Books - फिजाँ बदल देती है-अवतार की आँधी
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Language: HINDI
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फिजाँ बदल देती है-अवतार की आँधी
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३० अगस्त १९७५ जन्माष्टमी पर उद्बोधन
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! आज जन्माष्टमी का पुनीत पर्व है। आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इसी दिन पृथ्वी पर भगवान् की वह शक्ति अवतरित हुई, जिसने प्रतिज्ञा की थी कि हम सृष्टि का संतुलन कायम रखेंगे। भगवान् की उस प्रतिज्ञा के भगवान् कृष्ण प्रतिनिधि थे, जिसको पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी सारी जिंदगी लगा दी। उसी प्रतिज्ञा के आधार पर उन्होंने जनसाधारण को विश्वास दिलाया है कि हम पृथ्वी को असंतुलित नहीं रहने देंगे और सृष्टि में अनाचार को नहीं बढ़ने देंगे। भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की हुई है-
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे- युगे संतुलन हेतु आता है अवतार मित्रो! मनुष्य के भीतर दैवी और आसुरी- दोनों ही वृत्तियाँ काम करती रहती हैं। दैत्य अपने आपको नीचे गिराता है। पानी का स्वभाव नीचे की तरफ गिरना है। पानी बिना किसी प्रयास के, बिना किसी ‘परपज’ के नीचे की तरफ गिरता हुआ चला जाता है। इसी तरह मनुष्य की वृत्तियाँ जब बिना किसी के सिखाए और बिना किसी आकर्षण के अपने आप पतन की ओर, अनाचार और दुराचार की ओर बढ़ती हुई चली जाती हैं, तब सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाता है। व्यक्ति के भीतर भी और समाज के भीतर भी संतुलन बिगड़ जाता है। ऐसी स्थिति में समाज में सफाई की प्रक्रिया यदि न चलाई जाए, कमरे में झाड़ू न लगाई जाए, तो कूड़ा भरता चला जाएगा। दाँत पर मंजन न किया जाए, शरीर को स्नान न कराया जाए, तो उस पर मैल जमता चला जाएगा। इसी तरह अगर कपड़े को न धोया जाए, तो कपड़ा मैला होता चला जाएगा। मलीनता को साफ करने की प्रक्रिया जब बंद हो जाती है या ढीली पड़ जाती है, तो सृष्टि में अनाचार बढ़ जाता है, यह सृष्टि के बहिरंग रूप में भी और अंतरंग रूप में भी फैल जाता है। अंतरंग रूप हमारा व्यक्तिगत रूप है।
यह भी एक सृष्टि है। व्यक्ति अपने आप में सृष्टि है, व्यक्ति अपने आप में संसार है, विश्व है। अगर संघर्ष की गुंजाइश न हो, सफाई की गुंजाइश न हो, धुलाई की गुंजाइश न हो, तब इसके भीतर भी अनाचार बढ़ता हुआ चला जाता है। इसी तरह बहिरंग संसार में भी अगर सुधार की प्रक्रिया, संघर्ष की प्रक्रिया, सही करने की प्रक्रिया को जारी न रखा जाए, तब संसार में अनाचार बढ़ता चला जाता है। कभी- कभी देव भी हार जाते हैं, जब समाज को ऊँचा उठाने वाले उनके सलाहकार धीमे पड़ जाते हैं, हारने लगते हैं। जब हम अपना संघर्ष बंद कर देते हैं और दुष्ट प्रवृत्तियों को खुली छूट दे देते हैं, तब हमारा भीतर वाला देव हारने लगता है और दुष्ट प्रवृत्तियाँ खुलकर खेलने लगती हैं। दुष्ट प्रवृत्तियाँ हमारे मस्तिष्क में छाई रहती हैं। दुष्ट प्रवृत्तियाँ हमारे स्वभाव और अभ्यास में बनी रहती हैं। चूँकि हम अपने भीतर से संघर्ष बंद कर देते हैं, दुष्प्रवृत्तियों को रोकते नहीं, काटते नहीं, तोड़ते- मरोड़ते नहीं, उनसे लोहा लेते नहीं और न ही उन्हें छोड़ते हैं, इसलिए वे हम से चिपक कर बैठी रहती हैं और उनको हमारे अंतरंग जीवन में खुलकर खेलने का मौका मिल जाता है। और बहिरंग जीवन में? बहिरंग जीवन में भी यही बात है। बहिरंग जीवन में आप अनाचार को छूट दे दीजिए, उसे रोकिए मत, सुधारिए मत, प्रतिबंध लगाइए मत, तब वह चारों ओर से बढ़ता हुआ चला जाएगा। अनाचार आता बहिरंग से है, लेकिन उतरेगा अंतरंग जीवन में। इस कारण कभी- कभी आप में ऐसा असंतुलन पैदा होगा, जो विनाश की ओर ले जाएगा। जब कभी असंतुलन पैदा हो जाता है, तो यह मालूम पड़ता है कि दुनिया का विनाश होने वाला है। हमारी भीतर की दुनिया का भी और बाहरी दुनिया का भी विनाश होने वाला है। यह विनाश नहीं, वरन् विनाश के आधार हैं।
मित्रो! विनाश का आधार एक ही है- अनाचार। अनाचार की वृद्धि अर्थात् विनाश। अनाचार और विनाश दोनों एक ही चीज हैं। इनमें जरा भी फर्क नहीं है। एक दूध है, तो एक दही। दूध अगर जमा दिया जाएगा, तो दही बन जाएगा और जीवन में अनाचार को बढ़ावा दिया गया होगा, तो विनाश उत्पन्न हो जाएगा। यह प्रक्रिया न जाने कब से बार- बार बनती और चलती आ रही है। भगवान् को सृष्टि निर्माण से पूर्व ही यह ख्याल था कि कहीं ऐसा न हो जाए और सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाए। इसलिए सृष्टि का संतुलन जब कभी बिगड़ने लग जाता है, तो उसका बैलेंस ठीक करने के लिए भगवान् अपनी शक्तियों को लेकर अवतार लेते रहे हैं। अवताराः असंख्याः अब तक भगवान् ने जाने कितने अवतार लिए हैं, हम कही नहीं सकते। उनमें से एक अवतार यह भी है जिसका कि हम जन्मोत्सव मनाने के लिए, जन्मदिन मनाने के लिए, जन्माष्टमी मनाने के लिए एकत्रित हुए हैं। भगवान् के अवतार हमारे यहाँ हिंदू सिद्धांत के अनुसार दस और एक दूसरे सिद्धांत के आधार पर चौबीस हुए हैं। कोई कहता है कि दस अवतार हुए हैं, तो कोई कहता है कि भगवान् के चौबीस अवतार हुए हैं। यह तो मैं हिंदू समाज की बात कह रहा हूँ। लेकिन हिंदू समाज ही दुनिया में अकेला नहीं है। मुसलमान समाज अलग है।
मूसा से लेकर मोहम्मद साहब तक ढेरों अवतार हुए हैं। ईसाइयों में भी न जाने कितने अवतार हो चुके हैं। बौद्धधर्म में न जाने कितने अवतार हुए हैं। पारसियों में कितने अवतार हो चुके हैं। हर मजहब में कितने अवतार हो चुके हैं, यह हम नहीं बता सकते। अवतार होने से हमें कोई शिकायत भी नहीं है। मित्रो! चलिए इन अवतारों में हम एक और कड़ी जोड़ने को तैयार हैं। जितने भी महामानव, महर्षि, लोकसेवक एवं संसार को रास्ता बताने वाले हुए हैं, चलिए उन सबको हम अवतार मान लेते हैं। इस संबंध में हम यह नहीं कहेंगे कि यह अवतार नहीं था या वह अवतार नहीं था। हमारे ये सब अवतार हैं। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि अवतार आपके भीतर में कई तरीके से प्रकट होता रहता है। कभी अनाचार को दबाने के लिए खड़ा हो जाता है, तो कभी पीड़ा- पतन निवारण के लिए खड़ा हो जाता है। तो कभी विकृतियों से जूझने के लिए खड़ा हो जाता है। जिस तरीके से कसाई बकरे को बाँधकर ले जाता है, उसी तरीके से हमारा आंतरिक अवतार न जाने कहाँ से कहाँ ले जाने के लिए हमें विवश कर देता है। दुनिया में ऐसी कौन सी शक्ति है, कौन है वह, जो हमें बताता है कि इस रास्ते पर चलना नहीं है। वह शक्ति हमें ऐसे रास्ते पर चलने से रोक देती है।
जब कभी शौर्य का- साहस का उदय हमारे भीतर होता है, तो मित्रो हम कह सकते हैं कि अवतार का उदय हुआ। यह भी एक अवतार अवतार का उदय कितने मनुष्यों के भीतर हुआ और उन्होंने कितनों का कायाकल्प कर दिया? एक उदाहरण बताता हूँ आपको- समर्थ गुरु रामदास का। समर्थ गुरु रामदास शादी के लिए तैयार खड़े थे। पंडित पंचांग लेकर पति- पत्नी को एक- दूसरे के गले में वरमाला पहनाने को कह रहे थे। तभी समर्थ के सामने दो सपने आकर खड़े हो गए। सपना नंबर एक कि बीबी आएगी, हाथ- पाँव दबाया करेगी, सिर में तेल लगाया करेगी, खाना पकाया करेगी और बच्चा पैदा किया करेगी। दूसरा सपना इतना जबरदस्त आया कि चूहे के तरीके से रोटी के टुकड़े को देखकर मौत के पिंजड़े में जाने को तैयार है? यह पता नहीं कि जिंदगी कितनी कीमती है और इसके लिए क्या करना चाहिए? भगवान् आया और उसने समर्थ को आवाज दी- बुलाया भगवान् हमारे और आपके पास भी रोज आता है। रोज संदेश देता है, आदेश देता है, निर्देश करता है। लेकिन भगवान् की पुकार हम और आप कब सुनते हैं? भगवान् आदर्श की, सिद्धांतों की, नैतिकता की, मर्यादा की बातें बताकर चला जाता है, लेकिन हम और आप यह सब सुनते हैं क्या? हमारे लिए तो भगवान् की पूजा करने के लिए ये खेल- खिलौने ही काफी हैं, जो हमने और आपने पकड़ रखे हैं। हमारी और आपकी समझ में तो भगवान् की आरती उतारनी चाहिए, जप कर लेना चाहिए, भगवान् को धूपबत्ती चढ़ा देना चाहिए, भगवान् को चावल चढ़ा देना चाहिए, और प्रसाद बाँट देना चाहिए। इतना काफी है। और कुछ? नहीं और ज्यादा न हमारी हिम्मत है, न हमारा मन है, न हमारी तबियत है, न हमारे अंदर जीवट है और न हमारे अंदर चिंतन है। बस, इन्हीं बाल- बच्चों जैसे खिलौनों से खेलते रहते हैं। भगवान् की पूजा के लिए इन खेल- खिलौनों के अतिरिक्त हम और हिम्मत नहीं कर सकते। लेकिन भगवान् तो अपनी पूजा के लिए कुछ और ही चाहता है। वह धर्म स्थान के लिए, समय की माँग को पूरा करने के लिए आपको रोज पुकारता है। धर्म की स्थापना के लिए भगवान् ने किसको- किसको पुकारा? समर्थ गुरु रामदास को पुकारा। उनसे कहा कि अरे! कहाँ चलता है नरक में, चल तेरे लिए दूसरा रास्ता खुला पड़ा है।
उन्होंने कहा- भगवान् मैं आया। भगवान् मैं डूब रहा हूँ, इस भवसागर से आप मेरा त्राण कीजिए अर्थात् रक्षा कीजिए। भगवान् का तो संकल्प ही है- ‘‘परित्राणाय साधूनां’’ अर्थात् साधुओं का त्राण होता है, असाधुओं का नहीं। असाधुओं के त्राण के लिए भगवान् के पास कोई फुरसत नहीं है। कोई टाइम नहीं है और कोई मोहब्बत नहीं है। जो आदमी साधु- संत नहीं है अथवा साधु होकर भी पाप के गर्त में गिरते हुए चले जाते हैं, तो भगवान् क्यों करेंगे मोहब्बत उनसे और क्यों प्यार करेंगे उनसे? एक सिद्धांत वाले- उच्च आदर्शों वाले की ओर उन्होंने अपना हाथ बढ़ा दिया और समर्थ गुरु उठकर खड़े हो गए। शादी के मंडप से वे भाग खड़े हुए। लोगों ने कहा कि पकड़ना इन्हें, पर समर्थ गुरु उनकी पकड़ से दूर भाग खड़े हुए। उनकी होने वाली बीबी का ब्याह दूसरे व्यक्ति से कर दिया गया। समर्थ गुरु रामदास जाने कहाँ चले गए। मित्रो! समर्थ गुरु रामदास वहाँ चले गए, जहाँ से हिंदुस्तान के अध्याय का नया इतिहास आरंभ हुआ। उन्होंने न जाने कितने शिवाजी तैयार कर दिए। महाराष्ट्र में उन्होंने न जाने कितने ज्ञान केन्द्रों, हनुमान मंदिरों को स्थापित किया। एक- एक मुट्ठी अनाज घर- घर से एकत्र करके कितना अपार धन अर्जित किया और उसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए शिवाजी की सेना में लगा दिया।
शिवाजी के नाम से जो संग्राम चला, उसके असली संचालक कौन थे? समर्थ गुरु रामदास। समर्थ गुरु रामदास का इतिहास- भगवान् का इतिहास है। आपका इतिहास? औरों का इतिहास- बंदरों का इतिहास है, शेरों का इतिहास है, चूहों का इतिहास है, जो केवल पेट के लिए जीते हैं, औलाद के लिए जीते हैं। हम और आप भी कोई भगवान् के भक्त हैं? नहीं, साहब हम तो भगवान् की शरण चाहते हैं। खाक चाहता है अभागा कहीं का। बस भक्ति के नाम पर चंदन चढ़ाता हुआ चला जाता है, माला घुमाता हुआ जाता है। नहीं साहब! हम तो बद्रीनाथ जाते हैं, चंदन चढ़ाते हैं, माला घुमाते हैं, धूपबत्ती जलाते हैं। ये कुछ नहीं, मात्र तू खेल- खिलौना करता, मजाक करता और भगवान् को अँगूठा दिखाता है। आपके ये पूजा करने के ढंग भगवान् से दिल्लगीबाजी करने के समान हैं। पूजा करने के सही ढंग वे हैं, जो समर्थ गुरु रामदास के पास आए थे।
श्रेय व प्रेय मार्ग मित्रो! पूजा करने के सही तरीके वे हैं, जो भगवान् की पुकार सुनने वालों ने अपनाए हैं। भगवान् की पुकार सुनने वालों में से एक नाम जगद्गुरु शंकराचार्य का भी है। एक ओर शंकराचार्य की माँ चाहती थीं और ये कहती थीं कि मेरा फूल- सा छोकरा ब्याह करके गोरी बहू लाएगा और नाती- पोते पैदा करेगा। कमाकर लाएगा, महल बनाएगा, कोठी बनाएगा, गाड़ी लाएगा और घर में पैसे इकट्ठे करेगा। एक ओर इस तरह शैतान वाला ख्वाब, पाप वाला ख्वाब, लोभ वाला ख्वाब, आकर्षण वाला ख्वाब था, दैत्य वाला ख्वाब था, तो दूसरी ओर शंकराचार्य के मन में देवत्व वाला ख्वाब था। भगवान् ने शंकराचार्य के कान में इशारे से कहा- अरे अभागे जिस काम के लिए कुत्ते और बिल्ली, मेढक और चूहे अपनी सारी जिंदगी खर्च कर देते हैं, वह तेरे लिए काफी नहीं है। तेरे लिए दूसरा रास्ता खुला हुआ है, उस ओर चल। शंकराचार्य ने अपनी माँ को समझाया, परंतु माँ की समझ में कहाँ और क्यों आने वाला था? उसकी समझ में तो यही आता था कि मुझे पोता चाहिए, पोती चाहिए, कोठी चाहिए। मित्रो! इन सब ख्वाबों को लात मार उठ खड़ा हुआ- शंकराचार्य कौन खड़ा हो गया? चारों धाम की स्थापना करने वाला शंकराचार्य, बौद्ध नास्तिकवाद की जड़ें उखाड़कर हिंदुस्तान से बाहर करने वाला शंकराचार्य। उन दिनों बौद्धों का नास्तिकवाद हिंदुस्तान में लोगों के मन- मस्तिष्क में घुसता हुआ चला जा रहा था, तब शंकराचार्य ने कहा था कि हिंदुस्तान में आस्तिकता जिंदा रहेगी, नास्तिकता को हम जिंदा नहीं रहने देंगे। हिंदुस्तान से नास्तिकता को उन्होंने निकाल बाहर किया। फिर वह कहाँ चली गई? चाइना चली गई, कोरिया चली गई, मलेशिया चली गई, जापान और वर्मा चली गई, श्रीलंका चली गई, कहीं भी चली गई, पर हिंदुस्तान से भाग गई। ये शंकराचार्य की हिम्मत थी।
चारों धामों की स्थापना करके सारे हिंदुस्तान को एकता के सूत्र में पिरोने वाला वह शंकराचार्य, दिग्विजय करने वाला शंकराचार्य, अनूठे विचारों वाला शंकराचार्य अलग था। उसने भगवान् की पुकार सुन ली थी। मित्रो! अगर शंकराचार्य ने भगवान् की पुकार न सुनी होती तब? तब बेटे यही होता, जो हमारा- आपका हुआ है। क्या हो जाता? नौ बेटे और ग्यारह बेटियाँ होतीं। एक बच्चा गोद में बैठा होता, तो एक सिर पर बैठा होता और एक माँ के पेट में। एक गालियाँ दे रहा होता, एक मूँछें काट रहा होता और एक मारपीट कर रहा होता। आपके जैसे उसकी भी मिट्टी पलीद हो गई होती। लेकिन भगवान् की पुकार को सुनने वाला शंकराचार्य उनकी कृपा से जीवन की दिशाओं को लेकर न जाने कहाँ से कहाँ चला गया। भजन इसी का नाम है, जिसमें कि आदमी के जीवन की दिशाधारा बनाई जाती है, विचार बनाए जाते हैं और काम करने के तरीके बदले जाते हैं। इसी का नाम है भजन। भजन माला घुमाना नहीं है, भगवान् की पुकार सुनने का नाम भजन है। भगवान् की पुकार मित्रो! भगवान् की पुकार सुनने का प्रतिफल यही होता रहा है।
कितने मनुष्यों के भीतर भगवान् की पुकार पैदा हुई और किन- किन सामाजिक परिस्थितियों में पैदा हुई? भगवान् समय- समय पर साकार रूप में भी और निराकार रूप में भी आते हैं। निराकार रूप में भगवान् किस- किसके पास आए और साकार रूप में किस- किसके पास आए, जैसा कि अभी मैंने आपको सुनाया। गुरुदेव अभी आप और उदाहरण सुनाएँगे। नहीं बेटे, मैं और नहीं सुनाऊँगा। अगर और हवाला देना पड़ा, तो सारे विश्व का इतिहास आपके सामने पेश करना पड़ेगा, जिन्होंने नियमों के लिए, सिद्धांतों के लिए, आदर्शों के लिए कुरबानियाँ दीं, बलिदान दिए, कष्ट उठाए और दूसरों की नजरों में बेवकूफ कहलाए, बेकार कहलाए। लेकिन अपने आदर्शों के लिए, सिद्धांतों के लिए, दुनिया में शांति कायम रखने के लिए, दुनिया में शालीनता कायम रखने के लिए जिन्होंने अपने आपको, अपनी अक्ल को, अपनी ताकत को और अपनी संपत्ति को सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, ऐसे लोगों की संख्या सारी- की तादाद लाखों भी हो सकती है और करोड़ों भी। भगवान् की गाथाएँ सुनाने के लिए मुझे उन सबके इतिहास सुनाने पड़ेंगे।
आप इन सबकी कथा- गाथा को भगवान् की कथा- गाथा मान सकते हैं। इसी तरह गाँधीजी की कथा- गाथा को यह कहने में कोई एतराज नहीं है कि वह भगवान् की कथा- गाथा है। बुद्ध की, शंकराचार्य की कहानी कहने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है कि वह भगवान् की कथा- गाथा है। दूसरे अन्य लोगों ने, जिन्होंने भी नेक जीवन, श्रेष्ठ जीवन जिया, आदर्श जीवन जिया, लोगों को प्रकाश देने वाला जीवन जिया, मित्रो! वे सारे- के भगवान् थे, क्योंकि उनके भीतर भगवान् अवतरित हुआ होगा और भगवान् ने भगवान् की बाँह पकड़ ली होगी। भगवान् से उन्होंने कहा होगा कि हम आपके पीछे चलेंगे और आपकी छाया होकर रहेंगे। सभी देवता सभी अवतार साथियो! भगवान् का हुक्म जिन लोगों ने माना, वे सब आदमी भगवान् के अवतार कहे जा सकते हैं, देवता कहे जा सकते हैं और जिन लोगों ने भगवान् को ठोकर मारी, माला भले ही घुमाते रहे, उन्हें मैं कैसे कह सकता हूँ कि आप भगवान् के भक्त हो सकते हैं। मैं ऐसे किसी व्यक्ति को मानने को तैयार नहीं हूँ कि वह व्यक्ति भगवान् की इज्जत करने वाला हो सकता है, भगवान् पर विश्वास करने वाला हो सकता है, जो सारा दिन माला घुमाता है, सारा दिन भजन करता है, लेकिन उसकी जिंदगी ऐसी घिनौनी है, जिसे देखकर घृणा आती है और नफरत होती है। ऐसे व्यक्ति भगवान् के भक्त नहीं हो सकते और न ही उनके अंदर भगवान् अवतरित हो सकता है। भगवान् के अवतार मन में अवतरित हुए हैं, हृदय में अवतरित हुए हैं, आदर्शवादी सिद्धांतों और श्रेष्ठ कर्मों के रूप में अवतरित हुए हैं। सृष्टि में हवा के रूप में, आँधी के रूप में निराकार भगवान् व्याप्त है। हवाएँ दिखाई नहीं देतीं, फिर भी अपना काम कर जाती हैं। इसी प्रकार निराकार भगवान् है। गाँधी जी के जमाने में एक हवा आई थी।
गाँधी जी आगे- आगे चलते थे, तो उनके पीछे- पीछे सब चल पड़ते थे। गाँधी जी अकेले थे? नहीं, मित्रो! वे अकेले नहीं थे, हजारों- लाखों आदमी उनके साथ काम करते थे। हजारों- लाखों लोगों की कुरबानियों- बलिदानों लाखों लोगों की तबाही, लाखों लोगों का गोली खाना आदि तरह- तरह की मुसीबतों को झेलकर, सबसे मिलकर उनका संग्राम हुआ। तब देश को आजादी मिली। मित्रो! इस देश में हर जमाने में एक- एक ऐसी हवा चली है, जिसने दुनिया की दिशाधारा ही बदल दी अन्यथा इस देश मे नास्तिकवाद, अनाचारवाद फैल जाता। इन हवा को लेकर कौन आया? हवा के संदेश को लेकर कौन आया? संदेश लेकर के यहाँ भगवान् बुद्ध आए थे। तो क्या भगवान् बुद्ध ने हिंदुस्तान का- सारे एशिया का बेड़ा गर्क नहीं कर दिया था? नहीं मित्रो! ऐसा नहीं हो सकता। यह काम पीछे वालों का अनुयायियों का तो हो सकता है, पर भगवान् बुद्ध का नहीं। बुद्ध भगवान् अकेले क्या कर सकते थे? एक अकेला चना भाड़ को नहीं फोड़ सकता। एक आँधी आती है, एक तूफान आता है, एक हवा आती है। जब आँधी आती है, तो हमें आगे का काम दिखाई पड़ता है। सेना जब चढ़ाई करने जाती है, तब एक विशेष रंग का झंडा आगे- आगे फहराता हुआ चलता है और सैनिक बढ़ते हुए चले जाते हैं।
ठीक है जब चढ़ाई होती है, तो झंडे के निशान आगे बढ़ते हुए दिखाई देते हैं, परंतु वह झंडा तो लड़ाई नहीं लड़ता, लड़ने वाली फौज होती है। हवाएँ कभी- कभी आती हैं। ये हवाएँ क्या काम करती हैं? ये हवाएँ यह काम करती हैं कि असंख्य मनुष्य उपकार में लगे दिखाई पड़ते हैं। गाँधी एक हवा थी, बुद्ध एक हवा थी, कृष्ण एक हवा थी, राम एक हवा थी। मित्रो! राम अकेले अगर रावण को मार सकते, तो उन्होंने वहीं से क्यों नहीं मार दिया? नहीं साहब, अकेले राम नहीं मार सकते थे। हाँ, बेटे, अकेले नहीं मार सकते थे। उन्हें रीछों की सेना लेनी पड़ी, वानरों की सेना लेनी पड़ी, जमीन पर सोना पड़ा। मनुष्य होकर रहना पड़ा। विभीषण को साथ लेना पड़ा। ढेरों- के मनुष्यों को संग लेना पड़ा और तब एकत्रित सेना को लेकर रावण से युद्ध लड़ा। इस तरह से रावण का खात्मा हुआ। यह हवा थी एक जमाने में। फिजाँ बदल देता है- अवतार इसी तरह क्या कृष्ण भगवान् महाभारत युद्ध अकेले नहीं लड़ सकते थे? अगर अकेले लड़ सकते, तो पांडवों की खुशामत क्यों करते? पांडव बार- बार यही कहते रहे कि हमें यह लड़ाई नहीं लड़नी है।
वे हमारे रिश्तेदार लगते हैं। हम तो भीख माँगकर खा लेंगे, अपनी दुकान चलाकर खा लेंगे। हमें राजपाट नहीं चाहिए। हमें लड़ाई से छुट्टी दीजिए। हमने अपने स्वजनों का खून- खराबा नहीं होगा। फिर भी कृष्ण भगवान् खुशामद करते रहे, नाराज होते रहे, गालियाँ सुनाते रहे और कहते रहे कि तुम्हें लड़ना चाहिए। कृष्ण अगर अकेले महाभारत का युद्ध लड़ सकते, कंस को मार सकते, असुरों को मार सकते, सभी आततायियों को मार सकते, तो फिर मैं सोचता हूँ कि सारे विश्वभर में निमंत्रण भेजकर सेनाओं को बुलाने की क्या जरूरत थी? अगर अकेले ही गोवर्द्धन उठा सकते थे, तो ग्वाल- बालों को लाठी लगाने की क्या जरूरत थी। मित्रो! अकेला आदमी कितना कर सकता है। मैं किसी तरह से यह विश्वास करने को तैयार नहीं हूँ कि एक व्यक्ति विशेष सारे- के समाज को रोक सकता है, बदल सकता है। ऐसा नहीं हो सकता। ये हवा है, जिस पैदा करने की कोई मशीन काम करती होगी, इस बात का समर्थन करने को मैं तैयार हूँ। इस हवा में बहुत से ढेरों आदमी घिरे होते हैं। इनके दिमाग और दिल एक दिशा में चल पड़ते हैं, जैसे कि अपने आंदोलन में। आपके अपने इस आंदोलन में क्या एक आदमी संचालन करता है? नहीं, एक आदमी संचालन नहीं कर सकता। क्या एक आदमी नियम बनाने के लिए आश्वासन दे सकता है? नहीं, एक आदमी के बस की बात नहीं है। एक आदमी फिजाँ बदल सकता है? एक आदमी नया जमाना ला सकता है?
