Books - गायत्री के पाँच मुख पाँच दिव्य कोश
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आनन्दमय कोश की समाधि स्वर्ग और मुक्ति का द्वार
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मानवी सत्ता के पांच आवरण, जीव सत्ता के पांच कोशों में सबसे अन्तिम और सबसे महत्वपूर्ण है आनन्दमय कोश। इस कोश का अनावरण होने पर जीव सत्ता परमात्म सत्ता के निकट ही नहीं पहुंच जाती बल्कि उससे जुड़ कर स्वयं परमात्मा स्वरूप ही हो जाती है। आत्म सत्ता को परमात्मा सत्ता का ही स्फुल्लिंग कहा गया है। उसका मूल स्वरूप सत्य शिव, सुन्दर कहा जाता है और परमात्म सत्ता की व्याख्या सत् चित् आनन्द रूप में होती है। दोनों ही स्थितियां परम सुखद हैं।
आनन्दमय कोश की सिद्धि के द्वारा कोई भी व्यक्ति आत्म बोध एवं आत्म जागृति की स्थिति प्राप्त कर अपनी गरिमा को देवात्मा-परमात्मा स्तर की बना सकता है। उस स्थिति को प्राप्त कर वह उतना ही गौरवान्वित रह सकता है, जितना कि देवसत्ता एवं परमात्म सत्ता अपने को अनुभव करती होगी। यह अध्यात्म दृष्टिकोण ही अमृत है। इसे प्राप्त करने पर अजरता, अमरता, प्रौढ़ता, सुन्दरता, प्रखरता की दिव्य विभूतियां हर घड़ी अपने को अमृतत्व का मिठास देती रहती है।
जीव साधारणतया सीमाबद्ध रहता है। उसकी ज्ञानेन्द्रिय सीमित रसास्वादन दे पाती है और कर्मेन्द्रियों द्वारा सीमित सम्पदा का उपार्जन हो सकता है। किन्तु मनुष्य के अन्तराल में बीज रूप में इतनी संभव भरी पड़ी हैं जितनी कि इस ब्रह्माण्ड में गुप्त या प्रकट रूप में विद्यमान हैं। स्थूल जगत कलेवर है, सूक्ष्म जगत उसका प्राण है। कलेवर से प्राण की क्षमता अधिक ही होती है। दृश्यमान पदार्थों की तुलना में ताप, ध्वनि, विद्युत, ईथर आदि की अदृश्य शक्तियां अधिक प्रबल हैं। इस अदृश्य प्रकृति से भी सूक्ष्म जगत की समर्थता असंख्य गुनी बढ़ी-चढ़ी है। उसके साथ सम्बन्ध बना लेने—उस क्षेत्र में प्रवेश पा लेने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकने के पश्चात् सीमा-बन्धन समाप्त हो जाते हैं और असीम सामर्थ्य का उदय होता है। अतीन्द्रिय सम्भावनाएं ही अभी अपने सामने हैं। उनके कुछ कौतुक ही कभी-कभी देखने को मिलते और चकित करते रहते हैं। यदि सचमुच उस क्ष्ोत्र में कुछ अधिक प्रवेश मिल सके—दिव्य विभूतियों का उपार्जन एवं उपयोग जाना जा सके तो उसकी विलक्षणता सिद्ध पुरुषों जैसी हो सकती है। तब मनुष्य में देवत्व का उदय और नर में नारायण का दर्शन हो सकता है। यह परम आनन्द की स्थिति ही होगी।
उपरोक्त कथन का तात्पर्य यह है कि बाह्य जगत और अन्तर्जगत के दोनों ही क्षेत्र असीम दिव्य सम्वेदनाओं से भरे पड़े हैं। उनकी सुखद सम्वेदनाओं का अन्त नहीं। वस्तुस्थिति यही है। अपनी भ्रान्तियों में उलझ कर उपलब्धियों का लाभ नहीं—लिया यह दूसरी बात है। कस्तूरी का मृग नाभि में सुगन्ध के भण्डार को समझ नहीं पाता, वह उसे बाहर ढूंढ़ता है और प्राप्त करने के प्रयास में जितनी ही भाग-दौड़ करता है उतना ही थकता और निराश होता है। इस दुर्भाग्य पर दाता को दोष नहीं दिया जा सकता। उसने तो कस्तूरी प्रचुर मात्रा में —निकटतम स्थान नाभि में ही भर दी, करतलगत उपलब्धियों का लाभ लेने में भी बुद्धि समर्थ न हो सके तो कोई क्या करे? मृग-तृष्णा के भटकाव में प्रकृति का नहीं कुछ का कुछ देखने और समझने वाले का ही दोष है।
परमेश्वर ने अपने जेष्ठ पुत्र राजकुमार मनुष्य को अपने इस दिव्य उद्यान में—संसार में आनन्द लेने के लिए भेजा है। यहां आनन्द की सम्भावनाएं एवं सुविधाएं मौजूद हैं। दुःख तो हमारे विकृत दृष्टिकोण और निकृष्ट क्रिया-कलाप की प्रतिक्रिया मात्र है। यहां सुख स्वाभाविक और दुःख भोगने के लिए नहीं आनन्द पाने और आनन्द बखेरने के लिये भेजा है। इस संसार को अधिक सुन्दर, समुन्नत, समृद्ध एवं सुसंस्कृत बनाने के प्रयास में संलग्न रहकर वह अपने ईश्वर प्रदत्त आनन्द को अपने उपार्जन को जोड़कर अधिकाधिक सुखी, आनन्दित रह सकता है। इसके लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाना पड़ता। इसके लिए मात्र अपनी दुर्बुद्धि का निराकरण और दुष्प्रवृत्ति का निवारण पर्याप्त होता है। आनन्द मनुष्य की पैतृक सम्पत्ति है। वह उसे उत्तराधिकार में—प्रचुर परिमाण में—मिली है। उपलब्धियों का स्वरूप समझना और उनका सदुपयोग करना जानना चाहिए। जिनसे इतना भी नहीं बन पड़ता उन्हें दुर्बुद्धिजन्य दयनीय दुर्दशा में ही पड़ा हुआ माना जायगा।
परमात्मा आनन्द स्वरूप है। जीवसत्ता के कण-कण में आनन्द का स्रोत है। प्रकृति में सौन्दर्य और सुविधा प्रदान करने की विशेषता भरी पड़ी है। यहां सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। इसी से जीवन को ‘आनन्दमय’ कहा गया है। यह कोश उसे असीम मात्रा में, सहज सुखद रूप से उपलब्ध है। हम आनन्दमय लोक में रह रहे हैं। दुर्भाग्य लगभग वैसा ही है जैसा कि कबीर की एक उलटबासी में व्यक्त किया गया है। वे कहते हैं—
पानी में मीन पियासी । मोहि लखि-लखि आवै हांसी ।।
कोई व्यक्ति अपने घर का ताला बन्द करके कहीं चला जाय। लौटने पर ताली गुम जाने से बाहर बैठा ठण्ड में सुकड़े और दुःख भोगे। ठीक ऐसी ही स्थिति हमारी है। तिजोरी की ताली गुम जाने से दैनिक खर्च में कठिनाई पड़ रही है और भूखा-नंगा रहना पड़ रहा है। आनन्दमय कोश अपने भीतर भरा पड़ा है, किन्तु रहना पड़ रहा है निरानन्द स्थिति में। कैसी विचित्र स्थिति है? कैसी विडम्बना है? यह अपने साथ अपना कितना विलक्षण उपहास है।
आनन्दमय कोश की साधना इसी दुःखद दुर्भाग्य का अन्त करने के लिए है। उसके आधार पर उस ताले को खोला जा सकता है जिसमें उल्लास का अजस्र भाण्डागार भरा पड़ा है। यह कार्य आत्मा और परमात्मा के मिलन की विधि-व्यवस्था बना कर—रीति-नीति अपनाकर ही सम्भव हो सकता है। पंचकोशों की साधना के उच्चस्तर पर पहुंच कर इसी ताले को ढूंढ़ना पड़ता है और ताले को खोलने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। जो उसे कर सका उसे फिर यह नहीं कहना पड़ा कि हम निरानन्द नीरस जीवन जीते हैं। दुःख और दुर्भाग्य से ग्रसित हैं।
