Books - जीवन साधना करें, देवता बनें
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जीवन साधना करें, देवता बनें
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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्!
मित्रो! देवता होने के लिए थोड़े से प्रयास करने पड़ेंगे और उस प्रयास का नाम है- जीवन- साधना। साधना किसे कहते हैं? बेटे! अनगढ़ को सुगढ़ बनाने का नाम साधना है। मसलन ये जमीन जिस पर हम और आप निवास करते हैं। आज से लाखों वर्ष पहले जब बनी थी, तब ये ऊबड़- खाबड़ जमीन थी। कहीं गड्ढे थे, कहीं क्या थे? मनुष्य ने मशक्कत की, इसको समतल बनाया, इस पर घास- पात लगाए पेडू- पौधे लगाए कुएँ बनाए नहरें बनाई और ये जो ऊबड़- खाबड़ जमीन जिस पर चलने के लिए कहीं जगह नहीं थी, आज कैसी अच्छी जमीन दिखाई पड़ती है। समतल जमीन दिखाई पड़ती है। ये अनाज और फल पैदा करती है। शाक और घास पैदा करती है। निवास करने के लिए यह जमीन बना सुगढ़ दी, सुसंस्कृत बना दी।
मित्रो! जीवन को सुसंस्कृत बना देना एक बहुत बड़ा काम है। हमारा व्यवहार और हमारा चिंतन बदले। हमारे चिंतन में संस्कृति और व्यवहार में सभ्यता आए। व्यवहार में जब हम सभ्यता ले आते हैं तो हम सुसंस्कृत हो जाते हैं। हमारे व्यवहार में शालीनता, शिष्टता और अच्छाई जब समाविष्ट हो जाती है तो उसको सभ्यता कहते हैं। सभ्यता से हम जीवन को परिष्कृत करते हैं। संस्कृति किसे कहते हैं? संस्कृति कहते हैं -विचार करने की शैली को, चिंतन को, भावना को और दृष्टिकोण को। जब हमारा दृष्टिकोण परिष्कृत होता हुआ चला जाता है तो फिर मजा आ जाता है।
साधना किसे कहते हैं? अनगढ़ चीजों को सुगढ़ बना लेने का नाम साधना है। मसलन सरकस के लोग शेरों को, हाथियों को, कुत्तों को सुधार करके ठीक कर लेते हैं और वे कैसे- कैसे तमाशे दिखाते हैं, ढेरों पैसा कमा लाते हैं। लोग रीछों को सिखा लेते हैं, साध लेते हैं। बंदरों को, साँपों को साध लेते हैं और साध लेने की वजह से वे सब कैसे- कैसे कमाल दिखाते हैं, कैसी- कैसी करामात दिखाते हैं? उनके कमाल और करामात की वजह से बाजीगर अपना गुजारा कर लेते हैं, अपना पेट पाल लेते हैं। मित्रो! अगर रीछ को, बंदर को, साँप को, शेर को साध लेना संभव है तो अपने जीवन को साध लेना क्या संभव नहीं है? जीवन को साध लेने का नाम ही साधना है।
गुणों को साधिए
क्यों साहब! हमने सुना है कि जो लोग देवताओं की साधना करते हैं, वे मालदार हो जाते हैं। हाँ बिलकुल ठीक कहता है बेटे! देवता कौन- कौन से हैं? देवता का नाम है- हमारे गुण, हमारी हिम्मत। अगर हमारे भीतर हिम्मत हो तो हमारे सामान्य शरीर कितने बड़े, कितने समर्थ हो सकते हैं और क्या से क्या करते चले जा सकते हैं। नेपोलियन एक जरा सा आदमी था और आल्पस पहाड़ को चेलेंज करने लगा कि हमको रास्ता दीजिए नहीं तो पैरों के नीचे रौंदकर फेंक देंगे। उसने कहा कि हम रास्ता देंगे। जिसने किसी को रास्ता नहीं दिया, उस आल्पस ने रास्ता दिया। मित्रो! आदमी की हिम्मत और आदमी की जुर्रत ये क्या हैं? देवता हैं। इनका नाम क्या है? इनका नाम है- हनुमान जी। हनुमान जी ऐसे होते हैं? हाँ बेटे! ऐसे होते हैं। और कितनी विशेषताएँ हमारे अंदर हैं। इनमें से एक एक गुण, एक- एक कर्म, एक- एक आदत, स्वभाव को हम बनाएँ तो हमको सिद्धियाँ मिल सकती हैं।
मित्रो! हमारे अपने जीवन की साधना में एक घंटा रोज पढ़ने का, अध्ययन का क्रम हमेशा रहा। टहलते भी रहे और एक घंटा पढ़े भी। दोनों का हमने जिंदगी भर सम्मिश्रण रखा है। इस सत्तर वर्ष की उम्र में से पंद्रह वर्ष तो आप निकाल दीजिए। पचपन साल तक हमने यह क्रम एक घंटा रोज स्वाध्याय का जारी रखा है। उस स्वाध्याय का परिणाम क्या हुआ? उसका परिणाम यह हुआ कि हमने दस लाख पन्ने पढ़ लिए आप कागज पेन्सिल लेकर हिसाब लगा लीजिए। हमने उपयोगी विषय पढ़े हैं, काम के विषय पढ़े हैं। किस्से- कहानी नहीं पड़े। नियमित रूप से, गंभीरतापूर्वक पढ़ा है और चिंतन से पढ़ा है। उसका परिणाम क्या हुआ है? लोग ये कहते फिरते हैं कि गुरु जी तो जीवंत एन्साइक्लोपीडिया हैं। चलते- फिरते एन्साइक्लोपीडिया हैं।
नियमित साधना- स्वाध्याय
मित्रो! मेरे पचासों विषय समझे हुए हैं। जिनके विषय में विचार करना, चिंतन करना शुरू करता हूँ। आपने '' अखण्ड ज्योति '' के लेख पड़े हैं। कभी मैं शरीर विज्ञान पर लिखना शुरू करता हूँ तो लोग कहते हैं कि इन्हें सिविल सर्जन होना चाहिए। हाँ बेटे मैं सिविल सर्जन हूँ। और क्या- क्या कहते हैं? जब मैं कानून के ऊपर और लाँजिक के ऊपर लिखना शुरू करता हूँ तो लोग कहते हैं कि ये आदमी कोई हाईकोर्ट का जज होना चाहिए। हाँ बेटे! मैं जज हूँ और मैंने ज्यूरिसरप्रूडेंस और चीजों के बारे में बहुत बारीकी से पढ़ा है। असंख्य विषय मैंने पढ़े हैं तो महाराज जी! समय कहाँ से लाए? बेटे! पढ़ने के लिए एक घंटा नियमित था। व्यस्तता के साथ पड़ा। परिणाम क्या हुआ? उसने अथाह ज्ञान दे दिया। ये क्या चीज है? ये बेटे! स्वाध्याय के प्रति तन्मयता है। ये क्या है? सरस्वती की पूजा है तो क्या आप सरस्वती के पुत्र हैं? हाँ हम सरस्वती के पुत्र हैं, क्योंकि हमने स्वाध्याय से प्रेम किया है। स्वाध्याय के प्रेम में दिलचस्पी हो तो यही सरस्वती का प्रेम है। सरस्वती का यही प्रेम आपको निहाल करा सकता है, विद्वान बना सकता है। यह कोई अचंभे की बात नहीं है।
गुरु जी! आपने चारों वेदों के भाष्य किए हैं? हों किए हैं। अठारह पुराणों के? हों किए हैं। उपनिषदों के, दर्शनों के? हाँ किए हैं। अपने वजन से अधिक किताबें भी लिखी है? ही बेटे! लिखी हैं तो कोई आपका स्टेनो है? नहीं बेटे! हमारा कोई स्टेनो नहीं है। कोई पी० ए० है आपका? नहीं, कोई पी ० ए० नहीं है। आप ही लिखते हैं? हम ही लिखते हैं। ये कैसे हो गया? इतने लंबे जीवन का आप हिसाब लगा दीजिए। मैं आपको हिसाब लगाकर बता सकता हूँ कि आदमी इतने लंबे जीवन में पाँच घंटे रोज नियमित रूप से लिखे तो जो कुछ भी मैंने लिखा है उससे ज्यादा लिखा जा सकता है। अरे महाराज जी! ये तो अचंभा है, जादू है। ये अचंभा नहीं है और जादू भी नहीं है, साधना है। साधना, क्रमबद्धता, नियमितता और व्यवस्था अगर जीवन में लाई जा सकती हो तो आदमी कमाल कर सकता है, चमत्कार दिखा सकता है।
मित्रो! अपनी एक ऐसी दुनिया बसा करके रखिए जिसमें आप उन श्रेष्ठ लोगों की सलाह लेना। इन स्वार्थी लोगों की सलाह मत लेना, इनकी तो सेवा- सहायता करना। ये तो बीमार हैं, इन बीमारों की सहायता करनी चाहिए। ये तो दुखियारे हैं, गरीब हैं, पिछड़े हुए हैं। इनकी सेवा करना, इनके ऊपर दया करुणा करना, इनकी सहायता, मदद करना। बस, इससे आगे नहीं, महाराज जी! अगर इनकी सलाह मानें तो? बेटे! सलाह मानेगा तो तेरे लिए आध्यात्मिक जीवन, श्रेष्ठ जीवन जी सकना कभी संभव नहीं हो सकेगा। इनकी सलाहें किस काम की हैं? दो कौड़ी की सलाह है।
बेटे! श्रेष्ठ चरित्र वाले व्यक्ति और महिलाएँ जहाँ कहीं भी हों, उनका तू कहना मान, उनकी शिक्षाएँ मान, उनके संदेशों, उनके निर्देशों पर चल। अगर ऐसा करेगा तो वह संतों की दुनिया, ऋषियों की दुनिया, ज्ञानियों और तपस्वियों की दुनिया तुझे सलाह और सहारा देती रहेगी। आगे बढ़ाती रहेगी, ऊँचा उठाती रहेगी और तू देवता बनने की जीवन साधना के मार्ग पर चलता रहेगा। इनका कहना न मानेगा तब? तेरी मिट्टी पलीद हो जाएगी। मीरा के सामने एक ऐसा ही सवाल पैदा हो गया। मीरा के घर वाले न भजन -पूजा करने देते थे, न ध्यान करने देते थे, न संत के पास जाने देते थे, न कहीं प्रचार के लिए जाने देते थे और न जीवन का उद्देश्य पूरा करने देते थे। कहते थे कि यहीं कैदखाने में रहना पड़ेगा और हमारा कहना मानना पड़ेगा। मीरा ने एक पत्र गोस्वामी तुलसीदास जी को लिखकर भेजा। बताइए महाराज जी! मैं घर वालों का कहना मानूँ या न मानूँ? मेरे घर वाले हैं तो बड़े- बूढ़े, हैं तो बुजुर्ग, पर बहुत तंग करते हैं। इनका कहना मानना चाहिए या नहीं मानना चाहिए?