एक आदमी लोक- समाज में हलचल पैदा कर सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मित्रो! फिर यह हलचल कौन पैदा करता है? नया जमाना कौन लाता है? एक हवा आती है। ठीक है गुरुजी कहते हैं कि एक हवा आती है। नहीं बेटे, अकेले गुरुजी के कहने से कोई फायदा नहीं है। वास्तव में जब इस एक ही बात को असंख्य व्यक्ति कहते हैं, उसका समर्थन करते हैं कि हाँ ऐसा होना चाहिए, तब इस बात को- आवाजें हलक को ‘नक्कारे खुदा समझो।’ जब हलक से आवाज निकलती है, तो वह नक्कारे खुदा है। जब हम कहते हैं कि ‘हम नया जमाना लाएँगे।’ ‘हम मनुष्य के भीतर देवत्व की स्थापना करेंगे।’ ‘हम संसार में पुनः स्वर्ग की स्थापना करेंगे।’ तो यह कौन कहता है- मैं नहीं, हम कहते हैं। हम और आप सब मिल करके- जमाने को मिला करके एक हवा है, एक दिशा है। ये कौन हैं? ये भगवान् हैं। जब कभी एक ठिकाने पर ये हवा पैदा होती है, जिन आदर्शों को पैदा करने के लिए यह आँधी- तूफान पैदा होता है, हलचलें पैदा होती हैं, तो आप समझ सकते हैं कि इसके पीछे भगवान् की हवा है। भगवान् की प्रेरणा काम कर रही है।
भगवान् का अवतार काम कर रहा है। इसी को मैं अवतार मानता हूँ। अवतार लोकशिक्षण के लिए क्या व्यक्ति के रूप में भी भगवान् का अवतार होता है? चलिए अब मैं आपकी बात का भी समर्थन करने को तैयार हूँ कि व्यक्ति के रूप में अवतार होता है। साकार रूप में भगवान् होता है। आप निराकार की बात पर ज्यादा विश्वास नहीं करते। अतः मैं आपको साकार की बात बताऊँगा कि कैसे भगवान् लीलाएँ करने आते हैं। व्यक्ति आता है। आप भगवान् की कथाएँ तो सुनते हैं, पर गहरे में क्यों नहीं जाते? भगवान् की सारी की सारी लीलाएँ, कथा- गाथाएँ इस बात पर टिकी हुई हैं कि भगवान् एक है। यह बात अलग है कि उसने लोकशिक्षण का तरीका क्या अख्तियार किया। जब कभी भगवान् के अवतार होते हैं, तो प्रत्येक बार वह अपने आचरण से जन- जन को शिक्षा और प्रेरणा देते हैं। लोकशिक्षण का यही सबसे जानदार और सबसे सफल तरीका है। मित्रो! लोगों के सामने बकवास करने की अपेक्षा, लोगों को उपदेश सुनाने या कथा सुनाने की अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा है कि आपने लोगों के सामने जो उपदेश दिए हैं, उसे स्वयं के जीवन में उतारकर बताएँ कि हमने इस तरीके से जीवन जिया है। दुनिया में सबसे ज्यादा प्रभावशाली तरीका यही है। इससे बढ़िया और बेहतरीन तरीका और कोई है ही नहीं। आप इस तरीके से चलिए, जिसे देखकर के लोग सोच सकें, समझ सकें कि जो सिद्धांत आप कहना चाहते हैं, समझना चाहते हैं, वे आपके रोम- रोम में इस कदर समाए हैं कि आप इस तरह का रास्ता अख्तियार किए बिना जिंदा नहीं रह सकते। अगर आप इतना ज्यादा विश्वास लिए हुए बैठे हैं, तो आपके विचार आपकी वाणी से और आपके आचरण से टपकने चाहिए। चलिए मैं तो यह भी कहता हूँ कि बिना वाणी के भी लोकशिक्षण किया जा सकता है। बहुत से लोगों ने अपनी जबान को बंद कर दिया था, लेकिन उनकी आस्थाएँ, उनकी निष्ठाएँ और जिंदगी का स्वरूप इतना शानदार और जबरदस्त था कि उन्होंने नई हवाएँ बना दीं, नई फिजाएँ पैदा कर दीं और न जाने दुनिया में कितनी हलचलें पैदा कर दीं।
आदमी के समझने का तरीका, सुझाने का तरीका, गुरु होने का तरीका वो है कि जबान से जो हमने लंबे- चौड़े व्याख्यान सुनाए हैं, कथाएँ सुनाई हैं, उनकी अपेक्षा अपनी जिंदगी का एक नमूना पेश करें। भगवान् कृष्ण हों या भगवान् राम अथवा और कोई अवतार, उन्होंने लोकशिक्षण का जो तरीका अख्तियार किया है, वह उनकी जिंदगी जीने का एक ढंग था। वह उनके काम करने की एक शैली थी। इस शैली के द्वारा उन्होंने लोगों से कहा कि आप स्वयं निश्चय कीजिए और उन सिद्धांतों को ढूँढ़िए, जिसके लिए हमें जन्म लेना पड़ा और जिसके लिए निरंतर कष्ट सहने पड़े। भगवान् कृष्ण की लीलाएँ, जो हमारे लिए और आपके लिए बिलकुल सामयिक हैं, आधुनिक हैं, अति उत्तम और अति प्राचीनतम भी हैं, वे हमको बताती हैं कि सिद्धांतों को जीवन में कैसे उतारें। उन सिद्धांतों को अपनाए बिना कोई महापुरुष रहा नहीं। उन सिद्धांतों को आपके मन में प्रवेश कराने के लिए भगवान् ने लीलाएँ दिखाईं- क्रीड़ाएँ कीं। श्रीकृष्ण की लीलाएँ भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाएँ क्या हैं? कृष्ण भगवान् जेलखाने में पैदा हुए, जो चारों तरफ से बंद था, जिसमें उनके माता- पिता बंद थे। जंजीरों से जकड़े हुए थे। उस स्थिति में एक बालक पैदा हुआ। सब ओर से घिरा हुआ जब बालक पैदा हुआ, तो उसके अंदर संकल्प की शक्ति थी। बालक यह संकल्प लेकर आया कि मुझे इन बंधनों से मुक्त होना है, और लोगों को बंधनों से मुक्त करना है।
परिस्थितियाँ कितनी विपरीत और विषम थीं, लेकिन वे किस तरह से टूटती चली गईं- कच्चे धागे की तरह से। भगवान् श्रीकृष्ण के बारे में हम किताबों में पढ़ते हैं कि उनके जन्मकाल में जेलखाने से बाहर निकलने के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। फिर भी भगवान् के संकल्प से सारे पहरेदार सो गए। सभी दरवाजे खुल गए, जंजीरें टूट गईं और पिता उस बच्चे को लेकर सुरक्षित रखने के लिए चल पड़े। भादों की घनघोर अँधेरी रात थी। जिस तरह आज की रात बादल छाए हुए हैं, पानी बरस रहा है, गंगा में बाढ़ आई हुई है, कुछ ऐसा ही दृश्य उस समय रहा होगा। जमुना में बाढ़ आई हुई थी। चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। प्रकाश कहीं था नहीं। लेकिन प्रकाश देने वाली एक ज्योति, जो इनसान के भीतर जला करती है और सहारा देती रहती है, जो मझधार में से पार निकालती रहती है। हमें मझधार में से दूसरे लोग पार नहीं निकालते हैं। हमारी अंतर्ज्योति ही हमको पार निकालती है। उन विषम परिस्थितियों में भी वासुदेव श्रीकृष्ण को टोकरी में लिए हुए आगे बढ़ते चले गए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ नंद- यशोदा का घर था। वहाँ उस बच्चे के रहने का इंतजाम कर दिया। मित्रो! यह घटना हमें क्या सिखाती है? यह हमें सिखाती है कि इनसान संकल्प तो करके देखे, निश्चय तो करके देखे, विश्वास तो करके देखे फिर हमसे कहे। आप यह तजुर्बा करके लाइए, फिर आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती। आप आगे बढ़ते हुए चले जाएँगे और आपको सफलता मिलती हुई चली जाएगी। आदमी की हिम्मत के अलावा दुनिया में और कोई शक्ति नहीं है, जो उसे पार लगा सके।
आदमी की हिम्मत सबसे बड़ी ताकत है। ज्वार- भाटे की अपनी ताकत हो सकती है, लहरों की अपनी ताकत हो सकती है, समुद्र की अपनी ताकत हो सकती है, लेकिन इनसान के संकल्प के आगे कोई और ताकत नहीं है। यही सब आदमी को सिखाने के लिए भगवान् ने अवतार लिया था। बेटे! अपने भीतर वाले को कमजोर मत होने दीजिए। भीतर वाले को मजबूत बनाइए। भीतर वाले को कमजोर बना देंगे, तो आप गिर जाएँगे। भीतर वाले को साहस के सहारे उठाएँगे, तो आप आगे बढ़ेंगे और दूसरा आदमी सहायता करने के लिए आएगा। अगर आप अपने को पीछे हटाएँगे, तो लोग आपसे पहले ही दूर हट जाएँगे। यह नसीहत कृष्ण भगवान् ने अपने जन्म के पहले दिन से ही आरंभ कर दी थी। उनके पिताजी ने भी यही बात बताई थी कि यदि परिस्थितियाँ अनुकूल रहती हैं, तो ठीक है, अन्यथा साहस और संकल्प के सहारे उन पर विजय पाई जा सकती है। अगर आपका उद्देश्य ऊँचा है और आपके अंदर साहस का अभाव नहीं है, तो परिस्थितियाँ आपके प्रतिकूल हो ही नहीं सकतीं। अगर आपका उद्देश्य नीचा है और आपके अंदर साहस का अभाव है, तो फिर आप गिरे या मरे ही समझना चाहिए। बेटे! यदि आपका उद्देश्य ऊँचा है, साहस आपका ऊँचा है, तो आपको सहायता देने के लिए सारी देवशक्तियाँ आगे आएँगी, चाहे कितना ही आपके मार्ग में अवरोध क्यों न हो। सारी सहायता आपको मिलती चली जाएगी। जन्माष्टमी का शिक्षण आज जन्माष्टमी के दिन यह है शिक्षण नंबर एक, जो भगवान् श्रीकृष्ण ने, उनके पिता ने अपनी घटना के द्वारा, अपने क्रियाकलाप के द्वारा हमको दिया। हम और आप तो बकवास करना जानते हैं और व्याख्यान करना जानते हैं। लेकिन भगवान् ने जो उदाहरण प्रस्तुत किया, वह कितना शानदार है।
देवकी इतना नहीं कर सकती थी,वासुदेव भी इतना नहीं कर सकते थे कि कंस का मुकाबला करें और उसे मार डालें। वे सामर्थ्यवान नहीं थे, शक्तिवान नहीं थे, विद्वान नहीं थे, नेता नहीं थे, लेकिन साहसी थे। किन्हीं अच्छे कामों के लिए आप भी साहसी बन सकते हैं। रीछ- वानरों के तरीके से अच्छे कामों में सहायता कर सकते हैं। रीछ और बंदर रावण को नहीं मार सकते थे, पर लंका जाने के लिए समुद्र पर पुल तो बना सकते थे। गिलहरी ज्यादा काम नहीं कर सकती थी, लेकिन समुद्र में मिट्टी तो डाल सकती थी। ठीक है, जो आदमी जिस हैसियत में रहता है, उससे आगे बढ़कर दूसरा काम नहीं कर सकता, वह अगली पंक्ति में नहीं खड़ा हो सकता, लेकिन अच्छे कामों में सहायता तो कर ही सकता है। गाय चराने वाले ग्वाले मामूली आदमी थे। उन्होंने कहा- ठीक है हम ज्यादा तो नहीं कर सकते, लेकिन भगवान् का उद्देश्य पूरा करने में अपनी लाठी का सहारा तो दे ही सकते हैं। अगर आप प्रेरणा लेना चाहें, तो आप इनसे प्रेरणा व श्रद्धा ले सकते हैं। भागवत् की कहानी कही जा रही है और लोगों द्वारा सुनी जा रही है। कहते हैं- इसको सुनने से बड़ा भारी पुण्य मिलता है। बेटे! कहानी कहने और सुनने भर से कोई पुण्य नहीं हो सकता। पुण्य केवल उस स्थिति में होगा, जब आप उससे प्रेरणा ग्रहण करेंगे, जीवन में उतारेंगे, प्रवेश करने देंगे और उसे बाहर अपने क्रियाकृत्यों में, व्यवहार में प्रकट होने देंगे। इससे कम में कोई पुण्य नहीं हो सकता। इसलिए मित्रो! भगवान्, भगवान् की क्रीड़ाएँ, लीलाएँ हमको दिशाएँ देती हैं, शिक्षण देती हैं। संघर्षों से लोहा लेना सिखाती हैं। मित्रो! संघर्षों से आदमी समर्थ होता है। संघर्षों से आदमी की श्रद्धा निखरती है। गुरुजी! संघर्ष आते हैं तो हमारे ऊपर बड़ी मुसीबत आती है।
तो बेटा, मुसीबत के बिना कोई भी आदमी दुनिया में बड़ा नहीं हुआ, तीखा नहीं हुआ, कामयाब नहीं हुआ। नहीं साहब, मुसीबत दूर कीजिए। मुसीबत हम जरूर कम कर देंगे, लेकिन साथ- साथ यह शाप भी देंगे कि तू मंदबुद्धि हो जा, फालतू हो जा, निकम्मा हो जा, कीड़ा-मकोड़ा हो जा। महाराज जी आप ये क्या कहते हैं? बेटे, ये तो साथ-साथ होगा, क्योंकि जो आदमी आराम की जिंदगी, चैन की जिंदगी, मानसिक चिंता रहित जिंदगी जिएगा, वह निकम्मा हो जाएगा, बेकार हो जाएगा। उसकी योग्यताएँ, प्रतिभाएँ, इच्छाएँ समाप्त हो जाएँगी और वह किसी काम का नहीं रहेगा, मुरदा बन जाएगा। संघर्ष ही जीवन मंत्र बने मित्रो! मनुष्य हमेशा से संघर्षों से घिरा पड़ा है। जो आदमी अपनी जिंदगी में संघर्षों से मुकाबला नहीं करते, वे जिंदगी का आनंद नहीं ले सकते। जो आदमी जरा भी श्रम नहीं करता, वह नींद का आनंद नहीं ले सकता। गहरी नींद का आनंद सिर्फ उस आदमी के हिस्से में आया है, जिसने कड़ी मशक्कत की है। हल जोतने वाला किसान दोपहर में आराम से बगीचे में जाकर हाथ का तकिया बनाकर खर्राटे भरता है और अपनी नींद पूरी कर लेता है। उसे आरामतलबों की तरह नींद के इंजेक्शन की कोई जरूरत नहीं पड़ती। रोज की गहरी नींद उनके हिस्से में आई है, दाल- रोटी उनके हिस्से में आई है, जिन्होंने कड़ी मशक्कत की है, जिन्होंने मेहनत की है। जिन्हें यही पता नहीं है कि जीवन संघर्ष क्या होता है, कठिनाइयाँ क्या होती हैं, उनका भी कोई जीवन है! साथियो, कठिनाइयाँ आदमी को निखारने के लिए, उभारने के लिए बेहद आवश्यक हैं। चाकू पर तब तक धार नहीं रखी जा सकती, जब तक कि उसे पत्थर पर घिसा नहीं जाएगा। इसके बिना पैनापन, तीखापन नहीं आ सकता। चाकू की धार नहीं निकल सकती।
मित्रो! मुसीबतें हमारी सबसे बड़ी मित्र हैं और सबसे बड़ी सुधारक- अध्यापक हैं, जो हमारी सारी- की कमजोरियों को चूर- चूर कर डालती है और हमारे भीतर हिम्मत का, बहादुरी का माद्दा पैदा करती हैं। कठिनाइयाँ हमें संघर्ष करना सिखाती हैं और न जाने क्या- क्या सिखाती हैं। यह इतनी बड़ी पाठशाला है कि इसमें से होकर आदमी प्रतिभावान निकलता है, नया जीवन लेकर निकलता है और जिन्होंने आराम की जिंदगी जी, हराम की जिंदगी जी, वे मिट्टी के होकर के रहे हैं, कीड़े होकर के रहे हैं। अमीरों के बच्चों को आप देख सकते हैं। अमीरी में पले हुए बच्चों का सत्यानाश हो गया। जो बच्चे गरीबी में पैदा हुए, कठिनाइयों में पैदा हुए, वे हीरे के तरीके से चमकते हुए निकले, तलवार के तरीके से दनदनाते हुए निकले। सीखें श्रीकृष्ण के जीवन से मित्रो! भगवान् ने इसीलिए कहा कि मुसीबतों से घबड़ाना मत। कठिनाइयों से भागो मत, उनसे कुछ सीखने की कोशिश करो। कठिनाइयों से जूझने के लिए भीतर से हलचल होनी चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण का प्रारंभिक जीवन यही सिखाता है कि आदमी को यदि भगवान् बनना है, महान् बनना है, तो उसे कठिनाइयों का आलिंगन करना चाहिए। कठिनाइयों को जानबूझकर चैलेंज करना चाहिए। तपश्चर्या का मतलब ही होता है- कठिनाइयों को जानबूझकर अपनाना और यह अभ्यास करना कि हम मुसीबत में हैं। मुसीबत हमें सबसे पहले बहादुरी के साथ संयम करना सिखाती है। तप आदमी को न जाने क्या से क्या बना देता है। संपत्ति, अमीरी आदमी को दुर्व्यसनी बनाती है, अनाचारी और दुराचारी बनाती है तथा असंख्य बुराइयाँ लेकर आती है। ऐय्याशी आदमी को गलाती है और उसे हजम कर जाती है। आदमी को गलत रास्ते पर ले जाती है। यह दौलत की लाभ- हानियाँ हैं और कठिनाइयाँ?
