Books - दृश्य जगत के अदृश्य संचालन सूत्र
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Language: HINDI
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परम श्रद्धेय ईश्वरीय सत्ता
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विद्युत एक अदृश्य तत्व है किन्तु अन्धकार दूर करने के लिये एक विशेष प्रक्रिया अपनानी पड़ती है और उस अदृश्य विद्युत का प्रभाव दृश्य प्रकाश के रूप में परिणत हो जाता है। चुम्बकत्व यों एक ऐसी शक्ति है जिसे देखा नहीं जा सकता किन्तु उसे ही एक लोहे की सुई में पिरो दिया जाता है तो वही दिशा बोध कराने वाली कुतुबनुमा बन जाती है। परमात्मा एक अदृश्य तत्व है किन्तु अन्तःकरण की श्रद्धा और मन का विश्वास एकाकार होते हैं तो उस सत्ता के प्रभाव पुण्यफल देखते ही बनते हैं।
कौरवों की सभा में द्रौपदी का चीरहरण किया जा रहा था, वह अबला असहाय खड़ी थी, मनुष्य की नहीं ईश्वर की सहायता प्राप्त हुई और उसकी लाज बच गई। दमयन्ती बीहड़ वन में अकेली थी, व्याध उसका सतीत्व नष्ट करने पर तुला था। सहायक कोई नहीं उसकी नेत्र ज्योति में से भगवान प्रकट हुए और व्याध जलकर भस्म हो गया। दमयन्ती पर कोई आंच नहीं आई। प्रहलाद के लिये उसका पिता ही जान का ग्राहक बना बैठा था, बच कर कहां जाय? खम्भे में से नृसिंह भगवान प्रकट हुये और प्रहलाद की रक्षा हुई। घर से निकाले हुए पाण्डवों की सहायता करने, उनके घोड़े जोतने भगवान स्वयं आये। नरसी महता की सम्मान रक्षा-भगवान ने अपनी सम्मान रक्षा की तरह ही मानी। ग्राह के मुख से गज के बन्धन छुड़ाने के लिये प्रभु नंगे पैरों दौड़े आये थे।
मीरा को विष का प्याला भेजा गया और सांपों को पिटारा, पर वह मरी नहीं। न जाने कौन उसके हलाहल को चूस गया और मीरा जीवित बची रही। गांधी को अनेक सहयोगी मिले और वे दुर्दान्त शक्ति से निहत्थे लड़ कर जीते। भगीरथ की तपस्या से गंगा द्रवित हुई और धरती पर बहने के लिये तैयार हो गई। शिवजी सहयोग देने के लिये आये और गंगा को जटाओं में धारण किया, भगीरथ की साधना पूरी हुई। दुर्वाशा के शाप से संत्रस्त राजा अम्बरीष की सहायता करने भगवान का चक्र सुदर्शन स्वयं दौड़ा आया था। समुद्र से टिटहरी के अण्डे वापिस दिलाने में सहायता करने के लिए भगवान अगस्त्य मुनि बनकर आये थे। नल और नील ने समुद्र पर पुल बांधने का असम्भव दीखने वाला काम सम्भव कर दिया था। हनुमान को समुद्र छलांगने की शक्ति भी किसी अदृश्य शक्ति से ही उपलब्ध हुई थी।
यह उदाहरण प्राचीन पौराणिक गाथाएं कहकर झुठलाये जा सकते हैं और उनकी सत्यता से इनकार किया जा सकता है। हमारा देश सदियों से भाव प्रधान और आस्तिक-आध्यात्मिक विचारों की जन्मभूमि रहा है अतएव इन घटनाओं को किंवदन्तियों की भी संज्ञा दी जा सकती है। किन्तु सनातन सत्ता तो काल गति और ब्रह्माण्ड से सर्वथा अतीत है जिस तरह यह प्राचीन काल में थी, आज भी है और उसकी अदृश्य सहायताएं पूर्व से पश्चिम उत्तर से दक्षिण तक आज भी प्राप्त करते रहते हैं। टंग्स्टन तार पर धन व ऋण विद्युत धाराओं के अभिव्यक्त होने की तरह यह ईश्वरीय अनुदान जिन दो धाराओं के सम्मिश्रण से किसी भी काल में प्रकट होते रहते हैं वह हैं श्रद्धा और विश्वास। यह सत्ताएं जहां कहीं जब कभी हार्दिक अभिव्यक्ति पाती हैं परमेश्वर की अदृश्य सहायता वहां उभरे बिना नहीं रह सकती। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण लेडीवीटर ने अपनी पुस्तक ‘इनविजिबल हेल्पर्स’ (अदृश्य सहायक) पुस्तक में दिये हैं जिनसे इस युग में भी अतीन्द्रिय सत्ता के अस्तित्व पर विश्वास हुए बिना नहीं रहता और लेडीरुथ मान्ट गुमरी की पुस्तक ‘सत्य की खोज में’ [इन सर्च आफ ट्रुथ] में 20 वीं शताब्दी की सबसे आश्चर्यजनक घटना के रूप में ‘सराक्यूज की रोती हुई प्रतिमा’ (वीपिंग स्टेच्यू आफ सराक्यूज) में दिया है। एक सरल हृदय अपंग किन्तु श्रद्धालु महिला की भाव-भरी प्रार्थना से विह्वल होकर उसकी प्लास्टर आफ पेरिस की प्रतिमा की आंखों से आंसू बह निकले। डच विद्वान फादर ए सोमर्स ने स्वयं मूर्ति और उसके आंसुओं का परीक्षण करने के बाद उसे विस्तार से समाचार पत्रों में छपाया और एच जोर्गन ने उसका अंग्रेजी रूपान्तर प्रकाशित कराया।
21 मार्च 1953 को कुमारी एण्टोर्निएटा का श्री एग्लोजेन्यूसी के साथ पाणिग्रहण संस्कार हुआ। इस अवसर पर उपहार की अन्य वस्तुओं में यह छोटी-सी प्लास्टर आफ पेरिस की अन्दर से पोली ऊपर एनामिल चढ़ी प्रतिमा भेंट में मिली थी एन्टोर्निएटा को मीरा के गिरधर गोपाल की तरह यह मूर्ति बहुत प्यारी लगी और वह उसकी इष्टदेवी बन गई।
विवाह के बाद एण्टिर्निएटा गर्भवती हुई। गर्भ जैसे-जैसे विकसित हुआ वह अत्यधिक दुर्बल होती गई। आंखें धंस गई; मुंह पीला पड़ गया, एक दिन तो मुंह से बोलना और आंख से दिखाई देना भी बन्द हो गया। यही नहीं उन्हें मिर्गी के फिट्स भी पड़ने लगे। डाक्टरों ने जांच करके बताया गर्भ में जहर फैल गया है और लड़की का बचना असम्भव है उस दिन उसे भयंकर दौरा भी पड़ा। दौरा शान्त हुआ उस समय एन्टोनिएटा अत्यधिक शान्त किन्तु भाव विह्वल थीं। भीतर ही भीतर मन व्याकुल था और परमात्मा की गुहार कर रहा था अन्तःकरण से शिकायत उठ रही थी। हे प्रभु! तू कितना निर्दय है कि अपनी सन्तान को पीड़ित देखकर भी तुझे दुःख नहीं होता। यह भावना उमड़ी ही थी कि मेडेना—उस मूर्ति की आंखों से एकाएक आंसू झर-झर उठे। यह दृश्य देखकर सारा वातावरण स्तम्भित हो गया। धीरे-धीरे खबर मुहल्ले पड़ौस, नगर और समूचे प्रान्त सराक्यूज तथा अमेरिका में फैल गई। दुनिया भर के अखबारों ने इस अद्भुत घटना का उल्लेख किया। 29 अगस्त से मूर्ति का आंसुओं का निरीक्षण परीक्षा प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम डा. मारियो सेसीना—जो वाइआ कारसो में रहते थे उन्होंने मूर्ति का भीतर बाहर, ताज हटाकर पूरी तरह निरीक्षण किया मूर्ति में कहीं कोई नमी नहीं पर आंसू रुकने का नाम ही न लेते थे। जेन्युसो घर से बाहर था वह घर पहुंचा तो पत्नी की पीड़ा और बदले में मूर्ति का रुदन देखकर दहाड़ मार कर रो उठा। उसी रात पुलिस ने घेरा डाल कर मूर्ति का निरीक्षण किया। अधिकारी गण तक इस घटना से भाव विह्वल हो उठे। किसी की समझ में नहीं आया, मूर्ति में आंसू कहां से आ रहे हैं। दूसरे दिन, ‘ला सिसीलिआ’ दैनिक पत्र के सम्पादक ने स्वयं निरीक्षण कर अपने पत्र में लिखा—आंसू वास्तविक हैं, कहीं छल-छद्म नहीं। परमात्मा की शक्ति विलक्षण है।
