Books - धर्म संस्कृति के अग्रदूत
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
पाखण्ड विडम्बना के प्रबल शत्रु—संत कबीर
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
संत कबीर दास के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त और उसके बाद की कई चमत्कारी किम्वदन्तियां हैं। वे कितनी सच हैं और कितनी मन गढ़न्त इसकी चर्चा तो अनावश्यक है, परन्तु सच यह है कि मध्य काल में ऐसे चमत्कारों, अन्धविश्वासों और मुल्ला पण्डितों द्वारा निर्मित अन्ध परम्पराओं से लेकर सामाजिक कुरीतियों पर जितना घातक प्रहार कबीरदास करते उतना शायद ही किसी संत या आध्यात्मिक विभूति ने किया हो।
उनकी दृष्टि में जाति पांति कुलवंश, परिवार और पद प्रतिष्ठा नहीं व्यक्ति का व्यक्तित्व और आन्तरिक निष्ठा ये ही अधिक महत्वपूर्ण थीं। वस्तुतः सन्त या साधारण इंसान में अन्तर जानने के लिए परख की कसौटी है भी यही। उच्च ब्राह्मणों और राजकुलों में जन्म लेने वाले व्यक्ति का स्तर भी निम्न और पतित हो सकता है तथा निम्न-कुल के उपेक्षित और पिछड़े वंश परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति भी अपनी आन्तरिक श्रेष्ठता के कारण संत महात्मा और देव पुरुषों की पंक्ति में जा बैठ सकता है। उस समय जब कबीर का जन्म हुआ तो लोक संसार के साथ अध्यात्म जगत में भी यही मान्यता स्थापित की हुई थी। समाज और राजपरिवार में तो प्रगति और श्रेष्ठता का आधार जाति या वंश था ही आध्यात्मिक क्षेत्र में भी साधना और आत्म कल्याण का अधिकार उच्च कुल के व्यक्तियों को ही दिया गया। समाज में इस परम्परा का इतना दुष्प्रभाव नहीं पड़ता जितना कि अध्यात्म क्षेत्र में। क्योंकि इससे तो व्यक्ति के विकास की सम्भावनाएं ही नष्ट हो जाती हैं और इसलिये संत कबीरदास ने सर्वप्रथम इस मान्यता को तोड़ा और ‘जाति न पूछो साधु की पूछ लेउ बस ज्ञान।’
ऐसी कुरीतियां भी प्रायः चिरपोषित अन्धविश्वास के परिणाम स्वरूप जन्म लेती हैं।
स्वयं कबीरदास के कुल और वंश का कोई पता नहीं चल सका है। जहां तक उनके सम्बन्ध में पता चला है उनका पालन पोषण नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने किया था। अधिकांश लोगों की मान्यता है कि इन दम्पत्ति को काशी के लहरतारा तालाब के तट पर एक बालक पड़ा मिला था वे निःसन्तान थे—स्वाभाविक ही उनके मन में इस अनाथ शिशु के प्रति ममत्व जागा और वे इसे उठाकर अपने घर ले आये तथा बेटे की तरह पालन करने लगे। यहीं कबीर बड़े हुए और अपने अभिभावक माता-पिता के पेशे में लगे।
काशी जैसा पवित्र तीर्थ स्थल। उन दिनों काशी में एक से एक पहुंचे हुए सिद्ध महापुरुष थे, जिनकी जीवन वाटिका में धर्म साधना और ईश्वर उपासना की कला से विकसित पुष्पों की सुगन्ध महानगरी में फैली हुई थी। स्वामी रामानन्द जैसे वैष्णव संत भी वही निवास करते थे और वहां की जनता पर अनूठा प्रभाव था। क्या हिन्दू क्या मुसलमान सभी के मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा थी। नूरी जुलाहा भी उनके प्रति श्रद्धावनत् था और इन नियोजित माता-पिता की श्रद्धा भावना—कबीर को उत्तराधिकार में मिली।