इस दुःख दुर्भाग्य का अंत आनन्दमय कोश को अनावरण करने पर ही हो सकता है, उस कोश में प्रवेश करके ही जीवात्मा को परम तृप्ति का संतोष मिल सकता है। यही जीवन का लक्ष्य भी है और इसी की आशा पर प्राणी जीवित है। कहना चाहिए आनन्द की प्राप्ति के लिए ही जीव शरीर बन्धन में बंधने को तैयार हुआ है। कहा भी गया है—
‘एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति ।’ —वृहदारण्यक 4। 3। 32
इस आनन्द के प्राप्त होने की आशा से ही समस्त प्राणी जीवित रहते हैं।
आनन्दी ब्रह्मेति व्यजानात् । आनदाद्धचेव खाल्विमानि भूतानि जायते । आनंदेन जातानि जीवति । आनंद प्रयन्त्यभिसं विशन्तीति । —तैत्तरीयोपनिषद्
आनन्द से सब प्राणी पैदा होते हैं और आनन्द में ही वे जीवित रहते हैं। अंत में आनन्द में ही वे जय को प्राप्त होते हैं।
आनंदानुभवस्तत्र जायते योगिनो महान् । स एव तं विजानाति मया वक्तुं न शक्यते ।। —योग रसायनम् 114
उस समय योगी को महान आनन्द का अनुभव होता है, जिसे वही जानता है, मैं वर्णन नहीं कर सकता।
मुच्यमानेषु सत्वेषु ये तो प्रापोद्यसागराः । तैरेवननुपर्याप्तं मोक्षेणा रसिकेन किम् ।। —बोधिचयवितार 8। 108
जीव जब दुःख बन्धन से मुक्त होते हैं तब उससे बोधिसत्व के हृदय में जो आनन्द का समुद्र उमड़ पड़ता है, उतना ही तो पर्याप्त है। रस हीन शुष्क मोक्ष से क्या प्रयोजन? रसो वै सः । रसं हयेवायं लब्ध्यानन्दी भवति । को ह्येवान्यात् कः प्राणयात्? यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् । एष ह्येवानन्दयाति ।। —केन 2। 7
भगवान् रसमय या रस-स्वरूप है। उसी रस को पाकर मनुष्य आनन्द का अनुभव करता है। यदि वह आकाश की भांति सर्वत्र ओत-प्रोत आनन्दमय मूलतत्व न होता, तो कौन अपान और कौन प्राण-रूप क्रियाओं से युक्त जीवन-मात्र में आनन्द का अनुभव करता। वास्तव में वही तत्व प्रत्येक प्राणी के आनन्द का मूल स्रोत है।
परमेश्वर को रस कहा गया है। यह रस भौतिक नहीं आत्मिक है। उसे उल्लास, सन्तोष, तृप्ति, शांति जैसी दिव्य सम्वेदनाओं में अनुभव किया जाता है। इसकी उपलब्धि आन्तरिक उत्कृष्टता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। अन्तरात्मा जितना पवित्र और उदात्त बनता जाता है, उसी अनुपात से यह आनन्द बढ़ता है। यह उत्कृष्ट दृष्टिकोण तथा उच्चस्तरीय कर्म-परायणता पर निर्भर है। निकृष्ट चिन्तन और भ्रष्ट क्रिया-कलाप के रहते अन्य किसी उपाय से इस आनन्द का दर्शन हो नहीं सकता। आनन्द की आकांक्षा करने वाले हर व्यक्ति को आनन्दमय कोश की गहराई में उतर कर उस उद्गम स्रोत तक पहुंचना पड़ता है जहां से दिव्य आनन्द की प्रकाश किरणें फूटती हैं।
सृष्टि में यों कुरूपता भी विद्यमान है और मनुष्य में तामसिकता के अंश भी मौजूद हैं, बदलने और सुधारने के लिए रचनात्मक प्रवृत्ति की आवश्यकता है। असहयोग, विरोध और दण्ड जैसे कटुकृत्यों का निषेध नहीं है, पर वे द्वेष और घृणा से प्रेरित नहीं, सुधार की हित कामना से होने चाहिए। इस प्रकार संसार के अशुभ पक्ष से निपटते हुए भी आन्तरिक उत्कृष्टता स्थिर रखी जा सकती है। श्रेष्ठता का पक्ष तो अधिक मात्रा में है ही अन्धकार से प्रकाश इस संसार में अधिक है। दुष्टता की तुलना में श्रेष्ठता कम नहीं है। उसी को खोजा, अपनाया जाय, सम्पर्क सम्बन्ध उसी से साधा जाय और उसी के अभिवर्धन—परिपोषण में निरत रहा जाय तो मस्तिष्क में निरन्तर सात्विक उत्साह छाया रहेगा। सौन्दर्य दृष्टि विकसित होने पर विश्व-व्यापी सौन्दर्य का दर्शन होने लगेगा। पदार्थों और प्राणियों में पाई जाने वाली श्रेष्ठता के संपर्क में आने से शिवत्व की झांकी मिलती है। इस विश्व के मूल में ब्रह्म सत्ता ही आलोकित है यह समझने वालों को ‘सत्य’ की प्राप्ति होती है। परिष्कृत दृष्टिकोण वालों को सत्यं शिवं सुन्दरम् का दर्शन हर घड़ी होता है और सर्वत्र की उपस्थिति प्रतीत होती है।
सन्त इमर्सन कहा करते थे कि ‘‘मुझे’’ नरक में भेज दो मैं अपने लिए वहीं स्वर्ग बना लूंगा। इस कथन में परिपूर्ण तथ्य भरा पड़ा है। परिष्कृत दृष्टि से समीपवर्ती वातावरण में भी बहुत कुछ सुधारात्मक अनुकूलता उत्पन्न की जा सकती है, किन्तु स्थिति से अनुकूल प्रतिक्रिया उपलब्ध कर सकना तो पूर्णतया अपने हाथ की बात है। स्वर्ग इस दिव्य दर्शन का—उत्कृष्ट चिन्तन का नाम है। उसे कोई स्थान विशेष नहीं माना जाना चाहिए, वह वस्तुतः एक दृष्टिकोण भर है। नरक और स्वर्ग को निकृष्ट और उत्कृष्ट चिन्तन की अशुभ एवं शुभ प्रतिक्रिया की समझा जाना चाहिए। हर व्यक्ति इमर्सन की तरह ही अपने लिए सुखद स्वर्ग का सृजन दृष्टिकोण को परिष्कृत करके सहज ही कर सकता है। आनन्दमय कोश की अगली उपलब्धि है—मोक्ष। मोक्ष अर्थात् बन्धन मुक्ति। बन्धन अर्थात् पिछड़ेपन के कुसंस्कार कषाय-कल्मष। जीव को बांध सकने वाली संसार की और कोई शक्ति नहीं है। उसकी निज की दुर्बलताएं और निकृष्टताएं ही प्रगति के पथ पर बढ़ चलने से रोकने वाली सबसे बड़ी बाधाएं हैं। मकड़ी अपना जाल आप बुनती और उसी में फंसी रहती हैं। रेशम के कीड़े भी अपना बन्दीग्रह आप बनाते हैं। मनुष्य के भव-बन्धन उसी ने अपने हाथों विनिर्मित किये हैं और स्वयं ने ही उन्हें हथकड़ी बेड़ी की तरह धारण किया है। भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह, शावक की तरह ओछेपन का आवरण अपने ही अज्ञान से हमने ओढ़ा है। बन्धनों का कितना कष्ट होता है इसे पशु-पक्षी तक जानते हैं जो विवशता में तनिक भी कमी आने पर बेतरह भाग खड़े होते हैं, भले ही उन्हें कितने ही अभावों और संकटों का सामना क्यों न करना पड़े?
