Books - कर्मकाण्ड की प्रेरणाओं में छिपा अध्यात्म
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कर्मकाण्ड की प्रेरणाओं में छिपा अध्यात्म
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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! मैं आपको प्राण और शरीर का अंतर समझाने की कोशिश करता रहता हूँ और यह बताता हूँ कि शरीर का क्या मूल्य हो सकता है और प्राणों का क्या मूल्य हो सकता है? और दोनों की कीमत में कितना फर्क किया जा सकता है? हमारा शरीर काम का तो है, लेकिन अगर यह मर जाए इसमें से प्राण निकल जाए तब? क्या कीजिएगा इस शरीर को? तब इस शरीर की कितनी कीमत उठा पाइएगा? आप इस शरीर को बाजार में ले जाइए और कहिए कि यह आचार्य जी का मरा हुआ शरीर बिकाऊ है, खरीद लीजिए। कोई आदमी खरीदने के लिए तैयार नहीं होगा। अगर आप इसे किसी केमिकल परीक्षण वाले के सुपुर्द कर दें तो इसमें से तीन -चार रुपए कीमत ही वसूल की जा सकती है। शरीर में हड्डियाँ कितनी हैं? ये इतनी हैं कि इनके भस्मीभूत होने पर इससे दस फीट चौड़ी और सात फीट लंबी रिक्त दीवार को पोता जा सके। यह चूना कितने दाम का हो सकता है? यह पच्चीस पैसे का हो सकता है। हड्डियों में लोहा कितना है? इसमें से एक बड़ी कील बनाने लायक लोहा मिल सकता है। यह कितने पैसे का हो सकता है? दस गैसे का हो सकता है।
मात्र ढक्कन है काया
मित्रो! मैं इस शरीर की व्याख्या कर रहा हूँ। अच्छा साहब! इस शरीर के अंदर और क्या क्या है? इसके अंदर चरबी है। हमारे शरीर में चरबी या फैट की इतनी मात्रा है किं इससे साबुन के सात टिक्के बनाए जा सकते हैं। यह कितने पैसे का हो सकता है? कुछ रुपए का हो सकता है। इसके अंदर तीन बाल्टी पानी है। और क्या- क्या चीज इसके अंदर है? इसके अंदर और बहुत सी छोटी- मोटी चीजें हैं; जैसे- फास्फोरस। इसमें इतना फास्फोरस है कि उससे तीन डिब्बी दियासलाइयाँ बनाई जा सकती हैं। बस आप इसे ले जाइए और नीलाम कर दीजिए। आपको दस रुपए मिल जाएँगे। आप हमको ले जाइए और नीलाम कर दीजिए। दस हजार रुपए महीने में कहीं भी आप हमको बेच दीजिए। हम ऐसी चीजें लिखेंगे, जिससे कि वह आदमी, जो हमारे लिखे लेखों को छपेगा, वह मालामाल हो जाएगा और उसकी सात पीढ़ियाँ मालदार हो जाएँगी। यह हमारी अक्ल की कीमत है। इस शरीर की क्या कीमत हो सकती है- यह तो अध्यात्म का एक हिस्सा है, जिसे हम '' कलेवर '' कहते हैं। कलेवर कितनी कीमत का है? किसी कीमत का नहीं है। यह बेकार जैसा है, लिफाफा जैसा है। अँगूठी के लिए आप सुनार के पास जाइए। वह आपको अँगूठी के साथ एक डिब्बी देगा। साहब! यह डिब्बी कितने पैसे की है? दो रुपए की है। अँगूठी कितने रुपए की है? चार हजार रुपए की है। डिब्बी को देखकर आप यह ख्याल करते हैं कि यह मखमल की बनी हुई है, चमकदार है, चमचमाती बनी हुई है, पर यह तो दो रुपए की है।
कर्मकाण्ड कलेवर मात्र
मित्रो! यह आध्यात्मिकता का वह हिस्सा है, जिसको हम कर्मकाण्ड कहते हैं। यह दो कौडी का है, बिना पैसे का है। यह केवल दिखावा है और उसके अंदर कोई ज्ञान नहीं है। ज्ञान किसके अंदर है, इसी बात को आपको समझाने की मैं कोशिश कर रहा था। आध्यात्मिकता का जो प्राण है, वह चेतना से संबंध रखता है। उसका हमारे क्रिया- कलापों से कोई ताल्लुक नहीं है। हमारे क्रिया- कलाप, जो हाथ- पाँव से किए जा सकते हैं, जीभ की नोंक से किए जा सकते हैं, वस्तुओं की हेरा- फेरी से किए जा सकते हैं। मित्रो! ये सारे के सारे कलेवर हैं और ये सारे के सारे कर्मकाण्ड उस प्राण की रक्षा के लिए हैं, जैसे कि नारियल की गिरी की रखवाली के लिए ऊपर से खोपरा बना दिया जाता है। यह कर्मकाण्ड भी खोपरे के पैसे के बराबर का है। यह खोपरा हमारे किसी काम का नहीं है, केवल जलाने के काम आ सकता है। और गिरी? गिरी तो बेटे! कीमती हो सकती है, कई रुपए की हो सकती है। जायका किसमें है? गिरी में है। और खोपरे में? खोपरा चबाइए और दाँत तोडिए। खोपरे की कोई कीमत है? नहीं है। कर्मकाण्ड जिसके बारे में लोगों ने यह ख्याल बनाकर रखा है कि यह कर्मकाण्ड करने से उनको यह फायदा हो जाएगा और अमुक कर्मकाण्ड करने से उनको यह सिद्धि मिल जाएगी। यह कर्मकाण्ड करने से अमुक देवी प्रसन्न हो जाएगी और यह कर्मकाण्ड करने से अमुक देवता प्रसन्न हो जाएगा।
मर्मस्थल कहीं और है
मित्रो! यह नहीं हो सकता। अध्यात्म के सारे के सारे लाभ अगर कहीं हैं तो उस स्थान पर हैं, उस मर्मस्थल से जुड़े हैं, जहाँ आदमी का प्राण, जहाँ आदमी की चेतना और जहाँ आदमी की निष्ठाएँ और विश्वास काम करते हैं और जहाँ से आदमी का जीवन प्रभावित होता है। वास्तव में यह जीवन को प्रभावित करने के लिए आस्थाओं को प्रभावित करने के लिए विचारणाओ को प्रभावित करने के लिए क्रियाओं को प्रभावित करने के लिए अध्यात्म का प्राण विनिर्मित किया गया है, ताकि आदमी उसके प्रभाव में आकर श्रेष्ठ व्यक्ति बन सके आदर्श व्यक्ति बन सके, महान व्यक्ति बन सके, उज्जल व्यक्ति बन सके, महात्मा बन सके और परमात्मा बन सके। सारे के सारे कर्मकाण्ड को मैं अब खेल कह सकता हूँ। जिसे आप पूजा कहते हैं, पाठ कहते हैं, कथा कहते हैं और रामायण कहते हैं, इसको मैं खेल भी कह सकता हूँ। यह सारे के सारे खेल इसलिए खड़े किए गए हैं, ताकि आदमी का विश्वास, आदमी का चिंतन, आदमी के विचार और आस्थाएँ परिष्कृत होती चली जाएँ विकसित होती चली जाएँ। इनका उद्देश्य आप जानेंगे नहीं, इनके कारण को आप जानेंगे नहीं तो फिर आपको लाभ नहीं मिल सकेगा। आपकी जितनी मरजी हो, उतने कर्मकाण्ड करते रहिए परंतु आपको खाली हाथ रहना पडेगा। सिवाय शिकायत करने के और कोई चीज हाथ लगने वाली नहीं है।
जैसे कि कलम द्वारा इम्तिहान दिया जाना
