Books - गायत्री के चौदह रत्न
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ईश्वरीय सत्ता का तत्व ज्ञान
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ओमित्येव सुनामध्येय मनघं विश्वात्मनो ब्रह्मणः
सर्वेष्वेव हितस्य नामसु बसोरेतत्प्रधानं मतम् ।
यं वेदा निगदन्ति न्याय निरतं श्रीसच्चिदानन्दकम्
लोकेशं समदर्शिनं नियमिनं चाकार हीनं प्रभुम् ।।
अर्थ—जिसको वेद न्यायकारी, सच्चिदानन्द संसार का स्वामी समदर्शी, नियामक और निराकार कहते हैं। जो विश्व की आत्मा है। उस ब्रह्म के समस्त नामों से श्रेष्ठ नाम, ध्यान करने योग्य ‘‘ॐ’’ यह मुख्य नाम माना गया है।
गायत्री स्मृति के प्रथम श्लोक के अनुसार ‘‘ॐ भूः र्भुवः स्वः’’ का भावार्थ इस पुस्तक के प्रथम भाग में आरम्भ में दिया जा चुका है। गायत्री गीता में इन प्रणव और व्याहृतियों के चार पदों के लिये अलग अलग चार श्लोक हैं। उन चारों की विवेचना अब इन पृष्ठों पर की जा रही है। इस प्रकार प्रणव और व्याहृतियों का दुहरा अर्थ जानने का सुअवसर पाठकों को प्राप्त होगा।
गायत्री मन्त्र के प्रारम्भ में ‘ॐ’ लगाया जाता है। ‘ॐ’ परमात्मा का प्रधान नाम है। ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा जाता है। ‘‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’’ उस एक ही परमात्मा को ब्रह्मवेत्ता अनेक प्रकार से कहते हैं। विभिन्न भाषाओं और संप्रदायों में उसके अनेक नाम हैं। एक-एक भाषा में ईश्वर के पर्यायवाची अनेक नाम हैं फिर भी वह एक ही है। इन नामों में ॐ को प्रधान इसलिए माना है कि प्रकृति की संचालक सूक्ष्म गति विधियों को अपने योग बल से देखने वाले ऋषियों ने समाधि लगाकर देखा है कि प्रकृति के अन्तराल में प्रतिक्षण एक ध्वनि उत्पन्न होती है जो ‘‘ॐ’’ शब्द से मिलती जुलती है। सूक्ष्म प्रकृति इस ईश्वरीय नाम का प्रतिक्षण जप और उद्घोष करती है इसलिए यह अकृत्रिम, दैवी, स्वयं घोषित, ईश्वरीय नाम सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।
आस्तिकता का अर्थ है—सतोगुणी, दैवी, ईश्वरीय, परमार्थिक भावनाओं को हृदयंगम करना। नास्तिकता का अर्थ है—तामसी, आसुरी, शैतानी, भोगवादी, स्वार्थ पूर्ण वासनाओं में लिप्त रहना यों तो ईश्वर भले बुरे दोनों तत्वों में है पर जिस ईश्वर की हम पूजा करते हैं, भजते हैं, ध्यान करते हैं यह ईश्वर सतोगुणी का प्रतीक है। जैसे किसी सुविस्तृत राष्ट्र का प्रतीक एक राष्ट्र का ध्वज (झण्डा) होता है। कोई विदेशी किसी देश के झण्डे का मान या अपमान करे तो यह उस राष्ट्र का मान व अपमान समझा जायगा जिसका कि वह झण्डा है। इसी प्रकार मानव प्राणियों के अन्तःकरण में निवास करने वाली व्यापक सात्विकता का प्रतीक वह ईश्वर है जिनकी हम पूजा करते हैं। ईश्वर की प्रतिष्ठा, पूजा, उपासना, प्रशंसा, उत्सव, समारोह, कथा, यात्रा, लीला आदि का तात्पर्य है सतोगुण के प्रति अपना अनुराग प्रकट करना, उसको हृदयंगम करना, उसमें तन्मय होना। इस प्रक्रिया से हमारी मनोभूमि पवित्र होती है और हमारे विचार तथा कार्य ऐसे हो जाते हैं जो हमारे व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन में स्थायी सुख शान्ति की सृष्टि करते हैं। ईश्वर उपासना का महा प्रसाद साधक ही अन्तरात्मा में सतोगुण की वृद्धि के रूप में, तत्क्षण मिलना आरम्भ हो जाता है।
