Books - देवताओं के वरदान- सत्प्रवृत्तियाँ
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देवताओं के वरदान- सत्प्रवृत्तियाँ
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देवताओं के वरदान- सत्प्रवृत्तियाँ
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ- ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मित्रो ! देवता कौन हो सकता है देवता वह होता है, जो देता है, दूसरों को श्रेष्ठ बनाता है। देवता वह नहीं है, जो आप रंग- बिरंगे खिलौने बनाकर लाते हैं। ये किसकी मूर्ति बनाकर लाए? भैरव जी की बनाकर लाए। भैरव जी का मुँह ऐसा क्यों है? अरे साहब ! इनका मुँह तो ऐसा ही है। अच्छा ये देवी जी जीभ क्यों निकालती हैं? ये तो काट खाएँगी। अरे साहब ! ये तो बकरा खाएँगी। धत् तेरे की ! अगर ये बकरा काटने वाली हैं, तो हमारे पड़ोस में कसाई रहता है उसमें और इसमें क्या फर्क है? नहीं साहब ! ये को देवी जी हैं। मास तो ये भी खाती हैं और जो कसाई भी खाता है, तभी को मैं इसे कसाई कह रहा हूँ। नहीं साहब ! ये कसाई नहीं देवी हैं :: नहीं बेटे, ऐसी देवी नहीं हो सकती, जो बकरा खाती हो।
सच्चा अध्यात्म क्या कहता है?
इसलिए मित्रो ! जो आपने रग बिरंगे, चित्र विचित्र खिलौने बनाकर रखे है और उन रंग बिरंगे खिलौनों से अगर आप ये ख्याल करते हैं कि यह देवी हमारा भला करेगी, हमारी अमुक मनोकामना पूरी करेगी तो हम देवी को ये मिठाई खिलाएँगे, मालपुए खिलाएँगे, तो यह आपकी खामख्याली है। अगर आप ऐसे काम नहीं करना चाहते, तो वहाँ आइए जहाँ सच्चा अध्यात्म आपकी प्रकृति का उद्धार करता है, आपको आत्मदर्शन कराता है। वहाँ आइए जहाँ अध्यात्म आपके दिमाग की सफाई करता है और यह कहता है कि देववृत्तियाँ, श्रेष्ठ वृत्तियाँ जो संयम के अपर टिकी हुई हैं और लोकमंगल के ऊपर टिकी हुई है, उनको दो हिस्सों में बाँट सकते हैं। सारी की सारी देवियों और सारे के सारे देवताओं को दो भागों में बाँट सकते हैं। एक वर्ग देवी- देवताओं का वह है, जो हमारे व्यक्तिगत जीवन पर बाएँ रहते हैं, जो हमको संयमशील बनाते हैं, श्रमनिष्ठ बनाते हैं परिष्कृत व्यक्तित्व वाला बनाते है, भावनाशील बनाते है, संस्कारवान बनाते हैं, साहसी बनाते हैं, इत्यादि। वे हमारे व्यक्तिगत जीवन में सद्गुणों का समावेश करते हैं।
दूसरा वर्ग देवताओं का वह है, जो हमारे व्यवहार को समाज के प्रति उदार बनाता है, उदात्त बनाता है। दूसरों की सेवा करने के लिए, पीड़ा- पतन निवारण करते के लिए, दूसरों को ज्ञान देने और ऊँचा उठाने के लिए दूसरों को परामर्श देने के लिए हमें प्रेरित करता है। इस तरह हम देवी- देवताओं को दो वर्गों में बाँट सकते हैं। इनमें से एक वे है जो हमारे व्यक्तित्व- परिष्कार के लिए खड़े हुए हैं और दूसरे वे है, जो उदारता के ऊपर खड़े हुए हैं। ऊपरी तीर से देखने पर वे दो वर्गों में विभक्त दिखते भर हैं, पर वास्तव में वे दोनों हैं एक ही भाग। क्योंकि जब हम अपने आप कोश्रेष्ठ बनाना चाहते हैं तो हमको बाहर की मदद लेनी पड़ती है। जब हम तैरने की इच्छा करते हैं, तो हमको तालाब में प्रवेश करना पड़ता है। तालाब में प्रवेश किए बिना आपको तैरना नहीं आ सकता। आपको अपना श्रेष्ठ व्यक्तित्व बनाने के लिए लोक व्यवहार को विनम्र, सुशील और सेवाभावी बनाना आवश्यक है। लोकमंगल के लिए अपना व्यक्तित्व श्रेष्ठ बनाने के लिए, सेवा के लिए, दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने के लिए अगर हम तैयार न हो तो हम अपना व्यक्तिगत जीवन अच्छा बना ही नहीं सकते। वास्तव में यह वर्गीकरण मैंने आपकी सुविधा के लिए और जानकारी के लिए इसलिए किया है, ताकि आप दोनों को आसानी से समझ सके, अन्यथा वो दोनों एक ही हैं। मित्रो ! देवता के लिए अनुदान देना, देवता के लिए अनुदान प्रस्तुत करना- यही देवोपचार का उद्देश्य है। आप कहीं भी मंदिर में जाते हैं, तो कुछ न कुछ वहाँ चढ़ाते हैं। कुछ भी नहीं है, तो भी 'पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम्' तो चढ़ाते ही हैं। इसलिए आप यह बात ध्यान रखना कि जब किसी भी देवता के यहाँ जाएँ, तो कुछ भी न मिले तो तुलसी का एक पत्ता जरूर ले जाना। तुलसी का पत्ता न हो तो आप फूल जरूर ले जाना। फूल या पत्ता भी न हो तो ताँबे का एक नया पैसा, एल्युमीनियम- गिलेट का एक पाँच पैसे का सिक्का ही डाल देना। महाराज जी ! अगर नहीं डालें तो? तो बेटे देवता नाराज हो जाएँगे और शाप दे देंगे। पंडित जी के यहाँ पत्रा दिखाने जाते हैं, अगर खाली हाथ जाएँगे, तो आपको शाप पड़ेगा। राहु भी नाराज हो जाएगा, चंद्रमा भी नाराज हो जाएगा। पंडित जी ! पत्रा देखकर बताइए कि हमारे ग्रह कैसे हैं? ला, पहले पत्रों का पूजन तो कर। अरे पंडित जी ! हम तो खाली हाथ आ गए। बेटा खाली हाथ नहीं आते। देवता के सामने खाली हाथ नहीं जाते। देवता के सामने, गुरुजी के पास आते हैं, तो कुछ न कुछ लेकर आते हैं। फूल लाते हैं, केला लाते हैं। नहीं, महाराज जी ! हम तो ऐसे ही चले आए। नहीं बेटे ऐसे नहीं आना चाहिए। कुछ भी लाया कर। फल फूल कुछ भी लाया कर। हाँ गुरुजी ! फूल लाया था। बस, तो ठीक है, काम बन जाएगा। काम बन गया।
देने वाले ही देवता
मित्रो ! देने वाले को देवता कहते हैं और देवपूजन के लिए आदमी को देने वाला व्यक्ति बनना पाता है, लेने वाला नहीं। देवता किसी से लिया नहीं करते, हर एक की मदद करते हैं। आपको भी देवता की मदद करनी चाहिए। देवता का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए ही देवपूजन किया जाता है। देवपूजन की शिक्षाएँ हैं कि हम अपने जीवन में देवत्व का समावेश करें। हम पशु जीवन से ऊँचे उठे, मनुष्य जीवन से ऊँचे उठे और दैवी जीवन में प्रवेश करे। दैवी वृत्तियों का आह्वान करें और पशु प्रवृत्तियों का विसर्जन करें। हमारे जीवन में चारों ओर से पशु छाया हुआ है, इंद्रियों पर पशु छाया हुआ है। हर जगह पशु- प्रवृत्तियाँ छाई हुई हैं। पशु कौन है, जो अपने आप तक सीमित है। पशु में एक ही खराबी है कि वह केवल अपने आप तक सीमित रहता है। वह न समाज को सोचता है, न अपने वर्ग की सोचता है, न देश को सोचता है और न वृत्तियों की सोचता है। केवल अपने पेट की सोचता रहता है और अपनों की सोचता रहता है। इसीलिए तो हम पशु की निंदा करते हैं।