श्री मासूमेकी, और 10 पुरोहितों के डेलीगेशन, इटालियन क्रिश्चियन लेवर यूनियन के अश्यक्ष प्रो. पावलो अलबानी आदि ने तथ्यों की जांच की और सही पाया। लगातार कई दिनों तक अश्रुपात होते रहने के कारण आश्चर्य और भीड़ एक साथ बढ़ रही थी। समाचार पत्र साद दिन तक इस विस्मयकारक घटना की आंखों देखी खबरें छापते रहे। 1 सितम्बर को एक जांच आयोग (ट्रिव्यूनल) नियुक्त किया गया जिसके सदस्य थे—(1) जोऐफ ब्रूनो पी.पी. (2) डा. माइकल कैएला डाइरेक्टर आफ माइकाग्रेफिक डिपार्टमेंट (3) डा. फ्रैंक कोटजिया असिंठ डाइरेक्टर (4) डा. लूड डी उर्सी। इसके अतिरिक्त निस सैम्परिसी चीफ कान्स्टेबुल, प्रो. जी. पास्क्विलीनो, डी फ्लोरिडा, डा. ब्रिटनी (केमिस्ट) फैरिगो उम्बर्टो (स्टेट पुलिस के ब्रिगेडियर तथा प्रेसीडेंट आफिस के प्रथम लेफ्टिनेंट कारमेलो रमानों भी थे। पिपेट की सहायता से दोनों आंखों से एक-एक सी.सी. आंसू एकत्र किये गये उनका विश्लेषण करने से पता चला कि आंसू वास्तविक हैं और किसी 3-4 वर्ष के बालक के से ताजे आंसू हैं पर वह कहां से क्यों निसृत हो रहे हैं? यह कोई नहीं जान सका। स्वयं मूर्तिकार भी विस्मित था उसकी सैकड़ों मूर्तियां बाजार में थी, पर ऐसी अद्भुत घटना का कारण कोई नहीं समझ सका। प्रो. एल रोजा ने एम.डी. कास्त्रो को इस घटना का विवरण इस प्रकार भेजा—
पू. श्री एम.डी. कास्त्रो
प्रीस्ट आफ सेन्टिगो डी सूडाड रिकाल स्पेन।
आपकी प्रार्थना पर यह सब कुछ लिख रहा हूं। कमीशन ने आंसू इकट्ठे किये हैं, मूर्ति दो पेचों के द्वारा जुड़ी हुई थी। मूर्ति का प्लास्टर बिल्कुल सूखा हुआ था, आंसुओं का निरीक्षण आर्कविशप क्यूरियो द्वारा नियुक्त कमीशन ने किया है माइक्रो किरणों से देखने पर इन आंसुओं में वह सभी तत्व पाये गये हैं, जो तीन वर्ष के बच्चे के आंसुओं में होते हैं, यहां तक कि क्लोरेटियम के पानी का घोल, प्रोटीन व क्वाटरनरी साफ झलक दे रहा था। मेरी पूर्ण जानकारी में मेरे हस्ताक्षर साक्षी हैं—
हत्साक्षर प्रो. एल. रोजा,
सात दिन तक घटना चक्र चला। बिना किसी चिकित्सा के एण्टोनिपेटा चंगी हो गई पर यह पहेली न सुलझ सकी कि इन आंसुओं का कारण क्या है? अपनी सत्ता को उस परमात्मा के अतिरिक्त कौन समझ सकता है?
सन् 1874 की बात है। इंग्लैण्ड का एक जहाज धर्म प्रचार के सिलसिले में—न्यूजीलैण्ड के लिये रवाना हुआ। उसमें 214 यात्री थे। वह विस्के की खाड़ी से बाहर ही निकला था कि जहाज के पेंदे में छेद हो गया। मल्लाहों के पास जो पम्प थे तथा दूसरे साधन थे उन, सभी को लगाकर पानी निकालने का भरपूर प्रयत्न किया, पर जितना पानी निकलता था उसे भरने की गति तीन गुनी तेज थी।
निराशा का वातावरण बढ़ता जाता था। जब जहाज डूबने की बात निश्चित हो गई तो कप्तान ने सभी यात्रियों को छोटी लाइफ बोटों में उतर जाने और उन्हें खेकर कहीं किनारे पर जा लगने का आदेश दे दिया। डूबते जहाज में से जो जाने बचाई जा सकती हों, उन्हें ही बचा लिया जाय। अब इसी की तैयारी हो रही थी। तभी अचानक पम्पों पर काम करने वाले आदमी हर्षातिरेक से चिल्लाने लगे। उन्होंने आवाज लगाई कि जहाज में पानी आना बन्द हो गया। अब डरने की कोई जरूरत नहीं रही। यात्रियों ने चैन की सांस ली और जहाज आगे चल पड़ा। काल्पर्सडाक बन्दरगाह पर उस जहाज की मरम्मत कराई गई तब पता चला कि उस छेद में एक दैत्याकार मछली पूंछ फंसकर इतनी कस गई थी कि न केवल छेद ही बन्द हुआ वरन् मछली भी घिसटती हुई साथ चली आई।
‘‘अनविजिबल हेल्पर्स’’ में सी.डब्ल्यू. लेडी वीटर ने लन्दन की हालबर्न स्ट्रीट का एक उदाहरण देते हुये लिखा है—एक बार इस सड़क के कुछ मकानों में भयंकर आग लगी। जिससे दो मकान पूरी तरह जलकर राख हो गये। एक बुढ़िया को छोड़कर शेष सभी को बचा लिया गया किन्तु सामान कुछ भी नहीं बच सका। उस रात जिस दिन आग लगी मकान मालिक के एक मित्र किसी कार्यवश कालचेस्टर गये थे वे अपने बच्चे को उन्हीं के पास छोड़ गये थे। मकान पूरी तरह जल गया और सभी लोगों की गणना की गई तब उस बच्चे की याद आयी। उसे अटारी पर सुलाया गया था। उसकी खोज की गई तो यह देखकर सब की आंखें फटी की फटी रह गई कि जिस चारपाई पर बच्चा सोया था उसके चारों ओर एक गोले भाग में आग का रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ा था और बच्चा पूरी तरह सुरक्षित इस तरह सो रहा था मानो वह अपनी मां की गोद में सो रहा हो। यह तथ्य देखकर लोगों ने अनुभव किया कि वास्तव में कोई सार्वभौमिक सत्ता है अवश्य जो प्राकृतिक परमाणुओं को भी पूरी तरह अपने नियन्त्रण में रख सकती है। इस घटना को देख सुनकर होलिका दहन और उसमें से प्रहलाद को जीवित बचा लेने की, विष पीकर भी मीरा के जीवित बच जाने की, खम्भे को चीर कर नृसिंह भगवान के प्रकट होने की पौराणिक आख्यानों की सत्या सामने आ जाती है।
नृसिंह पूर्वतापिन्युपनिषद् के एक प्रसंग में देवता ब्रह्मा जी से प्रश्न करते हैं—हे प्रजापति! भगवान को नृसिंह क्यों कहते हैं? ब्रह्मा जी उत्तर देते हैं—सब प्राणियों में मानव का बौद्धिक पराक्रम प्रसिद्ध है। सिंह का शारीरिक पराक्रम दोनों के संयोग का अर्थ है प्रकाश और दृश्य रूप में—बुद्धि और बल रूप में अपने भक्तों की रक्षा में तत्पर रहना। नृसिंह कोई साकार स्वरूप हो या नहीं पर प्रकाश और पराक्रम के रूप में उसका अस्तित्व कहीं भी अभिव्यक्त देखा जा सकता है।
वकिंघम शायर बर्नहालवीयों के निकट एक किसान के छोटे-छोटे दो बच्चे खेत पर से खेलते-खेलते दूर जंगल में भटक गये। रात को पता चला। किसान दम्पत्ति बच्चों को बहुत प्यार करते थे। अज्ञात भय से वे बच्चों को खोजने सड़क पर निकले उनने एक अद्भुत नीलवर्ण प्रकाश देखा—वे उधर ही बढ़े, जितना वे आगे बढ़ते प्रकाश भी उसी गति से एक ओर जंगल में बढ़ना शुरू हुआ और एक भयानक जीव-जन्तुओं से भरे सुनसान में जाकर स्थिर हो गया। किसान अनुगमन करता हुआ जैसे ही उस स्थान पर पहुंचा वह यह देखकर चकित रह गया कि दोनों बच्चे वृक्ष की जड़ के सहारे इस तरह शान्त और निश्चिन्त सोये हैं मानों कोई उनकी पहरेदारी कर रहा हो।
लारेंको मार्क्वीस (मोजाम्बिक) की घटना है। एक पंगु अफ्रीकी को लकवा मार गया। पैर मुड़ जाने से वह घिसट कर चलता था अर्नेस्टो टिटोस मुल्होव नामक यह अफ्रीकी बड़ा ईश्वर भक्त था उसकी भक्ति और वर्तमान स्थिति पर उसके मित्र अक्सर टीका-टिप्पणी करते रहते। वपतिस्मा (ईसाई धर्म में दीक्षा का एक विशेष त्यौहार) के दिन उससे रहा नहीं गया वह भाव विह्वल अन्तःकरण से प्रोटेस्ट चर्च की ओर घिसटता हुआ भागा। जितना वह भागता उसकी प्राण शक्ति उतनी ही सक्रिय होती गई और चर्च तक पहुंचते न जाने किस अद्भुत शक्ति ने उसे खड़ा कर दिया, जिसे डॉक्टर भी ठीक नहीं कर सकते थे। अनायास ठीक हो जाने पर लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। ए.एफ.सी. ने यह समाचार देते हुये स्वीकार किया कि सचमुच संसार में कोई अद्भुत अदृश्य शक्ति है अवश्य जो अपनी सर्व शक्तिमत्ता का परिचय देती रहती है। 26 जून 1954 को देहली से छपने वाले दैनिक हिन्दुस्तान में भी इसी तरह की एक अद्भुत घटना छपी है—‘‘पन्ना जिले के धर्मपुर स्थान में कच्ची ईंटों को पकाने के लिये एक भट्ठा लगाया गया था। किसी को पता भी नहीं कि ईंटों के बीच एक चिड़िया ने घोंसला बनाया है और उसमें अण्डे सेये हैं। एक सप्ताह तक भट्ठा जलता रहा। ईंटें आग में पकती रहीं आठवें दिन भट्टा खोला गया तो एक चिड़िया उसमें से उड़कर भागी। आश्चर्यचकित सैकड़ों लोग वहां एकत्र हो गये। लोग तब यह मानने को विवश हो गये कि परमात्मा की अदृश्य सत्ता का संरक्षक सर्व समर्थ है जब उन्होंने देखा कि दो अण्डे सुरक्षित रखे हुए हैं और जिस स्थान पर घोंसला बना है उसके एक फीट दायरे में आग पहुंची ही नहीं जब कि सारे भट्टे में इस तरह का एक इंच स्थान भी न बचा था।
