Books - ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?
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Language: HINDI
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युग प्रतिभाएं इस तरह आगे आयें
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दीवाली, दशहरा जैसे महापर्व वर्ष में एक बार आते हैं। स्वाति-वर्षा साल में एक बार ही होती है। उसका लाभ जिन सीपियों को, केलों को, बांसों को उठाना होता है, वे उन्हीं दिनों उठा लेते हैं। बाद में तो बात गयी-आयी हो जाती है। ब्रह्मकमल और संजीवनी बूटी भी वर्ष में एक बार ही फूलती है। प्रतियोगिताएं भी निर्धारित समय पर ही होती हैं। राजनैतिक चुनाव पांच वर्ष में एक बार होते हैं। यह अवसर है, जिन्हें महत्त्वपूर्ण माना और चूका नहीं जाता।
हर दूरदर्शी को यह अनुभव भी करना चाहिए कि युग परिवर्तन की वर्तमान वेला ऐसी है, जिसकी पुनरावृत्ति बार-बार होगी। गांधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन में जो लोग स्वतंत्र सेनानी के रूप में सम्मिलित हो गये, उन्हें इतने दिन बीत जाने के उपरान्त भी अभी तक समुचित सम्मान, पेन्शन, फ्री पास आदि की सुविधा मिलती है। शासनसत्ता भी वही लोग प्रायः 40 वर्ष तक चलाते रहे। यदि समय निकल जाने पर अब कोई उत्सुक हो, तो भी उस सुयोग को नहीं पा सकता। अब कोई बन्दर, हनुमान नहीं बन सकता। हर किसी रीछ को जामवन्त, किसी गिद्ध को जटायु बनने का अवसर नहीं मिल सकता।
उच्च अधिकारियों की नियुक्ति चुनाव आयोग या शासनाध्यक्षों द्वारा होती है। यह अवसर गिने-चुने को मिलता है, सो भी दूसरों के अनुग्रह से। किन्तु धर्म तंत्र में—सेवा क्षेत्र में—अनोखी सुविधा यह है कि यदि कोई भावनाशील पुरुषार्थी अपनी उमंग और आदर्शवादी हिम्मत से काम ले, तो वह मण्डलाधीश, मण्डलेश्वर आदि बन सकता है और इतनी समर्थता उपलब्ध कर सकता है कि उसका शासन जन-जन के मन-मन पर रहे। इसी स्तर के लोगों की इन दिनों सर्वत्र मांग है। उनके उभरने की आशा-अपेक्षा दशों-दिशाएं कर रही हैं। युग देवता ने उन्हीं को पुकारा है। महाकाल उन्हीं को खोजने के लिए टकटकी लगाये ढूंढ़-खोज में निरत है।
अभागे तो मनुष्य-जीवन जैसी सुरदुर्लभ सम्पदा को भी कीड़े-मकोड़ों की तरह गंवा देते हैं। अनजानों के लिए हीरे और कांच में कोई अन्तर नहीं; पर जिनके अन्तराल में दिव्य प्रकाश की एक किरण भी उठती हो, उनके लिए यह अलभ्य अवसर है। इतना अलभ्य अवसर गंवा देने पर, जन्म-जन्मान्तरों तक पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगने वाला नहीं है। आत्मा को, परमात्मा को, विश्वात्मा को ऐसे प्रमादियों के प्रति रोष-आक्रोश ही सदा बना रहेगा। यह सुनिश्चित लाटरी खुलने जैसा, दबा खजाना हाथ लगने जैसा, स्वयंवर वरण करने जैसा अवसर है। जिन आंखों के अंधों को पेट-प्रजनन के अतिरिक्त इस संसार में और कुछ दीख ही नहीं पड़ता, उनके प्रमाद पर कोई लानत ही भेज सकता है।
