Books - देव संस्कृति की गौरव गरिमा अक्षुण्य रहे
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Language: HINDI
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एक चुनौती हर भारतीय धर्मानुयायी के लिए
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कभी जाति और वर्ण का विभाजन सामाजिक कार्य व्यवस्था की सुविधा की दृष्टि से हुआ था न कि छोटे-बड़े को ध्यान में रखकर। वह लक्ष्य तो रहा नहीं, उल्टे विकृतियों ने जड़ जमा ली। सदियों से छुआ छूत, ऊंच नीच की भावना भारतीय समाज को खोखला बनाती चली जा रही है, जिस कारण उसका एक बड़ा वर्ग कटकर अलग होता जा रहा है।
भारत में हिन्दू धर्मानुयायियों की संख्या में अन्य धर्मों की तुलना में औसतन कम बढ़ोतरी हुई है जबकि मुस्लिम और क्रिश्चियन धर्म को मानने वालों की संख्या में औसतन उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। भारत की पहली जनगणना सन् 1881 में हुई थी। उस समय हिन्दू और मुस्लिमों की जन संख्या का औसत इस प्रकार था। कुल जन संख्या में पिचहत्तर प्रतिशत हिन्दू थे और बीस प्रतिशत मुसलमान। शेष बौद्ध और ईसाई धर्म को मानने वाले थे। मुसलमानों की कुल संख्या 4 करोड़ 99 लाख 53 हजार थी। 60 वर्षों बाद सन् 1941 में मुसलमानों की संख्या बढ़कर 9 करोड़ 44 लाख 40 हजार अर्थात् देश की कुल जन संख्या की लगभग 14 प्रतिशत हो गई जबकि हिन्दुओं का औसत घटकर मात्र 69 प्रतिशत रह गया।
सन् 1881 और सन् 1941 के मध्य अवधि में मुस्लिम जन संख्या में 89 प्रतिशत की तथा ईसाई जन संख्या में 318 प्रतिशत की वृद्धि हुई। जबकि हिन्दू मात्र 44 प्रतिशत ही बढ़े। इस तरह तुलनात्मक औसत वृद्धि की दृष्टि से 1881 से 1941 के 60 वर्षों में पूरे भारत में 53 हिन्दू प्रति हजार घटे और 43 मुस्लिम प्रति हजार बढ़े।
हिन्दुस्तान, पाकिस्तान विभाजन के बाद 1951 में हिन्दू, मुस्लिम और ईसाइयों की कुल जन संख्या में प्रतिशत इस प्रकार था—हिन्दू 85 प्रतिशत, मुस्लिम 9.91 प्रतिशत और ईसाई 2.35। सन् 1961 की जन गणना में हिन्दुओं का कुल प्रतिशत घटकर 83.50 रह गया जबकि मुसलमानों और ईसाइयों की कुल जन संख्या के अनुपात में वृद्धि हुई। सन् 1961 में मुसलमानों की जनसंख्या 10.70 प्रतिशत तथा ईसाइयों की 2.44 प्रतिशत थी। इस तरह 1961 में छत्तीस करोड़ पैंसठ लाख एक हजार तीन सौ के लगभग हिन्दू, चार करोड़ 69 लाख 39 हजार 746 मुसलमान तथा एक करोड़ सात लाख 26 हजार चार सौ ईसाई थे। सन् 1970 में जन संख्या वृद्धि के औसत अनुपात में हिन्दुओं की संख्या और भी घटी। जन गणना रिपोर्टानुसार कुल जनसंख्या में 82.72 प्रतिशत हिन्दू अर्थात् पैंतालीस करोड़ चौबीस लाख छत्तीस हजार छह सौ तीस हिन्दू, 11.20 प्रतिशत मुसलमान अर्थात् 6 करोड़ चौदह लाख अठारह हजार 269 तथा 2.67 प्रतिशत—एक करोड़ 42 लाख 45 हजार ईसाई थे। इस क्रम में अभिवृद्धि के अनुसार अनुमान है कि 1981 तक कुल 68 करोड़ जनसंख्या में हिन्दू, मुसलमान और ईसाइयों का प्रतिशत इस प्रकार है—हिन्दू 82 प्रतिशत, मुसलमान 12 प्रतिशत और ईसाई 3 प्रतिशत।
उपरोक्त आंकड़े इस तथ्य का बोध कराते हैं कि मुस्लिम और ईसाइयों की तुलना में हिन्दू धर्मावलम्बियों की औसत अभिवृद्धि के अनुपात में निरन्तर ह्रास हुआ है। समीक्षकों का मत है कि हिन्दुओं के एक वर्ग ने हिन्दु धर्म से कटकर दूसरे धर्म ग्रहण कर लिए हैं।
