Books - देव संस्कृति की गौरव गरिमा अक्षुण्य रहे
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Language: HINDI
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सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना धर्म तंत्र से ही सम्भव होगी
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किन्हीं देशों में किन्हीं अन्य माध्यमों से सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिवर्तन हुए हों परन्तु भारत में कोई भी परिवर्तन धर्म तन्त्र का सहारा लिए बिना सम्भव नहीं हुआ है। इतिहास का पन्ना-पन्ना इस बात का साक्षी है। स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय जनमानस के बारे में यहां तक कहा है कि—‘यदि आपको भारत में नास्तिकवाद का भी प्रचार करना है तो लोग आपकी बात तभी सुनने को तैयार होंगे जब आप उस विचार को धर्म का कलेवर दोगे।’
इन दिनों जिस सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक क्रांति की आवश्यकता अनुभव की जा रही है, उसका समर्थ माध्यम भी केवल धर्म तन्त्र ही हो सकता है। क्योंकि रूढ़ और प्रतिगामी होते हुए भी जनसाधारण के मन मस्तिष्क में धर्म का जो स्थान है वह अन्य किसी तन्त्र, विचारधारा या दर्शन से सम्भव नहीं है। साथ ही ऐसा भी नहीं है कि भारत में धर्म तन्त्र ऐसा निकम्मा है, जिसके माध्यम से जनमानस में परिवर्तन हो सके।
धर्म तन्त्र के माध्यम से जनमानस में परिवर्तन करने की आवश्यकता पूरी करने की हमारे देश में पूरी संभावना है। इन दिनों यद्यपि धर्म मंच प्रतिगामी हाथों में है और उससे प्रतिगामी प्रेरणायें ही मिलती हैं फिर भी इतनी अधिक जन शक्ति और धनशक्ति इस तन्त्र में लगी हुई है कि उसके सदुपयोग का प्रयत्न किया जाय तो सुखद परिवर्तन की आशा की जा सकती है। उदाहरण के लिए मन्दिरों को ही लें। भारत में गांवों और शहरों की कुल संख्या छह लाख है। एक स्थान पर कम से कम एक मंदिर तो बनाना ही चाहिए। यद्यपि मामूली गांवों और कस्बों में कई-कई देवताओं के कई-कई मन्दिर भी होते हैं फिर भी औसतन एक गांव में एक का औसत भी मानें तो मंदिरों की संख्या छह लाख होती है।
इन छह लाख मन्दिरों में कम से कम छह लाख पुजारी तो होंगे ही, उनके परिवार भी हैं। इस प्रकार छह लाख परिवारों का श्रम-समय मन्दिरों में ही लग जाता है।
इन छह लाख मन्दिरों में सैकड़ों मन्दिर ऐसे हैं जिनकी लागत लाखों में नहीं करोड़ों में है। लाखों की लागत वाले मन्दिर तो हजारों होंगे। यदि एक मन्दिर की औसत लागत 20 हजार भी मानी जाये तो छह लाख मन्दिरों की इमारत लागत 1200 करोड़ रुपये होती है। इसके अतिरिक्त मन्दिरों का खर्चा चलाने के लिए स्थाई फण्ड सर्वत्र है। किसी मन्दिर से कृषि लगी हुई है तो किसी से मकान जायदाद। यह पूंजी भी कम से कम 20 हजार तो मानी ही जा सकती है। इससे कम की ब्याज या आमदनी से छोटे मन्दिर का भी खर्च नहीं चल सकता। इस प्रकार यह रकम भी निर्माण पूंजी के बराबर अर्थात् 1200 करोड़ हो जाती है। मन्दिरों का इमारती मूल्य और स्थिर पूंजी दोनों ही मिलाकर करीब 2400 करोड़ होते हैं।
इतने विशाल धन सम्पत्ति का उपयोग यदि ठीक तरह समाज के पुनरुत्थान में हो सके तो उसके चमत्कारी सत्परिणाम सामने आ सकते हैं। माना कि मन्दिरों की शक्ति का व्यय स्थूल भौतिक प्रयोजनों के लिए नहीं किया जाना चाहिए—न किया जाय, पर बौद्धिक, भावनात्मक, सांस्कृतिक एवं नैतिक विकास के कार्यक्रम भी क्या कम हैं। इन दिशाओं में अभी बहुत काम होना है। देश जितना आर्थिक एवं भौतिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है, उससे भी अधिक भावनात्मक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। उस पिछड़ेपन को दूर किया जा सके तो भौतिक एवं आर्थिक विकास की दिशा में भी कारगर कदम उठाये जा सकते हैं।
