Books - गायत्री की सुगम साधनाएं
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Language: HINDI
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गायत्री की सर्वसुलभ साधनाएं
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गायत्री का वैज्ञानिक आधार
श्रुति में कहा गया है कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा की इच्छा हुई कि ‘‘एकोऽहं बहुस्यामि’’ मैं एक से बहुत हो जाऊं। ईश्वर की यह इच्छा की स्फुरणा, कामना, शक्ति रूप में परिवर्तित हो गई। शिव और शक्ति के संयोग से, ब्रह्म और माया के सम्बन्ध से यह सारी जड़ चेतन सृष्टि उत्पन्न हुई है।
शक्ति के दो रूप हुए एक चैतन्य दूसरी जड़। एक विचार रूप दूसरी परमाणु रूप। विचार रूप, चैतन्य, सजीव निराकार शक्ति को गायत्री, और पंचभूतों की परमाणुमयी साकार सृष्टि की निर्माता शक्ति को सावित्री कहते हैं। आध्यात्म विज्ञान प्राण विद्या की अधिष्ठात्री गायत्री है और पदार्थ विज्ञान, भौतिक प्रकृति की संचालक सावित्री है। पौराणिक अलंकार है कि ब्रह्मा को दो स्त्रियां हैं एक गायत्री दूसरी सावित्री। परमात्मा ही यह दोनों ही शक्तियां समस्त जड़ चेतन सृष्टि का उत्पादन पोषण और विनाश करती रहती हैं।
विचार, संकल्प, इच्छा, भावना, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, प्रेरणा, सत, रज, तम, प्राण, जीवन वह सब गायत्री का क्षेत्र है। धन, द्रव और वायु रूप में पंच तत्वों तथा विविध प्रकार के परमाणुओं, विद्युत आदि शक्तियों का क्षेत्र सावित्री से संबन्धित हैं। परमात्मा की यह दो भुजा हैं। जिनके द्वारा वह सृष्टि की विविध विधि क्रीड़ाएं किया करता है।
सावित्री विद्या का अनुसन्धान वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोगशालाओं में हो रहा है। उसके आधार पर अगणित आविष्कार हो रहे हैं। और प्रकृति के ऐसे रहस्य मालूम होते जा रहे हैं जिनके द्वारा राक्षस राज रावण का लज्जित कर देने वाले शस्त्रों एवं यंत्रों का स्वामित्व प्राप्त होता जाता है। प्राचीन काल में हमारे दूरदर्शी ऋषि जानते थे कि सावित्री की शोध, उपासना सीमित ही होनी चाहिए अन्यथा मूर्ख मनुष्य उसके दुरुपयोग से प्रलय ही उपस्थित कर देगा। आज अणु बम, हाइड्रोजन बम, कीटाणु बम, मारक किरण आदि कितने पदार्थ सृष्टि में प्रलय उपस्थित कर देने की चुनौती दे रहे हैं। इस खतरे से परिचित होने के कारण उन्होंने भौतिक विज्ञान की अधिक शोध न करके, सावित्री उपासना की उपेक्षा करके, गायत्री की आत्म शक्ति की, आराधना करना ही उचित समझा था, क्योंकि इसके द्वारा प्रत्येक कदम पर आनन्द की ही वृद्धि होती जाती है।
गायत्री का एक सावित्री भाग भी है। जैसे किसी ग्रह दशा में, छोटी छोटी अन्तर्दशा बर्तती जाती हैं, वैसे ही गायत्री के अध्यात्म विज्ञान में भी एक शाखा सावित्री की है जिसके आधार पर आत्म शक्ति द्वारा पदार्थों को इच्छानुकूल ढंग से आकर्षित, परिवर्तित, परिवर्द्धित, विनिर्मित एवं छिन्न भिन्न किया जा सकता है। मन्त्र बल से अनेक प्रकार की चमत्कारी ऋद्धि सिद्धियों की उपलब्धि इसी रीति से होती है। प्राचीन काल में अनेकों दिव्य अस्त्र शस्त्र मंत्र बल संचालित होते थे। वर्षा, कुहरा, अग्निकाण्ड उपस्थित किये जाते थे। पुष्पक विमान, उड़ने वाले रथ, विचार संचालन द्वारा दूर देशों के व्यक्तियों का आपस में बातें करना, शरीर बदल लेना, मनुष्य से पशु पक्षी और पशु पक्षी से मनुष्य बन जाना, अदृश्य हो जाना, वायु में उड़ना, पानी पर चलना जैसी अनेकों सिद्धियां गायत्री शक्ति द्वारा सावित्री पर प्रभुत्व प्राप्त करने की साधना द्वारा होती थी। उस विद्या को ‘तन्त्र’ कहते थे। आज तन्त्र का बड़ा महत्वपूर्ण भाग लुप्त हो चला है। फिर भी मारण, मोहन, उच्चाटन आदि विनाशकारी करतूतें करते हुए आज भी कितने ही तांत्रिक देखे जा सकते हैं।
तंत्र भी उन्हीं खतरों से भरा है जिनसे कि भौतिक विज्ञान के अमर्यादित अनुसन्धान। इसलिए त्रिकालदर्शी ऋषियों ने पग पग पर तन्त्र की ऋद्धि सिद्धियों की निन्दा की है। उस मार्ग पर चलने के लिए मनाही की है। जिन्हें कुछ प्राप्त है उन्हें उसका प्रदर्शन न करने का आदेश दिया है। कठोर प्रतिबन्ध लगाया है। तत्व ज्ञानी ऋषि जानते थे कि मानव जीवन के लिए परम उपयोगी, अपार आनन्ददायक, अनन्त सुख शान्ति की देने वाली वस्तु केवल मात्र विशुद्ध अभ्यास विद्या ही है। इसलिए उन्होंने गायत्री उपासना के लिए सर्व साधारण को प्रोत्साहित किया है।