मित्रो! हम आपको कर्मकाण्ड इसी मायने में समझा देते हैं और कर्मकाण्ड की व्याख्या तथा उसके प्राण की व्याख्या, जो सिद्धान्तवादिता से संबंध रखता है। उसको इसी रूप में कर रहे थे, जैसे कलम, कागज, पेन्सिल द्वारा सारे लेख लिखे जाते हैं। बी.ए पास करना, एम.ए पास करना, पी- एच.डी की थीसिस लिखना- इन दोनों में क्या संबंध है? बाहर से आप देखिए- कलम के द्वारा ही इम्तिहान दिए जाते हैं और कलम के द्वारा ही पी- एच.डी. के सब काम किए जाते हैं। कागज के द्वारा होते हैं क्या? अगर हम आपको बेहतरीन, अच्छा वाला टीटागढ़ का कागज लाकर दे दें और पार्कर का पेन दे दें तथा स्वॉन की स्याही लाकर दे दें, तो आपका यह ख्याल है कि आप एम.ए. पास कर सकते हैं? क्या आपका यह ख्याल है कि आप बी.ए. फर्स्ट डिवीजन ले आएँगे? अगर आपका यह ख्याल है, तो गलत है। अगर आप फाउंटेनपेन की महत्ता मानेंगे तो मैं कहूँगा कि आपकी बात गलत है, लेकिन जब कोई आदमी आपसे यह कहे कि फाउंटेनपेन बेकार होता है, कागज बेकार होता है, स्याही बेकार होती है, तब मैं उससे लड़ने के लिए तैयार हूँ। फिर मैं यह कहूँगा कि आपका ज्ञान कितना ही बड़ा क्यों न हो, आपका अध्ययन कितना ही बड़ा क्यों न हो, आपकी मानसिक स्थिति का विकास कितना ही बड़ा क्यों न हो, लेकिन जब आप इस्तिहान देने जाएँगे और आपके पास कागज नहीं होगा, कलम नहीं होगी, स्याही आपके पास नहीं होगी, तो आपके लिए पेपर का जवाब देना मुश्किल हो जाएगा। फिर आप पास नहीं हो सकते। नहीं साहब! हमको तो जबानी याद है, हम तो मास्टर साहब को वैसे ही बता देंगे, प्रिंसिपल साहब को सब किस्सा सुना देंगे और हम तो पास हो जाएँगे। नहीं बेटे! ऐसे पास नहीं हो सकते। इसके लिए कॉपी की जरूरत है और कलम की भी जरूरत है ।
अध्यात्म का मूल मर्म है यह
मित्रो! कॉपी- कागज और कलम की जितनी जरूरत है, उतनी ही जरूरत कर्मकाण्डों की है। कर्मकाण्ड वे, जिन्हें गायत्री उपासना के माध्यम से हम आपको इस शिविर में सिखाते हैं। मसलन जल- प्रक्षालन, आचमन आदि सारे क्रिया- कलाप। ये सारे के सारे क्रिया- कलाप विशुद्ध कर्मकाण्ड हैं। इन विशुद्ध कर्मकाण्डों के पीछे छिपे हुए प्राण को अगर आपको हम समझाएँ नहीं, उसके भीतर छिपे हुए संकेतों को समझाएँ नहीं, उसके भीतर जो जीवन भरा हुआ पड़ा है, उसको समझाएँ नहीं, तो मित्रो! हम आपके साथ विश्वासघात करने वाले हैं और अपनी आत्मा के साथ दगाबाजी करने वाले हैं। अगर हम आपको यही समझाते रहें कि यह कर्मकाण्ड अमुक फायदा करा देगा। देवी का पाठ करने से यह फायदा हो सकता है, चंडी का पाठ करने से यह फायदा हो सकता है और शिव जी का पाठ करने से यह फायदा हो सकता है और चौबीस हजार का जप करने से यह फायदा हो सकता है। अगर मैं आपको यही समझाता रहूँ और आपको यही कहता रहूँ कि आपको जीवन के शोधन करने की कोई जरूरत नहीं है। आप पापी जीवन जिएँ और पाजी जीवन जिएँ। आप निकृष्ट जीवन जिएँ और घटिया जीवन जिएँ। देवी जी की खुशामद कर लें, संतोषी माता जी की खुशामद कर लें, गणेश जी की खुशामद कर लें, हनुमान जी की खुशामद कर लें, बस, आपका काम सिद्ध हो जाएगा और आपका उल्लू सीधा हो जाएगा। अगर मैं ऐसे विश्वास जमाने वाला होऊँ तो मैं अध्यात्मवाद के साथ और जीवों की जीवात्मा के साथ और जिन्होंने यह सारा का सारा अध्यात्मवाद का कलेवर खड़ा किया है, उन सबके साथ विश्वासघात करने वाला होऊँ।
महत्त्व है प्रेरणाओं- शिक्षाओं का
मित्रो! मैं विश्वासघात करने वाला नहीं हो सकता। मैं आपको असलियत समझा करके ही रहूँगा। आप अध्यात्म को करना चाहें तो आपकी मरजी और न करना चाहें, तब भी आपकी मरजी। मैं कर्मकाण्डों का बादलों के तरीके से और हिमालय के तरीके से माहात्म्य नहीं बता सकता। मैं तो आपको यह बताऊँगा कि यदि सारे के सारे माहात्म्य अगर कहीं हैं तो वे उसकी उन धाराओं में, दिशाओं में हैं, प्रेरणाओं और शिक्षाओं में हैं, जो इन कर्मकाण्डों के माध्यम से हम आपको सिखाते हैं और समझाते हैं। अगर ये माध्यम नहीं होंगे, तो हम किस तरीके से आपको सिखा पाएँगे? ब्लैकबोर्ड हमारे पास नहीं होंगे, खड़िया हमारे पास नहीं होगी तो हम आपको गणित कैसे सिखा पाएँगे? जरा आप बताइए तो सही। नक्शा अगर हमारे पास नहीं है तो हम किस तरीके से आपको सड़क दिखा पाएँगे? अथवा आपको टाइम टेबिल कैसे बताएँगे कि कौन सी रेलगाड़ी कहाँ से कहाँ तक जाएगी? और आपको किस गाड़ी से या बस से जाना चाहिए। मैप -नक्शा हमारे पास है नहीं, टाइम टेबिल है नहीं, फिर इसके बिना हम कैसे समझा पाएँगे?
कष्टकारी गलतफहमियाँ
लेकिन अगर आपका दिमाग खराब हो और हम एक नक्शा आपके हवाले कर दें, एक टाइम टेबिल आपके हवाले कर दें और कहें कि यह सड़क जा रही है, आप इस पर चले जाइए। साहब! हम कैसे जा सकते हैं, हमारे पास तो पैसा भी नहीं है। हमारी टाँग भी काम नहीं करती, हमारी अक्ल भी काम नहीं करती तो इस मैप से हम क्या काम कर सकते हैं? आप हमारा बेकार में समय खराब करते हैं। ठीक है बेटे! जब अक्ल तुम्हारे पास नहीं है, पैसा तुम्हारे पास नहीं है, जाने की योग्यता तुम्हारे पास नहीं है तो फिर मैप की कोई जरूरत नहीं है। वह बेकार है। नक्शे से कोई फायदा नहीं है। नक्शे का फायदा तो तब है, जब आप में जाने की अक्ल हो, जाने का सामान हो। जाने की अक्ल नहीं है, जाने का सामान नहीं है और कहते हैं कि लीजिए साहब! हम नक्शा ले आए। किसका नक्शा ले आए? चारों धाम का ले आए। बद्री, केदार जाएँगे और देखिए यह रही गंगोत्री, यह रही यमुनोत्री। ठीक है बेटे! इसी कागज के आस- पास चक्कर लगा ले, तेरे चारों धाम हो जाएँगे। नहीं महाराज जी! ऐसे तो नहीं हो सकता। मेरी टाँग में जब ताकत होगी, तब जा सकता हूँ। बेटे! अभी तो ताकत है नहीं, इसलिए नहीं जा सकता।
मात्र कथा सुनने से कोई कल्याण नहीं
मित्रो! आध्यात्मिकता के बारे में एक गलतफहमी कितनी ज्यादा कष्टकारक, कितनी ज्यादा अज्ञान से भरी हुई, कितनी ज्यादा मूर्खतापूर्ण और कितनी ज्यादा अनैतिक है- ' इम्मोरल '' है, जिसमें हमें बता दिया गया कि यह कार्य करने से और यह कथा सुनने से यह फायदा हो सकता है। कथा सुनने मात्र से अगर कोई फायदे रहे होते तो रोज कथाएँ होती रहती हैं और इन्हें सुनने वालों का कोई न कोई फायदा, कोई न कोई उद्धार हो गया होता। इनसे कोई फायदा हो सकता है? कोई फायदा नहीं हो सकता, अगर आपने कान से कथा सुनी है और जीभ से कथा सुनाई गई है, लेकिन तब अगर आपने कथा सुनी और कथा सुनने के बाद में उसका प्राण, उसका जीवन और उसका रहस्य, उसका मर्म आपके जीवन में आ गया और आपने यह निश्चय कर लिया कि हम इस कथा की प्रेरणा के अनुसार, इस रामायण के अनुसार, इस भागवत् के अनुसार जीवन जिएँगे और अपने क्रिया- कलापों को विनिर्मित करेंगे तो मित्रो! मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ कि राजा परीक्षित के तरीके से आपको भागवत का फायदा मिल सकता है। लेकिन अगर आप परीक्षित के तरीके से जिंदगी नहीं जिएँगे तो मैं उस सिद्धांत का खंडन करने के लिए- तैयार हूँ? जिसमें बताया गया था किं जो धुंधकारी था, वह बाँस के कोए फाड़ता- फाड़ता सात दिन की भागवत सुनकर फट से उसमें से निकल गया था।