प्राचीनकाल में जब मन्दिरों का निर्माण हुआ तो उन का प्रमुख उद्देश्य जन मानस में धार्मिकता की निष्ठा जमाना और उस निष्ठा को आगे बढ़ाना था। उस समय ऋषियों और मनीषियों के मस्तिष्क में एक ही प्रयोजन था कि इन धर्म संस्थानों के माध्यम से जन मानस में धर्म धारणा का जागरण एवं अभिवर्धन किया जाता रहे। मन्दिर एक प्रकार के धर्म संस्थान हैं। प्राचीनकाल में ये धर्म संस्थान मात्र देवपूजन के केन्द्र ही नहीं होते थे वरन् उनमें वे समस्त रचनात्मक प्रवृत्तियां भी पलती थीं जो जन-कल्याण के लिए आवश्यक थीं। मन्दिर एक प्रकाश-स्तम्भ की तरह होते थे। अपने क्षेत्र में मानवीय उत्कर्ष एवं कल्याण के सभी सम्भव आयोजन करना उनका उद्देश्य होता था। पुजारी या महन्त का एक मात्र उद्देश्य जन जीवन में सत्प्रेरणायें उत्पन्न करने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना ही था। मन्दिर रूपी धर्म संस्था उन सभी सत्प्रवृत्तियों का केन्द्र रहती थी जो उस समय की आवश्यकताओं के लिए अभीष्ट होती थी। जिस प्रकार शासन तन्त्र के कचहरी, कार्यालय आदि होते हैं उसी तरह धर्मतन्त्र के कार्यालय मन्दिर होते थे। भ्रमण करने वाले परिव्राजक साधु-सन्त वहां ठहरते थे। अफसरों के दौरे के समय जो उद्देश्य डाक-बंगलों और इन्स्पेक्शन हाउसों से पूरा होता है, वही सुविधा मन्दिरों में परिव्राजक साधुओं एवं धर्म प्रचारकों को मिलती थी।
आज मन्दिरों के कलेवर में कहां क्या होता है? इसे जानते हुए भी अधिक कुछ कहना आवश्यक नहीं है। आवश्यकता केवल इतनी भर है कि इस पवित्र संस्था में जो विकृतियां आ गई हैं उन्हें दूर किया जाय और उनके आज के अनुपयोगी स्वरूप को पुनः उपयोगी बनाया जाय। आज की अव्यवस्था से क्षोभ होना अस्वाभाविक नहीं है। इस क्षोभ के आवेश में ही कई व्यक्ति मूर्ति पूजा एवं मंदिरवाद का खण्डन करने लगे हैं। यह अनुचित तो है ही, असम्भव भी है। मूर्तिपूजा एवं मन्दिर संस्था की नींव अब इतनी गहरी जा चुकी है कि उसे उखाड़ने के लिए प्रयत्न करना अपनी शक्ति का अपव्यय करना ही होगा। विचार किया जाना चाहिए कि प्रत्यक्षतः कोई उपयोगिता नहीं दिखाई देने पर भी लोग इन धर्म संस्थानों के प्रति इतने श्रद्धालु हैं कि अपना पेट काटकर इनके लिए साधन व्यवस्था जुटाते रहते हैं तो उपयोगी हो जाने पर तो और अधिक सहयोग मिल सकता है।
धर्ममंच में लगी जनशक्ति और उसकी निर्वाह व्यवस्था का उपरोक्त विवरण तो एक अंश मात्र है। मन्दिरों के अतिरिक्त आश्रमों, अखाड़ों, साधु-सन्तों की निर्वाह-व्यवस्था का एक बड़ा भाग अभी नहीं गिना है। उन सबको शामिल किया जाय तो कल्पना करना मुश्किल होगा कि जनमानस धर्म के प्रति कितना आस्थावान और कितना श्रद्धा सम्पन्न है।
खेद है कि इस महत्वपूर्ण माध्यम का अभी सदुपयोग नहीं हो रहा है और जनमानस के निर्माण के अभाव में सारे प्रगति प्रयास अधूरे पड़े हैं। अपने देश की, आज की स्थिति पर यदि गम्भीरता से विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि उसका सुधार धर्म तन्त्र के माध्यम से लोक शिक्षण के बिना सम्भव नहीं होगा। उदाहरण के लिए दरिद्रता को ही लें। दरिद्रता अभिशाप है और उसके कारण मनुष्य की स्थिरता और प्रगति में भारी बाधा पड़ती है। यह तथ्य सर्वमान्य है पर यह भी भुला नहीं देना चाहिए कि हाथ पैर और मस्तिष्क रहते हुए भी यदि मनुष्य दरिद्र रहता है तो इसमें सबसे बड़ा कारण उसका मानसिक पिछड़ापन ही हो सकता है।