क्या करें तुलसीदास जी से सुनें
गोस्वामी तुलसीदास जी ने साफ तो कुछ नहीं लिखा कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए पर एक कविता मीरा के नाम लिख करके भेजी। कितनी सुंदर कविता है, जिसमें सारी की सारी फिलॉसफी, हमारा शिक्षण जो कि मैं आज आपको दे रहा हूँ। यह सारा शिक्षण मीरा के नाम गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा लिखे पत्र में सम्मिलित है। वह पत्र कविता के रूप में है। उसमें उन्होंने लिखा
जाके प्रिय न राम- वैदेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही।।
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्योकंत ब्रज- बनितन्हि भयेमुद- मंगलकारी।।
तो क्या आप भी त्यागने के लिए कह रहे हैं? नहीं बेटे! त्यागने के लिए नहीं कह रहा। मैं तो ये कह रहा हूँ कि इन मरीजों को त्यागने की जरूरत नहीं है। इन मरीजों को सलाह दे, इन मरीजों की हिफाजत कर, इन मरीजों की सेवा कर, पर इन मरीजों के कहने के मुताबिक़ तू चलने लगेगा, तो बेटे! तू इलाज नहीं कर सकेगा, डॉक्टर नहीं रह सकेगा। अपना दृष्टिकोण- अपना चिंतन अलग, अपनी मान्यताएँ अपनी निष्ठाएँ अलग, अपना विश्वास और अपना निश्चय इन लोगों से अलग रख। महाराज जी! हमारी बीबी कह देगी तो हम गायत्री परिवार में आ जाएँगे। नहीं बेटे! तेरी बीबी नहीं कहेगी, तुझे आना हो तो आ, न आना हो तो मत आ। गुरुजी! कुछ ऐसी कृपा कर दीजिए कि हमारी धर्मपत्नी हमारी सहायक हो जाए। धर्मपत्नी तेरी सहायक नहीं होगी, तू इस लायक हो जा।
अपनी दुनिया अलग बसा लें
मित्रो! पहला वाला शिक्षण यह है कि आप अपनी एक दुनिया अलग बसा लीजिए। उसी में मौज से रहा कीजिए। छावनी में रहा कीजिए मोरचे पर लड़ने जाया कीजिए और फिर छावनी में आ जाया कीजिए। गुफा में रहा कीजिए जंगल में लकड़ी काटने जाया कीजिए और फिर गुफा में आ जाया कीजिए। मित्रो! यदि ऐसी गुफा बना लें तो आपके लिए संभव है कि आप आध्यात्मिक जीवन जिएँ कोई महत्त्वपूर्ण निश्चय- निर्णय करें। कोई महत्त्वपूर्ण कदम उठाएँ अन्यथा आपको कोरी कल्पनाएँ आती रहेंगी कि मैं संत बनूँगा, ऐसा करूँगा, ये करूँगा, पर आप कुछ नहीं कर सकेंगे। आप जिस दुनिया में रहते हैं, उसके रिवाज, कायदे, नियम, उसके ढर्रे, उसके स्वभाव आपको इतने ज्यादा प्रभावित करते रहेंगे कि आपको एक कदम भी नहीं बढ़ने देंगे।
आपकी बीबी मान जाएगी तो बेटा नहीं मानेगा, बेटा मान जाएगा तो साला नहीं मानेगा, साला मान जाएगा तो जमाई नहीं मानेगा, पड़ोसी नहीं मानेंगे, सारा समाज नहीं मानेगा। सारे समाज की दीवार दीवार, ईंट ईंट आपसे कहेगी- अरे साहब! किस चक्कर में फँस गए हैं। आप यहाँ आइए हमारे पास और देखिए हमने इतनी बड़ी हवेली बना ली। कैसे बना ली आपने हवेली? अरे आप सब जानते हैं कि हम नंबर दो का काम करते हैं। कैसे बना ली? ये दीवार कहती है, ईंटें कहती हैं, आदमी कहता है, मकान कहता है, संपत्तियाँ कहती हैं, आकर्षण कहता है, चोर कहते हैं, सब कहते हैं। सबका शिक्षण एक ओर और आप एक ओर। तो क्या करें?
बेटे! दुनिया से भाग जा और में चला जा। कौन सी गुफा में? मैंने बताया तो था, अपने मन की गुफा में। अपने मन में एक ऐसी गुफा बना ले, अपने मस्तिष्क में एक ऐसी दुनिया बसा ले, जिसमें कि श्रेष्ठ व्यक्ति, श्रेष्ठ आचार, श्रेष्ठ शिक्षाएँ भरी पड़ीं हों। इतना अगर तू कर पाए तो समझ ले कि तेरी दुनिया बस गई। फिर इस दुनिया से लड़ने में तू समर्थ है, भव- बंधनों से लड़ने में समर्थ है। फिर लोगों की सेवा कर सकता है, प्रेम दे सकता है, मदद- सहायता कर सकता है, उनका मार्गदर्शन कर सकता है। तुझे उनके मार्गदर्शन पर चलने की जरूरत नहीं है। उनको श्रेष्ठ मार्गदर्शन, श्रेष्ठ शिक्षा दे, अगर ऐसा करेगा तो बेटे! यह पहला वाला शिक्षण, पहली वाली पंचशील की शिक्षा है, जहाँ से आदमी देवता बनने का कदम बढ़ाता है। अपने निष्कर्ष स्वयं निकालता है, अपने निर्णय स्वयं करता है। तब उसके लिए संभव है कि वह ऊँचे मार्ग पर चलने में समर्थ हो सके। दूसरों की सलाह पर टिका, परावलम्बी है तो उसके लिए कभी कुछ संभव न हो सकेगा। कल्पनाएँ तो करता रहेगा पर चल न सकेगा। बेटे! यह हुई नंबर एक बात।
इच्छाओं, आकांक्षाओं को बदलिए
नंबर दो -मित्रो! एक बात मैं आपसे यह कहूँगा कि जीवन की दिशाएँ- धाराएँ जिस चीज से और जहाँ से प्रारंभ होती हैं, उस चीज का नाम है- मनुष्य की इच्छाएँ- आकांक्षाएँ। अक्ल की खराबी नहीं है। इंद्रियों की शिकायत करना बेकार है। नहीं साहब! हमारी इंद्रियाँ नहीं मानतीं। बेटा! इंद्रियाँ भी कोई मानने जैसी चीज हैं क्या? इंद्रियाँ क्या होती हैं, कुछ भी नहीं होतीं? जो हमारी निष्ठाएँ हमारी आकांक्षाएँ हमारी इच्छाएँ हैं, वहाँ तू चल। इच्छाएँ हमारी क्या हैं? इस समय में हमारी भौतिक इच्छाएँ तीन हैं- वासना, तृष्णा, अहंता। हमने अपने आप को भूत मान लिया है। कौन हैं आप? हम तो भूत हैं। अरे तृ तो अभी जिंदा है। नहीं महाराज जी! भूत हूँ। भूत कैसा होता है? जिसकी इच्छाएँ वस्तुओं और पदार्थों के साथ जुड़ी हुई हैं।
मित्रो! हमारा शरीर मिट्टी का बना हुआ है। इसकी इच्छा भी मिट्टी की चीजों की है। क्या खाना चाहता है? जलेबी, पकौड़े, मिर्च का अचार खाना चाहता है। मिर्च क्या होती है? मिट्टी। नीबू क्या होता हैं ?मिट्टी। जलेबी क्या होती है? मिट्टी। खाना कौन चाहता है? मिट्टी। ये क्या हैं? ये हमारी भौतिक इच्छाएँ हैं। हमारी जीभ की मिट्टी मिर्च की मिट्टी को खाना चाहती है। मित्रो! ये वासना है। हमारी जितनी भी इंद्रियाँ हैं, ये मिट्टी की बनी हुई हैं और मिट्टी की चीजें माँगती हैं। काम- वासना के अंग मिट्टी के बने हुए हैं। क्या चाहते हैं? मिट्टी का संपर्क मिट्टी का सहयोग चाहते हैं। हमारी वासनाएँ तृष्णाएँ भौतिक हैं। क्या चाहते हैं आप? बेटा चाहते हैं, मकान और रुपया- पैसा चाहते हैं, और क्या चाहते हैं? बस, ये ही चीजें चाहते हैं। मिट्टी चाहते हैं न? हों साहब! मिट्टी चाहते हैं।
तीसरी आकांक्षा क्या है? अहं। एक आदमी का अहं, मेरा बड़प्पन, मेरा यश, मेरा नाम, मेरा गौरव, मेरा श्रेय। अरे साहब! मेरे बेटे का ब्याह हुआ, मैंने ५० हजार रुपया खरच किया और मैंने बेटे की बहू को ८१ तोले सोना चढ़ाया और मेरी लड़की की बरात में २५० बराती आए। मैं- मैं.....। सारे दिन मैं ही मैं चिल्लाता रहता है। मेरा अपमान हो गया, मेरा ये हुआ। मित्रो! ये ही तीन चीजें हैं, जिनके लिए हमारी सारी इच्छाएँ नियोजित हैं। अगर हम अपनी इच्छाओं का दायरा बदल दें तो वे इच्छाएँ जो कभी पूरी नहीं हो पाती हैं, पूरी होनी शुरू हो जाएँ। हमारा दृष्टिकोण यदि ऐसा हो जाए कि इन वस्तुओं के स्थान पर हम सिद्धांत और आदर्श अपनाएँ, सत्य पर चलना चाहें, ईमानदारी से रहना चाहें तो इसमें कोई कठिन ता नहीं आती।
शांति भरा सुगम जीवन
