Books - क्षुद्र हम, क्षुद्रतम हमारी इच्छाएँ
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Language: HINDI
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क्षुद्र हम, क्षुद्रतम हमारी इच्छाएँ
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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मन की साधना कैसे करें?
देवियो, भाइयो! मैंने आपको शरीर की साधना के दो माध्यम बताए हैं- आहार और विहार। वैसे ही मन की साधना के भी दो माध्यम हैं- एक का नाम है- विवेक और दूसरे का नाम है- साहस। साहस और विवेक- इनकी जितनी मात्रा हम अपने भीतर इकट्ठी करते हुए चले जाते हैं, उतना ही हमारा जीवन विभूतियों से- समृद्धियों से, ऋद्धियों से और सिद्धियों से भरता हुआ चला जाता है। मित्रो! इस सम्बन्ध में मैं आपको इतिहास की बात बताना चाहता हूँ, कुछ घटनाएँ सुनाना चाहता हूँ।
विवेकवान् की रीति−नीति
समर्थ गुरु रामदास के ब्याह की तैयारियाँ चल रही थीं। बुआ ने कहा कि उनका ब्याह तो जरूर होना चाहिए। अम्मा ने कहा- ‘‘मेरे बेटे का ब्याह नहीं होगा, तो काम कैसे चलेगा?’’ ढोलक बजायी जा रही थी और हल्दी चढ़ाई जा रही थी। घोड़ी चढ़ाने के लिए बारात निकाली और बारात वहाँ जा पहुँची बेटी वालों के यहाँ। बेटी वालों के यहाँ मंडप सजाया गया। समर्थ गुरु रामदास व्याह करने के लिए वहाँ जा पहुँचे। एक पुरोहित ने कहा कि महाराज! यहाँ ब्याह करने पर एक आवाज लगाई जाती है। उन्होंने कहा- ‘‘लड़का लड़की सावधान’’! लड़के ने कहा कि पल भर की देरी है, लेकिन सावधान क्यों कहा गया? अरे! जीवन के मोल का यही अंत? चार छोकरी- चार छोकरे और एक पंडित- ९। नौ ग्रह, नौ की दुहाई, नौ तरह की बीमारियाँ। मर जायेगा। अरे अभागे! दो तरीके से मारा जायेगा। इसीलिए भगवान् चिल्ला रहा है- सावधान! सावधान! अरे, दोनों तरफ की दिशाएँ क्या देख रहा है? एक तरफ चल और समर्थ गुरु रामदास ये भागे, वो भागे। लोगों ने बाजा बजाना बन्द कर दिया। वह गया, सो गया। बुआ ने कहा- बेवकूफ, अम्मा ने कहा पागल, बाप ने कहा- सिरफिरा, रिश्तेदारों ने कहा कि उल्लू है। सबने जाने क्या- क्या कहा। दुनिया वाले क्या- क्या कहते हैं, लेकिन विवेकवानों की विचार करने की शैली अलग होती है। वे अपना रास्ता अलग बनाते हैं और अपने रास्ते पर आप चला करते हैं।
पात्रता की अनिवार्यता
मित्रो! जो विवेकवान् लोग अपने रास्ते पर चले हैं, वे संसार के इतिहास में उज्ज्वल तारे की तरह टिमटिमाते रहे हैं और टिमटिमाते रहेंगे। यह परम्पराएँ पहले भी चलीं थीं और आगे भी चलती रहेंगी। मैंने आपको मन की, मस्तिष्क की, सूक्ष्म शरीर की उपासना के साथ साधना करने की विधि पहले भी बताई थी और विवेकशीलता को उसका एक अंग बताया था। एक दूसरा अंग है, पात्रता का विकास, व्यक्तित्व का विकास। इसके अभाव में सारी साधना, उपासना निष्फल चली जाती है।