होना यह चाहिए कि बुद्धिमत्ता के दावेदार विवेकशीलों में से प्रत्येक को, युग संधि के यह दस वर्ष अथवा उससे कुछ कम समय भी, युग की पुकार सुनने और उसे पूरा करने में अपनी मानसिकता और साहसिकता को खरी-खोटी सिद्ध करने के लिए, कसौटी पर कसे जाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। न्यूनतम एक वर्ष लगाने जैसे कुछ छोटे कदम उठा लेने का साहस तो किसी प्रकार बटोर ही ले। जितना अधिक बन पड़े, उतना ही उत्तम।
इन दिनों करने योग्य, प्रमुखता देने योग्य काम एक ही है—‘जनमानस का परिष्कार’। विचार-परिशोधन, मान्यताओं, भावनाओं, आकांक्षाओं को निकृष्ट प्रयोजन में निरत रहने से उबारकर इस मान्यता से सहमत कर लिया जाय कि इस समय विशेष को उठने और उठाने, जगने और जगाने में, नव सृजन के लिए कटिबद्ध होने और दूसरों को इसी के निमित्त नियोजित करने के लिए प्राण-पण से लगाया जाय। व्यक्तित्ववानों ने अपने को बदलना आरंभ किया, तो यह निश्चित है कि वह समूचा वातावरण बदल जायेगा, जिनमें रहते हुए हर कोई खिन्न-विपन्न हो रहा है।
अपने कुछ न करने पर भी उज्ज्वल भविष्य की संभावना, स्रष्टा के संकल्पों और निर्धारण के संकेत पर भवितव्यता बनकर, साकार होकर रहेगी; पर जो सेवा-साहस अपनाकर धन्य हो सकते थे, वे ही अपनायी गयी कृपणता, निष्ठुरता और कायरता के कारण अपने ऊपर धिक्कार बरसते रहने की व्यथा सहते रहेंगे।
जो करना है, वह सरल भी है—सुखद भी है और हाथों-हाथ श्रेय-गौरव उपलब्ध कराने वाला भी। उसकी आरंभिक चर्चा पिछले पृष्ठों पर हो चुकी है। स्वाध्याय, सत्संग, संगठन और उल्लास-उभार के कई कार्यक्रमों की चर्चा हो चुकी है। उनमें से कोई एकाकी भी कुछ न कुछ कार्य अपना सकता है। पर यदि संगठन की क्षमता हो, तो बड़े क्षेत्र को अपने सेवा प्रयोजन के लिए चुना जा सकता है। दस-बीस गांवों का एक मण्डल निर्धारित करके, उनमें बसने वालों के साथ सघन सम्पर्क जोड़ा जा सकता है, उनकी मनोभूमियों को जोतने, बोने, खाद-पानी देने, रखवाली करने में एक कर्मठ किसान की तरह निरत रहकर हीरे-मोतियों जैसी फसल से कोठे भरने की प्रतीक्षा भी की जा सकती है।
इसका समर्थ शुभारंभ अपनी निज की प्रतिभा निखारने से होना चाहिए। जिन्हें अपने से बड़ा या योग्य माना जाता है, उन्हीं की बातों पर लोग ध्यान देते हैं। उन्हीं का आदर्श-परामर्श मानते हैं। इसलिए जिन्हें किसी प्रकार का नेतृत्व निबाहना हो, उन्हें सर्वसाधारण की अपेक्षा अधिक वरिष्ठ और अतिविशिष्ट होना चाहिए। आत्म परिष्कार की कसौटी पर कसकर स्वयं को इतना खरा बना लेना चाहिए कि किसी को अंगुली उठाने का अवसर न मिले। वाणी की मधुरता, व्यवहार में सभ्यजनों जैसी शिष्टता, वस्त्र-उपकरणों से लेकर साज-सज्जा तक में समुचित स्वच्छता रह सके, ऐसा अभ्यास करना चाहिए। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के चार प्रमुख धर्माचरणों से अपने व्यक्तित्व को संजोया जा सके, तो समझना चाहिए कि विशिष्टता और वरिष्ठता से अपने को सम्पन्न बना लिया गया।