मित्रो! हमारा जीवन सुगम है, अगर हम अपनी आकांक्षाएँ सत्य पर, न्याय पर टिका दें, सादगी और सिद्धांतों के ऊपर टिका दें तो इसमें कोई कठिनाई नहीं आ सकती। फिर हम शांति से जीवन जी सकते हैं। हमारी इच्छाएँ सेकण्डों में पूरी होनी संभव हैं। आप आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा करने तक सीमित हो जाएँ तो आपकी ८० फीसदी समस्याएँ खतम हो जाएँगी। भौतिक आवश्यकताएँ हर आदमी के पास कामचलाऊ हैं, अगर आदमी उधर से संतोष कर ले और अपने सिद्धांतों को, आदर्शों को पूरा करने के लिए अपनी अक्ल और समय लगा दे तो जो समय और शक्ति हमारी निरर्थक खरच होती चली जाती है, उसे हम बचा सकते हैं और उस बची हुई शक्ति से ज्ञान का प्रसाद और भगवान की भक्ति इकट्ठा कर सकते हैं। अभी तो आपके पास न तो बचती है अक्ल, न बचता है मन, न बचता है समय और न बचता है श्रम। ये कौन ले जाता है? ये तीन चुडैलें जोर से पकड़ लेती हैं- एक हथकड़ी के रूप में, एक बेड़ी के रूप में और एक कमर के रस्से के रूप में। इनके बंधन ढीले करें तो आप श्रेष्ठता की, आदर्शों की, उत्कृष्टता की दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं।
एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण जीवन बदलने वाला यह है कि हम अपनी इच्छाओं को परिष्कृत करें। घटिया, छोटी, नगण्य और बेकार इच्छाएँ जिनके बिना हमारा न कोई काम हर्ज हो रहा है और न जिनको प्राप्त करने से कोई उद्देश्य पूरा होता है। मित्रो! अगर आप अपने दृष्टिकोण में हेर फेर कर पाएँ तो जीवन की दिशा बदलने की ओर, महान कार्य करने की ओर, भगवान को प्राप्त करने, आत्मशक्ति का विकास करने और देवत्व की ओर चलने के लिए आप समय, श्रद्धा, आस्था सब चीजें पा सकते हैं।
कर्मयोगी बनिए वर्तमान में रहिए
तीसरा वाला शिक्षण यह है कि आप अपने कर्तव्य को समझना शुरू कीजिए कर्मयोगी बनिए, फर्ज, कर्तव्य पूरा करिए बस, परिणाम? परिणाम हम नहीं जानते बेटे! क्या होगा? हमने खूब अच्छी तरह से पढ़ा, खूब मेहनत की, लेकिन जिस दिन परीक्षा देने का समय आया, आ गया बुखार और फेल हो गए। क्यों साहब! ये क्या हो गया? बेटे! कर्म करना हमारे हाथ में है, फेल या पास होना हम नहीं जानते। भविष्य का अध्ययन करना छोड़ दीजिए; भविष्य का विचार छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि आप यह विचार भी न करें कि हम किसी का भला करने जा रहे हैं या बुरा करने जा रहे हैं। आप तय कर लीजिए कि हमको ये काम करना है- जैसे हमें पढ़ना है, दुकान करनी है, खेती करनी है। पूरे परिश्रम, पूरी ईमानदारी के साथ काम कीजिए। पूरे परिश्रम, मेहनत से खेती की है, लेकिन बरसात न हो, अधिक वर्षा हो, टिड्डी आ जाए कीड़े लग जाएँ तब! हम नहीं जानते कि कल क्या होने वाला है। कल की कल्पनाओं, कल की आकांक्षाओं में बेकार दिमाग न खराब करें। ये सोचें कि हम किसान हैं, पूरी मेहनत के साथ खेती करनी है,फसल बोनी है, अनाज उगाना है, खाद- पानी लगाना है बस, चूकि हमने ईमानदारी से खाद लगाया, ईमानदारी से पसीना बहाया, ईमानदारी से रखवाली की, इतना ही संतोष करना हमारे लिए काफी है।
मित्रो! आप बुड्ढे मत बनिए बच्चे मत बनिए। बुड्ढे कौन होते हैं? बुड्ढे वे होते हैं, जो पिछली राम कहानी कहते रहते हैं। क्या बाबा आदम के जमाने की बातें करते रहते हैं? जिससे न हमारा कोई उद्देश्य पूरा होता है और न कोई शिक्षा मिलती है। गढ़े मुरदे उखाड़ने से क्या काम बनता है? बच्चे उन्हें कहते हैं, जो आगे की बात सोचते हैं। हमारा ब्याह हो जाएगा तो हवाई जहाज में बैठेंगे, यहाँ- वहाँ जाएँगे। ये हैं भविष्य की कल्पनाएँ। बेटे! भविष्य की कल्पनाएँ करना बंद कर, भूतकाल की शिकायतें करना बंद कर। भूत अच्छा गया तो गया, बुरा गया तो गया। उसने गलती की तो, तूने गलती की तो, अब भूतकाल तो किसी तरह वापस नहीं आ सकता। हमें आज क्या करना है, इस पर विचार कर।
मित्रो! कर्मयोगी वह है, जो वर्तमान पर दृष्टि रखता है। अपनी सारी समझ, अक्ल, बुद्धि,मेहनत और मनोयोग अपने कर्तव्य को, कर्म को अच्छा बनाने के लिए लगाता है। '' वर्क इज वर्शिप '' अर्थात काम को भगवान की पूजा इसलिए बताया गया है कि आदमी अपने काम को ईमानदारी से, जिम्मेदारी से करे। काम का मतलब केवल मशक्कत, केवल श्रम नहीं है। काम के साथ में ईमानदारी, एक- जिम्मेदारी, दो- सुरुचि- खूबसूरती, तीन- तन्मयता, तत्परता, उत्साह, जोश, बारीकी मिली हो प्यार मिला हो, चार- काम को हम ऐसे ढंग से करें कि सामान्य होकर भी असामान्य हो जाए। ऐसे असामान्य कार्यों को हम कर्मयोग कहते हैं। हमको और आपको कर्मयोगी बनना चाहिए अगर हम कर्मयोगी बनते हैं और अपने दिमाग को संतुलित बनाए रखते हैं तो हमारी जिंदगी में आनंद आ जाता है।
समय का महत्त्व समझिए
मित्रो! हमारी शक्तियाँ तीन तरीके से खरच होती, बरबाद होती, नष्ट होती रहती हैं। आप देखें कि हमारा जीवन कितना निरर्थक चला गया तो पाएँगे कि तीन- चौथाई समय आपने ताश खेलने, नशेबाजी, यहाँ- वहाँ बैठे रहने में बेकार गँवा दिया। समय का ठीक तरीके से उपयोग किया होता तो समय काल था। रावण ने काल को अपनी पाटी से बाँधकर रखा था, इसलिए रावण इतना बड़ा हो गया। समय को अगर आप बाँधकर, व्यवस्था बनाकर रखें तो समय न जाने क्या से क्या करता हुआ चला जाता है? बेटे! मैंने साहित्य की रचना की, सेवा कर ली, पूजा? भजन भी कर लिया, लोगों से मिल भी लिया, संगठन खड़ा कर लिया। ये सब कैसे करता हूँ? बेटे! समय बँधा हुआ है। नहीं महाराज जी! मैं तो जब मरजी होगी, मिलने के लिए आकर बैठ जाऊँगा। नहीं बेटे! जब चाहे तब न तो मिलने दूँगा, न बैठने दूँगा, तू नाराज होगा तो हो जा। मैं अपना समय देखूँ या तुझे देखूँ।
मित्रो, क्या करना चाहिए? हमको अपनी सामर्थ्य को सार्थक, रचनात्मक कार्यों, सृजनात्मक और विकासोन्मुख कामों में लगाना चाहिए। जिसमें हमारा, हमारे घर वालों का, हमारे पड़ोसियों का, समाज का और देश का विकास होता हो, दूसरों की भलाई होती हो। अपनी सामर्थ्य का हम इस तरीके से नियोजन करने में समर्थ हो सकें। हम व्यर्थ, अनर्थ कार्यों और दुष्टता से बचें तो आप देखेंगे कि हमारे पास ढेरों की ढेरों शक्ति सामर्थ्य, बुद्धि, अक्ल, भावनाएँ बाकी बच जाती हैं। हम उनको अगर सार्थक सृजनात्मक कामों में लगाना शुरू करें तो आप देखेंगे कि कैसा चमत्कार होता है आपके जीवन में। आपको ऊँचा उठने का आपकी उन्नति के लिए कैसे रास्ता खुलता है? आप जो भी लक्ष्य बना करके चलेंगे, उसमें विद्वान बनते हुए चले जाएँगे। स्वास्थ्य- संवर्द्धन का मन हो तो आप पहलवान बन सकते हैं। भगवान का भक्त बनने का अगर मन हो तो वही अक्ल, वही समझ, वही शक्ति वही साधन और पैसा आपको भगवान की ओर बढ़ाता हुआ चला जाता है। आत्म- निरीक्षण कीजिए अपने को देखिए समझिए।
शरीर व जीवात्मा दोनों का ध्यान रखें
मित्रो! अगर आपको श्रेष्ठ जीवन जीना है, देवत्व की दिशा में बढ़ना है तब, एक काम जरूर करना। आपकी दुकान में दो पार्टनर हैं। दोनों का हिस्सा, दोनों के शेयर का हिसाब- किताब रखना। कोई पार्टनर किसी से चालाकी, बेईमानी न करने पाए। जिसका जितना लाभांश है, उसको उतना मिल जाए। जिसका जितना हक है, दोनों को मिल जाए। आपके दो बेटे हैं? हाँ साहब! कहीं ऐसा न हो कि एक बेटे को सारा माल दे दें और दूसरा बेटा विचारा ऐसे ही हाथ मलता रह जाए। नहीं महाराज जी! ऐसा अन्याय तो नहीं करेंगे। हों बेटे! अन्याय मत करना। तेरी दुकान में कितने हिस्सेदार हैं? दो हिस्सेदार हैं तो उनको भी मुनाफा देता है कि नहीं। महाराज जी! दिया करूँ? हों बेटे! उसे दिया कर। तेरे पिता की संपत्ति जो मिली, वह सब तेरे पास है और तेरा एक भाई भी है। भाई का शेयर, हिस्सा नहीं देगा? नहीं महाराज जी! सारा मैं ही खा जाऊँगा। नहीं, उसको भी दे, दोनों खाओ, ईमानदारी की, न्याय की बात है।