ईश्वर की वह चैतन्य शक्ति जो संसार में जीवन और प्राण का आविर्भाव, विकास एवं परिवर्तन करती है— गायत्री कही जाती है। निर्विकार, निर्लिप्त, साक्षी एवं द्रष्टा रूप से कार्य करने वाला परब्रह्म परमात्मा इसी शक्ति के द्वारा, प्राणियों को कर्म फल, स्वर्ग-नरक, सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति का आयोजन करता है। गायत्री प्राणियों का प्राण है। जैसे प्रत्येक देहधारी के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी देह को स्वस्थ, पुष्ट, निरोग, सुव्यवस्थित रखने के नियम जाने वैसे ही प्रत्येक बुद्धि जीवी प्राणी-मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि अपने प्राण की सुव्यवस्थित, समुन्नत और सुखी रखने के लिए प्राण की आधार शक्ति गायत्री का समुचित उपयोग करना जाने। संस्कृत में ‘गाय’ कहते हैं प्राण को और ‘त्री’ कहते हैं त्राण करने वाली, रक्षा करने वाली को। प्राणों की, जीवन शक्ति की, रक्षक होने के कारण ही उस महाशक्ति को गायत्री कहा जाता है। मछली का जीवन जल है, जल का समुचित उपयोग किए बिना वह सुखी नहीं रह सकती। इसी प्रकार प्राणाधार गायत्री से व्यवस्थित प्राण सम्बन्ध किए बिना, प्राणी को क्षण भर के लिए चैन नहीं मिल सकता। विश्वव्यापी प्राण का अंश ही तो प्राणी है, विश्वात्मा का एक अणु ही तो यह आत्मा है। इस प्रकार यह माता पुत्र का सम्बन्ध है। माता और पुत्र में घनिष्ठ सम्बन्ध होने से कितना आनन्द होता है इसका अनुभव प्रत्येक गृहस्थ कर सकता है। प्राणधात्री गायत्री के सान्निध्य में प्राणी को जो आनन्द मिलता है उसकी तुलना संसार के किसी आनन्द से नहीं की जा सकती। उसे अनिर्वचनीय परमानन्द या ब्रह्मानन्द ही कहा जा सकता है। इस आनन्द का अधिकाधिक आस्वादन करना ही जीवन का उद्देश्य और उसकी सफलता का प्रमाण है।
गायत्री के एक एक शब्द में, एक एक अक्षर में मानव जीवन के लिए उपयोगी एवं आवश्यक ज्ञान भंडार भरा हुआ है। इन चौबीस अक्षरों की व्याख्या के रूप में ही समस्त वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद्, स्मृति आदि धर्म ग्रन्थों की रचना हुई है। जैसे सृष्टि के आदि में शिव के डमरू निनाद के निकले हुए चौदह सूत्रों से समस्त शब्द शास्त्र की रचना हुई वैसे ही गायत्री के चौदह अक्षर प्रारम्भ काल में वेद ज्ञान के रूप में मानव जाति को दिये गए। इन चौबीस अक्षरों को लेकर ऋषियों ने समस्त धर्म साहित्य रच डाला। इसी कारण गायत्री को वेदमाता कहा गया है। गायत्री के अक्षरों का अर्थ गायत्री गीता और गायत्री स्मृति में दिया जा चुका है।
चैतन्य सृष्टि त्रिगुणात्मक है। प्राण शक्ति में गायत्री शक्ति में तीन तत्व हैं। ह्रीं—सतोगुण, श्रीं— रजोगुण, क्लीं—तमोगुण। स्थान, काल, पात्र, के भेद से समय समय पर यह तीनों ही तत्व उपयोगी एवं आवश्यक होते हैं। पर हर आदमी यह नहीं जान पाता कि उसकी आन्तरिक स्थिति क्या है? उसे इन तीन तत्वों में से किस तत्व की कितनी मात्रा में आवश्यकता है? रोगी अपने आप रोग का निदान और चिकित्सा स्वयं नहीं कर सकता। कुशल और अनुभवी वैद्य ही जानता है कि किस व्यक्ति के शरीर में वात, पित्त, कफ में से कौन तत्व न्यूनाधिक हो रहा है और उसके लिए किन किन औषधियों को कितनी कितनी मात्रा में संमिश्रण करके दिया जाना चाहिए। विद्यार्थी स्वयं नहीं जानता कि मेरा शिक्षा क्रम क्या होना चाहिए। अनुभवों अध्यापक ही उसका पाठ्य क्रम निर्धारित करता है और सन्तुलित अध्ययन के लिये विद्यार्थियों की स्थिति का ध्यान रखते हुए अलग-अलग प्रकार से परिश्रम कराता है। गायत्री साधना के लिए भी किसी शिक्षक पथ प्रदर्शक या गुरु की आवश्यकता है जो साधना मार्ग में अनुभवी हो, जो चरित्र, स्वभाव, विवेक, अध्ययन एवं तत्व ज्ञान की दृष्टि से ऐसी योग्यता रखता हो कि अपने अनुयायी को उचित रीति से आगे बढ़ाता ले चले।
शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि गायत्री मंत्र कीलित है। गायत्री को ब्रह्मा का, विश्वामित्र का, वशिष्ठ का शाप लगा है जो इन शापों का विमोचन कर सकता है। उसकी साधना सफल होती है। यों इन तीनों का शाप मोचन करने के लिए तीन मन्त्र भी है पर वास्तविक बात यह है कि ऐसे गुरु की नियुक्ति ही शाप मोचन है जो ब्रह्मा, विश्वामित्र और वशिष्ठ गुण वाला हो। ब्रह्मा का अर्थ है ब्रह्म ज्ञानी, ईश्वर और आत्मा को भली प्रकार समझने वाला। वशिष्ठ का अर्थ है— विशेष रूप में श्रेष्ठ, साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक सद्गुणों वाला। विश्वामित्र का अर्थ है—सबका मित्र, उदार, सेवाभावी, परोपकारी। जो इन तीन गुणों से युक्त हो ऐसे गुरु द्वारा नियमबद्ध रूप से दीक्षा लिए बिना साधक के लिए गायत्री मन्त्र कीलित ही रहता है। वह उससे उतना लाभ नहीं उठा पाता जितना कि उठाना चाहिए।