मन बहलाव के लिए इस धर्म परिवर्तन का कारण कुछ भी बताया जा सकता है पर तथ्यान्वेषी जानते हैं कि ऊंच-नीच, छुआछूत की भावना के कारण निम्न वर्ग सदा अपने को तिरस्कृत और उपेक्षित समझता रहा। अपने ही भाइयों द्वारा विधर्मियों जैसा व्यवहार किए जाने के कारण ऐसे वर्ग के समक्ष धर्म परिवर्तन के अतिरिक्त दूसरा रास्ता नहीं बचता। दूसरे धर्म को मानने वाले इस कमजोरी का लाभ उठाते और अपनी सहिष्णुता का परिचय देकर धर्म परिवर्तन के लिए सहमत कर लेते हैं।
कुछ लोगों का मत है कि बलात् धर्म परिवर्तन भी हिन्दू धर्मावलम्बियों की संख्या में हुए ह्रास का एक कारण रहा है। विचार करने पर यह बात उतनी सच नहीं जान पड़ती। यह सच तो है कि इस तरह के कुचक्र समय-समय पर विभिन्न सम्प्रदायों को मानने वालों द्वारा चलाये जाते रहे हैं और सम्भवतः भविष्य में भी प्रचलित रहें। पर यह कुचक्र धर्म परिवर्तन का उतना बड़ा कारण नहीं है जितनी की स्वयं की कमजोरियां। इतिहास के पन्ने पलटने पर यह पता चलता है कि मुस्लिम आक्रान्ताओं आतताइयों द्वारा कितनी ही बार इस तरह के घिनौने प्रयास किए गये हैं जिसमें अधिकांशतः उपेक्षित, तिरस्कृत और जाति तथा वर्ण की दृष्टि निम्न कहा जाने वाला वर्ग ही कट कर अलग हुआ। पर ऐसे साहसियों की भी कमी नहीं रही जिन्होंने धर्म और संस्कृति के लिए हंसते-हंसते अपने जीवन की बलि दे दी, पर झुके नहीं। धर्म परिवर्तन की कीमत पर उन्होंने प्राणदान की भीख स्वीकार न की। बन्दा वैरागी, जोरावरसिंह, गुरु गोविन्दसिंह ने जीवन उत्सर्ग कर दिया पर मुस्लिम धर्म को अंगीकार न किया। प्रश्न सिद्धान्तों का था। मध्यकालीन इतिहास के पृष्ठों में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। इसके विपरीत थोड़े जोर, दबाव और प्रलोभनों में आकर धर्म परिवर्तन करने वालों के भी असंख्यों उदाहरण हैं। आतंक, जोर, जबरदस्ती का जमाना तो गया तो भी धर्म परिवर्तन का सिलसिला अभी भी बना हुआ है। ईसाई मिशनरियां विश्व में द्रुतगति से बढ़ रही हैं। भारत में भी उनका विस्तार हुआ है। अपने कुचक्रों द्वारा उन्होंने भी हिन्दू धर्म की छूत-अछूत रूपी कमजोरी का लाभ उठाया है। आये दिन समाचार पत्रों में यह प्रकाशित होता रहता है कि कितने ही व्यक्तियों ने ईसाई धर्म वरण कर लिया। अभी कल-परसों की ही घटना प्रकाश में आई है कि तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में अनेकों हिन्दुओं (हरिजनों) ने मुस्लिम धर्म अपना लिया।
धर्म परिवर्तन की ये घटनाएं हिन्दू धर्म पर लगी छुआछूत रूपी कालिमा की ओर संकेत करती हैं जिसके कारण अछूत समझी जाने वाली जातियों में से बड़ी संख्या दूसरे धर्मों में जाकर विलीन हो गई। अपनों से तिरस्कार अपमान और उपेक्षा मिलने पर मनुष्य ठांव वहां ढूंढ़ता है जहां उसे सम्मान—मानवोचित अधिकार प्राप्त हो।
घर से वही लड़के भागते हैं और बागी बनते हैं जिन्हें अपने परिवार में स्नेह सम्मान नहीं मिलता। जहां अपनत्व होगा जिनसे अपनापन जुड़ा होगा उन्हें विकट से विकट परिस्थितियों में भी छोड़ते नहीं बनता। दुःख-कष्ट उठाकर भी मनुष्य उनसे जुड़ा रहता है। धर्म परिवर्तन का कारण वस्तुतः भेदभाव एवं ऊंच-नीच की भावना ही रही है।