क्रिया-कलापों में वाणी की मुखरता और शरीरगत ऐसी सक्रियता हो, जो चुश्त-दुरुस्त होने का लक्षण प्रकट करती रहे। स्वाध्याय एवं सत्संग प्राप्त करते रहने का अवसर अधिकाधिक लोगों को मिलता रह सके, ऐसे छोटे-बड़े कार्यों में निरत रहने के लिए परिस्थितियों के अनुरूप प्रयत्न करते रहना चाहिए।
उत्साह उभारने और लोक चेतना जगाने की एक नितान्त सरल और अत्यधिक प्रभावशाली विद्या है—सहस्रवेदी दीप यज्ञों की योजना। यदि चुनाव में खड़े होने वालों की तरह दौड़-धूप की जा सके, तो यह आयोजन हर जगह सरलता और सफलतापूर्वक सम्पन्न हो सकता है। एक बार का उबाल, साल-छै महीने तो अपनी गर्मी बनाये ही रहता है। इसलिए जिलाधीशों के समतुल्य धर्मतंत्र की जिम्मेदारी उठाने वालों को अपनी सुविधानुसार निकटवर्ती मंडल निर्धारित करना चाहिए। साइकिल या अन्य साधनों के सहारे ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए; ताकि सघन जन-संपर्क सध सके और जन जागरण के—नव सृजन के—अनेकानेक कार्य अपने ढर्रे पर, अपने बलबूते लुढ़कते रहने वाली गति पकड़ सके।
अपने मंडल के हर गांव में एक बड़ा दीप-यज्ञ आयोजन हर साल होना ही चाहिए; ताकि उभरे हुए उत्साह से उपस्थित जनों को प्रभावित करके उनके द्वारा सत्प्रवृत्ति-संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के कितने ही छोटे-बड़े काम संकल्पपूर्वक किए जाने की प्रक्रिया चल पड़े—व्रतशीलता निभ सके।
अपने समुदाय में ऐसे अनेकों कार्य करने को पड़े हैं, जिनको गतिशील बनाने में तनिक भी विलम्ब नहीं होना चाहिए। शिक्षा-संवर्धन इनमें से प्रमुख है। नारी शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा को सृजन-शिल्पी विशेष रूप से हाथ में लें; क्योंकि इस ओर उपेक्षा ही बरती जा रही है। ‘गरीबी दूर भगाओ’ की योजना कुटीर उद्योगों को अपनाए बिना हल हो नहीं सकती। शारीरिक समर्थता और मानसिक साहसिकता के अभिवर्धन के लिए व्यायामशालाओं के आन्दोलन को गतिशील बनाया जाना चाहिए। बाल-विवाह और प्रजनन की बाढ़ को तो दृढ़तापूर्वक रोका ही जाना चाहिए। खर्चीली शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं, इस तथ्य को हर किसी को हृदयंगम कराया जाना चाहिए और बिना खर्च तथा धूम-धाम की शादियां कर, यह कुप्रचलन समाप्त करना ही चाहिए। नशेबाजी धीमी आत्म-हत्या है, यदि यह तथ्य समझा और समझाया जा सके, तो बहुमुखी बर्बादी पर कारगर अंकुश लग सकता है। वृक्षारोपण की प्रवृत्ति बढ़नी चाहिए। यह गतिविधि हर घर में शाक-वाटिका या पुष्प वाटिका के आरोपण के रूप में तो चल ही पड़नी चाहिए। जीवन के हर क्षेत्र में प्रगतिशीलता का समावेश करने के लिए साप्ताहिक सत्संगों को योजनाबद्ध रूप में चलाना चाहिए। यदि दैनिक रूप में धार्मिक, सामाजिक आयोजन नहीं चल सकते, तो उन्हें कम से कम साप्ताहिक रूप में तो चलाना ही चाहिए।
युग अवतरण का योजना केंद्र यदि नयी इमारत के रूप में नहीं बन सकता, तो कम से कम इतना तो हो ही सकता है कि किसी बड़ी इमारत वाले से एक कमरा मांग लिया जाय, जो संगठन कार्यों के लिए भी प्रयुक्त होता रहे और शेष समय घर-मालिक उसे अपने कार्यों में प्रयुक्त करता रहे।
