लेंगे।"
भजन- जीवन की एक पद्धति
बच्चे हमको प्राणों से भी अधिक प्यारे लगते हैं, पर आप गोदी में चढ़ने के हकदार उससे पहले नहीं हो सकते। कब तक? जब तक कि आपने अपने आप को धोया नहीं। आप क्यों नहीं समझते इस मोटी सी बात को? आपने इतनी मोटी बात को समझने से इनकार क्यों कर दिया? नहीं साहब! भगवान गोदी में ले लेगा। किस कीमत पर भगवान गोदी में ले लेगा, जरा बताना तो सही? भजन की कीमत पर ले लेगा। क्या होता है भजन? बकवास को भजन कहते हैं? अक्षरों के उच्चारण को भजन कहते हैं? अक्षरों के उच्चारण को भजन किसने कहा था? भजन में अक्षरों का उच्चारण भी शामिल है, लेकिन अक्षरों के उच्चारण तक भजन को हम सीमाबद्ध नहीं कर सकते। भजन जीवन की एक पद्धति है, आध्यात्मिक जीवन की एक शैली है, जीवनयापन करने का एक विधान है। इसमें दो बातें अनिवार्य रूप से जुड़ी हुईं हैं- , आदमी के व्यक्तिगत जीवन का संशोधन अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है और दूसरा लोकहित जुड़ा हुआ है। प्राचीनकाल के प्रत्येक ऋषि का उदाहरण आप सुन लीजिए। भगीरथ से लेकर भी आदमी आप बताइए, जिसने कि लोकहित के लिए, परमार्थ प्रयोजनों के लिए आपके तरीके से अँगूठा दिखा दिया हो। जहाँ उनने ये बहाने बनाए हो कि हमें परमार्थ के लिए टाइम नहीं है। परमार्थ के लिए हमें फुरसत नहीं है। हम व्यस्त रहते हैं, हमको आर्थिक तंगी है, हमारा दिमाग खाली नहीं है। हमारा मन नहीं लगा। आप हमेशा निन्यानवे बहाने बनाते रहते हैं। जहाँ भगवान को अपेक्षा है, जहाँ भगवान आपसे माँगता है, वहाँ आप अँगूठा दिखाते रहते हैं। भक्त ऐसे होते हैं? नहीं, भक्त ऐसे नहीं होते।
बगदाद की जमीला
मित्रों! भक्त वजनदार होते हैं, भारी- भरकम होते हैं। भक्त दयालु होते हैं और भगवान की दुनिया का ख्याल रखते हैं। किस तरह का ध्यान रखते हैं? बेटे! इस संदर्भ में मैं आपको द्रौपदी के तरीके से एक और घटना सुनाना चाहता हूँ। घटना बगदाद की है। एक बार बगदाद की जमीला ने अपनी सारी जिंदगी भर की कमाई के पैसे जमा करके रखे थे कि हम भी काबा जाएँगे। मुसलमानों के धर्म में यह बात लिखी हुई है कि आदमी को कोशिश करनी चाहिए कि एक बार वह हज करने के लिए काबा जरूर जाए। जमीला ने कुरान में पढ़ रखा था, इसलिए उसने अपने पैसे बचाकर रखे थे कि जब कभी मौका आएगा तो मैं भी वहाँ जाऊँगी और एक बार हज करूँगी। पैसे थे, तैयारी भी हो गई थी, लेकिन उस साल क्या हो गया? उस साल सब जगह बड़े जोर का अकाल पड़ गया। मनुष्य भूखे मरने लगे, बच्चे भूखे मरने लगे। पैसे- पैसे के लिए त्राहि त्राहि होने लगी। सब तड़पने लगे। दवा का कहीं इंतजाम नहीं, बच्चों के लिए दूध का कहीं इंतजाम नहीं रहा। काबा- हज जाने के लिए जमीला ने जो पैसा बचा रखा था, वह सब उस काम में लगा दिया। उसने वहा कि इन बच्चों को जिंदा रहना चाहिए। बच्ची की जिंदगी की हिफाजत करने के लिए हमारा पैसा खरच कर दिया जाना चाहिए। उनने वह सारा का सारा पैसा, जो हजयात्रा के लिए बचाकर रखा था, खरच कर डाला। लोगों ने पूछा- "' अब आप हजयात्रा पर कैसे जाएँगी ?" उसने कहा- '' अब हम कैसे जा सकते है? हज के लिए किराया फिर कहाँ से लाएँगे? अब हमारे लिए हज जाना मुश्किल है।" यह कौन कह रहा है? बगदाद की जमीला कह रहीं है।