अपने समाज को व्याप्त कुरीतियों ने जितनी हानि पहुंचाई है उतनी विदेशी दासता ने भी नहीं पहुंचाई होगी। बात को यों भी कहा जा सकता है कि लम्बी राजनैतिक पराधीनता का बहुत बड़ा करण अपने सामाजिक ढांचे और चिन्तन स्तर में खोखलापन घुस जाना ही रहा है अन्यथा इतनी बड़ी जनसंख्या का, इतनी सामर्थ्य और परम्परा का धनी देश इतने समय तक इस प्रकार के उत्पीड़न और अपमान का शिकार नहीं रहता।
जाति-उपजातियों के आधार पर प्रचलित ऊंच-नीच और अपने विराने की मान्यता ने एक समाज को अनेक समाजों में विभक्त करके रख दिया है। मत-मतांतरों और संप्रदायों ने एक ही धर्म के टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिये हैं और एक ही संस्कृति के अनुयायियों के बीच गहरी खाइयां खोदकर खड़ी कर दी हैं। आधी जनसंख्या नारी वर्ग को प्रतिबन्धित और पद-दलित स्थिति में पटक दिये जाने के कारण समाज अर्धांग पक्षाघात से पीड़ित की तरह अपंग बन गया है। आधी जनसंख्या दुर्दशाग्रस्त स्थिति में रहे तो उसकी आर्थिक तथा सामाजिक परिस्थितियां दयनीय रहेंगी ही। पिछड़ी नारी प्रतिभा सम्पन्न पीढ़ियों का निर्माण कैसे कर सकेगी और कैसे उस पिछड़ेपन के रहते हुए परिवारों के वातावरण में हर्षोल्लास की अनुभूतियां जीवन्त रह सकेंगी।
विवाह-शादियों में जितना खर्च होता है उसके रहते आर्थिक स्थिरता बने रहना असम्भव ही है। जो कमाया जाता है वह शादियों में स्वाहा हो जाता है। वह पैसा बच सका होता और पूंजी बनकर प्रगति के आधार खड़े करता तो आज अपने देश में हर ओर खुशहाली दृष्टिगोचर होती, पर इस दुर्भाग्य को क्या कहा जाय कि शादियों में होने वाले अपव्यय के रूप में हमारे उपार्जन का अधिकाधिक भाग होली की तरह जलता रहता है। मृतकभोज अलन-चलन, देवी-देवता भिक्षुकों की सेना द्वारा खड़े किये जाने वाले नित नये आडम्बर सब मिलकर समाज पर इतना अधिक आर्थिक दबाव डालते हैं कि उत्पादन प्रयत्नों की उपलब्धि जलते तवे पर पानी की बूंदों के समान भाप बनकर उड़ जाती है।
जाति-उपजाति छूत-अछूत, वर्ग-संप्रदायों के खाई-खन्दक हमें एक जाति, एक राष्ट्र की तरह सुगठित और सशक्त नहीं बनने देंगे और भीतर की दुर्बलतायें बार-बार उभर-उभर कर आती रहेंगी। अस्तु सशक्तता बढ़ाने के लिए पौष्टिक भोजन जुटाने की तरह यह भी आवश्यक है कि भीतर ही भीतर खोखलापन उत्पन्न कर रही बीमारियों का उपचार किया जाय अन्यथा बलिष्ठता उत्पन्न करने की विशालकाय तैयारी रक्त में घुली बीमारी से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों की तरह उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं को कभी भी मूर्तिमान नहीं होने देगी।
दरिद्रता की तरह शिक्षा की कमी भी अपने पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण है, यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि सरकारी स्कूलों की योजना से अशिक्षा का समग्र उन्मूलन सम्भव न हो सकेगा। उसके लिए भी भावनात्मक वातावरण बनाना होगा और जिस तरह लोग अपने पुरुषार्थ से रोटी कमाते हैं, सरकार से मांगने नहीं जाते, उसी प्रकार अपनी और अपने परिवार की शिक्षा-व्यवस्था जुटाने की आवश्यकता जब अनिवार्य समझी जायेगी तो अन्य दैनिक साधन जुटाने की तरह ही शिक्षा का प्रबन्ध स्वतः किया जायेगा।
चाहे दरिद्रता हो चाहे अशिक्षा। सभी दुर्बलताएं मनुष्य के पिछड़े हुए चिन्तन एवं दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया हैं। यदि इस वस्तु स्थिति को समझ लिया जाय तो पत्ते सींचने के साथ-साथ जड़ सींचने की आवश्यकता भी अनुभव की जायेगी और वह ठोस आधार हस्तगत हो जायेगा जिससे व्यापक दुःख-दैन्य से स्थाई मुक्ति मिल जायेगी। अस्तु, जनमानस में विवेकशीलता उत्पन्न करना अपने युग का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। यदि सोचने की सही दिशा और कार्य करने की सही शैली उपलब्ध हो सके तो हर मनुष्य अपने साधनों में