मनुष्य ईश्वर का सबसे बड़ा राजकुमार है। उसकी सम्भावनाएं असीम हैं। उपलब्ध साधनों का सदुपयोग करके वह इसी जीवन में उतनी उच्चस्थिति में पहुंच सकता है जिसे देवात्मा-परमात्मा के समतुल्य कहा जा सके। इस प्रगति में परिस्थिति की नहीं मनःस्थिति की ही प्रधान बाधा है। यदि जीवन की सार्थकता के लिये जो करना है उसे समझ और अपना लिया जाय तो फिर वह स्थिति बन जायगी जिसे ईश्वर की समीपता कहते हैं। मोक्ष इसी का नाम है।
मोक्ष के सम्बन्ध में विचित्र मान्यताएं प्रचलित हैं। कोई उसे जनम-मरण से आवागमन से छुटकारा बताता है कोई इस संसार को छोड़कर किसी अन्य लोक में चले जाने की कल्पना करता है। किसी को काम न करने की—बैठे-ठाले हर इच्छा पूरी होते रहने की स्थिति मोक्ष प्रतीत होती है। किन्हीं-किन्हीं की उड़ान विचित्र है, वे भगवान् का कोई विशेष नगर, ग्राम, लोक मानते हैं और उनके पास दरबारियों की तरह जा विराजने की कल्पना करते हैं। सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य यह चार स्थिति मुक्ति में मिलने की बात बताई जातीं हैं। सालोक्य का मतलब है भगवान के लोक में अपने लिए भी एक फ्लैट बन जाना। सामीप्य का मतलब है उनके दरबारी कर्मचारियों में नियुक्ति होना। सारूप्य का अर्थ है—भगवान जी की डमी कापी बन कर रहना। सुरक्षा के लिए डिक्टेटर लोग प्रायः अपनी ही शकल-सूरत का एक दूसरा आदमी रखते भी थे जिसे खतरे के स्थान पर भेज कर वे स्वयं सुरक्षित रह सके। सायुज्य का तात्पर्य है साझीदारी। उनकी सम्पत्ति अथवा सत्ता में अपनी घुस-पैठ बन पड़ना यह सायुज्य मुक्ति कही जायगी। यह सभी उपहासास्पद बाल कल्पनाएं हैं। इन्हें अलंकारिक वर्णन के रूप में प्रस्तुत किया गया है, पर उदाहरणों को तथ्य मान लेने की भूल अपना ली गई है। मोक्ष का तात्पर्य है—आत्मसत्ता को भौतिक न मान कर विशुद्ध चेतन तत्व के रूप में अनुभव करने लगना। सुखानुभूति, प्रसन्नता एवं सफलता भौतिक साधनों से मिलने के स्थान पर आन्तरिक परिष्कार के आधार पर उपलब्ध होने के तथ्य पर विश्वास करना। पशु-प्रवृत्तियों की कुसंस्कारिता से छूटकर मानवी दैवी संस्कृति को व्यवहार में उतारना। उत्कृष्टता ही ईश्वर है। ईश्वर की समीपता अथवा प्राप्ति का मतलब है अपनी आकांक्षाओं, चेष्टाओं, दिशा-धाराओं को उत्कृष्टता के साथ अविच्छिन्न रूप से जोड़ देना। लोक-मानस, लोक-प्रवाह जिस स्वार्थ एवं पतन की दिशा में बहता चला जा रहा है। उसे विवशता से अपने को मुक्त कर लेना—मछली की तरह धार को चीरते हुए उलटे प्रवाह में तैर सकना। यह अन्तःस्थिति जिसे भी प्राप्त हो उसे बन्धन युक्त कह सकते हैं। मोक्ष अथवा मुक्ति को जीवन का परम फल बताया गया है। उसका स्वरूप यही है।
मरने के बाद स्वर्ग या मुक्ति का लाभ मिल सकता है। यह उपलब्धियां इसी जीवन की हैं। इनका आनन्द इसी जीवन में—आज ही मिलना चाहिए। यह सब कुछ दृष्टिकोण के—आन्तरिक स्तर के—परिवर्तन पर निर्भर है। मुक्ति जीवित रहने पर ही मिलती है। मरने के बाद जो कुछ होता है वह जीवित स्थिति की प्रतिक्रिया भर कहीं जा सकती है। अस्तु आत्मिक प्रबल पुरुषार्थ की सुखद उपलब्धि इसी जीवन में मिलने की बात सोचनी चाहिये। जीवित रहते ही यह स्थिति मिलती है इसलिये उसे ‘जीवन्मुक्ति’ भी कहा जाता है। मुक्ति—जीवन मुक्ति का ही संक्षेप है। निष्कृष्टता से—ओछेपन से छुटकारा पाने वाला कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में मुक्ति का आनन्द ले सकता है इस सन्दर्भ में शास्त्रकारों का अभिमत इस प्रकार है—
उद्वेगारन्दरहितः समयाः स्वच्छयां धिया । न शोचते न चोदेति स जीवन्मुक्त उच्यते ।। —महोपनिषद 2।57
जो उद्वेग और आनन्द से रहित, शोक अथवा हर्षोत्साह के ममत्व एवं स्वच्छ बुद्धि वाला है, वह जीवन मुक्त है।
घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमी कुलं शीलं च शक्ति श्चाष्टौ पाशाः प्रकीर्तिताः पाशबद्धः पशुः प्रोक्तो पाशमुक्तः सदा शिवः । —तन्त्र कौस्तुभ
घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा कुल, शील शक्ति यह आठ पाश हैं। जो इनमें बंधा है सो पशु है और जो मुक्त है सो शिव है।
मौनवान् निरहभावो निर्मानो मुक्त मत्सरः । यः करोति गतोद्वेगः स जीवन्मुक्त उच्यते ।। —महोपनिषद 2। 50
जिसने अहंकार के भाव का परित्याग कर दिया है, मान-मत्सर के विकार से मुक्त हो गया है, जो उद्वेग रहित होकर कर्म में रत है, उसे ही ज्ञानीजन जीवन मुक्त कहते हैं।
यः समस्तार्थ जालेषु व्यवर्हार्यपि निस्पृहः । परार्थेष्क्वि पूर्णात्मा से जीवन्मुक्त उच्यते ।। —महोपनिषद 2। 62
विश्व के सभी अर्थ—जालों के मध्य स्थिर होकर भी पराये धन से निस्पृह रहने वाले धर्मात्मा के समान जो पुरुष निस्पृह रहता है, वह आत्मा में ही पूर्णता का अनुभव करने वाला महात्मा जीवन्मुक्त हैं।
द्वे पदे बन्धमोक्षाय निर्यमति ममेति च । ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते ।। —महोपनिषद 4। 72
बन्धन और मोक्ष में केवल दो पद का अन्तर है। मेरा है यही बन्ध है। मेरा नहीं है, यही मुक्ति है।
इस प्रकार दृष्टिकोण का परिष्कार हो जाने पर आनन्द का स्वरूप आधार और स्थान विदित हो जाने पर मान्यता स्थिर होती है। क्या करने से क्या मिलता है यह निश्चित हो जाना ही मुक्ति का निवारण तथा वस्तुस्थिति का ज्ञान ही तत्वज्ञान है। आत्मिक समस्या ही सबसे बड़ी समस्यायें हैं। उन्हीं के समाधान से वास्तविक समाधान होता है। अस्तु इसी को ब्रह्मज्ञान, तत्वज्ञान, सद्ज्ञान आदि के नाम से पुकारते हैं। आनन्द प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम इसी आंतरिक समाधान और दिशा निर्धारण का प्रयत्न करना पड़ता है। समाधि इसी स्थिति का नाम है। आनन्द की उपलब्धि में सर्वप्रथम इसी का प्रयत्न किया जाता है। यों समाधि बहुत ऊंची योग स्थिति है पर उसका आरम्भ अभ्यास यहीं से आरम्भ करना पड़ता है।
इस समाधि का अभ्यास होने पर बिखराव-भटकाव समाप्त होता है और चिन्तन तथा कर्म का समुचित लाभ मिल सकने की स्थिति बन जाती है इसलिए आनन्दमय कोश की साधना के प्रथम चरण में ‘समाधि’ परक प्रयोग किये जाते हैं। यह जागृत समाधि है। इसमें मूर्छित होने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वरन् प्रलोभन एवं भय की उत्तेजनाओं को शान्त करना पड़ता है। ऐषणाओं के आवेश ठण्डे पड़ने पर मनुष्य अपना लक्ष्य देख पाता है। निर्धारित दिशा में चल पड़ने की बात इससे पूर्व बन ही नहीं पड़ती।