ऐसे असंख्य उदाहरण आये दिन हमारे सामने आते रहते हैं जब अनहोनी उस नियामक के अस्तित्व का संकेत करती रहती है पर स्थूल बुद्धि के व्यक्ति उस सूक्ष्म को कहां स्वीकारते हैं? स्वीकार लें तो न केवल आध्यात्मिक अपितु हमारा व्यावहारिक संसार भी सुख-शांति से ओत-प्रोत हो सकता है। उचित और आवश्यक तो यह है कि उस दिव्यसत्ता के प्रति श्रद्धाभाव विकसित किया जाय तथा अपनी आत्मिक शक्ति का अभिवर्धन किया जाय। आत्मिक क्षेत्र को विकसित करने वाली, आत्मिक स्तर ऊंचा उठाने वाली जितनी भी शक्तियां हैं उन सब में ‘श्रद्धा’ का सबसे बड़ा स्थान है।
श्रद्धा सर्वोपरि आत्मिक शक्ति
श्रद्धा, अन्धविश्वास, मूढ़ मान्यता या कल्पनालोक की उड़ान या भावुकता नहीं, वरन् एक प्रबल तत्व है। भौतिक जगत में विद्युत शक्ति की महत्ता एवं उपयोगिता से अगणित प्रकार के कार्य सम्पन्न होते देखे जाते हैं। यदि बिजली न हो तो वैज्ञानिक उपलब्धियों में से तीन चौथाई निरर्थक हो जायेंगी ठीक इसी प्रकार आत्मिक जगत में श्रद्धा की बिजली की महत्ता है। मनोयोग और भावनाओं के सम्मिश्रण से जो सुदृढ़ निश्चय एवं विश्वास विनिर्मित होता है उसे भौतिक बिजली से कम नहीं वरन् अधिक ही शक्तिशाली समझा जाना चाहिये। आत्म निर्माण का विशालकाय भवन उच्च आदर्शों के प्रति अटूट निष्ठा की चट्टान पर ही खड़ा किया जाता है। जिसे उत्कृष्ट—दिव्य जीवन की गरिमा पर परिपूर्ण श्रद्धा न होगी वह छुट-पुट प्रयत्न करते रहने पर भी आत्मिक प्रगति के मार्ग पर दूर तक—देर तक चल न सकेगा। आये दिन तनिक-तनिक सी बात पर उसके पैर लड़खड़ाते रहेंगे। किन्तु जिसने यज्ञीय जीव जीने की महत्ता अन्तरंग के गहन स्तर से स्वीकार करली उसे अभाव और कठिनाइयों की तनिक सी असुविधा आत्म सन्तोष की महान् उपलब्धि के सामने कुछ भी कठिन दिखाई न पड़ेगी।
श्रद्धा को सदुद्देश्य के लिये नियोजित कर देने का नाम ही आत्म शक्ति है। आत्मबल की प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया उन सिद्धियों के रूप में तत्काल देखी जा सकती है जो न केवल अपने को ही महान बनाती हैं वरन् सम्पर्क में आने वालों को भी इतना लाभ पहुंचाती हैं जितना आर्थिक और शारीरिक प्रचुर सहयोग देने पर भी सम्भव नहीं हो सकता। उपासना, साधना, तपस्या, देव अनुग्रह, वरदान, स्वर्ग मुक्ति आदि आत्मिक उत्पादनों के पीछे जो तथ्य काम करता है उसे श्रद्धा का परिपाक ही समझा जाना चाहिये। यदि श्रद्धा न हो तो यह समस्त क्रिया-कलाप मात्र कर्मकाण्ड बनकर ही रह जायेंगे और उनका परिणाम नगण्य जितना ही दिखाई देगा।
जिन्हें मन की सत्ता और महत्ता का ज्ञान है उन्हें यह भी विदित है चेतना जगत में जिस प्राण शक्ति की अजस्र महिमा गाई जाती है वह अन्तरिक्ष में संव्याप्त विद्युत, चुम्बक, ईथर, विकरण आदि सामान्य भौतिक संव्याप्ति की संकल्प शक्ति के आधार पर विनिर्मित एक अद्भुत ऊर्जा ही है। प्राण और कुछ नहीं भौतिक प्रकृति और चेतनात्मक संकल्प शक्ति का समन्वय ही हैं। प्राणधारियों को जीवित रखने उनकी मानसिक हलचलों को प्रखर बनाये रहने का कार्य ‘प्राण शक्ति’ द्वारा ही सम्पन्न होता है। कहना न होगा कि जो जितना श्रद्धान्वित है वह उतना ही प्राणवान होगा। बौद्धिक तीक्ष्णता से मस्तिष्कीय लाभ मिल सकते हैं किन्तु प्रतिभा, व्यक्तित्व, आत्मबल, जीवन जैसी विशेषतायें श्रद्धासिक्त प्राप्त शक्ति ही उत्पन्न करती हैं। महामानव, देवदूत, ऋषिकल्प एवं नर नारायण के रूप में सामान्य व्यक्ति को परिणत कर डालने की क्षमता केवल श्रद्धासिक्त प्राण शक्ति में ही निहित रहती है।
श्रद्धा का अर्थ है—आत्मानुगमन। शरीर में इन्द्रिय सुखोपभोग की वासना, लिप्सा भरी रहती है। मन में तृष्णा और अहंता की लालसायें—कामनायें उफनती रहती हैं। इन्हीं की मांग पूरी करने के लिये प्रायः हमारे सारे क्रिया-कलाप होते रहते हैं। जीवन क्रम इसी परिधि में घूमता और खपता है। औसत आदमी की गाड़ी इसी ढर्रे पर लुढ़कती है। ऐसे कम ही लोग हैं जो अन्तःकरण से भाव संस्थान की स्थिति और शक्ति से परिचित हैं। हमारे अन्तरंग में परमात्मा की सत्ता प्रतिष्ठित है जो निरन्तर उन उच्च आदर्शों को अपनाने के लिये अनुरोध करती रहती है जिनके लिये बहुमूल्य मानव जीवन उपलब्ध हुआ है। आत्मा की पुकार—आत्मा की प्रेरणा, आत्मा की दिशा का यदि अनुगमन किया जाय तो उस आनन्द उल्लास में अन्तःभूमिका इतनी अभिरुचि एवं तत्परता के साथ संलग्न हो जाती है कि वासना और तृष्णा उपहासास्पद बाल क्रीड़ा मात्र प्रतीत होने लगती है। तब मन के चंचल—चित्त के उद्विग्न होने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता।
आत्मबोध, आत्मानुगमन, आत्मोत्कर्ष की सम्मिलित मनःस्थिति का नाम ही श्रद्धा है। यों किसी मन्त्र, आदर्श, व्यक्ति, धर्म आदि के प्रति निष्ठा को भी श्रद्धा कहते हैं पर उसका उच्च स्तर आत्मानुगमन से ही जुड़ा रहता है। जो इस स्तर की प्रेरणा उत्पन्न कर सके भावना उमंगा सके वही सच्ची श्रद्धा है। कहना न होगा कि आत्म शक्ति की सुसम्पन्नता केवल श्रद्धालु लोगों को ही उपलब्ध हो सकती है।
पशु-पक्षियों में कितनी ही विशेषतायें ऐसी पाई जाती हैं जो मनुष्यों में नहीं होतीं। इन विशेषताओं का कारण यह है कि अपने अचेतन का पूर्णतया अनुगमन करते हैं। प्रकृति की प्रेरणाओं का उल्लंघन नहीं करते। तर्क और विचार को वे मर्यादित रखते हैं। अवांछनीय चिन्तन से उत्पन्न बौद्धिक विकृतियों के वे शिकार नहीं होते। जीवन की नीति निर्धारित करने में वे अन्तरात्मा का निर्देश स्वीकार करते हैं। मनुष्य की अपनी विशेषतायें हैं और मस्तिष्कीय क्षमतायें असाधारण रूप से मिली हैं पर दुर्भाग्य यही है कि वह उसे सही दिशा में प्रयुक्त न करके उद्धत चिन्तन में उलझता है। फलस्वरूप बौद्धिक प्रखरता के लाभ से वंचित रहकर उलटा शोक सन्ताप में बंधा जकड़ा रहता है। वेराग्य का अर्थ लोगों ने घर-बार छोड़कर भिक्षा मांगना—सफेद कपड़े छोड़कर लाल-पीले पहन लेना मान लिया है, पर वस्तुतः वह एक मनःस्थिति है जिसमें कर्तव्य कर्म पूरे उत्साह से करते हुये भी मन असंग, राग, द्वेष रहित बना रहता है। अनासक्त कर्मयोग को गीता में सुविस्तृत चर्चा है। स्थिति प्रज्ञ और निर्विकल्प स्थिति का वर्णन है। इसी को वैराग्य कह सकते हैं। खिलाड़ी की भावना से जीवन खेल खेलना और नाटक में अपने जिम्मे का अभिनय पूरे मनोयोग से सम्पन्न करना यही कर्मयोग है। हानि लाभ और सफलता असफलता को बहुत महत्व न देकर केवल अपनी उत्कृष्ट शैली पर गर्व और सन्तोष अनुभव करना, यही है अनासक्त मनःस्थिति। शरीर को आहार-विहार और मन को चिन्तन के लिये उत्कृष्ट सामग्री प्रदान करना यही है सन्तुलित जीवन क्रम की रीति-नीति। इसे जहां अपनाया जायगा वहीं आन्तरिक स्थिरता की वह पृष्ठभूमि बन जायगी जिसमें ध्यान योग, लययोग जैसी ब्रह्म सम्बन्ध की साधनायें सफल हो सकें।