ही समुचित उपार्जन कर सकता है और आगे बढ़ने का रास्ता निकाल सकता है तथा अपनी एवं समाज की समस्याओं के समाधान में समुचित योगदान दे सकता है। ऐसी स्थिति में दरिद्रता जैसी अनेकों समस्याओं को अपने बलबूते पर ही हल किया जा सकता है। यदि इस तथ्य की ओर ध्यान दिया जा सके तो प्रतीत होगा कि आर्थिक उन्नति की तरह ही सोचने की परिष्कृत एवं प्रगतिशील पद्धति से जनसाधारण को परिचित कराया जाना भी उतना ही आवश्यक है और उतना ही महत्वपूर्ण है। इस आवश्यकता को अनुभव करने के बाद इसकी पूर्ति के लिए अविलम्ब व्यवस्था जुटाई जानी चाहिए।
कहना नहीं होगा कि यह आवश्यकता प्रभावपूर्ण लोकशिक्षण से ही पूरी हो सकती है। विचारणीय यह है कि भारत के लोकमानस में मानवतावादी सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की स्थापना किस पृष्ठभूमि पर हो सकती है तथा उन्हें उपयोगी गतिविधियां अपनाने के लिए किस आधार पर सहमत किया जा सकता है। यहां यह तथ्य ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अपने देश की तीन-चौथाई जनता अशिक्षित है और आबादी की दृष्टि से प्रायः तीन चौथाई जनता छोटे देहातों में ही रहती है। आज की अपनी जनसंख्या 60 करोड़ में से करीब 51 करोड़ अशिक्षित तथा उतने ही देहाती हैं—यही है असली भारत। शिक्षितों को उपयोगी जानकारियां देने के लिए पुस्तकें, पत्रिकायें हैं तो शहरी लोगों के लिए सभायें, संस्थायें, अपने-अपने ढंग से काम करती रहती हैं। समस्या 51 करोड़ लोगों की है, जिनके लिए प्रगति का मार्गदर्शन करने वाले उपयुक्त माध्यमों का खटकने वाला अभाव सामने खड़ा है।
धर्म भारतीय जनता का प्रिय विषय भी है। अस्तु, बात का सिलसिला उस से जोड़कर वैसे ही उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वे तथ्य हृदयंगम कराये जा सकते हैं, जिन्हें आज की स्थिति में समझाना और अपनाया जाना आवश्यक है। पहले भी इस तरह के कई प्रयोग सफलतापूर्वक किये जा चुके हैं। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र भर में करीब 800 हनुमान मन्दिर स्थापित किये थे और उनके माध्यम से छत्रपति शिवाजी की सेना के लिए रसद एवं सैनिकों की आवश्यकता पूरी की जाती थी। उन मन्दिरों में सेवा पूजा करने वाले महन्त वस्तुतः समर्थ गुरु की धर्म सेना के सैनिक मात्र थे। वे भगवान हनुमान के पूजन, वन्दन, आरती, प्रसाद की व्यवस्था करते थे, पर साथ ही यह भी जानते थे कि अधर्म के नाश और धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम देने वाले अंजनी कुमार की कृपा केवल उसे ही मिलेगी जो उनके आदर्शों को अपनायेगा। हर पुजारी, हर हनुमान भक्त उन दिनों हनुमान का अनुयायी बनने और असुरता के शासन को उखाड़ने में लगा हुआ था।
गुरु गोविन्द सिंह ने सिक्ख सम्प्रदाय के गुरुद्वारों को सैनिक छावनियों केप में विकसित किया था। वहां कीर्तन, पाठ-पूजन, आरती-प्रसाद आदि सब कुछ होता था पर साथ ही यह उद्देश्य हर सिक्ख के मस्तिष्क में भरा था कि उन्हें अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना है और आसुरी नृशंसता को परास्त करके धर्मराज्य की स्थापना करनी है।
जो कार्य समर्थ गुरु रामदास द्वारा परिष्कृत हनुमान मन्दिरों ने और सिक्ख गुरुद्वारों ने किया प्राचीनकाल में अपनी-अपनी सामयिक परिस्थितियों के अनुसार हर मंदिर करता था। उनकी सेवा से सारा समाज लाभान्वित होता था और धर्म की महत्वपूर्ण सेवा बन पड़ती थी। वर्तमान परिस्थितियों में भी यही पद्धति उपयुक्त है। परिवर्तन के लिए समग्र प्रगति के लिए धर्म तन्त्र का आश्रय लेने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। इसके लिए धर्मतन्त्र का आश्रय लेकर उसकी कथा-गाथाओं की संगति मिलाते हुए व्यक्ति परिवार और समाज की समस्त समस्याओं का हल हृदयंगम कराया जाय तथा उन्हें प्रगतिशील गतिविधियां अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। धार्मिक आयोजनों में भावनात्मक वातावरण बनता है—उसमें गरम लोहे से उपकरण ढालने जैसी बात और भी आसानी से बन सकती है। यह प्रयोग प्राचीनकाल से चलता रहा है और अपने समय के मांग को पूरा करने के लिए इस प्रक्रिया को व्यापक बनाना अत्यन्त आवश्यक है।