हज कबूल हुआ
खुदाबंद करीम के यहीं मीटिंग बैठी। हर साल खुदाबन्द करीम काबा जाने वालों में से कुछ आदमियों की हजयात्रा कबूल करते थे। बाकी की ना कबूल कर देते थे। जितने लोग हज करने जाते थे, सबकी यात्रा कबूल नहीं होती थी। आप भी ध्यान रखना। भगवान आप में से हरेक की तीर्थयात्रा कबूल नहीं करता। आपने कर दी, आपकी मरजी। आपने अर्जी लगा दी, अब कबूल करना, न करना उसकी मरजी है कि किसकी कबूल होगी और किसकी नहीं होगी? कबूल होना अलग बात है और करना बात अलग है। दोनों बातें एक नहीं हो सकतीं। आपने कर दी और यह कबूल हो जाएगी, ऐसा नहीं हो सकता। अर्जी कितनी जाती हैं? उनमें से सलेक्शन किस- किस का होता है? हर एक का सलेक्शन नहीं हो सकता इसलिए क्या हुआ? खुदाबंद करीम के यहाँ जब मीटिंग जैसी तो उसमें यह पता लगाया गया कि इस बार किस- किस की यात्रा कबूल हुई? फरिश्ते बैठे हुए थे। उनने बताया कि खुदाबंद करीम ने आज की मीटिंग में इस साल में केवल एक आदमी की हजयात्रा कबूल की और बाकी की ना कबूल कर दी। किसकी कबूल की? उसका नाम था जमीला।
इस पर बाकी फरिश्तों ने आपत्ति की, जिब्रायल कहने लगा- "हुजूर। जमीला को हमने नहीं देखा। हम तो काबा के दरवाजे पर चौकीदारी करते थे और हमारे पास सारे के सारे लोगों के नाम नोट हैं, लेकिन जमीला का तो कहीं नाम भी नहीं है। आपने जमीला की हजयात्रा कैसे कबूल कर ली, वह तो गई भी नहीं।" खुदाबंद करीम ने कहा- "हमारी निगाह में जो हज है, वह ईमान के द्वारा होना चाहिए, पैरों के द्वारा नहीं। पैरों के द्वारा तो पोस्टमैन भी घूमते रहते हैं। पैरों के द्वारा दूसरे लोग भी घूम सकते हैं। ग्वाले भरि दिन घूमते रहते हैं। भिखारी भी घूमते रहते हैं। घूमने से क्या हो सकता है? घूमने से कुछ नहीं होता। हमने कबूल कर लिया।" किसका हज कबूल का लिया? जमीला का।
आत्मशोधन का महत्त्व समझें
साथियो! मैं क्या कह रहा था? यह कह रहा था कि अगर आप अपने जीवन में भजन का मूल्य समझते हो, भगवान का मूल्य समझते हों और यह समझते हों कि इसका हमारे जीवन से ताल्लुक है और भजन को हमारे जीवन में प्रवेश करना चाहिए तो फिर मैं आपसे बार- बार यह प्रार्थना करूँगा कि जीवन का चौथा वाला चरण, जो प्रत्यक्षतः भगवान से संबंध रखता है, उसका सदुपयोग कीजिए। उससे कम कीमत पर भगवान प्रसन्न नहीं होते और भगवान को इससे ज्यादा कीमत चुकाने की किसी से अपेक्षा नहीं है। आप ज्यादा कीमत क्यों चुकाएँगे? आपने तो एक गलती कर डाली है। आपने भजन का एक हिस्सा पकड़ लिया है। ईश्वरप्राप्ति के एक हिस्से में वह भी एक हिस्सा है। आपने सबसे सरल वाला वह प्वाइंट पकड़ लिया है, जिसमें 'हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए।' आपने