आनन्दमय कोश के साधकों को जिस एकाग्रता की आवश्यकता बताई गई है, वह एक केन्द्र पर सोचते रहने की मानसिक विधि नहीं, वरन् लक्ष्य का सुनिश्चित निर्धारण और अभिगमन है। ऐसी मनःस्थिति को ‘समाधिस्थ’ कहा गया है।
सम्यगाधीयत एकाग्री क्रियते विक्षेपान्परिहृत्य मनो यत्र स समाधिः । —भोज
जिसमें मन को विक्षेपों से हटाकर यथार्थ में एकाग्र किया जाता है, वह स्थिति समाधि है।
त्यक्त्वां विषयभोगांश्च मनोनिश्चलतां गतम् । आत्मशक्तिस्वरूपेण समाधिः परिकीर्त्तितः ।। —दक्षस्मृति 7। 21
विषय भोगों की चंचलता त्याग कर जिसने स्थिर मनःस्थिति प्राप्त कर ली, आत्म-बल प्राप्त कर लिया उसकी स्थिति ‘समाधि’ की ही है।
सलिले सैन्धवं यद्धत्साम्यं भजति योगतः । तथाऽऽत्ममनसोरैक्यं समाधिरभि धीयते ।। —हठ. प्र. 4। 1
अर्थ—जैसे लवण जल में मिलने से जल के ही रूप को प्राप्त हो जाता है वैसे ही आत्मा एवं मन का एक रूप होना समाधि कहलाता है।
समाधिः समतावस्था जीवात्मपरमात्मनोः । संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः ।। —याज्ञयल्क्य
जीवात्मा और परमात्मा की इच्छा एवं दिशा जब एक जैसी होती है, वे वियोग से हटकर एकत्व स्थापित करते हैं तो उस स्थिति को समाधि कहते हैं।
यत्समत्वं तयोरत्र जीवात्मा परमात्मनो । समस्त नष्ट संकल्पः समाधिरभिधीयते ।। स्वयमुच्चलिते देहे दही नित्य समाधिना । निश्चलं तं विजानीयात् समाधिरभिधीयते ।। —सौभाग्य. उपनिषद्
ललक और लिप्साओं की आकांक्षाएं नष्ट होने पर जब जीव और ब्रह्म के बीच एक दिशा का—एकता का—निर्धारण होता है तो उस स्थिति को समाधि कहते हैं। प्रलोभनों की चंचलता शिथिल होने पर जो आत्म स्थिरता प्राप्त होती है वही समाधि है।
आन्तरिक दिव्य क्षमताओं का विनाश तो तृष्णा जन्य चंचलता से होता है। यदि वह उद्विग्नता न रहे, लक्ष्य की ओर चलने का निश्चित संकल्प बन जाय तो अपव्यय रुकने से आत्म-शक्ति का संग्रह और अभिवर्धन होता चलता है। फलतः कितनी ही प्रकार की दिव्य क्षमताएं उभरती चली जाती हैं। इन विभूतियों का परिचय कितने ही रूपों में मिलता रहता है। यथा—
समाध्यभ्यासतो नित्यं जायतेऽन्तर्मनोलयः । अंतर्दृष्टिप्रकाशश्च तस्य संजायते क्रमात् ।। —योग रसायन
समाधि के नित्य अभ्यास से क्रमशः मन अन्तर्लीन हो जाता है और अन्तर्दृष्टि प्रकाशित होती है।
स्वप्नदष्टपदार्थोंधो मृषा भवति निश्चितम् । समाधौ त्वमृषा सर्व वस्तु कार्यकरं तथा ।। —योग रसायनम्
स्वप्न में देखे गये पदार्थ मिथ्या होते हैं, जबकि समाधि स्थिति में अनुभूत बातें सत्य होती हैं तथा उनके द्वारा समाधि के उपरान्त भी वास्तविक लाभ होते हैं। आनन्दमय कोश की साधना का स्वरूप ईश्वर और जीव की मिलन व्यवस्था है। साधारणतया हम ईश्वर के नाम भर से परिचित हैं उसका नाम जब तब लेते भी हैं और भजन वजन का उपक्रम भी चलाते हैं, पर यह प्रयत्न होता ही नहीं कि ईश्वर को अपने में और अपने को ईश्वर में—समाहित करने का प्रयत्न करें। इस समन्वय का कितना सुखद परिणाम हो सकता है इसकी कभी कल्पना भी तो नहीं आती। आमतौर से ईश्वर एक ऐसा व्यक्ति माना जाता है जो थोड़े से स्तवन पूजन से प्रसन्न किया जा सकता है और जिससे तुर्त-फुर्त मनोवांछित वरदान मिल सकते हैं। इसी प्रलोभन में पूजा उपचार की सारी विडम्बनाएं चलती हैं। ऐसे भगवत् भक्त कहां हैं, जो अपने ऊपर ईश्वरीय अनुशासन की स्थापना करते हैं। अपना समग्र समर्पण उसके चरणों में प्रस्तुत करते हैं। वस्तुतः भक्ति का यही स्वरूप है। यह जहां भी अपने वास्तविक स्वरूप में होगी वहां निश्चित रूप से अमृत की वर्षा हो रही होगी। स्वर्गीय परिस्थितियां बनी होंगी। उल्लास बिखरा पड़ा होगा, सन्तोष की शान्ति रह रही होगी।
ईश्वर व्यक्ति नहीं, शक्ति है। उसे मनुष्यों की तरह मनुहार उपहार के सहारे प्रसन्न नहीं किया जा सकता। बिजली का समुचित लाभ उठाने के लिये उसके उपयोग की मर्यादाओं को अपनाना पड़ता है। ईश्वर की प्रसन्नता इन तथ्यों पर अवलम्बित है जिन्हें उत्कृष्टता के नाम से जाना जाता है। जिसे भावना क्षेत्र में आस्तिकता, चिन्तन क्षेत्र में आध्यात्मिकता और कर्मक्षेत्र में धार्मिकता के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
उपासना का स्वरूप है—समन्वय। भक्ति का चरम लक्ष्य है—समन्वय—एकीकरण—समर्पण। द्वैत को मिटा कर अद्वैत की स्थापना। यह नाले का नदी में समर्पण हुआ। इसे कठपुतली का बाजीगर की उंगलियों के साथ गठ-बन्धन कहा जा सकता है। इसे पत्नी का पति को वरण समझा जा सकता है—अनुशासन की स्थापना यही है। अपनी स्वतन्त्र इच्छा आकांक्षाएं समाप्त करके ईश्वरीय अनुशासन को अपने ऊपर स्थापित कर लेना—समर्पण यही है। इसी आत्म-समर्पण की गीता में भगवान ने भक्त से मांग की है। ईंधन अपने को अग्नि में डालकर अग्निमय हो जाता है। पानी दूध में मिलकर एक रूप बन जाता है। ईश्वर को मनोकामना पूर्ति का ‘ट्रल’ नहीं बनाया जाना चाहिए, वरन् उसकी गरिमा में अपने आपको आत्मसात् कर देना चाहिये। इसी स्थिति को ब्रह्म निर्वाह—ईश्वर दर्शन या भगवत प्राप्ति कहा गया है। यही ब्रह्म-विद्या की अद्वैत साधना है। इसी आधार पर जन को नारायण-पुरुष को पुरुषोत्तम—जीव को ब्रह्म—आत्मा को परमात्मा बनने का अवसर मिलता है।
प्रेम में आकर्षण है—चुम्बकत्व है। प्रेमी की समीपता सुहाती है, उसी के लिए अधीरता रहती है। ईश्वर भक्ति का भगवत् प्रेम का—स्वरूप यही है कि बीच की दूरी को समाप्त किया जाय। दोनों के बीच गहन समस्वरता दिखाई दे। इस स्थिति में या तो ईश्वर को जीव की इच्छानुसार काम करना पड़ेगा या जीव को ईश्वर का अनुवर्ती बनना पड़ेगा। स्पष्ट है कि नदी नाले में नहीं मिल सकती, उसकी गहराई, चौड़ाई इतनी नहीं है कि जिसमें नदी समा सकें। नाले का ही नदी में मिलना सम्भव है। जीव का इच्छानुवर्ती ईश्वर नहीं हो सकना। यह भ्रान्ति छोड़ देनी चाहिए। भक्त को ही भगवान का अनुवर्ती होना चाहिए। यह कार्य भौतिक महत्वाकांक्षाओं को समाप्त करके ईश्वर के अनुवर्ती बनने से ही सम्भव होता है। श्रद्धा और भक्ति का स्वरूप यही है। इसी आधार पर ईश्वर प्राप्ति का आनन्द लिया जा सकता है।
ईश्वर प्रेम सीमाबद्ध नहीं रह सकता। हिमालय के हृदय से निकली हुई गंगा, कहीं अवरुद्ध नहीं बैठी रहती, वरन् सूखे भू-खण्डों और प्यासे प्राणियों की प्यास बुझाती हुई अपनी क्षुब्धता को समुद्र की विशालता में समर्पित करती है। भक्ति का अर्थ है—प्रेम। प्रेम सम्वेदना की प्रतिक्रिया है—आत्मीयता, करुणा, उदारता, सेवा, सद्भावना। यह श्रेष्ठ सम्वेदनाएं कल्पना और भावना क्षेत्र में आगे बढ़कर जब व्यवहार बन कर विकसित होती हैं तो उसका स्वरूप आत्म-निर्माण और लोक-निर्माण के विविध क्रिया प्रयोजनों में ही परिलक्षित होता है। अपने को और दूसरों को ईश्वर की शरण में ले जाने की—श्रद्धा और शक्ति का अवलम्बन, आश्रय दिलाने की—ही आकांक्षा प्रबल रहती है। निरन्तर इसी दिशा में सोचा जाता है और ऐसे ही कृत्य करने का ताना-बाना बुना जाता है।