इन दिनों जिस सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक क्रांति की आवश्यकता अनुभव की जा रही है, उसका समर्थ माध्यम भी केवल धर्म तन्त्र ही हो सकता है। क्योंकि रूढ़ और प्रतिगामी होते हुए भी जनसाधारण के मन मस्तिष्क में धर्म का जो स्थान है वह अन्य किसी तन्त्र, विचारधारा या दर्शन से सम्भव नहीं है। साथ ही ऐसा भी नहीं है कि भारत में धर्म तन्त्र ऐसा निकम्मा है, जिसके माध्यम से जनमानस में परिवर्तन हो सके।
धर्म तन्त्र के माध्यम से जनमानस में परिवर्तन करने की आवश्यकता पूरी करने की हमारे देश में पूरी संभावना है। इन दिनों यद्यपि धर्म मंच प्रतिगामी हाथों में है और उससे प्रतिगामी प्रेरणायें ही मिलती हैं फिर भी इतनी अधिक जन शक्ति और धनशक्ति इस तन्त्र में लगी हुई है कि उसके सदुपयोग का प्रयत्न किया जाय तो सुखद परिवर्तन की आशा की जा सकती है। उदाहरण के लिए मन्दिरों को ही लें। भारत में गांवों और शहरों की कुल संख्या छह लाख है। एक स्थान पर कम से कम एक मंदिर तो बनाना ही चाहिए। यद्यपि मामूली गांवों और कस्बों में कई-कई देवताओं के कई-कई मन्दिर भी होते हैं फिर भी औसतन एक गांव में एक का औसत भी मानें तो मंदिरों की संख्या छह लाख होती है।
इन छह लाख मन्दिरों में कम से कम छह लाख पुजारी तो होंगे ही, उनके परिवार भी हैं। इस प्रकार छह लाख परिवारों का श्रम-समय मन्दिरों में ही लग जाता है।
इन छह लाख मन्दिरों में सैकड़ों मन्दिर ऐसे हैं जिनकी लागत लाखों में नहीं करोड़ों में है। लाखों की लागत वाले मन्दिर तो हजारों होंगे। यदि एक मन्दिर की औसत लागत 20 हजार भी मानी जाये तो छह लाख मन्दिरों की इमारत लागत 1200 करोड़ रुपये होती है। इसके अतिरिक्त मन्दिरों का खर्चा चलाने के लिए स्थाई फण्ड सर्वत्र है। किसी मन्दिर से कृषि लगी हुई है तो किसी से मकान जायदाद। यह पूंजी भी कम से कम 20 हजार तो मानी ही जा सकती है। इससे कम की ब्याज या आमदनी से छोटे मन्दिर का भी खर्च नहीं चल सकता। इस प्रकार यह रकम भी निर्माण पूंजी के बराबर अर्थात् 1200 करोड़ हो जाती है। मन्दिरों का इमारती मूल्य और स्थिर पूंजी दोनों ही मिलाकर करीब 2400 करोड़ होते हैं।
इतने विशाल धन सम्पत्ति का उपयोग यदि ठीक तरह समाज के पुनरुत्थान में हो सके तो उसके चमत्कारी सत्परिणाम सामने आ सकते हैं। माना कि मन्दिरों की शक्ति का व्यय स्थूल भौतिक प्रयोजनों के लिए नहीं किया जाना चाहिए—न किया जाय, पर बौद्धिक, भावनात्मक, सांस्कृतिक एवं नैतिक विकास के कार्यक्रम भी क्या कम हैं। इन दिशाओं में अभी बहुत काम होना है। देश जितना आर्थिक एवं भौतिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है, उससे भी अधिक भावनात्मक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। उस पिछड़ेपन को दूर किया जा सके तो भौतिक एवं आर्थिक विकास की दिशा में भी कारगर कदम उठाये जा सकते हैं।