प्रच्छन्न नास्तिकता
मित्रो! मैं इस बात का खंडन करता हूँ और कहता हूँ कि यह बात गलत है, ऐसा नहीं हो सकता। कहानी सुनने के बाद कोई व्यक्ति अध्यात्म के लाभ को प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक कि वह उसको अपने जीवन में धारण न करे। उस रास्ते पर चलने के लिए तैयार न हो। इस रास्ते पर चलने के लिए हमको उपेक्षा की बात बताई गई है और यह बताया गया है कि रास्ता चलना कोई जरूरी नहीं है। सुन लेना काफी है, कर लेना काफी है। उसी से यह सब सत्यानाश हो गया और नास्तिकता का विस्तार हो गया। नास्तिकता का पक्ष तो मुझे बहुत बुरा नहीं लगता। इसको हम '' कम्मुनिज्म '' कहते हैं। उसके पीछे कुछ थोड़े से फैक्ट्स हैं, कुछ थोड़ी सी सचाई है और मित्रो! कोई दिन आएगा, जब आप देखेंगे कि हम आध्यात्मिकता की दीक्षा में कम्युनिस्टों को सबसे पहले लेंगे, क्योंकि वे विचारशील हैं। वे कहते हैं कि भगवान नहीं होता है। भगवान को हमने नहीं देखा है इसलिए हम नहीं मानते हैं। हाँ साहब! ठीक बात है। आपने नहीं देखा है तो क्यों मानेंगे? लेकिन जिस दिन हम उनको भगवान को दिखा देंगे और भगवान को अक्ल से, साबित कर देंगे, क्योंकि वे सचाई की वजह से प्रत्यक्षवाद की वजह से इनकार करते हैं, इसलिए हम प्रत्यक्षवाद के सिद्धांतों के आधार पर, विज्ञान के आधार पर और दूसरे आधारों पर जिस दिन हम साबित कर देंगे, हमारा विश्वास है कि तब सारी दुनिया के कम्यूनिस्ट हमारे शिष्य हो जाएँगे, लेकिन आप कभी नहीं हो सकते, क्योंकि आपने आध्यात्मिकता के आधारभूत सिद्धांतों को काटकर फेंक दिया है और सत्यानाश करके फेंक दिया है। इसलिए आप पक्के नास्तिक हैं और सारी जिंदगी भर पक्के नास्तिक रहेंगे। भगवान के द्रोहियों को जैसा होना चाहिए उसी तरह का आचरण आप करते रहेंगे।
कर्मों की अवमानना स्वयं से धोखा
मित्रो! आस्तिकता का मूलभूत सिद्धांत है- कर्मफल। आदमी को श्रेष्ठ कर्म करना चाहिए और बुरे कमी से अपना बचाव करना चाहिए। आध्यात्मिकता का मूलभूत सिद्धांत यह है कि आदमी अनैतिक आचरण से बचे और श्रेष्ठ आचरण की ओर चले। मनुष्य अवांछनीयताओं से दूर हो और वांछनीयता की ओर चले। लेकिन हाय रे भगवान! यह क्या हो गया? हमारा अध्यात्म नास्तिकवादी हो गया, जिस पर हम और आप विश्वास करने लगे। यह नास्तिकवादी अध्यात्म है, जिसने मूलभूत सिद्धांतों को काटकर फेंक दिया, मटियामेट कर दिया और ठीक उलटा प्रचार करना शुरू कर दिया। हमारे अध्यात्म ने हमको एक गंदी बात सिखा दी कि आप गंदे काम कीजिए। गंदे काम करने की आपको पूरी तरह से छूट है। आप गंगा जी में स्नान कीजिए। गंगा जी स्थान करने के बाद आपके सारे के सारे पापों का कर्मफल समाप्त हो सकता है। मैं आपसे यह पूछता हूँ कि लोगों को चकमा देने का अभ्यास तो हमको पहले से ही था। हम समाज को चकमा दे सकते थे। हम अनैतिक होते हुए भी कोई ऐसा ढोंग बना सकते थे, जिससे लोगों को यह मालूम पड़े कि यह तो संत हैं, महात्मा हैं। यह तो चारों धाम की यात्रा करते हैं। यह तो तिलक लगाते हैं और भजन करते हैं। समाज को चकमा देने का हमें पूरा पूरा अभ्यास था कि लोग हमको धर्मात्मा भी समझते रहें और हम बुरे कर्म भी करते रहें।
सस्ते शॉर्टकट
मित्रो! सरकार को चकमा देने का हमको पूरा पूरा अभ्यास है । रिश्वत देकर के दूसरे तरीके अख्तियार करके और दो बही खाते रख करके हम सरकार को बहुत दिनों से चकमा देने के अभ्यस्त हैं। हम कानून को पहले से ही चकमा देते आ रहे हैं। बस, एक ही आधार रह गया था- परलोक का और पुनर्जन्म का, सो इस गंदे अध्यात्म ने उसे पूरा कर दिया। चलिए, मैं इस अध्यात्म पर लांछन लगाता हूँ कि यह भ्रष्ट और दुष्ट है। यह किस तरीके से भ्रष्ट है? यह इस तरीके से भ्रष्ट है कि इसने यह समर्थन किया है कि आपको अनैतिक काम करने का कोई दंड नहीं मिल सकता है और न कोई सजा मिल सकती है। आपके अनैतिक कामों को दंड से बचाने के लिए हमारे पास बड़े सस्ते, बड़े सरल, बड़े चीप तरीके मौजूद हैं, जिसमें आपको एक पैसा भी खरच नहीं करना पड़ेगा और आपके सारे पाप भी ठीक हो जाएँगे। कौन सा है डैम चीप तरीका? गंगा जी में नहाइये और पाप बहाइए पाप- दंड बहाइए। चाहे जितना पाप कीजिए। हर साल सौ मन पाप कीजिए, एक बार गंगा में डुबकी लगाइए और सारे पापों से छुटकारा पाइए।
हमने सब कुछ बहुत सस्ता बना दिया
मित्रो! इसका क्या मतलब है? इसका मतलब प्रत्यक्ष है कि आपको पाप करने की पूरी तरीके से छूट है और आपको भगवान के दंड से डरने की जरूरत नहीं है। भगवान को आप झुठला सकते हैं। भगवान को आप बहका सकते हैं। भगवान को आप सुला सकते हैँ। भगवान को चकमा देने के लिए हमने आपको नए तरीके सिखा दिए हैं। सरकार को चकमा देने के लिए तो आपको इंस्पेक्टर को रिश्वत देनी पड़ती थी और समाज को चकमा देने के लिए आपको बहुत सारा ढोंग भी बनाना पड़ता था। भगवान जी को चकमा देना तो सबसे सरल है। इसमें गंगा जी के पानी में एक डुबकी लगाइए बस हो गया उद्धार। बेटे! यह क्या हो गया? यह कौन सा तरीका आ गया? मित्रो! ये ऐसे गंदे तरीके हैं, जिनने अध्यात्म के मूल उद्देश्य का सफाया कर दिया। यह ऐसा गंदा तरीका है, जिसने अध्यात्म को भ्रष्ट कर दिया। हमको अध्यात्म इसलिए सिखाया गया था कि आदमी श्रेष्ठ जीवन जिए। सामाजिक जीवन जिए, चरित्रनिष्ठ जीवन जिए, आदर्श जीवन जिए। इसका एक ही कारण था। सारे के सारे धर्मशास्त्र इसीलिए बनाए गए थे, पूजा पाठ इसीलिए बनाए गए थे, जप- तप इसीलिए बनाए गए थे, सारी की सारी चीजें इसीलिए बनाई गई थीं, लेकिन हमने सब साफ कर दिया। डैम चीप कर दिया। किसको कर दिया? स्वर्ग को कर दिया, भगवान की प्रसन्नता को कर दिया। भगवान की प्रसन्नता, परलोक और स्वर्ग हमारे लिए डैम चीप हैं। अब आपको श्रेष्ठ काम करने की कोई जरूरत नहीं है। लोकमंगल के लिए त्याग- बलिदान की परंपरा अपनाने की आपको कोई जरूरत नहीं है। आप घटिया और सस्ता उपाय इस्तेमाल कीजिए।