कठिनाइयों में जहाँ मुसीबतें उठानी पड़ती हैं, असंख्य दिक्कतें आती हैं, वहीं मनुष्य को अपनी भट्टी में गलाकर कुंदन भी बनाती है। तो मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी जिंदगी से यही सिखाया है कि कठिनाइयों से भागो मत। कठिनाइयों का मुकाबला करो। कठिनाई आदमी की क्षमता को निखारती है। ये इम्तिहान है, मनुष्य के लिए कि उसने सिद्धांतों के लिए कितना कष्ट सहा। इसी के आधार पर हम फेल और पास होते हैं। इसके अतिरिक्त और कोई कसौटी नहीं है। कसौटी एक ही है कि सिद्धांतों के लिए उसने क्या किया, कौन- सी मुसीबतें उठाईं। जिसने ऐसा नहीं किया, जिसके जीवन में कोई प्यार नहीं, कोई सेवा नहीं, कोई बलिदान नहीं, कोई परिश्रम नहीं है, उसे हम महापुरुष नहीं कह सकते। धिक्कार है ऐसे जीवन को। मित्रो! महापुरुषों को अपने जीवन में अनेकों कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी हैं, इम्तिहान देना पड़ा है। भगवान् कृष्ण को सारी जिंदगी लड़ना पड़ा है। उन्हें मारने के लिए कौन- कौन आए? कालिया नाग आया, पूतना आई, कंस आया और न जाने कितने असुर आए। उनकी जिंदगी में कितने ही असुर जबरदस्ती मारने आए, जबकि वे अपनी गली में, घर में ग्वाल- बालों के साथ खेलते- विचरते रहते थे। वस्तुतः जो आदमी मौत के साथ में जद्दोजहद कर सकते हैं, कठिनाइयों के साथ लड़ सकते हैं, उनका यश चारों ओर फैलता है। जो मुसीबतों के लिए- कठिनाइयों के लिए तैयार रहते हैं, उनकी हिम्मत निखरती जाती है। हिम्मत के बिना सफलता के पहाड़ पर चढ़ना किसी के लिए भी संभव नहीं है। भगवान् के जीवन की और कितनी ही सरस लीलाएँ मालूम पड़ती हैं। शुष्क जीवन, रूखा जीवन, नीरस जीवन कभी भी फलीभूत नहीं हो सकता। हँसने- हँसाने वाले जीवन में, हलकी- फुलकी जिंदगी में सरसता भरी रहती है और वह आप ही खिलती हुई चली जाती है। हँसी- खुशी की जिंदगी अगर आपकी है, तो आप हँसोगे, खिलखिलाएँगे, गाना गाएँगे और नहीं तो मुँह फुलाए बैठ रहेंगे और जिंदगी भर ये शिकायत- वो शिकायत करते रहेंगे। ये कमी है, वो कमी है- का रोना रोते रहेंगे। मित्रो! जो आदमी हँसता हुआ, खिलखिलाता हुआ रहता है, उसके चारों ओर खुशियाँ छाईं रहती हैं। हँसने- हँसाने वाले खुद भी खिलखिलाते रहते हैं और दूसरों को भी हँसाते रहते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण को देखिए- हँसने वाले भगवान्, हँसाने वाले भगवान्, रास करने वाले भगवान्, नाचने वाले भगवान्, बाँसुरी बजाने वाले भगवान्, साहित्यकार और कलाकार भगवान्, संगीत से प्रेम करने वाले भगवान् अरे आप इनसे कुछ तो सीखें और अपनी सारी जिंदगी को हलका बनाकर जिएँ। सारी जिंदगी हर समय मुँह फुलाकर रहने से जिंदगी जी नहीं जा सकती। इस तरह से आप खुद भी नाखुश रहेंगे और रोकर जिएँगे। शिकायतों पर जिएँगे, तो आप मर जाएँगे। जिंदगी इतनी भारी हो जाएगी कि उसे फिर ठीक नहीं कर पाएँगे। उसके नीचे आप दब जाएँगे, कुचल जाएँगे। अगर आप लंबी उम्र तक जिंदा और स्वस्थ रहना चाहते हैं, तब आप हँसने- हँसाने की कला सीखें। अगर आपको हँसना आता है, तो समझिए कि जिंदगी के राज को आप समझते हैं। साथियो! हँसी के लिए- हँसने के लिए ढेरों चीज हमारे पास हैं। आपके पास हर चीज नहीं है, तो क्या आप चिड़चिड़ाते हुए, शिकायत करते हुए बहुमूल्य जीवन को यों ही बरबाद कर देंगे? क्या आपको निखिल आकाश हँसता हुआ दिखाई नहीं देता। अगर आप कवि हृदय हैं, सरस हृदय हैं, तो आपको सब कुछ हँसता हुआ दिखाई पड़ सकता है। आकाश में बादल आते हैं, घुमड़ते हुए- बरसते हुए दिखाई पड़ते हैं, क्या आप इनका आनंद नहीं ले सकते? नदियाँ कल- कल करती हुई बहती हैं, क्या आप इनका आनंद नहीं ले सकते? आपको इनका आनंद लेना चाहिए और आप को कलाकार होना चाहिए। जिंदगी जीने की कला को आपको समझना चाहिए। जिंदगी में आनंद के अनुभव होने चाहिए। जीवन में हँसने का समय होना चाहिए, हँसाने का समय होना चाहिए। जिन्दगी की कला के शिक्षक भगवान् को हम कलाकार कहते हैं। श्रीकृष्ण भगवान् ने रास- लीला के माध्यम से हलकी- फुलकी जिंदगी, हँसने- हँसाने वाली जिंदगी की कला सिखाई। रास- लीला गाने की विद्या है, नृत्य की विद्या है।
नहीं साहब! श्रीकृष्ण भगवान् ने तो हँसने- हँसाने की विद्या बहुत छोटेपन में सीखी थी, हम तो उम्र में बड़े हो गए हैं। नहीं बेटे, बड़ी उम्र के हों तो क्या, योगी हों तो क्या, तपस्वी हों तो क्या, ज्ञानी हों तो क्या, महात्मा हों तो क्या? हँसना आपको भी आना चाहिए, हँसाना आपको भी आना चाहिए। गाँधी जी के नजदीकी मुझे बहुत दिन रहने का मौका मिला। शुरू में वे जिस कोठी में रहते थे, उससे मैं दूर रहता था, तो मुझे बार- बार उनके हँसने की आवाज आती थी। उन दासता के दिनों वे इतने गंभीर विषयों पर बातें करते थे, जैसे कि वेश्याओं की समस्या, अन्यान्य सामाजिक समस्या, करोड़ों लोगों के भाग्य के निर्माण की समस्या- इतनी समस्याओं के बीच भी मैंने उनको हँसते हुए देखा है। हमारे- आपके पास तो यह भी समस्या नहीं है। आपके पास क्या समस्या है? बस एक ही समस्या है- बेटे की और पैसे की। देश, समाज और संस्कृति को तो आप जानते भी नहीं हैं कि उनके प्रति भी आपका कुछ उत्तरदायित्व है। लेकिन मैंने गाँधी जी को इन तमाम समस्याओं के बाद भी हँसते हुए देखा है। एक बार उनसे पूछा कि बापू एक बात तो बताइए कि आप इतने गंभीर रहते हैं, इतनी चिंताओं से घिरे रहते हैं, इतने गंभीर विषय आपके पास हैं। इतनी असफलताएँ आपके पास आती हैं, इतनी समस्याओं का समाधान सुझाते हैं, पर इस कदर आप हँसते कैसे हैं? गाँधी जी ने कहा- मैं इसीलिए एक सही जिंदगी जी पा रहा हूँ। मेरे जिंदा रहने का और कोई तरीका नहीं। अगर मैं खुश नहीं, तो मेरी मौत, मेरी हँसी नहीं, तो मेरी मौत समझो।’’ मित्रो! जिसके चेहरे पर हँसी नहीं आती है, उसे बस मरा ही समझो।
श्रीकृष्ण भगवान् ने वह कला सिखाई, जिसको हम जिंदगी का प्राण कह सकते हैं, जीवन कह सकते हैं। ‘राम’ इसी का नाम है। नहीं साहब, इसमें तो बहुत रंगदारी है? नहीं बेटे, इसमें स्वाभाविकता है, शालीनता है। आप महाभारत पढ़ लीजिए, भागवत् पढ़ लीजिए, जिस समय तक उन्होंने रास- लीला की है, तब उनकी उम्र दस साल की थी। दसवें साल तक सब रास- लीला बंद हो गई थी। सात साल की उम्र से प्रारंभ हुई थी और दस साल की उम्र में सब रास- लीला खत्म हो गई थी। दस साल से ज्यादा में कोई रास- लीला नहीं खेली गई। उसमें कामुकता नहीं थी, ब्याह- शादी की कोई बात नहीं थी।’’ हर्षमय जीवन तब उसमें क्या बात थी? उसमें था हर्षमय- आनंदमय जीवन, उसमें कन्हैया ने चाहा कि छोटे- छोटे बच्चे हों, साथ- साथ घुल- मिल कर हँसे- खेलें स्त्री- पुरुष के बीच शालीनता का क्या फर्क होना चाहिए, शील और आचरण का क्या फर्क होना चाहिए, यह जानें। अगर एक दूसरे को अलग कर देंगे, काट देंगे, तो फिर आप किस तरह से जिएँगे। माँ- बेटे साथ- साथ नहीं रहेंगे, तो किसके साथ रहेंगे? बाप- बेटी भाई- बहिन साथ- साथ नहीं रहेंगी। बेटी बाप की गोदी में नहीं जाएगी, क्योंकि वह स्त्री है और ये पुरुष है। दोनों को अलग कीजिए, छूने मत दीजिए। औरत को इस कोने में बैठाइए और मर्द को उस कोने में बैठाइए। अरे भाई, ये कहाँ का न्याय है? स्त्री और पुरुष कंधे- से कंधा मिलाकर काम करें, गाड़ी के दो पहियों के तरीके से काम करें, तो ही जीवन में आनंद है, प्रगति है। आज भी हमारे यहाँ रिवाज है कि मर्द औरत को नहीं देखने पाए और औरत मर्द को। वह घूँघट मारकर घर में रहे और पुरुष बाहर रहें। साथ- साथ नहीं चल पाएँ। ये भी कोई बात है। मित्रो! श्रीकृष्ण भगवान् ने उस जमाने में लड़के- लड़कियों की एक सेना पैदा की और उसे एक दिशा दी। उन्होंने कहा कि लड़के और लड़कियों में अंतर करने से क्या होगा। हम और आप सब बच्चे हैं। स्त्री और पुरुष में क्या फर्क होता है? स्त्रियों को मूँछें नहीं आतीं और मर्द को मूँछें आती हैं। मूँछ आने से क्या फर्क हो गया? स्त्रियाँ मूँछें लगा लें तब? तब फिर वे मर्द हो जाएँगी और पुरुष मूँछ हटा लें, तो वे औरत हो जाएँगे। अरे महाराज जी आप ये क्या कहते हैं? हाँ बेटा, यही फर्क है। उस जमाने का पुरुषवादी समाज, परस्त्रीगामी समाज, जिसमें पाप और अनाचार का बंधन नहीं लगाया गया था, केवल स्त्री- पुरुष को अलग रखने की व्यवस्था की गई थी। जहाँ शील आँखों में रहता है, उस पर ध्यान नहीं दिया गया था, केवल शारीरिक बंधनों से शील की रक्षा करने की कोशिश की गई थी, श्रीकृष्ण भगवान् ने उसे तोड़ने की कोशिश की। भगवान् श्रीकृष्ण का जीवन सिद्धांतों का जीवन था, आदर्शों का जीवन था। उनकी सारी लीलाएँ सिद्धांतों और आदर्शों को प्रख्यात करने वाले जीवन से ओतप्रोत थीं। भगवान् राम की लीलाएँ इससे आगे चली जाती हैं। उनके जीवन में एक कमी रह गई थी। क्या कमी रह गई थी? लोगों के साथ शराफत करने का वास्ता, जो उन्होंने पढ़ा था। उनके पिताजी बड़े शरीफ थे। उन्होंने आज्ञा दी कि आपको वनवास चले जाना चाहिए।
रामचंद्र जी ने कहा- ठीक है, ऐसे धर्मपरायण शालीन पिता यदि आज्ञा देते हैं और हमको वनवास जाने का मौका मिलता है, तो हमें चले जाना चाहिए। भरत जैसा भाई यदि राजपाट सँभाल लेता है, तो वह और अच्छी तरह से चलेगा। उसमें कोई कमी नहीं आने वाली है। प्रेमभाव भी बना रहेगा, मुझे भी शांति मिलेगी। अतः मैं वनवास चला जाता हूँ, तो हर्ज की क्या बात है। इस सिद्धांत को लेकर उन्होंने राजगद्दी भरत के हवाले कर दी और बाप का कहना मान लिया। अपूर्णता को पूरा किया मित्रो! बात चल रही थी- श्रीकृष्ण भगवान् की। कृष्ण भगवान् का रास्ता दूसरा था। रामावतार में जो अभाव रह गया था, जो कमी रह गई थी, जो अपूर्णता रह गई थी, वह उन्होंने पूरी की। इस बात से फायदा यह हुआ कि यदि शरीफों से वास्ता न पड़े, तब क्या करना चाहिए? खराब लोगों से वास्ता पड़े तब, खराब भाई हो तब, खराब मामा हो तब, खराब रिश्तेदार हो तब, क्या करना चाहिए? तब के लिए श्रीकृष्ण भगवान् ने नया रास्ता खोला। इसमें विकल्प हैं। इसमें शरीफों के साथ शराफत से पेश आइए। जहाँ पर न्याय की बात कही जा रही है, उचित बात कही जा रही है, इनसाफ की बात कही जा रही है, वहाँ पर आप समता रखिए और उसको मानिए और आप नुकसान उठाइए। लेकिन अगर आपको गलत बात कही जा रही है, सिद्धांतों की विरोधी बात कही जा रही है, तो आप इनकार कीजिए और उससे लड़िए और यदि जरूरत पड़े, तो मुकाबला कीजिए और मारिए। कंस श्रीकृष्ण भगवान् के रिश्ते में मामा लगता था। लेकिन वह अत्याचारी और आततायी था, अतः उन्होंने यह नहीं देखा कि रिश्ते में कंस हमारा कौन होता है। उन्होंने न केवल स्वयं ऐसा किया, वरन् अर्जुन से भी कहा कि रिश्तेदार वो हैं, जो सही रास्ते पर चलते हैं। सही रास्ते पर चलने वालों का सम्मान करना चाहिए, उनकी आज्ञा माननी चाहिए, उनका कहना मानना चाहिए। उनके साथ- साथ चलना चाहिए। लेकिन अगर हमको कोई गलत बात सिखाई जाती है, तो उसे मानने से इनकार कर देना चाहिए। यह परंपरा कितने युगों से चली आ रही है कि पिता का कहना मानना चाहिए। लेकिन अगर कोई गलत बात मानने के लिए कही जाती है तब? तब पिता का कहना प्रधान नहीं है। तब कहना चाहिए कि मैं गलत बात नहीं मानूँगा।
गलत बात कहता है और पिता बनता है। गलत बात कहने वाला व्यक्ति पिता नहीं हो सकता। नहीं बेटे, हम तो तेरे पिताजी हैं और तेरे दहेज में पच्चीस हजार रुपया लेंगे। देख तुझे मेरी आज्ञा माननी होगी। पच्चीस हजार रुपये लेंगे। देख तुझे मेरी आज्ञा माननी होगी। देख श्रवण कुमार ने अपने पिता की आज्ञा मानी थी और भीष्म पितामह ने आज्ञा मानी थी। श्रवण कुमार ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वो ऋषि थे। भीष्म पितामह ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वे शांतनु थे और राम ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वो दशरथ थे। तू तो काम करता है चांडाल के, बात करता है कसाई की और हुक्म देता है। हमसे बात मनवाएगा। हम नहीं मानेंगे, चला है बाप बनने। मात्र एक ही रिश्तेदार धर्म मित्रो कृष्ण भगवान् की दिशाएँ और शिक्षाएँ यही थीं कि कोई हमारा रिश्तेदार नहीं है। हमार रिश्तेदार सिर्फ एक है और उसका नाम है- धर्म हमारा रिश्तेदार एक है और उसका नाम है- कर्तव्य आप ठीक रास्ते पर चलते हैं, तो हम आपके साथ हैं और आपके हिमायती हैं। बाप के साथ हैं, रिश्तेदार के साथ हैं। अगर आप गलत रास्ते पर चलते हैं, तो आप रिश्ते में हमारे कोई नहीं होते। हम आपकी बात को नहीं मानेंगे और आपको उजाड़कर रख देंगे। मित्रो! ये हैं श्रीकृष्ण भगवान् के जीवन की गाथाएँ, जो राम के जीवन की विरोधी नहीं हैं, वरन् पूरक हैं। राम के अवतार में जो कमी रह गई थी, उसे कृष्ण अवतार में पूरा किया। राम का वास्ता अच्छे आदमियों से ही पड़ता रहा।
अच्छे संबंधी मिलते रहे। उन्हें सुमंत मिले तो अच्छे, कौशल्या मिली तो अच्छी, लक्ष्मण मिले तो अच्छे। उन्हें सब शरीफ ही मिलते गए। अगर शरीफ आदमी न मिलते तो क्या करते? तब श्रीकृष्ण भगवान् ने जो लीला करके दिखाई, वही वे भी करते। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि तू लड़, चाहे तेरे गुरु हों या कोई भी क्यों न हों। गुरु हैं, तो क्या हुआ? भाई हैं, तो क्या हुआ? मामा हैं तो क्या हुआ? कोई भी क्यों न हों, जब गलत काम करते हैं, तो हमारे कोई नहीं, सब विरोधी हैं। भगवान् ने यह शिक्षण अपने विरोधी मामा से लोहा लेकर के दिया। जिंदगी बादलों की तरह जी भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी सारी जिंदगी बादलों के तरीके से जी। उन्होंने कहा- हमारा कोई गाँव नहीं है। सारा गाँव हमारा है। जहाँ कहीं भी हमारी जरूरत होगी, हम वहाँ पर जाएँगे। वे कहाँ पैदा हुए? वे मथुरा में पैदा हुए, फिर गोकुल में बसे, वहाँ गाय चराई। उज्जैन में पढ़ाई- लिखाई की। दिल्ली में- कुरुक्षेत्र में लड़ाई- झगड़े में भाग लिया और फिर न जाने कहाँ- कहाँ मारे- मारे फिरते रहे। आखिर में कहाँ चले गए? आखिर में द्वारिका चले गए। आपके ऊपर तो होम सिकनेस हावी हो गई है, जो घर से आपको निकलने ही नहीं देती। अरे साहब! घर से बाहर कैसे निकलें, हमें तो घरवालों की याद आती है, हमारा पोता याद करता होगा, पोती याद करती होगी। हम अपने घर से बाहर नहीं जाएँगे, गाँव में ही हवन कर लेंगे। सौ कुंडीय यज्ञ, तो हमारे गाँव में ही होगा।
मंदिर बनेगा, तो हमारे गाँव में ही बनेगा। अस्पताल बनेगा, तो हमारे गाँव में ही बनेगा। गाँव- गाँव रट लगाता रहता है। श्रीकृष्ण भगवान् ने इस मान्यता को समाप्त किया और कहा कि सारे गाँव हमारे हैं। हर जगह हमारी जन्मभूमि है। वे दो बार मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश गए, दिल्ली गए। वे सब प्रदेशों में गए बादलों के तरीके से। मित्रो! सिस्टर निवेदिता, एनीबेसेंट कहाँ पैदा हुई? योरोप में पैदा हुईं। उन्होंने देखा कि हिंदुस्तान में महिलाओं की स्थिति गिरी हुई है। महिलाओं की जो ऊँची स्थिति योरोप में है, वही हमको यहाँ करना है। यहाँ क्या करेंगे? जहाँ हमारी जरूरत होगी, वहाँ चले जाएँगे। सिस्टर निवेदिता हिन्दुस्तान आ गईं, एनीबेसेंट हिंदुस्तान में आ गईं। सी.एफ. एण्ड्र्यूज हिंदुस्तान में आ गए। वे कितने जबरदस्त थे, उनके यहाँ कुछ कमी नहीं थी, लेकिन हिंदुस्तान में उन्होंने अपनी- अपनी जिंदगियाँ खत्म कर दीं। हिंदुस्तान की मिट्टी में उनकी हस्ती तबाह हो गई। इसी तरह गाँधी जी पोरबंदर में पैदा हुए और कहाँ चले गए? साबरमती चले गए। जब तक स्वराज नहीं मिला, आजादी नहीं मिली, वे दर- दर भटकते फिरे, गाँव- गाँव घूमते फिरे। महापुरुषों की कोई जन्मभूमि नहीं होती, कोई गाँव नहीं होता, वरन् सारा संसार ही उनका अपना घर होता है। मित्रो! लोग अपनी- अपनी जन्मभूमि की रट लगाते रहते हैं कि यह मेरी जन्मभूमि है, वह मेरी जन्मभूमि है। अरे, जन्मभूमि किसकी होती है? जो केवल शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं, उन्हीं की जन्मभूमि होती है, श्रेष्ठ मनुष्यों की कोई जन्मभूमि नहीं होती। हमारी तो हर जगह जन्मभूमि है। जहाँ कहीं भी हमारी आवश्यकता पड़ेगी, हम वहीं बस जाएँगे। नहीं साहब, हमारी तो अमुक जगह जन्मभूमि है और हम वहीं जाएँगे। नहीं, कोई जन्मभूमि नहीं। शंकराचार्य कहाँ पैदा हुए थे? केरल में पैदा हुए थे। परंतु वे सारे हिंदुस्तान में घूमते फिरे। उनकी प्रेरणा से दक्षिण भारत के लोग उत्तर में आ गए और उत्तरभारत के लोग दक्षिण भारत में चले गए। कुमारजीव कश्मीर में पैदा हुए थे और सूडान होते हुए मंगोलिया चले गए और चीन में मर- खपकर खत्म हो गए। ईसा कहाँ पैदा हुए थे? कहाँ जन्म लिया और कहाँ- से चले गए। मोहम्मद साहब मक्का में पैदा हुए और मदीने चले गए। वहाँ रहे और बाद में उस गाँव को छोड़कर और कहीं चले गए। नहीं साहब! हम तो अपने गाँव में रहेंगे और गाँव को ही सब कुछ बनाएँगे और वहीं मरेंगे। नहीं, मित्रो इसकी कोई जरूरत नहीं है।
जहाँ कहीं भी जगह है; जहाँ कहीं भी भूमि है; जहाँ कहीं भी मौका है, जहाँ कहीं भी आपकी आवश्यकता है, आप वहाँ जाइए। नहीं साहब, हम तो गाँव में ही रहेंगे। गाँव में ही हमारे बच्चे रहेंगे। हमारे ही गाँव में पुस्तकालय बनेगा। नहीं कोई जरूरत नहीं, जब आपके गाँव में बिना पढ़े- लिखे लोग हैं, तो आप क्यों बनाते हैं- अपने गाँव में पुस्तकालय। गाँव- गाँव चिल्लाते हैं। यह ‘होम सिकनेस’ की, औरों से अपने को अलग करने की प्रवृत्ति है। नहीं साहब, इसके कारण तो सब छोड़कर चले गए। चले गए, तो चले गए, उनसे क्या मोहब्बत? मोहब्बत करनी है तो सिद्धांतों से कीजिए, आदर्शों से कीजिए। गाँव से क्या मोहब्बत, क्या रिश्ता? इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमें श्रीकृष्ण भगवान् के जीवन में देखने को मिलता है। भगवान् की ये कथाएँ और प्रेरणाएँ हमें यही सिखाती हैं कि जहाँ हमारी आवश्यकता है, हमें वहीं बादलों के तरीके से जाना चाहिए। अध्यात्म का यही है सही रूप मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण की कथाएँ और प्रेरणाएँ हमको जाने क्या- क्या सिखाती हैं। श्रीकृष्ण का जीवन हमें अध्यात्म का सही स्वरूप जानने की प्रेरणा देता है। आपने तो अध्यात्म का जाने क्या- क्या अर्थ निकाल रखा है। आपके हिसाब से अध्यात्म हो सकता है- भजन ध्यान, कुंडलिनी जगाना और आज्ञाचक्र जगाना। दंड- कमंडल लेकर ठाले- निठल्ले बैठे रहते हैं और बेकार की बातें करते हैं। जब मुसीबत आती है, तो यहाँ- वहाँ मारे- मारे भागते- फिरते हैं। सनक में जीते हैं। बैठे- बैठे योगीराज बनने का ढोंग करते और चित्र- विचित्र स्वाँग रचते रहते हैं। ऐसे लोग अफीमची की तरह सनकते रहते हैं और फालतू बकवास करते रहते हैं। इसे हम अध्यात्म नहीं कह सकते। मित्रो! अध्यात्म क्या हो सकता हैं? अध्यात्म केवल वह है, जो हमारे क्रियाकलाप में शामिल हो। यह बात हमने शुरू में ही बताई है। अध्यात्म को हम आपके क्रियाकलाप में देखना चाहते हैं। आज्ञाचक्र जगने का मतलब आपका जीवन- चक्र घूमा कि नहीं घूमा?