यही है वह स्थिति—जिसे आनन्दमय कोश की जागृति कह सकते हैं। पंचकोशी गायत्री उपासना की यही सर्वोच्च स्थिति है। इसमें निरन्तर ईश्वर दर्शन की अनुभूति होती है। भगवान सूक्ष्म है, उसका साक्षात्कार भावानुभूति के रूप में ही होता है। आंखों से खिलौने की तरह ईश्वर को देखने की इच्छा करना बाल-बुद्धि के अतिरिक्त और कुछ नहीं। जब हवा, सर्दी, मैत्री, क्रोध, सुख, दुःख जैसे प्रत्यक्ष आंख से नहीं देखे जा सकते तो ईश्वर जैसे अचिन्त्य, अप्रमेय को इन चर्म-चक्षुओं से देखा जा सकना कैसे सम्भव हो सकता है। जिन्हें ऐसे दृश्य दीखते भी हैं वे उनकी ध्यान चेतना की, प्रगाढ़ता का परिचय मात्र देते हैं। उन्हें दिवा स्वप्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। ईश्वर दर्शन को अन्तःकरण में दिव्यता की झांकी करने के रूप में ही होते हैं। उसके लिए श्रद्धा और भक्ति के दो पैरों के सहारे लम्बी यात्रा पूरी करनी पड़ती है।
आनन्दमय कोश—श्रद्धा और भक्ति का उद्गम केन्द्र है। वही ईश्वर मिलन की अनुभूति होती है। अस्तु ईश्वर मिलन का लक्ष्य पूरा करने के लिये गायत्री की उच्च स्तरीय पंचकोशी साधना की विधि व्यवस्था बनी है। भावनात्मक क्षेत्र में इस दिव्य मिलन की प्रतिक्रिया आनन्द और उल्लास के रूप में दृष्टिगोचर होती है। संसार के श्रेष्ठ—देवपक्ष को देखते हुए प्रसन्न होना—आनन्द है और निकृष्ट—दैत्यपक्ष को निरस्त करने के लिए उमंगते हुए शौर्य, साहस का नाम है—उल्लास धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए ईश्वर का अवतार होने की प्रतिज्ञा को साधक अपने ही भीतर पूरी होते देखता है। उसे लगता है कि भगवान का अवतार आनन्द और उल्लास के—श्रद्धा और भक्ति के रूप में अपने ही भीतर हो रहा है। आनन्दमय कोश का यही भाव पक्ष है।
आनन्दमय कोश की सिद्धि के द्वारा कोई भी व्यक्ति आत्म बोध एवं आत्म जागृति की स्थिति प्राप्त कर अपनी गरिमा को देवात्मा-परमात्मा स्तर की बना सकता है। उस स्थिति को प्राप्त कर वह उतना ही गौरवान्वित रह सकता है, जितना कि देवसत्ता एवं परमात्म सत्ता अपने को अनुभव करती होगी। यह अध्यात्म दृष्टिकोण ही अमृत है। इसे प्राप्त करने पर अजरता, अमरता, प्रौढ़ता, सुन्दरता, प्रखरता की दिव्य विभूतियां हर घड़ी अपने को अमृतत्व का मिठास देती रहती है।
जीव साधारणतया सीमाबद्ध रहता है। उसकी ज्ञानेन्द्रिय सीमित रसास्वादन दे पाती है और कर्मेन्द्रियों द्वारा सीमित सम्पदा का उपार्जन हो सकता है। किन्तु मनुष्य के अन्तराल में बीज रूप में इतनी संभव भरी पड़ी हैं जितनी कि इस ब्रह्माण्ड में गुप्त या प्रकट रूप में विद्यमान हैं। स्थूल जगत कलेवर है, सूक्ष्म जगत उसका प्राण है। कलेवर से प्राण की क्षमता अधिक ही होती है। दृश्यमान पदार्थों की तुलना में ताप, ध्वनि, विद्युत, ईथर आदि की अदृश्य शक्तियां अधिक प्रबल हैं। इस अदृश्य प्रकृति से भी सूक्ष्म जगत की समर्थता असंख्य गुनी बढ़ी-चढ़ी है। उसके साथ सम्बन्ध बना लेने—उस क्षेत्र में प्रवेश पा लेने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकने के पश्चात् सीमा-बन्धन समाप्त हो जाते हैं और असीम सामर्थ्य का उदय होता है। अतीन्द्रिय सम्भावनाएं ही अभी अपने सामने हैं। उनके कुछ कौतुक ही कभी-कभी देखने को मिलते और चकित करते रहते हैं। यदि सचमुच उस क्ष्ोत्र में कुछ अधिक प्रवेश मिल सके—दिव्य विभूतियों का उपार्जन एवं उपयोग जाना जा सके तो उसकी विलक्षणता सिद्ध पुरुषों जैसी हो सकती है। तब मनुष्य में देवत्व का उदय और नर में नारायण का दर्शन हो सकता है। यह परम आनन्द की स्थिति ही होगी।
उपरोक्त कथन का तात्पर्य यह है कि बाह्य जगत और अन्तर्जगत के दोनों ही क्षेत्र असीम दिव्य सम्वेदनाओं से भरे पड़े हैं। उनकी सुखद सम्वेदनाओं का अन्त नहीं। वस्तुस्थिति यही है। अपनी भ्रान्तियों में उलझ कर उपलब्धियों का लाभ नहीं—लिया यह दूसरी बात है। कस्तूरी का मृग नाभि में सुगन्ध के भण्डार को समझ नहीं पाता, वह उसे बाहर ढूंढ़ता है और प्राप्त करने के प्रयास में जितनी ही भाग-दौड़ करता है उतना ही थकता और निराश होता है। इस दुर्भाग्य पर दाता को दोष नहीं दिया जा सकता। उसने तो कस्तूरी प्रचुर मात्रा में —निकटतम स्थान नाभि में ही भर दी, करतलगत उपलब्धियों का लाभ लेने में भी बुद्धि समर्थ न हो सके तो कोई क्या करे? मृग-तृष्णा के भटकाव में प्रकृति का नहीं कुछ का कुछ देखने और समझने वाले का ही दोष है।
परमेश्वर ने अपने जेष्ठ पुत्र राजकुमार मनुष्य को अपने इस दिव्य उद्यान में—संसार में आनन्द लेने के लिए भेजा है। यहां आनन्द की सम्भावनाएं एवं सुविधाएं मौजूद हैं। दुःख तो हमारे विकृत दृष्टिकोण और निकृष्ट क्रिया-कलाप की प्रतिक्रिया मात्र है। यहां सुख स्वाभाविक और दुःख भोगने के लिए नहीं आनन्द पाने और आनन्द बखेरने के लिये भेजा है। इस संसार को अधिक सुन्दर, समुन्नत, समृद्ध एवं सुसंस्कृत बनाने के प्रयास में संलग्न रहकर वह अपने ईश्वर प्रदत्त आनन्द को अपने उपार्जन को जोड़कर अधिकाधिक सुखी, आनन्दित रह सकता है। इसके लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाना पड़ता। इसके लिए मात्र अपनी दुर्बुद्धि का निराकरण और दुष्प्रवृत्ति का निवारण पर्याप्त होता है। आनन्द मनुष्य की पैतृक सम्पत्ति है। वह उसे उत्तराधिकार में—प्रचुर परिमाण में—मिली है। उपलब्धियों का स्वरूप समझना और उनका सदुपयोग करना जानना चाहिए। जिनसे इतना भी नहीं बन पड़ता उन्हें दुर्बुद्धिजन्य दयनीय दुर्दशा में ही पड़ा हुआ माना जायगा।
परमात्मा आनन्द स्वरूप है। जीवसत्ता के कण-कण में आनन्द का स्रोत है। प्रकृति में सौन्दर्य और सुविधा प्रदान करने की विशेषता भरी पड़ी है। यहां सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। इसी से जीवन को ‘आनन्दमय’ कहा गया है। यह कोश उसे असीम मात्रा में, सहज सुखद रूप से उपलब्ध है। हम आनन्दमय लोक में रह रहे हैं। दुर्भाग्य लगभग वैसा ही है जैसा कि कबीर की एक उलटबासी में व्यक्त किया गया है। वे कहते हैं—
पानी में मीन पियासी । मोहि लखि-लखि आवै हांसी ।।