रंग चोखा वाला भजन पकड़ लिया है। भजन के अलावा और कुछ नहीं है क्या? जीवन का संशोधन और आत्मसंशोधन कुछ नहीं है क्या? अपने आप का सुधार कुछ नहीं है क्या? स्वाध्याय की, संयम की क्या जरूरत हो सकती है? अरे साहब! बड़ी मुश्किल आ जाएगी। हम अपने मन के ऊपर, विचारों के ऊपर कैसे नियंत्रण कर पाएँगे, कैसे संयम कर पाएँगे? यह तो बहुत कठिन है। तो क्या करेंगे? बस, वही सबसे सरल वाला हिस्सा पकड़ लिया है। यह भूल गए कि उपासना चार चरणों वाली होती है। उपासना का संवर्द्धन करने के लिए उपासना को परिपक्व करने के लिए, उपासना को मजबूत बनाने के लिए, उपासना को सामर्थ्यवान, सिद्ध और चमत्कारी बनाने के लिए इन चार चीजों की जरूरत होती है। यह मैं कल आपको बता चुका हूँ। अब मैं आपकी समझदारी के लिए क्या कहूँ?
आप भी उस जाट की तरह हैं
मित्रो! आपकी समझदारी तो मुझे ऐसी मालूम पड़ती है कि जैसे राजस्थान का एक जाट था। उसकी समझदारी जैसी है आपकी समझदारी। क्या समझदारी थी उसकी? राजस्थान का एक जाट मेले में गया। वहाँ बहुत तेज धूप पड़ रही थी। राजस्थान में धूप बहुत पड़ती है। कहीं कोई छाया भी नहीं थी, कहीं पेड़ भी नहीं थे। रेगिस्तान था, जहाँ मेला लग रहा था। उसने आवाज लगाई और लोगों से कहा कि हमारे पास एक खाट बिकाऊ है। खाट माने चारपाई। लोगों ने सोचा कि गरम रेत में, जहाँ पैर जलते हैं, यदि चारपाई मिल जाए तो रात को उस पर सो जाएँगे और दिन में उसको खड़ा करके उसकी छाया में बैठे रहेंगे। जाट ने आवाज लगानी शुरू कर दी कि हमारे पास चारपाई बिकाऊ है। लोगों ने कहा कि कहाँ है? चारपाई और उसका कितना दाम है? दाम भी बहुत कम बता दिया। कह दिया कि दो रुपए की चारपाई है। दो रुपए की चारपाई है, दो रुपए की चारपाई है तो हम फौरन ले लेंगे। वह चिल्लाता रहा कि चारपाई बिकाऊ है ........... लोगों ने कहा कि दीजिए न हमको। दो रुपए हम आपको दे रहे हैं लीजिए दो रुपए। अच्छा तो आप ऐसा कीजिए कि जो जो खरीददार हैं, वहाँ उस पेड़ के पास चलिए, वहीं पर हम आपको चारपाई देंगे। उसमें जो कमी है, वह आप देख लेना, फिर चारपाई खरीद लेना। बहुत सारे लोग आ गए। अच्छा, आप सब बैठ जाइए। अब हम चारपाई के गुण दोष बताते हैं, फिर आप लेना। दो रुपए में कहीं चारपाई नहीं मिलती। इसमें कुछ कमी है, इसलिए सस्ते में दे रहे हैं। पहले आप सुन लीजिए, फिर लेना हो तो लेना, नहीं तो मत लेना। शांतिपूर्वक सब बैठ गए। उसने कहा कि चारपाई में थोड़ी कमी है, तीन पाये नहीं हैं। इसमें दो पाटी नहीं हैं। दो सेरे नहीं है। और कुछ कमी है? हाँ, थोड़ी कमी और रह गई है इसमें। बीच का झाबड़- झोल नहीं है। (बीच में जो रस्सी बुनी जाती है, उसे देहात में झाबड़ झोल कहते हैं)। दो सेरे नहीं हैं, तीन पाये नहीं हैं, दो पाटी नहीं हैं, बीच का झाबड़- झोल नहीं है, फिर क्या है इसमें? उसने थैले में से एक पाया निकाल कर दिखा दिया और कहा कि इसे ले जाइए। लोगों ने कहा कि- धत् तेरे की, इसका हम क्या करेंगे?
