Books - धर्म संस्कृति के अग्रदूत
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Language: HINDI
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संन्यास से गृहस्थ संन्यास की ओर
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हरिद्वार के गंगातट पर बसे साधुओं के बीच कोई धनी सम्पन्न महिला पैसे बांटती हुई निकली। दो बाबाजी बैठे बात कर रहे थे। स्त्री ने उनकी ओर दो सिक्के फेंके—एक इकन्नी का और एक दो आने वाला। बातों का क्रम तोड़कर साधुओं ने वे सिक्के लपककर उठा लिये। अलग-अलग दोनों के हिस्से में आये, एक के पास चार पैसे वाला और दूसरे के पास दो आने वाला।
दोनों में मतभेद हुआ। जिसे एक आना मिला था वह बाबाजी यह दावा कर रहा था कि उस ने दो आने वाला सिक्का मेरी ओर फेंका था तथा दो आने वाले बाबाजी का कहना था कि यह सिक्का मेरी ओर फेंका गया था। इसी बात पर वे दोनों जोरों से चिल्लाने लगे और झगड़ने लगे। झगड़ा यहां तक बढ़ा कि चीमटों का प्रयोग होने लगा और एक बाबाजी का सिर फट गया। आस-पास के लोगों ने बीच बचाव कर अस्पताल भेजा।
इस घटना को देख रहा था पास की कुटी में बैठा एक—साधु। विचार मंथन चलने लगा। क्या यही साधुता है। समाज के मार्ग दर्शक कहलाकर हम धन दौलत से अलिप्त रहने का संदेश देते रहते हैं परन्तु यहां छोटे से छोटे सिक्कों के लिए सिर फुटोबल की नौबत आ जाती है। संसार को मिथ्या बताने का उपदेश स्वयं अंगीकार कर सकना तो बात दूर की रही उसके विपरीत आचरण कर साधु मर्यादा को भंग करना कहां का औचित्य है।
साधु की धर्म तीर्थ से हटकर चले जाने की इच्छा हुई और वह कुटी छोड़कर परिव्राजक जीवन बिताने के लिए निकल पड़ा। जगह-जगह घूमा हर स्थान पर साधू और संत के नाम पर ढोंगी, पाखण्डी लालची और अनाचारी बाबाजियों से पाला पड़ा। लोग उसका भी परिचय पूछते—उत्तर मिलता स्वामी विद्यानन्द। अन्य बाबाजियों जैसा ही कोई एक होने के कारण लोग उपेक्षा कर मुंह फेर लेते।
विद्यानन्द वाराणसी पहुंचे मणिकर्णिका घट पर एक श्रद्धालु गृहस्थ ने उन्हें अपने यहां ठहराया। पड़ौस में ही किसी महात्मा का प्रवचन चल रहा था। प्रभावोत्पादक ओजस्वी वाणी में महात्माजी लोगों को सत्शिक्षाएं देते। सरल सुबोध शैली में अध्यात्म का व्यावहारिक प्रतिपादन देखकर विद्यानन्दजी की मान्यता टूटने लगी। सोचा सभी साधु एक जैसे थोड़े ही होते हैं। वे भी प्रवचन सुनने नियमित रूप से जाते। और प्रवचन कर्त्ता महात्मा से बड़े प्रभावित हुए।
एक दिन महात्मा जी प्रवचन करने नहीं आये स्वामी विद्यानन्द को पता लगा कि क्या कारण है तो मालुम हुआ वे महात्मा जिस परिवार में ठहरे थे उस की एक कुमारी कन्या का शील भंग करने से पिट पिटा कर रात को चले गये।
स्वामी विद्यानन्द के मन में अपने श्रद्धेय महात्मा के साथ ही साधु और संत के नाम से ही तीव्र घृणा हो गयी वे सोचने लगे इससे गृहस्थ क्या बुरा था? साधु का बाना ही विश्वास तोड़ देने वाला है। लोग साधु महात्माओं की पोल जानते यह आदर्श चरित्र का नहीं दुश्चरित्रता का ही प्रतीक मात्र रह गया है। वे वाराणसी से भी चल दिए। सैकड़ों सजातीय संतों से मिले। उनके बुरे स्वभाव, लोलुप दृष्टि और मिथ्या दम्भ को देखकर ईश्वर भक्ति की जो जिज्ञासा थी वह लुप्त हो गयी। उनके हृदय में अन्तर्द्वन्द चलने लगा और अन्ततः वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि गृहस्थ जैसा सामान्य जीवन यापन करते हुए संत जैसी सत्वृत्ति अपनाना वेषधारी साधु बाना पहने फिरने की अपेक्षा कहीं उत्तम है।
स्वामी विद्यानन्द ने अपना साधु वेष छोड़ दिया और फिर से परिवार में आ गये। पत्नी बच्चों के हर्ष का पारावार नहीं रहा। स्त्री को अपना खोया सुहाग और बच्चों को अपने पिता का प्यार पुनः मिल गया। गांव वालों में उपहास का दौरा आने लगा। तरह-तरह के व्यंग और ताने कसे जाने लगे। परन्तु स्वामी विद्यानन्द सब कुछ सहते रहे। मौन और मुस्काकर। ऐसा नहीं कि उनके पास कोई उत्तर न रहा हो वरन् इस लिए कोई भी युक्तिपूर्ण उत्तर दिया जाय तो जो उपहास की दृष्टि से ही आलोचना करते हों उन पर क्या असर हो सकता है। विद्यानन्द प्रतिवाद में मुस्करा भर देते।