बाहरी भाग दौड़ में जो श्रम पड़ता है उससे अवयवों को अधिक गतिशील होने का अवसर मिलता है। व्यायाम करने वाले तथा श्रमिक लोग भारी श्रम करने पर भी स्वस्थ बने रहते हैं इसका कारण यह है कि वह श्रमपरक दबाव बाहरी रहता है, विश्राम मिलते ही उस दबाव की पूर्ति हो जाती है। पर यदि अवयवों में आन्तरिक दबाव रहे तो उसका बहुत दबाव पड़ेगा। पेट, सिर, दांत आदि किसी अवयव में यदि दर्द हो रहा हो तो उस भीतरी उत्तेजना से शरीर के सारे ढांचे पर बुरा असर पड़ेगा और बड़ी मात्रा में शक्ति क्षीण होगी। ठीक इसी प्रकार इन्द्रिय भोगों की ललक से शारीरिक तनाव अधिक बढ़ता है, काम सेवन की क्रिया में जितनी शक्ति क्षरित होती है उसमें कहीं अधिक काम चिन्तन में नष्ट हो जाती है। इसीलिये मानसिक व्यभिचार शरीर भोग की अपेक्षा कहीं अधिक स्वास्थ्य विघातक सिद्ध होता है। यही बात अन्य इन्द्रिय भोगों की ललक लिप्सा के सम्बन्ध में है। संयम की महत्ता जहां साधारण स्वास्थ्य नियमों के अनुरूप है वहां उसका एक लाभ यह भी है कि वासनात्मक उत्तेजना से होने वाली क्षति से बचा जा सकता है और उस बचाव से स्वास्थ्य सम्वर्धन में भारी सहायता मिल सकती है। वासना शान्त रहे तो शरीर की अन्तरंग स्थिति समुचित विश्राम लाभ करती रहेगी और जीवनी शक्ति को अनावश्यक क्षति न पहुंचेगी। ध्यानयोग के लिये तो ऐसी शरीरगत अन्तःशान्ति की नितान्त आवश्यकता पड़ती है।
भौतिक जीवन की अनेक समस्याओं को हल करने के लिये तर्क, आशंका, अविश्वास, सन्देह, काट-छांट, प्रमाण परिचय, तथ्य अतथ्य आदि अनेक कारणों की विवेचना करनी पड़ती है और तब भी मन शंका शंकित रहता है तथा पूर्व निर्णय के सही सुनिश्चित होने में सन्देह बना रहता है। यह मनःस्थिति लाभ हानि एवं उचित अनुचित के बीच के उपयोगी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये आवश्यक है पर यह स्थिति आध्यात्मिक क्षेत्र में भी बनी रहे तो अनिश्चित विश्वास के कारण वह शक्ति उत्पन्न न हो सकेगी जिसके आधार पर आत्मबल बढ़ाने—उच्च आदर्श अपनाने और श्रद्धान्वित पृष्ठभूमि बनाई जाती है। कहना न होगा कि यदि श्रद्धा विश्वास का ईंट चूना न जुटाया जा सका तो आत्मिक प्रगति का भवन खड़ा ही न हो सकेगा।
आत्मिक प्रगति के लिए हमें श्रद्धा का जागरण करना चाहिए। आत्मानुगामी बनना चाहिए। आत्म निर्देश रूप सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए। जो इतना साहस कर सकेगा—अपनी आकांक्षाओं को उत्कृष्टता की दिशा में नियोजित कर सकेगा, उसे वासना और तृष्णा की तूफानी आंधियों का सामना न करना पड़ेगा और शक्ति का निरन्तर होने वाला अपव्यय सहज ही बचना आरम्भ हो जायगा। आत्मिक पूंजी इसी प्रकार जमा होती है। भौतिक विक्षोभों से विरत रह सकना कठिन लगता भर है, वस्तुतः वैसा है नहीं। यदि अपने अन्तरंग में प्रवेश करते रहने वाले विचारों का वर्गीकरण मात्र करते रहें उनके विश्लेषण विवेचन के लिये सजग तत्परता प्रदर्शित करें तो सहज ही वे अवांछनीय विचार पलायन करने लगेंगे जिनके झमेले में अशान्त अन्तःकरण कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त कर सकने से वंचित ही बना रहता है।
विचारों के प्रवाह में अपनी अन्तः चेतना को न बहने दें वरन् सूक्ष्म निरीक्षण करने की क्षमता विकसित करें। दृष्टा की तरह अपने को मस्तिष्क से कहीं ऊंचे स्थान पर अवस्थित अनुभव करें और जिस तरह गड़रिया अपने बाड़े में घुसने वाली भेड़ों की गणना करता तथा स्थिति देखता है उसी तरह अलग बैठे हुए यह निरीक्षण करें कि मस्तिष्क में किस स्तर के विचार प्रवेश करते और जड़ जमाते हैं। उनका वर्गीकरण करने का जब थोड़ा अभ्यास हो जायगा तब प्रतीत होगा कि उनमें से कितने उपयोगी और अनुपयोगी थे।
मन को अपना काम करने देना चाहिये। जो भी विचार आयें उठें उन्हें आने उठने देना चाहिये। प्रथम प्रयास में उन्हें रोकने की जरूरत नहीं है, यह कदम बहुत आगे चलकर उठाया जाना चाहिये। मानसिक परिष्कार का प्रथम चरण यह है कि मस्तिष्क की स्थिति रुचि, रुझान का वैसा ही निरीक्षण किया जाय जैसा कि डॉक्टर मल, मूत्र रक्त श्लेष्मा आदि की जांच पड़ताल करके शरीर की वस्तुस्थिति समझने का प्रयत्न करता है। आत्म विश्लेषण इसी स्तर का प्रयास है। इसे ठीक तरह पूरा कर लिया जाय तो मन निग्रह की तीन चौथाई समस्या सहज ही हल हो जाती है।
चोर का साहस वहीं होता है जहां उसे यह भय नहीं रहता कि कोई देख रहा होगा। सेंध लगाने से पूर्व चोर यह पता लगाते हैं कि कहीं किसी की दृष्टि उनके कुकृत्य पर है तो नहीं। यदि पता चल जाय कि लोग जाग रहे हैं या देख-भाल कर रहे हैं तो फिर चोरी करने का साहस ही न पड़ेगा और वह उलटे पैरों लौट जायगा। अवांछनीय विचार उसी मस्तिष्क में प्रवेश करते तथा जड़ जमाते हैं जहां आत्म निरीक्षण एवं आत्म विश्लेषण की दृष्टि से बेखबरी छाई रहती है। जहां जागरूकता होगी—देख-भाल, ढूंढ़ चल रही होगी वहां कुविचार अपने आप ही लज्जा, भय और ग्लानि अनुभव करते हुए अपनी हरकतें बन्द कर देंगे।
जब हम यह सोचते हैं कि मस्तिष्क हमारा घर है। इसमें किसे प्रवेश करने देना है किसे नहीं यह निर्णय करना हमारा काम है तब मन की स्थिति ही बदल जाती है। अनाड़ी घोड़ा किसी भी दिशा में भागता है और कुछ भी हरकत करता है पर जब मालिक उसकी पीठ पर चढ़ लेता है और लगाम तथा चाबुक की सहायता से निर्देश करता है तब ही उसे अपना अनाड़ीपन छोड़ना पड़ता है और मालिक की इच्छानुसार चलना पड़ता है, मस्तिष्क रूपी घर में तभी तक चमगादड़ों और अवावीलों के घोंसले रहते हैं जब तक गृह स्वामी उन्हें सहन करता है, पर जब यह निश्चय कर लिया जाता है कि घर को साफ सुथरा रखा जायगा तो मकड़ी के जाले, बर्रों के छत्ते, चमगादड़ों के अड्डे और अवावीलों के घोंसले बल पूर्वक कब्जा नहीं जमाये रह सकते एक भी झपाटे का सामना वे नहीं कर सकते तथा जगह खाली करने के अतिरिक्त और कुछ कर ही नहीं सकते। कुविचारों की स्थिति भी ठीक ऐसी है। यदि अन्तःचेतना यह निश्चय कर ले कि अपने घर में मस्तिष्क में उद्धत विचारों को स्थान नहीं दिया जाना है तो वे निश्चित रूप से अपनी जगह खाली कर देंगे।
आत्म विज्ञानी परम श्रद्धेय ईश्वरीय सत्ता के प्रति श्रद्धा के माध्यम से यही लाभ उठाते हैं। वह सत्ता केवल मानने और जानने योग्य ही नहीं है अपितु श्रद्धा करने योग्य भी है। उसके क्रिया कलापों, प्रकृति प्रांगण में यत्र तत्र बिखरी उसकी प्रेरणाओं का अध्ययन किया जाय तो यह भी विदित हो जायगा कि वह सत्ता क्यों श्रद्धेय है?