नहीं महाराज जी, यह तो केवल सिर में घूमेगा। बेटे, सिर में कोई चक्र नहीं घूमता। घूमता है, तो सारे क्रियाकलापों में घूमता है। केवल घर में ही नहीं, सारे संसार में चक्र घूमता है। भगवान् ने अपनी लीला के माध्यम से धर्मचक्र को घुमाया। वह धर्मचक्र जो रुक गया था, जिसका पहिया जाम हो गया था। उस पहिए को उन्होंने घुमाया, न केवल हिंदुस्तान में, वरन् सारे विश्व में घुमाया। धर्म का चक्र इसी को कहते हैं। नहीं महाराज जी, चक्र तो सिर में घूमता है, आज्ञाचक्र में घूमता है। पागल कहीं का, सनकता रहता है और बे सिर पैर की बातें करता है। चक्र को जाने क्या समझ लिया है। गीता का कर्मयोग इसलिए मित्रो, श्रीकृष्ण भगवान् ने गीता में अध्यात्म का सूत्र समझाया। गीता का कर्मयोग बतलाया। गीता के कर्मयोग में उन्होंने कहा कि कर्म करने का अधिकार मनुष्य को है, किंतु फल प्राप्त करने के लिए हैरान होने की, उतावली करने की आवश्यकता नहीं है। काम करो, ईमानदारी से काम करो, शराफत से काम करो। बस, वही काफी है- आपके आत्मसंतोष के लिए। फल मिला या नहीं? हम नहीं जानते कि फल क्या मिलेगा या क्या नहीं मिलेगा? बहुत से आदमी दुनिया में ऐसे हुए हैं, जिन्होंने बेहद अच्छे- अच्छे काम किए हैं, लेकिन ईसामसीह को फाँसी पर चढ़ा दिया गया, सुकरात को जहर का प्याला पिला दिया गया। न जाने कितने अच्छे- अच्छे आदमियों को क्या- क्या किया गया। अतः हम सफलता की कोई गारण्टी नहीं ले सकते, लेकिन हम आपको शांति की गारंटी दे सकते हैं। मित्रो! अगर आप शराफत के मार्ग पर चलेंगे और यह समझते रहेंगे कि हम नेक काम कर रहे हैं, शराफत का काम कर रहे हैं, तो फिर जटायु के तरीके से आपको सफलता मिल जाए, तो क्या और न मिले, तो क्या- कोई अंतर नहीं पड़ेगा। आततायी रावण से सीता को छुड़ाते हुए जटायु मारा गया, उसे नेक काम के लिए अपनी जिंदगी देनी पड़ी, लेकिन जटायु को आप हारा हुआ नहीं कह सकते।
भगतसिंह को फाँसी लग गई- तख्त पर टाँगा गया। ईसा को कीलें गाड़ दी गईं, लेकिन हम ईसा को हारा हुआ नहीं कहेंगे, भगतसिंह को मरा हुआ नहीं मानेंगे, जटायु को हारा हुआ नहीं मानेंगे। सफलता- असफलता से क्या बनता- बिगड़ता है? सफलता- असफलता की कोई कीमत नहीं। आप ने सही काम किया; नहीं किया, आपके लिए इतना ही काफी है। यह न देखें कि मिला क्या? साथियो! कर्मयोग में भगवान् ने यह बताया है कि आप यह मत देखिए कि उसमें फायदा हुआ कि नहीं? हमने जो चाहा था, वह मिला कि नहीं मिला? मिलना, न मिलना आपके हाथ की बात नहीं है। यह परिस्थितियों और प्रारब्ध की बात है। यह आपके प्रारब्ध की बात है कि दूसरे लोगों की सहायता या बिना सहायता के आप क्या कर सकते हैं? किसी कार्य का क्या फल मिलता है, आपके हाथ में यह कुछ नहीं है। लेकिन एक बात पूरी तरह से आपके हाथ में है कि आप अपनी जिम्मेदारियाँ निभाएँ और कर्तव्य को पूरा करें। आप कर्तव्यों को पूरा करेंगे, जिम्मेदारियों को निभाएँगे, तो यकीन रखिए, आपको वह लाभ मिल जाएगा, जो कि योगी को मिलना चाहिए, संत को मिलना चाहिए और ज्ञानी को मिलना चाहिए। यही गीता का कर्मयोग है। गीता में अर्जुन को भगवान् ने कर्मयोग की शिक्षा दी और उसे कर्म में लगाया। उन्होंने अर्जुन से कहा कि कर्म कर, सारी- की जिंदगी की प्रतिक्रिया को अपना योग मान। गृहस्थ को योग मान। समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को योग मानकर अपने कर्तव्य को पूरा करता जा। मित्रो, यह उनका कर्मयोग था। एक बार अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से कहने लगा कि भगवान् मैं तो आपके विराट् स्वरूप का दर्शन करना चाहता हूँ। उन्होंने कहा कि भगवान् के दर्शन इन आँखों से नहीं हो सकते। इन आँखों से मिट्टी देखी जा सकती है, पत्थर देखे जा सकते हैं। इससे हाड़- माँस देखा जा सकता है। पंचतत्त्वों से बनी आँखें सिर्फ पंचतत्त्व देख सकती हैं।
भगवान् पंचतत्त्वों से बड़ा है, इसलिए कभी किसी ने भगवान् को नहीं देखा और इन आँखों से कोई देख भी नहीं सकता। भगवान् को देखने के लिए आँखें ही काफी नहीं हैं और आँख से भगवान् को देखने की किसी के लिए भी गुंजाइश नहीं है। दिव्य विराट् रूप तो फिर भगवान् को कैसे देखा जा सकता है? इस पर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- दिव्यं ददामि ते चक्षुः’’ अर्थात् मैं तुझे दिव्य आँखें दूँगा, विवेक की आँखें दूँगा, ज्ञान की आँखें दूँगा। मात्र ज्ञान की आँख से ही भगवान् को देखा जा सकता है और किसी तरीके से नहीं। चमड़े की आँख से आप भगवान् को नहीं देख सकते। इससे आप पत्थर देख आइए। नहीं साहब, हम तो इसी से भगवान् को देखेंगे। नहीं, आप इससे भगवान् को नहीं देख सकते। जब यह चमड़े का विषय ही नहीं, तो आप देख कहाँ से लेंगे? आपने क्या ठंडक देखी है, नहीं साहब, हमने तो केवल बरफ देखी है, ठंड तक नहीं देखी। तो क्या आपने गरमी देखी है? नहीं गरमी भी नहीं देखी है, आग देखी है। आग की बात हम पूछते हैं, गरमी की बात पूछते हैं। नहीं साहब, गरमी तो नहीं देखी है। अच्छा, तो हमारा प्यार देखा है?
महाराज जी! प्यार तो आपका नहीं देखा। हाँ, आपके चेहरे की स्मित, मुस्कान देखी है। मित्रो! हम प्यार की बात पूछते हैं, मुस्कान की नहीं। मित्रो! अच्छा बताइए, आपने मेरा ज्ञान देखा है? नहीं महाराज जी, ज्ञान भी नहीं देखा। ज्ञान आपने देखा नहीं, प्यार देखा नहीं, गरमी देखी नहीं, ठंड देखी नहीं, तो फिर आप भगवान् को कैसे देखेंगे? नहीं महाराज जी! भगवान् दिखा दीजिए। पागल कहीं का- भगवान् देखेगा। भगवान् भी कोई देखने की चीज है! भगवान् किसी ने नहीं देखा है। अर्जुन भी कह रहा था कि भगवान् को दिखा ही दीजिए। श्रीकृष्ण ने कहा- चल तुझे दिखाते हैं। उन्होंने अपना विराट् रूप दिखाया और कहा- देख यही है भगवान्। यही स्वरूप उन्होंने अपनी माता यशोदा को भी दिखाया था। राम ने भी अपनी माता कौशल्या को अपना विराट् रूप दिखाया था। उन्होंने काकभुशुंडि को दिखाया था और कहा था कि देख यही मेरा विराट् रूप है। मर्म समझिए साथियो! अगर आप आँखों से भगवान् को देखना चाहते हों, तो संसार में जितनी दिव्य शक्तियाँ हैं, जितनी दिव्य विचारधाराएँ हैं और जितने दिव्यकर्म दिखाई पड़ते हैं, उनमें आप भगवान् की क्रीड़ा को देख सकते हैं। यही उनके क्रीड़ा करने योग्य स्थल हैं। उनको ही आप अक्षत चढ़ाइए, जल चढ़ाइए, अगरबत्ती जलाइए। उसमें ही अपनी अक्ल लगाइए अर्थात् ध्यान कीजिए। ध्यान करने का मतलब है- भगवान् के लिए अपनी अक्ल खरच करना।
‘अक्षतांन् समर्पयामि’ का अर्थ है- अपनी कमाई का एक हिस्सा लोकमंगल में लगा देना। ‘आचमनं समर्पयामि’ एवं ‘स्नानं समर्पयामि’ अर्थात् पानी चढ़ा देने का भी यही मतलब होता है- समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिए, लोगों को अच्छा बनाने के लिए, दुनिया में भलाई लाने के लिए अपना पसीना बहाइए, अपनी अक्ल लगाइए, अपना पैसा खरच कीजिए। नहीं महाराज जी, मैं तो तीन चम्मच पानी चढ़ाऊँगा, तो पुण्य हो जाएगा। हाँ बेटे, चाहे तीन चम्मच चढ़ा, चाहे चार, इनसे कुछ बनता- बिगड़ता नहीं। अरे चढ़ाना है, तो वह चढ़ा, जो इसके पीछे कुछ शिक्षा है, प्रेरणा है, नहीं महाराज जी! भगवान् तो पानी चढ़ाने से ही प्रसन्न हो जाते हैं। तो फिर ठीक है, चम्मच से ही क्यों चढ़ाता है? सावन के महीने में तीन घड़े पानी भर ले और उनकी पेंदी में सुराख करके भगवान् के ऊपर टाँग दे। चौबीस घंटे पानी टपकता रहेगा। सारे दिन ‘आचमनं समर्पयामि’ का पाठ चलता रहेगा और चौबीस घंटे का स्नान भी। न बार- बार नहलाना पड़ेगा, न धुलाना पड़ेगा, न बार- बार चम्मच डालना पड़ेगा, अपने आप बैठे- बैठे भगवान् जी नहाते रहेंगे। अरे मूर्ख, पानी चढ़ाने का अर्थ है- पसीना बहाना, श्रम करना। अच्छाई के लिए मेहनत करना। पूजा- अर्चना के पीछे, कर्मकाण्डों के पीछे छिपे हुए भाव, शिक्षा एवं प्रेरणाओं को समझना बहुत जरूरी है। संघ शक्ति का जागरण भगवान् ने गीता में हमें यही उपदेश सिखाया और यह कहा कि कोई भी श्रेष्ठ कार्य बिना श्रम और सहयोग के संभव नहीं है। उदाहरण के लिए, जब उन्होंने पहाड़ उठाया, तो ग्वाल- बालों से कहा कि आप जरा हिम्मत कीजिए, हमारे साथ आइए और हमारी मदद कीजिए, अपनी लाठी का सहारा लगाइए। मित्रो! जनता को साथ लिए वगैरह आप कुछ भी नहीं कर सकते।
अकेले आप समाज को सुधारेंगे? नहीं, आप अकेले कुछ भी नहीं कर सकते। आप लोगों को साथ बुलाइए, साथ लेकर चलिए। नहीं साहब, हम बड़े ज्ञानी हैं, बड़े विद्वान हैं। ठीक है, आप विद्वान हैं, तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन आपके साथ में लोकशक्ति है कि नहीं? आप जनता के पास जाइए, और लोकशक्ति बढ़ाइए। लोकशक्ति को जगाए बिना राम का उद्धार नहीं हो सका, कृष्ण का उद्धार नहीं हो सका, बुद्ध का उद्धार नहीं हो सका और गाँधी का उद्धार नहीं हो सका, किसी का भी उद्धार नहीं हो सका, और न कभी हो सकता है। जनशक्ति को जगाइए, जनता के पास जाइए, जनता को साथ लीजिए। जनसहयोग लीजिए। श्रीकृष्ण भगवान् का गोवर्द्धन उठाना, महाभारत में सेना को खड़ा कर देना, इस बात का सबूत है कि उन्होंने जो काम किए, मेहनत से किए और लोगों की सहायता से किए हैं— जनशक्ति को साथ लेकर किए हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के ब्याह- शादी के बारे में कितनी ही किंवदंतियाँ मालूम पड़ती हैं। अभी जो आपको हम भगवान् की कथा बताने वाले थे, उसमें पहला विषय श्रीकृष्ण भगवान् के शादी- ब्याह वाला किस्सा ही था। लोगों ने उनके विवाह और रास को इतना घिनौना बना दिया है, जिसे हम नहीं चाहते कि हमारे पिता के ऊपर- हमारे बुजुर्गों के ऊपर ऐसे गंदे और वाहियात आक्षेप लगाए जाएँ। हम इस बकवास को सुनना नहीं चाहते और न इस तरह की रासलीला को देखने का हमारा जरा- सा भी मन है और न फुरसत है। नहीं, गुरुजी, रास देख लीजिए। नहीं बेटे, हम रास नहीं देखना चाहते। हम शिक्षा वाला नाटक देखना चाहते हैं, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण ने यह करके दिखाया था कि अपना राज्य सुदामा की सुपुर्द कर दिया था और तप करने चले गए। यह हमें पसंद है और इसे हम हजार बार देखेंगे। क्यों महाराज जी, आपने तो गोपियों वाली रासलीला और वह कपड़े चुराने वाली लीला देखी है? नहीं बेटे, यह रासलीला हमको नापसन्द है, क्योंकि यह समाज में अनाचार फैलाती है, समाज में भ्रष्टाचार फैलाती है, समाज में अनीति फैलाती है, समाज में भ्रष्टाचार फैलाती है, समाज में अनीति फैलाती है।
हमारे आराध्य की हँसी उड़ाती है और हमारी संस्कृति के ऊपर कलंक लगाती है। यह हमें नापसंद है। इसे न हम देखना चाहते हैं और न सुनना चाहते हैं। आराध्य का सच मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण के दाम्पत्य जीवन के बारे में जो वाहियात बातें सुनने को मिलती रही हैं, इसके संबंध में जब मैं गहराई में गया, तो पता चला कि ये तमाम वाहियात बातें पीछे पंडितों ने मिलाई हैं। असल में उनका एक ही ब्याह हुआ था और रुक्मिणी को भी वे छीनकर नहीं लाए थे। रुक्मिणी के भाई रुक्म की रजामंदी से यह ब्याह हुआ था। जब महाभारत में यह कथा मैंने पढ़ी, तो मुझे बहुत पसंद आई और तब से मैंने श्रीकृष्ण भगवान् की शादी- ब्याह के बारे में भी जिक्र करना शुरू कर दिया। पहले मैंने यह फैसला किया था कि श्रीकृष्ण के ब्याह के बारे में मैं कुछ लिखूँगा ही नहीं कि उनका ब्याह हुआ या वे कुँवारे रहे अथवा उन्होंने बहुत- सी से ब्याह किया था। यह सब मैं लिखना नहीं चाहता था। वस्तुतः श्रीकृष्ण भगवान् का ब्याह रुक्मिणी के साथ हुआ था, जिन्हें साथ लेकर के वे बारह वर्ष तक बद्रीनाथ तप करने चले गए। बद्रीनाथ किसे कहते हैं? बद्री माने बेर, बेर माने बद्री। बेरों का जंगल था वहाँ, जहाँ आज बद्रीनाथ है। वे वहीं चले गए थे और अपनी धर्मपत्नी के साथ बारह वर्ष तक तप किया था।
इसके पीछे सिद्धान्त छिपा हुआ था- आदर्श छिपा हुआ था कि हमें एक ऐसी संतान चाहिए, जो कामुकता के संस्कारों से दूर हो। इसके पीछे उद्देश्य यह था कि श्रेष्ठ नागरिक होने के लिए संयम के साथ में, तप के साथ में, ज्ञान के साथ में एक सुसंस्कारी संतान देनी है; बारह वर्ष तक इसलिए तप करके आए थे। उनके केवल एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसका नाम प्रद्युम्न था। नहीं साहब! उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ थीं। नहीं बेटे, यह सब बातें गलत हैं और पीछे पंडितों के द्वारा जोड़ी गई हैं। बेकार की इन बातों से कोई फायदा नहीं है। मित्रो! श्रीकृष्ण भगवान् का दाम्पत्य जीवन श्रेष्ठ वाला दाम्पत्य जीवन रहा है। उसमें इस तरह के बकवास की कोई गुंजाइश नहीं है कि उनकी हजारों रानियाँ थीं। उनकी जिंदगी की आखिर वाली दो घटनाएँ इतनी शानदार रही हैं। पहली घटना वह है जब उन्होंने संपत्ति इकट्ठी की और कहा कि इसका हिसाब होना चाहिए कि कितना धन किस राज्य में कहाँ- कहाँ स्थापित हो? एक बार जब सुदामा जी द्वारिका राज्य में आए और कृष्ण भगवान् को बताया कि सुदामा नगरी का हमारा गुरुकुल टूटा- फूटा हुआ पड़ा है। हमारे यहाँ धन की कमी आ गई है। छात्रों के निवास के लिए स्थान की कमी पड़ गई है। पढ़ने के लिए पुस्तकें नहीं हैं। यह सुनकर उन्होंने सोचा कि पैसे का इससे अच्छा उपयोग और कुछ भी नहीं हो सकता है। आपके पास धन- संपदा हो, तो आप सोचेंगे कि इसे मेरा बेटा खाएगा, पोता खाएगा, लेकिन अगर कोई और खाएगा, तो मैं उसकी जान ले लूँगा। अपनी सारी कमाई किसको देगा?
बेटे- पोते को देगा, अगर और किसी को देगा, तो तेरी जान निकल जाएगी। निस्पृह जीवन मित्रो! क्या हुआ? कृष्ण भगवान् ने देखा कि राज्य इकट्ठा किया, पैसा इकट्ठा किया, लेकिन इसे खरच करना चाहिए था। आखिर इसे खरच कहाँ किया जाए? यह विचार कर ही रहे थे कि सुदामा जी आ पहुँचे। उन्होंने सोचा, बस हो गया मेरा काम। यही तो मैं तलाश कर रहा था कि कोई ऐसा ठीक स्थान मिले, जहाँ हमारे धन का अच्छे- से उपयोग हो सके। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किसको दूँ, किसको न दूँ? माँगने वाले तो हजारों आते हैं, लेकिन जहाँ आवश्यकता है, ऐसा कोई स्थान या व्यक्ति नहीं मिला। सुदामा जी, आप ठीक समय पर आ गए। चलिए, जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब मैं आपको देता हूँ- सब आपके सुपुर्द करता हूँ। उनका जो सारे- का धन था, उसे सुदामापुरी भेज दिया और वहाँ का विद्यालय विश्वविद्यालय में बदल दिया गया। मित्रो! यह उनके जीवन की निस्पृहता थी, उनका कर्मयोग था। कर्मयोग में आदमी की आसक्तियाँ और मोह कटते जाते हैं और उसे यह दिखाई देने लगता है कि हमें क्या चाहिए? हमारे में कमाने का माद्दा है, लेकिन कमाने के माद्दे की सार्थकता तब है, जब इसे किसी अच्छे काम में लगा सकें। लेकिन आप तो कमाते जाते हैं और बेटों को, पोतों को चालाक बनाने के लिए, चोर बनाने के लिए, हैवान बनाने के लिए, व्यसनी बनाने के लिए और अनाचारी बनाने के लिए पाप की कमाई उनके ऊपर जमा करते जा रहे हैं। आप भी क्या यही करते हैं? नहीं, महाराज जी! हम ऐसा नहीं करते हैं। यदि आप भी ऐसा ही करते हैं, तो अपना विचार बदल दें। मित्रो!
प्राचीनकाल में ऐसा ही होता रहा है। भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अपना सारा धन सुदामा को सुपुर्द कर दिया और वे निस्पृह हो गए। ये सारी बातें उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सार्थक कर दिखाई। उनके जीवन की अंतिम कथा यह है कि उन्हें याद आया कि पहले जन्म में हमने बाली को छिपकर मारा था। छिपकर मारना हमारी गलती थी। उसे छिपकर नहीं मारना चाहिए था। यह कोई कायदा नहीं है कि आप छिप करके किसी को मारे। छिप करके मारने वाले को हत्यारा कहते हैं, कसाई कहते हैं और जल्लाद कहते हैं। लड़ाई का कायदा यह है कि आप सामने वाले को भी हथियार दीजिए और खुद भी हथियार लीजिए, फिर चैलेंज कीजिए कि आइए, आपको भी अपनी रक्षा करने का अधिकार है। इस लड़ाई में जान हमारी भी जा सकती है और आपकी भी जा सकती है। आप हमारे ऊपर हमला कीजिए और हम आपके ऊपर हमला करेंगे। दोनों बहादुर ये बातें एक- दूसरे से कहते हैं। लेकिन जो आदमी बैठा हुआ है, सोया हुआ है और आपने ताड़ के पीछे से छिप करके उसे मार दिया। सोए हुए को मार दिया, यह क्या घोटाला किया। रामचंद्र जी थे तो क्या हुआ, उन्होंने ऐसा करके गलती की थी। मित्रो! श्री भगवान् ने दिखाया कि गलती करने वाला कोई भी क्यों न हो, चाहे भगवान् ही क्यों न हो, गलती की सजा से माफी नहीं माँग सकता। वही बाली इस जन्म में बहेलिया हो गया और आकर के जब श्रीकृष्ण भगवान् पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, तब उनको तीर मारा। तीर उनके पाँव में लगा, जिससे सुराख बन गया और सेप्टिक हो गया, टिटनेस हो गया। डाक्टरों ने इंजेक्शन लगाए, बहुतेरा चिकित्सा उपचार किया, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। कृष्ण भगवान् वहीं ढेर हो गए। उनकी लाश वहीं पड़ी रही। बलराम ने भी देखा कि मेरा भाई मारा गया। अर्जुन भी वहाँ आ गए और जाकर उनका अंतिम संस्कार किया। इस सारी कथा का महाभारत में विशद वर्णन है। मित्रो! इसी के साथ सारी कथा पूरी हो जाती है। रही बात अलौकिकता और चमत्कार की, तो महान् व्यक्तियों के साथ इसका कोई लेना- देना नहीं है। चमत्कार तो आप जैसे लोगों के लिए है, जो इसे ही सब कुछ मानकर किसी की महानता का आकलन करते हैं और कहते हैं कि यदि चमत्कारी होगा, तो महात्मा होगा, चमत्कारी होगा, तो भगवान् होगा, चमत्कारी होगा, तो गुरु होगा और अगर चमत्कारी नहीं हुआ, तो कुछ नहीं, मात्र सामान्य व्यक्ति है।
नहीं साहब, गुरु गोविन्द सिंह ने तो एक से एक बड़े चमत्कार दिखाए थे, आप भी दिखाइए। नहीं भाई साहब, गुरुगोविन्द सिंह से जब एक व्यक्ति जिद करने लगा और कहने लगा था कि मेरा खुदा बड़ा चमत्कारी है। वह एक बीज से हजारों फल निकालता है। बादलों को पिघलाकर पानी की बूँदें बना देता है। आप भी बालों में से बालू निकाल दीजिए, कानों में से मेढक निकाल दीजिए, तो हम आपको चमत्कारी मानेंगे। उन्होंने कहा- तू बाजीगरी को चमत्कार मानता है। वास्तविक चमत्कार तो यह है कि आदमी के हृदय में भगवान् पैदा किया जा सकता है या नहीं? जो आदमी पापी और पतित की जिंदगी जी रहा है, भीरु और परावलम्बी जिंदगी जी रहा है, यदि वह अब स्वावलंबी और शानदार जिंदगी जीता है, श्रेष्ठ जिंदगी जीता है, लोगों को तारने वाली, विकास वाली जिंदगी जीता है, तो यही सबसे बड़ा चमत्कार है। इससे बड़ा और कोई चमत्कार नहीं हो सकता। अलौकिक बनाम लौकिक श्रीकृष्ण भगवान् चमत्कारी थे, लेकिन लौकिक दृष्टि से वे घोर असफल। गोपियों से प्यार करते थे, राधा से प्यार करते थे, लेकिन उन्हें छोड़कर वे कहाँ चले गए?