एक बड़े सम्भ्रान्त व्यक्ति ने सुन रखा था कि संसार में सबसे बड़ा लाभदायक काम भगवान् का प्यार प्राप्त करना है। भगवान् सारी दुनिया का स्वामी है, मालिक है। सारी संपदाएँ और सारी सुविधाएँ उसके एक इशारे पर चलती रहती हैं। मनुष्य को भी जिन सुविधाओं की आवश्यकता है, जिन लाभों की जरूरत है, जिन वस्तुओं की जरूरत है, वह भगवान् के एक कृपांश के ऊपर, भगवान् के एक इशारे के ऊपर, इशारे की एक किरण के ऊपर टिके हुए हैं। भगवान् अगर हमसे नाराज हो जाये, तो हमारा अच्छा भला शरीर देखते ही देखते बरबाद हो जाये। गठिया आदि लग जाये, लकवा आदि हो जाये। हमारा सारा खाना- पीना भी बट्टे खाते में चला जाये। हमारी पढ़ाई- लिखाई सब बेकार चली जाये। सोलह वर्ष तक पढ़ाई की। एम.ए. की पढ़ाई की और डिवीजन खराब हो जाये, थर्ड डिवीजन पास हो जाये और नौकरी के लिए जगह न मिले। चपरासी के लिए मारा- मारा फिरना पड़े, तब? भगवान् की एक कृपा का कण यदि हमारे विरुद्ध हो जाये, तो हमारा सब कुछ चौपट हो जायेगा।
कैसे मिले भगवान् का प्यार
उस व्यक्ति को मालूम था कि भगवान् का प्यार पाना और भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करना मनुष्य के लिए जीवन का सबसे बड़ा लाभ है। उस लाभ को प्राप्त करने के लिए अपने समय के सबसे बड़े उदार संत और भगवान् के सबसे बड़े भक्त सुकरात के पास वह व्यक्ति गया और कहने लगा कि भगवन्! मुझे ऐसा उपाय बताइये, जिससे मैं भगवान् की कृपा प्राप्त कर सकूँ और भगवान् का साक्षात्कार कर सकूँ। भगवान् तक पहुँच सकूँ। सुकरात चुप हो गये। उन्होंने कहा कि फिर कभी देखा जायेगा। कई दिनों बाद वह व्यक्ति फिर आया। उसने कहा- ‘‘भगवन्! आपने भगवान् को देखा है और भगवान् का प्यार पाया है। क्या आप मुझे भी प्राप्त करा सकेंगे?’’ क्या भगवान् का अनुग्रह मेरे ऊपर न होगा? सुकरात ने कहा- ‘अच्छा तुम कल आना और मेरी एक सेवा करना, फिर मैं तुम्हें उसका मार्गदर्शन करूँगा।’ दूसरे दिन वह व्यक्ति सुकरात के पास पहुँचा। सुकरात ने मिट्टी का कच्चा वाला एक घड़ा पहले से ही मँगाकर रखा था। वह पकाया नहीं गया था, वरन् मिट्टी का बना हुआ कच्चा था। सुकरात ने कहा- ‘ बच्चे जाओ मेरे लिए एक घड़ा पानी लाओ और मैं उससे स्नान कर लूँ, पानी पी लूँ, पीछे मैं तुम्हारा मार्गदर्शन करूँगा।’
घड़ा पक्का होना चाहिए
कच्चा घड़ा लेकर वह व्यक्ति कुएँ पर गया। रस्सी बाँधी और रस्सी बाँधकर के उसको कुएँ में डुबोया। खींचते- खींचते घड़े का बहुत सारा हिस्सा, कोना टूट- फूट गया। किसी तरीके से थोड़ा- बहुत पानी लेकर वह घड़ा ऊपर आया। घड़े को उसने सिर पर रखा, हाथ पर रखा। सुकरात के पास उसे लेकर जब तक वह पहुँचा, मिट्टी का वह घड़ा बिखर गया। उसने सुकरात से कहा कि- भगवन्! जो घड़ा आपने मुझे पानी भरने के लिए दिया था वह रास्ते में ही बिखर गया। उन्होंने कहा- ‘ठीक यही फिलॉसफी भगवान् का प्यार प्राप्त करने और भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करने की है।’ कच्चा घड़ा अपने भीतर पानी को धारण नहीं कर सका। उसके लिए जरूरत इस बात की पड़ती है कि घड़ा पक्का हो। अगर हमारे पास पक्का घड़ा है, तो पानी भर जायेगा, ठंडा रहेगा, बेतकल्लुफ खड़ा रहेगा और पानी हमको मिल जायेगा। अगर घड़ा कच्चा है, तो पानी बिखर जायेगा। सुकरात ने यह बात उस व्यक्ति से कही।
संव्याप्त भ्रान्तियाँ
मित्रो! भगवान् को अपने भीतर धारण करने के लिए पक्का अर्थात् चरित्रवान, पक्का अर्थात् त्यागी, पक्का अर्थात् निष्ठावान्, पक्का अर्थात् व्यक्तित्व से सम्पन्न व्यक्ति होना चाहिए। यही हैं भगवान् की पूजा- उपासना के माध्यम। लेकिन क्या किया जाय? लोगों ने पिछले दिनों हमको गलत बातें बता दीं, गलत नियम सिखा दिये कि पूजा- उपासना के खेल जैसे कर्मकाण्ड भगवान् का प्यार प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं और हमारे जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करा सकते हैं। हमको अपने जीवन को सुधारने की आवश्यकता नहीं है। हमको अपने आपको महान बनाने की आवश्यकता नहीं है। हम केवल थोड़े से कर्मकाण्ड कर लिया करें, तो हमको शान्ति मिल जायेगी और हमको भगवान् का अनुग्रह मिल जायेगा। इस अज्ञान और भ्रम ने हमारा रास्ता भटका दिया और हम एक मंजिल पर चल सकते थे, थोड़ी दूर तक पहुँच सकते थे, उससे महरूम और वंचित रह गये।
तीर्थ स्नान से मिलेगी मन की शान्ति?
मित्रो! एक बार ऐसा हुआ- एक था मल्लाह। बहुत दुःखी बैठा हुआ था और कह रहा था कि मेरे मन में बड़ी अशांति है और मुझे बड़ा दुःख है। अब मुझे भगवान् की तरफ चलना चाहिए और भगवान् से शान्ति प्राप्ति करके लानी चाहिए। क्या किया जाय? क्या न किया जाय? उसके जी में आया कि तीर्थयात्रा के लिए चलना चाहिए और भगवान् के दर्शन करना चाहिए। उसकी स्त्री केशिका ने कहा कि पतिदेव! तीर्थयात्रा जाने से आपको शान्ति नहीं मिलेगी। शान्ति तो अपने भीतर भरी हुई पड़ी है। जब तक हम अपने भीतर के कपाट नहीं खोलेंगे, जब तक अपनी अंतरंग शान्ति के द्वार नहीं खोलेंगे, तब तक किस तरीके से आपको शान्ति मिल सकती है? बाहर शान्ति है कहाँ? जिसको तलाश करने के लिए आप जा रहे हैं? उसने कहना नहीं माना। उसने कहा कि मैं तो तीर्थयात्रा के लिए जाऊँगा और वहाँ से शान्ति लेकर के आऊँगा। मैं तो गंगा स्नान करूँगा और मैं तो जगन्नाथपुरी जाऊँगा और वहाँ से शान्ति ले करके आऊँगा। स्त्री ने मना किया, लेकिन उसका पति बड़ा दुःखी था और खिन्न था और उसको बहुत जल्दी भगवान् की कृपा प्राप्त करने की इच्छा थी।
पत्नी ने दी शिक्षा