संत कबीर जब थोड़े बड़े हुए तो उनके अन्तःकरण में आरोपित ईश्वर की भक्ति के बेल भी फलने-फूलने लगी। हृदय में तीव्र आकांक्षा थी कि स्वामी रामानन्द से ईश्वर भक्ति की—उपासना साधना की दीक्षा ली जाय। परन्तु असमंजस यह था कि जुलाहा परिवार का सदस्य होने के कारण जाति से मुसलमान होने के कारण कहीं स्वामी जी मना न कर दें, अनाधिकारी घोषित न कर दें, और यदि यह आशंका सच निकली तो उन्हें अपना गुरु मानने की आशंका धूल-धूसरित हो जायगी।
इस सम्भावना को दृष्टिगत रखते हुए कबीर ने एक ऐसा उपाय सोचा जिससे यह सम्भावना भी न रहे और स्वामीजी के शिष्यत्व की पात्रता भी मिल जाये। स्वामी रामानन्द प्रातःकाल ब्राह्म मुहूर्त में गंगा स्नान के लिए जाया करते थे। कबीर को यह पता चला तो वे आधी रात को ही उसी घाट पर जा बैठे तथा स्वामी जी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। सूर्योदय होने में कोई एक पहर ही बाकी रहा होगा तब स्वामीजी आये और कबीर दास उनके जाने से पूर्व ही घाट की सीढ़ियों पर लेट गये।
अन्धकार के कारण स्वामी जी न देख पाये और उनका पांव कबीर की देह पर रख गया। जैसे ही उन्हें यह लगा की पांव के नीचे कोई दब रहा है वे एक दम राम-राम कहते हुए उछले और इधर कबीर भी उठ बैठे। बड़ी प्रसन्नता से उन्होंने स्वगत कहा—मिल गया। अब कोई चिन्ता नहीं।’
स्वामीजी ने विस्मित हो पूछा—‘क्या मिल गया।’
‘‘मैं जाति का जुलाहा हूं और आप से गुरुदीक्षा चाहता हूं, सो मुझे गुरु मन्त्र मिल गया।’’
गुरुदीक्षा ही लेनी थी तो मुझसे कहना था। इस प्रकार लेटने से क्या लाभ मिला।
कबीर ने कहा—मैं सोचता था। कहीं मुसलमान होने के कारण मुझे दीक्षा का अनधिकारी न कह दें।
लोक व्यवहार में परिणाम विपर्यय की सम्भावना से सावधान रहते और चातुरी बरतते देखा है परन्तु धर्म और आध्यात्म का क्षेत्र भी इतना संदिग्ध है कि मुमुक्ष को पहली सीढ़ी पार करने के लिए यह मार्ग अपनाना पड़ा। स्वामीजी ने अपने इस विचित्र शिष्य को गले से लगा लिया और उन्हें लगा कि जिस प्रतिभा संपन्न शिष्य की तलाश थी वह मिल गया है।
धर्म के क्षेत्र में पनप रहे छल कपट धूर्त व्यवहार से स्वामीजी भली-भांति विज्ञ थे। उसे निर्मूल करने के लिए कबीर श्रेष्ठ भूमिका निवाह सकेंगे—प्रथम भेंट में ही उन्होंने जान लिया। और कबीर को धर्म तथा अध्यात्म के सिद्धान्तों का ज्ञान कराने के साथ-साथ साधना मार्ग पर भी आरूढ़ किया।
स्वयं को ईश्वर से भी अधिक गुरु का उपकृत मानने वाले कबीर की श्रद्धा इन पंक्तियों में मुखरित हुई है।
गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पांय ।
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय ।।
वे कैसे साधु महात्माओं के विरोधी हो सकते हैं? फिर भी वे साधु पण्डित, काजी, मुल्लाओं के सबसे बड़े और प्रबल शत्रु थे। उस वर्ग के जिन्होंने अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्म के पुण्य क्षेत्र को विकृतियों से दूषित किया। जन साधारण के कल्याण और सुख शांति के मार्ग-दर्शन के स्थान पर जनमानस में अन्धविश्वास, तपन हिंसा और अन्य व्यक्तिगत विकृतियों तथा सामाजिक कुरीतियों के विष बीज बोये।