सत्यनारायण भगवान की कथा
कौन सा सस्ता उपाय करें? बस, सत्यनारायण की कथा कहलवा लीजिए और पंडित जी को सवा रुपया दे दीजिए। इहलोके सुखं भुक्तवा, चान्ते सत्यपुरोमये। एक राजा था, जो चोर था। सत्यनारायण स्वामी की कथा कहलवाने के पश्चात इस लोक में सारे के सारे सुखों को प्राप्त करता हुआ और अंत में सत्यनारायण स्वामी महाराज के ब्रह्मलोक में चला गया। बोलो सत्यनारायण स्वामी की जय! अरे दुष्टो! यह क्या कर रहे हो? अरे अभागो! यह क्या कर रहे हो? आध्यात्मिकता के सिद्धांतों का सत्यानाश कर रहे हो। कर्मकाण्ड कराने के पश्चात सवा रुपया देकर के, देवी- देवताओं के पत्थर के खिलौनों को देखने के पश्चात आपने ये ख्वाब बना रखे हैं कि हमको वो सद्गति मिलने वाली है, भगवान का प्यार मिलने वाला है। हमारा कल्याण होने वाला है। इसके लिए हमको आदर्श जीवन जीने की कोई जरूरत नहीं है। छोटा मोटा कर्मकाण्ड कर लीजिए। कहीं जा करके पत्थर के खिलौने को कुछ दे करके आ जाइए।
इतनी सस्ती मुक्ति
मसलन आप बद्रीनाथ चले जाओ। अमुक अमुक जगह चले जाइए। चारों धाम की यात्रा का टिकट खरीद लीजिए। एक टिकट कितने रुपए का आया है? साहब! तीन सौ इक्यावन रुपए का है। अच्छा साहब! चारों धाम की यात्रा करने के बाद में अब क्या हो सकता है? बैकुंठ जाना पड़ेगा। अच्छा! और? स्वर्गलोक जाना पड़ेगा। अच्छा! और? मुक्ति मिलेगी और स्वर्ग मिलेगा और शांति मिलेगी। तीन सौ इक्यावन रुपए में सबके सब मिल जाएँगे। आप इससे सब चीजें खरीद सकते हैं और चारों धाम की यात्रा, सैर- सपाटा भी कर सकते हैं। मौज- मस्ती भी कर सकते हैं। सिनेमा भी देख सकते हैं, जगह- जगह की इमारतें भी देख सकते हैं और फोकट में बैकुंठ भी खरीद सकते हैं।
पर्यटन बनाम तीर्थयात्रा
क्या यह संभव है? संभव है। मित्रो! इस प्रसंग पर मुझे एक कहानी याद आ जाती है- एक थे सेठ जी। पंडित जी ने उन्हें यह समझा दिया कि तुम चारों धाम की यात्रा कर लो, भगवान तुम्हारे वश में हो जाएँगे। वे वहीं स्वर्गलोक में तो रहते हैं। भगवान भी तुम्हारी खुशामद करेंगे, ब्रह्मा जी भी करेंगे, विष्णु जी भी करेंगे और शंकर जी भी करेंगे। परलोक में जाएँगे तो सब खुशामद करेंगे और सब नौकर हो जाएँगे। अत: आप चारों धाम की यात्रा कर लीजिए। सेठ जी रजामंद हो गए। इतने कम दाम का इतना सस्ता सौदा भला क्या हो सकता है! इसमें न त्याग करना पड़ा, न संयम करना पड़ा, न जीवन में कुछ हेर फेर करना पड़ा । तीन सौ इक्यावन रुपए में सारे देवी देवता गुलाम हो गए। बैकुंठ भी गुलाम हो गया। ब्रह्मा जी भी गुलाम हो गए ओर स्वर्गलोक की सीट भी रिजर्व हो गई।
अच्छा तो हम चारों धाम की यात्रा के लिए चलेंगे। सेठानी थोड़ी समझदार थी। उसने कहा कि स्वामी! हम चलेंगे तो सैर करने के हिसाब से चलेंगे। हमें सैर करना है और तमाशा देखना है। इस ख्याल से आप क्यों जाते हैं कि इससे हमको बैकुंठ मिलने वाला है। भगवान मिलने वाला है। हम भी चलेंगे और आप भी चलेंगे। जहाँ जहाँ सैर करने के ज्यादा अच्छे मौके हैं, वहाँ चलेंगे। धर्मशालाओं में ठहरेंगे, होटलों में ठहरेंगे। सिनेमा देखेंगे, मौज करेंगे। इसमें भगवान जी को क्यों शामिल करते हैं। घूमना अच्छी बात है, पर्यटन करना अच्छी बात है, पर पर्यटन करने और घूमने से भगवान का और मुक्ति का क्या ताल्लुक हो सकता है? आप यह विचार दिमाग से निकाल दीजिए। नहीं साहब! हम तो बैकुंठ देखने जाएँगे और चारों धाम की यात्रा करने के लिए जाएँगे। तब सेठानी ने एक काम किया। वह बोली कि तब तो हम भी चलेंगे। अच्छा साहब! चलिए आप भी चलिए।
सेठानी ने दिलाया आत्मबोध
सेठ और सेठानी, दोनों चारों धाम की यात्रा के लिए रवाना हो गए। रवाना होने से पहले सेठानी ने एक रूमाल निकाला और उसमें सँभालकर एक बैंगन रख लिया। बैगन बड़ा था, उसे रूमाल में बाँध लिया और जहाँ- जहाँ भी स्नान किया, उन नदियों में उस बैंगन को भी नहलाया। सेठ जी ने पूछा कि यह क्या कर रही हो? अरे साहब! इससे आपको क्या मतलब है? हम इसको बैकुंठ ले जाने वाले हैं और इसे मुक्ति दिलाने वाले हैं। हम बैंगन को नहलाएँगे। बद्रीनाथ जी का मंदिर आ गया। बैंगन को रूमाल से खोलकर सबसे पहले भगवान जी के दर्शन कराए पीछे अपनी आत्मा को दर्शन कराए। बेचारी बैंगन को रूमाल में बाँधकर लाई और सब जगह नदी -नालों में नहलाया। तीर्थयात्रा करके जब वह घर आ गई, तो उसने सेठ जी से कहा कि हम आपको एक चीज खिलाएँगे। क्या खिलाओगी? साक्षात अमृत खिलाएँगे। देवता लोग क्या खाते हैं? अमृत खाते हैं। स्वर्गलोक में क्या रहता है? अमृत रहता है। हम आपको अमृतपान कराएँगे, जो आपने कभी नहीं किया है। अच्छा, कराइए। बस, चारों धाम यात्रा के दौरान जो अमृत मिला है, उसे आपको खाना चाहिए। हाँ साहब! खिलाइए। बैंगन जो था वह तीन महीने की यात्रा के पश्चात बिलकुल सड़ गया था। सेठानी ने उसे पकाया और पकने के बाद में सेठ जी की कटोरी में रखा।
बस, यही अमृत है, आप खाइए। सड़ा हुआ, बुसा हुआ और बदबूदार बैंगन सेठ जी की नाक के पास जैसे ही गया, तो बहुत बुरी गंध आई और मुँह में गया तो कडुआ लगा और उलटी हो गई। अरे अभागिन! यह क्या खिला रही है- जहर? नहीं, जहर नहीं खिला रही थी, मैं तो चारों धाम की यात्रा का फल खिला रही थी। चारों धाम की यात्रा का फल सुना रही थी। उसने कहा कि अगर चारों धाम की यात्रा करने के बाद बैंगन का जायका इतना बदल गया और यह बैंगन पहले की अपेक्षा और अधिक सड़ गया तो आपको यह कैसे विश्वास हो गया कि जगह- जगह के खिलौने देखने के पश्चात और तमाशा देखने के पश्चात और पर्यटन करने के पश्चात हमारा कोई आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा हो सकता है? बेटे! कोई आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।
आज की बात समाप्त।
।। ऊँ शान्ति:।।
ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! मैं आपको प्राण और शरीर का अंतर समझाने की कोशिश करता रहता हूँ और यह बताता हूँ कि शरीर का क्या मूल्य हो सकता है और प्राणों का क्या मूल्य हो सकता है? और दोनों की कीमत में कितना फर्क किया जा सकता है? हमारा शरीर काम का तो है, लेकिन अगर यह मर जाए इसमें से प्राण निकल जाए तब? क्या कीजिएगा इस शरीर को? तब इस शरीर की कितनी कीमत उठा पाइएगा? आप इस शरीर को बाजार में ले जाइए और कहिए कि यह आचार्य जी का मरा हुआ शरीर बिकाऊ है, खरीद लीजिए। कोई आदमी खरीदने के लिए तैयार नहीं होगा। अगर आप इसे किसी केमिकल परीक्षण वाले के सुपुर्द कर दें तो इसमें से तीन -चार रुपए कीमत ही वसूल की जा सकती है। शरीर में हड्डियाँ कितनी हैं? ये इतनी हैं कि इनके भस्मीभूत होने पर इससे दस फीट चौड़ी और सात फीट लंबी रिक्त दीवार को पोता जा सके। यह चूना कितने दाम का हो सकता है? यह पच्चीस पैसे का हो सकता है। हड्डियों में लोहा कितना है? इसमें से एक बड़ी कील बनाने लायक लोहा मिल सकता है। यह कितने पैसे का हो सकता है? दस गैसे का हो सकता है।
मात्र ढक्कन है काया
मित्रो! मैं इस शरीर की व्याख्या कर रहा हूँ। अच्छा साहब! इस शरीर के अंदर और क्या क्या है? इसके अंदर चरबी है। हमारे शरीर में चरबी या फैट की इतनी मात्रा है किं इससे साबुन के सात टिक्के बनाए जा सकते हैं। यह कितने पैसे का हो सकता है? कुछ रुपए का हो सकता है। इसके अंदर तीन बाल्टी पानी है। और क्या- क्या चीज इसके अंदर है? इसके अंदर और बहुत सी छोटी- मोटी चीजें हैं; जैसे- फास्फोरस। इसमें इतना फास्फोरस है कि उससे तीन डिब्बी दियासलाइयाँ बनाई जा सकती हैं। बस आप इसे ले जाइए और नीलाम कर दीजिए। आपको दस रुपए मिल जाएँगे। आप हमको ले जाइए और नीलाम कर दीजिए। दस हजार रुपए महीने में कहीं भी आप हमको बेच दीजिए। हम ऐसी चीजें लिखेंगे, जिससे कि वह आदमी, जो हमारे लिखे लेखों को छपेगा, वह मालामाल हो जाएगा और उसकी सात पीढ़ियाँ मालदार हो जाएँगी। यह हमारी अक्ल की कीमत है। इस शरीर की क्या कीमत हो सकती है- यह तो अध्यात्म का एक हिस्सा है, जिसे हम '' कलेवर '' कहते हैं। कलेवर कितनी कीमत का है? किसी कीमत का नहीं है। यह बेकार जैसा है, लिफाफा जैसा है। अँगूठी के लिए आप सुनार के पास जाइए। वह आपको अँगूठी के साथ एक डिब्बी देगा। साहब! यह डिब्बी कितने पैसे की है? दो रुपए की है। अँगूठी कितने रुपए की है? चार हजार रुपए की है। डिब्बी को देखकर आप यह ख्याल करते हैं कि यह मखमल की बनी हुई है, चमकदार है, चमचमाती बनी हुई है, पर यह तो दो रुपए की है।
कर्मकाण्ड कलेवर मात्र
मित्रो! यह आध्यात्मिकता का वह हिस्सा है, जिसको हम कर्मकाण्ड कहते हैं। यह दो कौडी का है, बिना पैसे का है। यह केवल दिखावा है और उसके अंदर कोई ज्ञान नहीं है। ज्ञान किसके अंदर है, इसी बात को आपको समझाने की मैं कोशिश कर रहा था। आध्यात्मिकता का जो प्राण है, वह चेतना से संबंध रखता है। उसका हमारे क्रिया- कलापों से कोई ताल्लुक नहीं है। हमारे क्रिया- कलाप, जो हाथ- पाँव से किए जा सकते हैं, जीभ की नोंक से किए जा सकते हैं, वस्तुओं की हेरा- फेरी से किए जा सकते हैं। मित्रो! ये सारे के सारे कलेवर हैं और ये सारे के सारे कर्मकाण्ड उस प्राण की रक्षा के लिए हैं, जैसे कि नारियल की गिरी की रखवाली के लिए ऊपर से खोपरा बना दिया जाता है। यह कर्मकाण्ड भी खोपरे के पैसे के बराबर का है। यह खोपरा हमारे किसी काम का नहीं है, केवल जलाने के काम आ सकता है। और गिरी? गिरी तो बेटे! कीमती हो सकती है, कई रुपए की हो सकती है। जायका किसमें है? गिरी में है। और खोपरे में? खोपरा चबाइए और दाँत तोडिए। खोपरे की कोई कीमत है? नहीं है। कर्मकाण्ड जिसके बारे में लोगों ने यह ख्याल बनाकर रखा है कि यह कर्मकाण्ड करने से उनको यह फायदा हो जाएगा और अमुक कर्मकाण्ड करने से उनको यह सिद्धि मिल जाएगी। यह कर्मकाण्ड करने से अमुक देवी प्रसन्न हो जाएगी और यह कर्मकाण्ड करने से अमुक देवता प्रसन्न हो जाएगा।
मर्मस्थल कहीं और है
मित्रो! यह नहीं हो सकता। अध्यात्म के सारे के सारे लाभ अगर कहीं हैं तो उस स्थान पर हैं, उस मर्मस्थल से जुड़े हैं, जहाँ आदमी का प्राण, जहाँ आदमी की चेतना और जहाँ आदमी की निष्ठाएँ और विश्वास काम करते हैं और जहाँ से आदमी का जीवन प्रभावित होता है। वास्तव में यह जीवन को प्रभावित करने के लिए आस्थाओं को प्रभावित करने के लिए विचारणाओ को प्रभावित करने के लिए क्रियाओं को प्रभावित करने के लिए अध्यात्म का प्राण विनिर्मित किया गया है, ताकि आदमी उसके प्रभाव में आकर श्रेष्ठ व्यक्ति बन सके आदर्श व्यक्ति बन सके, महान व्यक्ति बन सके, उज्जल व्यक्ति बन सके, महात्मा बन सके और परमात्मा बन सके। सारे के सारे कर्मकाण्ड को मैं अब खेल कह सकता हूँ। जिसे आप पूजा कहते हैं, पाठ कहते हैं, कथा कहते हैं और रामायण कहते हैं, इसको मैं खेल भी कह सकता हूँ। यह सारे के सारे खेल इसलिए खड़े किए गए हैं, ताकि आदमी का विश्वास, आदमी का चिंतन, आदमी के विचार और आस्थाएँ परिष्कृत होती चली जाएँ विकसित होती चली जाएँ। इनका उद्देश्य आप जानेंगे नहीं, इनके कारण को आप जानेंगे नहीं तो फिर आपको लाभ नहीं मिल सकेगा। आपकी जितनी मरजी हो, उतने कर्मकाण्ड करते रहिए परंतु आपको खाली हाथ रहना पडेगा। सिवाय शिकायत करने के और कोई चीज हाथ लगने वाली नहीं है।
जैसे कि कलम द्वारा इम्तिहान दिया जाना
