Books - जगदगुरु शंकराचार्य
Language: HINDI
देश की तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक स्थिति
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चरित्र ओर नैतिकता का बुरी तरह अंत हो चुका था, लोक- लिप्सा धन- लिप्सा और वासना-लिप्सा से आक्रांत धार्मिक वर्ग ही जब भ्रष्ट हो चुका था तब साधारण प्रजा का तो कहना ही क्याथा। राजा और सामंत भी इन्हीं पाखंडो में सहयोगी बने हुए थे। यज्ञों में खूब हिंसाएँ की जाती थीं। उस अधर्माचार पर पर्दा डालने के लिए ‘‘वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’’का सूत्र ढ़ुढ़ निकाला था। इससे समाज का एक वर्गतो स्वार्थ-साधनों में कर्कशपन से जुटा था और एक वर्ग ऐसा था, जो उसमें बुरी तरह पिस रहा था।
बौद्ध धर्म- इसकी प्रतिक्रिया ही बुद्ध धर्म के रूप में अवतीर्ण हुई। बुद्ध और उनके अनुयायी ध्यान,उपासना आदि तो करते थे, संस्कृत भाषा का अधिक ज्ञान न होने के कारण वे धर्म शाों का असली रहस्य जानकर इस अनाचार का शाीय खंडन कर सकने में समर्थ न थे। अत एव जब पंडितों ने हिंसा को ‘वैदिकी’ बताया और यज्ञों में हिंसा को धर्म बताया तो उन्होंने यज्ञ और वेद दोनों का खंडन करना आरंभ कर दिया। वेद का खंडन करने के साथ- साथ बौद्ध भी शून्य हो गये। उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को मानने से ही इन्कार कर दिया और बुद्धि तथा विवेक को प्रतिष्ठा दी, जिससे लोग आत्म कल्याण का लक्ष्य पूरा करते रह सकें।
भगवान बुद्ध ने अपने समय में प्रचलित कर्मकांड की बुराइयों को समाप्त करने के लिए वैदिक मान्यताओं- यज्ञ-याग, ईश्वरवाद, हिंसा आदि का विरोध किया था, किंतु शिष्यों ने उसका उलटा ही अर्थ लगाया। कर्मवाद को उन्होंने मिथ्या बताकर गृहस्थ धर्म की मर्यादाएँ तोड़ दीं। बौद्ध विहारों में रहने वाले तरूण भिक्षु और भिक्ष्ुणियाँ आत्म- संयम न रख सके। उन सबने नैतिक जीवन की रीति- नीति को तिलांजलि दे दी। स्वच्छंद विहार उनका प्रमुख धर्म हो गया। बौद्धों का वज्रयानसंप्रदाय तो उस समय अश्लीलता का नग्न-नृत्य बन चुका था। चावा्रकमत-वेदिक धर्म की विकृतियों की प्रतिक्रिया स्वरूप बौद्ध धर्म का उदय हुआ था, वैसे ही उसकी एक और प्रतिक्रिया-चार्वाक दर्शन के रूप में सामने आई।बौद्धों में उपासना,आत्म- चिंतन, अहिंसा आदि सिद्धान्त भी तो थे,इस दूसरे चार्वाककौल सम्प्रदाय ने कोइन सबको भी उठाकर ताक में रखकर कहा- संसार में न तो कहीं ईश्वर है न कोई आत्मा। यह शरीर ही सब कुछ है। यहीं स्वर्ग है और यहीं स्वर्ग का साधन।जितना बन पड़े सुखोपभोग कर लेना ही मनुष्य का असली कर्तव्य है। चार्वाक का मत था-
यावद्ज्जीवेत् सुखं जीवेत्। ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्॥ ‘‘जब तक जियो सुख से जियो। ऋण करके भी यदि घृत पीने को मिले तो कुछ बुरा नहीं।’’
इस संप्रदाय का मत था। ‘‘न स्वर्ग है न मुक्ति, ब्रह्म है न परलोक - पुनर्जन्म। जो है सब इसी जन्म में है। कंचन और कामिनी का मनमाना उपभोग कर जीवित अवस्था में हीस्वर्गीय सुखों का आनंद करें।’’ मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन सुखी जीवन के यह ‘ पंच मकार’ही स्वर्ग सुख के पाथेय बनेऔर इंद्रिय सुखों के इस क्षणिक प्रलोभन ने तरूण- तरूणियों कोआकर्षित भी खूब किया। गाँव के गाँव, राज्य के राज्यनास्तिकवाद में दीक्षित होते चले गये।धर्म खिचड़ी बन गया। वैदिक स्वरूप तो पहले ही नष्ट हो चुका था,अब न बौद्ध धर्मही रहा और न चार्वाक द्वारा प्रचलित कौल धर्म। जो कुछ था अनैतिक, अनाचार, व्यभिचार, पापाचारही था। वही सर्वत्र देश में व्याप्त हो रहा था।
