Books - जीवन की दिशाधारा और उसका सार्थक सुनियोजन
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Language: HINDI
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सादा जीवन उच्च विचार का राजमार्ग हर दृष्टि से श्रेयस्कर
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निर्वाह की दृष्टि से जीवन क्रम हलका फुलका होना चाहिए। लिप्सा-लालसाओं से लदी जिन्दगी बहुत भारी पड़ती है। महत्वाकांक्षी लोग न चैन से बैठते हैं न दूसरों को बैठने देते हैं। बड़प्पन का नशा, विज्ञात नशों में सबसे बुरा है। कुबेर और इन्द्र बनने की ललक में—रावण और हिरण्यकश्यपु जैसा वैभव बटोरने की रट लगाते-लगाते कितने चंगेज खां और सिकन्द इस दुनिया से हाथ मलते उठ गये, फिर अपने जैसे मक्खी मच्छरों की क्या स्थिति जिनके पास न कौशल है- न पराक्रम-न साधन। वितृष्णा इतना ही कर सकती है कि इस चन्द दिन तक जीने के लिए मिले हुए सुयोग का अपहरण कर ले। मृगतृष्णा में भटकने वाले दिवास्वप्न देखते और निराशा, खीज, थकान भर पल्ले पड़ने से मूर्खता पर सिर धुनते हैं।
यदि विलास और वैभव सब कुछ रहे और अहंता के प्रदर्शन बिना चैन न पड़े तो एक बात और भी गांठ-बांध लेनी चाहिए कि इस प्रयास में उन सभी सम्भावनाओं को समाप्त करना होगा जो हर घड़ी प्रसन्नता बनाये रहती हैं। जिसके कारण चेहरे पर मुस्कान और अन्तराल में संतोष भरे उल्लास को छलकते देखा जाता है। मानवी गरिमा को अक्षुण्य और सुविकसित बनाये रहने के लिए बहुत कुछ सोचना और बहुत कुछ करना होता है। इस हेतु जिन साधनों की आवश्यकता पड़ती है उन्हें पूरी तरह वह व्यामोह अजगर की तरह निगल जाता है, जिसमें दर्प के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं।
साथियों को नीचा दिखाकर अपनी गरिमा सिद्ध करने वाले ठाट-बाट तो बना लेते हैं पर जिस लोकसम्मान की आशा से वह सब किया गया था उसे मिलने की कोई आशा किरण दीखती नहीं। उल्टी ईर्ष्या भड़कती है। भूखों की मण्डली में बैठकर जब एक कोई रबड़ी चाटता है तो सौभाग्यशाली कहलाने का श्रेय कहां बटोर पाता है। उलटा आक्रोश बरसता है और निष्ठुरता का लांछन लगता है। लगे हाथों कहने वाले यह भी कहते हैं कि यह अनीति उपार्जन है, अन्यथा ईमानदार होने पर तो यह हमारे जैसा ही रहता।
जन मनोविज्ञान को समझने वाले जानते हैं कि साथियों की तुलना में बहुत अधिक विलास वैभव एकत्रित करना गरिमा अर्जित नहीं कर पाता वरन् ऐसा आक्रोश उत्पन्न करता है जिसकी चपेट में जाने कितने आक्रमण सहने और कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसलिए दूरदर्शिता सदा यही कहती रही है कि सम्पन्नता अर्जित करने के अनेक खतरे हैं, जबकि सादगी अपनाने पर महानता उभरती है और जन-जन का स्नेह सहयोग घसीट लाती है।
सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त ऐसा है जिसमें जीवन की सार्थकता, सफलता और जुड़ी हुई है एवं प्रसन्नता के समस्त सूत्रों का समावेश है। हलका-फुलका जीवन अर्थात् सादगी मितव्ययता और बिना विलास वैभव के सीधा सादा निर्वाह। इसके लिए औसत भारतीय स्तर को मापदण्ड मानकर चलना होता है अन्यथा यह पता ही न चलेगा कि जिस वैभव का उपभोग चल रहा है वह आवश्यक है या अनावश्यक, उचित है या अनुचित। जिसकी अपनी तृष्णा आकाश चूमती हो उसके लिए यह अनुमान लगा सकना कठिन है कि औसत मनुष्य को किस स्तर का निर्वाह अपनाना पड़ता है। वे सदा धन कुबेरों के सपने देखते हैं और तस्करों, लोलुपों और निष्ठुरों के द्वारा अपनाये जाने जैसे विलास वैभव को स्वाभाविक मानते हैं। इस राह पर चलते तो अनेकों हैं, जो चल नहीं पाते वे भी ललक वैसी ही संजोये रहते हैं। परिणति स्पष्ट है, साधनों के रहते हुए भी उनका इच्छित रसास्वादन तो कदाचित ही कोई कर पाते हों। मधुमक्खियों के वैभव को कौन सहन करता है। छत्ता तोड़ने के लिए बहेलिये ही नहीं, गीदड़ और बन्दर तक घात लगाये रहते हैं। यह अपहरण चापलूसी के औजार से किया गया या गला मरोड़ने वाले नागपाश से, यह बात दूसरी है।
बढ़ा हुआ वैभव रुदन के अतिरिक्त और कुछ उत्पन्न नहीं कर सकता। उससे दुर्व्यसन और अहंकार समान रूप से बढ़ते हैं। यह दोनों ही ऐसे हैं जो शहतीर में लगे घुन की तरह उसे गुप-चुप खोखला करते और धराशायी करने तक अपने प्रयास में निरत रहते हैं। अधिक जोड़ने की, अधिक भोगने की ललक में मनुष्य कुकृत्य तो करते ही हैं उसका खर्च भी सीधे रास्ते नहीं होता। या तो मनुष्य स्वयं उसे दुर्व्यसनों में उड़ाता है या फिर ईर्ष्यालुओं के आक्रमण का शिकार बनता है। पारा किसी को पचता नहीं।
अनावश्यक वैभव की भी ठीक ऐसी ही दुर्गति होती है। यह स्वयं तो हजार छेद बनाकर अपनी बिरादरी वालों से मिलाने दौड़ता ही है, साथ ही जहां भी भागता है वहां भी अनेकानेक रिसते घाव छोड़ जाता है जो जन्म जन्मान्तरों तक रिसते और कसकते हैं। इसलिए आदर्शों की बात सोचने वालों को सर्वप्रथम वैभव विसर्जन की तैयारी करने का परामर्श दिया जाता है। अन्यथा लिप्सा बनी रहने पर परमार्थ के नाम पर चित्र विचित्र विडम्बनायें रचते रचते रहने के अतिरिक्त और कुछ बन नहीं पड़ेगा। महानता और सम्पन्नता में एक प्रकार से शत्रुता है, जहां एक के पैर जमेंगे वहां दूसरे को पलायन करना पड़ेगा। तथ्य की यथार्थता और गंभीरता को समझने वाले वाजिश्रवा जैसे सर्वमेध यज्ञ रचाते और अपने शरीर के कपड़े तक उतार कर परमार्थ प्रयोजन के लिए दान करते रहे हैं। ऋषि परम्परा यही है। बुद्ध, गांधी को ही नहीं, प्रत्येक साधु और ब्राह्मण परम्परा अपनाने वालों को अपना प्रथम प्रयास यहीं से आरम्भ करना पड़ा है। विसर्जन समर्पण बन पड़े तो यह आशा बंधती है कि महानता के साथ एकत्व अद्वैत की स्थिति बन सके। जिस त्याग वैराग्य की शास्त्रकारों ने श्रेय मार्ग पर चलने वालों के निमित्त पग-पग पर आवश्यकता बताई है उसमें यही रहस्य है कि जब तक तृष्णा से पिण्ड न छूटेगा तब तक श्रेष्ठता में न मन लगेगा और न तन जुटेगा। लगन कहीं लगी रहे तो फिर लकीर पीटने भर की विडम्बना ही शेष रह जाती है। उस झुन-झुने से अपने आपको बहलाया-फुसलाया भर जा सकता है।
परस्पर घोर मतभेद रखने वाले अध्यात्मवाद और साम्यवाद को इस केन्द्र पर सर्वथा एक मत देखा जा सकता है कि व्यक्ति को औसत नागरिक स्तर का निर्वाह क्रम अपनाने के लिए बाध्य किया जाय। अध्यात्म क्षेत्र में इसके लिए पुण्य परमार्थ का- त्याग वैराग्य का- स्वर्ग मुक्ति का दार्शनिक चक्रव्यूह रचा है। साम्यवाद ने झटके की नीति अपनाई है और आदमी की भलमनसाहत को अस्वीकार करते हुए गरदन दबोचकर जो पल्ले है उसे समाज की सम्पदा मानने के लिए बाधित किया। तरीके अपने-अपने हैं। नींद की गोली खाकर मरा जाय या तलवार से गरदन कटे, मात्र तरीकों में ही भिन्नता है। आदर्शवाद की किसी भी धारा को यह स्वीकार नहीं कि मनुष्य विलासी संग्रही, अपव्ययी बने, उद्धत विडम्बना रखे और मुफ्तखोरों के लिए उत्तराधिकार छोड़ मरे। हर दृष्टि से यह अनैतिक है।