गायत्री गीता के उपरोक्त प्रथम श्लोक में ईश्वर की अन्य अनेक विशेषताएं बताई गई हैं। वह न्यायकारी, समदर्शी, नियामक तथा निराकार है। विश्व की आत्मा है। विश्व के समस्त प्राणियों में आत्मा रूप से वह निवास करता है। मन बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय विकृत हो जाने से अज्ञान और माया का, स्वार्थ और भोग का, मैल बढ़ जाने से अनेकों मनुष्य कुविचारों और कुकर्मों में ग्रस्त देखे जाते हैं, फिर भी उनका अन्तरात्मा ईश्वर का अंश होने के कारण भीतर से उन्हें सन्मार्ग पर चलने का आदेश देता रहता है। यदि उस अन्तरात्मा की पुकार को सुना जाय उसके संकेतों पर चला जाय तो बुरे से बुरा मनुष्य भी थोड़े समय में श्रेष्ठतम महात्मा बन सकता है। गीता में भगवान ने कहा है कि—‘‘सब छोड़ कर मेरी शरण में आ मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा।’’ अन्तरात्मा की, परमात्मा की शरण में जाने से, आत्मा समर्पण करने से, दैवी प्रेरणाओं को हृदयंगम करने से मनुष्य ईश्वर का सच्चा भक्त बनता है। भक्त तो भगवान का प्रत्यक्ष रूप है।
चूंकि भगवान हर एक की आत्मा में निवास करता है। इसलिए किसी भी व्यक्ति को मूलतः दुष्ट नहीं मानना चाहिये, न उससे द्वेष ही करना चाहिये। दुष्ट विचारों और कार्यों से ही हमारा द्वेष होना चाहिये। दुष्टता एक रोग है, रोग को मार भगाने और रोगी को जीवित रखने के लिये काफी प्रयत्न किया जाता है ऐसा ही प्रयत्न दुष्टता को मिटा कर दुष्ट मनुष्य को सज्जन बनाने के लिये होना चाहिए। प्रयत्न करने पर बुराइयां दूर हो सकती हैं क्योंकि आत्मा का मूल स्वरूप देवी है। उसमें ईश्वर का निवास है। फोड़ा चिरवाने की तरह दण्ड द्वारा भी सुधार किया जा सकता है पर घृणा एवं द्वेष को किसी के लिए भी मन में स्थान नहीं देना चाहिए।
ईश्वर सर्वव्यापी है। इसलिये वह एकदेशीय नहीं हो सकता। वह परमात्मा रूप है इसलिए निराकार है। फिर भी यह सब सारा उसी का होने से, सबमें समाया होने से साकार है। किन्हीं महापुरुषों में उसकी विशेष शक्तियां, विशेष कलाएं होती है तो उन्हें उतनी कलाओं का अवतार कहते हैं। परशुराम जी में तीन कलाएं, राम में बारह कलाएं, कृष्ण में सोलह कलाएं बताई गई हैं। एक ही समय में कई अवतार कई महापुरुष हो सकते हैं। रामचन्द्र जी और परशुराम जी एक ही समय में दो अवतार थे। गीता के अनुसार ‘‘जब अधर्म की वृद्धि होती है तब धर्म की स्थापना के लिए अवतार होते हैं।’’ वे अवतारी महापुरुष अकेले ही सब कुछ नहीं कर लेते वरन् जनता को नवीन विचार एवं उत्साह देकर जागृत करते हैं और अनेक सहयोगियों की सहायता से उस ईश्वरीय उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। कृष्ण द्वारा कौरवों का नाश, राम द्वारा राक्षसों का नाश, अकेले ही नहीं किया था वरन् उनके विरुद्ध अपार जनसमूह लड़ा करके ही सफलता प्राप्त की गई थी। बुराइयों के निवारण एवं अच्छाइयों की स्थापना के लिए जहां भी कार्य होता है, ईश्वरीय प्रेरणा से ही होता है। अवतारी सत्पुरुष उसे पूरा करने में जुट जाते हैं और अन्त में जन सहयोग से वह उद्देश्य पूरा होता है। ऐसी अवतारी प्रक्रिया छोटे मोटे रूप में सदा होती रहती है और बड़े रूप में कभी कभी विशेष आवश्यकता के समय होती है। अवतारी कार्यों में सहायता करना हनुमान अर्जुन की तरह अपने को यश तथा प्रतिष्ठा का भागी बना लेना है।