विषम परिस्थितियों की पहली झलक-गुरूकुल का नियम था कि प्रत्येक बालक का भिक्षा अर्जन के लिए जाना पड़ता था। बच्चे आस-पास के गाँव से जो कुछ लाते बुरू- चरणों में चढ़ा देते। गुरू ब्रह्मस्वामी उससे क्षात्रों के पालन- पाषण की व्यवस्था करते। नियमानुसार बालक शंकर को भी जाना पड़ता।एक दिन शंकर अस्वस्थ थे । भिक्षार्जन के लिए गुरूकुल की सीमा से काफी दूर एकगाँव में पहँच गए। ज्वर की तीव्रता से बेहोसी आ गई। शंकर लौट न सके, वहीं एक मंदिर था, उसी में विश्राम के लिए लेटे और सो गए।
प्रहर रात बीते- निद्रा टुटि तो उन्होने देखा,मंदिर में कोई आयोजन हो रहा है। अनेक तरूण तरूणियाँ व आभूषणों से सुसज्जित आमोद प्रमोद कर रहे हैं।यह सब कौल मत के अनुयायी थे और नियमानुसार प्रतिदिनइसी मंदिर में आकर भोग- विलास किया करते थे। मांस और मदिरा का सेवन खुलकर किया जा रहा था। वेद, उपनिषद की निंदों की करते और उद्धत होकर होकर मदिरा के नशे मेंचूर वैवाहिक पवित्रता को भी उतारकर फेंक देते। व्यभिचार का बोलबाला था।
धर्म की यह अवमानना और विकृति देखकर बालक शंकर का हृदय काँप उठा। उसने वहीं प्रतिज्ञा की कि- जब तकदेश की इन अनास्थाओं और अंधविश्वासों को समाप्त न कर लूँगाचैन से न बैठूँगा। अपने सूख को राष्ट्रके धर्मोद्धार के लिए तिलांजलि देता हूँ, अपने श्रम और ज्ञान की शक्ति से राष्ट्र की आध्यात्मिक शक्तियों को करूँगा, भले ही सारा जीवन साधना में लग जाए, घर छोड़ना पड़े, घोर से घोर कष्ट सहना पड़ें। उस दिन रूग्ण शंकर आश्रम में इन्हीं शंकल्पों को लेकर लौटा।
शंकर चितित थे। कि अकेले कैसे इतने विशाल राष्ट्र की प्रसुप्त आध्यात्मिक चेतना को जगा पायेंगे?उन्हें कौन सहयोग देगा? किस तरह समाज में व्याप्त बुराइयों का अंत किया जा सकेगा? कई दिन इस चिंतन के कारण नींद भी नहीं आई। एक दिन उन्हें पुनः भिक्षार्जन के लिए जाना पड़ा। उस दिन वे एक ऐसे दरवाजे पर पहुँचे, जिसकी स्वामिनी बहुँत निर्धन थी। उसे कई दिन से पूरा पेट आहार भी न मिला था। शंकर ने उसी दरवाजे भीख के लिए पुकार लगाई।
स्वामिनी ने बच्चे की आवाज सुनी तोउसकी आँखे झलझला आईं। मेरे देश में ऐसे विद्यालय चलते हैं, जो बच्चों में श्रद्धा, विश्वास और उच्च मानवीय संस्कारों को जाग्रत करते हैं। मैं कितनीअभागिन हूँ, जो ऐसे समाज- सेवी और प्रजा को प्रकाश देने वालों की सहायता भी नहीं कर सकती। उस दिन खाने के लिए उसके पास एक ही आँवला बचा था। उनका ह्दय उमड़ आया। मुझे दान देना चाहिए। नेक कार्य के लिए मुझे देने की जितनी भी सामर्थ्य है उससे विमुख क्यों होऊँ? उस स्वामिनी ने वह आँवला उठाया और गर्व मिश्रित सजल नेत्रों से शंकर की झोली की ओर बढ़ाया। बालक ने आँवले को देखा और अपनी तेजस्वी दृष्टि दाता के आनन पर दौड़ाई तो उन्हें विचार आया किधर्म के प्रति हमारी आस्था कितनी बलवती है? लोगों में अभी भी त्याग, सेवा , सहिष्णुता की कितनी महान भावना विद्यमान है? संभवतः आज इसके घर में आँवला ही शेष रहा होगातभी तो देवी उसे लेकर आई है। बालक ने झोली फैला दी। उसने शादर जननी के पैर छुए और कहा- माँ जिस देश में तुम्हारी जैसी पवित्र, त्यागमुर्ति नारियाँ हैं, जिस देश में लोगों के प्रति इतना उदार भाव है, उसकी धर्म- निष्ठा को काली घटाएँ देर तक छिपाए नहीं रख सकतीं। आज का समय कैसा ही विषय क्यों न हो, भविष्य उसका निष्चित रूप से उज्जवल है।’’
‘‘कौन साथ देगा और कैसे देश का उद्धार होगा? ’’शंकर को इन सवालों का जवाब मिल गया। इन देश वासियों के रक्त- मांस में समाई हुई ‘धर्मनिष्ठा’ अपने आप समझ आते ही प्रकाशमान् होगी। अब उन्होने आगे चलने को कदम बढ़ाया।