प्रगतिशीलता के इस युग में समस्त विश्व एक मुहल्ले में सिमटता जा रहा है। धर्म और संस्कृति को कलंकित करने वाली ऊंच-नीच, छुआछूत की संकीर्ण भावना अपने समाज में बनी रही तो प्रगति की दिशा में अग्रगमन कर सकना कतई सम्भव नहीं होगा। उल्टे भारतीय धर्मानुयायियों की संख्या में धर्म परिवर्तन जैसे कृत्यों से निरन्तर ह्रास ही होगा।
भारत में हिन्दू धर्मानुयायियों की संख्या में अन्य धर्मों की तुलना में औसतन कम बढ़ोतरी हुई है जबकि मुस्लिम और क्रिश्चियन धर्म को मानने वालों की संख्या में औसतन उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। भारत की पहली जनगणना सन् 1881 में हुई थी। उस समय हिन्दू और मुस्लिमों की जन संख्या का औसत इस प्रकार था। कुल जन संख्या में पिचहत्तर प्रतिशत हिन्दू थे और बीस प्रतिशत मुसलमान। शेष बौद्ध और ईसाई धर्म को मानने वाले थे। मुसलमानों की कुल संख्या 4 करोड़ 99 लाख 53 हजार थी। 60 वर्षों बाद सन् 1941 में मुसलमानों की संख्या बढ़कर 9 करोड़ 44 लाख 40 हजार अर्थात् देश की कुल जन संख्या की लगभग 14 प्रतिशत हो गई जबकि हिन्दुओं का औसत घटकर मात्र 69 प्रतिशत रह गया।
सन् 1881 और सन् 1941 के मध्य अवधि में मुस्लिम जन संख्या में 89 प्रतिशत की तथा ईसाई जन संख्या में 318 प्रतिशत की वृद्धि हुई। जबकि हिन्दू मात्र 44 प्रतिशत ही बढ़े। इस तरह तुलनात्मक औसत वृद्धि की दृष्टि से 1881 से 1941 के 60 वर्षों में पूरे भारत में 53 हिन्दू प्रति हजार घटे और 43 मुस्लिम प्रति हजार बढ़े।
हिन्दुस्तान, पाकिस्तान विभाजन के बाद 1951 में हिन्दू, मुस्लिम और ईसाइयों की कुल जन संख्या में प्रतिशत इस प्रकार था—हिन्दू 85 प्रतिशत, मुस्लिम 9.91 प्रतिशत और ईसाई 2.35। सन् 1961 की जन गणना में हिन्दुओं का कुल प्रतिशत घटकर 83.50 रह गया जबकि मुसलमानों और ईसाइयों की कुल जन संख्या के अनुपात में वृद्धि हुई। सन् 1961 में मुसलमानों की जनसंख्या 10.70 प्रतिशत तथा ईसाइयों की 2.44 प्रतिशत थी। इस तरह 1961 में छत्तीस करोड़ पैंसठ लाख एक हजार तीन सौ के लगभग हिन्दू, चार करोड़ 69 लाख 39 हजार 746 मुसलमान तथा एक करोड़ सात लाख 26 हजार चार सौ ईसाई थे। सन् 1970 में जन संख्या वृद्धि के औसत अनुपात में हिन्दुओं की संख्या और भी घटी। जन गणना रिपोर्टानुसार कुल जनसंख्या में 82.72 प्रतिशत हिन्दू अर्थात् पैंतालीस करोड़ चौबीस लाख छत्तीस हजार छह सौ तीस हिन्दू, 11.20 प्रतिशत मुसलमान अर्थात् 6 करोड़ चौदह लाख अठारह हजार 269 तथा 2.67 प्रतिशत—एक करोड़ 42 लाख 45 हजार ईसाई थे। इस क्रम में अभिवृद्धि के अनुसार अनुमान है कि 1981 तक कुल 68 करोड़ जनसंख्या में हिन्दू, मुसलमान और ईसाइयों का प्रतिशत इस प्रकार है—हिन्दू 82 प्रतिशत, मुसलमान 12 प्रतिशत और ईसाई 3 प्रतिशत।
उपरोक्त आंकड़े इस तथ्य का बोध कराते हैं कि मुस्लिम और ईसाइयों की तुलना में हिन्दू धर्मावलम्बियों की औसत अभिवृद्धि के अनुपात में निरन्तर ह्रास हुआ है। समीक्षकों का मत है कि हिन्दुओं के एक वर्ग ने हिन्दु धर्म से कटकर दूसरे धर्म ग्रहण कर लिए हैं।
मन बहलाव के लिए इस धर्म परिवर्तन का कारण कुछ भी बताया जा सकता है पर तथ्यान्वेषी जानते हैं कि ऊंच-नीच, छुआछूत की भावना के कारण निम्न वर्ग सदा अपने को तिरस्कृत और उपेक्षित समझता रहा। अपने ही भाइयों द्वारा विधर्मियों जैसा व्यवहार किए जाने के कारण ऐसे वर्ग के समक्ष धर्म परिवर्तन के अतिरिक्त दूसरा रास्ता नहीं बचता। दूसरे धर्म को मानने वाले इस कमजोरी का लाभ उठाते और अपनी सहिष्णुता का परिचय देकर धर्म परिवर्तन के लिए सहमत कर लेते हैं।