कबीर समाज में ऐसे वर्ग से उठकर आये जिसे अभी तक विद्या बुद्धि प्रगति के क्षेत्रों में आगे बढ़ने का अवसर ही नहीं मिला था। उस वर्ग को अमानव या पशु का दर्जा दिया गया था। उस समय के कई पण्डितों और काजियों ने तो इस वर्ग को जड़ भी घोषित कर रखा था। ऐसे वर्ग और समुदायों की कुंठाओं या प्रतिक्रियाओं ने कबीर जैसे विद्रोही को जन्म दिया तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। कुछ लोग कबीर को हठवादी और पूर्वाग्रही सिद्ध करने पर आज भी तुले हैं। परन्तु यह मान्यता अपने आप में एक पूर्वाग्रह है।
उस समग्र समाज की तन्द्रा तोड़ने के लिए यह आवश्यकता थी कि प्रचलित विश्वासों, मान्यताओं और प्रतीकों पर तीव्र प्रहार किया जाये। उन्हें तोड़े बिना जनता की निष्ठाएं और आस्थायें सच्चे धर्म के प्रति उद्भूत ही नहीं हो सकती थीं। कबीर ने इस मर्म को गम्भीरता से समझा। अपनी पैनी दृष्टि से देखा और अपनी तीखी शैली में कह दिया धर्मतन्त्र और आध्यात्म की स्थापना साधु सन्तों की महिमा और शाश्वत सिद्धान्तों के जीवन मूल्यों की अवहेलना किये बिना असम्भव ही है। इस तथ्य को कबीर की नस-नस में बहता हुआ देखा जा सकता है। साधना, उपासना, चरित्र, सद्गुण, सत्य, न्याय, प्रेम, गुरु, शास्त्र, दर्शन आदि के प्रति अगाध श्रद्धा व्यक्त करने में आवश्यकता प्रतिपादित करने में कबीर अपने समय के सभी विद्वानों से आगे निकल गये।
संत कबीर ने अपने समय में प्रचलित पाखण्ड और अन्धविश्वास का ही खण्डन नहीं किया वरन् उस समय की कई सामाजिक कुरीतियों और परम्पराओं को भी नहीं बख्शा। जाति-पांति से लेकर मुसलमान तक, और बाह्य चिह्न पूजा से लेकर पशु बलि के अन्धविश्वास तक कोई भी विकृति उनके आक्रमण से बच नहीं सकी। निस्संदेह ऐसी प्रवृत्तियां सम्बन्धित नेतृत्व में निहित स्वार्थ की भावना पनपने के कारण आती हैं। इन परम्पराओं और मान्यताओं पर प्रहार होते देखकर स्वार्थी तत्वों का कुपित होना स्वाभाविक ही है और संत कबीर को ऐसों का कोपभाजन बनना ही पड़ा परन्तु उन्होंने अपना मार्ग नहीं छोड़ा।
तत्कालीन शासक सिकन्दर लोदी ने उन्हें तरह-तरह से उत्पीड़ित किया। शारीरिक यातनाओं से लेकर मरणान्तक कष्ट देने तक कोई उपाय नहीं छोड़ा। परन्तु अन्तर्निहित जाग्रत आत्मदेव की शक्ति क्षमता ने उनका सदैव बचाव किया। एक बार तो उन्हें गंगा तक में फेंक दिया गया। पर सिद्धान्तों और आस्था निष्ठाओं के धनी कबीर ने जीवन मूल्यों के ही अधिक महत्व दिया।