कुछ उपकरण इस प्रयोजन के लिए अनिवार्य हैं— (1) ज्ञान-रथ का चल देवालय
(2) स्लाइड-प्रोजेक्टर
(3) सत्संग पेटी
(4) गांव-गांव परिभ्रमण करने के लिए साइकिल टोली
(5) संगीत उपकरण
(6) आयोजन के लिए फर्श और आच्छादन
(7) दीप यज्ञों में काम आने वाले उपकरण।
यह सभी साधन मिलकर दस से बीस हजार के भीतर बन सकते हैं। इतने पैसे का प्रबंध सहज ही यज्ञ के समय मिल-जुलकर चंदे के रूप में एकत्रित किया जा सकता है। जिनसे पैसा लिया है, उन्हें हिसाब समझा देना आवश्यक है। प्रामाणिकता बनाये रखने के लिए इतनी सफाई आवश्यक है। वर्ष में एक बार कर्मठ व्यक्तियों को शांतिकुंज पांच दिन का एक सूत्र सम्पन्न करने के लिए भेजना चाहिए; ताकि वे उपयुक्त प्रेरणा और प्राण-चेतना साथ लेकर वापस लौटें। यह हर साल बैटरी चार्ज कर लेने, बंदूक या मोटर का वार्षिक लाइसेंस लेने के समान आवश्यक समझा जाना चाहिए।
मिशन के साथ किसी भी रूप में जुड़े हर व्यक्ति को नित्य कुछ घंटे का समयदान नव सृजन के निमित्त लगाने के लिए सहमत करना चाहिए और साथ ही कुछ पैसों का अंशदान भी निकालते रहने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए; ताकि उस योगदान के सहारे आत्म-निर्माण, परिवार-निर्माण और समाज-निर्माण के तीनों ही क्रिया-कलापों को आवश्यक सिंचाई का अवसर मिल सके।
अखण्ड ज्योति पत्रिका अपने परिवार के हर शिक्षित सदस्य को पढ़ानी और अशिक्षित को सुनानी चाहिए। इस अनुष्ठान को प्रस्तुत महा अभियान के सूत्र-संचालक को नित्य अपने घर बुलाने और उसका एक प्रवचन नित्य सुनाने के समकक्ष मानना चाहिए। इसके लिए जो खर्च करना पड़ता है, वह इतना कम है कि महीने में एक बार हलका जलपान करा देने से अधिक नहीं बैठता।
उपरोक्त सभी काम ऐसे हैं, जिन्हें अपनाने पर कोई भी व्यक्ति पुण्य-प्रक्रिया के रूप में उभर सकता है और अपने को, अपने परिवार-समाज तथा वातावरण को हर दृष्टि से कृतकृत्य कर सकता है।
हर दूरदर्शी को यह अनुभव भी करना चाहिए कि युग परिवर्तन की वर्तमान वेला ऐसी है, जिसकी पुनरावृत्ति बार-बार होगी। गांधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन में जो लोग स्वतंत्र सेनानी के रूप में सम्मिलित हो गये, उन्हें इतने दिन बीत जाने के उपरान्त भी अभी तक समुचित सम्मान, पेन्शन, फ्री पास आदि की सुविधा मिलती है। शासनसत्ता भी वही लोग प्रायः 40 वर्ष तक चलाते रहे। यदि समय निकल जाने पर अब कोई उत्सुक हो, तो भी उस सुयोग को नहीं पा सकता। अब कोई बन्दर, हनुमान नहीं बन सकता। हर किसी रीछ को जामवन्त, किसी गिद्ध को जटायु बनने का अवसर नहीं मिल सकता।
उच्च अधिकारियों की नियुक्ति चुनाव आयोग या शासनाध्यक्षों द्वारा होती है। यह अवसर गिने-चुने को मिलता है, सो भी दूसरों के अनुग्रह से। किन्तु धर्म तंत्र में—सेवा क्षेत्र में—अनोखी सुविधा यह है कि यदि कोई भावनाशील पुरुषार्थी अपनी उमंग और आदर्शवादी हिम्मत से काम ले, तो वह मण्डलाधीश, मण्डलेश्वर आदि बन सकता है और इतनी समर्थता उपलब्ध कर सकता है कि उसका शासन जन-जन के मन-मन पर रहे। इसी स्तर के लोगों की इन दिनों सर्वत्र मांग है। उनके उभरने की आशा-अपेक्षा दशों-दिशाएं कर रही हैं। युग देवता ने उन्हीं को पुकारा है। महाकाल उन्हीं को खोजने के लिए टकटकी लगाये ढूंढ़-खोज में निरत है।