मित्रो ! अभी आप वास्तव में नरक के पशु जैसा जीवन जी रहे हैं। अगर कोई आपकी जिन्दगी का विश्लेषण करे कि आप क्या है, तो जो निष्कर्ष आएगा उसे देखकर आप हैरान रह जाएँगे। चलिए, हम आपको लेबोरेटरी में ले चलते है। हम लेब में विश्लेषण करने के पश्चात् जो आपकी पैथोलाजिकल रिपोर्ट तैयार करेंगे, उसमें हम आपको यह है 'डिक्लेयर' अर्थात घोषित कर सकते हैं। बताइए साहब ! यह किसकी हड्डी है। ये तो साहब कुत्ते की हड्डी है। नहीं साहब ! ये मनुष्य की हड्डी है। मनुष्य की हड्डी कैसे को सकती है? यह कौन बताएगा? यह बात डॉक्टर अपनी प्रयोगशाला में बताएगा। इसी तरह हम अपनी प्रयोगशाला में ले जाकर कह सकते हैं कि अभी आप इनसान नहीं बन पाए, न देवता बनने की हिम्मत ही जुट रही। अभी आप पशु का जीवन जी रहे हैं। पशु का जीवन, स्वार्थी जीवन, चालाक जीवन, कामनाओं से भरा हुआ जीवन, वासनाओं से भरा हुआ जीवन, तृष्णाओं से भरा हुआ जीवन जी रहे हैं।
मित्रों ! अब क्या होना चाहिए? अब हमारा जीवन एक ही दिशा में बढ़ना चाहिए देवत्व की दिशा में। देवत्व की दिशा में बहें. तो क्या हो सकता है? तब बेटे ! हमारा देवपूजन का उद्देश्य पूरा हो सकता है। हम आपको देवपूजन की सारी प्रक्रियाएँ केवल इस मकसद से सिखाते हैं कि आपके भीतर देने की वृत्ति हो जाए, उदारता को वृत्ति पैदा हो जाए, श्रेष्ठता की वृत्ति पैदा हो जाए और आप देवता बनने की कोशिश करें।
देवता व मनुष्य में अंतर
देवता में क्या विशेषता होती है? देवता और मनुष्य में क्या फर्क होता है? देवता खाते तो रहते हैं, पर पखाना नहीं करते। हनुमान जी को चाहे जितना खाना खिला दो, रोटी खिला दो और दूसरे दिन देखो, कहीं मल विसर्जित किया हुआ नहीं मिलेगा। देवता की एक पहचान तो यही है। देवता अगर मल विसर्जन कर दे तो समझना चाहिए कि वह देवता नहीं है। दूसरी पहचान देवता की यह है कि वे कभी बूढ़े नहीं होते। देवता सदैव जवान रहते हैं। अच्छा बताइए कि भगवान रामचंद्र जी का ऐसा फोटो क्या किसी ने देखा है, जिसमें उनके दाँत उखड़ गए हों और बाल सफेद हो गए हों? आपने देखा है? नहीं साहब ! हमने तो नहीं देखा। अच्छा तो कृष्ण भगवान का देखा होगा? कृष्ण भगवान को जब मृत्यु हुई थी, तब वे एक भी पच्चीस वर्ष की उम्र के थे। मैं आपसे पूछता हूँ कि एक भी पच्चीस वर्ष के व्यक्ति के चेहरे पर झुर्री आई होगी कि नहीं? हाँ, महाराज जी ! जरूर आई होगी। बाल सफेद हुए होगे या काले? सफेद हुए होंगे। अच्छा, एकाध दाँत उखड़ा होगा या नहीं?? हाँ साहब ! जरूर उखड़ा होगा। अच्छा, कृष्ण भगवान का एक फोटो हमको दिखाइए। बताइए यह फोटो बुढ़ापे का है या जवानी का। नहीं साहब ! यह बुढ़ापे का नहीं है, जवानी का है। जवानी किसमें रहती है? देवता में रहती है। देवता जवान होता है। देवता अगर बूढ़े होने लग जाएँ तो समझना चाहिए कि ये सब बेकार है। देवताओं के चेहरे भरे हुए होते हैं। देवता वे होते हैं जिनके चेहरे पर जवानी छाई रहती है, उमंगें छाई रहती हैं, उत्साह छाया रहता है, जीवट छाया रहता है। देवता की पूजा करने के लिए आपकी मनःस्थिति उसी तरह को होनी चाहिए।
ईमानदारी की बात यह है कि देवी- देवताओं की जितनी भी छवियाँ हैं, वास्तव में ये सब मॉडल हैं। हमको क्या बनना है, इस लक्ष्य को पाने के लिए हम उसी के अनुरूप देवता अर्थात मॉडल चुनते हैं। जैसे ताजमहल बनाने के लिए पहले मॉडल बना दिया गया था कि मीनार कितनी बड़ी बनेगी, गेट कैसे बनेगा, अमुक चीज कैसी बनेगी आदि। कागज पर बने नक्शे से उतना साफ नहीं हो पता, इसलिए हमेशा बहुत बढ़िया इमारतों के लिए 'मॉडल' बनाकर रखते हैं। इसी तरह यदि हम राम की खूबियाँ धारण करना चाहते हैं, तो राम की मूर्ति सामने रखते हैं। हम कृष्ण को उपासना इसलिए करना चाहते है कि हम कृष्ण जैसे बनना चाहते हैं। कृष्ण भगवान की खुशामद और चापलूसी करने से क्या हो सकता है? बेटे तू बता तो सही कि कृष्ण जी अपनी खुशामद करने वाले को, चापलूसी करने वाले को या किसी चमचे को अपना चमचा बनाना चाहते है क्या? असली यही बात है ना हैं? हाँ गुरुजी ! हम तो भगवान का चमचा बनना चाहते हैं। बेटे ! चमचे तो उनके होते हैं, किनके? वेश्याओं, नेताओं और राजाओं के, जो कहते हैं कि अरे साहब ! आपकी सात पीढ़ियों ने बड़े- बड़े शेर मारे हैं। पाँच साल बाद आया हूँ एक शाल तो लूँगा ही। अच्छा ले जा चारण।
मित्रो ! आप क्या बनना चाहते हैं? चारण बनना चाहते हैं या चमचे बनना चाहते हैं? क्या आप वेश्याओं के पीछे चमचे बनकर फिरना चाहते हैं? अरे साहब ! इनके क्या कहने? इन्होंने को वहाँ गाया था, नाचा था, बड़े गजब का था। ये श्रीकृष्ण भगवान हैं। देखिए, इनके मुकुट और इनके ये रेशमी कपड़े और बाजूबन्द और देखिए इनकी गायें। देखिए इनकी बाँसुरी। क्या बनना चाहते हैं आप श्रीकृष्ण भगवान के चमचे। बेटे ! चमचा बनने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। आपको देवता बनने के लिए उन वृत्तियों को मॉडल के रूप में ग्रहण करना पड़ेगा और अपने आप को डालने की तैयारी करनी पड़ेगी। आप रामचन्द्र जी के उपासक है तो रामचन्द्र जी बनने की तैयारी कीजिए। कृष्णचन्द्र जी बनना चाहते हैं तो आप कृष्णचन्द्र जी बनने की तैयारी कीजिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं है। आप हनुमान जी बनना चाहते है न? हाँ गुरुजी हमारे इष्ट तो हनुमान जी हैं, तो आप हनुमान जी बनिए हमें क्या शिकायत है? नहीं साहब ! हनुमान जी तो हम नहीं बनना चाहते। रहेंगे तो हम वहीं, जैसे पहले थे और पूजा करेंगे हनुमान जी की। चलेंगे पश्चिम को और देखेंगे पूरब को। वाह बेटे ! खोज कर रहा है पूरब की और चलेगा पश्चिम की और। अरे ! इष्ट का मतलब तो लक्ष्य है। हम क्या बनना चाहते हैं? हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? आखिर हम यया बनेंगे? अगर हम यह तय कर लें, तो मित्रों ! हमारे भीतर देवता की हस्ती पैदा हो सकती है। देवताओं की संज्ञा में तब आप खड़े होगे, जब आपके शरीर में से गन्दगी पैदा न होती हो। देवता पखाना नहीं करते। उनको पसीना भी नहीं आता। इसको कहते हैं देवता। वे पेशाब भी नहीं करते। अच्छा मानी तो पीते होंगे। हाँ बेटे ! शंकर जी को तू पानी चढ़ा सकता है। कितना पानी चढ़ा दूँ? सामर्थ्य भर खूब पानी चढ़ा दे। महाराज जी ! शंकर जी इतना मानी पिएँगे को फिर पेशाब तो करेंगे ही। नहीं बेटे ! शंकर जी पानी पीते रहे हैं, खाना खाते रहते हैं, हमारी भावनाओं के रूप में, प्रज्ञा के रूप में और हमारे जीवन की दुष्ट प्रवृत्तियों, पाप आदि का निष्कासन करते रहते हैं ताकि दुष्कर बलाएँ न आएँ।
देवपूजन किसलिए
