Books - धर्म के दस लक्षण और पंचशील
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Language: HINDI
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आदर्शों का निर्वाह-व्रतशीलता से
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मनुष्य कई तरह के विचार करता है। इनमें से कुछ निश्चय स्तर के भी होते हैं। किन्तु देखा गया है कि उनमें से कुछ ही निभते हैं। जो निभते हैं वे भी अधिक दिन नहीं टिकते। उत्साह थोड़े दिन तो उभरा रहता है पर जैसे-जैसे मनोबल क्षीण होता जाता है वैसे ही उत्साह ठंडा होता जाता है। पुराने संस्कार फिर उभरने लगते हैं। नया निश्चय ठंडा होता जाता है और अन्त में वह दिन आता है जिसमें आदर्शवादी निश्चय प्रायः समाप्त हो जाता है। उसकी स्मृति मात्र शेष रह जाती है। पुराना ढर्रा फिर वापिस आ जाता है। कदम बढ़ाने और उसे पीछे हटा लेने की बात पर मन सकुचाता तो है पर उसे ज्यों त्यों करके समझ लिया जाता है। परिस्थिति से समझौता कर लिया जाता है। कितने ही तर्क ऐसे ढूंढ़ लिये जाते हैं, जिनके कारण उस उत्साह को ठंडे होने, निश्चय के टूटने का औचित्य सिद्ध हो सके। कारण केवल मनोबल की कमी-निश्चय की न्यूनता का होता है, पर अपने को दोषी कैसे ठहराया जाय? दुर्बलता को स्वीकार कैसे किया जाय? इसलिए मानवी स्वभाव कोई न कोई कारण ऐसा ढूंढ़ता है, जिससे परिस्थिति को निमित्त ठहराया जा सके।
ऐसे समय बार-बार आते रहते हैं जिनमें श्रेष्ठता अपनाने के लिए उत्साह उभरे। ऐसा प्रायः प्रेरणाप्रद स्वाध्याय या उत्तेजक सत्संग से होता है। किन्हीं महापुरुषों के जीवन की आदर्शवादी घटनाएं भी यदा कदा सामने आती हैं। जब कभी चित्रों—फिल्मों में कुछ ऐसा देखने को मिलता है जिसे उच्च स्तरीय कहा जा सके तो अनुकरण करने की उत्कंठा उठती है। आवेश उसका समर्थन करता है और भावोत्तेजना की मनःस्थिति से तय कर लिया जाता है कि अगले दिन से ही उसका श्रीगणेश किया जाय। कर भी लिया जाता है। कुछ दिन वह चलता भी रहता है। किन्तु वह सब उतावली में किया गया होता है। यह सोचने का प्रयत्न नहीं चला होता कि इस निर्वाह में क्या कुछ कठिनाइयां आवेंगी और उनका सामना कैसे किया जायगा? फलतः जब मनोबल शिथिल पड़ने लगता है तो कठिनाइयां छोटी होने पर भी दीखने लगती हैं। लाभ जो सोचे गये थे वे भी नगण्य होने जैसी बात सूझने लगती है। जिस मार्ग पर चला गया है, उसे छोड़ कर कोई दूसरी राह अपनाने के विकल्प सामने आने लगते हैं। शिथिलता बढ़ते बढ़ते इस स्तर तक पहुंचती है कि क्रम टूटने लगता है। किसी दिन क्रिया, किसी दिन छोड़ा का सिलसिला चलते चलते गिरावट की विजय होने लगती है। जो निश्चय किया गया था, उसमें लाभ कम और कठिनाई बढ़ी-चढ़ी दीखने लगती है। कुछ दिन यह मानसिक झंझट चलता है और अन्ततः उस उत्साह की समाप्ति ही हो जाती है। कालान्तर में फिर कुछ नई सूझ सूझती है। नया निश्चय होता है। कुछ दिन चलता है और फिर पहले वाले क्रमानुसार उसका भी अन्त हो जाता है।
जितनी बार निश्चय टूटते हैं, उतना ही मनोबल कम होने लगता है। अन्त में स्थिति यह हो जाती है कि कोई नया आदर्शवादी निश्चय करने के लिए साहस ही नहीं होता। आत्म विश्वास उठ जाता है और लगता है अपने बलबूते का यह सब है नहीं। निराशा के साथ-साथ आत्म-ग्लानि भी होने लगती है। कहा जाने लगता है कि यह सब तपस्वी मनस्वी लोगों का कार्य है। अपने संस्कार ही ऐसे नहीं। फिर कदम बढ़ाने से क्या लाभ?