कोई व्यक्ति अपने घर का ताला बन्द करके कहीं चला जाय। लौटने पर ताली गुम जाने से बाहर बैठा ठण्ड में सुकड़े और दुःख भोगे। ठीक ऐसी ही स्थिति हमारी है। तिजोरी की ताली गुम जाने से दैनिक खर्च में कठिनाई पड़ रही है और भूखा-नंगा रहना पड़ रहा है। आनन्दमय कोश अपने भीतर भरा पड़ा है, किन्तु रहना पड़ रहा है निरानन्द स्थिति में। कैसी विचित्र स्थिति है? कैसी विडम्बना है? यह अपने साथ अपना कितना विलक्षण उपहास है।
आनन्दमय कोश की साधना इसी दुःखद दुर्भाग्य का अन्त करने के लिए है। उसके आधार पर उस ताले को खोला जा सकता है जिसमें उल्लास का अजस्र भाण्डागार भरा पड़ा है। यह कार्य आत्मा और परमात्मा के मिलन की विधि-व्यवस्था बना कर—रीति-नीति अपनाकर ही सम्भव हो सकता है। पंचकोशों की साधना के उच्चस्तर पर पहुंच कर इसी ताले को ढूंढ़ना पड़ता है और ताले को खोलने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। जो उसे कर सका उसे फिर यह नहीं कहना पड़ा कि हम निरानन्द नीरस जीवन जीते हैं। दुःख और दुर्भाग्य से ग्रसित हैं।
इस दुःख दुर्भाग्य का अंत आनन्दमय कोश को अनावरण करने पर ही हो सकता है, उस कोश में प्रवेश करके ही जीवात्मा को परम तृप्ति का संतोष मिल सकता है। यही जीवन का लक्ष्य भी है और इसी की आशा पर प्राणी जीवित है। कहना चाहिए आनन्द की प्राप्ति के लिए ही जीव शरीर बन्धन में बंधने को तैयार हुआ है। कहा भी गया है—
‘एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति ।’ —वृहदारण्यक 4। 3। 32
इस आनन्द के प्राप्त होने की आशा से ही समस्त प्राणी जीवित रहते हैं।
आनन्दी ब्रह्मेति व्यजानात् । आनदाद्धचेव खाल्विमानि भूतानि जायते । आनंदेन जातानि जीवति । आनंद प्रयन्त्यभिसं विशन्तीति । —तैत्तरीयोपनिषद्
आनन्द से सब प्राणी पैदा होते हैं और आनन्द में ही वे जीवित रहते हैं। अंत में आनन्द में ही वे जय को प्राप्त होते हैं।
आनंदानुभवस्तत्र जायते योगिनो महान् । स एव तं विजानाति मया वक्तुं न शक्यते ।। —योग रसायनम् 114
उस समय योगी को महान आनन्द का अनुभव होता है, जिसे वही जानता है, मैं वर्णन नहीं कर सकता।
मुच्यमानेषु सत्वेषु ये तो प्रापोद्यसागराः । तैरेवननुपर्याप्तं मोक्षेणा रसिकेन किम् ।। —बोधिचयवितार 8। 108
जीव जब दुःख बन्धन से मुक्त होते हैं तब उससे बोधिसत्व के हृदय में जो आनन्द का समुद्र उमड़ पड़ता है, उतना ही तो पर्याप्त है। रस हीन शुष्क मोक्ष से क्या प्रयोजन? रसो वै सः । रसं हयेवायं लब्ध्यानन्दी भवति । को ह्येवान्यात् कः प्राणयात्? यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् । एष ह्येवानन्दयाति ।। —केन 2। 7
भगवान् रसमय या रस-स्वरूप है। उसी रस को पाकर मनुष्य आनन्द का अनुभव करता है। यदि वह आकाश की भांति सर्वत्र ओत-प्रोत आनन्दमय मूलतत्व न होता, तो कौन अपान और कौन प्राण-रूप क्रियाओं से युक्त जीवन-मात्र में आनन्द का अनुभव करता। वास्तव में वही तत्व प्रत्येक प्राणी के आनन्द का मूल स्रोत है।
परमेश्वर को रस कहा गया है। यह रस भौतिक नहीं आत्मिक है। उसे उल्लास, सन्तोष, तृप्ति, शांति जैसी दिव्य सम्वेदनाओं में अनुभव किया जाता है। इसकी उपलब्धि आन्तरिक उत्कृष्टता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। अन्तरात्मा जितना पवित्र और उदात्त बनता जाता है, उसी अनुपात से यह आनन्द बढ़ता है। यह उत्कृष्ट दृष्टिकोण तथा उच्चस्तरीय कर्म-परायणता पर निर्भर है। निकृष्ट चिन्तन और भ्रष्ट क्रिया-कलाप के रहते अन्य किसी उपाय से इस आनन्द का दर्शन हो नहीं सकता। आनन्द की आकांक्षा करने वाले हर व्यक्ति को आनन्दमय कोश की गहराई में उतर कर उस उद्गम स्रोत तक पहुंचना पड़ता है जहां से दिव्य आनन्द की प्रकाश किरणें फूटती हैं।
सृष्टि में यों कुरूपता भी विद्यमान है और मनुष्य में तामसिकता के अंश भी मौजूद हैं, बदलने और सुधारने के लिए रचनात्मक प्रवृत्ति की आवश्यकता है। असहयोग, विरोध और दण्ड जैसे कटुकृत्यों का निषेध नहीं है, पर वे द्वेष और घृणा से प्रेरित नहीं, सुधार की हित कामना से होने चाहिए। इस प्रकार संसार के अशुभ पक्ष से निपटते हुए भी आन्तरिक उत्कृष्टता स्थिर रखी जा सकती है। श्रेष्ठता का पक्ष तो अधिक मात्रा में है ही अन्धकार से प्रकाश इस संसार में अधिक है। दुष्टता की तुलना में श्रेष्ठता कम नहीं है। उसी को खोजा, अपनाया जाय, सम्पर्क सम्बन्ध उसी से साधा जाय और उसी के अभिवर्धन—परिपोषण में निरत रहा जाय तो मस्तिष्क में निरन्तर सात्विक उत्साह छाया रहेगा। सौन्दर्य दृष्टि विकसित होने पर विश्व-व्यापी सौन्दर्य का दर्शन होने लगेगा। पदार्थों और प्राणियों में पाई जाने वाली श्रेष्ठता के संपर्क में आने से शिवत्व की झांकी मिलती है। इस विश्व के मूल में ब्रह्म सत्ता ही आलोकित है यह समझने वालों को ‘सत्य’ की प्राप्ति होती है। परिष्कृत दृष्टिकोण वालों को सत्यं शिवं सुन्दरम् का दर्शन हर घड़ी होता है और सर्वत्र की उपस्थिति प्रतीत होती है।
सन्त इमर्सन कहा करते थे कि ‘‘मुझे’’ नरक में भेज दो मैं अपने लिए वहीं स्वर्ग बना लूंगा। इस कथन में परिपूर्ण तथ्य भरा पड़ा है। परिष्कृत दृष्टि से समीपवर्ती वातावरण में भी बहुत कुछ सुधारात्मक अनुकूलता उत्पन्न की जा सकती है, किन्तु स्थिति से अनुकूल प्रतिक्रिया उपलब्ध कर सकना तो पूर्णतया अपने हाथ की बात है। स्वर्ग इस दिव्य दर्शन का—उत्कृष्ट चिन्तन का नाम है। उसे कोई स्थान विशेष नहीं माना जाना चाहिए, वह वस्तुतः एक दृष्टिकोण भर है। नरक और स्वर्ग को निकृष्ट और उत्कृष्ट चिन्तन की अशुभ एवं शुभ प्रतिक्रिया की समझा जाना चाहिए। हर व्यक्ति इमर्सन की तरह ही अपने लिए सुखद स्वर्ग का सृजन दृष्टिकोण को परिष्कृत करके सहज ही कर सकता है। आनन्दमय कोश की अगली उपलब्धि है—मोक्ष। मोक्ष अर्थात् बन्धन मुक्ति। बन्धन अर्थात् पिछड़ेपन के कुसंस्कार कषाय-कल्मष। जीव को बांध सकने वाली संसार की और कोई शक्ति नहीं है। उसकी निज की दुर्बलताएं और निकृष्टताएं ही प्रगति के पथ पर बढ़ चलने से रोकने वाली सबसे बड़ी बाधाएं हैं। मकड़ी अपना जाल आप बुनती और उसी में फंसी रहती हैं। रेशम के कीड़े भी अपना बन्दीग्रह आप बनाते हैं। मनुष्य के भव-बन्धन उसी ने अपने हाथों विनिर्मित किये हैं और स्वयं ने ही उन्हें हथकड़ी बेड़ी की तरह धारण किया है। भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह, शावक की तरह ओछेपन का आवरण अपने ही अज्ञान से हमने ओढ़ा है। बन्धनों का कितना कष्ट होता है इसे पशु-पक्षी तक जानते हैं जो विवशता में तनिक भी कमी आने पर बेतरह भाग खड़े होते हैं, भले ही उन्हें कितने ही अभावों और संकटों का सामना क्यों न करना पड़े?