मीरा को विष का प्याला भेजा गया और सांपों को पिटारा, पर वह मरी नहीं। न जाने कौन उसके हलाहल को चूस गया और मीरा जीवित बची रही। गांधी को अनेक सहयोगी मिले और वे दुर्दान्त शक्ति से निहत्थे लड़ कर जीते। भगीरथ की तपस्या से गंगा द्रवित हुई और धरती पर बहने के लिये तैयार हो गई। शिवजी सहयोग देने के लिये आये और गंगा को जटाओं में धारण किया, भगीरथ की साधना पूरी हुई। दुर्वाशा के शाप से संत्रस्त राजा अम्बरीष की सहायता करने भगवान का चक्र सुदर्शन स्वयं दौड़ा आया था। समुद्र से टिटहरी के अण्डे वापिस दिलाने में सहायता करने के लिए भगवान अगस्त्य मुनि बनकर आये थे। नल और नील ने समुद्र पर पुल बांधने का असम्भव दीखने वाला काम सम्भव कर दिया था। हनुमान को समुद्र छलांगने की शक्ति भी किसी अदृश्य शक्ति से ही उपलब्ध हुई थी।
यह उदाहरण प्राचीन पौराणिक गाथाएं कहकर झुठलाये जा सकते हैं और उनकी सत्यता से इनकार किया जा सकता है। हमारा देश सदियों से भाव प्रधान और आस्तिक-आध्यात्मिक विचारों की जन्मभूमि रहा है अतएव इन घटनाओं को किंवदन्तियों की भी संज्ञा दी जा सकती है। किन्तु सनातन सत्ता तो काल गति और ब्रह्माण्ड से सर्वथा अतीत है जिस तरह यह प्राचीन काल में थी, आज भी है और उसकी अदृश्य सहायताएं पूर्व से पश्चिम उत्तर से दक्षिण तक आज भी प्राप्त करते रहते हैं। टंग्स्टन तार पर धन व ऋण विद्युत धाराओं के अभिव्यक्त होने की तरह यह ईश्वरीय अनुदान जिन दो धाराओं के सम्मिश्रण से किसी भी काल में प्रकट होते रहते हैं वह हैं श्रद्धा और विश्वास। यह सत्ताएं जहां कहीं जब कभी हार्दिक अभिव्यक्ति पाती हैं परमेश्वर की अदृश्य सहायता वहां उभरे बिना नहीं रह सकती। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण लेडीवीटर ने अपनी पुस्तक ‘इनविजिबल हेल्पर्स’ (अदृश्य सहायक) पुस्तक में दिये हैं जिनसे इस युग में भी अतीन्द्रिय सत्ता के अस्तित्व पर विश्वास हुए बिना नहीं रहता और लेडीरुथ मान्ट गुमरी की पुस्तक ‘सत्य की खोज में’ [इन सर्च आफ ट्रुथ] में 20 वीं शताब्दी की सबसे आश्चर्यजनक घटना के रूप में ‘सराक्यूज की रोती हुई प्रतिमा’ (वीपिंग स्टेच्यू आफ सराक्यूज) में दिया है। एक सरल हृदय अपंग किन्तु श्रद्धालु महिला की भाव-भरी प्रार्थना से विह्वल होकर उसकी प्लास्टर आफ पेरिस की प्रतिमा की आंखों से आंसू बह निकले। डच विद्वान फादर ए सोमर्स ने स्वयं मूर्ति और उसके आंसुओं का परीक्षण करने के बाद उसे विस्तार से समाचार पत्रों में छपाया और एच जोर्गन ने उसका अंग्रेजी रूपान्तर प्रकाशित कराया।
21 मार्च 1953 को कुमारी एण्टोर्निएटा का श्री एग्लोजेन्यूसी के साथ पाणिग्रहण संस्कार हुआ। इस अवसर पर उपहार की अन्य वस्तुओं में यह छोटी-सी प्लास्टर आफ पेरिस की अन्दर से पोली ऊपर एनामिल चढ़ी प्रतिमा भेंट में मिली थी एन्टोर्निएटा को मीरा के गिरधर गोपाल की तरह यह मूर्ति बहुत प्यारी लगी और वह उसकी इष्टदेवी बन गई।
विवाह के बाद एण्टिर्निएटा गर्भवती हुई। गर्भ जैसे-जैसे विकसित हुआ वह अत्यधिक दुर्बल होती गई। आंखें धंस गई; मुंह पीला पड़ गया, एक दिन तो मुंह से बोलना और आंख से दिखाई देना भी बन्द हो गया। यही नहीं उन्हें मिर्गी के फिट्स भी पड़ने लगे। डाक्टरों ने जांच करके बताया गर्भ में जहर फैल गया है और लड़की का बचना असम्भव है उस दिन उसे भयंकर दौरा भी पड़ा। दौरा शान्त हुआ उस समय एन्टोनिएटा अत्यधिक शान्त किन्तु भाव विह्वल थीं। भीतर ही भीतर मन व्याकुल था और परमात्मा की गुहार कर रहा था अन्तःकरण से शिकायत उठ रही थी। हे प्रभु! तू कितना निर्दय है कि अपनी सन्तान को पीड़ित देखकर भी तुझे दुःख नहीं होता। यह भावना उमड़ी ही थी कि मेडेना—उस मूर्ति की आंखों से एकाएक आंसू झर-झर उठे। यह दृश्य देखकर सारा वातावरण स्तम्भित हो गया। धीरे-धीरे खबर मुहल्ले पड़ौस, नगर और समूचे प्रान्त सराक्यूज तथा अमेरिका में फैल गई। दुनिया भर के अखबारों ने इस अद्भुत घटना का उल्लेख किया। 29 अगस्त से मूर्ति का आंसुओं का निरीक्षण परीक्षा प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम डा. मारियो सेसीना—जो वाइआ कारसो में रहते थे उन्होंने मूर्ति का भीतर बाहर, ताज हटाकर पूरी तरह निरीक्षण किया मूर्ति में कहीं कोई नमी नहीं पर आंसू रुकने का नाम ही न लेते थे। जेन्युसो घर से बाहर था वह घर पहुंचा तो पत्नी की पीड़ा और बदले में मूर्ति का रुदन देखकर दहाड़ मार कर रो उठा। उसी रात पुलिस ने घेरा डाल कर मूर्ति का निरीक्षण किया। अधिकारी गण तक इस घटना से भाव विह्वल हो उठे। किसी की समझ में नहीं आया, मूर्ति में आंसू कहां से आ रहे हैं। दूसरे दिन, ‘ला सिसीलिआ’ दैनिक पत्र के सम्पादक ने स्वयं निरीक्षण कर अपने पत्र में लिखा—आंसू वास्तविक हैं, कहीं छल-छद्म नहीं। परमात्मा की शक्ति विलक्षण है।
श्री मासूमेकी, और 10 पुरोहितों के डेलीगेशन, इटालियन क्रिश्चियन लेवर यूनियन के अश्यक्ष प्रो. पावलो अलबानी आदि ने तथ्यों की जांच की और सही पाया। लगातार कई दिनों तक अश्रुपात होते रहने के कारण आश्चर्य और भीड़ एक साथ बढ़ रही थी। समाचार पत्र साद दिन तक इस विस्मयकारक घटना की आंखों देखी खबरें छापते रहे। 1 सितम्बर को एक जांच आयोग (ट्रिव्यूनल) नियुक्त किया गया जिसके सदस्य थे—(1) जोऐफ ब्रूनो पी.पी. (2) डा. माइकल कैएला डाइरेक्टर आफ माइकाग्रेफिक डिपार्टमेंट (3) डा. फ्रैंक कोटजिया असिंठ डाइरेक्टर (4) डा. लूड डी उर्सी। इसके अतिरिक्त निस सैम्परिसी चीफ कान्स्टेबुल, प्रो. जी. पास्क्विलीनो, डी फ्लोरिडा, डा. ब्रिटनी (केमिस्ट) फैरिगो उम्बर्टो (स्टेट पुलिस के ब्रिगेडियर तथा प्रेसीडेंट आफिस के प्रथम लेफ्टिनेंट कारमेलो रमानों भी थे। पिपेट की सहायता से दोनों आंखों से एक-एक सी.सी. आंसू एकत्र किये गये उनका विश्लेषण करने से पता चला कि आंसू वास्तविक हैं और किसी 3-4 वर्ष के बालक के से ताजे आंसू हैं पर वह कहां से क्यों निसृत हो रहे हैं? यह कोई नहीं जान सका। स्वयं मूर्तिकार भी विस्मित था उसकी सैकड़ों मूर्तियां बाजार में थी, पर ऐसी अद्भुत घटना का कारण कोई नहीं समझ सका। प्रो. एल रोजा ने एम.डी. कास्त्रो को इस घटना का विवरण इस प्रकार भेजा—
पू. श्री एम.डी. कास्त्रो
प्रीस्ट आफ सेन्टिगो डी सूडाड रिकाल स्पेन।
आपकी प्रार्थना पर यह सब कुछ लिख रहा हूं। कमीशन ने आंसू इकट्ठे किये हैं, मूर्ति दो पेचों के द्वारा जुड़ी हुई थी। मूर्ति का प्लास्टर बिल्कुल सूखा हुआ था, आंसुओं का निरीक्षण आर्कविशप क्यूरियो द्वारा नियुक्त कमीशन ने किया है माइक्रो किरणों से देखने पर इन आंसुओं में वह सभी तत्व पाये गये हैं, जो तीन वर्ष के बच्चे के आंसुओं में होते हैं, यहां तक कि क्लोरेटियम के पानी का घोल, प्रोटीन व क्वाटरनरी साफ झलक दे रहा था। मेरी पूर्ण जानकारी में मेरे हस्ताक्षर साक्षी हैं—
हत्साक्षर प्रो. एल. रोजा,
सात दिन तक घटना चक्र चला। बिना किसी चिकित्सा के एण्टोनिपेटा चंगी हो गई पर यह पहेली न सुलझ सकी कि इन आंसुओं का कारण क्या है? अपनी सत्ता को उस परमात्मा के अतिरिक्त कौन समझ सकता है?