ऐसा विधान है कि गायत्री का अधिकार केवल द्विजों का ही है। द्विज का तात्पर्य किसी वंश विशेष में जन्म लेने या तीन धागे का डोरा लटका लेना मात्र नहीं है। वरन् यह है कि माता पिता के संयोग से शरीर का जन्म होता है वैसे ही गायत्री माता और आचार्य पिता के संयोग से दूसरा जन्म हो। जन्म से मनुष्य पशु वृत्तियां लेकर आता है। सद्गुरु अपने व्यक्तिगत ज्ञान, अनुभव और चरित्र से शिष्य को प्रभावित करता हुआ उसे गायत्री में छिपे हुए जीवनोपयोगी अध्यात्मिक, शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, व्यवहार ज्ञान की शिक्षा देकर उसे सर्वांगीण उन्नति की ओर अग्रसर करता है। इस महान अभियान को गुरु दीक्षा, यज्ञोपवीत संस्कार, दूसरा जन्म, आदि नामों से पुकारते हैं। जिसने यह आयोजन नहीं किया है वह सच्चे अर्थों में द्विज नहीं कहा जा सकता और जो द्विज नहीं है उसे गायत्री का अधिकार भी नहीं है। केवल चौबीस अक्षर रट लेने से किसी का कुछ भला नहीं हो सकता जब तक कि उससे छिपे हुए रहस्यों को जानने का उचित कार्यक्रम न हो। यज्ञोपवीत का अत्यन्त मार्मिक रहस्य हम अपनी ‘भारतीय संस्कृति का जीवन बीजमन्त्र यज्ञोपवीत, और यज्ञोपवीत से धर्म अर्थ काम मोक्ष की प्राप्ति’ पुस्तकों में विस्तार पूर्वक लिख चुके हैं। गायत्री साधना एक ऐसा अभियान है जिसके द्वारा मनुष्य शरीर में छिपी हुई अनेकों शक्तियों का जागरण एवं एकीकरण होता है। फल स्वरूप मस्तिष्क में अवस्थित आशा चक्र, त्रिकुटी, ब्रह्म रंध्र एवं सहस्र दल कमल में एक विशेष प्रकार की चुम्बकीय आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है। इस आकर्षण विद्युत के द्वारा निखिल ब्रह्माण्ड में व्यापक गायत्री शक्ति का सतोगुणी, रजोगुणी तथा तमोगुणी भाग खिंच आता है और उसकी एक बड़ी मात्रा साधक के पास जमा हो जाती है। ब्रॉडकास्टिंग स्टेशन से भेजी गई शब्द लहरी आकाश में ईथर तत्व में भ्रमण करती रहती है। उसे न तो कोई जान पाता है न सुन पाता है, पर जहां रेडियो सैट चालू होता है वहां वे शब्द लहरें पकड़ ली जाती हैं और समाचार, गाने, भाषण, आदि सुनाई पड़ने लगते हैं। आकाश में विभिन्न ब्रॉडकास्टिंग स्टेशनों से ब्रॉडकास्ट किए हुए अनेकों प्रकार के ध्वनि प्रवाह घूमते रहते हैं पर वहीं से संवाद सुनाई पड़ते हैं जहां के अनुरूप रेडियो की सुई लगी हुई हो। दूसरे नम्बर पर सुई बदल देने से दूसरे स्टेशन की खबरें आने लगती हैं। इस प्रकार अखिल आकाश में सदा ही गायत्री तत्व व्याप्त रहता है पर उसे पकड़ वे ही सकते हैं जिन्होंने अपनी आन्तरिक शक्तियों को रेडियो सैट के समान आकर्षण शक्ति से परिपूर्ण बना लिया है। गायत्री त्रिविधि है, उसके ह्रीं, श्रीं, क्लीं, तत्वों को साधक लोग अपने संकल्प की सुई घुमाकर ग्रहण करते हैं और तदनुसार फल प्राप्त करते हैं।
गायत्री के ह्रीं तत्व की उपासना के सतोगुण की वृद्धि होती है। विचार भावनाएं, इच्छाएं, आदर्श, सिद्धान्त सब में सद्गुणों का अधिकाधिक समावेश होता चलता है फलस्वरूप सद्गुण, उत्तम स्वभाव, नम्रता, मधुरता, उदारता, दयालुता, परोपकार, प्रेम, संयम, सदाचार, शील, सन्तोष, विवेक, दूरदर्शिता, धैर्य, साहस की दिन दिन वृद्धि होती चलती है। मनोभूमि में इस प्रकार की वृद्धि होने से अपने अन्दर आनन्द का एक स्रोत उमड़ पड़ता है। अपने शरीर से सत्कर्म ही बन पड़ते हैं। अपनी वाणी से सद्वचन ही निकलते हैं, अपने मन में उच्च विचारधारा ही भ्रमण करती है। ऐसे लोगों को विश्व का कण-कण आनन्दमय प्रतीत होता है। संसार दर्पण के समान है जिसमें सब लोग अपनी अपनी प्रतिच्छाया देखते हैं। जो स्वयं भला है उसके लिए संसार के जड़ चेतन पदार्थ सदा आनन्ददायक ही रहते हैं। वह ईश्वर और आत्मा का साक्षात्कार करता हुआ सहज ही जीवन लक्ष को प्राप्त कर लेता है और स्वर्ग मुक्ति एवं परम शान्ति का अधिकारी बनता है।
गायत्री के ‘श्रीं’ तत्व की उपासना करने से रजोगुणी की वृद्धि होती है। फल स्वरूप मनुष्य की वे सुप्त शक्तियां जागृत होती हैं जो सांसारिक जीवन में संघर्ष के अनुकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न करती हैं। उत्साह, साहस, स्फूर्ति, निरालस्यता, आशा, दूरदर्शिता, तीव्र बुद्धि, अवसर की पहचान, वाणी में माधुर्य, व्यक्तित्व में आकर्षण, स्वभाव में मिलनसारी आदि छोटी बड़ी ऐसी विशेषताएं उत्पन्न होती हैं जिनके द्वारा साधारण मनुष्य भी धनी, समृद्ध, प्रतिष्ठित, उच्च पदासीन एवं यशस्वी हो सकता है। साथ ही वे दोष दुर्गुण घटने लगते हैं जिनके होने पर कुबेर भी दरिद्र बने बिना नहीं रह सकता। श्रीं तत्व की मनोभूमि में वृद्धि होने पर अनेकों कारण और अवसर इस प्रकार के उपलब्ध होने लगते हैं जिनके द्वारा अनेकों सुख सम्पत्ति एवं सफलताएं दैवी वरदान की तरह प्राप्त हुई प्रतीत होती है।