प्राचीनकाल में जब मन्दिरों का निर्माण हुआ तो उन का प्रमुख उद्देश्य जन मानस में धार्मिकता की निष्ठा जमाना और उस निष्ठा को आगे बढ़ाना था। उस समय ऋषियों और मनीषियों के मस्तिष्क में एक ही प्रयोजन था कि इन धर्म संस्थानों के माध्यम से जन मानस में धर्म धारणा का जागरण एवं अभिवर्धन किया जाता रहे। मन्दिर एक प्रकार के धर्म संस्थान हैं। प्राचीनकाल में ये धर्म संस्थान मात्र देवपूजन के केन्द्र ही नहीं होते थे वरन् उनमें वे समस्त रचनात्मक प्रवृत्तियां भी पलती थीं जो जन-कल्याण के लिए आवश्यक थीं। मन्दिर एक प्रकाश-स्तम्भ की तरह होते थे। अपने क्षेत्र में मानवीय उत्कर्ष एवं कल्याण के सभी सम्भव आयोजन करना उनका उद्देश्य होता था। पुजारी या महन्त का एक मात्र उद्देश्य जन जीवन में सत्प्रेरणायें उत्पन्न करने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना ही था। मन्दिर रूपी धर्म संस्था उन सभी सत्प्रवृत्तियों का केन्द्र रहती थी जो उस समय की आवश्यकताओं के लिए अभीष्ट होती थी। जिस प्रकार शासन तन्त्र के कचहरी, कार्यालय आदि होते हैं उसी तरह धर्मतन्त्र के कार्यालय मन्दिर होते थे। भ्रमण करने वाले परिव्राजक साधु-सन्त वहां ठहरते थे। अफसरों के दौरे के समय जो उद्देश्य डाक-बंगलों और इन्स्पेक्शन हाउसों से पूरा होता है, वही सुविधा मन्दिरों में परिव्राजक साधुओं एवं धर्म प्रचारकों को मिलती थी।
आज मन्दिरों के कलेवर में कहां क्या होता है? इसे जानते हुए भी अधिक कुछ कहना आवश्यक नहीं है। आवश्यकता केवल इतनी भर है कि इस पवित्र संस्था में जो विकृतियां आ गई हैं उन्हें दूर किया जाय और उनके आज के अनुपयोगी स्वरूप को पुनः उपयोगी बनाया जाय। आज की अव्यवस्था से क्षोभ होना अस्वाभाविक नहीं है। इस क्षोभ के आवेश में ही कई व्यक्ति मूर्ति पूजा एवं मंदिरवाद का खण्डन करने लगे हैं। यह अनुचित तो है ही, असम्भव भी है। मूर्तिपूजा एवं मन्दिर संस्था की नींव अब इतनी गहरी जा चुकी है कि उसे उखाड़ने के लिए प्रयत्न करना अपनी शक्ति का अपव्यय करना ही होगा। विचार किया जाना चाहिए कि प्रत्यक्षतः कोई उपयोगिता नहीं दिखाई देने पर भी लोग इन धर्म संस्थानों के प्रति इतने श्रद्धालु हैं कि अपना पेट काटकर इनके लिए साधन व्यवस्था जुटाते रहते हैं तो उपयोगी हो जाने पर तो और अधिक सहयोग मिल सकता है।
धर्ममंच में लगी जनशक्ति और उसकी निर्वाह व्यवस्था का उपरोक्त विवरण तो एक अंश मात्र है। मन्दिरों के अतिरिक्त आश्रमों, अखाड़ों, साधु-सन्तों की निर्वाह-व्यवस्था का एक बड़ा भाग अभी नहीं गिना है। उन सबको शामिल किया जाय तो कल्पना करना मुश्किल होगा कि जनमानस धर्म के प्रति कितना आस्थावान और कितना श्रद्धा सम्पन्न है।
खेद है कि इस महत्वपूर्ण माध्यम का अभी सदुपयोग नहीं हो रहा है और जनमानस के निर्माण के अभाव में सारे प्रगति प्रयास अधूरे पड़े हैं। अपने देश की, आज की स्थिति पर यदि गम्भीरता से विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि उसका सुधार धर्म तन्त्र के माध्यम से लोक शिक्षण के बिना सम्भव नहीं होगा। उदाहरण के लिए दरिद्रता को ही लें। दरिद्रता अभिशाप है और उसके कारण मनुष्य की स्थिरता और प्रगति में भारी बाधा पड़ती है। यह तथ्य सर्वमान्य है पर यह भी भुला नहीं देना चाहिए कि हाथ पैर और मस्तिष्क रहते हुए भी यदि मनुष्य दरिद्र रहता है तो इसमें सबसे बड़ा कारण उसका मानसिक पिछड़ापन ही हो सकता है।
अपने समाज को व्याप्त कुरीतियों ने जितनी हानि पहुंचाई है उतनी विदेशी दासता ने भी नहीं पहुंचाई होगी। बात को यों भी कहा जा सकता है कि लम्बी राजनैतिक पराधीनता का बहुत बड़ा करण अपने सामाजिक ढांचे और चिन्तन स्तर में खोखलापन घुस जाना ही रहा है अन्यथा इतनी बड़ी जनसंख्या का, इतनी सामर्थ्य और परम्परा का धनी देश इतने समय तक इस प्रकार के उत्पीड़न और अपमान का शिकार नहीं रहता।