सन् 1874 की बात है। इंग्लैण्ड का एक जहाज धर्म प्रचार के सिलसिले में—न्यूजीलैण्ड के लिये रवाना हुआ। उसमें 214 यात्री थे। वह विस्के की खाड़ी से बाहर ही निकला था कि जहाज के पेंदे में छेद हो गया। मल्लाहों के पास जो पम्प थे तथा दूसरे साधन थे उन, सभी को लगाकर पानी निकालने का भरपूर प्रयत्न किया, पर जितना पानी निकलता था उसे भरने की गति तीन गुनी तेज थी।
निराशा का वातावरण बढ़ता जाता था। जब जहाज डूबने की बात निश्चित हो गई तो कप्तान ने सभी यात्रियों को छोटी लाइफ बोटों में उतर जाने और उन्हें खेकर कहीं किनारे पर जा लगने का आदेश दे दिया। डूबते जहाज में से जो जाने बचाई जा सकती हों, उन्हें ही बचा लिया जाय। अब इसी की तैयारी हो रही थी। तभी अचानक पम्पों पर काम करने वाले आदमी हर्षातिरेक से चिल्लाने लगे। उन्होंने आवाज लगाई कि जहाज में पानी आना बन्द हो गया। अब डरने की कोई जरूरत नहीं रही। यात्रियों ने चैन की सांस ली और जहाज आगे चल पड़ा। काल्पर्सडाक बन्दरगाह पर उस जहाज की मरम्मत कराई गई तब पता चला कि उस छेद में एक दैत्याकार मछली पूंछ फंसकर इतनी कस गई थी कि न केवल छेद ही बन्द हुआ वरन् मछली भी घिसटती हुई साथ चली आई।
‘‘अनविजिबल हेल्पर्स’’ में सी.डब्ल्यू. लेडी वीटर ने लन्दन की हालबर्न स्ट्रीट का एक उदाहरण देते हुये लिखा है—एक बार इस सड़क के कुछ मकानों में भयंकर आग लगी। जिससे दो मकान पूरी तरह जलकर राख हो गये। एक बुढ़िया को छोड़कर शेष सभी को बचा लिया गया किन्तु सामान कुछ भी नहीं बच सका। उस रात जिस दिन आग लगी मकान मालिक के एक मित्र किसी कार्यवश कालचेस्टर गये थे वे अपने बच्चे को उन्हीं के पास छोड़ गये थे। मकान पूरी तरह जल गया और सभी लोगों की गणना की गई तब उस बच्चे की याद आयी। उसे अटारी पर सुलाया गया था। उसकी खोज की गई तो यह देखकर सब की आंखें फटी की फटी रह गई कि जिस चारपाई पर बच्चा सोया था उसके चारों ओर एक गोले भाग में आग का रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ा था और बच्चा पूरी तरह सुरक्षित इस तरह सो रहा था मानो वह अपनी मां की गोद में सो रहा हो। यह तथ्य देखकर लोगों ने अनुभव किया कि वास्तव में कोई सार्वभौमिक सत्ता है अवश्य जो प्राकृतिक परमाणुओं को भी पूरी तरह अपने नियन्त्रण में रख सकती है। इस घटना को देख सुनकर होलिका दहन और उसमें से प्रहलाद को जीवित बचा लेने की, विष पीकर भी मीरा के जीवित बच जाने की, खम्भे को चीर कर नृसिंह भगवान के प्रकट होने की पौराणिक आख्यानों की सत्या सामने आ जाती है।
नृसिंह पूर्वतापिन्युपनिषद् के एक प्रसंग में देवता ब्रह्मा जी से प्रश्न करते हैं—हे प्रजापति! भगवान को नृसिंह क्यों कहते हैं? ब्रह्मा जी उत्तर देते हैं—सब प्राणियों में मानव का बौद्धिक पराक्रम प्रसिद्ध है। सिंह का शारीरिक पराक्रम दोनों के संयोग का अर्थ है प्रकाश और दृश्य रूप में—बुद्धि और बल रूप में अपने भक्तों की रक्षा में तत्पर रहना। नृसिंह कोई साकार स्वरूप हो या नहीं पर प्रकाश और पराक्रम के रूप में उसका अस्तित्व कहीं भी अभिव्यक्त देखा जा सकता है।
वकिंघम शायर बर्नहालवीयों के निकट एक किसान के छोटे-छोटे दो बच्चे खेत पर से खेलते-खेलते दूर जंगल में भटक गये। रात को पता चला। किसान दम्पत्ति बच्चों को बहुत प्यार करते थे। अज्ञात भय से वे बच्चों को खोजने सड़क पर निकले उनने एक अद्भुत नीलवर्ण प्रकाश देखा—वे उधर ही बढ़े, जितना वे आगे बढ़ते प्रकाश भी उसी गति से एक ओर जंगल में बढ़ना शुरू हुआ और एक भयानक जीव-जन्तुओं से भरे सुनसान में जाकर स्थिर हो गया। किसान अनुगमन करता हुआ जैसे ही उस स्थान पर पहुंचा वह यह देखकर चकित रह गया कि दोनों बच्चे वृक्ष की जड़ के सहारे इस तरह शान्त और निश्चिन्त सोये हैं मानों कोई उनकी पहरेदारी कर रहा हो।
लारेंको मार्क्वीस (मोजाम्बिक) की घटना है। एक पंगु अफ्रीकी को लकवा मार गया। पैर मुड़ जाने से वह घिसट कर चलता था अर्नेस्टो टिटोस मुल्होव नामक यह अफ्रीकी बड़ा ईश्वर भक्त था उसकी भक्ति और वर्तमान स्थिति पर उसके मित्र अक्सर टीका-टिप्पणी करते रहते। वपतिस्मा (ईसाई धर्म में दीक्षा का एक विशेष त्यौहार) के दिन उससे रहा नहीं गया वह भाव विह्वल अन्तःकरण से प्रोटेस्ट चर्च की ओर घिसटता हुआ भागा। जितना वह भागता उसकी प्राण शक्ति उतनी ही सक्रिय होती गई और चर्च तक पहुंचते न जाने किस अद्भुत शक्ति ने उसे खड़ा कर दिया, जिसे डॉक्टर भी ठीक नहीं कर सकते थे। अनायास ठीक हो जाने पर लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। ए.एफ.सी. ने यह समाचार देते हुये स्वीकार किया कि सचमुच संसार में कोई अद्भुत अदृश्य शक्ति है अवश्य जो अपनी सर्व शक्तिमत्ता का परिचय देती रहती है। 26 जून 1954 को देहली से छपने वाले दैनिक हिन्दुस्तान में भी इसी तरह की एक अद्भुत घटना छपी है—‘‘पन्ना जिले के धर्मपुर स्थान में कच्ची ईंटों को पकाने के लिये एक भट्ठा लगाया गया था। किसी को पता भी नहीं कि ईंटों के बीच एक चिड़िया ने घोंसला बनाया है और उसमें अण्डे सेये हैं। एक सप्ताह तक भट्ठा जलता रहा। ईंटें आग में पकती रहीं आठवें दिन भट्टा खोला गया तो एक चिड़िया उसमें से उड़कर भागी। आश्चर्यचकित सैकड़ों लोग वहां एकत्र हो गये। लोग तब यह मानने को विवश हो गये कि परमात्मा की अदृश्य सत्ता का संरक्षक सर्व समर्थ है जब उन्होंने देखा कि दो अण्डे सुरक्षित रखे हुए हैं और जिस स्थान पर घोंसला बना है उसके एक फीट दायरे में आग पहुंची ही नहीं जब कि सारे भट्टे में इस तरह का एक इंच स्थान भी न बचा था।
ऐसे असंख्य उदाहरण आये दिन हमारे सामने आते रहते हैं जब अनहोनी उस नियामक के अस्तित्व का संकेत करती रहती है पर स्थूल बुद्धि के व्यक्ति उस सूक्ष्म को कहां स्वीकारते हैं? स्वीकार लें तो न केवल आध्यात्मिक अपितु हमारा व्यावहारिक संसार भी सुख-शांति से ओत-प्रोत हो सकता है। उचित और आवश्यक तो यह है कि उस दिव्यसत्ता के प्रति श्रद्धाभाव विकसित किया जाय तथा अपनी आत्मिक शक्ति का अभिवर्धन किया जाय। आत्मिक क्षेत्र को विकसित करने वाली, आत्मिक स्तर ऊंचा उठाने वाली जितनी भी शक्तियां हैं उन सब में ‘श्रद्धा’ का सबसे बड़ा स्थान है।
श्रद्धा सर्वोपरि आत्मिक शक्ति