कौशल, पराक्रम श्रम समय और वैभव यह सभी विभूतियां ईश्वर प्रदत्त हैं। इसी को समाज प्रदत्त भी कहा जा सकता है। अन्यथा एकाकी स्थिति में तो वन-मनुष्य जैसी आदिम स्थिति में भी रहा जा सकता है। जिसने दिया है उसे कृतज्ञता पूर्वक लौटा देने में ही भलमनसाहत है। इसे अपनाने में जो दुराचरण के प्रवाह प्रचलन को चीरकर अपनी शालीनता का परिचय दे पाता है वह सराहा जाता है। यह औचित्य का निर्वाह भर है। तो भी चोरों की नगरी में एक ईमानदार को भी देवता माना जाता है। आलसियों के गांव में एक पुरुषार्थी भी मुक्त कंठ से सराहा जाता है। औसत नागरिक जैसा निर्वाह ऐसा ही औचित्य है जिसे अपनाने के लिए नीतिमत्ता, विवेकशीलता और सद्भावना का प्रत्येक प्रतिपादन विवश करता है।
यहां चर्चा धन वैभव की ही नहीं हो रही है। उसमें कौशल और पराक्रम को भी सम्मिलित रखा जाता है। विद्या, बुद्धि, कला, कौशल, प्रतिभा, बलिष्ठता आदि की दृष्टि से कितनों को ही विशिष्टता प्राप्त है। समय प्रत्यक्ष धन है। पसीने से ही सम्पदा कमाई जाती है या कमाई जानी चाहिए। लॉटरी से लेकर जुए, सट्टे का- जमीन में गड़ा, उत्तराधिकारी से मिला या उजड्डपन से बटोरा वैभव औचित्य की मर्यादाओं से हटकर होने के कारण अग्राह्य एवं अवांछनीय है। वस्तुतः धन मनुष्य के श्रम, समय और कौशल का ही प्रतिफल होना चाहिए। इसलिए विभिन्न स्तर ही विशेषतायें विभूतियां भी वैभव में ही सम्मिलित होती हैं और वह अनुशासन उन पर भी लागू होता है। उसके अनुसार न्यूनतम अपने लिए और अधिकतम सत्प्रवृत्ति संवर्धन के निमित्त लगना चाहिए। मानवी गरिमा इससे कम में सधती ही नहीं। मनुष्य की मान मर्यादा इससे कम में बनती ही नहीं। इससे कम निर्धारण में वह सुयोग बनता ही नहीं।
जिस प्रकार सम्पन्नता उपार्जन के लिए अपना सब कुछ न सही बहुत कुछ नियोजित करना पड़ता है ठीक उसी प्रकार महानता अर्जित करने के लिए भी श्रम, समय एवं मनोयोग का बहुत बड़ा भाग नियोजित करना पड़ता है। यदि उन विभूतियों पर पहले से ही लोभ लिप्सा ने आधिपत्य जमा रखा हो तो फिर महानता अर्जित करने के लिए, खरीदने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता पड़ती है वे पास में हों ही नहीं। तब फिर मनोरथ कैसे पूरे हो सकेंगे। मात्र कामना कल्पना करने से, पूजा पाठ करने भर से कोई भी श्रेष्ठता का वरण नहीं कर सका है। ईश्वर भक्त भी महामानवों की पंक्ति में बैठ सकने में समर्थ नहीं हुए हैं। उत्कृष्टता तो मूल्य देकर खरीदी जा सकती है। इस खरीद के लिए जो चाहिए उसे सम्पन्नता की ललक पर अंकुश लगाकर ही बढ़ाया जा सकता है।