मित्रो! हमारे जीवन की दुकान में भी दो हिस्सेदार हैं। कौन- कौन हिस्सेदार हैं? एक हमारा शरीर और एक हमारी जीवात्मा। एक हमारा कलेवर और एक हमारा प्राण। इसका जो मुनाफा होता हो, दोनों को बराबर- बराबर दें। शरीर की देख- भाल कर, मैं ये थोड़े ही कहता हूँ कि शरीर को खाना, कपड़ा मत दे। शरीर की व्यवस्था भी कर, लेकिन सारा का सारा यदि शरीर को चला गया और जीवात्मा को नहीं तो जीवात्मा हमारी भूखी, तड़पती रही, व्याकुल रही, उसके लिए कुछ न कर सका। सारी जिंदगी जीवात्मा ने पुकारा कि हमें भी कुछ मिलना चाहिए। अच्छा, तुम्हें भी मिलना चाहिए। मित्रो! जब बच्चा रोया करता है तो उसकी माँ दूध में अफीम घोलकर पिला देती है और बच्चा सो जाता है। हमारी जीवात्मा भी जब रोई, चिल्लाई तो अफीम की गोली घोल- घोलकर इसको पिला दी।
अफीम की गोली क्या? माला आहा! ये बात है। माला में क्या होता है? नम :: शिवाय- नम:शिवाय और क्या कह रहा है? श्रीकृष्ण शरणं मम- श्रीकृष्ण शरणं मम। श्रीकृष्ण मेरी शरण में आ जा, इसका मैंने ये अर्थ लगाया। इससे क्या फायदा हो जाएगा? इससे ये फायदा हो जाएगा कि श्रीकृष्ण भगवान की गाय, बछड़े, बसरी, कपड़े सब मेरे पास आ जाएँगे।
माला और भलाई
बेटे! मनुष्य को जीवन अमानत के रूप में दिया है। ये ऐसे कामों के लिए दिया है कि इस दुनिया के, भगवान के उद्यान में हम माली के तरीके से काम करें। उसे सुव्यवस्थित, समुन्नत और श्रेष्ठ बनाएँ। भगवान के पीए के तरीके से, इंजीनियर के तरीके से, उसके सेक्रेटरी के तरीके से कुछ काम करें। मित्रो! ये काम करना हमारा उद्देश्य था और आवश्यक था। अगर हमने ये किया होता तो मजा आ जाता हमारी जिंदगी में, लेकिन हम ऐसा न कर सके और जीवात्मा के हिस्से में कुछ नहीं पड़ा। अरे महाराज जी! हमने जीवात्मा को माला दे तो दी। अच्छा बेटे! तो ये बता क्या कमाता है? ५५० रुपए कमाता हूँ तो ऐसा कर कि तू ५५० रुपया तो दे दिया कर जीवात्मा को, भगवान को और शरीर को शरीर को बेटे तू माला दे दिया कर। माला से क्या काम चलेगा शरीर का? बेटे! माला चबा लिया कर और पहन लिया कर। अच्छा, महाराज जी! रात को ठंढ लगे तब? ठंढ लगे तो ओढ लिया कर माला को। नहीं, भगवान तो माला खाकर चुप रह जाते है। अच्छा भगवान के हिस्से में माला और तेरे हिस्से में मलाई। नहीं बेटे! भगवान माला खाकर चुप नहीं रहते।
भगवान तेरा श्रम माँगता है, तेरा पसीना माँगता है, तेरा समय, तेरा वक्त माँगता है। तेरा ईमान, तेरी भावना और तेरी श्रद्धा माँगता है। मित्रो! जीवात्मा परमात्मा के लिए और शरीर यात्रा दोनों के लिए हमारा संतुलित विभाजन होना चाहिए। संतुलित विभाजन का मैंने नाम रखा है- अंशदान। अंशदान के लिए मैंने कहा था कि आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश अंशदान के बिना संभव नहीं है। हमारी दो संपदाएँ हैं- एक भगवान की दी हुई, एक मनुष्य की दी हुई। भगवान की दी हुई संपदा का नाम है -समय। समय को जहाँ भी आप खरच करे, उसी के बदले में ये नोट रुपए हैं। आप इनको बाजार में ले जाइए और चाहे जो खरीद लाइए। समय के बदले में आपको पैसा, स्वास्थ्य, विद्या, लोक परलोक कुछ भी खरीद लीजिए। ये भगवान की संपत्ति है और मनुष्य की कमाई है- पैसा। ये दोनों ही साधन हमारे पास हैं, इन दोनों साधनों का उपयोग आप विभाजित रूप से किया कीजिए।
ईमानदार बनिए -हिस्सेदारी में
मित्रो! भौतिक जीवन के लिए हमारे समय का कितना हिस्सा लगना है और आध्यात्मिक जीवन के लिए परमार्थ जीवन के लिए कितना समय लगाना है, विभाजित कीजिए और साफ साफ बताइए कि कितना हिस्सा देना चाहते हैं एक नहीं साहब! हम तो जीवात्मा को रुपया में दो आने देंगे और शरीर को मुनाफे में से चौदह आने देंगे, चल कुछ तो दे। महाराज जी! मैं तो कुछ भी नहीं दूँगा, बेटे! जीवात्मा को भगवान को अँगूठा मत दिखा। नहीं चावल चढ़ा दूँगा, रोली चढ़ा दूँगा। भगवान को तू बहकाए मत कि चावल- रोली चढ़ा दूँगा, धूपबत्ती चढ़ा दूँगा। अच्छा तू अपने शरीर को ही धूपबत्ती दिखा दिया कर। नहीं महाराज जी! शरीर का तो धूपबत्ती से काम नहीं चलेगा तो फिर भगवान का कैसे काम चल जाएगा? भगवान जी पर चंदन चढाऊँगा, अच्छा तो तू चंदन अपने ऊपर चढ़ा ले। नहीं महाराज जी चंदन से मेरा काम नहीं चलेगा तो भगवान का काम कैसे चलेगा? इसलिए मित्रो! जो हमारी संपदाएँ हैं, उनके बारे में हमें ईमानदार होना चाहिए और नेक होना चाहिए। हमको कुछ इस तरह से विभाजन करना चाहिए कि हमारे समय का इतना हिस्सा शारीरिक जीवन के लिए और इतना परमात्म जीवन के लिए। इतना लोकमंगल के लिए और इतना हमारे लिए।
समाज का ऋण चुकाएँ
आध्यात्मिक जीवन आपसे यह कहता है कि आप समाज के ऋणी हैं। समाज ने आपको ज्ञानवान बनाया है। समाज का लाभ लेकर के आपको अनाज मिलता है। समाज का लाभ लेकर के आप कपड़े पहनते हैं । समाज का लाभ लेकर के आपने शिक्षा पाई है। समाज का लाभ लेकर के आपको सवारियाँ मिली हैं। समाज का लाभ लेकर के आपकी दवा- दारू का इंतजाम हुआ है। समाज का लाभ लेकर के आपका विवाह हुआ हैं। नहीं साहब! तो कहाँ से हुआ है तेरा विवाह? किसी और की पैदा की हुई बेटी को साथ लिए फिरता है और ऊपर से ये कहता है कि समाज का कोई ऋण नहीं है। तेरे ऊपर ऋण है, तू समाज का ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए जो हमारे पास है, उसका एक मुनासिब हिस्सा निकालने के लिए हमको कोशिश करनी चाहिए।
मित्रो! आप आध्यात्मिक जीवन जीना चाहते हैं तो सचाई पर आइए वास्तविकता पर आइए। इस कठोर सचाई को, वास्तविकता को समझिए, अगर आप वास्तविक अध्यात्म को पाना चाहते हैं, वास्तविक भगवान को पाना चाहते हैं, वास्तविक उन्नति करना चाहते हैं, वास्तविक प्रतिभा को चाहते हैं, वास्तविक देवत्व चाहते हैं तो उसकी वास्तविक कीमत चुकाइए।
पंचशीलों की साधना- पंचाग्नि विद्या
मित्रो! ये आध्यात्मिकता के पंचशील हैं तो कठोर और कठिन। कठोर इसलिए कि हमारे स्वभाव में नहीं आते और हमको भय मालूम पड़ता है। अरे साहब! ये करें तो आफत आ जाएगी और ये कैसे होगा? इसका जो भय है, वास्तव में वही दिक्कत का कारण है। अगर आप आध्यात्मिक जीवन पर चलें, पंचशील का जीवन जिएँ? जीवात्मा की, आत्मदेव की पूजा पंचोपचार के ढंग से करें तो आपको मालूम पड़ेगा कि पंचशील कितने सरल हैं, सरस हैं। वर्तमान जीवन, स्वार्थी जीवन, घटिया- नारकीय जीवन, पापी- पतित जीवन की अपेक्षा वह जीवन सरल है, शांतिमय है और सुखद है। वही आदमी समुन्नत है और उसकी सिद्धियाँ प्रत्यक्ष हैं। मित्रो! मैं चाहता था कि आप देवत्व की ओर बढ़ते, देवत्व के पंचतप करते, पंचाग्नि विद्या को अपनाते। नचिकेता के तरीके से पंचाग्नि विद्या में अपने आप को तपाते। पंचशीलों को ग्रहण करते और अपने व्यक्तित्व को उभारते और श्रेष्ठ बनाते, व्यक्तित्व को समुन्नत बनाते। उसके बदले में वे सिद्धियाँ पाते जो महापुरुषों ने पाई, ज्ञानियों ने पाईं, तपस्वियों ने पाई, देवमानवों ने पाईं। उन सिद्धियों से आप इसी जीवन में संपन्न हो जाते, अगर आप जीवन देवता की, आत्मदेव की साधना करने की हिम्मत इकट्ठी कर सकते तब।
आज की बात समाप्त।
।। ऊँ शांति:।।
ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्!