श्रद्धा, अन्धविश्वास, मूढ़ मान्यता या कल्पनालोक की उड़ान या भावुकता नहीं, वरन् एक प्रबल तत्व है। भौतिक जगत में विद्युत शक्ति की महत्ता एवं उपयोगिता से अगणित प्रकार के कार्य सम्पन्न होते देखे जाते हैं। यदि बिजली न हो तो वैज्ञानिक उपलब्धियों में से तीन चौथाई निरर्थक हो जायेंगी ठीक इसी प्रकार आत्मिक जगत में श्रद्धा की बिजली की महत्ता है। मनोयोग और भावनाओं के सम्मिश्रण से जो सुदृढ़ निश्चय एवं विश्वास विनिर्मित होता है उसे भौतिक बिजली से कम नहीं वरन् अधिक ही शक्तिशाली समझा जाना चाहिये। आत्म निर्माण का विशालकाय भवन उच्च आदर्शों के प्रति अटूट निष्ठा की चट्टान पर ही खड़ा किया जाता है। जिसे उत्कृष्ट—दिव्य जीवन की गरिमा पर परिपूर्ण श्रद्धा न होगी वह छुट-पुट प्रयत्न करते रहने पर भी आत्मिक प्रगति के मार्ग पर दूर तक—देर तक चल न सकेगा। आये दिन तनिक-तनिक सी बात पर उसके पैर लड़खड़ाते रहेंगे। किन्तु जिसने यज्ञीय जीव जीने की महत्ता अन्तरंग के गहन स्तर से स्वीकार करली उसे अभाव और कठिनाइयों की तनिक सी असुविधा आत्म सन्तोष की महान् उपलब्धि के सामने कुछ भी कठिन दिखाई न पड़ेगी।
श्रद्धा को सदुद्देश्य के लिये नियोजित कर देने का नाम ही आत्म शक्ति है। आत्मबल की प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया उन सिद्धियों के रूप में तत्काल देखी जा सकती है जो न केवल अपने को ही महान बनाती हैं वरन् सम्पर्क में आने वालों को भी इतना लाभ पहुंचाती हैं जितना आर्थिक और शारीरिक प्रचुर सहयोग देने पर भी सम्भव नहीं हो सकता। उपासना, साधना, तपस्या, देव अनुग्रह, वरदान, स्वर्ग मुक्ति आदि आत्मिक उत्पादनों के पीछे जो तथ्य काम करता है उसे श्रद्धा का परिपाक ही समझा जाना चाहिये। यदि श्रद्धा न हो तो यह समस्त क्रिया-कलाप मात्र कर्मकाण्ड बनकर ही रह जायेंगे और उनका परिणाम नगण्य जितना ही दिखाई देगा।
जिन्हें मन की सत्ता और महत्ता का ज्ञान है उन्हें यह भी विदित है चेतना जगत में जिस प्राण शक्ति की अजस्र महिमा गाई जाती है वह अन्तरिक्ष में संव्याप्त विद्युत, चुम्बक, ईथर, विकरण आदि सामान्य भौतिक संव्याप्ति की संकल्प शक्ति के आधार पर विनिर्मित एक अद्भुत ऊर्जा ही है। प्राण और कुछ नहीं भौतिक प्रकृति और चेतनात्मक संकल्प शक्ति का समन्वय ही हैं। प्राणधारियों को जीवित रखने उनकी मानसिक हलचलों को प्रखर बनाये रहने का कार्य ‘प्राण शक्ति’ द्वारा ही सम्पन्न होता है। कहना न होगा कि जो जितना श्रद्धान्वित है वह उतना ही प्राणवान होगा। बौद्धिक तीक्ष्णता से मस्तिष्कीय लाभ मिल सकते हैं किन्तु प्रतिभा, व्यक्तित्व, आत्मबल, जीवन जैसी विशेषतायें श्रद्धासिक्त प्राप्त शक्ति ही उत्पन्न करती हैं। महामानव, देवदूत, ऋषिकल्प एवं नर नारायण के रूप में सामान्य व्यक्ति को परिणत कर डालने की क्षमता केवल श्रद्धासिक्त प्राण शक्ति में ही निहित रहती है।
श्रद्धा का अर्थ है—आत्मानुगमन। शरीर में इन्द्रिय सुखोपभोग की वासना, लिप्सा भरी रहती है। मन में तृष्णा और अहंता की लालसायें—कामनायें उफनती रहती हैं। इन्हीं की मांग पूरी करने के लिये प्रायः हमारे सारे क्रिया-कलाप होते रहते हैं। जीवन क्रम इसी परिधि में घूमता और खपता है। औसत आदमी की गाड़ी इसी ढर्रे पर लुढ़कती है। ऐसे कम ही लोग हैं जो अन्तःकरण से भाव संस्थान की स्थिति और शक्ति से परिचित हैं। हमारे अन्तरंग में परमात्मा की सत्ता प्रतिष्ठित है जो निरन्तर उन उच्च आदर्शों को अपनाने के लिये अनुरोध करती रहती है जिनके लिये बहुमूल्य मानव जीवन उपलब्ध हुआ है। आत्मा की पुकार—आत्मा की प्रेरणा, आत्मा की दिशा का यदि अनुगमन किया जाय तो उस आनन्द उल्लास में अन्तःभूमिका इतनी अभिरुचि एवं तत्परता के साथ संलग्न हो जाती है कि वासना और तृष्णा उपहासास्पद बाल क्रीड़ा मात्र प्रतीत होने लगती है। तब मन के चंचल—चित्त के उद्विग्न होने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता।
आत्मबोध, आत्मानुगमन, आत्मोत्कर्ष की सम्मिलित मनःस्थिति का नाम ही श्रद्धा है। यों किसी मन्त्र, आदर्श, व्यक्ति, धर्म आदि के प्रति निष्ठा को भी श्रद्धा कहते हैं पर उसका उच्च स्तर आत्मानुगमन से ही जुड़ा रहता है। जो इस स्तर की प्रेरणा उत्पन्न कर सके भावना उमंगा सके वही सच्ची श्रद्धा है। कहना न होगा कि आत्म शक्ति की सुसम्पन्नता केवल श्रद्धालु लोगों को ही उपलब्ध हो सकती है।
पशु-पक्षियों में कितनी ही विशेषतायें ऐसी पाई जाती हैं जो मनुष्यों में नहीं होतीं। इन विशेषताओं का कारण यह है कि अपने अचेतन का पूर्णतया अनुगमन करते हैं। प्रकृति की प्रेरणाओं का उल्लंघन नहीं करते। तर्क और विचार को वे मर्यादित रखते हैं। अवांछनीय चिन्तन से उत्पन्न बौद्धिक विकृतियों के वे शिकार नहीं होते। जीवन की नीति निर्धारित करने में वे अन्तरात्मा का निर्देश स्वीकार करते हैं। मनुष्य की अपनी विशेषतायें हैं और मस्तिष्कीय क्षमतायें असाधारण रूप से मिली हैं पर दुर्भाग्य यही है कि वह उसे सही दिशा में प्रयुक्त न करके उद्धत चिन्तन में उलझता है। फलस्वरूप बौद्धिक प्रखरता के लाभ से वंचित रहकर उलटा शोक सन्ताप में बंधा जकड़ा रहता है। वेराग्य का अर्थ लोगों ने घर-बार छोड़कर भिक्षा मांगना—सफेद कपड़े छोड़कर लाल-पीले पहन लेना मान लिया है, पर वस्तुतः वह एक मनःस्थिति है जिसमें कर्तव्य कर्म पूरे उत्साह से करते हुये भी मन असंग, राग, द्वेष रहित बना रहता है। अनासक्त कर्मयोग को गीता में सुविस्तृत चर्चा है। स्थिति प्रज्ञ और निर्विकल्प स्थिति का वर्णन है। इसी को वैराग्य कह सकते हैं। खिलाड़ी की भावना से जीवन खेल खेलना और नाटक में अपने जिम्मे का अभिनय पूरे मनोयोग से सम्पन्न करना यही कर्मयोग है। हानि लाभ और सफलता असफलता को बहुत महत्व न देकर केवल अपनी उत्कृष्ट शैली पर गर्व और सन्तोष अनुभव करना, यही है अनासक्त मनःस्थिति। शरीर को आहार-विहार और मन को चिन्तन के लिये उत्कृष्ट सामग्री प्रदान करना यही है सन्तुलित जीवन क्रम की रीति-नीति। इसे जहां अपनाया जायगा वहीं आन्तरिक स्थिरता की वह पृष्ठभूमि बन जायगी जिसमें ध्यान योग, लययोग जैसी ब्रह्म सम्बन्ध की साधनायें सफल हो सकें।