चुनाव दो में से एक का करना है। निकृष्ट विचार रखकर घिनौना जीवन जिया जाय—संकीर्ण स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में बुलबुलाते —तिलमिलाते कीड़ों जैसा शिश्नोदर परायण बना जाय, या फिर उत्कृष्ट स्तर की विचारणा अपनाकर सादगी का सौम्य सात्विक निस्पृह रहकर महानता को वरण किया जाय। दोनों में मौलिक अन्तर एक ही है। निकृष्टता आरम्भ में आकर्षक लगती है किन्तु परिणाम की दृष्टि से विघातक विष जैसी कष्टदायक सिद्ध होती है। इससे विपरीत उत्कृष्टता का मार्ग है जिसका आरम्भ बीज की तरह गलने जैसा होता है किन्तु कुछ समय उपरान्त अंकुरित होने, लहलहाने एवं फलने फलने के अवसर निश्चित रूप में उपलब्ध होने लगते हैं। अदूरदर्शी तात्कालिक आकर्षण के लिए आतुर होते हैं और आटे के लोभ में गला फंसाकर बेमौत मरने वाली मछली का उदाहरण बनते हैं। दूसरे वे हैं जो किसान माली, विद्यार्थी या व्यवसायी की तरह अपनी श्रम साधना सत्प्रयोजन के लिए लगाते और अन्ततः बहुमूल्य फसल से अपने कोठे भरते हैं।
सादा जीवन उच्च विचार का राजमार्ग हर किसी के लिए श्रेयस्कर है। उनमें आवश्यकताओं और सुविधाओं पर इतना अंकुश लगाना पड़ता है जिसमें शरीर को मात्र औसत नागरिक जितनी व्यवस्था जुट सके। वैयक्तिक आकांक्षाओं को इतना ही स्वल्प एवं सीमित रहना चाहिए ताकि संसार में जितने साधन हैं उन्हें मिल बांट कर खाया जा सके। हर किसी के हिस्से में गुजारे जितना आ सके। ऊंची दीवार उठाने के लिए कहीं न कहीं गड्ढा करना पड़ता है। अमीर बनने में विलास वैभव जुटाने में जिस सम्पदा की आवश्यकता पड़ती है, उसका संचय बिना दूसरों का रक्त पिये अपनी कोठी, तिजोरी की शोभा बढ़ाने के लिए जमा हो ही नहीं सकता।
जो अधिक उपार्जन करने योग्य है उनके ऊपर एक अतिरिक्त, उत्तर-दायित्व यह आता है कि सादगी से गुजारा करने के उपरान्त जो बचता है उसे सत्प्रयोजनों के लिये हाथों हाथ लौटा दें। वरिष्ठता के बदले श्रेय मिलने का सौभाग्य की पर्याप्त है। उपार्जन अभिवर्धन की, कौशल, व्यवस्था और सूझ-बूझ की विशेषता का प्रतिफल इतना ही हो सकता है कि उन्हें सराहा, सम्मानित किया और श्रेय दिया जाय। इसके बदले उन्हें अधिक सम्पदा सुविधाओं जैसे लाभों की न तो मांग ही करनी चाहिए और न वैसा कुछ उन पर लादकर गरिमा का अपहरण ही होना चाहिए।
घर के बड़े कमाऊ लोग मात्र अधिक श्रेय पाकर संतुष्ट हो जाते हैं। व्यक्तिगत उपभोग के लिए अधिक सम्पत्ति उड़ाते रहने की छूट नहीं मांगते। वे जानते हैं कि संयुक्त परिवार में सभी का समान हक है। कमाऊ हीरे मोतियों से लदे और बिन कमाऊ चिथड़े लपेटकर घूमें तो यह संयुक्त परिवार कहां रहा? यह समूचा समाज एक परिवार है। उसके वरिष्ठों को कनिष्ठों का अधिक ध्यान रखना चाहिए।
अभिभावक स्वयं दूध न पीकर भी बच्चों के लिए उसे किसी प्रकार जुटाते हैं। मरीज के लिए फलों का प्रबन्ध किया जाता है जबकि समर्थ दाल और नमक के सहारे भी रोटी गले उतारते रहते हैं। यदि समर्थ का विशेष अधिकार माना जाय तो फिर असमर्थों का ईश्वर ही रक्षक है। उस आपाधापी के रहते मनुष्य समाज की सभ्यता, संस्कृति नीति, उदारता जैसे आदर्शों की चर्चा करने का हक न रह जायेगा। जिसकी लाठी उसकी भैंस का जंगली कानून यदि मनुष्यों में भी चल पड़ा और सुयोग्यों ने अधिक सुविधा साधन हड़पना आरम्भ कर दिया तो समझना चाहिए कि मनुष्य न अपनी नैतिक वरिष्ठता गंवा दी और प्रेत पिशाच जैसी रीति-नीति अपना ली।
सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त मानवी नैतिकता की सही व्याख्या करता है। जिसके विचार ऊंचे हों वो भावना के क्षेत्र में उत्कृष्टता संजोये हो, उसे अपने ऊपर यह अनुबन्ध कठोरता पूर्वक लागू करना चाहिए कि जीवनचर्या सादगी एवं मितव्ययता से पूर्ण हो। मितव्ययता का अर्थ कृपणता बरतना और कुपात्रों के लिए सम्पदा जमा करते जाना नहीं वरन् यह है कि औसत नागरिक का स्तर शिरोधार्य करते हुए पूरी सामर्थ्य के साथ श्रम किया जाय और जो निर्वाह से अधिक हो उसे हाथों-हाथ सत्प्रयोजनों के लिए लगा दिया जाय।
यदि विलास और वैभव सब कुछ रहे और अहंता के प्रदर्शन बिना चैन न पड़े तो एक बात और भी गांठ-बांध लेनी चाहिए कि इस प्रयास में उन सभी सम्भावनाओं को समाप्त करना होगा जो हर घड़ी प्रसन्नता बनाये रहती हैं। जिसके कारण चेहरे पर मुस्कान और अन्तराल में संतोष भरे उल्लास को छलकते देखा जाता है। मानवी गरिमा को अक्षुण्य और सुविकसित बनाये रहने के लिए बहुत कुछ सोचना और बहुत कुछ करना होता है। इस हेतु जिन साधनों की आवश्यकता पड़ती है उन्हें पूरी तरह वह व्यामोह अजगर की तरह निगल जाता है, जिसमें दर्प के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं।
साथियों को नीचा दिखाकर अपनी गरिमा सिद्ध करने वाले ठाट-बाट तो बना लेते हैं पर जिस लोकसम्मान की आशा से वह सब किया गया था उसे मिलने की कोई आशा किरण दीखती नहीं। उल्टी ईर्ष्या भड़कती है। भूखों की मण्डली में बैठकर जब एक कोई रबड़ी चाटता है तो सौभाग्यशाली कहलाने का श्रेय कहां बटोर पाता है। उलटा आक्रोश बरसता है और निष्ठुरता का लांछन लगता है। लगे हाथों कहने वाले यह भी कहते हैं कि यह अनीति उपार्जन है, अन्यथा ईमानदार होने पर तो यह हमारे जैसा ही रहता।
जन मनोविज्ञान को समझने वाले जानते हैं कि साथियों की तुलना में बहुत अधिक विलास वैभव एकत्रित करना गरिमा अर्जित नहीं कर पाता वरन् ऐसा आक्रोश उत्पन्न करता है जिसकी चपेट में जाने कितने आक्रमण सहने और कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसलिए दूरदर्शिता सदा यही कहती रही है कि सम्पन्नता अर्जित करने के अनेक खतरे हैं, जबकि सादगी अपनाने पर महानता उभरती है और जन-जन का स्नेह सहयोग घसीट लाती है।
सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त ऐसा है जिसमें जीवन की सार्थकता, सफलता और जुड़ी हुई है एवं प्रसन्नता के समस्त सूत्रों का समावेश है। हलका-फुलका जीवन अर्थात् सादगी मितव्ययता और बिना विलास वैभव के सीधा सादा निर्वाह। इसके लिए औसत भारतीय स्तर को मापदण्ड मानकर चलना होता है अन्यथा यह पता ही न चलेगा कि जिस वैभव का उपभोग चल रहा है वह आवश्यक है या अनावश्यक, उचित है या अनुचित। जिसकी अपनी तृष्णा आकाश चूमती हो उसके लिए यह अनुमान लगा सकना कठिन है कि औसत मनुष्य को किस स्तर का निर्वाह अपनाना पड़ता है। वे सदा धन कुबेरों के सपने देखते हैं और तस्करों, लोलुपों और निष्ठुरों के द्वारा अपनाये जाने जैसे विलास वैभव को स्वाभाविक मानते हैं। इस राह पर चलते तो अनेकों हैं, जो चल नहीं पाते वे भी ललक वैसी ही संजोये रहते हैं। परिणति स्पष्ट है, साधनों के रहते हुए भी उनका इच्छित रसास्वादन तो कदाचित ही कोई कर पाते हों। मधुमक्खियों के वैभव को कौन सहन करता है। छत्ता तोड़ने के लिए बहेलिये ही नहीं, गीदड़ और बन्दर तक घात लगाये रहते हैं। यह अपहरण चापलूसी के औजार से किया गया या गला मरोड़ने वाले नागपाश से, यह बात दूसरी है।