अभागे तो मनुष्य-जीवन जैसी सुरदुर्लभ सम्पदा को भी कीड़े-मकोड़ों की तरह गंवा देते हैं। अनजानों के लिए हीरे और कांच में कोई अन्तर नहीं; पर जिनके अन्तराल में दिव्य प्रकाश की एक किरण भी उठती हो, उनके लिए यह अलभ्य अवसर है। इतना अलभ्य अवसर गंवा देने पर, जन्म-जन्मान्तरों तक पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगने वाला नहीं है। आत्मा को, परमात्मा को, विश्वात्मा को ऐसे प्रमादियों के प्रति रोष-आक्रोश ही सदा बना रहेगा। यह सुनिश्चित लाटरी खुलने जैसा, दबा खजाना हाथ लगने जैसा, स्वयंवर वरण करने जैसा अवसर है। जिन आंखों के अंधों को पेट-प्रजनन के अतिरिक्त इस संसार में और कुछ दीख ही नहीं पड़ता, उनके प्रमाद पर कोई लानत ही भेज सकता है।
होना यह चाहिए कि बुद्धिमत्ता के दावेदार विवेकशीलों में से प्रत्येक को, युग संधि के यह दस वर्ष अथवा उससे कुछ कम समय भी, युग की पुकार सुनने और उसे पूरा करने में अपनी मानसिकता और साहसिकता को खरी-खोटी सिद्ध करने के लिए, कसौटी पर कसे जाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। न्यूनतम एक वर्ष लगाने जैसे कुछ छोटे कदम उठा लेने का साहस तो किसी प्रकार बटोर ही ले। जितना अधिक बन पड़े, उतना ही उत्तम।
इन दिनों करने योग्य, प्रमुखता देने योग्य काम एक ही है—‘जनमानस का परिष्कार’। विचार-परिशोधन, मान्यताओं, भावनाओं, आकांक्षाओं को निकृष्ट प्रयोजन में निरत रहने से उबारकर इस मान्यता से सहमत कर लिया जाय कि इस समय विशेष को उठने और उठाने, जगने और जगाने में, नव सृजन के लिए कटिबद्ध होने और दूसरों को इसी के निमित्त नियोजित करने के लिए प्राण-पण से लगाया जाय। व्यक्तित्ववानों ने अपने को बदलना आरंभ किया, तो यह निश्चित है कि वह समूचा वातावरण बदल जायेगा, जिनमें रहते हुए हर कोई खिन्न-विपन्न हो रहा है।
अपने कुछ न करने पर भी उज्ज्वल भविष्य की संभावना, स्रष्टा के संकल्पों और निर्धारण के संकेत पर भवितव्यता बनकर, साकार होकर रहेगी; पर जो सेवा-साहस अपनाकर धन्य हो सकते थे, वे ही अपनायी गयी कृपणता, निष्ठुरता और कायरता के कारण अपने ऊपर धिक्कार बरसते रहने की व्यथा सहते रहेंगे।
जो करना है, वह सरल भी है—सुखद भी है और हाथों-हाथ श्रेय-गौरव उपलब्ध कराने वाला भी। उसकी आरंभिक चर्चा पिछले पृष्ठों पर हो चुकी है। स्वाध्याय, सत्संग, संगठन और उल्लास-उभार के कई कार्यक्रमों की चर्चा हो चुकी है। उनमें से कोई एकाकी भी कुछ न कुछ कार्य अपना सकता है। पर यदि संगठन की क्षमता हो, तो बड़े क्षेत्र को अपने सेवा प्रयोजन के लिए चुना जा सकता है। दस-बीस गांवों का एक मण्डल निर्धारित करके, उनमें बसने वालों के साथ सघन सम्पर्क जोड़ा जा सकता है, उनकी मनोभूमियों को जोतने, बोने, खाद-पानी देने, रखवाली करने में एक कर्मठ किसान की तरह निरत रहकर हीरे-मोतियों जैसी फसल से कोठे भरने की प्रतीक्षा भी की जा सकती है।