ऐसा प्रायः जप, तप, ध्यान, धारण, व्रत उपवास, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, अस्वाद जैसे संदर्भों में होता है। पूर्व अभ्यास तो रहा नहीं होता। अड़चनों की भी पूर्व कल्पना नहीं होती। संचित कुसंस्कार किस प्रकार आड़े आते हैं इसका भी अनुभव नहीं रहता। ऐसी दशा में उत्साह का स्तर आवेश जैसा ही रहता है। आवेश स्थाई नहीं होते। जब शोक, क्रोध, ललक, लिप्सा जैसे भावावेश समय के साथ ठंडे पड़ने लगते हैं। घनिष्ठ मित्रता परिचय मात्र बन कर रह जाती हैं तो आदर्शवादी निश्चयों का चिरस्थाई बने रहना कैसे संभव हो?
कुटेवें जड़ पकड़ लेती हैं। नशेबाजी जैसी आदतें अभ्यास में उतर जाय तो उनमें दृढ़ता बनी रहती है। अन्य व्यसन भी पतनोन्मुख होने के कारण स्वभाव का अंग बन जाते हैं। उनकी निरन्तर पुनरावृत्ति भी होती रहती है। पौधे में पानी लगते रहने पर उसकी जड़े गहराई में घुसती जाय तो आश्चर्य ही क्या?
आदर्शवादिता के किसी भी पक्ष पर कदम बढ़ाना हो उस संबंध में पहले पक्ष और विपक्ष के संबंध में गहराई तक विचार करना चाहिए। पक्ष तो स्पष्ट है। उत्कृष्टता की दिशा में चलने वाले का सदाहित-साधन ही हुआ है। धनवान भले ही न बन सका हो पर उसे ओजस्वी, तेजस्वी वर्चस्वी बनने का अवसर अवश्य मिला है। स्वास्थ्य सुधरा है। संतोष मिला है। परिवार में सद्भाव बढ़ा है। परिचितों से सम्पर्क बढ़ा है। साथियों का सहयोग मिला है। प्रसन्नता बढ़ी और शांति मिली है। इन लोगों को देखते हुए आत्म सुधार के लिए प्रयत्न करना और सद्गुणी बनने के लिए कदम बढ़ाना सब प्रकार श्रेयस्कर ही है। कठिनाई थोड़ी सी हो सामने आती है। संचित कुसंस्कार, सुधार प्रयासों के लिए सहमत नहीं होते। उसे झंझट कहते हैं। परिवार वाले भी अनुमान लगाते हैं कि अतिरिक्त आमदनी घट जाने से सादगी का जीवन व्यतीत करना पड़ेगा। धन सम्पत्ति जमा न हो सकेगी। मौज उड़ाने के अवसर न मिलेंगे। साथियों के बीच अपनी अमीरी की डींग हांकने की बात न बन पड़ेगी। बच्चों की ऊंची पढ़ाईयां खर्चीली शादियां करने पर जो बड़प्पन मिलता है, वह न मिलेगा। सादगी को देखकर अमीरी जताने वाले उपहास करेंगे। यदि इन कटौतियों को स्वीकार किया जा सके तो आदर्शवादी जीवन में लाभ अधिक हैं। जो घाटा दीखता है, वह उसकी तुलना में तुच्छ है। पुण्य और परमार्थ का आनन्द तो सज्जनता की रीति-नीति अपनाने में ही है। आत्म परिष्कार