देवता को इसलिए इष्ट मानते हैं, देवता का पूजन इसलिए करते है, देवता की आराधना इसलिए करते हैं कि हमारी देववृत्तियाँ विकसित होती हुई चली जाएँ। देवता की आराधना इसलिए करते हैं कि हमारा देवत्व निराशा न लाए। देवत्व कभी निराशा नहीं ला सकता। देवत्व की ओर चलने वाला व्यक्ति निराश नहीं हो सकता। सफलता नहीं मिली, न सही, अगले जन्म में मिलेगी। देवत्व की ओर बढ़ने वाले में क्या ताकत आ गई कि वह कहता है कि अभी नहीं तो अगले जन्म में मिल जाएगी। देवता कभी अपने सत्प्रयत्नों की ओर से निराश नहीं पाया जा सकता। निराशा माने बुढ़ापा। बुढ़ापा किसे कहते हैं, निराशा को। बुढ़ापा क्या होता है, निराशा। बेटे ! शरीर का तो यह धर्म ही है कि वह बूढ़ा होने वाला है। वह बूढ़ा होगा ही, लेकिन शरीर के बूढ़े होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जिन दिनों जर्मनी ने इंग्लैण्ड के ऊपर हमले किए थे और इंग्लैण्ड के जीवन- मरण का प्रश्न था, उन दिनों वहाँ का प्रधानमंत्री चर्चिल इतना बूढ़ा हो गया था कि वह पार्लियामेण्ट की मेज पर वहाँ बैठकर काम नहीं कर सकता था। उसके लिए एक चारपाई बिछा दी गई थी और पार्लियामेण्ट के मेंबर और दूसरे मिनिस्टर उसके दाएँ- बाएँ बैठते थे और वह करवट लेकर बात करता था, चलता था तो छड़ी लेकर चलता था, बूढ़ा इतना हो गया था कि काम नहीं कर सकता था, लेकिन उसने सारे इंग्लैण्ड को आश्वासन दिलाया- '' हमारे पास खून है और हमारे पास पसीना है। इसलिए इस बड़ी से बड़ी मुसीबत के बरदाश्त करेंगे। इंग्लैण्ड को कोई गुलाम नहीं बना सकता। आप लोग खून पसीना बहाने के लिए तैयार हो जाइए। मैं आपकी आजादी की सुरक्षा करने की गारण्टी देता हूँ।" उसने ये वचन तब कहे जब सारे इंग्लैण्ड के ऊपर जर्मनी का हमला हो रहा था। वह खड़ा हो गया। उसने कहा- "हम जिंदा हैं, इसलिए आप में से हर एक को जिंदा रखेंगे, इंग्लैण्ड को जिंदा रखेंगे। इंग्लैण्ड के किसी नागरिक को डरने की आवश्यकता नहीं है।"
मित्रों ! ये कौन लोग थे? इनको जवान आदमी कहते हैं। आज जब कम उम्र के व्यक्ति जरा सी बात पर निराशा की बात करते हैं, निराशा की बात कहते हैं और ये कहते हैं कि साहब ! हम तो इम्तिहान में फेल हो गए, हमारा भविष्य अंधकारमय हो गया। अब तो हम कुतुबमीनार से कूदकर मरेंगे। रेलगाड़ी से कटकर मरेंगे। उस तरह की जब कोई खबर हमारे पास आती है कि अरे साहब ! कोई लड़का था, मर गया, बड़े दुःख की बात है। मैं कहता हूँ कि बेटे ! तू एक गलती सुधार। तू यह मत कह कि एक लड़का मर गया। तो क्या कहूँ? यों कह कि एक बुड्ढा व्यक्ति मर गया। बुड्ढा कैसे? वह तो लड़का था। नहीं बेटे, वह बुड्ढा था। बुड्ढा आदमी वह है जिसकी उम्मीदें खत्म हो गईं, जीवन खत्म हो गया, जोश खत्म हो गया, उमंगें खत्म हो गई, आशाएँ खत्म हो गई, यह आदमी बूढ़ा है। ऐसा आदमी थक जाता है। जो आदमी हार जाता है, जिस आदमी ने हिम्मत गँवा दी, जिस आदमी ने अपने उज्ज्वल भविष्य के सपने गँवा दिए, वह आदमी बूढ़ा हो गया।
साथियों ! देवता बूढ़े नहीं हो सकते। देवपूजन के माध्यम से हम देवताओं की आराधना करते हैं, देववृत्तियों को आराधना करते हैं। जब हम शंकर जी की आराधना करते हैं, संघशक्ति की देवी दुर्गा की आराधना करते हैं, पूर्ण पुरुष कृष्ण भगवान की आराधना करते हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की आराधना करते हैं, भक्त शिरोमणि हनुमान की आराधना करते हैं, तो इस माध्यम से उनकी जो श्रेष्ठ वृत्तियाँ हैं, उनको अपने अंदर धारण करते हैं। नहीं साहब ! हनुमान जी हमें रुपया पैसा दे जाएँ, हमारा ब्याह करा दें। हनुमान जी बेटा दे जाएँ। बेटे ! ऐसे कैसे हो सकता है? जिसके यहाँ जो होगा, वही तो देगा। जो चीज है ही नहीं, तो वह कैसे दे देगा? जब हनुमान जी का ब्याह हुआ नहीं, उसके बच्चा हुआ ही नहीं, तो बेटा कैसे दे जाएँगे आपको? गुरुजी हम बीमार हैं, इंजेक्शन लगा दीजिए। बेटे ! हम कैसे लगा देंगे? नहीं गुरुजी ! आप तो महात्मा हैं, एक इंजेक्शन तो हमारे लगा ही दें। अच्छा आप इंजेक्शन नहीं लगा सकते, तो हमारा दाँत हिलता है, उसे ही उखाड़ दें। बेटे, हमसे तेरा दाँत भी नहीं उखड़ेगा। फिर आप किस बात के गुरु हैं?? गुरु हैं तो बेटा हम ज्ञान देंगे, रामायण पढा देंगे, गीता पढा देंगे और दूसरे पाल पढा देने। नहीं साहब ! आप तो हमारा दाँत उखाड़ ही दीजिए। बेटे हम कैसे उखाड़ सकते हैं? हमको स्वयं ही नहीं आता। यह क्या है? पागलपन है, अज्ञानता है।
देवताओं के वरदान- सत्प्रवृत्तियाँ
मित्रो ! देवता दैवी शक्तियों से भरे हुए, दिव्यतत्त्वों से भरे हुए, दिव्य विचारणाओं से भरे हुए, दिव्य भावनाओं से भरे हुए होते हैं। देवता अगर किसी को वरदान देंगे तो वे मानवता का वरदान देंगे, सद्गुणों का वरदान देंगे, श्रेष्ठता का वरदान देंगे, सत्प्रवृत्तियों का वरदान देंगे। ये सद्गुण और सत्प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं, जिनको हम 'देवत्व चेक' कह सकते हैं। इस हुंडी को आप कहीं भी भुना लीजिए। सत्प्रवृत्तियों को लेकर आप बाजार में जाए और यह कहिए कि हम महात्मा गाँधी हैं और हम महात्मा हैं और हमारे महात्मा की कीमत लाइए। जनता आपके ऊपर नोट बरसाना शुरू कर देगी और जब आप मरेंगे तो सौ करोड़ रुपए का आपका स्मारक बना देगी। ये हुंडी है महानता की। आप नहीं खाते तो कोई हर्ज की बात नहीं, आप खिला सकते है। ठीक है, हम अपने इस्तेमाल में खरच नहीं कर सकते, लेकिन हम चाहे तो किसी को भी फायदा पहुँचा सकते हैं। चाणक्य ने असंख्यों को फायदा पहुँचाया। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को धनी बना दिया। महात्माओं के वरदान और आशीर्वाद से न जाने क्या क्या हुए? वे स्वयं लंगोटी पहनते थे, तो कोई हर्ज की वात नहीं थी। देवत्व जब मनुष्य के भीतर आता है, तो महानता के रूप में आता है और महानता वह हुंडी है, जो नरसी मेहता की तरह से हर एक के ऊपर बरस सकती है।
मित्रो ! आध्यात्मिकता वो हुंडी है, देवत्व वह हुंडी है और मानवता वह हुंडी है जिसको भुनाने के लिए सुदामा की तरह से आप कभी भी भगवान के बैंक में जा सकते हैं और अपना पैसा वसूल कर सकते हैं। अगर आपको भौतिक चीजों को जरूरत पड़ जाए, तो भी इससे आप खरीद सकते हैं, लेकिन मैं समझता हूँ कि उसको अपने आपकी संपदा इतनी महान मालूम पड़ती है कि भौतिक वस्तुओं को इकट्ठा करने में कोई आनंद नहीं आता है इसलिए जिसको देवत्व का रस मालूम पड़ जाता है, वह उन चीजों को जो नाशवान हैं जो कल नहीं रहने वाली हैं जो केवल चमकदार मालूम पड़ती हैं, वास्तव में वे चमकदार नहीं हैं, बाहर से वे मृगतृष्णा की तरह मालूम पड़ती हैं और आनंद का कारण नहीं बन सकतीं। ऐसा व्यक्ति जानता है कि भौतिकता हमारे आनंद का करण नहीं बन सकती, औलाद हमारे आनंद का कारण नहीं बन सकती, वैभव, आर्थिक उन्नति हमारे आनंद का कारण नहीं बन सकती। बेटे ! यह सब मालूम पड़ता है, महसूस होता है, पर असलियत में है नहीं। यदि होता, तो संपन्न आदमी, बेटे जाले आदमी, पैसे वाले आदमी, ताकतवर आदमी- सबके सब ये कहते कि हम तो अपने जीवन में धन्य हुए। हम इस जीवन में सुखयापन करते हैं।
व्यक्तित्व का निर्माण कैसे करें?