मित्रो! हम आपको कर्मकाण्ड इसी मायने में समझा देते हैं और कर्मकाण्ड की व्याख्या तथा उसके प्राण की व्याख्या, जो सिद्धान्तवादिता से संबंध रखता है। उसको इसी रूप में कर रहे थे, जैसे कलम, कागज, पेन्सिल द्वारा सारे लेख लिखे जाते हैं। बी.ए पास करना, एम.ए पास करना, पी- एच.डी की थीसिस लिखना- इन दोनों में क्या संबंध है? बाहर से आप देखिए- कलम के द्वारा ही इम्तिहान दिए जाते हैं और कलम के द्वारा ही पी- एच.डी. के सब काम किए जाते हैं। कागज के द्वारा होते हैं क्या? अगर हम आपको बेहतरीन, अच्छा वाला टीटागढ़ का कागज लाकर दे दें और पार्कर का पेन दे दें तथा स्वॉन की स्याही लाकर दे दें, तो आपका यह ख्याल है कि आप एम.ए. पास कर सकते हैं? क्या आपका यह ख्याल है कि आप बी.ए. फर्स्ट डिवीजन ले आएँगे? अगर आपका यह ख्याल है, तो गलत है। अगर आप फाउंटेनपेन की महत्ता मानेंगे तो मैं कहूँगा कि आपकी बात गलत है, लेकिन जब कोई आदमी आपसे यह कहे कि फाउंटेनपेन बेकार होता है, कागज बेकार होता है, स्याही बेकार होती है, तब मैं उससे लड़ने के लिए तैयार हूँ। फिर मैं यह कहूँगा कि आपका ज्ञान कितना ही बड़ा क्यों न हो, आपका अध्ययन कितना ही बड़ा क्यों न हो, आपकी मानसिक स्थिति का विकास कितना ही बड़ा क्यों न हो, लेकिन जब आप इस्तिहान देने जाएँगे और आपके पास कागज नहीं होगा, कलम नहीं होगी, स्याही आपके पास नहीं होगी, तो आपके लिए पेपर का जवाब देना मुश्किल हो जाएगा। फिर आप पास नहीं हो सकते। नहीं साहब! हमको तो जबानी याद है, हम तो मास्टर साहब को वैसे ही बता देंगे, प्रिंसिपल साहब को सब किस्सा सुना देंगे और हम तो पास हो जाएँगे। नहीं बेटे! ऐसे पास नहीं हो सकते। इसके लिए कॉपी की जरूरत है और कलम की भी जरूरत है ।
अध्यात्म का मूल मर्म है यह
मित्रो! कॉपी- कागज और कलम की जितनी जरूरत है, उतनी ही जरूरत कर्मकाण्डों की है। कर्मकाण्ड वे, जिन्हें गायत्री उपासना के माध्यम से हम आपको इस शिविर में सिखाते हैं। मसलन जल- प्रक्षालन, आचमन आदि सारे क्रिया- कलाप। ये सारे के सारे क्रिया- कलाप विशुद्ध कर्मकाण्ड हैं। इन विशुद्ध कर्मकाण्डों के पीछे छिपे हुए प्राण को अगर आपको हम समझाएँ नहीं, उसके भीतर छिपे हुए संकेतों को समझाएँ नहीं, उसके भीतर जो जीवन भरा हुआ पड़ा है, उसको समझाएँ नहीं, तो मित्रो! हम आपके साथ विश्वासघात करने वाले हैं और अपनी आत्मा के साथ दगाबाजी करने वाले हैं। अगर हम आपको यही समझाते रहें कि यह कर्मकाण्ड अमुक फायदा करा देगा। देवी का पाठ करने से यह फायदा हो सकता है, चंडी का पाठ करने से यह फायदा हो सकता है और शिव जी का पाठ करने से यह फायदा हो सकता है और चौबीस हजार का जप करने से यह फायदा हो सकता है। अगर मैं आपको यही समझाता रहूँ और आपको यही कहता रहूँ कि आपको जीवन के शोधन करने की कोई जरूरत नहीं है। आप पापी जीवन जिएँ और पाजी जीवन जिएँ। आप निकृष्ट जीवन जिएँ और घटिया जीवन जिएँ। देवी जी की खुशामद कर लें, संतोषी माता जी की खुशामद कर लें, गणेश जी की खुशामद कर लें, हनुमान जी की खुशामद कर लें, बस, आपका काम सिद्ध हो जाएगा और आपका उल्लू सीधा हो जाएगा। अगर मैं ऐसे विश्वास जमाने वाला होऊँ तो मैं अध्यात्मवाद के साथ और जीवों की जीवात्मा के साथ और जिन्होंने यह सारा का सारा अध्यात्मवाद का कलेवर खड़ा किया है, उन सबके साथ विश्वासघात करने वाला होऊँ।
महत्त्व है प्रेरणाओं- शिक्षाओं का
मित्रो! मैं विश्वासघात करने वाला नहीं हो सकता। मैं आपको असलियत समझा करके ही रहूँगा। आप अध्यात्म को करना चाहें तो आपकी मरजी और न करना चाहें, तब भी आपकी मरजी। मैं कर्मकाण्डों का बादलों के तरीके से और हिमालय के तरीके से माहात्म्य नहीं बता सकता। मैं तो आपको यह बताऊँगा कि यदि सारे के सारे माहात्म्य अगर कहीं हैं तो वे उसकी उन धाराओं में, दिशाओं में हैं, प्रेरणाओं और शिक्षाओं में हैं, जो इन कर्मकाण्डों के माध्यम से हम आपको सिखाते हैं और समझाते हैं। अगर ये माध्यम नहीं होंगे, तो हम किस तरीके से आपको सिखा पाएँगे? ब्लैकबोर्ड हमारे पास नहीं होंगे, खड़िया हमारे पास नहीं होगी तो हम आपको गणित कैसे सिखा पाएँगे? जरा आप बताइए तो सही। नक्शा अगर हमारे पास नहीं है तो हम किस तरीके से आपको सड़क दिखा पाएँगे? अथवा आपको टाइम टेबिल कैसे बताएँगे कि कौन सी रेलगाड़ी कहाँ से कहाँ तक जाएगी? और आपको किस गाड़ी से या बस से जाना चाहिए। मैप -नक्शा हमारे पास है नहीं, टाइम टेबिल है नहीं, फिर इसके बिना हम कैसे समझा पाएँगे?
कष्टकारी गलतफहमियाँ
लेकिन अगर आपका दिमाग खराब हो और हम एक नक्शा आपके हवाले कर दें, एक टाइम टेबिल आपके हवाले कर दें और कहें कि यह सड़क जा रही है, आप इस पर चले जाइए। साहब! हम कैसे जा सकते हैं, हमारे पास तो पैसा भी नहीं है। हमारी टाँग भी काम नहीं करती, हमारी अक्ल भी काम नहीं करती तो इस मैप से हम क्या काम कर सकते हैं? आप हमारा बेकार में समय खराब करते हैं। ठीक है बेटे! जब अक्ल तुम्हारे पास नहीं है, पैसा तुम्हारे पास नहीं है, जाने की योग्यता तुम्हारे पास नहीं है तो फिर मैप की कोई जरूरत नहीं है। वह बेकार है। नक्शे से कोई फायदा नहीं है। नक्शे का फायदा तो तब है, जब आप में जाने की अक्ल हो, जाने का सामान हो। जाने की अक्ल नहीं है, जाने का सामान नहीं है और कहते हैं कि लीजिए साहब! हम नक्शा ले आए। किसका नक्शा ले आए? चारों धाम का ले आए। बद्री, केदार जाएँगे और देखिए यह रही गंगोत्री, यह रही यमुनोत्री। ठीक है बेटे! इसी कागज के आस- पास चक्कर लगा ले, तेरे चारों धाम हो जाएँगे। नहीं महाराज जी! ऐसे तो नहीं हो सकता। मेरी टाँग में जब ताकत होगी, तब जा सकता हूँ। बेटे! अभी तो ताकत है नहीं, इसलिए नहीं जा सकता।
मात्र कथा सुनने से कोई कल्याण नहीं
मित्रो! आध्यात्मिकता के बारे में एक गलतफहमी कितनी ज्यादा कष्टकारक, कितनी ज्यादा अज्ञान से भरी हुई, कितनी ज्यादा मूर्खतापूर्ण और कितनी ज्यादा अनैतिक है- ' इम्मोरल '' है, जिसमें हमें बता दिया गया कि यह कार्य करने से और यह कथा सुनने से यह फायदा हो सकता है। कथा सुनने मात्र से अगर कोई फायदे रहे होते तो रोज कथाएँ होती रहती हैं और इन्हें सुनने वालों का कोई न कोई फायदा, कोई न कोई उद्धार हो गया होता। इनसे कोई फायदा हो सकता है? कोई फायदा नहीं हो सकता, अगर आपने कान से कथा सुनी है और जीभ से कथा सुनाई गई है, लेकिन तब अगर आपने कथा सुनी और कथा सुनने के बाद में उसका प्राण, उसका जीवन और उसका रहस्य, उसका मर्म आपके जीवन में आ गया और आपने यह निश्चय कर लिया कि हम इस कथा की प्रेरणा के अनुसार, इस रामायण के अनुसार, इस भागवत् के अनुसार जीवन जिएँगे और अपने क्रिया- कलापों को विनिर्मित करेंगे तो मित्रो! मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ कि राजा परीक्षित के तरीके से आपको भागवत का फायदा मिल सकता है। लेकिन अगर आप परीक्षित के तरीके से जिंदगी नहीं जिएँगे तो मैं उस सिद्धांत का खंडन करने के लिए- तैयार हूँ? जिसमें बताया गया था किं जो धुंधकारी था, वह बाँस के कोए फाड़ता- फाड़ता सात दिन की भागवत सुनकर फट से उसमें से निकल गया था।