बढ़ा हुआ वैभव रुदन के अतिरिक्त और कुछ उत्पन्न नहीं कर सकता। उससे दुर्व्यसन और अहंकार समान रूप से बढ़ते हैं। यह दोनों ही ऐसे हैं जो शहतीर में लगे घुन की तरह उसे गुप-चुप खोखला करते और धराशायी करने तक अपने प्रयास में निरत रहते हैं। अधिक जोड़ने की, अधिक भोगने की ललक में मनुष्य कुकृत्य तो करते ही हैं उसका खर्च भी सीधे रास्ते नहीं होता। या तो मनुष्य स्वयं उसे दुर्व्यसनों में उड़ाता है या फिर ईर्ष्यालुओं के आक्रमण का शिकार बनता है। पारा किसी को पचता नहीं।
अनावश्यक वैभव की भी ठीक ऐसी ही दुर्गति होती है। यह स्वयं तो हजार छेद बनाकर अपनी बिरादरी वालों से मिलाने दौड़ता ही है, साथ ही जहां भी भागता है वहां भी अनेकानेक रिसते घाव छोड़ जाता है जो जन्म जन्मान्तरों तक रिसते और कसकते हैं। इसलिए आदर्शों की बात सोचने वालों को सर्वप्रथम वैभव विसर्जन की तैयारी करने का परामर्श दिया जाता है। अन्यथा लिप्सा बनी रहने पर परमार्थ के नाम पर चित्र विचित्र विडम्बनायें रचते रचते रहने के अतिरिक्त और कुछ बन नहीं पड़ेगा। महानता और सम्पन्नता में एक प्रकार से शत्रुता है, जहां एक के पैर जमेंगे वहां दूसरे को पलायन करना पड़ेगा। तथ्य की यथार्थता और गंभीरता को समझने वाले वाजिश्रवा जैसे सर्वमेध यज्ञ रचाते और अपने शरीर के कपड़े तक उतार कर परमार्थ प्रयोजन के लिए दान करते रहे हैं। ऋषि परम्परा यही है। बुद्ध, गांधी को ही नहीं, प्रत्येक साधु और ब्राह्मण परम्परा अपनाने वालों को अपना प्रथम प्रयास यहीं से आरम्भ करना पड़ा है। विसर्जन समर्पण बन पड़े तो यह आशा बंधती है कि महानता के साथ एकत्व अद्वैत की स्थिति बन सके। जिस त्याग वैराग्य की शास्त्रकारों ने श्रेय मार्ग पर चलने वालों के निमित्त पग-पग पर आवश्यकता बताई है उसमें यही रहस्य है कि जब तक तृष्णा से पिण्ड न छूटेगा तब तक श्रेष्ठता में न मन लगेगा और न तन जुटेगा। लगन कहीं लगी रहे तो फिर लकीर पीटने भर की विडम्बना ही शेष रह जाती है। उस झुन-झुने से अपने आपको बहलाया-फुसलाया भर जा सकता है।
परस्पर घोर मतभेद रखने वाले अध्यात्मवाद और साम्यवाद को इस केन्द्र पर सर्वथा एक मत देखा जा सकता है कि व्यक्ति को औसत नागरिक स्तर का निर्वाह क्रम अपनाने के लिए बाध्य किया जाय। अध्यात्म क्षेत्र में इसके लिए पुण्य परमार्थ का- त्याग वैराग्य का- स्वर्ग मुक्ति का दार्शनिक चक्रव्यूह रचा है। साम्यवाद ने झटके की नीति अपनाई है और आदमी की भलमनसाहत को अस्वीकार करते हुए गरदन दबोचकर जो पल्ले है उसे समाज की सम्पदा मानने के लिए बाधित किया। तरीके अपने-अपने हैं। नींद की गोली खाकर मरा जाय या तलवार से गरदन कटे, मात्र तरीकों में ही भिन्नता है। आदर्शवाद की किसी भी धारा को यह स्वीकार नहीं कि मनुष्य विलासी संग्रही, अपव्ययी बने, उद्धत विडम्बना रखे और मुफ्तखोरों के लिए उत्तराधिकार छोड़ मरे। हर दृष्टि से यह अनैतिक है।
