Books - जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्मज्ञान
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जीवन का दूसरा पहलू भी भूलें नहीं
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विशाल सागर के बाह्य धरातल पर बड़ी-बड़ी लहरें उठती हैं, परस्पर टकराती हैं। तूफान पैदा होते हैं, भंवरें उठती हैं। यत्र-तत्र बड़े-बड़े जहाज एवं नावों का आवागमन होता ही रहता है। सूर्य की गरमी से समुद्र का धरातल तपता है, जिससे भाप बनती है और वह मेघों का रूप धारण करके यत्र-तत्र बरसती है। इस तरह सागर के धरातल पर अनेक क्रियाएं-हलचलें होती रहती हैं। यहां सृजन-विनाश, उत्थान-पतन की अनेक विचित्रताएं देखने को मिलती हैं, किंतु उसी सागर के गहन अंतराल में स्थिति सर्वदा भिन्न होती है। न वहां कोई लहर होती है न कोई तूफान। न किसी तरह का संघर्षपूर्ण कोलाहल, उत्पात, शोरगुल, भयंकरता, वहां नाममात्र को भी नहीं होती। शांति, नीरवता, गंभीरता, स्तब्धता का साम्राज्य होता है। वहां गोता लगाने वाले उस रहस्य को जानते हैं। अपने बाह्य पटल पर होने वाले क्रिया-व्यवहार से सर्वथा मुक्त होता है सागर का अंतराल।
मानव जीवन के भी दो पहलू हैं—एक बाह्य, दूसरा आंतरिक। एक प्रकट स्थूल—दूसरा सूक्ष्म। एक परिवर्तनशील, क्षणभंगुर, नाशवान तो दूसरा अजर, अमर, अविनाशी। लोक और लौकिकता की विभिन्न प्रवृत्तियों की प्रेरणा से जीवन का बाह्य स्वरूप बनता है। अनेक दिशाओं, अनेक कार्यों में व्यस्त मनुष्य तरह-तरह के संघर्ष, उतार-चढ़ाव, सृजन-विनाश, उत्थान-पतन की पगडंडी पर नित्य-निरंतर ही चलता रहता है। वह धनोपार्जन करता है, जायदाद, मकान आदि बनाता है, उच्च पद-प्रतिष्ठा, शिक्षा, समृद्धि-प्रसिद्धि के लिए अनेक व्यापार, व्यवसाय करता है। हानि पहुंचाने वाले, पीड़ा देने वालों से बैर-विरोध करता है, तो लाभ पहुंचाने वालों से प्रेम। बाह्य उत्तेजनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य सदैव अच्छे-बुरे आचरण, कार्य करता ही रहता है। कभी वह खुशियां बनाता है, तो कभी दुखी होता है। कभी हंसता है, तो कभी शोक में डूबकर रोता है। इस तरह यह क्रिया-व्यापार जीवन के बाह्य पटल पर नित्य-निरंतर ही देखा जाता है।
मानव जीवन का दूसरा पहलू है—आंतरिक, जो सूक्ष्म, स्थायी, समुद्र के अंतराल की तरह गंभीर, शांत, एकरस होता है। वहां न तो क्रोध की गर्जना सुनाई पड़ती है और न दुःख का क्रंदन। वहां संघर्ष, छीना-झपटी, राग-द्वेष, द्वंद्व, अपने-पराये का भेदभाव नहीं। मनुष्य के अंतराल से आत्मदेव की परम ज्योति निश्चल-निष्काम भाव से एकरस, अखंडित रूप में नित्य-निरंतर ही जलती रहती है। इसी आत्मज्योति को इंगित करते हुए उपनिषद्कार ने कहा है—
‘‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मा निहितं गुहायां ।’’
मनुष्य के अंतराल में सत्य, ज्ञानस्वरूप, अनंत, ज्योतिर्मय ब्रह्म परमतत्त्व का निवास है। जो ‘‘ज्येातिषां यद्ज्योतिः’’ अति शुभ्र ज्योतिषियों की भी ज्योति है। कदाचित हम एक क्षण भी अपने अंतर में घुसकर इस परम ज्योति के दर्शन कर लें, तो कृत-कृत्य हो जाएं। परम शांति, स्तब्धता, नीरवता, गंभीरता एकरसता की किरणों में सराबोर होकर जीवन के समस्त क्लेश, दुःख, संघर्ष, अशांति, दुःखों आदि से मुक्ति पा लें। ठीक उसी तरह जैसे सागर के अंतर में डुबकी लगाने पर एक नई दुनिया में प्रवेश मिलता है, जहां पर्याप्त शांति-नीरवता विराजमान होती है। बाह्य जगत का कोलाहल नहीं होता वहां पर।