मनुष्य ईश्वर का सबसे बड़ा राजकुमार है। उसकी सम्भावनाएं असीम हैं। उपलब्ध साधनों का सदुपयोग करके वह इसी जीवन में उतनी उच्चस्थिति में पहुंच सकता है जिसे देवात्मा-परमात्मा के समतुल्य कहा जा सके। इस प्रगति में परिस्थिति की नहीं मनःस्थिति की ही प्रधान बाधा है। यदि जीवन की सार्थकता के लिये जो करना है उसे समझ और अपना लिया जाय तो फिर वह स्थिति बन जायगी जिसे ईश्वर की समीपता कहते हैं। मोक्ष इसी का नाम है।
मोक्ष के सम्बन्ध में विचित्र मान्यताएं प्रचलित हैं। कोई उसे जनम-मरण से आवागमन से छुटकारा बताता है कोई इस संसार को छोड़कर किसी अन्य लोक में चले जाने की कल्पना करता है। किसी को काम न करने की—बैठे-ठाले हर इच्छा पूरी होते रहने की स्थिति मोक्ष प्रतीत होती है। किन्हीं-किन्हीं की उड़ान विचित्र है, वे भगवान् का कोई विशेष नगर, ग्राम, लोक मानते हैं और उनके पास दरबारियों की तरह जा विराजने की कल्पना करते हैं। सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य यह चार स्थिति मुक्ति में मिलने की बात बताई जातीं हैं। सालोक्य का मतलब है भगवान के लोक में अपने लिए भी एक फ्लैट बन जाना। सामीप्य का मतलब है उनके दरबारी कर्मचारियों में नियुक्ति होना। सारूप्य का अर्थ है—भगवान जी की डमी कापी बन कर रहना। सुरक्षा के लिए डिक्टेटर लोग प्रायः अपनी ही शकल-सूरत का एक दूसरा आदमी रखते भी थे जिसे खतरे के स्थान पर भेज कर वे स्वयं सुरक्षित रह सके। सायुज्य का तात्पर्य है साझीदारी। उनकी सम्पत्ति अथवा सत्ता में अपनी घुस-पैठ बन पड़ना यह सायुज्य मुक्ति कही जायगी। यह सभी उपहासास्पद बाल कल्पनाएं हैं। इन्हें अलंकारिक वर्णन के रूप में प्रस्तुत किया गया है, पर उदाहरणों को तथ्य मान लेने की भूल अपना ली गई है। मोक्ष का तात्पर्य है—आत्मसत्ता को भौतिक न मान कर विशुद्ध चेतन तत्व के रूप में अनुभव करने लगना। सुखानुभूति, प्रसन्नता एवं सफलता भौतिक साधनों से मिलने के स्थान पर आन्तरिक परिष्कार के आधार पर उपलब्ध होने के तथ्य पर विश्वास करना। पशु-प्रवृत्तियों की कुसंस्कारिता से छूटकर मानवी दैवी संस्कृति को व्यवहार में उतारना। उत्कृष्टता ही ईश्वर है। ईश्वर की समीपता अथवा प्राप्ति का मतलब है अपनी आकांक्षाओं, चेष्टाओं, दिशा-धाराओं को उत्कृष्टता के साथ अविच्छिन्न रूप से जोड़ देना। लोक-मानस, लोक-प्रवाह जिस स्वार्थ एवं पतन की दिशा में बहता चला जा रहा है। उसे विवशता से अपने को मुक्त कर लेना—मछली की तरह धार को चीरते हुए उलटे प्रवाह में तैर सकना। यह अन्तःस्थिति जिसे भी प्राप्त हो उसे बन्धन युक्त कह सकते हैं। मोक्ष अथवा मुक्ति को जीवन का परम फल बताया गया है। उसका स्वरूप यही है।
मरने के बाद स्वर्ग या मुक्ति का लाभ मिल सकता है। यह उपलब्धियां इसी जीवन की हैं। इनका आनन्द इसी जीवन में—आज ही मिलना चाहिए। यह सब कुछ दृष्टिकोण के—आन्तरिक स्तर के—परिवर्तन पर निर्भर है। मुक्ति जीवित रहने पर ही मिलती है। मरने के बाद जो कुछ होता है वह जीवित स्थिति की प्रतिक्रिया भर कहीं जा सकती है। अस्तु आत्मिक प्रबल पुरुषार्थ की सुखद उपलब्धि इसी जीवन में मिलने की बात सोचनी चाहिये। जीवित रहते ही यह स्थिति मिलती है इसलिये उसे ‘जीवन्मुक्ति’ भी कहा जाता है। मुक्ति—जीवन मुक्ति का ही संक्षेप है। निष्कृष्टता से—ओछेपन से छुटकारा पाने वाला कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में मुक्ति का आनन्द ले सकता है इस सन्दर्भ में शास्त्रकारों का अभिमत इस प्रकार है—
उद्वेगारन्दरहितः समयाः स्वच्छयां धिया । न शोचते न चोदेति स जीवन्मुक्त उच्यते ।। —महोपनिषद 2।57
जो उद्वेग और आनन्द से रहित, शोक अथवा हर्षोत्साह के ममत्व एवं स्वच्छ बुद्धि वाला है, वह जीवन मुक्त है।
घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमी कुलं शीलं च शक्ति श्चाष्टौ पाशाः प्रकीर्तिताः पाशबद्धः पशुः प्रोक्तो पाशमुक्तः सदा शिवः । —तन्त्र कौस्तुभ
घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा कुल, शील शक्ति यह आठ पाश हैं। जो इनमें बंधा है सो पशु है और जो मुक्त है सो शिव है।
मौनवान् निरहभावो निर्मानो मुक्त मत्सरः । यः करोति गतोद्वेगः स जीवन्मुक्त उच्यते ।। —महोपनिषद 2। 50
जिसने अहंकार के भाव का परित्याग कर दिया है, मान-मत्सर के विकार से मुक्त हो गया है, जो उद्वेग रहित होकर कर्म में रत है, उसे ही ज्ञानीजन जीवन मुक्त कहते हैं।
यः समस्तार्थ जालेषु व्यवर्हार्यपि निस्पृहः । परार्थेष्क्वि पूर्णात्मा से जीवन्मुक्त उच्यते ।। —महोपनिषद 2। 62
विश्व के सभी अर्थ—जालों के मध्य स्थिर होकर भी पराये धन से निस्पृह रहने वाले धर्मात्मा के समान जो पुरुष निस्पृह रहता है, वह आत्मा में ही पूर्णता का अनुभव करने वाला महात्मा जीवन्मुक्त हैं।
द्वे पदे बन्धमोक्षाय निर्यमति ममेति च । ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते ।। —महोपनिषद 4। 72
बन्धन और मोक्ष में केवल दो पद का अन्तर है। मेरा है यही बन्ध है। मेरा नहीं है, यही मुक्ति है।
इस प्रकार दृष्टिकोण का परिष्कार हो जाने पर आनन्द का स्वरूप आधार और स्थान विदित हो जाने पर मान्यता स्थिर होती है। क्या करने से क्या मिलता है यह निश्चित हो जाना ही मुक्ति का निवारण तथा वस्तुस्थिति का ज्ञान ही तत्वज्ञान है। आत्मिक समस्या ही सबसे बड़ी समस्यायें हैं। उन्हीं के समाधान से वास्तविक समाधान होता है। अस्तु इसी को ब्रह्मज्ञान, तत्वज्ञान, सद्ज्ञान आदि के नाम से पुकारते हैं। आनन्द प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम इसी आंतरिक समाधान और दिशा निर्धारण का प्रयत्न करना पड़ता है। समाधि इसी स्थिति का नाम है। आनन्द की उपलब्धि में सर्वप्रथम इसी का प्रयत्न किया जाता है। यों समाधि बहुत ऊंची योग स्थिति है पर उसका आरम्भ अभ्यास यहीं से आरम्भ करना पड़ता है।
इस समाधि का अभ्यास होने पर बिखराव-भटकाव समाप्त होता है और चिन्तन तथा कर्म का समुचित लाभ मिल सकने की स्थिति बन जाती है इसलिए आनन्दमय कोश की साधना के प्रथम चरण में ‘समाधि’ परक प्रयोग किये जाते हैं। यह जागृत समाधि है। इसमें मूर्छित होने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वरन् प्रलोभन एवं भय की उत्तेजनाओं को शान्त करना पड़ता है। ऐषणाओं के आवेश ठण्डे पड़ने पर मनुष्य अपना लक्ष्य देख पाता है। निर्धारित दिशा में चल पड़ने की बात इससे पूर्व बन ही नहीं पड़ती।
आनन्दमय कोश के साधकों को जिस एकाग्रता की आवश्यकता बताई गई है, वह एक केन्द्र पर सोचते रहने की मानसिक विधि नहीं, वरन् लक्ष्य का सुनिश्चित निर्धारण और अभिगमन है। ऐसी मनःस्थिति को ‘समाधिस्थ’ कहा गया है।
सम्यगाधीयत एकाग्री क्रियते विक्षेपान्परिहृत्य मनो यत्र स समाधिः । —भोज
जिसमें मन को विक्षेपों से हटाकर यथार्थ में एकाग्र किया जाता है, वह स्थिति समाधि है।
त्यक्त्वां विषयभोगांश्च मनोनिश्चलतां गतम् । आत्मशक्तिस्वरूपेण समाधिः परिकीर्त्तितः ।। —दक्षस्मृति 7। 21
विषय भोगों की चंचलता त्याग कर जिसने स्थिर मनःस्थिति प्राप्त कर ली, आत्म-बल प्राप्त कर लिया उसकी स्थिति ‘समाधि’ की ही है।
सलिले सैन्धवं यद्धत्साम्यं भजति योगतः । तथाऽऽत्ममनसोरैक्यं समाधिरभि धीयते ।। —हठ. प्र. 4। 1
अर्थ—जैसे लवण जल में मिलने से जल के ही रूप को प्राप्त हो जाता है वैसे ही आत्मा एवं मन का एक रूप होना समाधि कहलाता है।
समाधिः समतावस्था जीवात्मपरमात्मनोः । संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः ।। —याज्ञयल्क्य