परमात्मा को खुशामद पसन्द नहीं। किसी की निन्दा स्तुति की उसे आवश्यकता नहीं। वह किसी पर प्रसन्न अप्रसन्न नहीं होता। पूजा उपासना एक प्रकार का आध्यात्मिक व्यायाम है जिसके करने से हमारा आत्मबल बढ़ता है। सतोगुण की मात्रा में वृद्धि होती है ईश्वर को सर्व व्यापक समझने वाला पापों से डरेगा। कोतवाल सामने खड़ा हो तो चोर प्रकृति का मनुष्य भी उस समय साधु सा आचरण करता है। सबसे बड़े कोतवाल ईश्वर को जो अपने अन्दर बाहर चारों ओर व्यापक देखता है वह दण्ड से डरेगा और पाप न कर सकेगा। प्राणीमात्र में ईश्वर को व्यापक देखने वाला व्यक्ति सबके साथ सद्व्यवहार ही कर सकता है। यह ईश्वरीय दृष्टि प्राप्त करना, ईश्वराधना का प्रधान उद्देश्य है। ध्यान प्रार्थना, पूजा, कीर्तन, जप आदि ऐसी मनोवैज्ञानिक क्रियाएं हैं जिनके द्वारा मनोभूमि में चिपके हुए अनेकों कुसंस्कार छूटते और उनके स्थान पर सुसंस्कारों की स्थापना होती है। ईश्वर के नाम पर लोक हितकारी कामों के लिए दान देना अपनी ही व्यक्तिगत और सामूहिक सतोगुणों उन्नति करना है।
वह समदर्शी और न्यायकारी है। सभी पुत्र उसे परम प्रिय हैं और सभी समान हैं। निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह वह सबको उसके कर्मों के आधार पर फल देता है। अपने भले बुरे कर्मों का परिपाक ही कालान्तर में प्रारब्ध, भाग्य, कर्म रेखा, ईश्वर की कृपा, दैवी वरदान, ग्रहदशा आदि के रूप में प्रकट होता है। कर्म चाहे आज का हो चाहे पुराना उसी का फल हमें मिलेगा। ईश्वर अपनी ओर से किसी के साथ विशेष क्रोध या प्रेम प्रकट नहीं करता। उसने सबको अत्यन्त बहुमूल्य रथ शरीर, अत्यन्त विलक्षण अस्त्र मस्तिष्क, संसार में उपस्थित अत्यन्त सुखदायिनी वस्तुएं देकर अपनी दयालुता का परिचय दिया है यह हमारा काम है कि अपने भले बुरे कर्मों द्वारा अपने जीवन को सुखी या दुखी चाहे जैसा बनायें। वह किसी की क्रियाशीलता में हस्तक्षेप नहीं करता अपनी इच्छानुसार काम करने के लिये सबको पूर्ण स्वतन्त्र छोड़ दिया है, कर्म फल से कोई बच नहीं सकता। वह हर एक को अवश्य भुगतना पड़ता है। न्यायधीश ईश्वर के न्याय से कोई भी बच नहीं सकता।
वह नियामक है। स्वयं नियम रूप है, उसका हर काम नियम पूर्वक हो रहा है। ग्रह नक्षत्र एक क्षण भर आगे पीछे उदय नहीं हो सकते। गेहूं ही उत्पन्न होता है, वस्तुएं अपने अपने गुण धारण किये रहती हैं। कभी कभी जो अनियमितता दिखाई देती है वह भी किन्हीं सूक्ष्म नियमों के आधार पर ही होती है। जो व्यक्ति ईश्वरीय नियमों पर चलते हैं, प्राकृतिक जीवन बिताते हैं, कर्तव्य धर्म में स्थिर रहते हैं वह ईश्वर की आनन्दमयी सृष्टि का आनन्द आस्वादन करते हैं जो उन नियमों को उल्लंघन करते हैं वे हानि उठाते हैं। अग्नि बड़ी दयालु है वह हमारा शीत निवारण करती है। भोजन पकाती है, वाष्प यन्त्र चलाती है अन्य अनेक प्रकार के लाभ पहुंचाती है पर उसे नियम विरुद्ध छुआ जाय तो हाथ जला देगी। बिजली से हमें अनेकों लाभ होते हैं पर उसे गलत तरह छुएं तो प्राण लेने में कोई रियायत नहीं करेगी। इसी प्रकार ईश्वर हमें अनेक सुख देता है पर यदि उसके नियमों का उल्लंघन करें तो वह नरक की भयंकर अग्नि में तपा डालने वाला क्रूर यमराज भी बन जाता है। उसके नियमों पर चलना ही सर्वोत्तम पूजा है।
साधारण मनुष्यों का अन्तःकरण आत्मा कहलाता है। अविकसित होने के कारण उसकी जीव सत्ता है जब उसका विकास होता है अहंभाव विस्तृत होकर वसुधैव कुटुम्बकम् के रूप में परिणत हो जाता है। सब अपने आत्मीय दिखाई पड़ने लगते हैं सबमें आत्मा और आत्मा में सब समाये हुए दिखाई पड़ने लगते हैं तो वह लघु आत्मा परम आत्मा (परमात्मा) महान आत्मा (महात्मा) बन जाता है। विश्व की समृष्ट आत्मा ही विश्वात्मा या परम आत्मा है इसे ही समाज पुरुष, विराट भगवान, जनता जनार्दन आदि नामों से भी पुकारते हैं। विश्व मानव की उपासना समाज पुरुष की सेवा भगवान ॐ की ही आराधना है। गीता के 20 वें अध्याय में भगवान ने बताया है कि वृक्षों में पीपल, पशुओं में गौ, मनुष्यों में ब्राह्मण, नक्षत्रों में चन्द्रमा, ग्रहों में सूर्य, इन्द्रियों में मन, पर्वतों में हिमालय, पक्षियों में गरुण, नदियों में गंगा, मन्त्रों में गायत्री मन्त्र, ऋतुओं में बसंत में हूं।