हमारे जीवन की समस्त विकृतियों दुःख, द्वंद्वों, पाप-ताप, रोक-शोक, भय-क्लेश, अशांति आदि का मुख्य कारण यह है कि हम संसार और इसके पदार्थों तथा जीवन के बाह्य पटल को ही महत्त्व देते हैं, उसे ही एकमात्र सत्य मानते हैं और लौकिकता की विचित्रताओं, कृत्रिमताओं, यहां की घटनाओं को जीवन मान बैठते हैं। इन्हें ही जीवन का लक्ष्य बनाकर विभिन्न उत्तेजनाओं से अभिभूत हो अपनी जीवनीशक्ति को नष्ट करके पग-पग पर मृत्यु के नजदीक आते-जाते हैं। नाम, पद, प्रतिष्ठा को सजाने में, संसार के आमंत्रण-निमंत्रण, खेल-तमाशों में दिन-रात हम लोग लगे रहते हैं और अपनी जीवनीशक्ति निःशेष करते जा रहे हैं, जो हमारे लिए अशांति, क्लेश-द्वंद्वों का कारण बनती है।
मनुष्य को यह सुविधा प्राप्त है कि वह बाह्य संसार की तरह ही अपने अंतःप्रदेश की भी यात्रा कर सकता है, किंतु इस सुविधा का गलत लाभ उठाकर अंतर के निकेतन में बाह्य जगत, जो अस्थायी परिवर्तनशील, क्षणभंगुर है, उसे संग्रह करने में नहीं चूकता। प्रयोजन यह कि स्वाभाविक नियम, नियतिचक्र के अनुसार बाह्य जगत का आस्वादन करने के बाद भी वह उसे संजोए रखने के लिए अपनी कल्पना, विचार, चिंतन के द्वारा अंतर में संग्रह कर लेता है, किंतु जिस तरह भोजन के ढेर में से अपनी रुचि और भूख का ध्यान न रखकर पदार्थों को उदर में संग्रहीत करने की अमर्यादित चेष्टा मनुष्य के लिए भयंकर पीड़ा, स्वास्थ्य हानि, रुग्णता आदि का कारण बनती है, उसी तरह बाह्य जगत को अंतर में संग्रह करने का प्रयत्न अनेक पाप-तापों का कारण बनता है।
मनुष्य का अंतर आत्मदेव का पुण्य निकेतन है। पावन मंदिर है। उसे बाहर के पदार्थ, प्रयोजन, वस्तुओं का संग्रहीत करने का आगार न बनाया जाए। इस देवस्थान को अपवित्र करने का भयंकर पाप न किया जाए। बाहर की वस्तु बाहर ही रहे, उसे अंतर में ले जाकर स्थायी निकेतन में जमा न किया जाए, अन्यथा मनुष्य की सुख-शांति का, आनंद के स्रोत का, उद्गम ही अवरुद्ध हो जाएगा। फिर बाह्य जगत में सब तरह की संपन्नता, समृद्धि, सामग्री पाकर भी वह असंतुष्ट-अशांत, दुखी, दीन-हीन बना ही रहेगा।
जीवन की एक अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण साधना है—अपने अंतर का ज्ञान होना। आंतरिक और बाह्य जीवन का विभाग अलग बनाए रखना। दोनों को एक न होने देना। इसका इतना अभ्यास कर लेना आवश्यक है कि हम जब चाहें, तब संसार के बाह्य कोलाहल, आवागमन, संघर्ष, हलचल के बीच भी अपने अंतराल में डुबकी लगा सकें। अंतर के किले में बैठकर पूर्ण सुरक्षा, शांति का अनुभव कर सकें। जिस तरह नारियल का फल अपनी बाह्य सतह पर समस्त संसार के वातावरण, हलचलों से संपर्क बनाए रखता है, किंतु अंतराकाश में वह बाह्य जगत से सर्वथा मुक्त, शांत, गंभीर, स्थिर, नित्यावकाश धारण किए रहता है।
जन्म प्राप्त करने के अनंतर संसार के नाम, रूप, रंग, सज-धज, वस्तु-पदार्थों का संसर्ग, यहां के कार्य-कलापों, हलचलों का संपर्क, हमारे जीवन के बाह्य पटल से रहे। संसार के सुख-दुःख, हानि-लाभ, जरा-मरण, यश-अपयश सब क्षणभंगुर हैं। इन्हें महत्त्व न देकर अपने अंतर में आत्मदेव की अजर, अमर, अविनाशी ज्योति का दर्शन सदैव करते रहें। इस तरह आत्मस्थ होने पर कोई समस्या, कोई उलझन, कोई रोग, कोई शोक शेष नहीं रहेगा, क्योंकि नित्य के समक्ष अनित्य का कोई महत्त्व नहीं रहता। अभ्यास द्वारा इस सत्य को जीवन का एक अंग बना लेने पर मनुष्य संसार में रहते हुए भी जीवन मुक्त ही हो जाता है।
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