मित्रो! देवता होने के लिए थोड़े से प्रयास करने पड़ेंगे और उस प्रयास का नाम है- जीवन- साधना। साधना किसे कहते हैं? बेटे! अनगढ़ को सुगढ़ बनाने का नाम साधना है। मसलन ये जमीन जिस पर हम और आप निवास करते हैं। आज से लाखों वर्ष पहले जब बनी थी, तब ये ऊबड़- खाबड़ जमीन थी। कहीं गड्ढे थे, कहीं क्या थे? मनुष्य ने मशक्कत की, इसको समतल बनाया, इस पर घास- पात लगाए पेडू- पौधे लगाए कुएँ बनाए नहरें बनाई और ये जो ऊबड़- खाबड़ जमीन जिस पर चलने के लिए कहीं जगह नहीं थी, आज कैसी अच्छी जमीन दिखाई पड़ती है। समतल जमीन दिखाई पड़ती है। ये अनाज और फल पैदा करती है। शाक और घास पैदा करती है। निवास करने के लिए यह जमीन बना सुगढ़ दी, सुसंस्कृत बना दी।
मित्रो! जीवन को सुसंस्कृत बना देना एक बहुत बड़ा काम है। हमारा व्यवहार और हमारा चिंतन बदले। हमारे चिंतन में संस्कृति और व्यवहार में सभ्यता आए। व्यवहार में जब हम सभ्यता ले आते हैं तो हम सुसंस्कृत हो जाते हैं। हमारे व्यवहार में शालीनता, शिष्टता और अच्छाई जब समाविष्ट हो जाती है तो उसको सभ्यता कहते हैं। सभ्यता से हम जीवन को परिष्कृत करते हैं। संस्कृति किसे कहते हैं? संस्कृति कहते हैं -विचार करने की शैली को, चिंतन को, भावना को और दृष्टिकोण को। जब हमारा दृष्टिकोण परिष्कृत होता हुआ चला जाता है तो फिर मजा आ जाता है।
साधना किसे कहते हैं? अनगढ़ चीजों को सुगढ़ बना लेने का नाम साधना है। मसलन सरकस के लोग शेरों को, हाथियों को, कुत्तों को सुधार करके ठीक कर लेते हैं और वे कैसे- कैसे तमाशे दिखाते हैं, ढेरों पैसा कमा लाते हैं। लोग रीछों को सिखा लेते हैं, साध लेते हैं। बंदरों को, साँपों को साध लेते हैं और साध लेने की वजह से वे सब कैसे- कैसे कमाल दिखाते हैं, कैसी- कैसी करामात दिखाते हैं? उनके कमाल और करामात की वजह से बाजीगर अपना गुजारा कर लेते हैं, अपना पेट पाल लेते हैं। मित्रो! अगर रीछ को, बंदर को, साँप को, शेर को साध लेना संभव है तो अपने जीवन को साध लेना क्या संभव नहीं है? जीवन को साध लेने का नाम ही साधना है।
गुणों को साधिए
क्यों साहब! हमने सुना है कि जो लोग देवताओं की साधना करते हैं, वे मालदार हो जाते हैं। हाँ बिलकुल ठीक कहता है बेटे! देवता कौन- कौन से हैं? देवता का नाम है- हमारे गुण, हमारी हिम्मत। अगर हमारे भीतर हिम्मत हो तो हमारे सामान्य शरीर कितने बड़े, कितने समर्थ हो सकते हैं और क्या से क्या करते चले जा सकते हैं। नेपोलियन एक जरा सा आदमी था और आल्पस पहाड़ को चेलेंज करने लगा कि हमको रास्ता दीजिए नहीं तो पैरों के नीचे रौंदकर फेंक देंगे। उसने कहा कि हम रास्ता देंगे। जिसने किसी को रास्ता नहीं दिया, उस आल्पस ने रास्ता दिया। मित्रो! आदमी की हिम्मत और आदमी की जुर्रत ये क्या हैं? देवता हैं। इनका नाम क्या है? इनका नाम है- हनुमान जी। हनुमान जी ऐसे होते हैं? हाँ बेटे! ऐसे होते हैं। और कितनी विशेषताएँ हमारे अंदर हैं। इनमें से एक एक गुण, एक- एक कर्म, एक- एक आदत, स्वभाव को हम बनाएँ तो हमको सिद्धियाँ मिल सकती हैं।
मित्रो! हमारे अपने जीवन की साधना में एक घंटा रोज पढ़ने का, अध्ययन का क्रम हमेशा रहा। टहलते भी रहे और एक घंटा पढ़े भी। दोनों का हमने जिंदगी भर सम्मिश्रण रखा है। इस सत्तर वर्ष की उम्र में से पंद्रह वर्ष तो आप निकाल दीजिए। पचपन साल तक हमने यह क्रम एक घंटा रोज स्वाध्याय का जारी रखा है। उस स्वाध्याय का परिणाम क्या हुआ? उसका परिणाम यह हुआ कि हमने दस लाख पन्ने पढ़ लिए आप कागज पेन्सिल लेकर हिसाब लगा लीजिए। हमने उपयोगी विषय पढ़े हैं, काम के विषय पढ़े हैं। किस्से- कहानी नहीं पड़े। नियमित रूप से, गंभीरतापूर्वक पढ़ा है और चिंतन से पढ़ा है। उसका परिणाम क्या हुआ है? लोग ये कहते फिरते हैं कि गुरु जी तो जीवंत एन्साइक्लोपीडिया हैं। चलते- फिरते एन्साइक्लोपीडिया हैं।
नियमित साधना- स्वाध्याय
मित्रो! मेरे पचासों विषय समझे हुए हैं। जिनके विषय में विचार करना, चिंतन करना शुरू करता हूँ। आपने '' अखण्ड ज्योति '' के लेख पड़े हैं। कभी मैं शरीर विज्ञान पर लिखना शुरू करता हूँ तो लोग कहते हैं कि इन्हें सिविल सर्जन होना चाहिए। हाँ बेटे मैं सिविल सर्जन हूँ। और क्या- क्या कहते हैं? जब मैं कानून के ऊपर और लाँजिक के ऊपर लिखना शुरू करता हूँ तो लोग कहते हैं कि ये आदमी कोई हाईकोर्ट का जज होना चाहिए। हाँ बेटे! मैं जज हूँ और मैंने ज्यूरिसरप्रूडेंस और चीजों के बारे में बहुत बारीकी से पढ़ा है। असंख्य विषय मैंने पढ़े हैं तो महाराज जी! समय कहाँ से लाए? बेटे! पढ़ने के लिए एक घंटा नियमित था। व्यस्तता के साथ पड़ा। परिणाम क्या हुआ? उसने अथाह ज्ञान दे दिया। ये क्या चीज है? ये बेटे! स्वाध्याय के प्रति तन्मयता है। ये क्या है? सरस्वती की पूजा है तो क्या आप सरस्वती के पुत्र हैं? हाँ हम सरस्वती के पुत्र हैं, क्योंकि हमने स्वाध्याय से प्रेम किया है। स्वाध्याय के प्रेम में दिलचस्पी हो तो यही सरस्वती का प्रेम है। सरस्वती का यही प्रेम आपको निहाल करा सकता है, विद्वान बना सकता है। यह कोई अचंभे की बात नहीं है।
गुरु जी! आपने चारों वेदों के भाष्य किए हैं? हों किए हैं। अठारह पुराणों के? हों किए हैं। उपनिषदों के, दर्शनों के? हाँ किए हैं। अपने वजन से अधिक किताबें भी लिखी है? ही बेटे! लिखी हैं तो कोई आपका स्टेनो है? नहीं बेटे! हमारा कोई स्टेनो नहीं है। कोई पी० ए० है आपका? नहीं, कोई पी ० ए० नहीं है। आप ही लिखते हैं? हम ही लिखते हैं। ये कैसे हो गया? इतने लंबे जीवन का आप हिसाब लगा दीजिए। मैं आपको हिसाब लगाकर बता सकता हूँ कि आदमी इतने लंबे जीवन में पाँच घंटे रोज नियमित रूप से लिखे तो जो कुछ भी मैंने लिखा है उससे ज्यादा लिखा जा सकता है। अरे महाराज जी! ये तो अचंभा है, जादू है। ये अचंभा नहीं है और जादू भी नहीं है, साधना है। साधना, क्रमबद्धता, नियमितता और व्यवस्था अगर जीवन में लाई जा सकती हो तो आदमी कमाल कर सकता है, चमत्कार दिखा सकता है।
मित्रो! अपनी एक ऐसी दुनिया बसा करके रखिए जिसमें आप उन श्रेष्ठ लोगों की सलाह लेना। इन स्वार्थी लोगों की सलाह मत लेना, इनकी तो सेवा- सहायता करना। ये तो बीमार हैं, इन बीमारों की सहायता करनी चाहिए। ये तो दुखियारे हैं, गरीब हैं, पिछड़े हुए हैं। इनकी सेवा करना, इनके ऊपर दया करुणा करना, इनकी सहायता, मदद करना। बस, इससे आगे नहीं, महाराज जी! अगर इनकी सलाह मानें तो? बेटे! सलाह मानेगा तो तेरे लिए आध्यात्मिक जीवन, श्रेष्ठ जीवन जी सकना कभी संभव नहीं हो सकेगा। इनकी सलाहें किस काम की हैं? दो कौड़ी की सलाह है।
बेटे! श्रेष्ठ चरित्र वाले व्यक्ति और महिलाएँ जहाँ कहीं भी हों, उनका तू कहना मान, उनकी शिक्षाएँ मान, उनके संदेशों, उनके निर्देशों पर चल। अगर ऐसा करेगा तो वह संतों की दुनिया, ऋषियों की दुनिया, ज्ञानियों और तपस्वियों की दुनिया तुझे सलाह और सहारा देती रहेगी। आगे बढ़ाती रहेगी, ऊँचा उठाती रहेगी और तू देवता बनने की जीवन साधना के मार्ग पर चलता रहेगा। इनका कहना न मानेगा तब? तेरी मिट्टी पलीद हो जाएगी। मीरा के सामने एक ऐसा ही सवाल पैदा हो गया। मीरा के घर वाले न भजन -पूजा करने देते थे, न ध्यान करने देते थे, न संत के पास जाने देते थे, न कहीं प्रचार के लिए जाने देते थे और न जीवन का उद्देश्य पूरा करने देते थे। कहते थे कि यहीं कैदखाने में रहना पड़ेगा और हमारा कहना मानना पड़ेगा। मीरा ने एक पत्र गोस्वामी तुलसीदास जी को लिखकर भेजा। बताइए महाराज जी! मैं घर वालों का कहना मानूँ या न मानूँ? मेरे घर वाले हैं तो बड़े- बूढ़े, हैं तो बुजुर्ग, पर बहुत तंग करते हैं। इनका कहना मानना चाहिए या नहीं मानना चाहिए?