ऐसा लाभ है, जिससे लोक और परलोक दोनों ही सुधरते हैं। अतएव दूरदर्शिता इसी में है कि उस राह पर कदम बढ़ाये जायें, जिस पर कि महामानव चले हैं और पीछे वालों के लिए अनुकरणीय पद चिन्ह छोड़कर धन्य हुए हैं। सरलता इसमें पड़ती है कि छोटे-छोटे व्रत ‘‘अणुव्रत’’ लिये जाये और उन्हें हर हालत में पूरा करके रहा जाय। जैसे उपवास का अभ्यास करना है तो पहले सप्ताह में आधे दिन का व्रत रखा जाय। जब वह पूरा हो जाय तो स्वयं अपने साहस को सराहा जाय और कुछ दिन तक वह प्रक्रिया ठीक तरह चलती रहे तो एक दिन का फलाहार समेत व्रत किया जाय। वह क्रम चल पड़े तो पानी, छाछ, शाकों का रस आदि लेकर उस व्रतशीलता को महत्वपूर्ण स्तर तक पहुंचाया जाय। इसी प्रकार वर्तमान काल के काम सेवन क्रम में एक एक दिन बढ़ाते रहकर उस स्थिति तक पहुंचा जाय जिसमें महीनों संयम-पूर्वक रहा जा सकता है। यह वृत्तशीलता का अनुबंध है। बड़ी छलांग लगाने की अपेक्षा थोड़ा- बढ़ाते हुए उसे अधिकता की ओर बढ़ाया जाय। उपासना के लिए आवश्यक नहीं कि आरंभ में ही कई घंटे बैठने की बात सोची जाय। श्रीगणेश पांच मिनट से भी किया जा सकता है। फिर जैसे-जैसे मन लगने लगे, उसमें अभिवृद्धि करते रहा जाय।
दुर्गुणों को छोड़ने के संबंध में भी यही बात है। बीड़ी सिगरेट पीने की लत हो तो दैनिक प्रयोग में एक-एक करके उसे कम करते चल जाय और अंत में उसे पूरी तरह छोड़ दिया जाय। लोक मंगल के लिए अनुदान निकालने में भले ही आरंभ में न्यूनतम राशि से शुभारंभ किया जाय पर उसे दैनिक एवं नियमित रखा जाय। नागा होने या भूल पड़ने की स्थिति में उसका प्रायश्चित करने के रूप में अपने को छोटा-मोटा शरीर दण्ड या अर्थ दण्ड दिया जाय। नियमितता बनी रहने पर मनोबल बढ़ता है और बड़े कदम उठा सकना, उनका निर्वाह चलते रहना संभव एवं सरल हो जाता है।
ऐसे समय बार-बार आते रहते हैं जिनमें श्रेष्ठता अपनाने के लिए उत्साह उभरे। ऐसा प्रायः प्रेरणाप्रद स्वाध्याय या उत्तेजक सत्संग से होता है। किन्हीं महापुरुषों के जीवन की आदर्शवादी घटनाएं भी यदा कदा सामने आती हैं। जब कभी चित्रों—फिल्मों में कुछ ऐसा देखने को मिलता है जिसे उच्च स्तरीय कहा जा सके तो अनुकरण करने की उत्कंठा उठती है। आवेश उसका समर्थन करता है और भावोत्तेजना की मनःस्थिति से तय कर लिया जाता है कि अगले दिन से ही उसका श्रीगणेश किया जाय। कर भी लिया जाता है। कुछ दिन वह चलता भी रहता है। किन्तु वह सब उतावली में किया गया होता है। यह सोचने का प्रयत्न नहीं चला होता कि इस निर्वाह में क्या कुछ कठिनाइयां आवेंगी और उनका सामना कैसे किया जायगा? फलतः जब मनोबल शिथिल पड़ने लगता है तो कठिनाइयां छोटी होने पर भी दीखने लगती हैं। लाभ जो सोचे गये थे वे भी नगण्य होने जैसी बात सूझने लगती है। जिस मार्ग पर चला गया है, उसे छोड़ कर कोई दूसरी राह अपनाने के विकल्प सामने आने लगते हैं। शिथिलता बढ़ते बढ़ते इस स्तर तक पहुंचती है कि क्रम टूटने लगता है। किसी दिन क्रिया, किसी दिन छोड़ा का सिलसिला चलते चलते गिरावट की विजय होने लगती है। जो निश्चय किया गया था, उसमें लाभ कम और कठिनाई बढ़ी-चढ़ी दीखने लगती है। कुछ दिन यह मानसिक झंझट चलता है और अन्ततः उस उत्साह की समाप्ति ही हो जाती है। कालान्तर में फिर कुछ नई सूझ सूझती है। नया निश्चय होता है। कुछ दिन चलता है और फिर पहले वाले क्रमानुसार उसका भी अन्त हो जाता है।
जितनी बार निश्चय टूटते हैं, उतना ही मनोबल कम होने लगता है। अन्त में स्थिति यह हो जाती है कि कोई नया आदर्शवादी निश्चय करने के लिए साहस ही नहीं होता। आत्म विश्वास उठ जाता है और लगता है अपने बलबूते का यह सब है नहीं। निराशा के साथ-साथ आत्म-ग्लानि भी होने लगती है। कहा जाने लगता है कि यह सब तपस्वी मनस्वी लोगों का कार्य है। अपने संस्कार ही ऐसे नहीं। फिर कदम बढ़ाने से क्या लाभ?
ऐसा प्रायः जप, तप, ध्यान, धारण, व्रत उपवास, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, अस्वाद जैसे संदर्भों में होता है। पूर्व अभ्यास तो रहा नहीं होता। अड़चनों की भी पूर्व कल्पना नहीं होती। संचित कुसंस्कार किस प्रकार आड़े आते हैं इसका भी अनुभव नहीं रहता। ऐसी दशा में उत्साह का स्तर आवेश जैसा ही रहता है। आवेश स्थाई नहीं होते। जब शोक, क्रोध, ललक, लिप्सा जैसे भावावेश समय के साथ ठंडे पड़ने लगते हैं। घनिष्ठ मित्रता परिचय मात्र बन कर रह जाती हैं तो आदर्शवादी निश्चयों का चिरस्थाई बने रहना कैसे संभव हो?
कुटेवें जड़ पकड़ लेती हैं। नशेबाजी जैसी आदतें अभ्यास में उतर जाय तो उनमें दृढ़ता बनी रहती है। अन्य व्यसन भी पतनोन्मुख होने के कारण स्वभाव का अंग बन जाते हैं। उनकी निरन्तर पुनरावृत्ति भी होती रहती है। पौधे में पानी लगते रहने पर उसकी जड़े गहराई में घुसती जाय तो आश्चर्य ही क्या?