यह लोकमान्यता सही नहीं है कि मनुष्य साधना के सहारे आगे बढ़ता और सफल होता है। वास्तविकता यह है कि परिष्कृत व्यक्तित्व ही साधन एकत्रित करता और उनके सदुपयोग का लाभ उठाता है। घटिया व्यक्तित्व अवसर होते हुए भी उसका लाभ नहीं उठा पाता ,, जबकि प्रतिभावान प्रतिकूलताओं के बीच भी अनुकूलता खोज निकालते हैं और अवसर न होते हुए भी उसे अपने कौशल से उपार्जित करते हैं।
साधन संपन्नों की संपदा का किस प्रकार उपयोग हुआ इस पर दृष्टि दौड़ाने से निराशा होती है। उपार्जन कर सकना सरल है। अनीति पर उतारू व्यक्ति उसे और भी जल्दी समेट लेते हैं। किसके पास कितना है? प्रश्न इस बात का नहीं वरन इस बात का है किसने, किस प्रकार कमाया? ठीक इसी प्रकार का यह भी प्रश्न है कि जो उपलब्ध था उसे किसने किस प्रकार, किन प्रयोजनों में खरच किया?
साधनों को कमाने, रखने और खरचने के लिए एक विशेष प्रकार की सूझ- बूझ चाहिए। उसे प्रखरता कहते हैं। सूझ- बूझ के अतिरिक्त उसमें पराक्रम भी जुड़ा रहता है। न केवल पराक्रम वरन प्रतिभावान सिद्ध करने वाले गुणों से भी अपने आप को सुसज्जित करना पड़ता है। इसमें प्रामाणिकता और कुशलता दोनों का ही समान समन्वय रहता है। इन दोनों में से एक की भी कमी पड़े तो कठिनाई अड़ जाएगी। प्रामाणिकता रहित व्यवहारकुशल धूर्त कहलाते हैं और बबूले की तरह जहाँ तहाँ उछलते डूबते रहते हैं। स्थायित्व के लिए प्रामाणिकता की भी आवश्यकता है। हाँ, यह माना जा सकता है कि केवल प्रामाणिक होने से भी काम नहीं चलता। प्रगति के लिए व्यवहारकुशलता की भी न्यूनाधिक मात्रा में उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी कि प्रामाणिकता की।
व्यक्तित्व का विनिर्मित करना सफलताओं और संपन्नताओं को अर्जित करने के लिए आवश्यक है। उसकी उपेक्षा करके धूर्तता के सहारे प्रगति करने की बात सोचने वाले कमाते कम और खोते ज्यादा हैं। आत्मसंतोष, लोक- सम्मान गँवाने वाले ईश्वर का कोप भी सहते हैं। ऐसे लोगों के लिए उपार्जन का सदुपयोग करते भी नहीं बन पड़ता। दुरुपयोग से अमृत भी विष बनता है। विलासी अपव्यय और दुर्व्यसन और कुपात्रों को हस्तांतरण यहीं है, साधनों का दुरुपयोग जिसे व्यक्तित्व रहित व्यक्ति करते देखे गए हैं। वे अपना, उपार्जित वैभव का ही नहीं उनका भी विनाश करते हैं जिसके साथ उनकी मैत्री, घनिष्ठता या अनुकंपा बरसती है। डूबने वाला अकेला ही नहीं पहने हुए कपड़ों को भी साथ ले डूबता है।
व्यक्तित्ववान सही रीति से सही साधन सीमित मात्रा में कमाए, यह हो सकता है, पर जो भी वे कमाते हैं, उसे उनकी दूरदर्शिता इस प्रकार प्रयुक्त करती है, जिसे असंख्यों के लिए आदर्श और अनुकरणीय कहा जा सके। सराहनीय और चिरस्थायी सफलताएँ सदा महामानवों ने ही अर्जित की हैं। व्यक्तित्यवानों से ही वैभव का सदुपयोग बन पड़ा हैं। परिश्रम और मनोयोग का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए परिस्थितियों की उतनी आवश्यकता नहीं पड़ती, जितनी परिष्कृत मनःस्थिति की। इसके लिए मनुष्य को आत्मिकी का अवलंबन लेना पड़ता है।
यह शरीर जिसे अज्ञानवश सब कुछ मान लिया गया है, आत्मा का वाहन उपकरण मात्र है। पदार्थों के संपर्क से उपलब्ध होने वाली संवेदनाएँ भी चेतना की सजगता से ही संभव होती हैं। चेतना ही इच्छा विचारणा और क्रिया के माध्यम से जीवन को विभिन्न गतिविधियों का संचार संचालन करती है। यों जीवित शरीर रहता है, पर जीवनतत्त्व का समस्त आधार चेतना के, आत्मा के साथ जुड़ा हुआ है।
मनुष्यों की काया संरचना में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं होता। मनःसंस्थान भी लगभग एक जैसे होते हैं। साधनों और परिस्थितियों में थोड़ा- बहुत अंतर तो रहता है, पर ये सब भिन्नताएँ ऐसी नहीं हैं, जिनके कारण मनुष्य−मनुष्य के बीच आकाश पाताल जैसा अंतर दिखाई पड़े। रुग्ण, अपंगों एवं बाल- वृद्धों की बात छोड़ दें और मध्यवर्ती लोगों की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन करें तो विदित होगा कि उनमें से कुछ बुरी तरह पिछड़े हुए, अभावग्रस्त और संक्षोभों में जकड़े हुए दूषित, असंतुष्ट और विपन्न स्थिति में रह रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो न दुखी हैं, न सुखी, न पतित हैं और न समुन्नत किसी प्रकार यंत्रवत जी रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जिनकी प्रतिभा चमकती है। वे ऊँचा सोचते और ऊँचा करते हैं। अपनी साहसिकता के बल पर वे जिधर भी चलते हैं, सफलताएँ छाया की तरह पीछे चलती हैं। स्वयं श्रेय, सम्मान पाते हैं और अपने प्रभावक्षेत्र को समुन्नत बनाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐतिहासिक महामानवों की श्रेणी में गिने जाते हैं और दिवंगत हो जाने पर भी अपनी ऐसी अनुकरणीय परंपराएँ छोड़ जाते है, जिनका अनुगमन करते हुए चिरकाल तक असंख्य लोग प्रगति- पथ पर अग्रसर होते हैं। पतित, यांत्रिक और समुन्नत स्तर के मनुष्यों के बीच पाए जाने वाले अंतर का एकमात्र कारण चेतना को स्थिति में भिन्नता होना ही है। प्रयत्न करने पर शरीर और पदार्थ का सुखद संयोग मिलता है और भौतिक स्थिति समृद्ध बनती है। यही प्रयत्न चेतना को सुसंस्कृत बनाने के लिए किया गया होता, तो निश्चय ही वहाँ भी प्रगतिशीलता दृष्टिगोचर होती, बलिष्ठता और संपन्नता का लाभ मिलता। दुर्भाग्य से चेतना के संबंध में नितांत उपेक्षा बरती जाती है, उस पर छाई हुई तमिस्रा को निरस्त करने का प्रयत्न किया गया होता तो स्थिति कुछ दूसरी ही होती। दैन्य, उद्वेग और संताप निश्चित रूप से आंतरिक पिछड़ेपन के ही चिह्न है। उसी के कारण ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ उपहार- मानव जीवन का लाभ नहीं मिल पाता। जिस शरीर के लिए समस्त जीवधारी तरसते हैं, उसे पाकर भी यदि मनुष्य दयनीय दुर्दशा का अभिशाप सहता है तो उसे परले सिरे का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए।
चेतना का महत्त्व समझा जा सके, उसकी प्रगति और परिष्कृति को जीवन का सच्चा लाभ, उपलब्धियों का आधार और आनंद का उद्गम समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि दूरदर्शिता इसी में है कि आत्मिक प्रगति के उस स्वार्थ- साधन पर ध्यान दिया जाए जिसे परमार्थ कहा जाता है। आंतरिक प्रगति में आत्मिक और भौतिक दोनों ही प्रकार के लाभ मिलते हैं जबकि चेतना को, गई- गुजरी स्थिति में पड़े रहने देते पर, मात्र भौतिक संपन्नता की बात सोचते रहने पर व्यक्तित्व के घटिया रहने के करण पग- पग पर असफलताएँ ही मिलती हैं और असंतोष, विक्षोभ ही पल्ले बँधता रहता है।
जीवनतत्त्व के स्वरूप और साफल्य पर विचार किया जा सके तो एक ही निष्कर्ष निकलेगा कि सर्वतोमुखी प्रगति और सुस्थिर प्रसन्नता के लिए चेतना को परिष्कृत एवं परिपुष्ट बनाना, भौतिक संपन्नता के लिए की जाने वली चेष्टाओं से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। उस दिशा में ध्यान देने और प्रयत्न करने से दोनों लोक सधते हैं जबकि उपेक्षा बरतने से छाया हुआ अंधकार केवल भटकाव ही देता है और ठोकरों पर ठोकरें खाने, रोने कलपने के लिए एकाकी छोड़ देता है। समझदारी इसी में है कि इस स्थिति का अंत किया जाए। दूरदर्शिता इसी में है कि जीवन -संपदा का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सकने योग्य चेतना का स्तर ऊँचा उठाने में अत्यंत प्रयत्न किया जाए। जिसने ऐसा सोचा और किया, समझना चाहिए कि वह वही जीवन क्षेत्र का सच्चा कलाकार है। इसी कलाकारिता को आत्म- साधना कहते हैं।
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ- ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मित्रो ! देवता कौन हो सकता है देवता वह होता है, जो देता है, दूसरों को श्रेष्ठ बनाता है। देवता वह नहीं है, जो आप रंग- बिरंगे खिलौने बनाकर लाते हैं। ये किसकी मूर्ति बनाकर लाए? भैरव जी की बनाकर लाए। भैरव जी का मुँह ऐसा क्यों है? अरे साहब ! इनका मुँह तो ऐसा ही है। अच्छा ये देवी जी जीभ क्यों निकालती हैं? ये तो काट खाएँगी। अरे साहब ! ये तो बकरा खाएँगी। धत् तेरे की ! अगर ये बकरा काटने वाली हैं, तो हमारे पड़ोस में कसाई रहता है उसमें और इसमें क्या फर्क है? नहीं साहब ! ये को देवी जी हैं। मास तो ये भी खाती हैं और जो कसाई भी खाता है, तभी को मैं इसे कसाई कह रहा हूँ। नहीं साहब ! ये कसाई नहीं देवी हैं :: नहीं बेटे, ऐसी देवी नहीं हो सकती, जो बकरा खाती हो।
सच्चा अध्यात्म क्या कहता है?