उनके व्यक्तिगत निजी जीवन की ओर दृष्टिपात करने पर तो सर्वाधिक विस्मित रह जाना पड़ता है। कुलहीन व्यक्ति ने और वह भी अनपढ़ जिसकी अंगुली ने कभी कागज और कलम को छुआ तक नहीं, कैसे इतना साहित्य सृजन किया, अपने व्यक्तित्व में कहां से इतनी प्रभावकारी क्षमता अर्जित की जिसने क्या मुगल साम्राज्य और क्या हिन्दू धर्म की पण्डा पुरोहित नियन्त्रित व्यवस्था की जड़ें हिला दीं। कबीर के कई-कई दोहे ऐसे हैं जिनका अर्थ आज तक नहीं खोजा जा सका है। उनकी उलटवासियां तो शोध छात्रों का प्रिय विषय बनी हैं। उन पर शोध प्रबन्ध लिख कर ही वे अपनी योग्यता तथा विद्वत्ता को प्रमाणित करते हैं। कबीर के व्यक्तित्व की इस समृद्धि और सम्पन्नता की ओर देखने पर अध्यात्म तथा धर्म को जीवन विद्या में निहित शक्ति जागरण की महानतम सम्भावनाओं को स्वीकार करना ही पड़ता है।
समाज में उनका प्रभाव और अनुयायिओं की एक बड़ी संख्या होते हुए भी कबीर ने जुलाहों का सा घर का पेशा अपनाया। वे एक साधारण गृहस्थ की तरह जिए। लोई जो उनकी धर्मपत्नी थीं ने दो बच्चों को भी जन्म दिया। पारिवारिक उत्तरदायित्वों के होने पर भी कबीर की मस्ती और सेवा साधना में कोई अन्तर नहीं आया। समाज में व्यापक परिवर्तन के सूत्रधार बनकर भी—अहर्निश इन प्रवृत्तियों और गतिविधियों में संलग्न रहकर भी कबीर ने अन्य साधु-संन्यासियों की तरह कभी भिक्षा या दान नहीं लिया। इस मार्ग के अन्य पथिकों को भी उन्होंने सदैव यही प्रेरणा दी—
साधू संग्रह ना करे, उदर समाता लेय ।
आगे पीछे हरि खड़े, जो मांगो सो देय ।।
और—
जो जल बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम ।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सज्जन को काम ।।
इस आदर्श को लेकर जीने वाले व्यक्ति ही अपने जीवन में समाज सेवा के लिये नव निर्माण के लिए कुछ कर पाने में समर्थ हो सकते हैं। अन्यथा जीवन स्त्री बच्चों के लिये विलास सुविधायें जुटाने में ही बीत जाता है। 120 वर्ष की आयु में सन्तु कबीर का देहान्त सन् 1580 ई. में हुआ। अपने अन्तिम समय में वे मगहर चले गए थे क्योंकि लोगों की मान्यता थी कि मगहर में मरने वाला व्यक्ति नर्क को जाता है। मरने के बाद भी अन्धविश्वास टूटे इसके लिए कबीर कितने यत्नशील थे।
उनकी दृष्टि में जाति पांति कुलवंश, परिवार और पद प्रतिष्ठा नहीं व्यक्ति का व्यक्तित्व और आन्तरिक निष्ठा ये ही अधिक महत्वपूर्ण थीं। वस्तुतः सन्त या साधारण इंसान में अन्तर जानने के लिए परख की कसौटी है भी यही। उच्च ब्राह्मणों और राजकुलों में जन्म लेने वाले व्यक्ति का स्तर भी निम्न और पतित हो सकता है तथा निम्न-कुल के उपेक्षित और पिछड़े वंश परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति भी अपनी आन्तरिक श्रेष्ठता के कारण संत महात्मा और देव पुरुषों की पंक्ति में जा बैठ सकता है। उस समय जब कबीर का जन्म हुआ तो लोक संसार के साथ अध्यात्म जगत में भी यही मान्यता स्थापित की हुई थी। समाज और राजपरिवार में तो प्रगति और श्रेष्ठता का आधार जाति या वंश था ही आध्यात्मिक क्षेत्र में भी साधना और आत्म कल्याण का अधिकार उच्च कुल के व्यक्तियों को ही दिया गया। समाज में इस परम्परा का इतना दुष्प्रभाव नहीं पड़ता जितना कि अध्यात्म क्षेत्र में। क्योंकि इससे तो व्यक्ति के विकास की सम्भावनाएं ही नष्ट हो जाती हैं और इसलिये संत कबीरदास ने सर्वप्रथम इस मान्यता को तोड़ा और ‘जाति न पूछो साधु की पूछ लेउ बस ज्ञान।’