गोपियाँ चिल्लाती रह गईं। ब्याह किया, राजपाट बसाया, अर्जुन को राजा बनाया। आखिर में भागकर स्वयं द्वारिका चले गए। अपना कुटुंब बसाया, जो अंत में आपस में लड़- मरकर खत्म हो गया। ये कैसे भगवान् थे, जिनके खानदान वाले सब खत्म हो गए। सारा खानदान चौपट हो गया। अर्जुन गोपियों को लेकर जा रहे थे। उनको रास्ते में भील मिल गए और गोपियों को ले गए। राधिका जी जाने कहाँ चली गईं। सब कुछ बिखर गया। आखिर में जो कुछ बचा खुचा था, उसे भी लोग समेट ले गए और श्रीकृष्ण भगवान् खाली हाथ रह गये। आखिरी वक्त में यह भी नहीं हो सका कि कोई मुँह में गंगाजल ही डाल दे या गौदान करा दे। गौदान कराने वाले तो नहीं हुए, उलटे उनकी लाश जंगल में पड़ी रही और वह भी अर्जुन को जलानी पड़ी।
मित्रो! इस तरह संसार की दृष्टि से भगवान् श्रीकृष्ण घोर असफल सिद्ध हुए, लेकिन आदर्शों की दृष्टि से- सिद्धांतों की दृष्टि से घोर सफल सिद्ध हुए। वे भगवान् जो आज के दिन पैदा हुए, जिन्होंने न केवल अपने क्रियाकलापों से कितना शिक्षण दिया, वरन् असंख्य नर- नारियों को संसार सागर से पार लगाया। उनका शिक्षण इतना शानदार है कि अगर हम आज की जन्माष्टमी के दिन इन चरित्रों को, इन प्रेरणाओं को, इन दिशाओं को अपने जीवन में धारण करने में समर्थ हो जाएँ, तो मजा आ जाए और आज का जन्माष्टमी का पर्व सार्थक हो जाए। हमारा समझाना भी सार्थक हो जाए, अगर ये प्रेरणाएँ जो भगवान् ने अपनी स्थूल जीवन की लीलाओं द्वारा दी थीं, इनको हम धारण कर पाएँ तब, गीता में हमको जो बताया गया है, उसे हम धारण कर सकें तब। अगर हममें से प्रत्येक के भीतर जीवंत भगवान् का वह सिद्धांत आदर्शवादिता के रूप में उतर सके, हर क्षण उसकी आवाज और वाणी को हम सुन सकें, तो हमारा जीवन धन्य हो जाए और धन्य हो जाए आज का दिन और आज का हमारा लेक्चर। बस आज की बात यहीं समाप्त। ॐ शान्तिः
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे- युगे संतुलन हेतु आता है अवतार मित्रो! मनुष्य के भीतर दैवी और आसुरी- दोनों ही वृत्तियाँ काम करती रहती हैं। दैत्य अपने आपको नीचे गिराता है। पानी का स्वभाव नीचे की तरफ गिरना है। पानी बिना किसी प्रयास के, बिना किसी ‘परपज’ के नीचे की तरफ गिरता हुआ चला जाता है। इसी तरह मनुष्य की वृत्तियाँ जब बिना किसी के सिखाए और बिना किसी आकर्षण के अपने आप पतन की ओर, अनाचार और दुराचार की ओर बढ़ती हुई चली जाती हैं, तब सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाता है। व्यक्ति के भीतर भी और समाज के भीतर भी संतुलन बिगड़ जाता है। ऐसी स्थिति में समाज में सफाई की प्रक्रिया यदि न चलाई जाए, कमरे में झाड़ू न लगाई जाए, तो कूड़ा भरता चला जाएगा। दाँत पर मंजन न किया जाए, शरीर को स्नान न कराया जाए, तो उस पर मैल जमता चला जाएगा। इसी तरह अगर कपड़े को न धोया जाए, तो कपड़ा मैला होता चला जाएगा। मलीनता को साफ करने की प्रक्रिया जब बंद हो जाती है या ढीली पड़ जाती है, तो सृष्टि में अनाचार बढ़ जाता है, यह सृष्टि के बहिरंग रूप में भी और अंतरंग रूप में भी फैल जाता है। अंतरंग रूप हमारा व्यक्तिगत रूप है।
यह भी एक सृष्टि है। व्यक्ति अपने आप में सृष्टि है, व्यक्ति अपने आप में संसार है, विश्व है। अगर संघर्ष की गुंजाइश न हो, सफाई की गुंजाइश न हो, धुलाई की गुंजाइश न हो, तब इसके भीतर भी अनाचार बढ़ता हुआ चला जाता है। इसी तरह बहिरंग संसार में भी अगर सुधार की प्रक्रिया, संघर्ष की प्रक्रिया, सही करने की प्रक्रिया को जारी न रखा जाए, तब संसार में अनाचार बढ़ता चला जाता है। कभी- कभी देव भी हार जाते हैं, जब समाज को ऊँचा उठाने वाले उनके सलाहकार धीमे पड़ जाते हैं, हारने लगते हैं। जब हम अपना संघर्ष बंद कर देते हैं और दुष्ट प्रवृत्तियों को खुली छूट दे देते हैं, तब हमारा भीतर वाला देव हारने लगता है और दुष्ट प्रवृत्तियाँ खुलकर खेलने लगती हैं। दुष्ट प्रवृत्तियाँ हमारे मस्तिष्क में छाई रहती हैं। दुष्ट प्रवृत्तियाँ हमारे स्वभाव और अभ्यास में बनी रहती हैं। चूँकि हम अपने भीतर से संघर्ष बंद कर देते हैं, दुष्प्रवृत्तियों को रोकते नहीं, काटते नहीं, तोड़ते- मरोड़ते नहीं, उनसे लोहा लेते नहीं और न ही उन्हें छोड़ते हैं, इसलिए वे हम से चिपक कर बैठी रहती हैं और उनको हमारे अंतरंग जीवन में खुलकर खेलने का मौका मिल जाता है। और बहिरंग जीवन में? बहिरंग जीवन में भी यही बात है। बहिरंग जीवन में आप अनाचार को छूट दे दीजिए, उसे रोकिए मत, सुधारिए मत, प्रतिबंध लगाइए मत, तब वह चारों ओर से बढ़ता हुआ चला जाएगा। अनाचार आता बहिरंग से है, लेकिन उतरेगा अंतरंग जीवन में। इस कारण कभी- कभी आप में ऐसा असंतुलन पैदा होगा, जो विनाश की ओर ले जाएगा। जब कभी असंतुलन पैदा हो जाता है, तो यह मालूम पड़ता है कि दुनिया का विनाश होने वाला है। हमारी भीतर की दुनिया का भी और बाहरी दुनिया का भी विनाश होने वाला है। यह विनाश नहीं, वरन् विनाश के आधार हैं।
मित्रो! विनाश का आधार एक ही है- अनाचार। अनाचार की वृद्धि अर्थात् विनाश। अनाचार और विनाश दोनों एक ही चीज हैं। इनमें जरा भी फर्क नहीं है। एक दूध है, तो एक दही। दूध अगर जमा दिया जाएगा, तो दही बन जाएगा और जीवन में अनाचार को बढ़ावा दिया गया होगा, तो विनाश उत्पन्न हो जाएगा। यह प्रक्रिया न जाने कब से बार- बार बनती और चलती आ रही है। भगवान् को सृष्टि निर्माण से पूर्व ही यह ख्याल था कि कहीं ऐसा न हो जाए और सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाए। इसलिए सृष्टि का संतुलन जब कभी बिगड़ने लग जाता है, तो उसका बैलेंस ठीक करने के लिए भगवान् अपनी शक्तियों को लेकर अवतार लेते रहे हैं। अवताराः असंख्याः अब तक भगवान् ने जाने कितने अवतार लिए हैं, हम कही नहीं सकते। उनमें से एक अवतार यह भी है जिसका कि हम जन्मोत्सव मनाने के लिए, जन्मदिन मनाने के लिए, जन्माष्टमी मनाने के लिए एकत्रित हुए हैं। भगवान् के अवतार हमारे यहाँ हिंदू सिद्धांत के अनुसार दस और एक दूसरे सिद्धांत के आधार पर चौबीस हुए हैं। कोई कहता है कि दस अवतार हुए हैं, तो कोई कहता है कि भगवान् के चौबीस अवतार हुए हैं। यह तो मैं हिंदू समाज की बात कह रहा हूँ। लेकिन हिंदू समाज ही दुनिया में अकेला नहीं है। मुसलमान समाज अलग है।
मूसा से लेकर मोहम्मद साहब तक ढेरों अवतार हुए हैं। ईसाइयों में भी न जाने कितने अवतार हो चुके हैं। बौद्धधर्म में न जाने कितने अवतार हुए हैं। पारसियों में कितने अवतार हो चुके हैं। हर मजहब में कितने अवतार हो चुके हैं, यह हम नहीं बता सकते। अवतार होने से हमें कोई शिकायत भी नहीं है। मित्रो! चलिए इन अवतारों में हम एक और कड़ी जोड़ने को तैयार हैं। जितने भी महामानव, महर्षि, लोकसेवक एवं संसार को रास्ता बताने वाले हुए हैं, चलिए उन सबको हम अवतार मान लेते हैं। इस संबंध में हम यह नहीं कहेंगे कि यह अवतार नहीं था या वह अवतार नहीं था। हमारे ये सब अवतार हैं। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि अवतार आपके भीतर में कई तरीके से प्रकट होता रहता है। कभी अनाचार को दबाने के लिए खड़ा हो जाता है, तो कभी पीड़ा- पतन निवारण के लिए खड़ा हो जाता है। तो कभी विकृतियों से जूझने के लिए खड़ा हो जाता है। जिस तरीके से कसाई बकरे को बाँधकर ले जाता है, उसी तरीके से हमारा आंतरिक अवतार न जाने कहाँ से कहाँ ले जाने के लिए हमें विवश कर देता है। दुनिया में ऐसी कौन सी शक्ति है, कौन है वह, जो हमें बताता है कि इस रास्ते पर चलना नहीं है। वह शक्ति हमें ऐसे रास्ते पर चलने से रोक देती है।
जब कभी शौर्य का- साहस का उदय हमारे भीतर होता है, तो मित्रो हम कह सकते हैं कि अवतार का उदय हुआ। यह भी एक अवतार अवतार का उदय कितने मनुष्यों के भीतर हुआ और उन्होंने कितनों का कायाकल्प कर दिया? एक उदाहरण बताता हूँ आपको- समर्थ गुरु रामदास का। समर्थ गुरु रामदास शादी के लिए तैयार खड़े थे। पंडित पंचांग लेकर पति- पत्नी को एक- दूसरे के गले में वरमाला पहनाने को कह रहे थे। तभी समर्थ के सामने दो सपने आकर खड़े हो गए। सपना नंबर एक कि बीबी आएगी, हाथ- पाँव दबाया करेगी, सिर में तेल लगाया करेगी, खाना पकाया करेगी और बच्चा पैदा किया करेगी। दूसरा सपना इतना जबरदस्त आया कि चूहे के तरीके से रोटी के टुकड़े को देखकर मौत के पिंजड़े में जाने को तैयार है? यह पता नहीं कि जिंदगी कितनी कीमती है और इसके लिए क्या करना चाहिए? भगवान् आया और उसने समर्थ को आवाज दी- बुलाया भगवान् हमारे और आपके पास भी रोज आता है। रोज संदेश देता है, आदेश देता है, निर्देश करता है। लेकिन भगवान् की पुकार हम और आप कब सुनते हैं? भगवान् आदर्श की, सिद्धांतों की, नैतिकता की, मर्यादा की बातें बताकर चला जाता है, लेकिन हम और आप यह सब सुनते हैं क्या? हमारे लिए तो भगवान् की पूजा करने के लिए ये खेल- खिलौने ही काफी हैं, जो हमने और आपने पकड़ रखे हैं। हमारी और आपकी समझ में तो भगवान् की आरती उतारनी चाहिए, जप कर लेना चाहिए, भगवान् को धूपबत्ती चढ़ा देना चाहिए, भगवान् को चावल चढ़ा देना चाहिए, और प्रसाद बाँट देना चाहिए। इतना काफी है। और कुछ? नहीं और ज्यादा न हमारी हिम्मत है, न हमारा मन है, न हमारी तबियत है, न हमारे अंदर जीवट है और न हमारे अंदर चिंतन है। बस, इन्हीं बाल- बच्चों जैसे खिलौनों से खेलते रहते हैं। भगवान् की पूजा के लिए इन खेल- खिलौनों के अतिरिक्त हम और हिम्मत नहीं कर सकते। लेकिन भगवान् तो अपनी पूजा के लिए कुछ और ही चाहता है। वह धर्म स्थान के लिए, समय की माँग को पूरा करने के लिए आपको रोज पुकारता है। धर्म की स्थापना के लिए भगवान् ने किसको- किसको पुकारा? समर्थ गुरु रामदास को पुकारा। उनसे कहा कि अरे! कहाँ चलता है नरक में, चल तेरे लिए दूसरा रास्ता खुला पड़ा है।
उन्होंने कहा- भगवान् मैं आया। भगवान् मैं डूब रहा हूँ, इस भवसागर से आप मेरा त्राण कीजिए अर्थात् रक्षा कीजिए। भगवान् का तो संकल्प ही है- ‘‘परित्राणाय साधूनां’’ अर्थात् साधुओं का त्राण होता है, असाधुओं का नहीं। असाधुओं के त्राण के लिए भगवान् के पास कोई फुरसत नहीं है। कोई टाइम नहीं है और कोई मोहब्बत नहीं है। जो आदमी साधु- संत नहीं है अथवा साधु होकर भी पाप के गर्त में गिरते हुए चले जाते हैं, तो भगवान् क्यों करेंगे मोहब्बत उनसे और क्यों प्यार करेंगे उनसे? एक सिद्धांत वाले- उच्च आदर्शों वाले की ओर उन्होंने अपना हाथ बढ़ा दिया और समर्थ गुरु उठकर खड़े हो गए। शादी के मंडप से वे भाग खड़े हुए। लोगों ने कहा कि पकड़ना इन्हें, पर समर्थ गुरु उनकी पकड़ से दूर भाग खड़े हुए। उनकी होने वाली बीबी का ब्याह दूसरे व्यक्ति से कर दिया गया। समर्थ गुरु रामदास जाने कहाँ चले गए। मित्रो! समर्थ गुरु रामदास वहाँ चले गए, जहाँ से हिंदुस्तान के अध्याय का नया इतिहास आरंभ हुआ। उन्होंने न जाने कितने शिवाजी तैयार कर दिए। महाराष्ट्र में उन्होंने न जाने कितने ज्ञान केन्द्रों, हनुमान मंदिरों को स्थापित किया। एक- एक मुट्ठी अनाज घर- घर से एकत्र करके कितना अपार धन अर्जित किया और उसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए शिवाजी की सेना में लगा दिया।
शिवाजी के नाम से जो संग्राम चला, उसके असली संचालक कौन थे? समर्थ गुरु रामदास। समर्थ गुरु रामदास का इतिहास- भगवान् का इतिहास है। आपका इतिहास? औरों का इतिहास- बंदरों का इतिहास है, शेरों का इतिहास है, चूहों का इतिहास है, जो केवल पेट के लिए जीते हैं, औलाद के लिए जीते हैं। हम और आप भी कोई भगवान् के भक्त हैं? नहीं, साहब हम तो भगवान् की शरण चाहते हैं। खाक चाहता है अभागा कहीं का। बस भक्ति के नाम पर चंदन चढ़ाता हुआ चला जाता है, माला घुमाता हुआ जाता है। नहीं साहब! हम तो बद्रीनाथ जाते हैं, चंदन चढ़ाते हैं, माला घुमाते हैं, धूपबत्ती जलाते हैं। ये कुछ नहीं, मात्र तू खेल- खिलौना करता, मजाक करता और भगवान् को अँगूठा दिखाता है। आपके ये पूजा करने के ढंग भगवान् से दिल्लगीबाजी करने के समान हैं। पूजा करने के सही ढंग वे हैं, जो समर्थ गुरु रामदास के पास आए थे।
श्रेय व प्रेय मार्ग मित्रो! पूजा करने के सही तरीके वे हैं, जो भगवान् की पुकार सुनने वालों ने अपनाए हैं। भगवान् की पुकार सुनने वालों में से एक नाम जगद्गुरु शंकराचार्य का भी है। एक ओर शंकराचार्य की माँ चाहती थीं और ये कहती थीं कि मेरा फूल- सा छोकरा ब्याह करके गोरी बहू लाएगा और नाती- पोते पैदा करेगा। कमाकर लाएगा, महल बनाएगा, कोठी बनाएगा, गाड़ी लाएगा और घर में पैसे इकट्ठे करेगा। एक ओर इस तरह शैतान वाला ख्वाब, पाप वाला ख्वाब, लोभ वाला ख्वाब, आकर्षण वाला ख्वाब था, दैत्य वाला ख्वाब था, तो दूसरी ओर शंकराचार्य के मन में देवत्व वाला ख्वाब था। भगवान् ने शंकराचार्य के कान में इशारे से कहा- अरे अभागे जिस काम के लिए कुत्ते और बिल्ली, मेढक और चूहे अपनी सारी जिंदगी खर्च कर देते हैं, वह तेरे लिए काफी नहीं है। तेरे लिए दूसरा रास्ता खुला हुआ है, उस ओर चल। शंकराचार्य ने अपनी माँ को समझाया, परंतु माँ की समझ में कहाँ और क्यों आने वाला था? उसकी समझ में तो यही आता था कि मुझे पोता चाहिए, पोती चाहिए, कोठी चाहिए। मित्रो! इन सब ख्वाबों को लात मार उठ खड़ा हुआ- शंकराचार्य कौन खड़ा हो गया? चारों धाम की स्थापना करने वाला शंकराचार्य, बौद्ध नास्तिकवाद की जड़ें उखाड़कर हिंदुस्तान से बाहर करने वाला शंकराचार्य। उन दिनों बौद्धों का नास्तिकवाद हिंदुस्तान में लोगों के मन- मस्तिष्क में घुसता हुआ चला जा रहा था, तब शंकराचार्य ने कहा था कि हिंदुस्तान में आस्तिकता जिंदा रहेगी, नास्तिकता को हम जिंदा नहीं रहने देंगे। हिंदुस्तान से नास्तिकता को उन्होंने निकाल बाहर किया। फिर वह कहाँ चली गई? चाइना चली गई, कोरिया चली गई, मलेशिया चली गई, जापान और वर्मा चली गई, श्रीलंका चली गई, कहीं भी चली गई, पर हिंदुस्तान से भाग गई। ये शंकराचार्य की हिम्मत थी।
चारों धामों की स्थापना करके सारे हिंदुस्तान को एकता के सूत्र में पिरोने वाला वह शंकराचार्य, दिग्विजय करने वाला शंकराचार्य, अनूठे विचारों वाला शंकराचार्य अलग था। उसने भगवान् की पुकार सुन ली थी। मित्रो! अगर शंकराचार्य ने भगवान् की पुकार न सुनी होती तब? तब बेटे यही होता, जो हमारा- आपका हुआ है। क्या हो जाता? नौ बेटे और ग्यारह बेटियाँ होतीं। एक बच्चा गोद में बैठा होता, तो एक सिर पर बैठा होता और एक माँ के पेट में। एक गालियाँ दे रहा होता, एक मूँछें काट रहा होता और एक मारपीट कर रहा होता। आपके जैसे उसकी भी मिट्टी पलीद हो गई होती। लेकिन भगवान् की पुकार को सुनने वाला शंकराचार्य उनकी कृपा से जीवन की दिशाओं को लेकर न जाने कहाँ से कहाँ चला गया। भजन इसी का नाम है, जिसमें कि आदमी के जीवन की दिशाधारा बनाई जाती है, विचार बनाए जाते हैं और काम करने के तरीके बदले जाते हैं। इसी का नाम है भजन। भजन माला घुमाना नहीं है, भगवान् की पुकार सुनने का नाम भजन है। भगवान् की पुकार मित्रो! भगवान् की पुकार सुनने का प्रतिफल यही होता रहा है।
कितने मनुष्यों के भीतर भगवान् की पुकार पैदा हुई और किन- किन सामाजिक परिस्थितियों में पैदा हुई? भगवान् समय- समय पर साकार रूप में भी और निराकार रूप में भी आते हैं। निराकार रूप में भगवान् किस- किसके पास आए और साकार रूप में किस- किसके पास आए, जैसा कि अभी मैंने आपको सुनाया। गुरुदेव अभी आप और उदाहरण सुनाएँगे। नहीं बेटे, मैं और नहीं सुनाऊँगा। अगर और हवाला देना पड़ा, तो सारे विश्व का इतिहास आपके सामने पेश करना पड़ेगा, जिन्होंने नियमों के लिए, सिद्धांतों के लिए, आदर्शों के लिए कुरबानियाँ दीं, बलिदान दिए, कष्ट उठाए और दूसरों की नजरों में बेवकूफ कहलाए, बेकार कहलाए। लेकिन अपने आदर्शों के लिए, सिद्धांतों के लिए, दुनिया में शांति कायम रखने के लिए, दुनिया में शालीनता कायम रखने के लिए जिन्होंने अपने आपको, अपनी अक्ल को, अपनी ताकत को और अपनी संपत्ति को सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, ऐसे लोगों की संख्या सारी- की तादाद लाखों भी हो सकती है और करोड़ों भी। भगवान् की गाथाएँ सुनाने के लिए मुझे उन सबके इतिहास सुनाने पड़ेंगे।
आप इन सबकी कथा- गाथा को भगवान् की कथा- गाथा मान सकते हैं। इसी तरह गाँधीजी की कथा- गाथा को यह कहने में कोई एतराज नहीं है कि वह भगवान् की कथा- गाथा है। बुद्ध की, शंकराचार्य की कहानी कहने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है कि वह भगवान् की कथा- गाथा है। दूसरे अन्य लोगों ने, जिन्होंने भी नेक जीवन, श्रेष्ठ जीवन जिया, आदर्श जीवन जिया, लोगों को प्रकाश देने वाला जीवन जिया, मित्रो! वे सारे- के भगवान् थे, क्योंकि उनके भीतर भगवान् अवतरित हुआ होगा और भगवान् ने भगवान् की बाँह पकड़ ली होगी। भगवान् से उन्होंने कहा होगा कि हम आपके पीछे चलेंगे और आपकी छाया होकर रहेंगे। सभी देवता सभी अवतार साथियो! भगवान् का हुक्म जिन लोगों ने माना, वे सब आदमी भगवान् के अवतार कहे जा सकते हैं, देवता कहे जा सकते हैं और जिन लोगों ने भगवान् को ठोकर मारी, माला भले ही घुमाते रहे, उन्हें मैं कैसे कह सकता हूँ कि आप भगवान् के भक्त हो सकते हैं। मैं ऐसे किसी व्यक्ति को मानने को तैयार नहीं हूँ कि वह व्यक्ति भगवान् की इज्जत करने वाला हो सकता है, भगवान् पर विश्वास करने वाला हो सकता है, जो सारा दिन माला घुमाता है, सारा दिन भजन करता है, लेकिन उसकी जिंदगी ऐसी घिनौनी है, जिसे देखकर घृणा आती है और नफरत होती है। ऐसे व्यक्ति भगवान् के भक्त नहीं हो सकते और न ही उनके अंदर भगवान् अवतरित हो सकता है। भगवान् के अवतार मन में अवतरित हुए हैं, हृदय में अवतरित हुए हैं, आदर्शवादी सिद्धांतों और श्रेष्ठ कर्मों के रूप में अवतरित हुए हैं। सृष्टि में हवा के रूप में, आँधी के रूप में निराकार भगवान् व्याप्त है। हवाएँ दिखाई नहीं देतीं, फिर भी अपना काम कर जाती हैं। इसी प्रकार निराकार भगवान् है। गाँधी जी के जमाने में एक हवा आई थी।
गाँधी जी आगे- आगे चलते थे, तो उनके पीछे- पीछे सब चल पड़ते थे। गाँधी जी अकेले थे? नहीं, मित्रो! वे अकेले नहीं थे, हजारों- लाखों आदमी उनके साथ काम करते थे। हजारों- लाखों लोगों की कुरबानियों- बलिदानों लाखों लोगों की तबाही, लाखों लोगों का गोली खाना आदि तरह- तरह की मुसीबतों को झेलकर, सबसे मिलकर उनका संग्राम हुआ। तब देश को आजादी मिली। मित्रो! इस देश में हर जमाने में एक- एक ऐसी हवा चली है, जिसने दुनिया की दिशाधारा ही बदल दी अन्यथा इस देश मे नास्तिकवाद, अनाचारवाद फैल जाता। इन हवा को लेकर कौन आया? हवा के संदेश को लेकर कौन आया? संदेश लेकर के यहाँ भगवान् बुद्ध आए थे। तो क्या भगवान् बुद्ध ने हिंदुस्तान का- सारे एशिया का बेड़ा गर्क नहीं कर दिया था? नहीं मित्रो! ऐसा नहीं हो सकता। यह काम पीछे वालों का अनुयायियों का तो हो सकता है, पर भगवान् बुद्ध का नहीं। बुद्ध भगवान् अकेले क्या कर सकते थे? एक अकेला चना भाड़ को नहीं फोड़ सकता। एक आँधी आती है, एक तूफान आता है, एक हवा आती है। जब आँधी आती है, तो हमें आगे का काम दिखाई पड़ता है। सेना जब चढ़ाई करने जाती है, तब एक विशेष रंग का झंडा आगे- आगे फहराता हुआ चलता है और सैनिक बढ़ते हुए चले जाते हैं।
ठीक है जब चढ़ाई होती है, तो झंडे के निशान आगे बढ़ते हुए दिखाई देते हैं, परंतु वह झंडा तो लड़ाई नहीं लड़ता, लड़ने वाली फौज होती है। हवाएँ कभी- कभी आती हैं। ये हवाएँ क्या काम करती हैं? ये हवाएँ यह काम करती हैं कि असंख्य मनुष्य उपकार में लगे दिखाई पड़ते हैं। गाँधी एक हवा थी, बुद्ध एक हवा थी, कृष्ण एक हवा थी, राम एक हवा थी। मित्रो! राम अकेले अगर रावण को मार सकते, तो उन्होंने वहीं से क्यों नहीं मार दिया? नहीं साहब, अकेले राम नहीं मार सकते थे। हाँ, बेटे, अकेले नहीं मार सकते थे। उन्हें रीछों की सेना लेनी पड़ी, वानरों की सेना लेनी पड़ी, जमीन पर सोना पड़ा। मनुष्य होकर रहना पड़ा। विभीषण को साथ लेना पड़ा। ढेरों- के मनुष्यों को संग लेना पड़ा और तब एकत्रित सेना को लेकर रावण से युद्ध लड़ा। इस तरह से रावण का खात्मा हुआ। यह हवा थी एक जमाने में। फिजाँ बदल देता है- अवतार इसी तरह क्या कृष्ण भगवान् महाभारत युद्ध अकेले नहीं लड़ सकते थे? अगर अकेले लड़ सकते, तो पांडवों की खुशामत क्यों करते? पांडव बार- बार यही कहते रहे कि हमें यह लड़ाई नहीं लड़नी है।
वे हमारे रिश्तेदार लगते हैं। हम तो भीख माँगकर खा लेंगे, अपनी दुकान चलाकर खा लेंगे। हमें राजपाट नहीं चाहिए। हमें लड़ाई से छुट्टी दीजिए। हमने अपने स्वजनों का खून- खराबा नहीं होगा। फिर भी कृष्ण भगवान् खुशामद करते रहे, नाराज होते रहे, गालियाँ सुनाते रहे और कहते रहे कि तुम्हें लड़ना चाहिए। कृष्ण अगर अकेले महाभारत का युद्ध लड़ सकते, कंस को मार सकते, असुरों को मार सकते, सभी आततायियों को मार सकते, तो फिर मैं सोचता हूँ कि सारे विश्वभर में निमंत्रण भेजकर सेनाओं को बुलाने की क्या जरूरत थी? अगर अकेले ही गोवर्द्धन उठा सकते थे, तो ग्वाल- बालों को लाठी लगाने की क्या जरूरत थी। मित्रो! अकेला आदमी कितना कर सकता है। मैं किसी तरह से यह विश्वास करने को तैयार नहीं हूँ कि एक व्यक्ति विशेष सारे- के समाज को रोक सकता है, बदल सकता है। ऐसा नहीं हो सकता। ये हवा है, जिस पैदा करने की कोई मशीन काम करती होगी, इस बात का समर्थन करने को मैं तैयार हूँ। इस हवा में बहुत से ढेरों आदमी घिरे होते हैं। इनके दिमाग और दिल एक दिशा में चल पड़ते हैं, जैसे कि अपने आंदोलन में। आपके अपने इस आंदोलन में क्या एक आदमी संचालन करता है? नहीं, एक आदमी संचालन नहीं कर सकता। क्या एक आदमी नियम बनाने के लिए आश्वासन दे सकता है? नहीं, एक आदमी के बस की बात नहीं है। एक आदमी फिजाँ बदल सकता है? एक आदमी नया जमाना ला सकता है?