आदर्शवादिता के किसी भी पक्ष पर कदम बढ़ाना हो उस संबंध में पहले पक्ष और विपक्ष के संबंध में गहराई तक विचार करना चाहिए। पक्ष तो स्पष्ट है। उत्कृष्टता की दिशा में चलने वाले का सदाहित-साधन ही हुआ है। धनवान भले ही न बन सका हो पर उसे ओजस्वी, तेजस्वी वर्चस्वी बनने का अवसर अवश्य मिला है। स्वास्थ्य सुधरा है। संतोष मिला है। परिवार में सद्भाव बढ़ा है। परिचितों से सम्पर्क बढ़ा है। साथियों का सहयोग मिला है। प्रसन्नता बढ़ी और शांति मिली है। इन लोगों को देखते हुए आत्म सुधार के लिए प्रयत्न करना और सद्गुणी बनने के लिए कदम बढ़ाना सब प्रकार श्रेयस्कर ही है। कठिनाई थोड़ी सी हो सामने आती है। संचित कुसंस्कार, सुधार प्रयासों के लिए सहमत नहीं होते। उसे झंझट कहते हैं। परिवार वाले भी अनुमान लगाते हैं कि अतिरिक्त आमदनी घट जाने से सादगी का जीवन व्यतीत करना पड़ेगा। धन सम्पत्ति जमा न हो सकेगी। मौज उड़ाने के अवसर न मिलेंगे। साथियों के बीच अपनी अमीरी की डींग हांकने की बात न बन पड़ेगी। बच्चों की ऊंची पढ़ाईयां खर्चीली शादियां करने पर जो बड़प्पन मिलता है, वह न मिलेगा। सादगी को देखकर अमीरी जताने वाले उपहास करेंगे। यदि इन कटौतियों को स्वीकार किया जा सके तो आदर्शवादी जीवन में लाभ अधिक हैं। जो घाटा दीखता है, वह उसकी तुलना में तुच्छ है। पुण्य और परमार्थ का आनन्द तो सज्जनता की रीति-नीति अपनाने में ही है। आत्म परिष्कार ऐसा लाभ है, जिससे लोक और परलोक दोनों ही सुधरते हैं। अतएव दूरदर्शिता इसी में है कि उस राह पर कदम बढ़ाये जायें, जिस पर कि महामानव चले हैं और पीछे वालों के लिए अनुकरणीय पद चिन्ह छोड़कर धन्य हुए हैं। सरलता इसमें पड़ती है कि छोटे-छोटे व्रत ‘‘अणुव्रत’’ लिये जाये और उन्हें हर हालत में पूरा करके रहा जाय। जैसे उपवास का अभ्यास करना है तो पहले सप्ताह में आधे दिन का व्रत रखा जाय। जब वह पूरा हो जाय तो स्वयं अपने साहस को सराहा जाय और कुछ दिन तक वह प्रक्रिया ठीक तरह चलती रहे तो एक दिन का फलाहार समेत व्रत किया जाय। वह क्रम चल पड़े तो पानी, छाछ, शाकों का रस आदि लेकर उस व्रतशीलता को महत्वपूर्ण स्तर तक पहुंचाया जाय। इसी प्रकार वर्तमान काल के काम सेवन क्रम में एक एक दिन बढ़ाते रहकर उस स्थिति तक पहुंचा जाय जिसमें महीनों संयम-पूर्वक रहा जा सकता है। यह वृत्तशीलता का अनुबंध है। बड़ी छलांग लगाने की अपेक्षा थोड़ा- बढ़ाते हुए उसे अधिकता की ओर बढ़ाया जाय। उपासना के लिए आवश्यक नहीं कि आरंभ में ही कई घंटे बैठने की बात सोची जाय। श्रीगणेश पांच मिनट से भी किया जा सकता है। फिर जैसे-जैसे मन लगने लगे, उसमें अभिवृद्धि करते रहा जाय।
दुर्गुणों को छोड़ने के संबंध में भी यही बात है। बीड़ी सिगरेट पीने की लत हो तो दैनिक प्रयोग में एक-एक करके उसे कम करते चल जाय और अंत में उसे पूरी तरह छोड़ दिया जाय। लोक मंगल के लिए अनुदान निकालने में भले ही आरंभ में न्यूनतम राशि से शुभारंभ किया जाय पर उसे दैनिक एवं नियमित रखा जाय। नागा होने या भूल पड़ने की स्थिति में उसका प्रायश्चित करने के रूप में अपने को छोटा-मोटा शरीर दण्ड या अर्थ दण्ड दिया जाय। नियमितता बनी रहने पर मनोबल बढ़ता है और बड़े कदम उठा सकना, उनका निर्वाह चलते रहना संभव एवं सरल हो जाता है।