इसलिए मित्रो ! जो आपने रग बिरंगे, चित्र विचित्र खिलौने बनाकर रखे है और उन रंग बिरंगे खिलौनों से अगर आप ये ख्याल करते हैं कि यह देवी हमारा भला करेगी, हमारी अमुक मनोकामना पूरी करेगी तो हम देवी को ये मिठाई खिलाएँगे, मालपुए खिलाएँगे, तो यह आपकी खामख्याली है। अगर आप ऐसे काम नहीं करना चाहते, तो वहाँ आइए जहाँ सच्चा अध्यात्म आपकी प्रकृति का उद्धार करता है, आपको आत्मदर्शन कराता है। वहाँ आइए जहाँ अध्यात्म आपके दिमाग की सफाई करता है और यह कहता है कि देववृत्तियाँ, श्रेष्ठ वृत्तियाँ जो संयम के अपर टिकी हुई हैं और लोकमंगल के ऊपर टिकी हुई है, उनको दो हिस्सों में बाँट सकते हैं। सारी की सारी देवियों और सारे के सारे देवताओं को दो भागों में बाँट सकते हैं। एक वर्ग देवी- देवताओं का वह है, जो हमारे व्यक्तिगत जीवन पर बाएँ रहते हैं, जो हमको संयमशील बनाते हैं, श्रमनिष्ठ बनाते हैं परिष्कृत व्यक्तित्व वाला बनाते है, भावनाशील बनाते है, संस्कारवान बनाते हैं, साहसी बनाते हैं, इत्यादि। वे हमारे व्यक्तिगत जीवन में सद्गुणों का समावेश करते हैं।
दूसरा वर्ग देवताओं का वह है, जो हमारे व्यवहार को समाज के प्रति उदार बनाता है, उदात्त बनाता है। दूसरों की सेवा करने के लिए, पीड़ा- पतन निवारण करते के लिए, दूसरों को ज्ञान देने और ऊँचा उठाने के लिए दूसरों को परामर्श देने के लिए हमें प्रेरित करता है। इस तरह हम देवी- देवताओं को दो वर्गों में बाँट सकते हैं। इनमें से एक वे है जो हमारे व्यक्तित्व- परिष्कार के लिए खड़े हुए हैं और दूसरे वे है, जो उदारता के ऊपर खड़े हुए हैं। ऊपरी तीर से देखने पर वे दो वर्गों में विभक्त दिखते भर हैं, पर वास्तव में वे दोनों हैं एक ही भाग। क्योंकि जब हम अपने आप कोश्रेष्ठ बनाना चाहते हैं तो हमको बाहर की मदद लेनी पड़ती है। जब हम तैरने की इच्छा करते हैं, तो हमको तालाब में प्रवेश करना पड़ता है। तालाब में प्रवेश किए बिना आपको तैरना नहीं आ सकता। आपको अपना श्रेष्ठ व्यक्तित्व बनाने के लिए लोक व्यवहार को विनम्र, सुशील और सेवाभावी बनाना आवश्यक है। लोकमंगल के लिए अपना व्यक्तित्व श्रेष्ठ बनाने के लिए, सेवा के लिए, दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने के लिए अगर हम तैयार न हो तो हम अपना व्यक्तिगत जीवन अच्छा बना ही नहीं सकते। वास्तव में यह वर्गीकरण मैंने आपकी सुविधा के लिए और जानकारी के लिए इसलिए किया है, ताकि आप दोनों को आसानी से समझ सके, अन्यथा वो दोनों एक ही हैं। मित्रो ! देवता के लिए अनुदान देना, देवता के लिए अनुदान प्रस्तुत करना- यही देवोपचार का उद्देश्य है। आप कहीं भी मंदिर में जाते हैं, तो कुछ न कुछ वहाँ चढ़ाते हैं। कुछ भी नहीं है, तो भी 'पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम्' तो चढ़ाते ही हैं। इसलिए आप यह बात ध्यान रखना कि जब किसी भी देवता के यहाँ जाएँ, तो कुछ भी न मिले तो तुलसी का एक पत्ता जरूर ले जाना। तुलसी का पत्ता न हो तो आप फूल जरूर ले जाना। फूल या पत्ता भी न हो तो ताँबे का एक नया पैसा, एल्युमीनियम- गिलेट का एक पाँच पैसे का सिक्का ही डाल देना। महाराज जी ! अगर नहीं डालें तो? तो बेटे देवता नाराज हो जाएँगे और शाप दे देंगे। पंडित जी के यहाँ पत्रा दिखाने जाते हैं, अगर खाली हाथ जाएँगे, तो आपको शाप पड़ेगा। राहु भी नाराज हो जाएगा, चंद्रमा भी नाराज हो जाएगा। पंडित जी ! पत्रा देखकर बताइए कि हमारे ग्रह कैसे हैं? ला, पहले पत्रों का पूजन तो कर। अरे पंडित जी ! हम तो खाली हाथ आ गए। बेटा खाली हाथ नहीं आते। देवता के सामने खाली हाथ नहीं जाते। देवता के सामने, गुरुजी के पास आते हैं, तो कुछ न कुछ लेकर आते हैं। फूल लाते हैं, केला लाते हैं। नहीं, महाराज जी ! हम तो ऐसे ही चले आए। नहीं बेटे ऐसे नहीं आना चाहिए। कुछ भी लाया कर। फल फूल कुछ भी लाया कर। हाँ गुरुजी ! फूल लाया था। बस, तो ठीक है, काम बन जाएगा। काम बन गया।
देने वाले ही देवता
मित्रो ! देने वाले को देवता कहते हैं और देवपूजन के लिए आदमी को देने वाला व्यक्ति बनना पाता है, लेने वाला नहीं। देवता किसी से लिया नहीं करते, हर एक की मदद करते हैं। आपको भी देवता की मदद करनी चाहिए। देवता का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए ही देवपूजन किया जाता है। देवपूजन की शिक्षाएँ हैं कि हम अपने जीवन में देवत्व का समावेश करें। हम पशु जीवन से ऊँचे उठे, मनुष्य जीवन से ऊँचे उठे और दैवी जीवन में प्रवेश करे। दैवी वृत्तियों का आह्वान करें और पशु प्रवृत्तियों का विसर्जन करें। हमारे जीवन में चारों ओर से पशु छाया हुआ है, इंद्रियों पर पशु छाया हुआ है। हर जगह पशु- प्रवृत्तियाँ छाई हुई हैं। पशु कौन है, जो अपने आप तक सीमित है। पशु में एक ही खराबी है कि वह केवल अपने आप तक सीमित रहता है। वह न समाज को सोचता है, न अपने वर्ग की सोचता है, न देश को सोचता है और न वृत्तियों की सोचता है। केवल अपने पेट की सोचता रहता है और अपनों की सोचता रहता है। इसीलिए तो हम पशु की निंदा करते हैं।
मित्रो ! अभी आप वास्तव में नरक के पशु जैसा जीवन जी रहे हैं। अगर कोई आपकी जिन्दगी का विश्लेषण करे कि आप क्या है, तो जो निष्कर्ष आएगा उसे देखकर आप हैरान रह जाएँगे। चलिए, हम आपको लेबोरेटरी में ले चलते है। हम लेब में विश्लेषण करने के पश्चात् जो आपकी पैथोलाजिकल रिपोर्ट तैयार करेंगे, उसमें हम आपको यह है 'डिक्लेयर' अर्थात घोषित कर सकते हैं। बताइए साहब ! यह किसकी हड्डी है। ये तो साहब कुत्ते की हड्डी है। नहीं साहब ! ये मनुष्य की हड्डी है। मनुष्य की हड्डी कैसे को सकती है? यह कौन बताएगा? यह बात डॉक्टर अपनी प्रयोगशाला में बताएगा। इसी तरह हम अपनी प्रयोगशाला में ले जाकर कह सकते हैं कि अभी आप इनसान नहीं बन पाए, न देवता बनने की हिम्मत ही जुट रही। अभी आप पशु का जीवन जी रहे हैं। पशु का जीवन, स्वार्थी जीवन, चालाक जीवन, कामनाओं से भरा हुआ जीवन, वासनाओं से भरा हुआ जीवन, तृष्णाओं से भरा हुआ जीवन जी रहे हैं।
मित्रों ! अब क्या होना चाहिए? अब हमारा जीवन एक ही दिशा में बढ़ना चाहिए देवत्व की दिशा में। देवत्व की दिशा में बहें. तो क्या हो सकता है? तब बेटे ! हमारा देवपूजन का उद्देश्य पूरा हो सकता है। हम आपको देवपूजन की सारी प्रक्रियाएँ केवल इस मकसद से सिखाते हैं कि आपके भीतर देने की वृत्ति हो जाए, उदारता को वृत्ति पैदा हो जाए, श्रेष्ठता की वृत्ति पैदा हो जाए और आप देवता बनने की कोशिश करें।