अर्थात् जो जो श्रेष्ठ, सात्विक सुदृढ़ एवं उपयोगी विभूतियां हैं उनमें मेरे ही अंश की अधिकता है। जिन विचार धाराओं में, व्यक्तियों में, वस्तुओं में इस प्रकार के तत्व अधिक हैं उनमें ईश्वरीय कलाओं की विशेषता अनुभव की जा सकती है। जहां प्रभु का निवास होगा वहां निश्चय पूर्वक श्रेष्ठता, सात्विकता, दृढ़ता एवं परोपकार की प्रधानता होगी। तलाश करने पर अनेक स्थानों पर हम प्रभु का ऐसा निवास ढूंढ़ सकते हैं और उसकी झांकी करके अपने को तृप्त कर सकते हैं। इसलिए कहा गया है कि सत्संग में भगवान का निवास होता है प्राचीन काल में सत्पुरुषों का निवास अधिक रहने के कारण तीर्थों की महिमा हुई थी और तीर्थ यात्रा को पुण्य फल माना जाता था। आज भी वहां महापुरुषों का निवास है वह स्थान प्रत्यक्ष तीर्थ ही हैं।
राम, कृष्ण आदि की सुन्दर छवियां एवं उनकी गुणावली का ध्यान करना अपनी अन्तिम उन्नति का आदर्श एवं लक्ष स्थापित करना है। बड़े बड़े भवन बनाने होते हैं तो पहले उनका मोटा मॉडल बना लिया जाता है, उसके आधार पर विशाल भवन बनता है। हमें स्वास्थ्य, सौन्दर्य, बल, गुण, विशेषता आदि की दृष्टि से आत्म निवारण के जिस लक्ष तप पहुंचना है उस मॉडल से अनन्य प्रेम एवं प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न करने के लिए भगवान की कल्पित मूर्तियों का ध्यान किया जाता है। मन्दिर मठ आदि आत्मिक ज्ञान के प्रचार केन्द्र हैं। उस केन्द्र के कार्यकर्ताओं की सम्मानपूर्वक आजीविका चलाने के लिये मन्दिरों में भोग, चढ़ावा, पूजा आदि की विधि व्यवस्था बनाई गई थी। आज वह सब पद्धतियां बड़ी गड़बड़ हो गई हैं, अनाचार, धूर्तता और मूर्खता का बोलबाला है पर प्रयत्न करने पर प्राचीन आदर्शों को पुनः सजीव किया जा सकता है, और भगवत पूजा के आधार पर धर्म, समाज, राष्ट्र, संस्कृति एवं सामाजिक सदाचार के पुनः उद्धार के विशाल आयोजन किये जा सकते हैं। इसके लिए मन्दिरों, मठों एवं पुरोहितों का सुधार कर उनसे केन्द्र बिन्दु का कार्य लिया जा सकता है।
गायत्री का प्रथम अक्षर ॐ हमें इन्हीं सब बातों की शिक्षा देता है। यह ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ नाम है उसके उच्चारण से सूक्ष्म प्रकृति आत्म चेतना के साथ सम्बन्धित होने की साधना अपने आप होती चलती है। यह ईश्वर का स्वयं घोषित सबसे छोटा नाम है। साथ ही गायत्री गीता ने बताया है कि वह ईश्वर न्यायकारी, प्रभु समदर्शी, अविनाशी, चैतन्य, आनन्द स्वरूप, नियम रूप, निराकार एवं विश्व आत्मा है। इन नामों में जो महत्व पूर्ण तत्व ज्ञान छिपा हुआ है उसे जान कर उसको आचरण रूप से लाकर हमें ॐ की उपासना करनी चाहिए।
‘ॐ’ में तीन अक्षर मिले हुए हैं अ, उ, म्। अ, का अर्थ है आत्म परायणता, शरीर के विषयों से मन हटाकर आत्मानन्द में रमण करना। उ, का अर्थ है—उन्नति अपने को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं आत्मिक सम्पत्तियों से सम्पन्न करना। म, का अर्थ है—महानता, क्षुद्रता, संकीर्णता स्वार्थ परता, इन्द्रिय लोलुपता को छोड़ कर प्रेम, दया, उदारता, सेवा, त्याग, संयम एवं आदर्श के आधार पर जीवन यापन की व्यवस्था बनाना। इन तीनों अक्षरों में जो शिक्षा है उसे अपनाकर व्यवहारिक रूप से ‘‘ॐ’’ की, ईश्वर की उपासना करनी चाहिये।