एक आदमी लोक- समाज में हलचल पैदा कर सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मित्रो! फिर यह हलचल कौन पैदा करता है? नया जमाना कौन लाता है? एक हवा आती है। ठीक है गुरुजी कहते हैं कि एक हवा आती है। नहीं बेटे, अकेले गुरुजी के कहने से कोई फायदा नहीं है। वास्तव में जब इस एक ही बात को असंख्य व्यक्ति कहते हैं, उसका समर्थन करते हैं कि हाँ ऐसा होना चाहिए, तब इस बात को- आवाजें हलक को ‘नक्कारे खुदा समझो।’ जब हलक से आवाज निकलती है, तो वह नक्कारे खुदा है। जब हम कहते हैं कि ‘हम नया जमाना लाएँगे।’ ‘हम मनुष्य के भीतर देवत्व की स्थापना करेंगे।’ ‘हम संसार में पुनः स्वर्ग की स्थापना करेंगे।’ तो यह कौन कहता है- मैं नहीं, हम कहते हैं। हम और आप सब मिल करके- जमाने को मिला करके एक हवा है, एक दिशा है। ये कौन हैं? ये भगवान् हैं। जब कभी एक ठिकाने पर ये हवा पैदा होती है, जिन आदर्शों को पैदा करने के लिए यह आँधी- तूफान पैदा होता है, हलचलें पैदा होती हैं, तो आप समझ सकते हैं कि इसके पीछे भगवान् की हवा है। भगवान् की प्रेरणा काम कर रही है।
भगवान् का अवतार काम कर रहा है। इसी को मैं अवतार मानता हूँ। अवतार लोकशिक्षण के लिए क्या व्यक्ति के रूप में भी भगवान् का अवतार होता है? चलिए अब मैं आपकी बात का भी समर्थन करने को तैयार हूँ कि व्यक्ति के रूप में अवतार होता है। साकार रूप में भगवान् होता है। आप निराकार की बात पर ज्यादा विश्वास नहीं करते। अतः मैं आपको साकार की बात बताऊँगा कि कैसे भगवान् लीलाएँ करने आते हैं। व्यक्ति आता है। आप भगवान् की कथाएँ तो सुनते हैं, पर गहरे में क्यों नहीं जाते? भगवान् की सारी की सारी लीलाएँ, कथा- गाथाएँ इस बात पर टिकी हुई हैं कि भगवान् एक है। यह बात अलग है कि उसने लोकशिक्षण का तरीका क्या अख्तियार किया। जब कभी भगवान् के अवतार होते हैं, तो प्रत्येक बार वह अपने आचरण से जन- जन को शिक्षा और प्रेरणा देते हैं। लोकशिक्षण का यही सबसे जानदार और सबसे सफल तरीका है। मित्रो! लोगों के सामने बकवास करने की अपेक्षा, लोगों को उपदेश सुनाने या कथा सुनाने की अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा है कि आपने लोगों के सामने जो उपदेश दिए हैं, उसे स्वयं के जीवन में उतारकर बताएँ कि हमने इस तरीके से जीवन जिया है। दुनिया में सबसे ज्यादा प्रभावशाली तरीका यही है। इससे बढ़िया और बेहतरीन तरीका और कोई है ही नहीं। आप इस तरीके से चलिए, जिसे देखकर के लोग सोच सकें, समझ सकें कि जो सिद्धांत आप कहना चाहते हैं, समझना चाहते हैं, वे आपके रोम- रोम में इस कदर समाए हैं कि आप इस तरह का रास्ता अख्तियार किए बिना जिंदा नहीं रह सकते। अगर आप इतना ज्यादा विश्वास लिए हुए बैठे हैं, तो आपके विचार आपकी वाणी से और आपके आचरण से टपकने चाहिए। चलिए मैं तो यह भी कहता हूँ कि बिना वाणी के भी लोकशिक्षण किया जा सकता है। बहुत से लोगों ने अपनी जबान को बंद कर दिया था, लेकिन उनकी आस्थाएँ, उनकी निष्ठाएँ और जिंदगी का स्वरूप इतना शानदार और जबरदस्त था कि उन्होंने नई हवाएँ बना दीं, नई फिजाएँ पैदा कर दीं और न जाने दुनिया में कितनी हलचलें पैदा कर दीं।
आदमी के समझने का तरीका, सुझाने का तरीका, गुरु होने का तरीका वो है कि जबान से जो हमने लंबे- चौड़े व्याख्यान सुनाए हैं, कथाएँ सुनाई हैं, उनकी अपेक्षा अपनी जिंदगी का एक नमूना पेश करें। भगवान् कृष्ण हों या भगवान् राम अथवा और कोई अवतार, उन्होंने लोकशिक्षण का जो तरीका अख्तियार किया है, वह उनकी जिंदगी जीने का एक ढंग था। वह उनके काम करने की एक शैली थी। इस शैली के द्वारा उन्होंने लोगों से कहा कि आप स्वयं निश्चय कीजिए और उन सिद्धांतों को ढूँढ़िए, जिसके लिए हमें जन्म लेना पड़ा और जिसके लिए निरंतर कष्ट सहने पड़े। भगवान् कृष्ण की लीलाएँ, जो हमारे लिए और आपके लिए बिलकुल सामयिक हैं, आधुनिक हैं, अति उत्तम और अति प्राचीनतम भी हैं, वे हमको बताती हैं कि सिद्धांतों को जीवन में कैसे उतारें। उन सिद्धांतों को अपनाए बिना कोई महापुरुष रहा नहीं। उन सिद्धांतों को आपके मन में प्रवेश कराने के लिए भगवान् ने लीलाएँ दिखाईं- क्रीड़ाएँ कीं। श्रीकृष्ण की लीलाएँ भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाएँ क्या हैं? कृष्ण भगवान् जेलखाने में पैदा हुए, जो चारों तरफ से बंद था, जिसमें उनके माता- पिता बंद थे। जंजीरों से जकड़े हुए थे। उस स्थिति में एक बालक पैदा हुआ। सब ओर से घिरा हुआ जब बालक पैदा हुआ, तो उसके अंदर संकल्प की शक्ति थी। बालक यह संकल्प लेकर आया कि मुझे इन बंधनों से मुक्त होना है, और लोगों को बंधनों से मुक्त करना है।
परिस्थितियाँ कितनी विपरीत और विषम थीं, लेकिन वे किस तरह से टूटती चली गईं- कच्चे धागे की तरह से। भगवान् श्रीकृष्ण के बारे में हम किताबों में पढ़ते हैं कि उनके जन्मकाल में जेलखाने से बाहर निकलने के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। फिर भी भगवान् के संकल्प से सारे पहरेदार सो गए। सभी दरवाजे खुल गए, जंजीरें टूट गईं और पिता उस बच्चे को लेकर सुरक्षित रखने के लिए चल पड़े। भादों की घनघोर अँधेरी रात थी। जिस तरह आज की रात बादल छाए हुए हैं, पानी बरस रहा है, गंगा में बाढ़ आई हुई है, कुछ ऐसा ही दृश्य उस समय रहा होगा। जमुना में बाढ़ आई हुई थी। चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। प्रकाश कहीं था नहीं। लेकिन प्रकाश देने वाली एक ज्योति, जो इनसान के भीतर जला करती है और सहारा देती रहती है, जो मझधार में से पार निकालती रहती है। हमें मझधार में से दूसरे लोग पार नहीं निकालते हैं। हमारी अंतर्ज्योति ही हमको पार निकालती है। उन विषम परिस्थितियों में भी वासुदेव श्रीकृष्ण को टोकरी में लिए हुए आगे बढ़ते चले गए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ नंद- यशोदा का घर था। वहाँ उस बच्चे के रहने का इंतजाम कर दिया। मित्रो! यह घटना हमें क्या सिखाती है? यह हमें सिखाती है कि इनसान संकल्प तो करके देखे, निश्चय तो करके देखे, विश्वास तो करके देखे फिर हमसे कहे। आप यह तजुर्बा करके लाइए, फिर आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती। आप आगे बढ़ते हुए चले जाएँगे और आपको सफलता मिलती हुई चली जाएगी। आदमी की हिम्मत के अलावा दुनिया में और कोई शक्ति नहीं है, जो उसे पार लगा सके।
आदमी की हिम्मत सबसे बड़ी ताकत है। ज्वार- भाटे की अपनी ताकत हो सकती है, लहरों की अपनी ताकत हो सकती है, समुद्र की अपनी ताकत हो सकती है, लेकिन इनसान के संकल्प के आगे कोई और ताकत नहीं है। यही सब आदमी को सिखाने के लिए भगवान् ने अवतार लिया था। बेटे! अपने भीतर वाले को कमजोर मत होने दीजिए। भीतर वाले को मजबूत बनाइए। भीतर वाले को कमजोर बना देंगे, तो आप गिर जाएँगे। भीतर वाले को साहस के सहारे उठाएँगे, तो आप आगे बढ़ेंगे और दूसरा आदमी सहायता करने के लिए आएगा। अगर आप अपने को पीछे हटाएँगे, तो लोग आपसे पहले ही दूर हट जाएँगे। यह नसीहत कृष्ण भगवान् ने अपने जन्म के पहले दिन से ही आरंभ कर दी थी। उनके पिताजी ने भी यही बात बताई थी कि यदि परिस्थितियाँ अनुकूल रहती हैं, तो ठीक है, अन्यथा साहस और संकल्प के सहारे उन पर विजय पाई जा सकती है। अगर आपका उद्देश्य ऊँचा है और आपके अंदर साहस का अभाव नहीं है, तो परिस्थितियाँ आपके प्रतिकूल हो ही नहीं सकतीं। अगर आपका उद्देश्य नीचा है और आपके अंदर साहस का अभाव है, तो फिर आप गिरे या मरे ही समझना चाहिए। बेटे! यदि आपका उद्देश्य ऊँचा है, साहस आपका ऊँचा है, तो आपको सहायता देने के लिए सारी देवशक्तियाँ आगे आएँगी, चाहे कितना ही आपके मार्ग में अवरोध क्यों न हो। सारी सहायता आपको मिलती चली जाएगी। जन्माष्टमी का शिक्षण आज जन्माष्टमी के दिन यह है शिक्षण नंबर एक, जो भगवान् श्रीकृष्ण ने, उनके पिता ने अपनी घटना के द्वारा, अपने क्रियाकलाप के द्वारा हमको दिया। हम और आप तो बकवास करना जानते हैं और व्याख्यान करना जानते हैं। लेकिन भगवान् ने जो उदाहरण प्रस्तुत किया, वह कितना शानदार है।
देवकी इतना नहीं कर सकती थी,वासुदेव भी इतना नहीं कर सकते थे कि कंस का मुकाबला करें और उसे मार डालें। वे सामर्थ्यवान नहीं थे, शक्तिवान नहीं थे, विद्वान नहीं थे, नेता नहीं थे, लेकिन साहसी थे। किन्हीं अच्छे कामों के लिए आप भी साहसी बन सकते हैं। रीछ- वानरों के तरीके से अच्छे कामों में सहायता कर सकते हैं। रीछ और बंदर रावण को नहीं मार सकते थे, पर लंका जाने के लिए समुद्र पर पुल तो बना सकते थे। गिलहरी ज्यादा काम नहीं कर सकती थी, लेकिन समुद्र में मिट्टी तो डाल सकती थी। ठीक है, जो आदमी जिस हैसियत में रहता है, उससे आगे बढ़कर दूसरा काम नहीं कर सकता, वह अगली पंक्ति में नहीं खड़ा हो सकता, लेकिन अच्छे कामों में सहायता तो कर ही सकता है। गाय चराने वाले ग्वाले मामूली आदमी थे। उन्होंने कहा- ठीक है हम ज्यादा तो नहीं कर सकते, लेकिन भगवान् का उद्देश्य पूरा करने में अपनी लाठी का सहारा तो दे ही सकते हैं। अगर आप प्रेरणा लेना चाहें, तो आप इनसे प्रेरणा व श्रद्धा ले सकते हैं। भागवत् की कहानी कही जा रही है और लोगों द्वारा सुनी जा रही है। कहते हैं- इसको सुनने से बड़ा भारी पुण्य मिलता है। बेटे! कहानी कहने और सुनने भर से कोई पुण्य नहीं हो सकता। पुण्य केवल उस स्थिति में होगा, जब आप उससे प्रेरणा ग्रहण करेंगे, जीवन में उतारेंगे, प्रवेश करने देंगे और उसे बाहर अपने क्रियाकृत्यों में, व्यवहार में प्रकट होने देंगे। इससे कम में कोई पुण्य नहीं हो सकता। इसलिए मित्रो! भगवान्, भगवान् की क्रीड़ाएँ, लीलाएँ हमको दिशाएँ देती हैं, शिक्षण देती हैं। संघर्षों से लोहा लेना सिखाती हैं। मित्रो! संघर्षों से आदमी समर्थ होता है। संघर्षों से आदमी की श्रद्धा निखरती है। गुरुजी! संघर्ष आते हैं तो हमारे ऊपर बड़ी मुसीबत आती है।
तो बेटा, मुसीबत के बिना कोई भी आदमी दुनिया में बड़ा नहीं हुआ, तीखा नहीं हुआ, कामयाब नहीं हुआ। नहीं साहब, मुसीबत दूर कीजिए। मुसीबत हम जरूर कम कर देंगे, लेकिन साथ- साथ यह शाप भी देंगे कि तू मंदबुद्धि हो जा, फालतू हो जा, निकम्मा हो जा, कीड़ा-मकोड़ा हो जा। महाराज जी आप ये क्या कहते हैं? बेटे, ये तो साथ-साथ होगा, क्योंकि जो आदमी आराम की जिंदगी, चैन की जिंदगी, मानसिक चिंता रहित जिंदगी जिएगा, वह निकम्मा हो जाएगा, बेकार हो जाएगा। उसकी योग्यताएँ, प्रतिभाएँ, इच्छाएँ समाप्त हो जाएँगी और वह किसी काम का नहीं रहेगा, मुरदा बन जाएगा। संघर्ष ही जीवन मंत्र बने मित्रो! मनुष्य हमेशा से संघर्षों से घिरा पड़ा है। जो आदमी अपनी जिंदगी में संघर्षों से मुकाबला नहीं करते, वे जिंदगी का आनंद नहीं ले सकते। जो आदमी जरा भी श्रम नहीं करता, वह नींद का आनंद नहीं ले सकता। गहरी नींद का आनंद सिर्फ उस आदमी के हिस्से में आया है, जिसने कड़ी मशक्कत की है। हल जोतने वाला किसान दोपहर में आराम से बगीचे में जाकर हाथ का तकिया बनाकर खर्राटे भरता है और अपनी नींद पूरी कर लेता है। उसे आरामतलबों की तरह नींद के इंजेक्शन की कोई जरूरत नहीं पड़ती। रोज की गहरी नींद उनके हिस्से में आई है, दाल- रोटी उनके हिस्से में आई है, जिन्होंने कड़ी मशक्कत की है, जिन्होंने मेहनत की है। जिन्हें यही पता नहीं है कि जीवन संघर्ष क्या होता है, कठिनाइयाँ क्या होती हैं, उनका भी कोई जीवन है! साथियो, कठिनाइयाँ आदमी को निखारने के लिए, उभारने के लिए बेहद आवश्यक हैं। चाकू पर तब तक धार नहीं रखी जा सकती, जब तक कि उसे पत्थर पर घिसा नहीं जाएगा। इसके बिना पैनापन, तीखापन नहीं आ सकता। चाकू की धार नहीं निकल सकती।
मित्रो! मुसीबतें हमारी सबसे बड़ी मित्र हैं और सबसे बड़ी सुधारक- अध्यापक हैं, जो हमारी सारी- की कमजोरियों को चूर- चूर कर डालती है और हमारे भीतर हिम्मत का, बहादुरी का माद्दा पैदा करती हैं। कठिनाइयाँ हमें संघर्ष करना सिखाती हैं और न जाने क्या- क्या सिखाती हैं। यह इतनी बड़ी पाठशाला है कि इसमें से होकर आदमी प्रतिभावान निकलता है, नया जीवन लेकर निकलता है और जिन्होंने आराम की जिंदगी जी, हराम की जिंदगी जी, वे मिट्टी के होकर के रहे हैं, कीड़े होकर के रहे हैं। अमीरों के बच्चों को आप देख सकते हैं। अमीरी में पले हुए बच्चों का सत्यानाश हो गया। जो बच्चे गरीबी में पैदा हुए, कठिनाइयों में पैदा हुए, वे हीरे के तरीके से चमकते हुए निकले, तलवार के तरीके से दनदनाते हुए निकले। सीखें श्रीकृष्ण के जीवन से मित्रो! भगवान् ने इसीलिए कहा कि मुसीबतों से घबड़ाना मत। कठिनाइयों से भागो मत, उनसे कुछ सीखने की कोशिश करो। कठिनाइयों से जूझने के लिए भीतर से हलचल होनी चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण का प्रारंभिक जीवन यही सिखाता है कि आदमी को यदि भगवान् बनना है, महान् बनना है, तो उसे कठिनाइयों का आलिंगन करना चाहिए। कठिनाइयों को जानबूझकर चैलेंज करना चाहिए। तपश्चर्या का मतलब ही होता है- कठिनाइयों को जानबूझकर अपनाना और यह अभ्यास करना कि हम मुसीबत में हैं। मुसीबत हमें सबसे पहले बहादुरी के साथ संयम करना सिखाती है। तप आदमी को न जाने क्या से क्या बना देता है। संपत्ति, अमीरी आदमी को दुर्व्यसनी बनाती है, अनाचारी और दुराचारी बनाती है तथा असंख्य बुराइयाँ लेकर आती है। ऐय्याशी आदमी को गलाती है और उसे हजम कर जाती है। आदमी को गलत रास्ते पर ले जाती है। यह दौलत की लाभ- हानियाँ हैं और कठिनाइयाँ?