गायत्री के क्लीं तत्व की उपासना से विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता उत्पन्न करने वाला तमोगुण बढ़ता है। बीमारी, धन हानि, मृत्यु, मुकदमा, शत्रुता, बेकारी, गृह कलह, विवाह कर्ज आदि की कठिनाइयां जब अपनी साथिन अन्य अनेकों आपत्तियों की सेना को साथ लेकर आती हैं तो मनुष्य हैरान हो जाता है। विपत्तियों के चक्रव्यूह में फंसा हुआ मनुष्य निराशा, चिन्ता, भय, निरुत्साह, घबराहट, किंकर्तव्य विमूढ़ता में पड़ कर अपनी कठिनाइयों को और भी बढ़ा लेता है। विपरीत परिस्थितियों, कारणों और विरोधी मनुष्यों से लड़कर उन्हें परास्त करने वाली शक्ति को ‘दुर्गा’ कहते हैं। गायत्री की ह्रीं शक्ति सरस्वती, श्रीं शक्ति लक्ष्मी और क्लीं शक्ति दुर्गा कहलाती है। गायत्री का क्लीं तत्व घोर विपत्तियों, अनिष्टों और असफलताओं में भी डूबे हुए मनुष्यों को हाथ पकड़ कर उबारते हुए देखा गया है।
सृष्टि के आदि से लेकर अद्यावधि असंख्य उच्च कोटि की आत्माओं ने असंख्य कोटि गायत्री जप किये हैं। उनके संकल्प बल से समन्वित यह शब्द प्रवाह आज भी आकाश में व्याप्त है। यह निश्चित है कि शब्द का कभी नाश नहीं होता। जिस शब्द की जितनी दृढ़ता और भावना के साथ आवृत्ति होती है वह शब्द उन भावनाओं के साथ एक स्वतन्त्र सत्ता के रूप में अपना अस्तित्व बना लेता है। आज के वैज्ञानिक यह प्रयत्न कर रहे हैं कि आकाश में भ्रमण करते हुये तानसेन के गायनों को पकड़ कर उन्हें रिकार्ड में भर लें। अविनाशी शब्द की शक्ति से हमारे ऋषि मुनि परिचित थे उनने ब्रह्म द्वारा उद्घोषित इस महामन्त्र को पकड़ा और उसी की आराधना करके ब्रह्म की समीपता प्राप्त की। दिन दिन इस शब्द संग्रह, गायत्री मंत्र की सत्ता अनेकों साधकों द्वारा साबित होने के कारण सघन ही होती गई है। यही कारण है कि उतना शीघ्र और उतना अधिक फल और कोई मन्त्र नहीं देता जितना कि गायत्री।
मंत्र विद्या के वैज्ञानिक जानते हैं कि जीभ से जो भी शब्द निकलते हैं उनका उनका उच्चारण कण्ठ, तालु, मूर्धा, ओष्ठ, दन्त, जिह्वा मूल आदि मुख के विभिन्न अंगों द्वारा होता है। इस उच्चारण काल में मुख के जिन भागों से ध्वनि निकलती है उन अंगों के नाड़ी तन्तु शरीर के विभिन्न भागों तक फैलते हैं। इस फैलाव क्षेत्र में कई सूक्ष्म ग्रंथियां होती हैं जिन पर इस उच्चारण का दबाव पड़ता है। योगी लोग जानते हैं कि ग्रन्थि चक्रों में किन्हीं विशेष शक्तियों के भण्डार छिपे रहते हैं। सुषुम्ना नाड़ी से बंधे हुये षट्चक्र प्रसिद्ध हैं। ऐसी ही अगणित अनेकों ग्रन्थियां शरीर में हैं। विविध शब्दों का उच्चारण इन विविध ग्रन्थियों पर अपना प्रभाव डालता है और उस प्रभाव से उन ग्रन्थियों का शक्ति भण्डार जागृत होता है। गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों का गठन ऐसे विलक्षण प्रकार से हुआ है कि शरीर के विभिन्न स्थानों पर अवस्थित 24 शक्तियों पर इन अक्षरों के उच्चारण का बड़ा प्रभाव पड़ता है। गायत्री मन्त्र के उच्चारण से सूक्ष्म शरीर का सितार 24 स्थानों से झंकार देता है और उससे एक ऐसी स्वर लहरी उत्पन्न होती है जिसका प्रभाव अदृश्य जगत के महत्वपूर्ण तत्वों पर पड़ता है यह प्रभाव ही गायत्री साधना के फलों का प्रधान हेतु है।
गायत्री महा विज्ञान के प्रथम भाग में चित्र देकर हमने यह बताया है कि शरीर कि किस स्थान पर कौन कौन सी ग्रन्थियां हैं जो चौबीस अक्षरों के उच्चारण से जागृत होती हैं और अपना फल देती हैं। यहां संक्षेप में चौबीसों अक्षरों के क्रम से इन ग्रन्थियां के नाम तथा उनके जागरण से क्या लाभ होता है यह बताते हैं—(1) ग्रन्थि—तापिनी, फल—सफलता (2) ग्रं.—सफला—फ.—पराक्रम (3) विश्वा—पालन (4) तुष्टि—कल्याण (5) वरदा—योग (6) रेवती—प्रेम (7) सूक्ष्मा—धन (8) ज्ञाना—तेज (9) भर्गा—रक्षा (10) गौतमी—बुद्धि (11) देविका—दमन (12) वराही—निष्ठा (13) सिंहिनी—धारणा (14) ध्याना—प्राण (15) मर्यादा—संयम (16) स्फुटा—तप (17) मेधा—दूरदर्शिता (18) योग माया—जागृति (19) योगिनी—उत्पादन (20) धारित्री—सरसता (21) प्रभवा—आदर्श (22) ऊष्मा—साहस (23) दृश्या—विवेक (24) निरंजना—सेवा।
षट् चक्रों के जागरण के लिए बड़ी कष्ट साध्य साधना करनी पड़ती है किन्तु गायत्री के 24 अक्षरों के उच्चारण मात्र से शरीर के विभिन्न भागों में फैले हुये यह 24 ग्रन्थि चक्र सहज ही जागृत हो जाते हैं और उस जागरण के असाधारण लाभों से साधक की शक्ति, समृद्धि एवं सुख शान्ति में महत्वपूर्ण वृद्धि हो जाती है।