आप केवल माला का आसरा लिए बैठे हैं
मित्रो! यह किसकी कहानी है? आपकी कहानी है। आप कौन हैं? आप तो बेअकल जाट हैं, जो एक पाए की चारपाई लिए फिरते हैं। चारपाई माने माला। केवल माला लिए बैठे हैं। आप लोगों की जिंदगी का अधिकांश भाग माला के सुपुर्द हो गया। बेटे! माला के ऊपर मैं निछावर हूँ, माला जपते- जाते मेरी उँगलियाँ घिस गई। अभी भी इस बुढ़ापे में चार घंटे बैठ जाते है। एक बजे रात्रि में अपनी माला लेकर चुपके से बैठे जाते हैं और चार बजे तक, जब आपको अपनी सबसे प्यारी चीज नींद पसंद आती है, हमको नींद से भी बेहतर माला लगती है। माला को हम छाती से लगाते हैं। माला की हम इज्जत करते हैं। माला हमारे रोम- रोम में बसी है। हम माला को गाली देंगे? हम कोई नास्तिक हैं? हम कम्युनिस्ट हैं? हम कौन हैं?
माला के साथ सेवा
हम तो आपको इस बात का एहसास करा देना चाहते हैं कि माला चाहे जैसी चमत्कारी क्यों न हो यह उस वक्त तक किसी का काम नहीं करेगी और न ही आज तक किसी का काम किया है, जब तक कि आप उसमें दूसरी चीजों की सहायता पैदा न कर दे। माला के साथ−साथ आपके जीवन में सेवा के लिए भी स्थान रहना चाहिए। आपको अपने समय का एक हिस्सा भगवान के लिए भी लगाना चाहिए। आप अपने समय का एक हिस्सा अपने लिए लगाएँ, घर वालों के लिए लगाएँ। सात घंटे सोया करें। आठ घंटे रोटी कमा करके अपने बाल- बच्चों का पेट भरा करें। सात और आठ घंटे मिलाकर पंद्रह घंटे हो गए। पाँच घंटे आप निजी कामों के लिए रखें अर्थात नहाने- धोने, खाने- पीने आदि के लिए फिर भी आप चौबीस घंटों में चार घंटे भगवान के लिए लगा सकते हैं।
सेवा की आवश्यकता और स्वरूप
जनसाधारण की गतिविधियाँ और क्रिया- कलाप केवल अपने तक ही सीमित रहते हैं। सामान्य व्यक्ति अपना सुख और हित देखना ही पर्याप्त समझता है। वह सोचता है कि अपने लिए पर्याप्त साधन सुविधाएँ जुट जाएँ, अपने लिए सुखदायक परिस्थितियाँ हो, इतना ही काकी है। शेष सब चाहे जिस स्थिति में पड़े रहें। स्वार्थपरता इसी का नाम है। स्व के संकुचित दायरे में पड़े व्यक्तियों की रीति- नीति इसी स्तर की होती है। जब उसकी परिधि विस्तृत होती चलती है, व्यक्ति अपनेपन का विकास करता है तो उसमें दूसरों के लिए भी कुछ करने की उमंग उठने लगती है और व्यक्ति सेवा मार्ग पर अग्रसर होने लगता है।
जीवन साधना से आत्मिक चेतना का विकास जैसे- जैसे होने लगता है सेवा की टीस उसी स्तर की उठने लगती है और व्यक्ति स्वयं की ही नहीं सबकी सुख- सुविधाओं और हित- अहित की चिंता करने लगता है, उसका ध्यान रखने लगता है। परमार्थ साधन में लगे व्यक्तियों को उससे भी उत्कृष्ट आनंद और आत्मसंतोष अनुभव होता है जो स्वार्थ पूर्ति में ही लगे व्यक्तियों को प्राप्त होता है।