कठिनाइयों में जहाँ मुसीबतें उठानी पड़ती हैं, असंख्य दिक्कतें आती हैं, वहीं मनुष्य को अपनी भट्टी में गलाकर कुंदन भी बनाती है। तो मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी जिंदगी से यही सिखाया है कि कठिनाइयों से भागो मत। कठिनाइयों का मुकाबला करो। कठिनाई आदमी की क्षमता को निखारती है। ये इम्तिहान है, मनुष्य के लिए कि उसने सिद्धांतों के लिए कितना कष्ट सहा। इसी के आधार पर हम फेल और पास होते हैं। इसके अतिरिक्त और कोई कसौटी नहीं है। कसौटी एक ही है कि सिद्धांतों के लिए उसने क्या किया, कौन- सी मुसीबतें उठाईं। जिसने ऐसा नहीं किया, जिसके जीवन में कोई प्यार नहीं, कोई सेवा नहीं, कोई बलिदान नहीं, कोई परिश्रम नहीं है, उसे हम महापुरुष नहीं कह सकते। धिक्कार है ऐसे जीवन को। मित्रो! महापुरुषों को अपने जीवन में अनेकों कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी हैं, इम्तिहान देना पड़ा है। भगवान् कृष्ण को सारी जिंदगी लड़ना पड़ा है। उन्हें मारने के लिए कौन- कौन आए? कालिया नाग आया, पूतना आई, कंस आया और न जाने कितने असुर आए। उनकी जिंदगी में कितने ही असुर जबरदस्ती मारने आए, जबकि वे अपनी गली में, घर में ग्वाल- बालों के साथ खेलते- विचरते रहते थे। वस्तुतः जो आदमी मौत के साथ में जद्दोजहद कर सकते हैं, कठिनाइयों के साथ लड़ सकते हैं, उनका यश चारों ओर फैलता है। जो मुसीबतों के लिए- कठिनाइयों के लिए तैयार रहते हैं, उनकी हिम्मत निखरती जाती है। हिम्मत के बिना सफलता के पहाड़ पर चढ़ना किसी के लिए भी संभव नहीं है। भगवान् के जीवन की और कितनी ही सरस लीलाएँ मालूम पड़ती हैं। शुष्क जीवन, रूखा जीवन, नीरस जीवन कभी भी फलीभूत नहीं हो सकता। हँसने- हँसाने वाले जीवन में, हलकी- फुलकी जिंदगी में सरसता भरी रहती है और वह आप ही खिलती हुई चली जाती है। हँसी- खुशी की जिंदगी अगर आपकी है, तो आप हँसोगे, खिलखिलाएँगे, गाना गाएँगे और नहीं तो मुँह फुलाए बैठ रहेंगे और जिंदगी भर ये शिकायत- वो शिकायत करते रहेंगे। ये कमी है, वो कमी है- का रोना रोते रहेंगे। मित्रो! जो आदमी हँसता हुआ, खिलखिलाता हुआ रहता है, उसके चारों ओर खुशियाँ छाईं रहती हैं। हँसने- हँसाने वाले खुद भी खिलखिलाते रहते हैं और दूसरों को भी हँसाते रहते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण को देखिए- हँसने वाले भगवान्, हँसाने वाले भगवान्, रास करने वाले भगवान्, नाचने वाले भगवान्, बाँसुरी बजाने वाले भगवान्, साहित्यकार और कलाकार भगवान्, संगीत से प्रेम करने वाले भगवान् अरे आप इनसे कुछ तो सीखें और अपनी सारी जिंदगी को हलका बनाकर जिएँ। सारी जिंदगी हर समय मुँह फुलाकर रहने से जिंदगी जी नहीं जा सकती। इस तरह से आप खुद भी नाखुश रहेंगे और रोकर जिएँगे। शिकायतों पर जिएँगे, तो आप मर जाएँगे। जिंदगी इतनी भारी हो जाएगी कि उसे फिर ठीक नहीं कर पाएँगे। उसके नीचे आप दब जाएँगे, कुचल जाएँगे। अगर आप लंबी उम्र तक जिंदा और स्वस्थ रहना चाहते हैं, तब आप हँसने- हँसाने की कला सीखें। अगर आपको हँसना आता है, तो समझिए कि जिंदगी के राज को आप समझते हैं। साथियो! हँसी के लिए- हँसने के लिए ढेरों चीज हमारे पास हैं। आपके पास हर चीज नहीं है, तो क्या आप चिड़चिड़ाते हुए, शिकायत करते हुए बहुमूल्य जीवन को यों ही बरबाद कर देंगे? क्या आपको निखिल आकाश हँसता हुआ दिखाई नहीं देता। अगर आप कवि हृदय हैं, सरस हृदय हैं, तो आपको सब कुछ हँसता हुआ दिखाई पड़ सकता है। आकाश में बादल आते हैं, घुमड़ते हुए- बरसते हुए दिखाई पड़ते हैं, क्या आप इनका आनंद नहीं ले सकते? नदियाँ कल- कल करती हुई बहती हैं, क्या आप इनका आनंद नहीं ले सकते? आपको इनका आनंद लेना चाहिए और आप को कलाकार होना चाहिए। जिंदगी जीने की कला को आपको समझना चाहिए। जिंदगी में आनंद के अनुभव होने चाहिए। जीवन में हँसने का समय होना चाहिए, हँसाने का समय होना चाहिए। जिन्दगी की कला के शिक्षक भगवान् को हम कलाकार कहते हैं। श्रीकृष्ण भगवान् ने रास- लीला के माध्यम से हलकी- फुलकी जिंदगी, हँसने- हँसाने वाली जिंदगी की कला सिखाई। रास- लीला गाने की विद्या है, नृत्य की विद्या है।
नहीं साहब! श्रीकृष्ण भगवान् ने तो हँसने- हँसाने की विद्या बहुत छोटेपन में सीखी थी, हम तो उम्र में बड़े हो गए हैं। नहीं बेटे, बड़ी उम्र के हों तो क्या, योगी हों तो क्या, तपस्वी हों तो क्या, ज्ञानी हों तो क्या, महात्मा हों तो क्या? हँसना आपको भी आना चाहिए, हँसाना आपको भी आना चाहिए। गाँधी जी के नजदीकी मुझे बहुत दिन रहने का मौका मिला। शुरू में वे जिस कोठी में रहते थे, उससे मैं दूर रहता था, तो मुझे बार- बार उनके हँसने की आवाज आती थी। उन दासता के दिनों वे इतने गंभीर विषयों पर बातें करते थे, जैसे कि वेश्याओं की समस्या, अन्यान्य सामाजिक समस्या, करोड़ों लोगों के भाग्य के निर्माण की समस्या- इतनी समस्याओं के बीच भी मैंने उनको हँसते हुए देखा है। हमारे- आपके पास तो यह भी समस्या नहीं है। आपके पास क्या समस्या है? बस एक ही समस्या है- बेटे की और पैसे की। देश, समाज और संस्कृति को तो आप जानते भी नहीं हैं कि उनके प्रति भी आपका कुछ उत्तरदायित्व है। लेकिन मैंने गाँधी जी को इन तमाम समस्याओं के बाद भी हँसते हुए देखा है। एक बार उनसे पूछा कि बापू एक बात तो बताइए कि आप इतने गंभीर रहते हैं, इतनी चिंताओं से घिरे रहते हैं, इतने गंभीर विषय आपके पास हैं। इतनी असफलताएँ आपके पास आती हैं, इतनी समस्याओं का समाधान सुझाते हैं, पर इस कदर आप हँसते कैसे हैं? गाँधी जी ने कहा- मैं इसीलिए एक सही जिंदगी जी पा रहा हूँ। मेरे जिंदा रहने का और कोई तरीका नहीं। अगर मैं खुश नहीं, तो मेरी मौत, मेरी हँसी नहीं, तो मेरी मौत समझो।’’ मित्रो! जिसके चेहरे पर हँसी नहीं आती है, उसे बस मरा ही समझो।
श्रीकृष्ण भगवान् ने वह कला सिखाई, जिसको हम जिंदगी का प्राण कह सकते हैं, जीवन कह सकते हैं। ‘राम’ इसी का नाम है। नहीं साहब, इसमें तो बहुत रंगदारी है? नहीं बेटे, इसमें स्वाभाविकता है, शालीनता है। आप महाभारत पढ़ लीजिए, भागवत् पढ़ लीजिए, जिस समय तक उन्होंने रास- लीला की है, तब उनकी उम्र दस साल की थी। दसवें साल तक सब रास- लीला बंद हो गई थी। सात साल की उम्र से प्रारंभ हुई थी और दस साल की उम्र में सब रास- लीला खत्म हो गई थी। दस साल से ज्यादा में कोई रास- लीला नहीं खेली गई। उसमें कामुकता नहीं थी, ब्याह- शादी की कोई बात नहीं थी।’’ हर्षमय जीवन तब उसमें क्या बात थी? उसमें था हर्षमय- आनंदमय जीवन, उसमें कन्हैया ने चाहा कि छोटे- छोटे बच्चे हों, साथ- साथ घुल- मिल कर हँसे- खेलें स्त्री- पुरुष के बीच शालीनता का क्या फर्क होना चाहिए, शील और आचरण का क्या फर्क होना चाहिए, यह जानें। अगर एक दूसरे को अलग कर देंगे, काट देंगे, तो फिर आप किस तरह से जिएँगे। माँ- बेटे साथ- साथ नहीं रहेंगे, तो किसके साथ रहेंगे? बाप- बेटी भाई- बहिन साथ- साथ नहीं रहेंगी। बेटी बाप की गोदी में नहीं जाएगी, क्योंकि वह स्त्री है और ये पुरुष है। दोनों को अलग कीजिए, छूने मत दीजिए। औरत को इस कोने में बैठाइए और मर्द को उस कोने में बैठाइए। अरे भाई, ये कहाँ का न्याय है? स्त्री और पुरुष कंधे- से कंधा मिलाकर काम करें, गाड़ी के दो पहियों के तरीके से काम करें, तो ही जीवन में आनंद है, प्रगति है। आज भी हमारे यहाँ रिवाज है कि मर्द औरत को नहीं देखने पाए और औरत मर्द को। वह घूँघट मारकर घर में रहे और पुरुष बाहर रहें। साथ- साथ नहीं चल पाएँ। ये भी कोई बात है। मित्रो! श्रीकृष्ण भगवान् ने उस जमाने में लड़के- लड़कियों की एक सेना पैदा की और उसे एक दिशा दी। उन्होंने कहा कि लड़के और लड़कियों में अंतर करने से क्या होगा। हम और आप सब बच्चे हैं। स्त्री और पुरुष में क्या फर्क होता है? स्त्रियों को मूँछें नहीं आतीं और मर्द को मूँछें आती हैं। मूँछ आने से क्या फर्क हो गया? स्त्रियाँ मूँछें लगा लें तब? तब फिर वे मर्द हो जाएँगी और पुरुष मूँछ हटा लें, तो वे औरत हो जाएँगे। अरे महाराज जी आप ये क्या कहते हैं? हाँ बेटा, यही फर्क है। उस जमाने का पुरुषवादी समाज, परस्त्रीगामी समाज, जिसमें पाप और अनाचार का बंधन नहीं लगाया गया था, केवल स्त्री- पुरुष को अलग रखने की व्यवस्था की गई थी। जहाँ शील आँखों में रहता है, उस पर ध्यान नहीं दिया गया था, केवल शारीरिक बंधनों से शील की रक्षा करने की कोशिश की गई थी, श्रीकृष्ण भगवान् ने उसे तोड़ने की कोशिश की। भगवान् श्रीकृष्ण का जीवन सिद्धांतों का जीवन था, आदर्शों का जीवन था। उनकी सारी लीलाएँ सिद्धांतों और आदर्शों को प्रख्यात करने वाले जीवन से ओतप्रोत थीं। भगवान् राम की लीलाएँ इससे आगे चली जाती हैं। उनके जीवन में एक कमी रह गई थी। क्या कमी रह गई थी? लोगों के साथ शराफत करने का वास्ता, जो उन्होंने पढ़ा था। उनके पिताजी बड़े शरीफ थे। उन्होंने आज्ञा दी कि आपको वनवास चले जाना चाहिए।
रामचंद्र जी ने कहा- ठीक है, ऐसे धर्मपरायण शालीन पिता यदि आज्ञा देते हैं और हमको वनवास जाने का मौका मिलता है, तो हमें चले जाना चाहिए। भरत जैसा भाई यदि राजपाट सँभाल लेता है, तो वह और अच्छी तरह से चलेगा। उसमें कोई कमी नहीं आने वाली है। प्रेमभाव भी बना रहेगा, मुझे भी शांति मिलेगी। अतः मैं वनवास चला जाता हूँ, तो हर्ज की क्या बात है। इस सिद्धांत को लेकर उन्होंने राजगद्दी भरत के हवाले कर दी और बाप का कहना मान लिया। अपूर्णता को पूरा किया मित्रो! बात चल रही थी- श्रीकृष्ण भगवान् की। कृष्ण भगवान् का रास्ता दूसरा था। रामावतार में जो अभाव रह गया था, जो कमी रह गई थी, जो अपूर्णता रह गई थी, वह उन्होंने पूरी की। इस बात से फायदा यह हुआ कि यदि शरीफों से वास्ता न पड़े, तब क्या करना चाहिए? खराब लोगों से वास्ता पड़े तब, खराब भाई हो तब, खराब मामा हो तब, खराब रिश्तेदार हो तब, क्या करना चाहिए? तब के लिए श्रीकृष्ण भगवान् ने नया रास्ता खोला। इसमें विकल्प हैं। इसमें शरीफों के साथ शराफत से पेश आइए। जहाँ पर न्याय की बात कही जा रही है, उचित बात कही जा रही है, इनसाफ की बात कही जा रही है, वहाँ पर आप समता रखिए और उसको मानिए और आप नुकसान उठाइए। लेकिन अगर आपको गलत बात कही जा रही है, सिद्धांतों की विरोधी बात कही जा रही है, तो आप इनकार कीजिए और उससे लड़िए और यदि जरूरत पड़े, तो मुकाबला कीजिए और मारिए। कंस श्रीकृष्ण भगवान् के रिश्ते में मामा लगता था। लेकिन वह अत्याचारी और आततायी था, अतः उन्होंने यह नहीं देखा कि रिश्ते में कंस हमारा कौन होता है। उन्होंने न केवल स्वयं ऐसा किया, वरन् अर्जुन से भी कहा कि रिश्तेदार वो हैं, जो सही रास्ते पर चलते हैं। सही रास्ते पर चलने वालों का सम्मान करना चाहिए, उनकी आज्ञा माननी चाहिए, उनका कहना मानना चाहिए। उनके साथ- साथ चलना चाहिए। लेकिन अगर हमको कोई गलत बात सिखाई जाती है, तो उसे मानने से इनकार कर देना चाहिए। यह परंपरा कितने युगों से चली आ रही है कि पिता का कहना मानना चाहिए। लेकिन अगर कोई गलत बात मानने के लिए कही जाती है तब? तब पिता का कहना प्रधान नहीं है। तब कहना चाहिए कि मैं गलत बात नहीं मानूँगा।
गलत बात कहता है और पिता बनता है। गलत बात कहने वाला व्यक्ति पिता नहीं हो सकता। नहीं बेटे, हम तो तेरे पिताजी हैं और तेरे दहेज में पच्चीस हजार रुपया लेंगे। देख तुझे मेरी आज्ञा माननी होगी। पच्चीस हजार रुपये लेंगे। देख तुझे मेरी आज्ञा माननी होगी। देख श्रवण कुमार ने अपने पिता की आज्ञा मानी थी और भीष्म पितामह ने आज्ञा मानी थी। श्रवण कुमार ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वो ऋषि थे। भीष्म पितामह ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वे शांतनु थे और राम ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वो दशरथ थे। तू तो काम करता है चांडाल के, बात करता है कसाई की और हुक्म देता है। हमसे बात मनवाएगा। हम नहीं मानेंगे, चला है बाप बनने। मात्र एक ही रिश्तेदार धर्म मित्रो कृष्ण भगवान् की दिशाएँ और शिक्षाएँ यही थीं कि कोई हमारा रिश्तेदार नहीं है। हमार रिश्तेदार सिर्फ एक है और उसका नाम है- धर्म हमारा रिश्तेदार एक है और उसका नाम है- कर्तव्य आप ठीक रास्ते पर चलते हैं, तो हम आपके साथ हैं और आपके हिमायती हैं। बाप के साथ हैं, रिश्तेदार के साथ हैं। अगर आप गलत रास्ते पर चलते हैं, तो आप रिश्ते में हमारे कोई नहीं होते। हम आपकी बात को नहीं मानेंगे और आपको उजाड़कर रख देंगे। मित्रो! ये हैं श्रीकृष्ण भगवान् के जीवन की गाथाएँ, जो राम के जीवन की विरोधी नहीं हैं, वरन् पूरक हैं। राम के अवतार में जो कमी रह गई थी, उसे कृष्ण अवतार में पूरा किया। राम का वास्ता अच्छे आदमियों से ही पड़ता रहा।
अच्छे संबंधी मिलते रहे। उन्हें सुमंत मिले तो अच्छे, कौशल्या मिली तो अच्छी, लक्ष्मण मिले तो अच्छे। उन्हें सब शरीफ ही मिलते गए। अगर शरीफ आदमी न मिलते तो क्या करते? तब श्रीकृष्ण भगवान् ने जो लीला करके दिखाई, वही वे भी करते। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि तू लड़, चाहे तेरे गुरु हों या कोई भी क्यों न हों। गुरु हैं, तो क्या हुआ? भाई हैं, तो क्या हुआ? मामा हैं तो क्या हुआ? कोई भी क्यों न हों, जब गलत काम करते हैं, तो हमारे कोई नहीं, सब विरोधी हैं। भगवान् ने यह शिक्षण अपने विरोधी मामा से लोहा लेकर के दिया। जिंदगी बादलों की तरह जी भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी सारी जिंदगी बादलों के तरीके से जी। उन्होंने कहा- हमारा कोई गाँव नहीं है। सारा गाँव हमारा है। जहाँ कहीं भी हमारी जरूरत होगी, हम वहाँ पर जाएँगे। वे कहाँ पैदा हुए? वे मथुरा में पैदा हुए, फिर गोकुल में बसे, वहाँ गाय चराई। उज्जैन में पढ़ाई- लिखाई की। दिल्ली में- कुरुक्षेत्र में लड़ाई- झगड़े में भाग लिया और फिर न जाने कहाँ- कहाँ मारे- मारे फिरते रहे। आखिर में कहाँ चले गए? आखिर में द्वारिका चले गए। आपके ऊपर तो होम सिकनेस हावी हो गई है, जो घर से आपको निकलने ही नहीं देती। अरे साहब! घर से बाहर कैसे निकलें, हमें तो घरवालों की याद आती है, हमारा पोता याद करता होगा, पोती याद करती होगी। हम अपने घर से बाहर नहीं जाएँगे, गाँव में ही हवन कर लेंगे। सौ कुंडीय यज्ञ, तो हमारे गाँव में ही होगा।
मंदिर बनेगा, तो हमारे गाँव में ही बनेगा। अस्पताल बनेगा, तो हमारे गाँव में ही बनेगा। गाँव- गाँव रट लगाता रहता है। श्रीकृष्ण भगवान् ने इस मान्यता को समाप्त किया और कहा कि सारे गाँव हमारे हैं। हर जगह हमारी जन्मभूमि है। वे दो बार मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश गए, दिल्ली गए। वे सब प्रदेशों में गए बादलों के तरीके से। मित्रो! सिस्टर निवेदिता, एनीबेसेंट कहाँ पैदा हुई? योरोप में पैदा हुईं। उन्होंने देखा कि हिंदुस्तान में महिलाओं की स्थिति गिरी हुई है। महिलाओं की जो ऊँची स्थिति योरोप में है, वही हमको यहाँ करना है। यहाँ क्या करेंगे? जहाँ हमारी जरूरत होगी, वहाँ चले जाएँगे। सिस्टर निवेदिता हिन्दुस्तान आ गईं, एनीबेसेंट हिंदुस्तान में आ गईं। सी.एफ. एण्ड्र्यूज हिंदुस्तान में आ गए। वे कितने जबरदस्त थे, उनके यहाँ कुछ कमी नहीं थी, लेकिन हिंदुस्तान में उन्होंने अपनी- अपनी जिंदगियाँ खत्म कर दीं। हिंदुस्तान की मिट्टी में उनकी हस्ती तबाह हो गई। इसी तरह गाँधी जी पोरबंदर में पैदा हुए और कहाँ चले गए? साबरमती चले गए। जब तक स्वराज नहीं मिला, आजादी नहीं मिली, वे दर- दर भटकते फिरे, गाँव- गाँव घूमते फिरे। महापुरुषों की कोई जन्मभूमि नहीं होती, कोई गाँव नहीं होता, वरन् सारा संसार ही उनका अपना घर होता है। मित्रो! लोग अपनी- अपनी जन्मभूमि की रट लगाते रहते हैं कि यह मेरी जन्मभूमि है, वह मेरी जन्मभूमि है। अरे, जन्मभूमि किसकी होती है? जो केवल शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं, उन्हीं की जन्मभूमि होती है, श्रेष्ठ मनुष्यों की कोई जन्मभूमि नहीं होती। हमारी तो हर जगह जन्मभूमि है। जहाँ कहीं भी हमारी आवश्यकता पड़ेगी, हम वहीं बस जाएँगे। नहीं साहब, हमारी तो अमुक जगह जन्मभूमि है और हम वहीं जाएँगे। नहीं, कोई जन्मभूमि नहीं। शंकराचार्य कहाँ पैदा हुए थे? केरल में पैदा हुए थे। परंतु वे सारे हिंदुस्तान में घूमते फिरे। उनकी प्रेरणा से दक्षिण भारत के लोग उत्तर में आ गए और उत्तरभारत के लोग दक्षिण भारत में चले गए। कुमारजीव कश्मीर में पैदा हुए थे और सूडान होते हुए मंगोलिया चले गए और चीन में मर- खपकर खत्म हो गए। ईसा कहाँ पैदा हुए थे? कहाँ जन्म लिया और कहाँ- से चले गए। मोहम्मद साहब मक्का में पैदा हुए और मदीने चले गए। वहाँ रहे और बाद में उस गाँव को छोड़कर और कहीं चले गए। नहीं साहब! हम तो अपने गाँव में रहेंगे और गाँव को ही सब कुछ बनाएँगे और वहीं मरेंगे। नहीं, मित्रो इसकी कोई जरूरत नहीं है।
जहाँ कहीं भी जगह है; जहाँ कहीं भी भूमि है; जहाँ कहीं भी मौका है, जहाँ कहीं भी आपकी आवश्यकता है, आप वहाँ जाइए। नहीं साहब, हम तो गाँव में ही रहेंगे। गाँव में ही हमारे बच्चे रहेंगे। हमारे ही गाँव में पुस्तकालय बनेगा। नहीं कोई जरूरत नहीं, जब आपके गाँव में बिना पढ़े- लिखे लोग हैं, तो आप क्यों बनाते हैं- अपने गाँव में पुस्तकालय। गाँव- गाँव चिल्लाते हैं। यह ‘होम सिकनेस’ की, औरों से अपने को अलग करने की प्रवृत्ति है। नहीं साहब, इसके कारण तो सब छोड़कर चले गए। चले गए, तो चले गए, उनसे क्या मोहब्बत? मोहब्बत करनी है तो सिद्धांतों से कीजिए, आदर्शों से कीजिए। गाँव से क्या मोहब्बत, क्या रिश्ता? इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमें श्रीकृष्ण भगवान् के जीवन में देखने को मिलता है। भगवान् की ये कथाएँ और प्रेरणाएँ हमें यही सिखाती हैं कि जहाँ हमारी आवश्यकता है, हमें वहीं बादलों के तरीके से जाना चाहिए। अध्यात्म का यही है सही रूप मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण की कथाएँ और प्रेरणाएँ हमको जाने क्या- क्या सिखाती हैं। श्रीकृष्ण का जीवन हमें अध्यात्म का सही स्वरूप जानने की प्रेरणा देता है। आपने तो अध्यात्म का जाने क्या- क्या अर्थ निकाल रखा है। आपके हिसाब से अध्यात्म हो सकता है- भजन ध्यान, कुंडलिनी जगाना और आज्ञाचक्र जगाना। दंड- कमंडल लेकर ठाले- निठल्ले बैठे रहते हैं और बेकार की बातें करते हैं। जब मुसीबत आती है, तो यहाँ- वहाँ मारे- मारे भागते- फिरते हैं। सनक में जीते हैं। बैठे- बैठे योगीराज बनने का ढोंग करते और चित्र- विचित्र स्वाँग रचते रहते हैं। ऐसे लोग अफीमची की तरह सनकते रहते हैं और फालतू बकवास करते रहते हैं। इसे हम अध्यात्म नहीं कह सकते। मित्रो! अध्यात्म क्या हो सकता हैं? अध्यात्म केवल वह है, जो हमारे क्रियाकलाप में शामिल हो। यह बात हमने शुरू में ही बताई है। अध्यात्म को हम आपके क्रियाकलाप में देखना चाहते हैं। आज्ञाचक्र जगने का मतलब आपका जीवन- चक्र घूमा कि नहीं घूमा?