देवता व मनुष्य में अंतर
देवता में क्या विशेषता होती है? देवता और मनुष्य में क्या फर्क होता है? देवता खाते तो रहते हैं, पर पखाना नहीं करते। हनुमान जी को चाहे जितना खाना खिला दो, रोटी खिला दो और दूसरे दिन देखो, कहीं मल विसर्जित किया हुआ नहीं मिलेगा। देवता की एक पहचान तो यही है। देवता अगर मल विसर्जन कर दे तो समझना चाहिए कि वह देवता नहीं है। दूसरी पहचान देवता की यह है कि वे कभी बूढ़े नहीं होते। देवता सदैव जवान रहते हैं। अच्छा बताइए कि भगवान रामचंद्र जी का ऐसा फोटो क्या किसी ने देखा है, जिसमें उनके दाँत उखड़ गए हों और बाल सफेद हो गए हों? आपने देखा है? नहीं साहब ! हमने तो नहीं देखा। अच्छा तो कृष्ण भगवान का देखा होगा? कृष्ण भगवान को जब मृत्यु हुई थी, तब वे एक भी पच्चीस वर्ष की उम्र के थे। मैं आपसे पूछता हूँ कि एक भी पच्चीस वर्ष के व्यक्ति के चेहरे पर झुर्री आई होगी कि नहीं? हाँ, महाराज जी ! जरूर आई होगी। बाल सफेद हुए होगे या काले? सफेद हुए होंगे। अच्छा, एकाध दाँत उखड़ा होगा या नहीं?? हाँ साहब ! जरूर उखड़ा होगा। अच्छा, कृष्ण भगवान का एक फोटो हमको दिखाइए। बताइए यह फोटो बुढ़ापे का है या जवानी का। नहीं साहब ! यह बुढ़ापे का नहीं है, जवानी का है। जवानी किसमें रहती है? देवता में रहती है। देवता जवान होता है। देवता अगर बूढ़े होने लग जाएँ तो समझना चाहिए कि ये सब बेकार है। देवताओं के चेहरे भरे हुए होते हैं। देवता वे होते हैं जिनके चेहरे पर जवानी छाई रहती है, उमंगें छाई रहती हैं, उत्साह छाया रहता है, जीवट छाया रहता है। देवता की पूजा करने के लिए आपकी मनःस्थिति उसी तरह को होनी चाहिए।
ईमानदारी की बात यह है कि देवी- देवताओं की जितनी भी छवियाँ हैं, वास्तव में ये सब मॉडल हैं। हमको क्या बनना है, इस लक्ष्य को पाने के लिए हम उसी के अनुरूप देवता अर्थात मॉडल चुनते हैं। जैसे ताजमहल बनाने के लिए पहले मॉडल बना दिया गया था कि मीनार कितनी बड़ी बनेगी, गेट कैसे बनेगा, अमुक चीज कैसी बनेगी आदि। कागज पर बने नक्शे से उतना साफ नहीं हो पता, इसलिए हमेशा बहुत बढ़िया इमारतों के लिए 'मॉडल' बनाकर रखते हैं। इसी तरह यदि हम राम की खूबियाँ धारण करना चाहते हैं, तो राम की मूर्ति सामने रखते हैं। हम कृष्ण को उपासना इसलिए करना चाहते है कि हम कृष्ण जैसे बनना चाहते हैं। कृष्ण भगवान की खुशामद और चापलूसी करने से क्या हो सकता है? बेटे तू बता तो सही कि कृष्ण जी अपनी खुशामद करने वाले को, चापलूसी करने वाले को या किसी चमचे को अपना चमचा बनाना चाहते है क्या? असली यही बात है ना हैं? हाँ गुरुजी ! हम तो भगवान का चमचा बनना चाहते हैं। बेटे ! चमचे तो उनके होते हैं, किनके? वेश्याओं, नेताओं और राजाओं के, जो कहते हैं कि अरे साहब ! आपकी सात पीढ़ियों ने बड़े- बड़े शेर मारे हैं। पाँच साल बाद आया हूँ एक शाल तो लूँगा ही। अच्छा ले जा चारण।
मित्रो ! आप क्या बनना चाहते हैं? चारण बनना चाहते हैं या चमचे बनना चाहते हैं? क्या आप वेश्याओं के पीछे चमचे बनकर फिरना चाहते हैं? अरे साहब ! इनके क्या कहने? इन्होंने को वहाँ गाया था, नाचा था, बड़े गजब का था। ये श्रीकृष्ण भगवान हैं। देखिए, इनके मुकुट और इनके ये रेशमी कपड़े और बाजूबन्द और देखिए इनकी गायें। देखिए इनकी बाँसुरी। क्या बनना चाहते हैं आप श्रीकृष्ण भगवान के चमचे। बेटे ! चमचा बनने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। आपको देवता बनने के लिए उन वृत्तियों को मॉडल के रूप में ग्रहण करना पड़ेगा और अपने आप को डालने की तैयारी करनी पड़ेगी। आप रामचन्द्र जी के उपासक है तो रामचन्द्र जी बनने की तैयारी कीजिए। कृष्णचन्द्र जी बनना चाहते हैं तो आप कृष्णचन्द्र जी बनने की तैयारी कीजिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं है। आप हनुमान जी बनना चाहते है न? हाँ गुरुजी हमारे इष्ट तो हनुमान जी हैं, तो आप हनुमान जी बनिए हमें क्या शिकायत है? नहीं साहब ! हनुमान जी तो हम नहीं बनना चाहते। रहेंगे तो हम वहीं, जैसे पहले थे और पूजा करेंगे हनुमान जी की। चलेंगे पश्चिम को और देखेंगे पूरब को। वाह बेटे ! खोज कर रहा है पूरब की और चलेगा पश्चिम की और। अरे ! इष्ट का मतलब तो लक्ष्य है। हम क्या बनना चाहते हैं? हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? आखिर हम यया बनेंगे? अगर हम यह तय कर लें, तो मित्रों ! हमारे भीतर देवता की हस्ती पैदा हो सकती है। देवताओं की संज्ञा में तब आप खड़े होगे, जब आपके शरीर में से गन्दगी पैदा न होती हो। देवता पखाना नहीं करते। उनको पसीना भी नहीं आता। इसको कहते हैं देवता। वे पेशाब भी नहीं करते। अच्छा मानी तो पीते होंगे। हाँ बेटे ! शंकर जी को तू पानी चढ़ा सकता है। कितना पानी चढ़ा दूँ? सामर्थ्य भर खूब पानी चढ़ा दे। महाराज जी ! शंकर जी इतना मानी पिएँगे को फिर पेशाब तो करेंगे ही। नहीं बेटे ! शंकर जी पानी पीते रहे हैं, खाना खाते रहते हैं, हमारी भावनाओं के रूप में, प्रज्ञा के रूप में और हमारे जीवन की दुष्ट प्रवृत्तियों, पाप आदि का निष्कासन करते रहते हैं ताकि दुष्कर बलाएँ न आएँ।
देवपूजन किसलिए