क्या करें तुलसीदास जी से सुनें
गोस्वामी तुलसीदास जी ने साफ तो कुछ नहीं लिखा कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए पर एक कविता मीरा के नाम लिख करके भेजी। कितनी सुंदर कविता है, जिसमें सारी की सारी फिलॉसफी, हमारा शिक्षण जो कि मैं आज आपको दे रहा हूँ। यह सारा शिक्षण मीरा के नाम गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा लिखे पत्र में सम्मिलित है। वह पत्र कविता के रूप में है। उसमें उन्होंने लिखा
जाके प्रिय न राम- वैदेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही।।
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्योकंत ब्रज- बनितन्हि भयेमुद- मंगलकारी।।
तो क्या आप भी त्यागने के लिए कह रहे हैं? नहीं बेटे! त्यागने के लिए नहीं कह रहा। मैं तो ये कह रहा हूँ कि इन मरीजों को त्यागने की जरूरत नहीं है। इन मरीजों को सलाह दे, इन मरीजों की हिफाजत कर, इन मरीजों की सेवा कर, पर इन मरीजों के कहने के मुताबिक़ तू चलने लगेगा, तो बेटे! तू इलाज नहीं कर सकेगा, डॉक्टर नहीं रह सकेगा। अपना दृष्टिकोण- अपना चिंतन अलग, अपनी मान्यताएँ अपनी निष्ठाएँ अलग, अपना विश्वास और अपना निश्चय इन लोगों से अलग रख। महाराज जी! हमारी बीबी कह देगी तो हम गायत्री परिवार में आ जाएँगे। नहीं बेटे! तेरी बीबी नहीं कहेगी, तुझे आना हो तो आ, न आना हो तो मत आ। गुरुजी! कुछ ऐसी कृपा कर दीजिए कि हमारी धर्मपत्नी हमारी सहायक हो जाए। धर्मपत्नी तेरी सहायक नहीं होगी, तू इस लायक हो जा।
अपनी दुनिया अलग बसा लें
मित्रो! पहला वाला शिक्षण यह है कि आप अपनी एक दुनिया अलग बसा लीजिए। उसी में मौज से रहा कीजिए। छावनी में रहा कीजिए मोरचे पर लड़ने जाया कीजिए और फिर छावनी में आ जाया कीजिए। गुफा में रहा कीजिए जंगल में लकड़ी काटने जाया कीजिए और फिर गुफा में आ जाया कीजिए। मित्रो! यदि ऐसी गुफा बना लें तो आपके लिए संभव है कि आप आध्यात्मिक जीवन जिएँ कोई महत्त्वपूर्ण निश्चय- निर्णय करें। कोई महत्त्वपूर्ण कदम उठाएँ अन्यथा आपको कोरी कल्पनाएँ आती रहेंगी कि मैं संत बनूँगा, ऐसा करूँगा, ये करूँगा, पर आप कुछ नहीं कर सकेंगे। आप जिस दुनिया में रहते हैं, उसके रिवाज, कायदे, नियम, उसके ढर्रे, उसके स्वभाव आपको इतने ज्यादा प्रभावित करते रहेंगे कि आपको एक कदम भी नहीं बढ़ने देंगे।
आपकी बीबी मान जाएगी तो बेटा नहीं मानेगा, बेटा मान जाएगा तो साला नहीं मानेगा, साला मान जाएगा तो जमाई नहीं मानेगा, पड़ोसी नहीं मानेंगे, सारा समाज नहीं मानेगा। सारे समाज की दीवार दीवार, ईंट ईंट आपसे कहेगी- अरे साहब! किस चक्कर में फँस गए हैं। आप यहाँ आइए हमारे पास और देखिए हमने इतनी बड़ी हवेली बना ली। कैसे बना ली आपने हवेली? अरे आप सब जानते हैं कि हम नंबर दो का काम करते हैं। कैसे बना ली? ये दीवार कहती है, ईंटें कहती हैं, आदमी कहता है, मकान कहता है, संपत्तियाँ कहती हैं, आकर्षण कहता है, चोर कहते हैं, सब कहते हैं। सबका शिक्षण एक ओर और आप एक ओर। तो क्या करें?
बेटे! दुनिया से भाग जा और में चला जा। कौन सी गुफा में? मैंने बताया तो था, अपने मन की गुफा में। अपने मन में एक ऐसी गुफा बना ले, अपने मस्तिष्क में एक ऐसी दुनिया बसा ले, जिसमें कि श्रेष्ठ व्यक्ति, श्रेष्ठ आचार, श्रेष्ठ शिक्षाएँ भरी पड़ीं हों। इतना अगर तू कर पाए तो समझ ले कि तेरी दुनिया बस गई। फिर इस दुनिया से लड़ने में तू समर्थ है, भव- बंधनों से लड़ने में समर्थ है। फिर लोगों की सेवा कर सकता है, प्रेम दे सकता है, मदद- सहायता कर सकता है, उनका मार्गदर्शन कर सकता है। तुझे उनके मार्गदर्शन पर चलने की जरूरत नहीं है। उनको श्रेष्ठ मार्गदर्शन, श्रेष्ठ शिक्षा दे, अगर ऐसा करेगा तो बेटे! यह पहला वाला शिक्षण, पहली वाली पंचशील की शिक्षा है, जहाँ से आदमी देवता बनने का कदम बढ़ाता है। अपने निष्कर्ष स्वयं निकालता है, अपने निर्णय स्वयं करता है। तब उसके लिए संभव है कि वह ऊँचे मार्ग पर चलने में समर्थ हो सके। दूसरों की सलाह पर टिका, परावलम्बी है तो उसके लिए कभी कुछ संभव न हो सकेगा। कल्पनाएँ तो करता रहेगा पर चल न सकेगा। बेटे! यह हुई नंबर एक बात।
इच्छाओं, आकांक्षाओं को बदलिए
नंबर दो -मित्रो! एक बात मैं आपसे यह कहूँगा कि जीवन की दिशाएँ- धाराएँ जिस चीज से और जहाँ से प्रारंभ होती हैं, उस चीज का नाम है- मनुष्य की इच्छाएँ- आकांक्षाएँ। अक्ल की खराबी नहीं है। इंद्रियों की शिकायत करना बेकार है। नहीं साहब! हमारी इंद्रियाँ नहीं मानतीं। बेटा! इंद्रियाँ भी कोई मानने जैसी चीज हैं क्या? इंद्रियाँ क्या होती हैं, कुछ भी नहीं होतीं? जो हमारी निष्ठाएँ हमारी आकांक्षाएँ हमारी इच्छाएँ हैं, वहाँ तू चल। इच्छाएँ हमारी क्या हैं? इस समय में हमारी भौतिक इच्छाएँ तीन हैं- वासना, तृष्णा, अहंता। हमने अपने आप को भूत मान लिया है। कौन हैं आप? हम तो भूत हैं। अरे तृ तो अभी जिंदा है। नहीं महाराज जी! भूत हूँ। भूत कैसा होता है? जिसकी इच्छाएँ वस्तुओं और पदार्थों के साथ जुड़ी हुई हैं।
मित्रो! हमारा शरीर मिट्टी का बना हुआ है। इसकी इच्छा भी मिट्टी की चीजों की है। क्या खाना चाहता है? जलेबी, पकौड़े, मिर्च का अचार खाना चाहता है। मिर्च क्या होती है? मिट्टी। नीबू क्या होता हैं ?मिट्टी। जलेबी क्या होती है? मिट्टी। खाना कौन चाहता है? मिट्टी। ये क्या हैं? ये हमारी भौतिक इच्छाएँ हैं। हमारी जीभ की मिट्टी मिर्च की मिट्टी को खाना चाहती है। मित्रो! ये वासना है। हमारी जितनी भी इंद्रियाँ हैं, ये मिट्टी की बनी हुई हैं और मिट्टी की चीजें माँगती हैं। काम- वासना के अंग मिट्टी के बने हुए हैं। क्या चाहते हैं? मिट्टी का संपर्क मिट्टी का सहयोग चाहते हैं। हमारी वासनाएँ तृष्णाएँ भौतिक हैं। क्या चाहते हैं आप? बेटा चाहते हैं, मकान और रुपया- पैसा चाहते हैं, और क्या चाहते हैं? बस, ये ही चीजें चाहते हैं। मिट्टी चाहते हैं न? हों साहब! मिट्टी चाहते हैं।
तीसरी आकांक्षा क्या है? अहं। एक आदमी का अहं, मेरा बड़प्पन, मेरा यश, मेरा नाम, मेरा गौरव, मेरा श्रेय। अरे साहब! मेरे बेटे का ब्याह हुआ, मैंने ५० हजार रुपया खरच किया और मैंने बेटे की बहू को ८१ तोले सोना चढ़ाया और मेरी लड़की की बरात में २५० बराती आए। मैं- मैं.....। सारे दिन मैं ही मैं चिल्लाता रहता है। मेरा अपमान हो गया, मेरा ये हुआ। मित्रो! ये ही तीन चीजें हैं, जिनके लिए हमारी सारी इच्छाएँ नियोजित हैं। अगर हम अपनी इच्छाओं का दायरा बदल दें तो वे इच्छाएँ जो कभी पूरी नहीं हो पाती हैं, पूरी होनी शुरू हो जाएँ। हमारा दृष्टिकोण यदि ऐसा हो जाए कि इन वस्तुओं के स्थान पर हम सिद्धांत और आदर्श अपनाएँ, सत्य पर चलना चाहें, ईमानदारी से रहना चाहें तो इसमें कोई कठिन ता नहीं आती।
शांति भरा सुगम जीवन