जीवात्मा और परमात्मा की इच्छा एवं दिशा जब एक जैसी होती है, वे वियोग से हटकर एकत्व स्थापित करते हैं तो उस स्थिति को समाधि कहते हैं।
यत्समत्वं तयोरत्र जीवात्मा परमात्मनो । समस्त नष्ट संकल्पः समाधिरभिधीयते ।। स्वयमुच्चलिते देहे दही नित्य समाधिना । निश्चलं तं विजानीयात् समाधिरभिधीयते ।। —सौभाग्य. उपनिषद्
ललक और लिप्साओं की आकांक्षाएं नष्ट होने पर जब जीव और ब्रह्म के बीच एक दिशा का—एकता का—निर्धारण होता है तो उस स्थिति को समाधि कहते हैं। प्रलोभनों की चंचलता शिथिल होने पर जो आत्म स्थिरता प्राप्त होती है वही समाधि है।
आन्तरिक दिव्य क्षमताओं का विनाश तो तृष्णा जन्य चंचलता से होता है। यदि वह उद्विग्नता न रहे, लक्ष्य की ओर चलने का निश्चित संकल्प बन जाय तो अपव्यय रुकने से आत्म-शक्ति का संग्रह और अभिवर्धन होता चलता है। फलतः कितनी ही प्रकार की दिव्य क्षमताएं उभरती चली जाती हैं। इन विभूतियों का परिचय कितने ही रूपों में मिलता रहता है। यथा—
समाध्यभ्यासतो नित्यं जायतेऽन्तर्मनोलयः । अंतर्दृष्टिप्रकाशश्च तस्य संजायते क्रमात् ।। —योग रसायन
समाधि के नित्य अभ्यास से क्रमशः मन अन्तर्लीन हो जाता है और अन्तर्दृष्टि प्रकाशित होती है।
स्वप्नदष्टपदार्थोंधो मृषा भवति निश्चितम् । समाधौ त्वमृषा सर्व वस्तु कार्यकरं तथा ।। —योग रसायनम्
स्वप्न में देखे गये पदार्थ मिथ्या होते हैं, जबकि समाधि स्थिति में अनुभूत बातें सत्य होती हैं तथा उनके द्वारा समाधि के उपरान्त भी वास्तविक लाभ होते हैं। आनन्दमय कोश की साधना का स्वरूप ईश्वर और जीव की मिलन व्यवस्था है। साधारणतया हम ईश्वर के नाम भर से परिचित हैं उसका नाम जब तब लेते भी हैं और भजन वजन का उपक्रम भी चलाते हैं, पर यह प्रयत्न होता ही नहीं कि ईश्वर को अपने में और अपने को ईश्वर में—समाहित करने का प्रयत्न करें। इस समन्वय का कितना सुखद परिणाम हो सकता है इसकी कभी कल्पना भी तो नहीं आती। आमतौर से ईश्वर एक ऐसा व्यक्ति माना जाता है जो थोड़े से स्तवन पूजन से प्रसन्न किया जा सकता है और जिससे तुर्त-फुर्त मनोवांछित वरदान मिल सकते हैं। इसी प्रलोभन में पूजा उपचार की सारी विडम्बनाएं चलती हैं। ऐसे भगवत् भक्त कहां हैं, जो अपने ऊपर ईश्वरीय अनुशासन की स्थापना करते हैं। अपना समग्र समर्पण उसके चरणों में प्रस्तुत करते हैं। वस्तुतः भक्ति का यही स्वरूप है। यह जहां भी अपने वास्तविक स्वरूप में होगी वहां निश्चित रूप से अमृत की वर्षा हो रही होगी। स्वर्गीय परिस्थितियां बनी होंगी। उल्लास बिखरा पड़ा होगा, सन्तोष की शान्ति रह रही होगी।
ईश्वर व्यक्ति नहीं, शक्ति है। उसे मनुष्यों की तरह मनुहार उपहार के सहारे प्रसन्न नहीं किया जा सकता। बिजली का समुचित लाभ उठाने के लिये उसके उपयोग की मर्यादाओं को अपनाना पड़ता है। ईश्वर की प्रसन्नता इन तथ्यों पर अवलम्बित है जिन्हें उत्कृष्टता के नाम से जाना जाता है। जिसे भावना क्षेत्र में आस्तिकता, चिन्तन क्षेत्र में आध्यात्मिकता और कर्मक्षेत्र में धार्मिकता के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
उपासना का स्वरूप है—समन्वय। भक्ति का चरम लक्ष्य है—समन्वय—एकीकरण—समर्पण। द्वैत को मिटा कर अद्वैत की स्थापना। यह नाले का नदी में समर्पण हुआ। इसे कठपुतली का बाजीगर की उंगलियों के साथ गठ-बन्धन कहा जा सकता है। इसे पत्नी का पति को वरण समझा जा सकता है—अनुशासन की स्थापना यही है। अपनी स्वतन्त्र इच्छा आकांक्षाएं समाप्त करके ईश्वरीय अनुशासन को अपने ऊपर स्थापित कर लेना—समर्पण यही है। इसी आत्म-समर्पण की गीता में भगवान ने भक्त से मांग की है। ईंधन अपने को अग्नि में डालकर अग्निमय हो जाता है। पानी दूध में मिलकर एक रूप बन जाता है। ईश्वर को मनोकामना पूर्ति का ‘ट्रल’ नहीं बनाया जाना चाहिए, वरन् उसकी गरिमा में अपने आपको आत्मसात् कर देना चाहिये। इसी स्थिति को ब्रह्म निर्वाह—ईश्वर दर्शन या भगवत प्राप्ति कहा गया है। यही ब्रह्म-विद्या की अद्वैत साधना है। इसी आधार पर जन को नारायण-पुरुष को पुरुषोत्तम—जीव को ब्रह्म—आत्मा को परमात्मा बनने का अवसर मिलता है।
प्रेम में आकर्षण है—चुम्बकत्व है। प्रेमी की समीपता सुहाती है, उसी के लिए अधीरता रहती है। ईश्वर भक्ति का भगवत् प्रेम का—स्वरूप यही है कि बीच की दूरी को समाप्त किया जाय। दोनों के बीच गहन समस्वरता दिखाई दे। इस स्थिति में या तो ईश्वर को जीव की इच्छानुसार काम करना पड़ेगा या जीव को ईश्वर का अनुवर्ती बनना पड़ेगा। स्पष्ट है कि नदी नाले में नहीं मिल सकती, उसकी गहराई, चौड़ाई इतनी नहीं है कि जिसमें नदी समा सकें। नाले का ही नदी में मिलना सम्भव है। जीव का इच्छानुवर्ती ईश्वर नहीं हो सकना। यह भ्रान्ति छोड़ देनी चाहिए। भक्त को ही भगवान का अनुवर्ती होना चाहिए। यह कार्य भौतिक महत्वाकांक्षाओं को समाप्त करके ईश्वर के अनुवर्ती बनने से ही सम्भव होता है। श्रद्धा और भक्ति का स्वरूप यही है। इसी आधार पर ईश्वर प्राप्ति का आनन्द लिया जा सकता है।
ईश्वर प्रेम सीमाबद्ध नहीं रह सकता। हिमालय के हृदय से निकली हुई गंगा, कहीं अवरुद्ध नहीं बैठी रहती, वरन् सूखे भू-खण्डों और प्यासे प्राणियों की प्यास बुझाती हुई अपनी क्षुब्धता को समुद्र की विशालता में समर्पित करती है। भक्ति का अर्थ है—प्रेम। प्रेम सम्वेदना की प्रतिक्रिया है—आत्मीयता, करुणा, उदारता, सेवा, सद्भावना। यह श्रेष्ठ सम्वेदनाएं कल्पना और भावना क्षेत्र में आगे बढ़कर जब व्यवहार बन कर विकसित होती हैं तो उसका स्वरूप आत्म-निर्माण और लोक-निर्माण के विविध क्रिया प्रयोजनों में ही परिलक्षित होता है। अपने को और दूसरों को ईश्वर की शरण में ले जाने की—श्रद्धा और शक्ति का अवलम्बन, आश्रय दिलाने की—ही आकांक्षा प्रबल रहती है। निरन्तर इसी दिशा में सोचा जाता है और ऐसे ही कृत्य करने का ताना-बाना बुना जाता है।
यही है वह स्थिति—जिसे आनन्दमय कोश की जागृति कह सकते हैं। पंचकोशी गायत्री उपासना की यही सर्वोच्च स्थिति है। इसमें निरन्तर ईश्वर दर्शन की अनुभूति होती है। भगवान सूक्ष्म है, उसका साक्षात्कार भावानुभूति के रूप में ही होता है। आंखों से खिलौने की तरह ईश्वर को देखने की इच्छा करना बाल-बुद्धि के अतिरिक्त और कुछ नहीं। जब हवा, सर्दी, मैत्री, क्रोध, सुख, दुःख जैसे प्रत्यक्ष आंख से नहीं देखे जा सकते तो ईश्वर जैसे अचिन्त्य, अप्रमेय को इन चर्म-चक्षुओं से देखा जा सकना कैसे सम्भव हो सकता है। जिन्हें ऐसे दृश्य दीखते भी हैं वे उनकी ध्यान चेतना की, प्रगाढ़ता का परिचय मात्र देते हैं। उन्हें दिवा स्वप्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। ईश्वर दर्शन को अन्तःकरण में दिव्यता की झांकी करने के रूप में ही होते हैं। उसके लिए श्रद्धा और भक्ति के दो पैरों के सहारे लम्बी यात्रा पूरी करनी पड़ती है।
आनन्दमय कोश—श्रद्धा और भक्ति का उद्गम केन्द्र है। वही ईश्वर मिलन की अनुभूति होती है। अस्तु ईश्वर मिलन का लक्ष्य पूरा करने के लिये गायत्री की उच्च स्तरीय पंचकोशी साधना की विधि व्यवस्था बनी है। भावनात्मक क्षेत्र में इस दिव्य मिलन की प्रतिक्रिया आनन्द और उल्लास के रूप में दृष्टिगोचर होती है। संसार के श्रेष्ठ—देवपक्ष को देखते हुए प्रसन्न होना—आनन्द है और निकृष्ट—दैत्यपक्ष को निरस्त करने के लिए उमंगते हुए शौर्य, साहस का नाम है—उल्लास धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए ईश्वर का अवतार होने की प्रतिज्ञा को साधक अपने ही भीतर पूरी होते देखता है। उसे लगता है कि भगवान का अवतार आनन्द और उल्लास के—श्रद्धा और भक्ति के रूप में अपने ही भीतर हो रहा है। आनन्दमय कोश का यही भाव पक्ष है।