श्रुति में कहा गया है कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा की इच्छा हुई कि ‘‘एकोऽहं बहुस्यामि’’ मैं एक से बहुत हो जाऊं। ईश्वर की यह इच्छा की स्फुरणा, कामना, शक्ति रूप में परिवर्तित हो गई। शिव और शक्ति के संयोग से, ब्रह्म और माया के सम्बन्ध से यह सारी जड़ चेतन सृष्टि उत्पन्न हुई है।
शक्ति के दो रूप हुए एक चैतन्य दूसरी जड़। एक विचार रूप दूसरी परमाणु रूप। विचार रूप, चैतन्य, सजीव निराकार शक्ति को गायत्री, और पंचभूतों की परमाणुमयी साकार सृष्टि की निर्माता शक्ति को सावित्री कहते हैं। आध्यात्म विज्ञान प्राण विद्या की अधिष्ठात्री गायत्री है और पदार्थ विज्ञान, भौतिक प्रकृति की संचालक सावित्री है। पौराणिक अलंकार है कि ब्रह्मा को दो स्त्रियां हैं एक गायत्री दूसरी सावित्री। परमात्मा ही यह दोनों ही शक्तियां समस्त जड़ चेतन सृष्टि का उत्पादन पोषण और विनाश करती रहती हैं।
विचार, संकल्प, इच्छा, भावना, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, प्रेरणा, सत, रज, तम, प्राण, जीवन वह सब गायत्री का क्षेत्र है। धन, द्रव और वायु रूप में पंच तत्वों तथा विविध प्रकार के परमाणुओं, विद्युत आदि शक्तियों का क्षेत्र सावित्री से संबन्धित हैं। परमात्मा की यह दो भुजा हैं। जिनके द्वारा वह सृष्टि की विविध विधि क्रीड़ाएं किया करता है।
सावित्री विद्या का अनुसन्धान वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोगशालाओं में हो रहा है। उसके आधार पर अगणित आविष्कार हो रहे हैं। और प्रकृति के ऐसे रहस्य मालूम होते जा रहे हैं जिनके द्वारा राक्षस राज रावण का लज्जित कर देने वाले शस्त्रों एवं यंत्रों का स्वामित्व प्राप्त होता जाता है। प्राचीन काल में हमारे दूरदर्शी ऋषि जानते थे कि सावित्री की शोध, उपासना सीमित ही होनी चाहिए अन्यथा मूर्ख मनुष्य उसके दुरुपयोग से प्रलय ही उपस्थित कर देगा। आज अणु बम, हाइड्रोजन बम, कीटाणु बम, मारक किरण आदि कितने पदार्थ सृष्टि में प्रलय उपस्थित कर देने की चुनौती दे रहे हैं। इस खतरे से परिचित होने के कारण उन्होंने भौतिक विज्ञान की अधिक शोध न करके, सावित्री उपासना की उपेक्षा करके, गायत्री की आत्म शक्ति की, आराधना करना ही उचित समझा था, क्योंकि इसके द्वारा प्रत्येक कदम पर आनन्द की ही वृद्धि होती जाती है।
गायत्री का एक सावित्री भाग भी है। जैसे किसी ग्रह दशा में, छोटी छोटी अन्तर्दशा बर्तती जाती हैं, वैसे ही गायत्री के अध्यात्म विज्ञान में भी एक शाखा सावित्री की है जिसके आधार पर आत्म शक्ति द्वारा पदार्थों को इच्छानुकूल ढंग से आकर्षित, परिवर्तित, परिवर्द्धित, विनिर्मित एवं छिन्न भिन्न किया जा सकता है। मन्त्र बल से अनेक प्रकार की चमत्कारी ऋद्धि सिद्धियों की उपलब्धि इसी रीति से होती है। प्राचीन काल में अनेकों दिव्य अस्त्र शस्त्र मंत्र बल संचालित होते थे। वर्षा, कुहरा, अग्निकाण्ड उपस्थित किये जाते थे। पुष्पक विमान, उड़ने वाले रथ, विचार संचालन द्वारा दूर देशों के व्यक्तियों का आपस में बातें करना, शरीर बदल लेना, मनुष्य से पशु पक्षी और पशु पक्षी से मनुष्य बन जाना, अदृश्य हो जाना, वायु में उड़ना, पानी पर चलना जैसी अनेकों सिद्धियां गायत्री शक्ति द्वारा सावित्री पर प्रभुत्व प्राप्त करने की साधना द्वारा होती थी। उस विद्या को ‘तन्त्र’ कहते थे। आज तन्त्र का बड़ा महत्वपूर्ण भाग लुप्त हो चला है। फिर भी मारण, मोहन, उच्चाटन आदि विनाशकारी करतूतें करते हुए आज भी कितने ही तांत्रिक देखे जा सकते हैं।
तंत्र भी उन्हीं खतरों से भरा है जिनसे कि भौतिक विज्ञान के अमर्यादित अनुसन्धान। इसलिए त्रिकालदर्शी ऋषियों ने पग पग पर तन्त्र की ऋद्धि सिद्धियों की निन्दा की है। उस मार्ग पर चलने के लिए मनाही की है। जिन्हें कुछ प्राप्त है उन्हें उसका प्रदर्शन न करने का आदेश दिया है। कठोर प्रतिबन्ध लगाया है। तत्व ज्ञानी ऋषि जानते थे कि मानव जीवन के लिए परम उपयोगी, अपार आनन्ददायक, अनन्त सुख शान्ति की देने वाली वस्तु केवल मात्र विशुद्ध अभ्यास विद्या ही है। इसलिए उन्होंने गायत्री उपासना के लिए सर्व साधारण को प्रोत्साहित किया है।