ऐसी कुरीतियां भी प्रायः चिरपोषित अन्धविश्वास के परिणाम स्वरूप जन्म लेती हैं।
स्वयं कबीरदास के कुल और वंश का कोई पता नहीं चल सका है। जहां तक उनके सम्बन्ध में पता चला है उनका पालन पोषण नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने किया था। अधिकांश लोगों की मान्यता है कि इन दम्पत्ति को काशी के लहरतारा तालाब के तट पर एक बालक पड़ा मिला था वे निःसन्तान थे—स्वाभाविक ही उनके मन में इस अनाथ शिशु के प्रति ममत्व जागा और वे इसे उठाकर अपने घर ले आये तथा बेटे की तरह पालन करने लगे। यहीं कबीर बड़े हुए और अपने अभिभावक माता-पिता के पेशे में लगे।
काशी जैसा पवित्र तीर्थ स्थल। उन दिनों काशी में एक से एक पहुंचे हुए सिद्ध महापुरुष थे, जिनकी जीवन वाटिका में धर्म साधना और ईश्वर उपासना की कला से विकसित पुष्पों की सुगन्ध महानगरी में फैली हुई थी। स्वामी रामानन्द जैसे वैष्णव संत भी वही निवास करते थे और वहां की जनता पर अनूठा प्रभाव था। क्या हिन्दू क्या मुसलमान सभी के मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा थी। नूरी जुलाहा भी उनके प्रति श्रद्धावनत् था और इन नियोजित माता-पिता की श्रद्धा भावना—कबीर को उत्तराधिकार में मिली।
संत कबीर जब थोड़े बड़े हुए तो उनके अन्तःकरण में आरोपित ईश्वर की भक्ति के बेल भी फलने-फूलने लगी। हृदय में तीव्र आकांक्षा थी कि स्वामी रामानन्द से ईश्वर भक्ति की—उपासना साधना की दीक्षा ली जाय। परन्तु असमंजस यह था कि जुलाहा परिवार का सदस्य होने के कारण जाति से मुसलमान होने के कारण कहीं स्वामी जी मना न कर दें, अनाधिकारी घोषित न कर दें, और यदि यह आशंका सच निकली तो उन्हें अपना गुरु मानने की आशंका धूल-धूसरित हो जायगी।
इस सम्भावना को दृष्टिगत रखते हुए कबीर ने एक ऐसा उपाय सोचा जिससे यह सम्भावना भी न रहे और स्वामीजी के शिष्यत्व की पात्रता भी मिल जाये। स्वामी रामानन्द प्रातःकाल ब्राह्म मुहूर्त में गंगा स्नान के लिए जाया करते थे। कबीर को यह पता चला तो वे आधी रात को ही उसी घाट पर जा बैठे तथा स्वामी जी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। सूर्योदय होने में कोई एक पहर ही बाकी रहा होगा तब स्वामीजी आये और कबीर दास उनके जाने से पूर्व ही घाट की सीढ़ियों पर लेट गये।
अन्धकार के कारण स्वामी जी न देख पाये और उनका पांव कबीर की देह पर रख गया। जैसे ही उन्हें यह लगा की पांव के नीचे कोई दब रहा है वे एक दम राम-राम कहते हुए उछले और इधर कबीर भी उठ बैठे। बड़ी प्रसन्नता से उन्होंने स्वगत कहा—मिल गया। अब कोई चिन्ता नहीं।’
स्वामीजी ने विस्मित हो पूछा—‘क्या मिल गया।’
‘‘मैं जाति का जुलाहा हूं और आप से गुरुदीक्षा चाहता हूं, सो मुझे गुरु मन्त्र मिल गया।’’
गुरुदीक्षा ही लेनी थी तो मुझसे कहना था। इस प्रकार लेटने से क्या लाभ मिला।
कबीर ने कहा—मैं सोचता था। कहीं मुसलमान होने के कारण मुझे दीक्षा का अनधिकारी न कह दें।