मित्रो! हमारा जीवन सुगम है, अगर हम अपनी आकांक्षाएँ सत्य पर, न्याय पर टिका दें, सादगी और सिद्धांतों के ऊपर टिका दें तो इसमें कोई कठिनाई नहीं आ सकती। फिर हम शांति से जीवन जी सकते हैं। हमारी इच्छाएँ सेकण्डों में पूरी होनी संभव हैं। आप आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा करने तक सीमित हो जाएँ तो आपकी ८० फीसदी समस्याएँ खतम हो जाएँगी। भौतिक आवश्यकताएँ हर आदमी के पास कामचलाऊ हैं, अगर आदमी उधर से संतोष कर ले और अपने सिद्धांतों को, आदर्शों को पूरा करने के लिए अपनी अक्ल और समय लगा दे तो जो समय और शक्ति हमारी निरर्थक खरच होती चली जाती है, उसे हम बचा सकते हैं और उस बची हुई शक्ति से ज्ञान का प्रसाद और भगवान की भक्ति इकट्ठा कर सकते हैं। अभी तो आपके पास न तो बचती है अक्ल, न बचता है मन, न बचता है समय और न बचता है श्रम। ये कौन ले जाता है? ये तीन चुडैलें जोर से पकड़ लेती हैं- एक हथकड़ी के रूप में, एक बेड़ी के रूप में और एक कमर के रस्से के रूप में। इनके बंधन ढीले करें तो आप श्रेष्ठता की, आदर्शों की, उत्कृष्टता की दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं।
एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण जीवन बदलने वाला यह है कि हम अपनी इच्छाओं को परिष्कृत करें। घटिया, छोटी, नगण्य और बेकार इच्छाएँ जिनके बिना हमारा न कोई काम हर्ज हो रहा है और न जिनको प्राप्त करने से कोई उद्देश्य पूरा होता है। मित्रो! अगर आप अपने दृष्टिकोण में हेर फेर कर पाएँ तो जीवन की दिशा बदलने की ओर, महान कार्य करने की ओर, भगवान को प्राप्त करने, आत्मशक्ति का विकास करने और देवत्व की ओर चलने के लिए आप समय, श्रद्धा, आस्था सब चीजें पा सकते हैं।
कर्मयोगी बनिए वर्तमान में रहिए
तीसरा वाला शिक्षण यह है कि आप अपने कर्तव्य को समझना शुरू कीजिए कर्मयोगी बनिए, फर्ज, कर्तव्य पूरा करिए बस, परिणाम? परिणाम हम नहीं जानते बेटे! क्या होगा? हमने खूब अच्छी तरह से पढ़ा, खूब मेहनत की, लेकिन जिस दिन परीक्षा देने का समय आया, आ गया बुखार और फेल हो गए। क्यों साहब! ये क्या हो गया? बेटे! कर्म करना हमारे हाथ में है, फेल या पास होना हम नहीं जानते। भविष्य का अध्ययन करना छोड़ दीजिए; भविष्य का विचार छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि आप यह विचार भी न करें कि हम किसी का भला करने जा रहे हैं या बुरा करने जा रहे हैं। आप तय कर लीजिए कि हमको ये काम करना है- जैसे हमें पढ़ना है, दुकान करनी है, खेती करनी है। पूरे परिश्रम, पूरी ईमानदारी के साथ काम कीजिए। पूरे परिश्रम, मेहनत से खेती की है, लेकिन बरसात न हो, अधिक वर्षा हो, टिड्डी आ जाए कीड़े लग जाएँ तब! हम नहीं जानते कि कल क्या होने वाला है। कल की कल्पनाओं, कल की आकांक्षाओं में बेकार दिमाग न खराब करें। ये सोचें कि हम किसान हैं, पूरी मेहनत के साथ खेती करनी है,फसल बोनी है, अनाज उगाना है, खाद- पानी लगाना है बस, चूकि हमने ईमानदारी से खाद लगाया, ईमानदारी से पसीना बहाया, ईमानदारी से रखवाली की, इतना ही संतोष करना हमारे लिए काफी है।
मित्रो! आप बुड्ढे मत बनिए बच्चे मत बनिए। बुड्ढे कौन होते हैं? बुड्ढे वे होते हैं, जो पिछली राम कहानी कहते रहते हैं। क्या बाबा आदम के जमाने की बातें करते रहते हैं? जिससे न हमारा कोई उद्देश्य पूरा होता है और न कोई शिक्षा मिलती है। गढ़े मुरदे उखाड़ने से क्या काम बनता है? बच्चे उन्हें कहते हैं, जो आगे की बात सोचते हैं। हमारा ब्याह हो जाएगा तो हवाई जहाज में बैठेंगे, यहाँ- वहाँ जाएँगे। ये हैं भविष्य की कल्पनाएँ। बेटे! भविष्य की कल्पनाएँ करना बंद कर, भूतकाल की शिकायतें करना बंद कर। भूत अच्छा गया तो गया, बुरा गया तो गया। उसने गलती की तो, तूने गलती की तो, अब भूतकाल तो किसी तरह वापस नहीं आ सकता। हमें आज क्या करना है, इस पर विचार कर।
मित्रो! कर्मयोगी वह है, जो वर्तमान पर दृष्टि रखता है। अपनी सारी समझ, अक्ल, बुद्धि,मेहनत और मनोयोग अपने कर्तव्य को, कर्म को अच्छा बनाने के लिए लगाता है। '' वर्क इज वर्शिप '' अर्थात काम को भगवान की पूजा इसलिए बताया गया है कि आदमी अपने काम को ईमानदारी से, जिम्मेदारी से करे। काम का मतलब केवल मशक्कत, केवल श्रम नहीं है। काम के साथ में ईमानदारी, एक- जिम्मेदारी, दो- सुरुचि- खूबसूरती, तीन- तन्मयता, तत्परता, उत्साह, जोश, बारीकी मिली हो प्यार मिला हो, चार- काम को हम ऐसे ढंग से करें कि सामान्य होकर भी असामान्य हो जाए। ऐसे असामान्य कार्यों को हम कर्मयोग कहते हैं। हमको और आपको कर्मयोगी बनना चाहिए अगर हम कर्मयोगी बनते हैं और अपने दिमाग को संतुलित बनाए रखते हैं तो हमारी जिंदगी में आनंद आ जाता है।
समय का महत्त्व समझिए
मित्रो! हमारी शक्तियाँ तीन तरीके से खरच होती, बरबाद होती, नष्ट होती रहती हैं। आप देखें कि हमारा जीवन कितना निरर्थक चला गया तो पाएँगे कि तीन- चौथाई समय आपने ताश खेलने, नशेबाजी, यहाँ- वहाँ बैठे रहने में बेकार गँवा दिया। समय का ठीक तरीके से उपयोग किया होता तो समय काल था। रावण ने काल को अपनी पाटी से बाँधकर रखा था, इसलिए रावण इतना बड़ा हो गया। समय को अगर आप बाँधकर, व्यवस्था बनाकर रखें तो समय न जाने क्या से क्या करता हुआ चला जाता है? बेटे! मैंने साहित्य की रचना की, सेवा कर ली, पूजा? भजन भी कर लिया, लोगों से मिल भी लिया, संगठन खड़ा कर लिया। ये सब कैसे करता हूँ? बेटे! समय बँधा हुआ है। नहीं महाराज जी! मैं तो जब मरजी होगी, मिलने के लिए आकर बैठ जाऊँगा। नहीं बेटे! जब चाहे तब न तो मिलने दूँगा, न बैठने दूँगा, तू नाराज होगा तो हो जा। मैं अपना समय देखूँ या तुझे देखूँ।
मित्रो, क्या करना चाहिए? हमको अपनी सामर्थ्य को सार्थक, रचनात्मक कार्यों, सृजनात्मक और विकासोन्मुख कामों में लगाना चाहिए। जिसमें हमारा, हमारे घर वालों का, हमारे पड़ोसियों का, समाज का और देश का विकास होता हो, दूसरों की भलाई होती हो। अपनी सामर्थ्य का हम इस तरीके से नियोजन करने में समर्थ हो सकें। हम व्यर्थ, अनर्थ कार्यों और दुष्टता से बचें तो आप देखेंगे कि हमारे पास ढेरों की ढेरों शक्ति सामर्थ्य, बुद्धि, अक्ल, भावनाएँ बाकी बच जाती हैं। हम उनको अगर सार्थक सृजनात्मक कामों में लगाना शुरू करें तो आप देखेंगे कि कैसा चमत्कार होता है आपके जीवन में। आपको ऊँचा उठने का आपकी उन्नति के लिए कैसे रास्ता खुलता है? आप जो भी लक्ष्य बना करके चलेंगे, उसमें विद्वान बनते हुए चले जाएँगे। स्वास्थ्य- संवर्द्धन का मन हो तो आप पहलवान बन सकते हैं। भगवान का भक्त बनने का अगर मन हो तो वही अक्ल, वही समझ, वही शक्ति वही साधन और पैसा आपको भगवान की ओर बढ़ाता हुआ चला जाता है। आत्म- निरीक्षण कीजिए अपने को देखिए समझिए।
शरीर व जीवात्मा दोनों का ध्यान रखें
मित्रो! अगर आपको श्रेष्ठ जीवन जीना है, देवत्व की दिशा में बढ़ना है तब, एक काम जरूर करना। आपकी दुकान में दो पार्टनर हैं। दोनों का हिस्सा, दोनों के शेयर का हिसाब- किताब रखना। कोई पार्टनर किसी से चालाकी, बेईमानी न करने पाए। जिसका जितना लाभांश है, उसको उतना मिल जाए। जिसका जितना हक है, दोनों को मिल जाए। आपके दो बेटे हैं? हाँ साहब! कहीं ऐसा न हो कि एक बेटे को सारा माल दे दें और दूसरा बेटा विचारा ऐसे ही हाथ मलता रह जाए। नहीं महाराज जी! ऐसा अन्याय तो नहीं करेंगे। हों बेटे! अन्याय मत करना। तेरी दुकान में कितने हिस्सेदार हैं? दो हिस्सेदार हैं तो उनको भी मुनाफा देता है कि नहीं। महाराज जी! दिया करूँ? हों बेटे! उसे दिया कर। तेरे पिता की संपत्ति जो मिली, वह सब तेरे पास है और तेरा एक भाई भी है। भाई का शेयर, हिस्सा नहीं देगा? नहीं महाराज जी! सारा मैं ही खा जाऊँगा। नहीं, उसको भी दे, दोनों खाओ, ईमानदारी की, न्याय की बात है।