ईश्वर की वह चैतन्य शक्ति जो संसार में जीवन और प्राण का आविर्भाव, विकास एवं परिवर्तन करती है— गायत्री कही जाती है। निर्विकार, निर्लिप्त, साक्षी एवं द्रष्टा रूप से कार्य करने वाला परब्रह्म परमात्मा इसी शक्ति के द्वारा, प्राणियों को कर्म फल, स्वर्ग-नरक, सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति का आयोजन करता है। गायत्री प्राणियों का प्राण है। जैसे प्रत्येक देहधारी के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी देह को स्वस्थ, पुष्ट, निरोग, सुव्यवस्थित रखने के नियम जाने वैसे ही प्रत्येक बुद्धि जीवी प्राणी-मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि अपने प्राण की सुव्यवस्थित, समुन्नत और सुखी रखने के लिए प्राण की आधार शक्ति गायत्री का समुचित उपयोग करना जाने। संस्कृत में ‘गाय’ कहते हैं प्राण को और ‘त्री’ कहते हैं त्राण करने वाली, रक्षा करने वाली को। प्राणों की, जीवन शक्ति की, रक्षक होने के कारण ही उस महाशक्ति को गायत्री कहा जाता है। मछली का जीवन जल है, जल का समुचित उपयोग किए बिना वह सुखी नहीं रह सकती। इसी प्रकार प्राणाधार गायत्री से व्यवस्थित प्राण सम्बन्ध किए बिना, प्राणी को क्षण भर के लिए चैन नहीं मिल सकता। विश्वव्यापी प्राण का अंश ही तो प्राणी है, विश्वात्मा का एक अणु ही तो यह आत्मा है। इस प्रकार यह माता पुत्र का सम्बन्ध है। माता और पुत्र में घनिष्ठ सम्बन्ध होने से कितना आनन्द होता है इसका अनुभव प्रत्येक गृहस्थ कर सकता है। प्राणधात्री गायत्री के सान्निध्य में प्राणी को जो आनन्द मिलता है उसकी तुलना संसार के किसी आनन्द से नहीं की जा सकती। उसे अनिर्वचनीय परमानन्द या ब्रह्मानन्द ही कहा जा सकता है। इस आनन्द का अधिकाधिक आस्वादन करना ही जीवन का उद्देश्य और उसकी सफलता का प्रमाण है।
गायत्री के एक एक शब्द में, एक एक अक्षर में मानव जीवन के लिए उपयोगी एवं आवश्यक ज्ञान भंडार भरा हुआ है। इन चौबीस अक्षरों की व्याख्या के रूप में ही समस्त वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद्, स्मृति आदि धर्म ग्रन्थों की रचना हुई है। जैसे सृष्टि के आदि में शिव के डमरू निनाद के निकले हुए चौदह सूत्रों से समस्त शब्द शास्त्र की रचना हुई वैसे ही गायत्री के चौदह अक्षर प्रारम्भ काल में वेद ज्ञान के रूप में मानव जाति को दिये गए। इन चौबीस अक्षरों को लेकर ऋषियों ने समस्त धर्म साहित्य रच डाला। इसी कारण गायत्री को वेदमाता कहा गया है। गायत्री के अक्षरों का अर्थ गायत्री गीता और गायत्री स्मृति में दिया जा चुका है।
चैतन्य सृष्टि त्रिगुणात्मक है। प्राण शक्ति में गायत्री शक्ति में तीन तत्व हैं। ह्रीं—सतोगुण, श्रीं— रजोगुण, क्लीं—तमोगुण। स्थान, काल, पात्र, के भेद से समय समय पर यह तीनों ही तत्व उपयोगी एवं आवश्यक होते हैं। पर हर आदमी यह नहीं जान पाता कि उसकी आन्तरिक स्थिति क्या है? उसे इन तीन तत्वों में से किस तत्व की कितनी मात्रा में आवश्यकता है? रोगी अपने आप रोग का निदान और चिकित्सा स्वयं नहीं कर सकता। कुशल और अनुभवी वैद्य ही जानता है कि किस व्यक्ति के शरीर में वात, पित्त, कफ में से कौन तत्व न्यूनाधिक हो रहा है और उसके लिए किन किन औषधियों को कितनी कितनी मात्रा में संमिश्रण करके दिया जाना चाहिए। विद्यार्थी स्वयं नहीं जानता कि मेरा शिक्षा क्रम क्या होना चाहिए। अनुभवों अध्यापक ही उसका पाठ्य क्रम निर्धारित करता है और सन्तुलित अध्ययन के लिये विद्यार्थियों की स्थिति का ध्यान रखते हुए अलग-अलग प्रकार से परिश्रम कराता है। गायत्री साधना के लिए भी किसी शिक्षक पथ प्रदर्शक या गुरु की आवश्यकता है जो साधना मार्ग में अनुभवी हो, जो चरित्र, स्वभाव, विवेक, अध्ययन एवं तत्व ज्ञान की दृष्टि से ऐसी योग्यता रखता हो कि अपने अनुयायी को उचित रीति से आगे बढ़ाता ले चले।
शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि गायत्री मंत्र कीलित है। गायत्री को ब्रह्मा का, विश्वामित्र का, वशिष्ठ का शाप लगा है जो इन शापों का विमोचन कर सकता है। उसकी साधना सफल होती है। यों इन तीनों का शाप मोचन करने के लिए तीन मन्त्र भी है पर वास्तविक बात यह है कि ऐसे गुरु की नियुक्ति ही शाप मोचन है जो ब्रह्मा, विश्वामित्र और वशिष्ठ गुण वाला हो। ब्रह्मा का अर्थ है ब्रह्म ज्ञानी, ईश्वर और आत्मा को भली प्रकार समझने वाला। वशिष्ठ का अर्थ है— विशेष रूप में श्रेष्ठ, साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक सद्गुणों वाला। विश्वामित्र का अर्थ है—सबका मित्र, उदार, सेवाभावी, परोपकारी। जो इन तीन गुणों से युक्त हो ऐसे गुरु द्वारा नियमबद्ध रूप से दीक्षा लिए बिना साधक के लिए गायत्री मन्त्र कीलित ही रहता है। वह उससे उतना लाभ नहीं उठा पाता जितना कि उठाना चाहिए।