कुछ लोगों का मत है कि बलात् धर्म परिवर्तन भी हिन्दू धर्मावलम्बियों की संख्या में हुए ह्रास का एक कारण रहा है। विचार करने पर यह बात उतनी सच नहीं जान पड़ती। यह सच तो है कि इस तरह के कुचक्र समय-समय पर विभिन्न सम्प्रदायों को मानने वालों द्वारा चलाये जाते रहे हैं और सम्भवतः भविष्य में भी प्रचलित रहें। पर यह कुचक्र धर्म परिवर्तन का उतना बड़ा कारण नहीं है जितनी की स्वयं की कमजोरियां। इतिहास के पन्ने पलटने पर यह पता चलता है कि मुस्लिम आक्रान्ताओं आतताइयों द्वारा कितनी ही बार इस तरह के घिनौने प्रयास किए गये हैं जिसमें अधिकांशतः उपेक्षित, तिरस्कृत और जाति तथा वर्ण की दृष्टि निम्न कहा जाने वाला वर्ग ही कट कर अलग हुआ। पर ऐसे साहसियों की भी कमी नहीं रही जिन्होंने धर्म और संस्कृति के लिए हंसते-हंसते अपने जीवन की बलि दे दी, पर झुके नहीं। धर्म परिवर्तन की कीमत पर उन्होंने प्राणदान की भीख स्वीकार न की। बन्दा वैरागी, जोरावरसिंह, गुरु गोविन्दसिंह ने जीवन उत्सर्ग कर दिया पर मुस्लिम धर्म को अंगीकार न किया। प्रश्न सिद्धान्तों का था। मध्यकालीन इतिहास के पृष्ठों में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। इसके विपरीत थोड़े जोर, दबाव और प्रलोभनों में आकर धर्म परिवर्तन करने वालों के भी असंख्यों उदाहरण हैं। आतंक, जोर, जबरदस्ती का जमाना तो गया तो भी धर्म परिवर्तन का सिलसिला अभी भी बना हुआ है। ईसाई मिशनरियां विश्व में द्रुतगति से बढ़ रही हैं। भारत में भी उनका विस्तार हुआ है। अपने कुचक्रों द्वारा उन्होंने भी हिन्दू धर्म की छूत-अछूत रूपी कमजोरी का लाभ उठाया है। आये दिन समाचार पत्रों में यह प्रकाशित होता रहता है कि कितने ही व्यक्तियों ने ईसाई धर्म वरण कर लिया। अभी कल-परसों की ही घटना प्रकाश में आई है कि तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में अनेकों हिन्दुओं (हरिजनों) ने मुस्लिम धर्म अपना लिया।
धर्म परिवर्तन की ये घटनाएं हिन्दू धर्म पर लगी छुआछूत रूपी कालिमा की ओर संकेत करती हैं जिसके कारण अछूत समझी जाने वाली जातियों में से बड़ी संख्या दूसरे धर्मों में जाकर विलीन हो गई। अपनों से तिरस्कार अपमान और उपेक्षा मिलने पर मनुष्य ठांव वहां ढूंढ़ता है जहां उसे सम्मान—मानवोचित अधिकार प्राप्त हो।
घर से वही लड़के भागते हैं और बागी बनते हैं जिन्हें अपने परिवार में स्नेह सम्मान नहीं मिलता। जहां अपनत्व होगा जिनसे अपनापन जुड़ा होगा उन्हें विकट से विकट परिस्थितियों में भी छोड़ते नहीं बनता। दुःख-कष्ट उठाकर भी मनुष्य उनसे जुड़ा रहता है। धर्म परिवर्तन का कारण वस्तुतः भेदभाव एवं ऊंच-नीच की भावना ही रही है।
प्रगतिशीलता के इस युग में समस्त विश्व एक मुहल्ले में सिमटता जा रहा है। धर्म और संस्कृति को कलंकित करने वाली ऊंच-नीच, छुआछूत की संकीर्ण भावना अपने समाज में बनी रही तो प्रगति की दिशा में अग्रगमन कर सकना कतई सम्भव नहीं होगा। उल्टे भारतीय धर्मानुयायियों की संख्या में धर्म परिवर्तन जैसे कृत्यों से निरन्तर ह्रास ही होगा।