पुण्य- परमार्थ, लोकमंगल, जनकल्याण, समाजहित आदि सेवा- साधना के ही पर्यायवाची नाम हैं और इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है। जिन व्यक्तियों ने भी इस पद्धति से जीवन सार्थकता की साधना की, मनुष्य और समाज का स्तर ऊँचा उठाने के लिए योगदान दिया, सामाजिक सुख- शांति में बाधक तत्त्वों का उन्मूलन करने के लिए प्रयत्न किए, समाज ने उन्हें सर आँखों पर उठा लिया। महापुरुषों के रूप में आज हम उन्हीं नर- रत्नों का स्मरण और वंदन करते हैं।
मानवी सभ्यता और संस्कृति के विकास में सबसे बड़ी बाधा है व्यक्ति और समाज को त्रस्त करने वाली समस्याएँ। आज जिधर भी देखा जाए उधर अभाव, असंतोष, चिंता, क्लेश व कलह का ही बाहुल्य दिखाई देता है। यों पिछले सौ- पचास वर्षों में वैज्ञानिक प्रगति इतनी तीव्र गति से हुई है कि उनसे कुछ पहले उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। जीवन को सहज और सुविधामय बनाने के लिए विज्ञान ने एक से बढ़कर एक उपाय किए हैं और वे सफल भी रहे हैं परंतु उनसे न व्यक्ति सुखी हुआ है न समाज में शांति आई है सुविधा बताने और पीड़ाओं को दूर करने के लिए अनेकानेक प्रयास किए गए हैं पर उनसे समस्याएँ कम होने के स्थान पर बही ही हैं। पहले कहीं सूखा और अकाल पड़ता था तो सौ- दो सौ मील दूर पर रहने वालों को भी उसकी खबर नहीं चलती थी। फलस्वरूप जरा सी अधिक बारिश होने पर फसलें बिगड़ जाने से एक क्षेत्र के लोग भूखों मर जाते तो दूसरे क्षेत्रों में अन्न की प्रचुरता रहती। आज दुनिया के किसी भी कोने में अकाल पड़ता है तो यातायात के साधन इतने बद गए हैं कि दूसरे कोने से तुरत सहायता पहुँचाई जा सकती है। एक दूसरे के 'सुख- दुःख में सहायता करने की ऐसी व्यवस्था बन जाने पर भी लोग समस्याग्रस्त और संकटग्रस्त देखे जा सकते हैं। यदि कहा जाए कि समस्याएँ पाले की अपेक्षा कहीं ज्यादा बढ़ गई हैं तो अत्युक्ति न होगी।
आज से हजारों वर्ष पहले का मनुष्य जिनके बारे में कल्पना भी नहीं कर सकता था, वे सुविधाएँ और साधन उपलब्ध होने पर भी लोग अपने आप को पूर्वापेक्षा अधिक अभावग्रस्त, रुग्ण, चिंतित, एकाकी, असहाय और समस्याओं से घिरा हुआ अनुभव करते हैं। भौतिक प्रगति के बढ़ जाने पर, साधन संपन्नता पहले की अपेक्षा अधिक होने पर तो यह होना चाहिए था कि हम सुखी और संतुष्ट रहते, लेकिन गहन आत्मनिरीक्षण करने पर इस अवधि में हम अपने को पहले से अधिक गिरा, पिछड़ा