इसका समर्थ शुभारंभ अपनी निज की प्रतिभा निखारने से होना चाहिए। जिन्हें अपने से बड़ा या योग्य माना जाता है, उन्हीं की बातों पर लोग ध्यान देते हैं। उन्हीं का आदर्श-परामर्श मानते हैं। इसलिए जिन्हें किसी प्रकार का नेतृत्व निबाहना हो, उन्हें सर्वसाधारण की अपेक्षा अधिक वरिष्ठ और अतिविशिष्ट होना चाहिए। आत्म परिष्कार की कसौटी पर कसकर स्वयं को इतना खरा बना लेना चाहिए कि किसी को अंगुली उठाने का अवसर न मिले। वाणी की मधुरता, व्यवहार में सभ्यजनों जैसी शिष्टता, वस्त्र-उपकरणों से लेकर साज-सज्जा तक में समुचित स्वच्छता रह सके, ऐसा अभ्यास करना चाहिए। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के चार प्रमुख धर्माचरणों से अपने व्यक्तित्व को संजोया जा सके, तो समझना चाहिए कि विशिष्टता और वरिष्ठता से अपने को सम्पन्न बना लिया गया।
क्रिया-कलापों में वाणी की मुखरता और शरीरगत ऐसी सक्रियता हो, जो चुश्त-दुरुस्त होने का लक्षण प्रकट करती रहे। स्वाध्याय एवं सत्संग प्राप्त करते रहने का अवसर अधिकाधिक लोगों को मिलता रह सके, ऐसे छोटे-बड़े कार्यों में निरत रहने के लिए परिस्थितियों के अनुरूप प्रयत्न करते रहना चाहिए।
उत्साह उभारने और लोक चेतना जगाने की एक नितान्त सरल और अत्यधिक प्रभावशाली विद्या है—सहस्रवेदी दीप यज्ञों की योजना। यदि चुनाव में खड़े होने वालों की तरह दौड़-धूप की जा सके, तो यह आयोजन हर जगह सरलता और सफलतापूर्वक सम्पन्न हो सकता है। एक बार का उबाल, साल-छै महीने तो अपनी गर्मी बनाये ही रहता है। इसलिए जिलाधीशों के समतुल्य धर्मतंत्र की जिम्मेदारी उठाने वालों को अपनी सुविधानुसार निकटवर्ती मंडल निर्धारित करना चाहिए। साइकिल या अन्य साधनों के सहारे ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए; ताकि सघन जन-संपर्क सध सके और जन जागरण के—नव सृजन के—अनेकानेक कार्य अपने ढर्रे पर, अपने बलबूते लुढ़कते रहने वाली गति पकड़ सके।
अपने मंडल के हर गांव में एक बड़ा दीप-यज्ञ आयोजन हर साल होना ही चाहिए; ताकि उभरे हुए उत्साह से उपस्थित जनों को प्रभावित करके उनके द्वारा सत्प्रवृत्ति-संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के कितने ही छोटे-बड़े काम संकल्पपूर्वक किए जाने की प्रक्रिया चल पड़े—व्रतशीलता निभ सके।
अपने समुदाय में ऐसे अनेकों कार्य करने को पड़े हैं, जिनको गतिशील बनाने में तनिक भी विलम्ब नहीं होना चाहिए। शिक्षा-संवर्धन इनमें से प्रमुख है। नारी शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा को सृजन-शिल्पी विशेष रूप से हाथ में लें; क्योंकि इस ओर उपेक्षा ही बरती जा रही है। ‘गरीबी दूर भगाओ’ की योजना कुटीर उद्योगों को अपनाए बिना हल हो नहीं सकती। शारीरिक समर्थता और मानसिक साहसिकता के अभिवर्धन के लिए व्यायामशालाओं के आन्दोलन को गतिशील बनाया जाना चाहिए। बाल-विवाह और प्रजनन की बाढ़ को तो दृढ़तापूर्वक