नहीं महाराज जी, यह तो केवल सिर में घूमेगा। बेटे, सिर में कोई चक्र नहीं घूमता। घूमता है, तो सारे क्रियाकलापों में घूमता है। केवल घर में ही नहीं, सारे संसार में चक्र घूमता है। भगवान् ने अपनी लीला के माध्यम से धर्मचक्र को घुमाया। वह धर्मचक्र जो रुक गया था, जिसका पहिया जाम हो गया था। उस पहिए को उन्होंने घुमाया, न केवल हिंदुस्तान में, वरन् सारे विश्व में घुमाया। धर्म का चक्र इसी को कहते हैं। नहीं महाराज जी, चक्र तो सिर में घूमता है, आज्ञाचक्र में घूमता है। पागल कहीं का, सनकता रहता है और बे सिर पैर की बातें करता है। चक्र को जाने क्या समझ लिया है। गीता का कर्मयोग इसलिए मित्रो, श्रीकृष्ण भगवान् ने गीता में अध्यात्म का सूत्र समझाया। गीता का कर्मयोग बतलाया। गीता के कर्मयोग में उन्होंने कहा कि कर्म करने का अधिकार मनुष्य को है, किंतु फल प्राप्त करने के लिए हैरान होने की, उतावली करने की आवश्यकता नहीं है। काम करो, ईमानदारी से काम करो, शराफत से काम करो। बस, वही काफी है- आपके आत्मसंतोष के लिए। फल मिला या नहीं? हम नहीं जानते कि फल क्या मिलेगा या क्या नहीं मिलेगा? बहुत से आदमी दुनिया में ऐसे हुए हैं, जिन्होंने बेहद अच्छे- अच्छे काम किए हैं, लेकिन ईसामसीह को फाँसी पर चढ़ा दिया गया, सुकरात को जहर का प्याला पिला दिया गया। न जाने कितने अच्छे- अच्छे आदमियों को क्या- क्या किया गया। अतः हम सफलता की कोई गारण्टी नहीं ले सकते, लेकिन हम आपको शांति की गारंटी दे सकते हैं। मित्रो! अगर आप शराफत के मार्ग पर चलेंगे और यह समझते रहेंगे कि हम नेक काम कर रहे हैं, शराफत का काम कर रहे हैं, तो फिर जटायु के तरीके से आपको सफलता मिल जाए, तो क्या और न मिले, तो क्या- कोई अंतर नहीं पड़ेगा। आततायी रावण से सीता को छुड़ाते हुए जटायु मारा गया, उसे नेक काम के लिए अपनी जिंदगी देनी पड़ी, लेकिन जटायु को आप हारा हुआ नहीं कह सकते।
भगतसिंह को फाँसी लग गई- तख्त पर टाँगा गया। ईसा को कीलें गाड़ दी गईं, लेकिन हम ईसा को हारा हुआ नहीं कहेंगे, भगतसिंह को मरा हुआ नहीं मानेंगे, जटायु को हारा हुआ नहीं मानेंगे। सफलता- असफलता से क्या बनता- बिगड़ता है? सफलता- असफलता की कोई कीमत नहीं। आप ने सही काम किया; नहीं किया, आपके लिए इतना ही काफी है। यह न देखें कि मिला क्या? साथियो! कर्मयोग में भगवान् ने यह बताया है कि आप यह मत देखिए कि उसमें फायदा हुआ कि नहीं? हमने जो चाहा था, वह मिला कि नहीं मिला? मिलना, न मिलना आपके हाथ की बात नहीं है। यह परिस्थितियों और प्रारब्ध की बात है। यह आपके प्रारब्ध की बात है कि दूसरे लोगों की सहायता या बिना सहायता के आप क्या कर सकते हैं? किसी कार्य का क्या फल मिलता है, आपके हाथ में यह कुछ नहीं है। लेकिन एक बात पूरी तरह से आपके हाथ में है कि आप अपनी जिम्मेदारियाँ निभाएँ और कर्तव्य को पूरा करें। आप कर्तव्यों को पूरा करेंगे, जिम्मेदारियों को निभाएँगे, तो यकीन रखिए, आपको वह लाभ मिल जाएगा, जो कि योगी को मिलना चाहिए, संत को मिलना चाहिए और ज्ञानी को मिलना चाहिए। यही गीता का कर्मयोग है। गीता में अर्जुन को भगवान् ने कर्मयोग की शिक्षा दी और उसे कर्म में लगाया। उन्होंने अर्जुन से कहा कि कर्म कर, सारी- की जिंदगी की प्रतिक्रिया को अपना योग मान। गृहस्थ को योग मान। समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को योग मानकर अपने कर्तव्य को पूरा करता जा। मित्रो, यह उनका कर्मयोग था। एक बार अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से कहने लगा कि भगवान् मैं तो आपके विराट् स्वरूप का दर्शन करना चाहता हूँ। उन्होंने कहा कि भगवान् के दर्शन इन आँखों से नहीं हो सकते। इन आँखों से मिट्टी देखी जा सकती है, पत्थर देखे जा सकते हैं। इससे हाड़- माँस देखा जा सकता है। पंचतत्त्वों से बनी आँखें सिर्फ पंचतत्त्व देख सकती हैं।
भगवान् पंचतत्त्वों से बड़ा है, इसलिए कभी किसी ने भगवान् को नहीं देखा और इन आँखों से कोई देख भी नहीं सकता। भगवान् को देखने के लिए आँखें ही काफी नहीं हैं और आँख से भगवान् को देखने की किसी के लिए भी गुंजाइश नहीं है। दिव्य विराट् रूप तो फिर भगवान् को कैसे देखा जा सकता है? इस पर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- दिव्यं ददामि ते चक्षुः’’ अर्थात् मैं तुझे दिव्य आँखें दूँगा, विवेक की आँखें दूँगा, ज्ञान की आँखें दूँगा। मात्र ज्ञान की आँख से ही भगवान् को देखा जा सकता है और किसी तरीके से नहीं। चमड़े की आँख से आप भगवान् को नहीं देख सकते। इससे आप पत्थर देख आइए। नहीं साहब, हम तो इसी से भगवान् को देखेंगे। नहीं, आप इससे भगवान् को नहीं देख सकते। जब यह चमड़े का विषय ही नहीं, तो आप देख कहाँ से लेंगे? आपने क्या ठंडक देखी है, नहीं साहब, हमने तो केवल बरफ देखी है, ठंड तक नहीं देखी। तो क्या आपने गरमी देखी है? नहीं गरमी भी नहीं देखी है, आग देखी है। आग की बात हम पूछते हैं, गरमी की बात पूछते हैं। नहीं साहब, गरमी तो नहीं देखी है। अच्छा, तो हमारा प्यार देखा है?
महाराज जी! प्यार तो आपका नहीं देखा। हाँ, आपके चेहरे की स्मित, मुस्कान देखी है। मित्रो! हम प्यार की बात पूछते हैं, मुस्कान की नहीं। मित्रो! अच्छा बताइए, आपने मेरा ज्ञान देखा है? नहीं महाराज जी, ज्ञान भी नहीं देखा। ज्ञान आपने देखा नहीं, प्यार देखा नहीं, गरमी देखी नहीं, ठंड देखी नहीं, तो फिर आप भगवान् को कैसे देखेंगे? नहीं महाराज जी! भगवान् दिखा दीजिए। पागल कहीं का- भगवान् देखेगा। भगवान् भी कोई देखने की चीज है! भगवान् किसी ने नहीं देखा है। अर्जुन भी कह रहा था कि भगवान् को दिखा ही दीजिए। श्रीकृष्ण ने कहा- चल तुझे दिखाते हैं। उन्होंने अपना विराट् रूप दिखाया और कहा- देख यही है भगवान्। यही स्वरूप उन्होंने अपनी माता यशोदा को भी दिखाया था। राम ने भी अपनी माता कौशल्या को अपना विराट् रूप दिखाया था। उन्होंने काकभुशुंडि को दिखाया था और कहा था कि देख यही मेरा विराट् रूप है। मर्म समझिए साथियो! अगर आप आँखों से भगवान् को देखना चाहते हों, तो संसार में जितनी दिव्य शक्तियाँ हैं, जितनी दिव्य विचारधाराएँ हैं और जितने दिव्यकर्म दिखाई पड़ते हैं, उनमें आप भगवान् की क्रीड़ा को देख सकते हैं। यही उनके क्रीड़ा करने योग्य स्थल हैं। उनको ही आप अक्षत चढ़ाइए, जल चढ़ाइए, अगरबत्ती जलाइए। उसमें ही अपनी अक्ल लगाइए अर्थात् ध्यान कीजिए। ध्यान करने का मतलब है- भगवान् के लिए अपनी अक्ल खरच करना।
‘अक्षतांन् समर्पयामि’ का अर्थ है- अपनी कमाई का एक हिस्सा लोकमंगल में लगा देना। ‘आचमनं समर्पयामि’ एवं ‘स्नानं समर्पयामि’ अर्थात् पानी चढ़ा देने का भी यही मतलब होता है- समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिए, लोगों को अच्छा बनाने के लिए, दुनिया में भलाई लाने के लिए अपना पसीना बहाइए, अपनी अक्ल लगाइए, अपना पैसा खरच कीजिए। नहीं महाराज जी, मैं तो तीन चम्मच पानी चढ़ाऊँगा, तो पुण्य हो जाएगा। हाँ बेटे, चाहे तीन चम्मच चढ़ा, चाहे चार, इनसे कुछ बनता- बिगड़ता नहीं। अरे चढ़ाना है, तो वह चढ़ा, जो इसके पीछे कुछ शिक्षा है, प्रेरणा है, नहीं महाराज जी! भगवान् तो पानी चढ़ाने से ही प्रसन्न हो जाते हैं। तो फिर ठीक है, चम्मच से ही क्यों चढ़ाता है? सावन के महीने में तीन घड़े पानी भर ले और उनकी पेंदी में सुराख करके भगवान् के ऊपर टाँग दे। चौबीस घंटे पानी टपकता रहेगा। सारे दिन ‘आचमनं समर्पयामि’ का पाठ चलता रहेगा और चौबीस घंटे का स्नान भी। न बार- बार नहलाना पड़ेगा, न धुलाना पड़ेगा, न बार- बार चम्मच डालना पड़ेगा, अपने आप बैठे- बैठे भगवान् जी नहाते रहेंगे। अरे मूर्ख, पानी चढ़ाने का अर्थ है- पसीना बहाना, श्रम करना। अच्छाई के लिए मेहनत करना। पूजा- अर्चना के पीछे, कर्मकाण्डों के पीछे छिपे हुए भाव, शिक्षा एवं प्रेरणाओं को समझना बहुत जरूरी है। संघ शक्ति का जागरण भगवान् ने गीता में हमें यही उपदेश सिखाया और यह कहा कि कोई भी श्रेष्ठ कार्य बिना श्रम और सहयोग के संभव नहीं है। उदाहरण के लिए, जब उन्होंने पहाड़ उठाया, तो ग्वाल- बालों से कहा कि आप जरा हिम्मत कीजिए, हमारे साथ आइए और हमारी मदद कीजिए, अपनी लाठी का सहारा लगाइए। मित्रो! जनता को साथ लिए वगैरह आप कुछ भी नहीं कर सकते।
अकेले आप समाज को सुधारेंगे? नहीं, आप अकेले कुछ भी नहीं कर सकते। आप लोगों को साथ बुलाइए, साथ लेकर चलिए। नहीं साहब, हम बड़े ज्ञानी हैं, बड़े विद्वान हैं। ठीक है, आप विद्वान हैं, तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन आपके साथ में लोकशक्ति है कि नहीं? आप जनता के पास जाइए, और लोकशक्ति बढ़ाइए। लोकशक्ति को जगाए बिना राम का उद्धार नहीं हो सका, कृष्ण का उद्धार नहीं हो सका, बुद्ध का उद्धार नहीं हो सका और गाँधी का उद्धार नहीं हो सका, किसी का भी उद्धार नहीं हो सका, और न कभी हो सकता है। जनशक्ति को जगाइए, जनता के पास जाइए, जनता को साथ लीजिए। जनसहयोग लीजिए। श्रीकृष्ण भगवान् का गोवर्द्धन उठाना, महाभारत में सेना को खड़ा कर देना, इस बात का सबूत है कि उन्होंने जो काम किए, मेहनत से किए और लोगों की सहायता से किए हैं— जनशक्ति को साथ लेकर किए हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के ब्याह- शादी के बारे में कितनी ही किंवदंतियाँ मालूम पड़ती हैं। अभी जो आपको हम भगवान् की कथा बताने वाले थे, उसमें पहला विषय श्रीकृष्ण भगवान् के शादी- ब्याह वाला किस्सा ही था। लोगों ने उनके विवाह और रास को इतना घिनौना बना दिया है, जिसे हम नहीं चाहते कि हमारे पिता के ऊपर- हमारे बुजुर्गों के ऊपर ऐसे गंदे और वाहियात आक्षेप लगाए जाएँ। हम इस बकवास को सुनना नहीं चाहते और न इस तरह की रासलीला को देखने का हमारा जरा- सा भी मन है और न फुरसत है। नहीं, गुरुजी, रास देख लीजिए। नहीं बेटे, हम रास नहीं देखना चाहते। हम शिक्षा वाला नाटक देखना चाहते हैं, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण ने यह करके दिखाया था कि अपना राज्य सुदामा की सुपुर्द कर दिया था और तप करने चले गए। यह हमें पसंद है और इसे हम हजार बार देखेंगे। क्यों महाराज जी, आपने तो गोपियों वाली रासलीला और वह कपड़े चुराने वाली लीला देखी है? नहीं बेटे, यह रासलीला हमको नापसन्द है, क्योंकि यह समाज में अनाचार फैलाती है, समाज में भ्रष्टाचार फैलाती है, समाज में अनीति फैलाती है, समाज में भ्रष्टाचार फैलाती है, समाज में अनीति फैलाती है।
हमारे आराध्य की हँसी उड़ाती है और हमारी संस्कृति के ऊपर कलंक लगाती है। यह हमें नापसंद है। इसे न हम देखना चाहते हैं और न सुनना चाहते हैं। आराध्य का सच मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण के दाम्पत्य जीवन के बारे में जो वाहियात बातें सुनने को मिलती रही हैं, इसके संबंध में जब मैं गहराई में गया, तो पता चला कि ये तमाम वाहियात बातें पीछे पंडितों ने मिलाई हैं। असल में उनका एक ही ब्याह हुआ था और रुक्मिणी को भी वे छीनकर नहीं लाए थे। रुक्मिणी के भाई रुक्म की रजामंदी से यह ब्याह हुआ था। जब महाभारत में यह कथा मैंने पढ़ी, तो मुझे बहुत पसंद आई और तब से मैंने श्रीकृष्ण भगवान् की शादी- ब्याह के बारे में भी जिक्र करना शुरू कर दिया। पहले मैंने यह फैसला किया था कि श्रीकृष्ण के ब्याह के बारे में मैं कुछ लिखूँगा ही नहीं कि उनका ब्याह हुआ या वे कुँवारे रहे अथवा उन्होंने बहुत- सी से ब्याह किया था। यह सब मैं लिखना नहीं चाहता था। वस्तुतः श्रीकृष्ण भगवान् का ब्याह रुक्मिणी के साथ हुआ था, जिन्हें साथ लेकर के वे बारह वर्ष तक बद्रीनाथ तप करने चले गए। बद्रीनाथ किसे कहते हैं? बद्री माने बेर, बेर माने बद्री। बेरों का जंगल था वहाँ, जहाँ आज बद्रीनाथ है। वे वहीं चले गए थे और अपनी धर्मपत्नी के साथ बारह वर्ष तक तप किया था।
इसके पीछे सिद्धान्त छिपा हुआ था- आदर्श छिपा हुआ था कि हमें एक ऐसी संतान चाहिए, जो कामुकता के संस्कारों से दूर हो। इसके पीछे उद्देश्य यह था कि श्रेष्ठ नागरिक होने के लिए संयम के साथ में, तप के साथ में, ज्ञान के साथ में एक सुसंस्कारी संतान देनी है; बारह वर्ष तक इसलिए तप करके आए थे। उनके केवल एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसका नाम प्रद्युम्न था। नहीं साहब! उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ थीं। नहीं बेटे, यह सब बातें गलत हैं और पीछे पंडितों के द्वारा जोड़ी गई हैं। बेकार की इन बातों से कोई फायदा नहीं है। मित्रो! श्रीकृष्ण भगवान् का दाम्पत्य जीवन श्रेष्ठ वाला दाम्पत्य जीवन रहा है। उसमें इस तरह के बकवास की कोई गुंजाइश नहीं है कि उनकी हजारों रानियाँ थीं। उनकी जिंदगी की आखिर वाली दो घटनाएँ इतनी शानदार रही हैं। पहली घटना वह है जब उन्होंने संपत्ति इकट्ठी की और कहा कि इसका हिसाब होना चाहिए कि कितना धन किस राज्य में कहाँ- कहाँ स्थापित हो? एक बार जब सुदामा जी द्वारिका राज्य में आए और कृष्ण भगवान् को बताया कि सुदामा नगरी का हमारा गुरुकुल टूटा- फूटा हुआ पड़ा है। हमारे यहाँ धन की कमी आ गई है। छात्रों के निवास के लिए स्थान की कमी पड़ गई है। पढ़ने के लिए पुस्तकें नहीं हैं। यह सुनकर उन्होंने सोचा कि पैसे का इससे अच्छा उपयोग और कुछ भी नहीं हो सकता है। आपके पास धन- संपदा हो, तो आप सोचेंगे कि इसे मेरा बेटा खाएगा, पोता खाएगा, लेकिन अगर कोई और खाएगा, तो मैं उसकी जान ले लूँगा। अपनी सारी कमाई किसको देगा?
बेटे- पोते को देगा, अगर और किसी को देगा, तो तेरी जान निकल जाएगी। निस्पृह जीवन मित्रो! क्या हुआ? कृष्ण भगवान् ने देखा कि राज्य इकट्ठा किया, पैसा इकट्ठा किया, लेकिन इसे खरच करना चाहिए था। आखिर इसे खरच कहाँ किया जाए? यह विचार कर ही रहे थे कि सुदामा जी आ पहुँचे। उन्होंने सोचा, बस हो गया मेरा काम। यही तो मैं तलाश कर रहा था कि कोई ऐसा ठीक स्थान मिले, जहाँ हमारे धन का अच्छे- से उपयोग हो सके। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किसको दूँ, किसको न दूँ? माँगने वाले तो हजारों आते हैं, लेकिन जहाँ आवश्यकता है, ऐसा कोई स्थान या व्यक्ति नहीं मिला। सुदामा जी, आप ठीक समय पर आ गए। चलिए, जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब मैं आपको देता हूँ- सब आपके सुपुर्द करता हूँ। उनका जो सारे- का धन था, उसे सुदामापुरी भेज दिया और वहाँ का विद्यालय विश्वविद्यालय में बदल दिया गया। मित्रो! यह उनके जीवन की निस्पृहता थी, उनका कर्मयोग था। कर्मयोग में आदमी की आसक्तियाँ और मोह कटते जाते हैं और उसे यह दिखाई देने लगता है कि हमें क्या चाहिए? हमारे में कमाने का माद्दा है, लेकिन कमाने के माद्दे की सार्थकता तब है, जब इसे किसी अच्छे काम में लगा सकें। लेकिन आप तो कमाते जाते हैं और बेटों को, पोतों को चालाक बनाने के लिए, चोर बनाने के लिए, हैवान बनाने के लिए, व्यसनी बनाने के लिए और अनाचारी बनाने के लिए पाप की कमाई उनके ऊपर जमा करते जा रहे हैं। आप भी क्या यही करते हैं? नहीं, महाराज जी! हम ऐसा नहीं करते हैं। यदि आप भी ऐसा ही करते हैं, तो अपना विचार बदल दें। मित्रो!
प्राचीनकाल में ऐसा ही होता रहा है। भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अपना सारा धन सुदामा को सुपुर्द कर दिया और वे निस्पृह हो गए। ये सारी बातें उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सार्थक कर दिखाई। उनके जीवन की अंतिम कथा यह है कि उन्हें याद आया कि पहले जन्म में हमने बाली को छिपकर मारा था। छिपकर मारना हमारी गलती थी। उसे छिपकर नहीं मारना चाहिए था। यह कोई कायदा नहीं है कि आप छिप करके किसी को मारे। छिप करके मारने वाले को हत्यारा कहते हैं, कसाई कहते हैं और जल्लाद कहते हैं। लड़ाई का कायदा यह है कि आप सामने वाले को भी हथियार दीजिए और खुद भी हथियार लीजिए, फिर चैलेंज कीजिए कि आइए, आपको भी अपनी रक्षा करने का अधिकार है। इस लड़ाई में जान हमारी भी जा सकती है और आपकी भी जा सकती है। आप हमारे ऊपर हमला कीजिए और हम आपके ऊपर हमला करेंगे। दोनों बहादुर ये बातें एक- दूसरे से कहते हैं। लेकिन जो आदमी बैठा हुआ है, सोया हुआ है और आपने ताड़ के पीछे से छिप करके उसे मार दिया। सोए हुए को मार दिया, यह क्या घोटाला किया। रामचंद्र जी थे तो क्या हुआ, उन्होंने ऐसा करके गलती की थी। मित्रो! श्री भगवान् ने दिखाया कि गलती करने वाला कोई भी क्यों न हो, चाहे भगवान् ही क्यों न हो, गलती की सजा से माफी नहीं माँग सकता। वही बाली इस जन्म में बहेलिया हो गया और आकर के जब श्रीकृष्ण भगवान् पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, तब उनको तीर मारा। तीर उनके पाँव में लगा, जिससे सुराख बन गया और सेप्टिक हो गया, टिटनेस हो गया। डाक्टरों ने इंजेक्शन लगाए, बहुतेरा चिकित्सा उपचार किया, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। कृष्ण भगवान् वहीं ढेर हो गए। उनकी लाश वहीं पड़ी रही। बलराम ने भी देखा कि मेरा भाई मारा गया। अर्जुन भी वहाँ आ गए और जाकर उनका अंतिम संस्कार किया। इस सारी कथा का महाभारत में विशद वर्णन है। मित्रो! इसी के साथ सारी कथा पूरी हो जाती है। रही बात अलौकिकता और चमत्कार की, तो महान् व्यक्तियों के साथ इसका कोई लेना- देना नहीं है। चमत्कार तो आप जैसे लोगों के लिए है, जो इसे ही सब कुछ मानकर किसी की महानता का आकलन करते हैं और कहते हैं कि यदि चमत्कारी होगा, तो महात्मा होगा, चमत्कारी होगा, तो भगवान् होगा, चमत्कारी होगा, तो गुरु होगा और अगर चमत्कारी नहीं हुआ, तो कुछ नहीं, मात्र सामान्य व्यक्ति है।
नहीं साहब, गुरु गोविन्द सिंह ने तो एक से एक बड़े चमत्कार दिखाए थे, आप भी दिखाइए। नहीं भाई साहब, गुरुगोविन्द सिंह से जब एक व्यक्ति जिद करने लगा और कहने लगा था कि मेरा खुदा बड़ा चमत्कारी है। वह एक बीज से हजारों फल निकालता है। बादलों को पिघलाकर पानी की बूँदें बना देता है। आप भी बालों में से बालू निकाल दीजिए, कानों में से मेढक निकाल दीजिए, तो हम आपको चमत्कारी मानेंगे। उन्होंने कहा- तू बाजीगरी को चमत्कार मानता है। वास्तविक चमत्कार तो यह है कि आदमी के हृदय में भगवान् पैदा किया जा सकता है या नहीं? जो आदमी पापी और पतित की जिंदगी जी रहा है, भीरु और परावलम्बी जिंदगी जी रहा है, यदि वह अब स्वावलंबी और शानदार जिंदगी जीता है, श्रेष्ठ जिंदगी जीता है, लोगों को तारने वाली, विकास वाली जिंदगी जीता है, तो यही सबसे बड़ा चमत्कार है। इससे बड़ा और कोई चमत्कार नहीं हो सकता। अलौकिक बनाम लौकिक श्रीकृष्ण भगवान् चमत्कारी थे, लेकिन लौकिक दृष्टि से वे घोर असफल। गोपियों से प्यार करते थे, राधा से प्यार करते थे, लेकिन उन्हें छोड़कर वे कहाँ चले गए?
गोपियाँ चिल्लाती रह गईं। ब्याह किया, राजपाट बसाया, अर्जुन को राजा बनाया। आखिर में भागकर स्वयं द्वारिका चले गए। अपना कुटुंब बसाया, जो अंत में आपस में लड़- मरकर खत्म हो गया। ये कैसे भगवान् थे, जिनके खानदान वाले सब खत्म हो गए। सारा खानदान चौपट हो गया। अर्जुन गोपियों को लेकर जा रहे थे। उनको रास्ते में भील मिल गए और गोपियों को ले गए। राधिका जी जाने कहाँ चली गईं। सब कुछ बिखर गया। आखिर में जो कुछ बचा खुचा था, उसे भी लोग समेट ले गए और श्रीकृष्ण भगवान् खाली हाथ रह गये। आखिरी वक्त में यह भी नहीं हो सका कि कोई मुँह में गंगाजल ही डाल दे या गौदान करा दे। गौदान कराने वाले तो नहीं हुए, उलटे उनकी लाश जंगल में पड़ी रही और वह भी अर्जुन को जलानी पड़ी।
मित्रो! इस तरह संसार की दृष्टि से भगवान् श्रीकृष्ण घोर असफल सिद्ध हुए, लेकिन आदर्शों की दृष्टि से- सिद्धांतों की दृष्टि से घोर सफल सिद्ध हुए। वे भगवान् जो आज के दिन पैदा हुए, जिन्होंने न केवल अपने क्रियाकलापों से कितना शिक्षण दिया, वरन् असंख्य नर- नारियों को संसार सागर से पार लगाया। उनका शिक्षण इतना शानदार है कि अगर हम आज की जन्माष्टमी के दिन इन चरित्रों को, इन प्रेरणाओं को, इन दिशाओं को अपने जीवन में धारण करने में समर्थ हो जाएँ, तो मजा आ जाए और आज का जन्माष्टमी का पर्व सार्थक हो जाए। हमारा समझाना भी सार्थक हो जाए, अगर ये प्रेरणाएँ जो भगवान् ने अपनी स्थूल जीवन की लीलाओं द्वारा दी थीं, इनको हम धारण कर पाएँ तब, गीता में हमको जो बताया गया है, उसे हम धारण कर सकें तब। अगर हममें से प्रत्येक के भीतर जीवंत भगवान् का वह सिद्धांत आदर्शवादिता के रूप में उतर सके, हर क्षण उसकी आवाज और वाणी को हम सुन सकें, तो हमारा जीवन धन्य हो जाए और धन्य हो जाए आज का दिन और आज का हमारा लेक्चर। बस आज की बात यहीं समाप्त। ॐ शान्तिः