ऐसा विधान है कि गायत्री का अधिकार केवल द्विजों का ही है। द्विज का तात्पर्य किसी वंश विशेष में जन्म लेने या तीन धागे का डोरा लटका लेना मात्र नहीं है। वरन् यह है कि माता पिता के संयोग से शरीर का जन्म होता है वैसे ही गायत्री माता और आचार्य पिता के संयोग से दूसरा जन्म हो। जन्म से मनुष्य पशु वृत्तियां लेकर आता है। सद्गुरु अपने व्यक्तिगत ज्ञान, अनुभव और चरित्र से शिष्य को प्रभावित करता हुआ उसे गायत्री में छिपे हुए जीवनोपयोगी अध्यात्मिक, शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, व्यवहार ज्ञान की शिक्षा देकर उसे सर्वांगीण उन्नति की ओर अग्रसर करता है। इस महान अभियान को गुरु दीक्षा, यज्ञोपवीत संस्कार, दूसरा जन्म, आदि नामों से पुकारते हैं। जिसने यह आयोजन नहीं किया है वह सच्चे अर्थों में द्विज नहीं कहा जा सकता और जो द्विज नहीं है उसे गायत्री का अधिकार भी नहीं है। केवल चौबीस अक्षर रट लेने से किसी का कुछ भला नहीं हो सकता जब तक कि उससे छिपे हुए रहस्यों को जानने का उचित कार्यक्रम न हो। यज्ञोपवीत का अत्यन्त मार्मिक रहस्य हम अपनी ‘भारतीय संस्कृति का जीवन बीजमन्त्र यज्ञोपवीत, और यज्ञोपवीत से धर्म अर्थ काम मोक्ष की प्राप्ति’ पुस्तकों में विस्तार पूर्वक लिख चुके हैं। गायत्री साधना एक ऐसा अभियान है जिसके द्वारा मनुष्य शरीर में छिपी हुई अनेकों शक्तियों का जागरण एवं एकीकरण होता है। फल स्वरूप मस्तिष्क में अवस्थित आशा चक्र, त्रिकुटी, ब्रह्म रंध्र एवं सहस्र दल कमल में एक विशेष प्रकार की चुम्बकीय आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है। इस आकर्षण विद्युत के द्वारा निखिल ब्रह्माण्ड में व्यापक गायत्री शक्ति का सतोगुणी, रजोगुणी तथा तमोगुणी भाग खिंच आता है और उसकी एक बड़ी मात्रा साधक के पास जमा हो जाती है। ब्रॉडकास्टिंग स्टेशन से भेजी गई शब्द लहरी आकाश में ईथर तत्व में भ्रमण करती रहती है। उसे न तो कोई जान पाता है न सुन पाता है, पर जहां रेडियो सैट चालू होता है वहां वे शब्द लहरें पकड़ ली जाती हैं और समाचार, गाने, भाषण, आदि सुनाई पड़ने लगते हैं। आकाश में विभिन्न ब्रॉडकास्टिंग स्टेशनों से ब्रॉडकास्ट किए हुए अनेकों प्रकार के ध्वनि प्रवाह घूमते रहते हैं पर वहीं से संवाद सुनाई पड़ते हैं जहां के अनुरूप रेडियो की सुई लगी हुई हो। दूसरे नम्बर पर सुई बदल देने से दूसरे स्टेशन की खबरें आने लगती हैं। इस प्रकार अखिल आकाश में सदा ही गायत्री तत्व व्याप्त रहता है पर उसे पकड़ वे ही सकते हैं जिन्होंने अपनी आन्तरिक शक्तियों को रेडियो सैट के समान आकर्षण शक्ति से परिपूर्ण बना लिया है। गायत्री त्रिविधि है, उसके ह्रीं, श्रीं, क्लीं, तत्वों को साधक लोग अपने संकल्प की सुई घुमाकर ग्रहण करते हैं और तदनुसार फल प्राप्त करते हैं।
गायत्री के ह्रीं तत्व की उपासना के सतोगुण की वृद्धि होती है। विचार भावनाएं, इच्छाएं, आदर्श, सिद्धान्त सब में सद्गुणों का अधिकाधिक समावेश होता चलता है फलस्वरूप सद्गुण, उत्तम स्वभाव, नम्रता, मधुरता, उदारता, दयालुता, परोपकार, प्रेम, संयम, सदाचार, शील, सन्तोष, विवेक, दूरदर्शिता, धैर्य, साहस की दिन दिन वृद्धि होती चलती है। मनोभूमि में इस प्रकार की वृद्धि होने से अपने अन्दर आनन्द का एक स्रोत उमड़ पड़ता है। अपने शरीर से सत्कर्म ही बन पड़ते हैं। अपनी वाणी से सद्वचन ही निकलते हैं, अपने मन में उच्च विचारधारा ही भ्रमण करती है। ऐसे लोगों को विश्व का कण-कण आनन्दमय प्रतीत होता है। संसार दर्पण के समान है जिसमें सब लोग अपनी अपनी प्रतिच्छाया देखते हैं। जो स्वयं भला है उसके लिए संसार के जड़ चेतन पदार्थ सदा आनन्ददायक ही रहते हैं। वह ईश्वर और आत्मा का साक्षात्कार करता हुआ सहज ही जीवन लक्ष को प्राप्त कर लेता है और स्वर्ग मुक्ति एवं परम शान्ति का अधिकारी बनता है।
गायत्री के ‘श्रीं’ तत्व की उपासना करने से रजोगुणी की वृद्धि होती है। फल स्वरूप मनुष्य की वे सुप्त शक्तियां जागृत होती हैं जो सांसारिक जीवन में संघर्ष के अनुकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न करती हैं। उत्साह, साहस, स्फूर्ति, निरालस्यता, आशा, दूरदर्शिता, तीव्र बुद्धि, अवसर की पहचान, वाणी में माधुर्य, व्यक्तित्व में आकर्षण, स्वभाव में मिलनसारी आदि छोटी बड़ी ऐसी विशेषताएं उत्पन्न होती हैं जिनके द्वारा साधारण मनुष्य भी धनी, समृद्ध, प्रतिष्ठित, उच्च पदासीन एवं यशस्वी हो सकता है। साथ ही वे दोष दुर्गुण घटने लगते हैं जिनके होने पर कुबेर भी दरिद्र बने बिना नहीं रह सकता। श्रीं तत्व की मनोभूमि में वृद्धि होने पर अनेकों कारण और अवसर इस प्रकार के उपलब्ध होने लगते हैं जिनके द्वारा अनेकों सुख सम्पत्ति एवं सफलताएं दैवी वरदान की तरह प्राप्त हुई प्रतीत होती है।