अर्थ—जिसको वेद न्यायकारी, सच्चिदानन्द संसार का स्वामी समदर्शी, नियामक और निराकार कहते हैं। जो विश्व की आत्मा है। उस ब्रह्म के समस्त नामों से श्रेष्ठ नाम, ध्यान करने योग्य ‘‘ॐ’’ यह मुख्य नाम माना गया है।
गायत्री स्मृति के प्रथम श्लोक के अनुसार ‘‘ॐ भूः र्भुवः स्वः’’ का भावार्थ इस पुस्तक के प्रथम भाग में आरम्भ में दिया जा चुका है। गायत्री गीता में इन प्रणव और व्याहृतियों के चार पदों के लिये अलग अलग चार श्लोक हैं। उन चारों की विवेचना अब इन पृष्ठों पर की जा रही है। इस प्रकार प्रणव और व्याहृतियों का दुहरा अर्थ जानने का सुअवसर पाठकों को प्राप्त होगा।
गायत्री मन्त्र के प्रारम्भ में ‘ॐ’ लगाया जाता है। ‘ॐ’ परमात्मा का प्रधान नाम है। ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा जाता है। ‘‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’’ उस एक ही परमात्मा को ब्रह्मवेत्ता अनेक प्रकार से कहते हैं। विभिन्न भाषाओं और संप्रदायों में उसके अनेक नाम हैं। एक-एक भाषा में ईश्वर के पर्यायवाची अनेक नाम हैं फिर भी वह एक ही है। इन नामों में ॐ को प्रधान इसलिए माना है कि प्रकृति की संचालक सूक्ष्म गति विधियों को अपने योग बल से देखने वाले ऋषियों ने समाधि लगाकर देखा है कि प्रकृति के अन्तराल में प्रतिक्षण एक ध्वनि उत्पन्न होती है जो ‘‘ॐ’’ शब्द से मिलती जुलती है। सूक्ष्म प्रकृति इस ईश्वरीय नाम का प्रतिक्षण जप और उद्घोष करती है इसलिए यह अकृत्रिम, दैवी, स्वयं घोषित, ईश्वरीय नाम सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।
आस्तिकता का अर्थ है—सतोगुणी, दैवी, ईश्वरीय, परमार्थिक भावनाओं को हृदयंगम करना। नास्तिकता का अर्थ है—तामसी, आसुरी, शैतानी, भोगवादी, स्वार्थ पूर्ण वासनाओं में लिप्त रहना यों तो ईश्वर भले बुरे दोनों तत्वों में है पर जिस ईश्वर की हम पूजा करते हैं, भजते हैं, ध्यान करते हैं यह ईश्वर सतोगुणी का प्रतीक है। जैसे किसी सुविस्तृत राष्ट्र का प्रतीक एक राष्ट्र का ध्वज (झण्डा) होता है। कोई विदेशी किसी देश के झण्डे का मान या अपमान करे तो यह उस राष्ट्र का मान व अपमान समझा जायगा जिसका कि वह झण्डा है। इसी प्रकार मानव प्राणियों के अन्तःकरण में निवास करने वाली व्यापक सात्विकता का प्रतीक वह ईश्वर है जिनकी हम पूजा करते हैं। ईश्वर की प्रतिष्ठा, पूजा, उपासना, प्रशंसा, उत्सव, समारोह, कथा, यात्रा, लीला आदि का तात्पर्य है सतोगुण के प्रति अपना अनुराग प्रकट करना, उसको हृदयंगम करना, उसमें तन्मय होना। इस प्रक्रिया से हमारी मनोभूमि पवित्र होती है और हमारे विचार तथा कार्य ऐसे हो जाते हैं जो हमारे व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन में स्थायी सुख शान्ति की सृष्टि करते हैं। ईश्वर उपासना का महा प्रसाद साधक ही अन्तरात्मा में सतोगुण की वृद्धि के रूप में, तत्क्षण मिलना आरम्भ हो जाता है।