और बिगड़ा पाते हैं। शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, पारिवारिक सौजन्य, सामाजिक सद्भाव, आर्थिक संतोष और आंतरिक उल्लास के सभी क्षेत्रों में हमारा स्तर गिरा है। इस दृष्टि से आज की सुविधा संपन्नता और पूर्वकाल की सुविधा परिस्थितियों की तुलना की जाए तो भी यही लगता है कि उस असुविधा भरे समय के निवासी आज के हम लोगों की तुलना में असंख्य गुने सुखी और संतुष्ट थे। तब की और अब की परिस्थितियों में साधन- सुविधा की दृष्टि से भले हो विकास हुआ हो, परंतु सुख- शांति की दृष्टि से हमारा पतन ही हुआ है।
लोकसेवियों को इस पतन का निराकरण करने के लिए प्रस्तुत होना चाहिए तथा समस्याओं की जड़ खोजकर उन्हें खोदने में अपनी सेवा- साधना आरंभ करनी चाहिए। परिस्थितियों के कारण यह दीन- हीन दुर्दशा नहीं हुई है। परिस्थितियाँ तो पहले की अपेक्षा अब कहीं बहुत अधिक वस्तुतः इस पतन के लिए हमारे आंतरिक स्तर की विकृति ही उत्तरदायी है। व्यक्ति और समाज में इन दिनों जो दुःख दारिद्रय की काली घटाएँ घुमड़ रही हैं, उसका कारण भावना स्तर में अवांछनीय विकृतियों का आ जाना ही है। इसका समाधान करना हो, आसन्न पतन का यदि निराकरण करना को तो अमुक समस्या के अमुक समाधान से काम नहीं चलेगा, वरन सुधार की प्रक्रिया वहीं से आरंभ करनी होगी जहाँ से कि ये विभीषिकाएँ उत्पन्न होती हैं।
इस स्तर की सेवा प्रत्येक व्यक्ति नहीं कर सकता और न इस तथ्य को ही समझ पता है। फिर भी सेवा को उमंग तो हो, उसे अन्य रूपों में भी किया जा सकता है। विभिन्न तरह से सेवा साधना की जाती है और की जानी चाहिए। मोटे रूप में इन सेवाओं की (( १ )) जनजीवन की जटिलताएँ सुलझाने, सुविधाएँ बढ़ाने तथा (२) पीड़ा का निवारण करने के रूप में विभाजित किया जा सकता है। जो लोग जनजीवन की जटिलताओं और उत्पीड़न का कारण मानवीय स्तर में आई विकृतियों या पतन को मानते हैं। वे इस महत्त्वपूर्ण कार्य में लगे हैं, पर जिन्हें यह तथ्य ठीक से समझ नहीं आता और जो असुविधा तथा पीड़ा को ही मनुष्य व समाज की मुख्य समस्या समझते हैं, वे उस स्तर की सेवा में लगते हैं। वह सेवा भी प्रशंसनीय और सराहनीय है।
आज की बात समाप्त।
।। ॐ शांति: ।।
चिंतन बिंदु
योजना बनाते रहने का समय बीत गया, अब तो करना ही करना शेष है।
जिसका प्रत्येक कर्म भगवान को, आदर्शों को समर्पित होता है, वही सबसे बड़ा योगी है।
असहायों की ओर से जब हम मुँह मोड़कर चलते हैं, तो ईश्वर की पुकार का निरादर करते हुए चलते हैं।
उच्च उद्देश्यों से जुड़े हुए कर्तव्यपालन का ही दूसरा नाम कर्मयोग है।