कौशल, पराक्रम श्रम समय और वैभव यह सभी विभूतियां ईश्वर प्रदत्त हैं। इसी को समाज प्रदत्त भी कहा जा सकता है। अन्यथा एकाकी स्थिति में तो वन-मनुष्य जैसी आदिम स्थिति में भी रहा जा सकता है। जिसने दिया है उसे कृतज्ञता पूर्वक लौटा देने में ही भलमनसाहत है। इसे अपनाने में जो दुराचरण के प्रवाह प्रचलन को चीरकर अपनी शालीनता का परिचय दे पाता है वह सराहा जाता है। यह औचित्य का निर्वाह भर है। तो भी चोरों की नगरी में एक ईमानदार को भी देवता माना जाता है। आलसियों के गांव में एक पुरुषार्थी भी मुक्त कंठ से सराहा जाता है। औसत नागरिक जैसा निर्वाह ऐसा ही औचित्य है जिसे अपनाने के लिए नीतिमत्ता, विवेकशीलता और सद्भावना का प्रत्येक प्रतिपादन विवश करता है।
यहां चर्चा धन वैभव की ही नहीं हो रही है। उसमें कौशल और पराक्रम को भी सम्मिलित रखा जाता है। विद्या, बुद्धि, कला, कौशल, प्रतिभा, बलिष्ठता आदि की दृष्टि से कितनों को ही विशिष्टता प्राप्त है। समय प्रत्यक्ष धन है। पसीने से ही सम्पदा कमाई जाती है या कमाई जानी चाहिए। लॉटरी से लेकर जुए, सट्टे का- जमीन में गड़ा, उत्तराधिकारी से मिला या उजड्डपन से बटोरा वैभव औचित्य की मर्यादाओं से हटकर होने के कारण अग्राह्य एवं अवांछनीय है। वस्तुतः धन मनुष्य के श्रम, समय और कौशल का ही प्रतिफल होना चाहिए। इसलिए विभिन्न स्तर ही विशेषतायें विभूतियां भी वैभव में ही सम्मिलित होती हैं और वह अनुशासन उन पर भी लागू होता है। उसके अनुसार न्यूनतम अपने लिए और अधिकतम सत्प्रवृत्ति संवर्धन के निमित्त लगना चाहिए। मानवी गरिमा इससे कम में सधती ही नहीं। मनुष्य की मान मर्यादा इससे कम में बनती ही नहीं। इससे कम निर्धारण में वह सुयोग बनता ही नहीं।
जिस प्रकार सम्पन्नता उपार्जन के लिए अपना सब कुछ न सही बहुत कुछ नियोजित करना पड़ता है ठीक उसी प्रकार महानता अर्जित करने के लिए भी श्रम, समय एवं मनोयोग का बहुत बड़ा भाग नियोजित करना पड़ता है। यदि उन विभूतियों पर पहले से ही लोभ लिप्सा ने आधिपत्य जमा रखा हो तो फिर महानता अर्जित करने के लिए, खरीदने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता पड़ती है वे पास में हों ही नहीं। तब फिर मनोरथ कैसे पूरे हो सकेंगे। मात्र कामना कल्पना करने से, पूजा पाठ करने भर से कोई भी श्रेष्ठता का वरण नहीं कर सका है। ईश्वर भक्त भी महामानवों की पंक्ति में बैठ सकने में समर्थ नहीं हुए हैं। उत्कृष्टता तो मूल्य देकर खरीदी जा सकती है। इस खरीद के लिए जो चाहिए उसे सम्पन्नता की ललक पर अंकुश लगाकर ही बढ़ाया जा सकता है।
चुनाव दो में से एक का करना है। निकृष्ट विचार रखकर घिनौना जीवन जिया जाय—संकीर्ण स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में बुलबुलाते —तिलमिलाते कीड़ों जैसा शिश्नोदर परायण बना जाय, या फिर उत्कृष्ट स्तर की विचारणा अपनाकर सादगी का सौम्य सात्विक निस्पृह रहकर महानता को वरण किया जाय। दोनों में मौलिक अन्तर एक ही है। निकृष्टता आरम्भ में आकर्षक लगती है किन्तु परिणाम की दृष्टि से विघातक विष जैसी कष्टदायक सिद्ध होती है। इससे विपरीत उत्कृष्टता का मार्ग है जिसका आरम्भ बीज की तरह गलने जैसा होता है किन्तु कुछ समय उपरान्त अंकुरित होने, लहलहाने एवं फलने फलने के अवसर निश्चित रूप में उपलब्ध होने लगते हैं। अदूरदर्शी तात्कालिक आकर्षण के लिए आतुर होते हैं और आटे के लोभ में गला फंसाकर बेमौत मरने वाली मछली का उदाहरण बनते हैं। दूसरे वे हैं जो किसान माली, विद्यार्थी या व्यवसायी की तरह अपनी श्रम साधना सत्प्रयोजन के लिए लगाते और अन्ततः बहुमूल्य फसल से अपने कोठे भरते हैं।