गायत्री गीता के उपरोक्त प्रथम श्लोक में ईश्वर की अन्य अनेक विशेषताएं बताई गई हैं। वह न्यायकारी, समदर्शी, नियामक तथा निराकार है। विश्व की आत्मा है। विश्व के समस्त प्राणियों में आत्मा रूप से वह निवास करता है। मन बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय विकृत हो जाने से अज्ञान और माया का, स्वार्थ और भोग का, मैल बढ़ जाने से अनेकों मनुष्य कुविचारों और कुकर्मों में ग्रस्त देखे जाते हैं, फिर भी उनका अन्तरात्मा ईश्वर का अंश होने के कारण भीतर से उन्हें सन्मार्ग पर चलने का आदेश देता रहता है। यदि उस अन्तरात्मा की पुकार को सुना जाय उसके संकेतों पर चला जाय तो बुरे से बुरा मनुष्य भी थोड़े समय में श्रेष्ठतम महात्मा बन सकता है। गीता में भगवान ने कहा है कि—‘‘सब छोड़ कर मेरी शरण में आ मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा।’’ अन्तरात्मा की, परमात्मा की शरण में जाने से, आत्मा समर्पण करने से, दैवी प्रेरणाओं को हृदयंगम करने से मनुष्य ईश्वर का सच्चा भक्त बनता है। भक्त तो भगवान का प्रत्यक्ष रूप है।
चूंकि भगवान हर एक की आत्मा में निवास करता है। इसलिए किसी भी व्यक्ति को मूलतः दुष्ट नहीं मानना चाहिये, न उससे द्वेष ही करना चाहिये। दुष्ट विचारों और कार्यों से ही हमारा द्वेष होना चाहिये। दुष्टता एक रोग है, रोग को मार भगाने और रोगी को जीवित रखने के लिये काफी प्रयत्न किया जाता है ऐसा ही प्रयत्न दुष्टता को मिटा कर दुष्ट मनुष्य को सज्जन बनाने के लिये होना चाहिए। प्रयत्न करने पर बुराइयां दूर हो सकती हैं क्योंकि आत्मा का मूल स्वरूप देवी है। उसमें ईश्वर का निवास है। फोड़ा चिरवाने की तरह दण्ड द्वारा भी सुधार किया जा सकता है पर घृणा एवं द्वेष को किसी के लिए भी मन में स्थान नहीं देना चाहिए।
ईश्वर सर्वव्यापी है। इसलिये वह एकदेशीय नहीं हो सकता। वह परमात्मा रूप है इसलिए निराकार है। फिर भी यह सब सारा उसी का होने से, सबमें समाया होने से साकार है। किन्हीं महापुरुषों में उसकी विशेष शक्तियां, विशेष कलाएं होती है तो उन्हें उतनी कलाओं का अवतार कहते हैं। परशुराम जी में तीन कलाएं, राम में बारह कलाएं, कृष्ण में सोलह कलाएं बताई गई हैं। एक ही समय में कई अवतार कई महापुरुष हो सकते हैं। रामचन्द्र जी और परशुराम जी एक ही समय में दो अवतार थे। गीता के अनुसार ‘‘जब अधर्म की वृद्धि होती है तब धर्म की स्थापना के लिए अवतार होते हैं।’’ वे अवतारी महापुरुष अकेले ही सब कुछ नहीं कर लेते वरन् जनता को नवीन विचार एवं उत्साह देकर जागृत करते हैं और अनेक सहयोगियों की सहायता से उस ईश्वरीय उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। कृष्ण द्वारा कौरवों का नाश, राम द्वारा राक्षसों का नाश, अकेले ही नहीं किया था वरन् उनके विरुद्ध अपार जनसमूह लड़ा करके ही सफलता प्राप्त की गई थी। बुराइयों के निवारण एवं अच्छाइयों की स्थापना के लिए जहां भी कार्य होता है, ईश्वरीय प्रेरणा से ही होता है। अवतारी सत्पुरुष उसे पूरा करने में जुट जाते हैं और अन्त में जन सहयोग से वह उद्देश्य पूरा होता है। ऐसी अवतारी प्रक्रिया छोटे मोटे रूप में सदा होती रहती है और बड़े रूप में कभी कभी विशेष आवश्यकता के समय होती है। अवतारी कार्यों में सहायता करना हनुमान अर्जुन की तरह अपने को यश तथा प्रतिष्ठा का भागी बना लेना है।