प्रच्छन्न नास्तिकता
मित्रो! मैं इस बात का खंडन करता हूँ और कहता हूँ कि यह बात गलत है, ऐसा नहीं हो सकता। कहानी सुनने के बाद कोई व्यक्ति अध्यात्म के लाभ को प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक कि वह उसको अपने जीवन में धारण न करे। उस रास्ते पर चलने के लिए तैयार न हो। इस रास्ते पर चलने के लिए हमको उपेक्षा की बात बताई गई है और यह बताया गया है कि रास्ता चलना कोई जरूरी नहीं है। सुन लेना काफी है, कर लेना काफी है। उसी से यह सब सत्यानाश हो गया और नास्तिकता का विस्तार हो गया। नास्तिकता का पक्ष तो मुझे बहुत बुरा नहीं लगता। इसको हम '' कम्मुनिज्म '' कहते हैं। उसके पीछे कुछ थोड़े से फैक्ट्स हैं, कुछ थोड़ी सी सचाई है और मित्रो! कोई दिन आएगा, जब आप देखेंगे कि हम आध्यात्मिकता की दीक्षा में कम्युनिस्टों को सबसे पहले लेंगे, क्योंकि वे विचारशील हैं। वे कहते हैं कि भगवान नहीं होता है। भगवान को हमने नहीं देखा है इसलिए हम नहीं मानते हैं। हाँ साहब! ठीक बात है। आपने नहीं देखा है तो क्यों मानेंगे? लेकिन जिस दिन हम उनको भगवान को दिखा देंगे और भगवान को अक्ल से, साबित कर देंगे, क्योंकि वे सचाई की वजह से प्रत्यक्षवाद की वजह से इनकार करते हैं, इसलिए हम प्रत्यक्षवाद के सिद्धांतों के आधार पर, विज्ञान के आधार पर और दूसरे आधारों पर जिस दिन हम साबित कर देंगे, हमारा विश्वास है कि तब सारी दुनिया के कम्यूनिस्ट हमारे शिष्य हो जाएँगे, लेकिन आप कभी नहीं हो सकते, क्योंकि आपने आध्यात्मिकता के आधारभूत सिद्धांतों को काटकर फेंक दिया है और सत्यानाश करके फेंक दिया है। इसलिए आप पक्के नास्तिक हैं और सारी जिंदगी भर पक्के नास्तिक रहेंगे। भगवान के द्रोहियों को जैसा होना चाहिए उसी तरह का आचरण आप करते रहेंगे।
कर्मों की अवमानना स्वयं से धोखा
मित्रो! आस्तिकता का मूलभूत सिद्धांत है- कर्मफल। आदमी को श्रेष्ठ कर्म करना चाहिए और बुरे कमी से अपना बचाव करना चाहिए। आध्यात्मिकता का मूलभूत सिद्धांत यह है कि आदमी अनैतिक आचरण से बचे और श्रेष्ठ आचरण की ओर चले। मनुष्य अवांछनीयताओं से दूर हो और वांछनीयता की ओर चले। लेकिन हाय रे भगवान! यह क्या हो गया? हमारा अध्यात्म नास्तिकवादी हो गया, जिस पर हम और आप विश्वास करने लगे। यह नास्तिकवादी अध्यात्म है, जिसने मूलभूत सिद्धांतों को काटकर फेंक दिया, मटियामेट कर दिया और ठीक उलटा प्रचार करना शुरू कर दिया। हमारे अध्यात्म ने हमको एक गंदी बात सिखा दी कि आप गंदे काम कीजिए। गंदे काम करने की आपको पूरी तरह से छूट है। आप गंगा जी में स्नान कीजिए। गंगा जी स्थान करने के बाद आपके सारे के सारे पापों का कर्मफल समाप्त हो सकता है। मैं आपसे यह पूछता हूँ कि लोगों को चकमा देने का अभ्यास तो हमको पहले से ही था। हम समाज को चकमा दे सकते थे। हम अनैतिक होते हुए भी कोई ऐसा ढोंग बना सकते थे, जिससे लोगों को यह मालूम पड़े कि यह तो संत हैं, महात्मा हैं। यह तो चारों धाम की यात्रा करते हैं। यह तो तिलक लगाते हैं और भजन करते हैं। समाज को चकमा देने का हमें पूरा पूरा अभ्यास था कि लोग हमको धर्मात्मा भी समझते रहें और हम बुरे कर्म भी करते रहें।
सस्ते शॉर्टकट
मित्रो! सरकार को चकमा देने का हमको पूरा पूरा अभ्यास है । रिश्वत देकर के दूसरे तरीके अख्तियार करके और दो बही खाते रख करके हम सरकार को बहुत दिनों से चकमा देने के अभ्यस्त हैं। हम कानून को पहले से ही चकमा देते आ रहे हैं। बस, एक ही आधार रह गया था- परलोक का और पुनर्जन्म का, सो इस गंदे अध्यात्म ने उसे पूरा कर दिया। चलिए, मैं इस अध्यात्म पर लांछन लगाता हूँ कि यह भ्रष्ट और दुष्ट है। यह किस तरीके से भ्रष्ट है? यह इस तरीके से भ्रष्ट है कि इसने यह समर्थन किया है कि आपको अनैतिक काम करने का कोई दंड नहीं मिल सकता है और न कोई सजा मिल सकती है। आपके अनैतिक कामों को दंड से बचाने के लिए हमारे पास बड़े सस्ते, बड़े सरल, बड़े चीप तरीके मौजूद हैं, जिसमें आपको एक पैसा भी खरच नहीं करना पड़ेगा और आपके सारे पाप भी ठीक हो जाएँगे। कौन सा है डैम चीप तरीका? गंगा जी में नहाइये और पाप बहाइए पाप- दंड बहाइए। चाहे जितना पाप कीजिए। हर साल सौ मन पाप कीजिए, एक बार गंगा में डुबकी लगाइए और सारे पापों से छुटकारा पाइए।
हमने सब कुछ बहुत सस्ता बना दिया
मित्रो! इसका क्या मतलब है? इसका मतलब प्रत्यक्ष है कि आपको पाप करने की पूरी तरीके से छूट है और आपको भगवान के दंड से डरने की जरूरत नहीं है। भगवान को आप झुठला सकते हैं। भगवान को आप बहका सकते हैं। भगवान को आप सुला सकते हैँ। भगवान को चकमा देने के लिए हमने आपको नए तरीके सिखा दिए हैं। सरकार को चकमा देने के लिए तो आपको इंस्पेक्टर को रिश्वत देनी पड़ती थी और समाज को चकमा देने के लिए आपको बहुत सारा ढोंग भी बनाना पड़ता था। भगवान जी को चकमा देना तो सबसे सरल है। इसमें गंगा जी के पानी में एक डुबकी लगाइए बस हो गया उद्धार। बेटे! यह क्या हो गया? यह कौन सा तरीका आ गया? मित्रो! ये ऐसे गंदे तरीके हैं, जिनने अध्यात्म के मूल उद्देश्य का सफाया कर दिया। यह ऐसा गंदा तरीका है, जिसने अध्यात्म को भ्रष्ट कर दिया। हमको अध्यात्म इसलिए सिखाया गया था कि आदमी श्रेष्ठ जीवन जिए। सामाजिक जीवन जिए, चरित्रनिष्ठ जीवन जिए, आदर्श जीवन जिए। इसका एक ही कारण था। सारे के सारे धर्मशास्त्र इसीलिए बनाए गए थे, पूजा पाठ इसीलिए बनाए गए थे, जप- तप इसीलिए बनाए गए थे, सारी की सारी चीजें इसीलिए बनाई गई थीं, लेकिन हमने सब साफ कर दिया। डैम चीप कर दिया। किसको कर दिया? स्वर्ग को कर दिया, भगवान की प्रसन्नता को कर दिया। भगवान की प्रसन्नता, परलोक और स्वर्ग हमारे लिए डैम चीप हैं। अब आपको श्रेष्ठ काम करने की कोई जरूरत नहीं है। लोकमंगल के लिए त्याग- बलिदान की परंपरा अपनाने की आपको कोई जरूरत नहीं है। आप घटिया और सस्ता उपाय इस्तेमाल कीजिए।