देवता को इसलिए इष्ट मानते हैं, देवता का पूजन इसलिए करते है, देवता की आराधना इसलिए करते हैं कि हमारी देववृत्तियाँ विकसित होती हुई चली जाएँ। देवता की आराधना इसलिए करते हैं कि हमारा देवत्व निराशा न लाए। देवत्व कभी निराशा नहीं ला सकता। देवत्व की ओर चलने वाला व्यक्ति निराश नहीं हो सकता। सफलता नहीं मिली, न सही, अगले जन्म में मिलेगी। देवत्व की ओर बढ़ने वाले में क्या ताकत आ गई कि वह कहता है कि अभी नहीं तो अगले जन्म में मिल जाएगी। देवता कभी अपने सत्प्रयत्नों की ओर से निराश नहीं पाया जा सकता। निराशा माने बुढ़ापा। बुढ़ापा किसे कहते हैं, निराशा को। बुढ़ापा क्या होता है, निराशा। बेटे ! शरीर का तो यह धर्म ही है कि वह बूढ़ा होने वाला है। वह बूढ़ा होगा ही, लेकिन शरीर के बूढ़े होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जिन दिनों जर्मनी ने इंग्लैण्ड के ऊपर हमले किए थे और इंग्लैण्ड के जीवन- मरण का प्रश्न था, उन दिनों वहाँ का प्रधानमंत्री चर्चिल इतना बूढ़ा हो गया था कि वह पार्लियामेण्ट की मेज पर वहाँ बैठकर काम नहीं कर सकता था। उसके लिए एक चारपाई बिछा दी गई थी और पार्लियामेण्ट के मेंबर और दूसरे मिनिस्टर उसके दाएँ- बाएँ बैठते थे और वह करवट लेकर बात करता था, चलता था तो छड़ी लेकर चलता था, बूढ़ा इतना हो गया था कि काम नहीं कर सकता था, लेकिन उसने सारे इंग्लैण्ड को आश्वासन दिलाया- '' हमारे पास खून है और हमारे पास पसीना है। इसलिए इस बड़ी से बड़ी मुसीबत के बरदाश्त करेंगे। इंग्लैण्ड को कोई गुलाम नहीं बना सकता। आप लोग खून पसीना बहाने के लिए तैयार हो जाइए। मैं आपकी आजादी की सुरक्षा करने की गारण्टी देता हूँ।" उसने ये वचन तब कहे जब सारे इंग्लैण्ड के ऊपर जर्मनी का हमला हो रहा था। वह खड़ा हो गया। उसने कहा- "हम जिंदा हैं, इसलिए आप में से हर एक को जिंदा रखेंगे, इंग्लैण्ड को जिंदा रखेंगे। इंग्लैण्ड के किसी नागरिक को डरने की आवश्यकता नहीं है।"
मित्रों ! ये कौन लोग थे? इनको जवान आदमी कहते हैं। आज जब कम उम्र के व्यक्ति जरा सी बात पर निराशा की बात करते हैं, निराशा की बात कहते हैं और ये कहते हैं कि साहब ! हम तो इम्तिहान में फेल हो गए, हमारा भविष्य अंधकारमय हो गया। अब तो हम कुतुबमीनार से कूदकर मरेंगे। रेलगाड़ी से कटकर मरेंगे। उस तरह की जब कोई खबर हमारे पास आती है कि अरे साहब ! कोई लड़का था, मर गया, बड़े दुःख की बात है। मैं कहता हूँ कि बेटे ! तू एक गलती सुधार। तू यह मत कह कि एक लड़का मर गया। तो क्या कहूँ? यों कह कि एक बुड्ढा व्यक्ति मर गया। बुड्ढा कैसे? वह तो लड़का था। नहीं बेटे, वह बुड्ढा था। बुड्ढा आदमी वह है जिसकी उम्मीदें खत्म हो गईं, जीवन खत्म हो गया, जोश खत्म हो गया, उमंगें खत्म हो गई, आशाएँ खत्म हो गई, यह आदमी बूढ़ा है। ऐसा आदमी थक जाता है। जो आदमी हार जाता है, जिस आदमी ने हिम्मत गँवा दी, जिस आदमी ने अपने उज्ज्वल भविष्य के सपने गँवा दिए, वह आदमी बूढ़ा हो गया।
साथियों ! देवता बूढ़े नहीं हो सकते। देवपूजन के माध्यम से हम देवताओं की आराधना करते हैं, देववृत्तियों को आराधना करते हैं। जब हम शंकर जी की आराधना करते हैं, संघशक्ति की देवी दुर्गा की आराधना करते हैं, पूर्ण पुरुष कृष्ण भगवान की आराधना करते हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की आराधना करते हैं, भक्त शिरोमणि हनुमान की आराधना करते हैं, तो इस माध्यम से उनकी जो श्रेष्ठ वृत्तियाँ हैं, उनको अपने अंदर धारण करते हैं। नहीं साहब ! हनुमान जी हमें रुपया पैसा दे जाएँ, हमारा ब्याह करा दें। हनुमान जी बेटा दे जाएँ। बेटे ! ऐसे कैसे हो सकता है? जिसके यहाँ जो होगा, वही तो देगा। जो चीज है ही नहीं, तो वह कैसे दे देगा? जब हनुमान जी का ब्याह हुआ नहीं, उसके बच्चा हुआ ही नहीं, तो बेटा कैसे दे जाएँगे आपको? गुरुजी हम बीमार हैं, इंजेक्शन लगा दीजिए। बेटे ! हम कैसे लगा देंगे? नहीं गुरुजी ! आप तो महात्मा हैं, एक इंजेक्शन तो हमारे लगा ही दें। अच्छा आप इंजेक्शन नहीं लगा सकते, तो हमारा दाँत हिलता है, उसे ही उखाड़ दें। बेटे, हमसे तेरा दाँत भी नहीं उखड़ेगा। फिर आप किस बात के गुरु हैं?? गुरु हैं तो बेटा हम ज्ञान देंगे, रामायण पढा देंगे, गीता पढा देंगे और दूसरे पाल पढा देने। नहीं साहब ! आप तो हमारा दाँत उखाड़ ही दीजिए। बेटे हम कैसे उखाड़ सकते हैं? हमको स्वयं ही नहीं आता। यह क्या है? पागलपन है, अज्ञानता है।
देवताओं के वरदान- सत्प्रवृत्तियाँ
मित्रो ! देवता दैवी शक्तियों से भरे हुए, दिव्यतत्त्वों से भरे हुए, दिव्य विचारणाओं से भरे हुए, दिव्य भावनाओं से भरे हुए होते हैं। देवता अगर किसी को वरदान देंगे तो वे मानवता का वरदान देंगे, सद्गुणों का वरदान देंगे, श्रेष्ठता का वरदान देंगे, सत्प्रवृत्तियों का वरदान देंगे। ये सद्गुण और सत्प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं, जिनको हम 'देवत्व चेक' कह सकते हैं। इस हुंडी को आप कहीं भी भुना लीजिए। सत्प्रवृत्तियों को लेकर आप बाजार में जाए और यह कहिए कि हम महात्मा गाँधी हैं और हम महात्मा हैं और हमारे महात्मा की कीमत लाइए। जनता आपके ऊपर नोट बरसाना शुरू कर देगी और जब आप मरेंगे तो सौ करोड़ रुपए का आपका स्मारक बना देगी। ये हुंडी है महानता की। आप नहीं खाते तो कोई हर्ज की बात नहीं, आप खिला सकते है। ठीक है, हम अपने इस्तेमाल में खरच नहीं कर सकते, लेकिन हम चाहे तो किसी को भी फायदा पहुँचा सकते हैं। चाणक्य ने असंख्यों को फायदा पहुँचाया। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को धनी बना दिया। महात्माओं के वरदान और आशीर्वाद से न जाने क्या क्या हुए? वे स्वयं लंगोटी पहनते थे, तो कोई हर्ज की वात नहीं थी। देवत्व जब मनुष्य के भीतर आता है, तो महानता के रूप में आता है और महानता वह हुंडी है, जो नरसी मेहता की तरह से हर एक के ऊपर बरस सकती है।
मित्रो ! आध्यात्मिकता वो हुंडी है, देवत्व वह हुंडी है और मानवता वह हुंडी है जिसको भुनाने के लिए सुदामा की तरह से आप कभी भी भगवान के बैंक में जा सकते हैं और अपना पैसा वसूल कर सकते हैं। अगर आपको भौतिक चीजों को जरूरत पड़ जाए, तो भी इससे आप खरीद सकते हैं, लेकिन मैं समझता हूँ कि उसको अपने आपकी संपदा इतनी महान मालूम पड़ती है कि भौतिक वस्तुओं को इकट्ठा करने में कोई आनंद नहीं आता है इसलिए जिसको देवत्व का रस मालूम पड़ जाता है, वह उन चीजों को जो नाशवान हैं जो कल नहीं रहने वाली हैं जो केवल चमकदार मालूम पड़ती हैं, वास्तव में वे चमकदार नहीं हैं, बाहर से वे मृगतृष्णा की तरह मालूम पड़ती हैं और आनंद का कारण नहीं बन सकतीं। ऐसा व्यक्ति जानता है कि भौतिकता हमारे आनंद का करण नहीं बन सकती, औलाद हमारे आनंद का कारण नहीं बन सकती, वैभव, आर्थिक उन्नति हमारे आनंद का कारण नहीं बन सकती। बेटे ! यह सब मालूम पड़ता है, महसूस होता है, पर असलियत में है नहीं। यदि होता, तो संपन्न आदमी, बेटे जाले आदमी, पैसे वाले आदमी, ताकतवर आदमी- सबके सब ये कहते कि हम तो अपने जीवन में धन्य हुए। हम इस जीवन में सुखयापन करते हैं।
व्यक्तित्व का निर्माण कैसे करें?