परमात्मा को खुशामद पसन्द नहीं। किसी की निन्दा स्तुति की उसे आवश्यकता नहीं। वह किसी पर प्रसन्न अप्रसन्न नहीं होता। पूजा उपासना एक प्रकार का आध्यात्मिक व्यायाम है जिसके करने से हमारा आत्मबल बढ़ता है। सतोगुण की मात्रा में वृद्धि होती है ईश्वर को सर्व व्यापक समझने वाला पापों से डरेगा। कोतवाल सामने खड़ा हो तो चोर प्रकृति का मनुष्य भी उस समय साधु सा आचरण करता है। सबसे बड़े कोतवाल ईश्वर को जो अपने अन्दर बाहर चारों ओर व्यापक देखता है वह दण्ड से डरेगा और पाप न कर सकेगा। प्राणीमात्र में ईश्वर को व्यापक देखने वाला व्यक्ति सबके साथ सद्व्यवहार ही कर सकता है। यह ईश्वरीय दृष्टि प्राप्त करना, ईश्वराधना का प्रधान उद्देश्य है। ध्यान प्रार्थना, पूजा, कीर्तन, जप आदि ऐसी मनोवैज्ञानिक क्रियाएं हैं जिनके द्वारा मनोभूमि में चिपके हुए अनेकों कुसंस्कार छूटते और उनके स्थान पर सुसंस्कारों की स्थापना होती है। ईश्वर के नाम पर लोक हितकारी कामों के लिए दान देना अपनी ही व्यक्तिगत और सामूहिक सतोगुणों उन्नति करना है।
वह समदर्शी और न्यायकारी है। सभी पुत्र उसे परम प्रिय हैं और सभी समान हैं। निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह वह सबको उसके कर्मों के आधार पर फल देता है। अपने भले बुरे कर्मों का परिपाक ही कालान्तर में प्रारब्ध, भाग्य, कर्म रेखा, ईश्वर की कृपा, दैवी वरदान, ग्रहदशा आदि के रूप में प्रकट होता है। कर्म चाहे आज का हो चाहे पुराना उसी का फल हमें मिलेगा। ईश्वर अपनी ओर से किसी के साथ विशेष क्रोध या प्रेम प्रकट नहीं करता। उसने सबको अत्यन्त बहुमूल्य रथ शरीर, अत्यन्त विलक्षण अस्त्र मस्तिष्क, संसार में उपस्थित अत्यन्त सुखदायिनी वस्तुएं देकर अपनी दयालुता का परिचय दिया है यह हमारा काम है कि अपने भले बुरे कर्मों द्वारा अपने जीवन को सुखी या दुखी चाहे जैसा बनायें। वह किसी की क्रियाशीलता में हस्तक्षेप नहीं करता अपनी इच्छानुसार काम करने के लिये सबको पूर्ण स्वतन्त्र छोड़ दिया है, कर्म फल से कोई बच नहीं सकता। वह हर एक को अवश्य भुगतना पड़ता है। न्यायधीश ईश्वर के न्याय से कोई भी बच नहीं सकता।
वह नियामक है। स्वयं नियम रूप है, उसका हर काम नियम पूर्वक हो रहा है। ग्रह नक्षत्र एक क्षण भर आगे पीछे उदय नहीं हो सकते। गेहूं ही उत्पन्न होता है, वस्तुएं अपने अपने गुण धारण किये रहती हैं। कभी कभी जो अनियमितता दिखाई देती है वह भी किन्हीं सूक्ष्म नियमों के आधार पर ही होती है। जो व्यक्ति ईश्वरीय नियमों पर चलते हैं, प्राकृतिक जीवन बिताते हैं, कर्तव्य धर्म में स्थिर रहते हैं वह ईश्वर की आनन्दमयी सृष्टि का आनन्द आस्वादन करते हैं जो उन नियमों को उल्लंघन करते हैं वे हानि उठाते हैं। अग्नि बड़ी दयालु है वह हमारा शीत निवारण करती है। भोजन पकाती है, वाष्प यन्त्र चलाती है अन्य अनेक प्रकार के लाभ पहुंचाती है पर उसे नियम विरुद्ध छुआ जाय तो हाथ जला देगी। बिजली से हमें अनेकों लाभ होते हैं पर उसे गलत तरह छुएं तो प्राण लेने में कोई रियायत नहीं करेगी। इसी प्रकार ईश्वर हमें अनेक सुख देता है पर यदि उसके नियमों का उल्लंघन करें तो वह नरक की भयंकर अग्नि में तपा डालने वाला क्रूर यमराज भी बन जाता है। उसके नियमों पर चलना ही सर्वोत्तम पूजा है।
साधारण मनुष्यों का अन्तःकरण आत्मा कहलाता है। अविकसित होने के कारण उसकी जीव सत्ता है जब उसका विकास होता है अहंभाव विस्तृत होकर वसुधैव कुटुम्बकम् के रूप में परिणत हो जाता है। सब अपने आत्मीय दिखाई पड़ने लगते हैं सबमें आत्मा और आत्मा में सब समाये हुए दिखाई पड़ने लगते हैं तो वह लघु आत्मा परम आत्मा (परमात्मा) महान आत्मा (महात्मा) बन जाता है। विश्व की समृष्ट आत्मा ही विश्वात्मा या परम आत्मा है इसे ही समाज पुरुष, विराट भगवान, जनता जनार्दन आदि नामों से भी पुकारते हैं। विश्व मानव की उपासना समाज पुरुष की सेवा भगवान ॐ की ही आराधना है। गीता के 20 वें अध्याय में भगवान ने बताया है कि वृक्षों में पीपल, पशुओं में गौ, मनुष्यों में ब्राह्मण, नक्षत्रों में चन्द्रमा, ग्रहों में सूर्य, इन्द्रियों में मन, पर्वतों में हिमालय, पक्षियों में गरुण, नदियों में गंगा, मन्त्रों में गायत्री मन्त्र, ऋतुओं में बसंत में हूं।