बाहरी भाग दौड़ में जो श्रम पड़ता है उससे अवयवों को अधिक गतिशील होने का अवसर मिलता है। व्यायाम करने वाले तथा श्रमिक लोग भारी श्रम करने पर भी स्वस्थ बने रहते हैं इसका कारण यह है कि वह श्रमपरक दबाव बाहरी रहता है, विश्राम मिलते ही उस दबाव की पूर्ति हो जाती है। पर यदि अवयवों में आन्तरिक दबाव रहे तो उसका बहुत दबाव पड़ेगा। पेट, सिर, दांत आदि किसी अवयव में यदि दर्द हो रहा हो तो उस भीतरी उत्तेजना से शरीर के सारे ढांचे पर बुरा असर पड़ेगा और बड़ी मात्रा में शक्ति क्षीण होगी। ठीक इसी प्रकार इन्द्रिय भोगों की ललक से शारीरिक तनाव अधिक बढ़ता है, काम सेवन की क्रिया में जितनी शक्ति क्षरित होती है उसमें कहीं अधिक काम चिन्तन में नष्ट हो जाती है। इसीलिये मानसिक व्यभिचार शरीर भोग की अपेक्षा कहीं अधिक स्वास्थ्य विघातक सिद्ध होता है। यही बात अन्य इन्द्रिय भोगों की ललक लिप्सा के सम्बन्ध में है। संयम की महत्ता जहां साधारण स्वास्थ्य नियमों के अनुरूप है वहां उसका एक लाभ यह भी है कि वासनात्मक उत्तेजना से होने वाली क्षति से बचा जा सकता है और उस बचाव से स्वास्थ्य सम्वर्धन में भारी सहायता मिल सकती है। वासना शान्त रहे तो शरीर की अन्तरंग स्थिति समुचित विश्राम लाभ करती रहेगी और जीवनी शक्ति को अनावश्यक क्षति न पहुंचेगी। ध्यानयोग के लिये तो ऐसी शरीरगत अन्तःशान्ति की नितान्त आवश्यकता पड़ती है।
भौतिक जीवन की अनेक समस्याओं को हल करने के लिये तर्क, आशंका, अविश्वास, सन्देह, काट-छांट, प्रमाण परिचय, तथ्य अतथ्य आदि अनेक कारणों की विवेचना करनी पड़ती है और तब भी मन शंका शंकित रहता है तथा पूर्व निर्णय के सही सुनिश्चित होने में सन्देह बना रहता है। यह मनःस्थिति लाभ हानि एवं उचित अनुचित के बीच के उपयोगी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये आवश्यक है पर यह स्थिति आध्यात्मिक क्षेत्र में भी बनी रहे तो अनिश्चित विश्वास के कारण वह शक्ति उत्पन्न न हो सकेगी जिसके आधार पर आत्मबल बढ़ाने—उच्च आदर्श अपनाने और श्रद्धान्वित पृष्ठभूमि बनाई जाती है। कहना न होगा कि यदि श्रद्धा विश्वास का ईंट चूना न जुटाया जा सका तो आत्मिक प्रगति का भवन खड़ा ही न हो सकेगा।
आत्मिक प्रगति के लिए हमें श्रद्धा का जागरण करना चाहिए। आत्मानुगामी बनना चाहिए। आत्म निर्देश रूप सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए। जो इतना साहस कर सकेगा—अपनी आकांक्षाओं को उत्कृष्टता की दिशा में नियोजित कर सकेगा, उसे वासना और तृष्णा की तूफानी आंधियों का सामना न करना पड़ेगा और शक्ति का निरन्तर होने वाला अपव्यय सहज ही बचना आरम्भ हो जायगा। आत्मिक पूंजी इसी प्रकार जमा होती है। भौतिक विक्षोभों से विरत रह सकना कठिन लगता भर है, वस्तुतः वैसा है नहीं। यदि अपने अन्तरंग में प्रवेश करते रहने वाले विचारों का वर्गीकरण मात्र करते रहें उनके विश्लेषण विवेचन के लिये सजग तत्परता प्रदर्शित करें तो सहज ही वे अवांछनीय विचार पलायन करने लगेंगे जिनके झमेले में अशान्त अन्तःकरण कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त कर सकने से वंचित ही बना रहता है।
विचारों के प्रवाह में अपनी अन्तः चेतना को न बहने दें वरन् सूक्ष्म निरीक्षण करने की क्षमता विकसित करें। दृष्टा की तरह अपने को मस्तिष्क से कहीं ऊंचे स्थान पर अवस्थित अनुभव करें और जिस तरह गड़रिया अपने बाड़े में घुसने वाली भेड़ों की गणना करता तथा स्थिति देखता है उसी तरह अलग बैठे हुए यह निरीक्षण करें कि मस्तिष्क में किस स्तर के विचार प्रवेश करते और जड़ जमाते हैं। उनका वर्गीकरण करने का जब थोड़ा अभ्यास हो जायगा तब प्रतीत होगा कि उनमें से कितने उपयोगी और अनुपयोगी थे।
मन को अपना काम करने देना चाहिये। जो भी विचार आयें उठें उन्हें आने उठने देना चाहिये। प्रथम प्रयास में उन्हें रोकने की जरूरत नहीं है, यह कदम बहुत आगे चलकर उठाया जाना चाहिये। मानसिक परिष्कार का प्रथम चरण यह है कि मस्तिष्क की स्थिति रुचि, रुझान का वैसा ही निरीक्षण किया जाय जैसा कि डॉक्टर मल, मूत्र रक्त श्लेष्मा आदि की जांच पड़ताल करके शरीर की वस्तुस्थिति समझने का प्रयत्न करता है। आत्म विश्लेषण इसी स्तर का प्रयास है। इसे ठीक तरह पूरा कर लिया जाय तो मन निग्रह की तीन चौथाई समस्या सहज ही हल हो जाती है।
चोर का साहस वहीं होता है जहां उसे यह भय नहीं रहता कि कोई देख रहा होगा। सेंध लगाने से पूर्व चोर यह पता लगाते हैं कि कहीं किसी की दृष्टि उनके कुकृत्य पर है तो नहीं। यदि पता चल जाय कि लोग जाग रहे हैं या देख-भाल कर रहे हैं तो फिर चोरी करने का साहस ही न पड़ेगा और वह उलटे पैरों लौट जायगा। अवांछनीय विचार उसी मस्तिष्क में प्रवेश करते तथा जड़ जमाते हैं जहां आत्म निरीक्षण एवं आत्म विश्लेषण की दृष्टि से बेखबरी छाई रहती है। जहां जागरूकता होगी—देख-भाल, ढूंढ़ चल रही होगी वहां कुविचार अपने आप ही लज्जा, भय और ग्लानि अनुभव करते हुए अपनी हरकतें बन्द कर देंगे।
जब हम यह सोचते हैं कि मस्तिष्क हमारा घर है। इसमें किसे प्रवेश करने देना है किसे नहीं यह निर्णय करना हमारा काम है तब मन की स्थिति ही बदल जाती है। अनाड़ी घोड़ा किसी भी दिशा में भागता है और कुछ भी हरकत करता है पर जब मालिक उसकी पीठ पर चढ़ लेता है और लगाम तथा चाबुक की सहायता से निर्देश करता है तब ही उसे अपना अनाड़ीपन छोड़ना पड़ता है और मालिक की इच्छानुसार चलना पड़ता है, मस्तिष्क रूपी घर में तभी तक चमगादड़ों और अवावीलों के घोंसले रहते हैं जब तक गृह स्वामी उन्हें सहन करता है, पर जब यह निश्चय कर लिया जाता है कि घर को साफ सुथरा रखा जायगा तो मकड़ी के जाले, बर्रों के छत्ते, चमगादड़ों के अड्डे और अवावीलों के घोंसले बल पूर्वक कब्जा नहीं जमाये रह सकते एक भी झपाटे का सामना वे नहीं कर सकते तथा जगह खाली करने के अतिरिक्त और कुछ कर ही नहीं सकते। कुविचारों की स्थिति भी ठीक ऐसी है। यदि अन्तःचेतना यह निश्चय कर ले कि अपने घर में मस्तिष्क में उद्धत विचारों को स्थान नहीं दिया जाना है तो वे निश्चित रूप से अपनी जगह खाली कर देंगे।
आत्म विज्ञानी परम श्रद्धेय ईश्वरीय सत्ता के प्रति श्रद्धा के माध्यम से यही लाभ उठाते हैं। वह सत्ता केवल मानने और जानने योग्य ही नहीं है अपितु श्रद्धा करने योग्य भी है। उसके क्रिया कलापों, प्रकृति प्रांगण में यत्र तत्र बिखरी उसकी प्रेरणाओं का अध्ययन किया जाय तो यह भी विदित हो जायगा कि वह सत्ता क्यों श्रद्धेय है?