जाति-उपजातियों के आधार पर प्रचलित ऊंच-नीच और अपने विराने की मान्यता ने एक समाज को अनेक समाजों में विभक्त करके रख दिया है। मत-मतांतरों और संप्रदायों ने एक ही धर्म के टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिये हैं और एक ही संस्कृति के अनुयायियों के बीच गहरी खाइयां खोदकर खड़ी कर दी हैं। आधी जनसंख्या नारी वर्ग को प्रतिबन्धित और पद-दलित स्थिति में पटक दिये जाने के कारण समाज अर्धांग पक्षाघात से पीड़ित की तरह अपंग बन गया है। आधी जनसंख्या दुर्दशाग्रस्त स्थिति में रहे तो उसकी आर्थिक तथा सामाजिक परिस्थितियां दयनीय रहेंगी ही। पिछड़ी नारी प्रतिभा सम्पन्न पीढ़ियों का निर्माण कैसे कर सकेगी और कैसे उस पिछड़ेपन के रहते हुए परिवारों के वातावरण में हर्षोल्लास की अनुभूतियां जीवन्त रह सकेंगी।
विवाह-शादियों में जितना खर्च होता है उसके रहते आर्थिक स्थिरता बने रहना असम्भव ही है। जो कमाया जाता है वह शादियों में स्वाहा हो जाता है। वह पैसा बच सका होता और पूंजी बनकर प्रगति के आधार खड़े करता तो आज अपने देश में हर ओर खुशहाली दृष्टिगोचर होती, पर इस दुर्भाग्य को क्या कहा जाय कि शादियों में होने वाले अपव्यय के रूप में हमारे उपार्जन का अधिकाधिक भाग होली की तरह जलता रहता है। मृतकभोज अलन-चलन, देवी-देवता भिक्षुकों की सेना द्वारा खड़े किये जाने वाले नित नये आडम्बर सब मिलकर समाज पर इतना अधिक आर्थिक दबाव डालते हैं कि उत्पादन प्रयत्नों की उपलब्धि जलते तवे पर पानी की बूंदों के समान भाप बनकर उड़ जाती है।
जाति-उपजाति छूत-अछूत, वर्ग-संप्रदायों के खाई-खन्दक हमें एक जाति, एक राष्ट्र की तरह सुगठित और सशक्त नहीं बनने देंगे और भीतर की दुर्बलतायें बार-बार उभर-उभर कर आती रहेंगी। अस्तु सशक्तता बढ़ाने के लिए पौष्टिक भोजन जुटाने की तरह यह भी आवश्यक है कि भीतर ही भीतर खोखलापन उत्पन्न कर रही बीमारियों का उपचार किया जाय अन्यथा बलिष्ठता उत्पन्न करने की विशालकाय तैयारी रक्त में घुली बीमारी से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों की तरह उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं को कभी भी मूर्तिमान नहीं होने देगी।
दरिद्रता की तरह शिक्षा की कमी भी अपने पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण है, यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि सरकारी स्कूलों की योजना से अशिक्षा का समग्र उन्मूलन सम्भव न हो सकेगा। उसके लिए भी भावनात्मक वातावरण बनाना होगा और जिस तरह लोग अपने पुरुषार्थ से रोटी कमाते हैं, सरकार से मांगने नहीं जाते, उसी प्रकार अपनी और अपने परिवार की शिक्षा-व्यवस्था जुटाने की आवश्यकता जब अनिवार्य समझी जायेगी तो अन्य दैनिक साधन जुटाने की तरह ही शिक्षा का प्रबन्ध स्वतः किया जायेगा।
चाहे दरिद्रता हो चाहे अशिक्षा। सभी दुर्बलताएं मनुष्य के पिछड़े हुए चिन्तन एवं दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया हैं। यदि इस वस्तु स्थिति को समझ लिया जाय तो पत्ते सींचने के साथ-साथ जड़ सींचने की आवश्यकता भी अनुभव की जायेगी और वह ठोस आधार हस्तगत हो जायेगा जिससे व्यापक दुःख-दैन्य से स्थाई मुक्ति मिल जायेगी। अस्तु, जनमानस में विवेकशीलता उत्पन्न करना अपने युग का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। यदि सोचने की सही दिशा और कार्य करने की सही शैली उपलब्ध हो सके तो हर मनुष्य अपने साधनों में ही समुचित उपार्जन कर सकता है और आगे बढ़ने का रास्ता निकाल सकता है तथा अपनी एवं समाज की समस्याओं के समाधान में समुचित योगदान दे सकता है। ऐसी स्थिति में दरिद्रता जैसी अनेकों समस्याओं को अपने बलबूते पर ही हल किया जा सकता है। यदि इस तथ्य की ओर ध्यान दिया जा सके तो प्रतीत होगा कि आर्थिक उन्नति की तरह ही सोचने की परिष्कृत एवं प्रगतिशील पद्धति से जनसाधारण को परिचित कराया जाना भी उतना ही आवश्यक है और उतना ही महत्वपूर्ण है। इस आवश्यकता को अनुभव करने के बाद इसकी पूर्ति के लिए अविलम्ब व्यवस्था जुटाई जानी चाहिए।