अर्थात् जो जो श्रेष्ठ, सात्विक सुदृढ़ एवं उपयोगी विभूतियां हैं उनमें मेरे ही अंश की अधिकता है। जिन विचार धाराओं में, व्यक्तियों में, वस्तुओं में इस प्रकार के तत्व अधिक हैं उनमें ईश्वरीय कलाओं की विशेषता अनुभव की जा सकती है। जहां प्रभु का निवास होगा वहां निश्चय पूर्वक श्रेष्ठता, सात्विकता, दृढ़ता एवं परोपकार की प्रधानता होगी। तलाश करने पर अनेक स्थानों पर हम प्रभु का ऐसा निवास ढूंढ़ सकते हैं और उसकी झांकी करके अपने को तृप्त कर सकते हैं। इसलिए कहा गया है कि सत्संग में भगवान का निवास होता है प्राचीन काल में सत्पुरुषों का निवास अधिक रहने के कारण तीर्थों की महिमा हुई थी और तीर्थ यात्रा को पुण्य फल माना जाता था। आज भी वहां महापुरुषों का निवास है वह स्थान प्रत्यक्ष तीर्थ ही हैं।
राम, कृष्ण आदि की सुन्दर छवियां एवं उनकी गुणावली का ध्यान करना अपनी अन्तिम उन्नति का आदर्श एवं लक्ष स्थापित करना है। बड़े बड़े भवन बनाने होते हैं तो पहले उनका मोटा मॉडल बना लिया जाता है, उसके आधार पर विशाल भवन बनता है। हमें स्वास्थ्य, सौन्दर्य, बल, गुण, विशेषता आदि की दृष्टि से आत्म निवारण के जिस लक्ष तप पहुंचना है उस मॉडल से अनन्य प्रेम एवं प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न करने के लिए भगवान की कल्पित मूर्तियों का ध्यान किया जाता है। मन्दिर मठ आदि आत्मिक ज्ञान के प्रचार केन्द्र हैं। उस केन्द्र के कार्यकर्ताओं की सम्मानपूर्वक आजीविका चलाने के लिये मन्दिरों में भोग, चढ़ावा, पूजा आदि की विधि व्यवस्था बनाई गई थी। आज वह सब पद्धतियां बड़ी गड़बड़ हो गई हैं, अनाचार, धूर्तता और मूर्खता का बोलबाला है पर प्रयत्न करने पर प्राचीन आदर्शों को पुनः सजीव किया जा सकता है, और भगवत पूजा के आधार पर धर्म, समाज, राष्ट्र, संस्कृति एवं सामाजिक सदाचार के पुनः उद्धार के विशाल आयोजन किये जा सकते हैं। इसके लिए मन्दिरों, मठों एवं पुरोहितों का सुधार कर उनसे केन्द्र बिन्दु का कार्य लिया जा सकता है।
गायत्री का प्रथम अक्षर ॐ हमें इन्हीं सब बातों की शिक्षा देता है। यह ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ नाम है उसके उच्चारण से सूक्ष्म प्रकृति आत्म चेतना के साथ सम्बन्धित होने की साधना अपने आप होती चलती है। यह ईश्वर का स्वयं घोषित सबसे छोटा नाम है। साथ ही गायत्री गीता ने बताया है कि वह ईश्वर न्यायकारी, प्रभु समदर्शी, अविनाशी, चैतन्य, आनन्द स्वरूप, नियम रूप, निराकार एवं विश्व आत्मा है। इन नामों में जो महत्व पूर्ण तत्व ज्ञान छिपा हुआ है उसे जान कर उसको आचरण रूप से लाकर हमें ॐ की उपासना करनी चाहिए।
‘ॐ’ में तीन अक्षर मिले हुए हैं अ, उ, म्। अ, का अर्थ है आत्म परायणता, शरीर के विषयों से मन हटाकर आत्मानन्द में रमण करना। उ, का अर्थ है—उन्नति अपने को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं आत्मिक सम्पत्तियों से सम्पन्न करना। म, का अर्थ है—महानता, क्षुद्रता, संकीर्णता स्वार्थ परता, इन्द्रिय लोलुपता को छोड़ कर प्रेम, दया, उदारता, सेवा, त्याग, संयम एवं आदर्श के आधार पर जीवन यापन की व्यवस्था बनाना। इन तीनों अक्षरों में जो शिक्षा है उसे अपनाकर व्यवहारिक रूप से ‘‘ॐ’’ की, ईश्वर की उपासना करनी चाहिये।