मित्रो! हमारे जीवन की दुकान में भी दो हिस्सेदार हैं। कौन- कौन हिस्सेदार हैं? एक हमारा शरीर और एक हमारी जीवात्मा। एक हमारा कलेवर और एक हमारा प्राण। इसका जो मुनाफा होता हो, दोनों को बराबर- बराबर दें। शरीर की देख- भाल कर, मैं ये थोड़े ही कहता हूँ कि शरीर को खाना, कपड़ा मत दे। शरीर की व्यवस्था भी कर, लेकिन सारा का सारा यदि शरीर को चला गया और जीवात्मा को नहीं तो जीवात्मा हमारी भूखी, तड़पती रही, व्याकुल रही, उसके लिए कुछ न कर सका। सारी जिंदगी जीवात्मा ने पुकारा कि हमें भी कुछ मिलना चाहिए। अच्छा, तुम्हें भी मिलना चाहिए। मित्रो! जब बच्चा रोया करता है तो उसकी माँ दूध में अफीम घोलकर पिला देती है और बच्चा सो जाता है। हमारी जीवात्मा भी जब रोई, चिल्लाई तो अफीम की गोली घोल- घोलकर इसको पिला दी।
अफीम की गोली क्या? माला आहा! ये बात है। माला में क्या होता है? नम :: शिवाय- नम:शिवाय और क्या कह रहा है? श्रीकृष्ण शरणं मम- श्रीकृष्ण शरणं मम। श्रीकृष्ण मेरी शरण में आ जा, इसका मैंने ये अर्थ लगाया। इससे क्या फायदा हो जाएगा? इससे ये फायदा हो जाएगा कि श्रीकृष्ण भगवान की गाय, बछड़े, बसरी, कपड़े सब मेरे पास आ जाएँगे।
माला और भलाई
बेटे! मनुष्य को जीवन अमानत के रूप में दिया है। ये ऐसे कामों के लिए दिया है कि इस दुनिया के, भगवान के उद्यान में हम माली के तरीके से काम करें। उसे सुव्यवस्थित, समुन्नत और श्रेष्ठ बनाएँ। भगवान के पीए के तरीके से, इंजीनियर के तरीके से, उसके सेक्रेटरी के तरीके से कुछ काम करें। मित्रो! ये काम करना हमारा उद्देश्य था और आवश्यक था। अगर हमने ये किया होता तो मजा आ जाता हमारी जिंदगी में, लेकिन हम ऐसा न कर सके और जीवात्मा के हिस्से में कुछ नहीं पड़ा। अरे महाराज जी! हमने जीवात्मा को माला दे तो दी। अच्छा बेटे! तो ये बता क्या कमाता है? ५५० रुपए कमाता हूँ तो ऐसा कर कि तू ५५० रुपया तो दे दिया कर जीवात्मा को, भगवान को और शरीर को शरीर को बेटे तू माला दे दिया कर। माला से क्या काम चलेगा शरीर का? बेटे! माला चबा लिया कर और पहन लिया कर। अच्छा, महाराज जी! रात को ठंढ लगे तब? ठंढ लगे तो ओढ लिया कर माला को। नहीं, भगवान तो माला खाकर चुप रह जाते है। अच्छा भगवान के हिस्से में माला और तेरे हिस्से में मलाई। नहीं बेटे! भगवान माला खाकर चुप नहीं रहते।
भगवान तेरा श्रम माँगता है, तेरा पसीना माँगता है, तेरा समय, तेरा वक्त माँगता है। तेरा ईमान, तेरी भावना और तेरी श्रद्धा माँगता है। मित्रो! जीवात्मा परमात्मा के लिए और शरीर यात्रा दोनों के लिए हमारा संतुलित विभाजन होना चाहिए। संतुलित विभाजन का मैंने नाम रखा है- अंशदान। अंशदान के लिए मैंने कहा था कि आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश अंशदान के बिना संभव नहीं है। हमारी दो संपदाएँ हैं- एक भगवान की दी हुई, एक मनुष्य की दी हुई। भगवान की दी हुई संपदा का नाम है -समय। समय को जहाँ भी आप खरच करे, उसी के बदले में ये नोट रुपए हैं। आप इनको बाजार में ले जाइए और चाहे जो खरीद लाइए। समय के बदले में आपको पैसा, स्वास्थ्य, विद्या, लोक परलोक कुछ भी खरीद लीजिए। ये भगवान की संपत्ति है और मनुष्य की कमाई है- पैसा। ये दोनों ही साधन हमारे पास हैं, इन दोनों साधनों का उपयोग आप विभाजित रूप से किया कीजिए।
ईमानदार बनिए -हिस्सेदारी में
मित्रो! भौतिक जीवन के लिए हमारे समय का कितना हिस्सा लगना है और आध्यात्मिक जीवन के लिए परमार्थ जीवन के लिए कितना समय लगाना है, विभाजित कीजिए और साफ साफ बताइए कि कितना हिस्सा देना चाहते हैं एक नहीं साहब! हम तो जीवात्मा को रुपया में दो आने देंगे और शरीर को मुनाफे में से चौदह आने देंगे, चल कुछ तो दे। महाराज जी! मैं तो कुछ भी नहीं दूँगा, बेटे! जीवात्मा को भगवान को अँगूठा मत दिखा। नहीं चावल चढ़ा दूँगा, रोली चढ़ा दूँगा। भगवान को तू बहकाए मत कि चावल- रोली चढ़ा दूँगा, धूपबत्ती चढ़ा दूँगा। अच्छा तू अपने शरीर को ही धूपबत्ती दिखा दिया कर। नहीं महाराज जी! शरीर का तो धूपबत्ती से काम नहीं चलेगा तो फिर भगवान का कैसे काम चल जाएगा? भगवान जी पर चंदन चढाऊँगा, अच्छा तो तू चंदन अपने ऊपर चढ़ा ले। नहीं महाराज जी चंदन से मेरा काम नहीं चलेगा तो भगवान का काम कैसे चलेगा? इसलिए मित्रो! जो हमारी संपदाएँ हैं, उनके बारे में हमें ईमानदार होना चाहिए और नेक होना चाहिए। हमको कुछ इस तरह से विभाजन करना चाहिए कि हमारे समय का इतना हिस्सा शारीरिक जीवन के लिए और इतना परमात्म जीवन के लिए। इतना लोकमंगल के लिए और इतना हमारे लिए।
समाज का ऋण चुकाएँ
आध्यात्मिक जीवन आपसे यह कहता है कि आप समाज के ऋणी हैं। समाज ने आपको ज्ञानवान बनाया है। समाज का लाभ लेकर के आपको अनाज मिलता है। समाज का लाभ लेकर के आप कपड़े पहनते हैं । समाज का लाभ लेकर के आपने शिक्षा पाई है। समाज का लाभ लेकर के आपको सवारियाँ मिली हैं। समाज का लाभ लेकर के आपकी दवा- दारू का इंतजाम हुआ है। समाज का लाभ लेकर के आपका विवाह हुआ हैं। नहीं साहब! तो कहाँ से हुआ है तेरा विवाह? किसी और की पैदा की हुई बेटी को साथ लिए फिरता है और ऊपर से ये कहता है कि समाज का कोई ऋण नहीं है। तेरे ऊपर ऋण है, तू समाज का ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए जो हमारे पास है, उसका एक मुनासिब हिस्सा निकालने के लिए हमको कोशिश करनी चाहिए।
मित्रो! आप आध्यात्मिक जीवन जीना चाहते हैं तो सचाई पर आइए वास्तविकता पर आइए। इस कठोर सचाई को, वास्तविकता को समझिए, अगर आप वास्तविक अध्यात्म को पाना चाहते हैं, वास्तविक भगवान को पाना चाहते हैं, वास्तविक उन्नति करना चाहते हैं, वास्तविक प्रतिभा को चाहते हैं, वास्तविक देवत्व चाहते हैं तो उसकी वास्तविक कीमत चुकाइए।
पंचशीलों की साधना- पंचाग्नि विद्या
मित्रो! ये आध्यात्मिकता के पंचशील हैं तो कठोर और कठिन। कठोर इसलिए कि हमारे स्वभाव में नहीं आते और हमको भय मालूम पड़ता है। अरे साहब! ये करें तो आफत आ जाएगी और ये कैसे होगा? इसका जो भय है, वास्तव में वही दिक्कत का कारण है। अगर आप आध्यात्मिक जीवन पर चलें, पंचशील का जीवन जिएँ? जीवात्मा की, आत्मदेव की पूजा पंचोपचार के ढंग से करें तो आपको मालूम पड़ेगा कि पंचशील कितने सरल हैं, सरस हैं। वर्तमान जीवन, स्वार्थी जीवन, घटिया- नारकीय जीवन, पापी- पतित जीवन की अपेक्षा वह जीवन सरल है, शांतिमय है और सुखद है। वही आदमी समुन्नत है और उसकी सिद्धियाँ प्रत्यक्ष हैं। मित्रो! मैं चाहता था कि आप देवत्व की ओर बढ़ते, देवत्व के पंचतप करते, पंचाग्नि विद्या को अपनाते। नचिकेता के तरीके से पंचाग्नि विद्या में अपने आप को तपाते। पंचशीलों को ग्रहण करते और अपने व्यक्तित्व को उभारते और श्रेष्ठ बनाते, व्यक्तित्व को समुन्नत बनाते। उसके बदले में वे सिद्धियाँ पाते जो महापुरुषों ने पाई, ज्ञानियों ने पाईं, तपस्वियों ने पाई, देवमानवों ने पाईं। उन सिद्धियों से आप इसी जीवन में संपन्न हो जाते, अगर आप जीवन देवता की, आत्मदेव की साधना करने की हिम्मत इकट्ठी कर सकते तब।
आज की बात समाप्त।
।। ऊँ शांति:।।