यह लोकमान्यता सही नहीं है कि मनुष्य साधना के सहारे आगे बढ़ता और सफल होता है। वास्तविकता यह है कि परिष्कृत व्यक्तित्व ही साधन एकत्रित करता और उनके सदुपयोग का लाभ उठाता है। घटिया व्यक्तित्व अवसर होते हुए भी उसका लाभ नहीं उठा पाता ,, जबकि प्रतिभावान प्रतिकूलताओं के बीच भी अनुकूलता खोज निकालते हैं और अवसर न होते हुए भी उसे अपने कौशल से उपार्जित करते हैं।
साधन संपन्नों की संपदा का किस प्रकार उपयोग हुआ इस पर दृष्टि दौड़ाने से निराशा होती है। उपार्जन कर सकना सरल है। अनीति पर उतारू व्यक्ति उसे और भी जल्दी समेट लेते हैं। किसके पास कितना है? प्रश्न इस बात का नहीं वरन इस बात का है किसने, किस प्रकार कमाया? ठीक इसी प्रकार का यह भी प्रश्न है कि जो उपलब्ध था उसे किसने किस प्रकार, किन प्रयोजनों में खरच किया?
साधनों को कमाने, रखने और खरचने के लिए एक विशेष प्रकार की सूझ- बूझ चाहिए। उसे प्रखरता कहते हैं। सूझ- बूझ के अतिरिक्त उसमें पराक्रम भी जुड़ा रहता है। न केवल पराक्रम वरन प्रतिभावान सिद्ध करने वाले गुणों से भी अपने आप को सुसज्जित करना पड़ता है। इसमें प्रामाणिकता और कुशलता दोनों का ही समान समन्वय रहता है। इन दोनों में से एक की भी कमी पड़े तो कठिनाई अड़ जाएगी। प्रामाणिकता रहित व्यवहारकुशल धूर्त कहलाते हैं और बबूले की तरह जहाँ तहाँ उछलते डूबते रहते हैं। स्थायित्व के लिए प्रामाणिकता की भी आवश्यकता है। हाँ, यह माना जा सकता है कि केवल प्रामाणिक होने से भी काम नहीं चलता। प्रगति के लिए व्यवहारकुशलता की भी न्यूनाधिक मात्रा में उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी कि प्रामाणिकता की।
व्यक्तित्व का विनिर्मित करना सफलताओं और संपन्नताओं को अर्जित करने के लिए आवश्यक है। उसकी उपेक्षा करके धूर्तता के सहारे प्रगति करने की बात सोचने वाले कमाते कम और खोते ज्यादा हैं। आत्मसंतोष, लोक- सम्मान गँवाने वाले ईश्वर का कोप भी सहते हैं। ऐसे लोगों के लिए उपार्जन का सदुपयोग करते भी नहीं बन पड़ता। दुरुपयोग से अमृत भी विष बनता है। विलासी अपव्यय और दुर्व्यसन और कुपात्रों को हस्तांतरण यहीं है, साधनों का दुरुपयोग जिसे व्यक्तित्व रहित व्यक्ति करते देखे गए हैं। वे अपना, उपार्जित वैभव का ही नहीं उनका भी विनाश करते हैं जिसके साथ उनकी मैत्री, घनिष्ठता या अनुकंपा बरसती है। डूबने वाला अकेला ही नहीं पहने हुए कपड़ों को भी साथ ले डूबता है।
व्यक्तित्ववान सही रीति से सही साधन सीमित मात्रा में कमाए, यह हो सकता है, पर जो भी वे कमाते हैं, उसे उनकी दूरदर्शिता इस प्रकार प्रयुक्त करती है, जिसे असंख्यों के लिए आदर्श और अनुकरणीय कहा जा सके। सराहनीय और चिरस्थायी सफलताएँ सदा महामानवों ने ही अर्जित की हैं। व्यक्तित्यवानों से ही वैभव का सदुपयोग बन पड़ा हैं। परिश्रम और मनोयोग का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए परिस्थितियों की उतनी आवश्यकता नहीं पड़ती, जितनी परिष्कृत मनःस्थिति की। इसके लिए मनुष्य को आत्मिकी का अवलंबन लेना पड़ता है।
यह शरीर जिसे अज्ञानवश सब कुछ मान लिया गया है, आत्मा का वाहन उपकरण मात्र है। पदार्थों के संपर्क से उपलब्ध होने वाली संवेदनाएँ भी चेतना की सजगता से ही संभव होती हैं। चेतना ही इच्छा विचारणा और क्रिया के माध्यम से जीवन को विभिन्न गतिविधियों का संचार संचालन करती है। यों जीवित शरीर रहता है, पर जीवनतत्त्व का समस्त आधार चेतना के, आत्मा के साथ जुड़ा हुआ है।
मनुष्यों की काया संरचना में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं होता। मनःसंस्थान भी लगभग एक जैसे होते हैं। साधनों और परिस्थितियों में थोड़ा- बहुत अंतर तो रहता है, पर ये सब भिन्नताएँ ऐसी नहीं हैं, जिनके कारण मनुष्य−मनुष्य के बीच आकाश पाताल जैसा अंतर दिखाई पड़े। रुग्ण, अपंगों एवं बाल- वृद्धों की बात छोड़ दें और मध्यवर्ती लोगों की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन करें तो विदित होगा कि उनमें से कुछ बुरी तरह पिछड़े हुए, अभावग्रस्त और संक्षोभों में जकड़े हुए दूषित, असंतुष्ट और विपन्न स्थिति में रह रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो न दुखी हैं, न सुखी, न पतित हैं और न समुन्नत किसी प्रकार यंत्रवत जी रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जिनकी प्रतिभा चमकती है। वे ऊँचा सोचते और ऊँचा करते हैं। अपनी साहसिकता के बल पर वे जिधर भी चलते हैं, सफलताएँ छाया की तरह पीछे चलती हैं। स्वयं श्रेय, सम्मान पाते हैं और अपने प्रभावक्षेत्र को समुन्नत बनाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐतिहासिक महामानवों की श्रेणी में गिने जाते हैं और दिवंगत हो जाने पर भी अपनी ऐसी अनुकरणीय परंपराएँ छोड़ जाते है, जिनका अनुगमन करते हुए चिरकाल तक असंख्य लोग प्रगति- पथ पर अग्रसर होते हैं। पतित, यांत्रिक और समुन्नत स्तर के मनुष्यों के बीच पाए जाने वाले अंतर का एकमात्र कारण चेतना को स्थिति में भिन्नता होना ही है। प्रयत्न करने पर शरीर और पदार्थ का सुखद संयोग मिलता है और भौतिक स्थिति समृद्ध बनती है। यही प्रयत्न चेतना को सुसंस्कृत बनाने के लिए किया गया होता, तो निश्चय ही वहाँ भी प्रगतिशीलता दृष्टिगोचर होती, बलिष्ठता और संपन्नता का लाभ मिलता। दुर्भाग्य से चेतना के संबंध में नितांत उपेक्षा बरती जाती है, उस पर छाई हुई तमिस्रा को निरस्त करने का प्रयत्न किया गया होता तो स्थिति कुछ दूसरी ही होती। दैन्य, उद्वेग और संताप निश्चित रूप से आंतरिक पिछड़ेपन के ही चिह्न है। उसी के कारण ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ उपहार- मानव जीवन का लाभ नहीं मिल पाता। जिस शरीर के लिए समस्त जीवधारी तरसते हैं, उसे पाकर भी यदि मनुष्य दयनीय दुर्दशा का अभिशाप सहता है तो उसे परले सिरे का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए।
चेतना का महत्त्व समझा जा सके, उसकी प्रगति और परिष्कृति को जीवन का सच्चा लाभ, उपलब्धियों का आधार और आनंद का उद्गम समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि दूरदर्शिता इसी में है कि आत्मिक प्रगति के उस स्वार्थ- साधन पर ध्यान दिया जाए जिसे परमार्थ कहा जाता है। आंतरिक प्रगति में आत्मिक और भौतिक दोनों ही प्रकार के लाभ मिलते हैं जबकि चेतना को, गई- गुजरी स्थिति में पड़े रहने देते पर, मात्र भौतिक संपन्नता की बात सोचते रहने पर व्यक्तित्व के घटिया रहने के करण पग- पग पर असफलताएँ ही मिलती हैं और असंतोष, विक्षोभ ही पल्ले बँधता रहता है।
जीवनतत्त्व के स्वरूप और साफल्य पर विचार किया जा सके तो एक ही निष्कर्ष निकलेगा कि सर्वतोमुखी प्रगति और सुस्थिर प्रसन्नता के लिए चेतना को परिष्कृत एवं परिपुष्ट बनाना, भौतिक संपन्नता के लिए की जाने वली चेष्टाओं से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। उस दिशा में ध्यान देने और प्रयत्न करने से दोनों लोक सधते हैं जबकि उपेक्षा बरतने से छाया हुआ अंधकार केवल भटकाव ही देता है और ठोकरों पर ठोकरें खाने, रोने कलपने के लिए एकाकी छोड़ देता है। समझदारी इसी में है कि इस स्थिति का अंत किया जाए। दूरदर्शिता इसी में है कि जीवन -संपदा का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सकने योग्य चेतना का स्तर ऊँचा उठाने में अत्यंत प्रयत्न किया जाए। जिसने ऐसा सोचा और किया, समझना चाहिए कि वह वही जीवन क्षेत्र का सच्चा कलाकार है। इसी कलाकारिता को आत्म- साधना कहते हैं।