लोक व्यवहार में परिणाम विपर्यय की सम्भावना से सावधान रहते और चातुरी बरतते देखा है परन्तु धर्म और आध्यात्म का क्षेत्र भी इतना संदिग्ध है कि मुमुक्ष को पहली सीढ़ी पार करने के लिए यह मार्ग अपनाना पड़ा। स्वामीजी ने अपने इस विचित्र शिष्य को गले से लगा लिया और उन्हें लगा कि जिस प्रतिभा संपन्न शिष्य की तलाश थी वह मिल गया है।
धर्म के क्षेत्र में पनप रहे छल कपट धूर्त व्यवहार से स्वामीजी भली-भांति विज्ञ थे। उसे निर्मूल करने के लिए कबीर श्रेष्ठ भूमिका निवाह सकेंगे—प्रथम भेंट में ही उन्होंने जान लिया। और कबीर को धर्म तथा अध्यात्म के सिद्धान्तों का ज्ञान कराने के साथ-साथ साधना मार्ग पर भी आरूढ़ किया।
स्वयं को ईश्वर से भी अधिक गुरु का उपकृत मानने वाले कबीर की श्रद्धा इन पंक्तियों में मुखरित हुई है।
गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पांय ।
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय ।।
वे कैसे साधु महात्माओं के विरोधी हो सकते हैं? फिर भी वे साधु पण्डित, काजी, मुल्लाओं के सबसे बड़े और प्रबल शत्रु थे। उस वर्ग के जिन्होंने अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्म के पुण्य क्षेत्र को विकृतियों से दूषित किया। जन साधारण के कल्याण और सुख शांति के मार्ग-दर्शन के स्थान पर जनमानस में अन्धविश्वास, तपन हिंसा और अन्य व्यक्तिगत विकृतियों तथा सामाजिक कुरीतियों के विष बीज बोये।
कबीर समाज में ऐसे वर्ग से उठकर आये जिसे अभी तक विद्या बुद्धि प्रगति के क्षेत्रों में आगे बढ़ने का अवसर ही नहीं मिला था। उस वर्ग को अमानव या पशु का दर्जा दिया गया था। उस समय के कई पण्डितों और काजियों ने तो इस वर्ग को जड़ भी घोषित कर रखा था। ऐसे वर्ग और समुदायों की कुंठाओं या प्रतिक्रियाओं ने कबीर जैसे विद्रोही को जन्म दिया तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। कुछ लोग कबीर को हठवादी और पूर्वाग्रही सिद्ध करने पर आज भी तुले हैं। परन्तु यह मान्यता अपने आप में एक पूर्वाग्रह है।
उस समग्र समाज की तन्द्रा तोड़ने के लिए यह आवश्यकता थी कि प्रचलित विश्वासों, मान्यताओं और प्रतीकों पर तीव्र प्रहार किया जाये। उन्हें तोड़े बिना जनता की निष्ठाएं और आस्थायें सच्चे धर्म के प्रति उद्भूत ही नहीं हो सकती थीं। कबीर ने इस मर्म को गम्भीरता से समझा। अपनी पैनी दृष्टि से देखा और अपनी तीखी शैली में कह दिया धर्मतन्त्र और आध्यात्म की स्थापना साधु सन्तों की महिमा और शाश्वत सिद्धान्तों के जीवन मूल्यों की अवहेलना किये बिना असम्भव ही है। इस तथ्य को कबीर की नस-नस में बहता हुआ देखा जा सकता है। साधना, उपासना, चरित्र, सद्गुण, सत्य, न्याय, प्रेम, गुरु, शास्त्र, दर्शन आदि के प्रति अगाध श्रद्धा व्यक्त करने में आवश्यकता प्रतिपादित करने में कबीर अपने समय के सभी विद्वानों से आगे निकल गये।