गायत्री के क्लीं तत्व की उपासना से विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता उत्पन्न करने वाला तमोगुण बढ़ता है। बीमारी, धन हानि, मृत्यु, मुकदमा, शत्रुता, बेकारी, गृह कलह, विवाह कर्ज आदि की कठिनाइयां जब अपनी साथिन अन्य अनेकों आपत्तियों की सेना को साथ लेकर आती हैं तो मनुष्य हैरान हो जाता है। विपत्तियों के चक्रव्यूह में फंसा हुआ मनुष्य निराशा, चिन्ता, भय, निरुत्साह, घबराहट, किंकर्तव्य विमूढ़ता में पड़ कर अपनी कठिनाइयों को और भी बढ़ा लेता है। विपरीत परिस्थितियों, कारणों और विरोधी मनुष्यों से लड़कर उन्हें परास्त करने वाली शक्ति को ‘दुर्गा’ कहते हैं। गायत्री की ह्रीं शक्ति सरस्वती, श्रीं शक्ति लक्ष्मी और क्लीं शक्ति दुर्गा कहलाती है। गायत्री का क्लीं तत्व घोर विपत्तियों, अनिष्टों और असफलताओं में भी डूबे हुए मनुष्यों को हाथ पकड़ कर उबारते हुए देखा गया है।
सृष्टि के आदि से लेकर अद्यावधि असंख्य उच्च कोटि की आत्माओं ने असंख्य कोटि गायत्री जप किये हैं। उनके संकल्प बल से समन्वित यह शब्द प्रवाह आज भी आकाश में व्याप्त है। यह निश्चित है कि शब्द का कभी नाश नहीं होता। जिस शब्द की जितनी दृढ़ता और भावना के साथ आवृत्ति होती है वह शब्द उन भावनाओं के साथ एक स्वतन्त्र सत्ता के रूप में अपना अस्तित्व बना लेता है। आज के वैज्ञानिक यह प्रयत्न कर रहे हैं कि आकाश में भ्रमण करते हुये तानसेन के गायनों को पकड़ कर उन्हें रिकार्ड में भर लें। अविनाशी शब्द की शक्ति से हमारे ऋषि मुनि परिचित थे उनने ब्रह्म द्वारा उद्घोषित इस महामन्त्र को पकड़ा और उसी की आराधना करके ब्रह्म की समीपता प्राप्त की। दिन दिन इस शब्द संग्रह, गायत्री मंत्र की सत्ता अनेकों साधकों द्वारा साबित होने के कारण सघन ही होती गई है। यही कारण है कि उतना शीघ्र और उतना अधिक फल और कोई मन्त्र नहीं देता जितना कि गायत्री।
मंत्र विद्या के वैज्ञानिक जानते हैं कि जीभ से जो भी शब्द निकलते हैं उनका उनका उच्चारण कण्ठ, तालु, मूर्धा, ओष्ठ, दन्त, जिह्वा मूल आदि मुख के विभिन्न अंगों द्वारा होता है। इस उच्चारण काल में मुख के जिन भागों से ध्वनि निकलती है उन अंगों के नाड़ी तन्तु शरीर के विभिन्न भागों तक फैलते हैं। इस फैलाव क्षेत्र में कई सूक्ष्म ग्रंथियां होती हैं जिन पर इस उच्चारण का दबाव पड़ता है। योगी लोग जानते हैं कि ग्रन्थि चक्रों में किन्हीं विशेष शक्तियों के भण्डार छिपे रहते हैं। सुषुम्ना नाड़ी से बंधे हुये षट्चक्र प्रसिद्ध हैं। ऐसी ही अगणित अनेकों ग्रन्थियां शरीर में हैं। विविध शब्दों का उच्चारण इन विविध ग्रन्थियों पर अपना प्रभाव डालता है और उस प्रभाव से उन ग्रन्थियों का शक्ति भण्डार जागृत होता है। गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों का गठन ऐसे विलक्षण प्रकार से हुआ है कि शरीर के विभिन्न स्थानों पर अवस्थित 24 शक्तियों पर इन अक्षरों के उच्चारण का बड़ा प्रभाव पड़ता है। गायत्री मन्त्र के उच्चारण से सूक्ष्म शरीर का सितार 24 स्थानों से झंकार देता है और उससे एक ऐसी स्वर लहरी उत्पन्न होती है जिसका प्रभाव अदृश्य जगत के महत्वपूर्ण तत्वों पर पड़ता है यह प्रभाव ही गायत्री साधना के फलों का प्रधान हेतु है।
गायत्री महा विज्ञान के प्रथम भाग में चित्र देकर हमने यह बताया है कि शरीर कि किस स्थान पर कौन कौन सी ग्रन्थियां हैं जो चौबीस अक्षरों के उच्चारण से जागृत होती हैं और अपना फल देती हैं। यहां संक्षेप में चौबीसों अक्षरों के क्रम से इन ग्रन्थियां के नाम तथा उनके जागरण से क्या लाभ होता है यह बताते हैं—(1) ग्रन्थि—तापिनी, फल—सफलता (2) ग्रं.—सफला—फ.—पराक्रम (3) विश्वा—पालन (4) तुष्टि—कल्याण (5) वरदा—योग (6) रेवती—प्रेम (7) सूक्ष्मा—धन (8) ज्ञाना—तेज (9) भर्गा—रक्षा (10) गौतमी—बुद्धि (11) देविका—दमन (12) वराही—निष्ठा (13) सिंहिनी—धारणा (14) ध्याना—प्राण (15) मर्यादा—संयम (16) स्फुटा—तप (17) मेधा—दूरदर्शिता (18) योग माया—जागृति (19) योगिनी—उत्पादन (20) धारित्री—सरसता (21) प्रभवा—आदर्श (22) ऊष्मा—साहस (23) दृश्या—विवेक (24) निरंजना—सेवा।
षट् चक्रों के जागरण के लिए बड़ी कष्ट साध्य साधना करनी पड़ती है किन्तु गायत्री के 24 अक्षरों के उच्चारण मात्र से शरीर के विभिन्न भागों में फैले हुये यह 24 ग्रन्थि चक्र सहज ही जागृत हो जाते हैं और उस जागरण के असाधारण लाभों से साधक की शक्ति, समृद्धि एवं सुख शान्ति में महत्वपूर्ण वृद्धि हो जाती है।