यहीं उनके सामने समाज सेवा का एक नया आयाम आया। गांव में कोई भी स्कूल नहीं था। बच्चे दिन भर मटर गश्ती या तीतरों बटेरों के पीछे गुलेल कंकड़ लेकर दौड़ते फिरते। जीवन जीने के लिए जो शिक्षा और तैयारी आवश्यक होती है—उस ओर किसी का ध्यान तक नहीं था। गांव से पन्द्रह मील दूर एक कस्बा था, दो चार सम्पन्न घर के बच्चे ही पढ़ने आ सकते थे। विद्यानन्दजी ने गांव में एक पाठशाला खोलने का निश्चय किया। आरम्भ में कुल तीन विद्यार्थी रहे। वे भी उन बच्चों में थे जो गांव से शहर पढ़ने जाया करते थे। विद्यानन्दजी घर-घर जाते और शिक्षा का महत्व समझाते। जो लोग शिक्षण की थोड़ी आवश्यकता महसूस करते थे वे तो अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार हो जाते। परन्तु जो इसे बिल्कुल ही आवश्यक नहीं समझते, बेकार और व्यर्थ का ढकोसला मानते वे विद्यानन्द का उपहास उड़ाकर बात को टाल देते। यहां विद्यानन्द की अनुकरणीय सहिष्णुता देखने में आई। अपने पूर्व जीवन से गृहस्थ में लौट आने के कारण उन पर कितनों ही ने व्यंग्योक्ति की है। विद्यानन्द ने इस बात की ओर तो कोई ध्यान ही नहीं दिया। वे ध्यान इसी बात का रखते कि मन में कोई प्रतिक्रिया तो नहीं होने लगी है। पूर्ववत् मुस्कान ही उनका प्रत्युत्तर था।
कोरा किताबी ज्ञान भी व्यर्थ है। यह बात उनके मस्तिष्क में पहले घुसी थी। अपने खेत पर ले जाकर बच्चों को प्रायोगिक और व्यवहारिक शिक्षण देना आरंभ किया। पेड़, पौधों सूर्य चांद नदी आदि प्राकृतिक उपादानों के विस्तृत उल्लेख कर उन्होंने नयी शिक्षण पद्धति निकाली तो विध्नतोषी लोगों को विद्यानन्द का विरोध करने का एक ओर बहाना मिल गया। विद्यार्थियों के अभिभावकों के पास जाकर उन्होंने बहकाना शुरू कर दिया कि विद्यानन्द लड़कों से पढ़ाने के बहाने अपने खेतों पर काम करवाता है। अभिभावक असन्तुष्ट होने लगे तो विद्यानन्द ने समझाया कि यह बात निराधार है। वे बच्चों से काम नहीं लेते वरन् उनको पढ़ाते हैं। परन्तु उनके कान तो इस तरह भर दिए गये थे कि शंकाओं का निराकरण मुश्किल था। निदान विद्यानन्दजी ने एक उपाय सुझाया कि बालकों के अभिभावकों की कृषि भूमि पर ही वे शिक्षा दिया करेंगे। अब शिक्षा भवन या मकान की अपेक्षा खुले आकाश के नीचे चलने लगी।
यह शिक्षा पूर्णतया निःशुल्क दी जाती थी। विद्यानन्द और उसके परिवार की जीविका खेती से चल जाती। अपनी मेहनत त्याग और तपश्चर्या के बल पर उनकी शिक्षा योजना इतनी लोकप्रिय हो गयी कि बाद में उसी विद्यालय को उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बना दिया गया। आस-पास के गांवों में घूम-घूमकर उन्होंने बहुत से स्कूल खुलवाये।
साठ वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। बाहरी दुनिया से भिन्न होते रहने के लिए विद्यालय में पुस्तकालय चलाने का क्रम भी उन्होंने चलाया।
संन्यास की कक्षा से वे पीछे हटे नहीं रहे। वरन् संन्यास के साथ गृहस्थ धर्म को भी जोड़कर उन्होंने गृहस्थ संन्यास का एक ऐसा प्रतिमान स्थापित किया जो आध्यात्म और धर्म साधना की ओर प्रवृत्ति भावुक लोगों को दिग्भ्रान्त होने से एक सीमा तक रोक सकने में सक्षम है।
बहुत से लोग यह कहते हैं कि सामान्य धर्म की कठोरता का निर्वाह न कर पाने के कारण वे उस कक्षा से लौट आये जिसमें उत्तीर्ण होना शूरवीरों का ही काम है परन्तु यह बात जितनी अत्युक्ति पूर्ण है उतनी ही उनके प्रति पक्षपात पूर्ण भी। वस्तुतः वे आज के उस संन्यस्त जीवन स्तर से बहुत अधिक-अधिक ऊंचे और महान उठ गये थे। उनके जीवन का प्रेरक मंत्र गीता का अनन्य शरणागति रहा है, जिसे महात्मा गांधी ने संन्यास की प्रथम कसौटी कहा है। और वे इस कसौटी पर गृहस्थ में रहते हुए भी खरे उतरे।