सत्यनारायण भगवान की कथा
कौन सा सस्ता उपाय करें? बस, सत्यनारायण की कथा कहलवा लीजिए और पंडित जी को सवा रुपया दे दीजिए। इहलोके सुखं भुक्तवा, चान्ते सत्यपुरोमये। एक राजा था, जो चोर था। सत्यनारायण स्वामी की कथा कहलवाने के पश्चात इस लोक में सारे के सारे सुखों को प्राप्त करता हुआ और अंत में सत्यनारायण स्वामी महाराज के ब्रह्मलोक में चला गया। बोलो सत्यनारायण स्वामी की जय! अरे दुष्टो! यह क्या कर रहे हो? अरे अभागो! यह क्या कर रहे हो? आध्यात्मिकता के सिद्धांतों का सत्यानाश कर रहे हो। कर्मकाण्ड कराने के पश्चात सवा रुपया देकर के, देवी- देवताओं के पत्थर के खिलौनों को देखने के पश्चात आपने ये ख्वाब बना रखे हैं कि हमको वो सद्गति मिलने वाली है, भगवान का प्यार मिलने वाला है। हमारा कल्याण होने वाला है। इसके लिए हमको आदर्श जीवन जीने की कोई जरूरत नहीं है। छोटा मोटा कर्मकाण्ड कर लीजिए। कहीं जा करके पत्थर के खिलौने को कुछ दे करके आ जाइए।
इतनी सस्ती मुक्ति
मसलन आप बद्रीनाथ चले जाओ। अमुक अमुक जगह चले जाइए। चारों धाम की यात्रा का टिकट खरीद लीजिए। एक टिकट कितने रुपए का आया है? साहब! तीन सौ इक्यावन रुपए का है। अच्छा साहब! चारों धाम की यात्रा करने के बाद में अब क्या हो सकता है? बैकुंठ जाना पड़ेगा। अच्छा! और? स्वर्गलोक जाना पड़ेगा। अच्छा! और? मुक्ति मिलेगी और स्वर्ग मिलेगा और शांति मिलेगी। तीन सौ इक्यावन रुपए में सबके सब मिल जाएँगे। आप इससे सब चीजें खरीद सकते हैं और चारों धाम की यात्रा, सैर- सपाटा भी कर सकते हैं। मौज- मस्ती भी कर सकते हैं। सिनेमा भी देख सकते हैं, जगह- जगह की इमारतें भी देख सकते हैं और फोकट में बैकुंठ भी खरीद सकते हैं।
पर्यटन बनाम तीर्थयात्रा
क्या यह संभव है? संभव है। मित्रो! इस प्रसंग पर मुझे एक कहानी याद आ जाती है- एक थे सेठ जी। पंडित जी ने उन्हें यह समझा दिया कि तुम चारों धाम की यात्रा कर लो, भगवान तुम्हारे वश में हो जाएँगे। वे वहीं स्वर्गलोक में तो रहते हैं। भगवान भी तुम्हारी खुशामद करेंगे, ब्रह्मा जी भी करेंगे, विष्णु जी भी करेंगे और शंकर जी भी करेंगे। परलोक में जाएँगे तो सब खुशामद करेंगे और सब नौकर हो जाएँगे। अत: आप चारों धाम की यात्रा कर लीजिए। सेठ जी रजामंद हो गए। इतने कम दाम का इतना सस्ता सौदा भला क्या हो सकता है! इसमें न त्याग करना पड़ा, न संयम करना पड़ा, न जीवन में कुछ हेर फेर करना पड़ा । तीन सौ इक्यावन रुपए में सारे देवी देवता गुलाम हो गए। बैकुंठ भी गुलाम हो गया। ब्रह्मा जी भी गुलाम हो गए ओर स्वर्गलोक की सीट भी रिजर्व हो गई।
अच्छा तो हम चारों धाम की यात्रा के लिए चलेंगे। सेठानी थोड़ी समझदार थी। उसने कहा कि स्वामी! हम चलेंगे तो सैर करने के हिसाब से चलेंगे। हमें सैर करना है और तमाशा देखना है। इस ख्याल से आप क्यों जाते हैं कि इससे हमको बैकुंठ मिलने वाला है। भगवान मिलने वाला है। हम भी चलेंगे और आप भी चलेंगे। जहाँ जहाँ सैर करने के ज्यादा अच्छे मौके हैं, वहाँ चलेंगे। धर्मशालाओं में ठहरेंगे, होटलों में ठहरेंगे। सिनेमा देखेंगे, मौज करेंगे। इसमें भगवान जी को क्यों शामिल करते हैं। घूमना अच्छी बात है, पर्यटन करना अच्छी बात है, पर पर्यटन करने और घूमने से भगवान का और मुक्ति का क्या ताल्लुक हो सकता है? आप यह विचार दिमाग से निकाल दीजिए। नहीं साहब! हम तो बैकुंठ देखने जाएँगे और चारों धाम की यात्रा करने के लिए जाएँगे। तब सेठानी ने एक काम किया। वह बोली कि तब तो हम भी चलेंगे। अच्छा साहब! चलिए आप भी चलिए।
सेठानी ने दिलाया आत्मबोध
सेठ और सेठानी, दोनों चारों धाम की यात्रा के लिए रवाना हो गए। रवाना होने से पहले सेठानी ने एक रूमाल निकाला और उसमें सँभालकर एक बैंगन रख लिया। बैगन बड़ा था, उसे रूमाल में बाँध लिया और जहाँ- जहाँ भी स्नान किया, उन नदियों में उस बैंगन को भी नहलाया। सेठ जी ने पूछा कि यह क्या कर रही हो? अरे साहब! इससे आपको क्या मतलब है? हम इसको बैकुंठ ले जाने वाले हैं और इसे मुक्ति दिलाने वाले हैं। हम बैंगन को नहलाएँगे। बद्रीनाथ जी का मंदिर आ गया। बैंगन को रूमाल से खोलकर सबसे पहले भगवान जी के दर्शन कराए पीछे अपनी आत्मा को दर्शन कराए। बेचारी बैंगन को रूमाल में बाँधकर लाई और सब जगह नदी -नालों में नहलाया। तीर्थयात्रा करके जब वह घर आ गई, तो उसने सेठ जी से कहा कि हम आपको एक चीज खिलाएँगे। क्या खिलाओगी? साक्षात अमृत खिलाएँगे। देवता लोग क्या खाते हैं? अमृत खाते हैं। स्वर्गलोक में क्या रहता है? अमृत रहता है। हम आपको अमृतपान कराएँगे, जो आपने कभी नहीं किया है। अच्छा, कराइए। बस, चारों धाम यात्रा के दौरान जो अमृत मिला है, उसे आपको खाना चाहिए। हाँ साहब! खिलाइए। बैंगन जो था वह तीन महीने की यात्रा के पश्चात बिलकुल सड़ गया था। सेठानी ने उसे पकाया और पकने के बाद में सेठ जी की कटोरी में रखा।
बस, यही अमृत है, आप खाइए। सड़ा हुआ, बुसा हुआ और बदबूदार बैंगन सेठ जी की नाक के पास जैसे ही गया, तो बहुत बुरी गंध आई और मुँह में गया तो कडुआ लगा और उलटी हो गई। अरे अभागिन! यह क्या खिला रही है- जहर? नहीं, जहर नहीं खिला रही थी, मैं तो चारों धाम की यात्रा का फल खिला रही थी। चारों धाम की यात्रा का फल सुना रही थी। उसने कहा कि अगर चारों धाम की यात्रा करने के बाद बैंगन का जायका इतना बदल गया और यह बैंगन पहले की अपेक्षा और अधिक सड़ गया तो आपको यह कैसे विश्वास हो गया कि जगह- जगह के खिलौने देखने के पश्चात और तमाशा देखने के पश्चात और पर्यटन करने के पश्चात हमारा कोई आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा हो सकता है? बेटे! कोई आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।
आज की बात समाप्त।
।। ऊँ शान्ति:।।