रोका ही जाना चाहिए। खर्चीली शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं, इस तथ्य को हर किसी को हृदयंगम कराया जाना चाहिए और बिना खर्च तथा धूम-धाम की शादियां कर, यह कुप्रचलन समाप्त करना ही चाहिए। नशेबाजी धीमी आत्म-हत्या है, यदि यह तथ्य समझा और समझाया जा सके, तो बहुमुखी बर्बादी पर कारगर अंकुश लग सकता है। वृक्षारोपण की प्रवृत्ति बढ़नी चाहिए। यह गतिविधि हर घर में शाक-वाटिका या पुष्प वाटिका के आरोपण के रूप में तो चल ही पड़नी चाहिए। जीवन के हर क्षेत्र में प्रगतिशीलता का समावेश करने के लिए साप्ताहिक सत्संगों को योजनाबद्ध रूप में चलाना चाहिए। यदि दैनिक रूप में धार्मिक, सामाजिक आयोजन नहीं चल सकते, तो उन्हें कम से कम साप्ताहिक रूप में तो चलाना ही चाहिए।
युग अवतरण का योजना केंद्र यदि नयी इमारत के रूप में नहीं बन सकता, तो कम से कम इतना तो हो ही सकता है कि किसी बड़ी इमारत वाले से एक कमरा मांग लिया जाय, जो संगठन कार्यों के लिए भी प्रयुक्त होता रहे और शेष समय घर-मालिक उसे अपने कार्यों में प्रयुक्त करता रहे।
कुछ उपकरण इस प्रयोजन के लिए अनिवार्य हैं— (1) ज्ञान-रथ का चल देवालय
(2) स्लाइड-प्रोजेक्टर
(3) सत्संग पेटी
(4) गांव-गांव परिभ्रमण करने के लिए साइकिल टोली
(5) संगीत उपकरण
(6) आयोजन के लिए फर्श और आच्छादन
(7) दीप यज्ञों में काम आने वाले उपकरण।
यह सभी साधन मिलकर दस से बीस हजार के भीतर बन सकते हैं। इतने पैसे का प्रबंध सहज ही यज्ञ के समय मिल-जुलकर चंदे के रूप में एकत्रित किया जा सकता है। जिनसे पैसा लिया है, उन्हें हिसाब समझा देना आवश्यक है। प्रामाणिकता बनाये रखने के लिए इतनी सफाई आवश्यक है। वर्ष में एक बार कर्मठ व्यक्तियों को शांतिकुंज पांच दिन का एक सूत्र सम्पन्न करने के लिए भेजना चाहिए; ताकि वे उपयुक्त प्रेरणा और प्राण-चेतना साथ लेकर वापस लौटें। यह हर साल बैटरी चार्ज कर लेने, बंदूक या मोटर का वार्षिक लाइसेंस लेने के समान आवश्यक समझा जाना चाहिए।
मिशन के साथ किसी भी रूप में जुड़े हर व्यक्ति को नित्य कुछ घंटे का समयदान नव सृजन के निमित्त लगाने के लिए सहमत करना चाहिए और साथ ही कुछ पैसों का अंशदान भी निकालते रहने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए; ताकि उस योगदान के सहारे आत्म-निर्माण, परिवार-निर्माण और समाज-निर्माण के तीनों ही क्रिया-कलापों को आवश्यक सिंचाई का अवसर मिल सके।
अखण्ड ज्योति पत्रिका अपने परिवार के हर शिक्षित सदस्य को पढ़ानी और अशिक्षित को सुनानी चाहिए। इस अनुष्ठान को प्रस्तुत महा अभियान के सूत्र-संचालक को नित्य अपने घर बुलाने और उसका एक प्रवचन नित्य सुनाने के समकक्ष मानना चाहिए। इसके लिए जो खर्च करना पड़ता है, वह इतना कम है कि महीने में एक बार हलका जलपान करा देने से अधिक नहीं बैठता।
उपरोक्त सभी काम ऐसे हैं, जिन्हें अपनाने पर कोई भी व्यक्ति पुण्य-प्रक्रिया के रूप में उभर सकता है और अपने को, अपने परिवार-समाज तथा वातावरण को हर दृष्टि से कृतकृत्य कर सकता है।