कहना नहीं होगा कि यह आवश्यकता प्रभावपूर्ण लोकशिक्षण से ही पूरी हो सकती है। विचारणीय यह है कि भारत के लोकमानस में मानवतावादी सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की स्थापना किस पृष्ठभूमि पर हो सकती है तथा उन्हें उपयोगी गतिविधियां अपनाने के लिए किस आधार पर सहमत किया जा सकता है। यहां यह तथ्य ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अपने देश की तीन-चौथाई जनता अशिक्षित है और आबादी की दृष्टि से प्रायः तीन चौथाई जनता छोटे देहातों में ही रहती है। आज की अपनी जनसंख्या 60 करोड़ में से करीब 51 करोड़ अशिक्षित तथा उतने ही देहाती हैं—यही है असली भारत। शिक्षितों को उपयोगी जानकारियां देने के लिए पुस्तकें, पत्रिकायें हैं तो शहरी लोगों के लिए सभायें, संस्थायें, अपने-अपने ढंग से काम करती रहती हैं। समस्या 51 करोड़ लोगों की है, जिनके लिए प्रगति का मार्गदर्शन करने वाले उपयुक्त माध्यमों का खटकने वाला अभाव सामने खड़ा है।
धर्म भारतीय जनता का प्रिय विषय भी है। अस्तु, बात का सिलसिला उस से जोड़कर वैसे ही उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वे तथ्य हृदयंगम कराये जा सकते हैं, जिन्हें आज की स्थिति में समझाना और अपनाया जाना आवश्यक है। पहले भी इस तरह के कई प्रयोग सफलतापूर्वक किये जा चुके हैं। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र भर में करीब 800 हनुमान मन्दिर स्थापित किये थे और उनके माध्यम से छत्रपति शिवाजी की सेना के लिए रसद एवं सैनिकों की आवश्यकता पूरी की जाती थी। उन मन्दिरों में सेवा पूजा करने वाले महन्त वस्तुतः समर्थ गुरु की धर्म सेना के सैनिक मात्र थे। वे भगवान हनुमान के पूजन, वन्दन, आरती, प्रसाद की व्यवस्था करते थे, पर साथ ही यह भी जानते थे कि अधर्म के नाश और धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम देने वाले अंजनी कुमार की कृपा केवल उसे ही मिलेगी जो उनके आदर्शों को अपनायेगा। हर पुजारी, हर हनुमान भक्त उन दिनों हनुमान का अनुयायी बनने और असुरता के शासन को उखाड़ने में लगा हुआ था।
गुरु गोविन्द सिंह ने सिक्ख सम्प्रदाय के गुरुद्वारों को सैनिक छावनियों केप में विकसित किया था। वहां कीर्तन, पाठ-पूजन, आरती-प्रसाद आदि सब कुछ होता था पर साथ ही यह उद्देश्य हर सिक्ख के मस्तिष्क में भरा था कि उन्हें अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना है और आसुरी नृशंसता को परास्त करके धर्मराज्य की स्थापना करनी है।
जो कार्य समर्थ गुरु रामदास द्वारा परिष्कृत हनुमान मन्दिरों ने और सिक्ख गुरुद्वारों ने किया प्राचीनकाल में अपनी-अपनी सामयिक परिस्थितियों के अनुसार हर मंदिर करता था। उनकी सेवा से सारा समाज लाभान्वित होता था और धर्म की महत्वपूर्ण सेवा बन पड़ती थी। वर्तमान परिस्थितियों में भी यही पद्धति उपयुक्त है। परिवर्तन के लिए समग्र प्रगति के लिए धर्म तन्त्र का आश्रय लेने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। इसके लिए धर्मतन्त्र का आश्रय लेकर उसकी कथा-गाथाओं की संगति मिलाते हुए व्यक्ति परिवार और समाज की समस्त समस्याओं का हल हृदयंगम कराया जाय तथा उन्हें प्रगतिशील गतिविधियां अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। धार्मिक आयोजनों में भावनात्मक वातावरण बनता है—उसमें गरम लोहे से उपकरण ढालने जैसी बात और भी आसानी से बन सकती है। यह प्रयोग प्राचीनकाल से चलता रहा है और अपने समय के मांग को पूरा करने के लिए इस प्रक्रिया को व्यापक बनाना अत्यन्त आवश्यक है।