सादा जीवन उच्च विचार का राजमार्ग हर किसी के लिए श्रेयस्कर है। उनमें आवश्यकताओं और सुविधाओं पर इतना अंकुश लगाना पड़ता है जिसमें शरीर को मात्र औसत नागरिक जितनी व्यवस्था जुट सके। वैयक्तिक आकांक्षाओं को इतना ही स्वल्प एवं सीमित रहना चाहिए ताकि संसार में जितने साधन हैं उन्हें मिल बांट कर खाया जा सके। हर किसी के हिस्से में गुजारे जितना आ सके। ऊंची दीवार उठाने के लिए कहीं न कहीं गड्ढा करना पड़ता है। अमीर बनने में विलास वैभव जुटाने में जिस सम्पदा की आवश्यकता पड़ती है, उसका संचय बिना दूसरों का रक्त पिये अपनी कोठी, तिजोरी की शोभा बढ़ाने के लिए जमा हो ही नहीं सकता।
जो अधिक उपार्जन करने योग्य है उनके ऊपर एक अतिरिक्त, उत्तर-दायित्व यह आता है कि सादगी से गुजारा करने के उपरान्त जो बचता है उसे सत्प्रयोजनों के लिये हाथों हाथ लौटा दें। वरिष्ठता के बदले श्रेय मिलने का सौभाग्य की पर्याप्त है। उपार्जन अभिवर्धन की, कौशल, व्यवस्था और सूझ-बूझ की विशेषता का प्रतिफल इतना ही हो सकता है कि उन्हें सराहा, सम्मानित किया और श्रेय दिया जाय। इसके बदले उन्हें अधिक सम्पदा सुविधाओं जैसे लाभों की न तो मांग ही करनी चाहिए और न वैसा कुछ उन पर लादकर गरिमा का अपहरण ही होना चाहिए।
घर के बड़े कमाऊ लोग मात्र अधिक श्रेय पाकर संतुष्ट हो जाते हैं। व्यक्तिगत उपभोग के लिए अधिक सम्पत्ति उड़ाते रहने की छूट नहीं मांगते। वे जानते हैं कि संयुक्त परिवार में सभी का समान हक है। कमाऊ हीरे मोतियों से लदे और बिन कमाऊ चिथड़े लपेटकर घूमें तो यह संयुक्त परिवार कहां रहा? यह समूचा समाज एक परिवार है। उसके वरिष्ठों को कनिष्ठों का अधिक ध्यान रखना चाहिए।
अभिभावक स्वयं दूध न पीकर भी बच्चों के लिए उसे किसी प्रकार जुटाते हैं। मरीज के लिए फलों का प्रबन्ध किया जाता है जबकि समर्थ दाल और नमक के सहारे भी रोटी गले उतारते रहते हैं। यदि समर्थ का विशेष अधिकार माना जाय तो फिर असमर्थों का ईश्वर ही रक्षक है। उस आपाधापी के रहते मनुष्य समाज की सभ्यता, संस्कृति नीति, उदारता जैसे आदर्शों की चर्चा करने का हक न रह जायेगा। जिसकी लाठी उसकी भैंस का जंगली कानून यदि मनुष्यों में भी चल पड़ा और सुयोग्यों ने अधिक सुविधा साधन हड़पना आरम्भ कर दिया तो समझना चाहिए कि मनुष्य न अपनी नैतिक वरिष्ठता गंवा दी और प्रेत पिशाच जैसी रीति-नीति अपना ली।
सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त मानवी नैतिकता की सही व्याख्या करता है। जिसके विचार ऊंचे हों वो भावना के क्षेत्र में उत्कृष्टता संजोये हो, उसे अपने ऊपर यह अनुबन्ध कठोरता पूर्वक लागू करना चाहिए कि जीवनचर्या सादगी एवं मितव्ययता से पूर्ण हो। मितव्ययता का अर्थ कृपणता बरतना और कुपात्रों के लिए सम्पदा जमा करते जाना नहीं वरन् यह है कि औसत नागरिक का स्तर शिरोधार्य करते हुए पूरी सामर्थ्य के साथ श्रम किया जाय और जो निर्वाह से अधिक हो उसे हाथों-हाथ सत्प्रयोजनों के लिए लगा दिया जाय।