संत कबीर ने अपने समय में प्रचलित पाखण्ड और अन्धविश्वास का ही खण्डन नहीं किया वरन् उस समय की कई सामाजिक कुरीतियों और परम्पराओं को भी नहीं बख्शा। जाति-पांति से लेकर मुसलमान तक, और बाह्य चिह्न पूजा से लेकर पशु बलि के अन्धविश्वास तक कोई भी विकृति उनके आक्रमण से बच नहीं सकी। निस्संदेह ऐसी प्रवृत्तियां सम्बन्धित नेतृत्व में निहित स्वार्थ की भावना पनपने के कारण आती हैं। इन परम्पराओं और मान्यताओं पर प्रहार होते देखकर स्वार्थी तत्वों का कुपित होना स्वाभाविक ही है और संत कबीर को ऐसों का कोपभाजन बनना ही पड़ा परन्तु उन्होंने अपना मार्ग नहीं छोड़ा।
तत्कालीन शासक सिकन्दर लोदी ने उन्हें तरह-तरह से उत्पीड़ित किया। शारीरिक यातनाओं से लेकर मरणान्तक कष्ट देने तक कोई उपाय नहीं छोड़ा। परन्तु अन्तर्निहित जाग्रत आत्मदेव की शक्ति क्षमता ने उनका सदैव बचाव किया। एक बार तो उन्हें गंगा तक में फेंक दिया गया। पर सिद्धान्तों और आस्था निष्ठाओं के धनी कबीर ने जीवन मूल्यों के ही अधिक महत्व दिया।
उनके व्यक्तिगत निजी जीवन की ओर दृष्टिपात करने पर तो सर्वाधिक विस्मित रह जाना पड़ता है। कुलहीन व्यक्ति ने और वह भी अनपढ़ जिसकी अंगुली ने कभी कागज और कलम को छुआ तक नहीं, कैसे इतना साहित्य सृजन किया, अपने व्यक्तित्व में कहां से इतनी प्रभावकारी क्षमता अर्जित की जिसने क्या मुगल साम्राज्य और क्या हिन्दू धर्म की पण्डा पुरोहित नियन्त्रित व्यवस्था की जड़ें हिला दीं। कबीर के कई-कई दोहे ऐसे हैं जिनका अर्थ आज तक नहीं खोजा जा सका है। उनकी उलटवासियां तो शोध छात्रों का प्रिय विषय बनी हैं। उन पर शोध प्रबन्ध लिख कर ही वे अपनी योग्यता तथा विद्वत्ता को प्रमाणित करते हैं। कबीर के व्यक्तित्व की इस समृद्धि और सम्पन्नता की ओर देखने पर अध्यात्म तथा धर्म को जीवन विद्या में निहित शक्ति जागरण की महानतम सम्भावनाओं को स्वीकार करना ही पड़ता है।
समाज में उनका प्रभाव और अनुयायिओं की एक बड़ी संख्या होते हुए भी कबीर ने जुलाहों का सा घर का पेशा अपनाया। वे एक साधारण गृहस्थ की तरह जिए। लोई जो उनकी धर्मपत्नी थीं ने दो बच्चों को भी जन्म दिया। पारिवारिक उत्तरदायित्वों के होने पर भी कबीर की मस्ती और सेवा साधना में कोई अन्तर नहीं आया। समाज में व्यापक परिवर्तन के सूत्रधार बनकर भी—अहर्निश इन प्रवृत्तियों और गतिविधियों में संलग्न रहकर भी कबीर ने अन्य साधु-संन्यासियों की तरह कभी भिक्षा या दान नहीं लिया। इस मार्ग के अन्य पथिकों को भी उन्होंने सदैव यही प्रेरणा दी—
साधू संग्रह ना करे, उदर समाता लेय ।
आगे पीछे हरि खड़े, जो मांगो सो देय ।।
और—
जो जल बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम ।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सज्जन को काम ।।
इस आदर्श को लेकर जीने वाले व्यक्ति ही अपने जीवन में समाज सेवा के लिये नव निर्माण के लिए कुछ कर पाने में समर्थ हो सकते हैं। अन्यथा जीवन स्त्री बच्चों के लिये विलास सुविधायें जुटाने में ही बीत जाता है। 120 वर्ष की आयु में सन्तु कबीर का देहान्त सन् 1580 ई. में हुआ। अपने अन्तिम समय में वे मगहर चले गए थे क्योंकि लोगों की मान्यता थी कि मगहर में मरने वाला व्यक्ति नर्क को जाता है। मरने के बाद भी अन्धविश्वास टूटे इसके लिए कबीर कितने यत्नशील थे।