वह तीर्थयात्रा की तैयारियाँ करने लगा। उसकी स्त्री केशिका भी साथ जाने के लिए तैयार हो गयी। उसने एक रूमाल में चार बैंगन बाँधकर रख दिए और जहाँ- जहाँ पतिदेव ने तीर्थयात्रा की, वहाँ- वहाँ वह स्वयं भी नहायी और पानी में बैंगनों को भी स्नान कराया। जहाँ- जहाँ दर्शन के लिए पतिदेव गये, वहाँ स्वयं भी दर्शन किया और उन चार बैंगनों को भी दर्शन कराया। सारे के सारे तीर्थ यात्रा करने के बाद उसका पति भी आ गया और केशिका भी आ गयी। जब घर आकर के बैठे, तब क्या हुआ कि उसने अपने पति के लिए भोजन बनाया। और वे चार बैंगन जो थे, जो कि सारे के सारे तीर्थों की यात्रा कर चुके थे और सब नदियों में स्नान कर चुके थे, उन बैंगनों की उसने साग बनाया। साग बनाकर पतिदेव की थाली में परोसकर रख दिया, तो पतिदेव को बड़ी दुर्गन्ध आयी।
पतिदेव ने कहा- अरे भागवान्! तूने यह क्या रख दिया? बदबू के मारे मेरी नाक सड़ी जा रही है और मुझे उल्टी होने वाली है। पत्नी ने कहा कि ये वह बैंगन हैं, जो चारों धाम की यात्रा करके आये हैं। ये वह बैगन हैं, जो भगवान् के जितने भी सारे तीर्थ हैं, उनके दर्शन करके आये हैं। इनमें तो सुगंध होनी चाहिए थी? इनमें तो स्वाद होना चाहिए था? उसने कहा- परन्तु इनमें न तो सुगंध है और न स्वाद है, तो मैं किस तरीके से मान लूँ? पत्नी ने कहा कि जब ये बैंगन सुगंध न प्राप्त कर सके, खुशबू प्राप्त न कर सके और स्वाद न प्राप्त कर सके, तो फिर यह तीर्थयात्रा आपको शान्ति दे पायेंगे क्या? भगवान् के दर्शन, कर्मकाण्ड आपको शान्ति दे पायेंगे क्या? मल्लाह के हृदय कपाट खुल गये और उसने अपने भीतर भगवान् को तलाश करना शुरू कर दिया और उसको शान्ति मिली।
गहराई में प्रवेश करें
मित्रो! भगवान्, जिसके आधार पर यह सारा विश्व टिका हुआ है और मानव की सारी उन्नति उसके कृपा कटाक्ष के ऊपर अवलम्बित है, उसको हमको तलाश करना चाहिए और प्राप्त करना चाहिए। मेरे जीवन का सारे का सारा समय इसी काम में समाप्त हो गया और मेरी साठ साल की जिन्दगी सिर्फ इसी काम में समाप्त हो गयी। भगवान् कहाँ है? और भगवान् को किस तरीके से प्राप्त किया जाये? हमको इसके बारे में थोड़ी गहराई तक जाना पड़ेगा, जैसे कि मुझे मेरे गुरुजी ने गहराई में धकेलने की कोशिश की। मैं चाहता हूँ कि आपको भी गहराई तक धकेल दूँ, ताकि आप वास्तविकता को समझ सकें।
मित्रो! एक बार ऐसा हुआ कि भगवान् जी की इच्छा हुई कि मेरा प्यारा मनुष्य इस पृथ्वी पर निवास करता है और उसके पास मैं चलूँ, उसके पास रहूँ और उसकी खोज- खबर लिया करूँ, उसको शिक्षा दिया करूँ। मैंने बड़ी उम्मीदों और तमन्नाओं से उसको बनाया था। मैं उसको रास्ता बताऊँगा, उसको उसके कर्तव्य बताऊँगा और उसको यह बताऊँगा कि मनुष्य का जीवन कितना महान है और मनुष्य के जीवन से क्या किया जा सकता है? भगवान् जो कार्य स्वयं करता है, उसको मानव भी स्वयं कर सकता है, मैं जा करके ऐसा शिक्षण मनुष्य को दूँगा।
भगवान् आए धरती पर
इसी उद्देश्य से भगवान् पृथ्वी पर आने की तैयारियाँ करने लगे। लक्ष्मी जी ने कहा ‘अरे! आप तो बेकार परेशान हो रहे हैं। मनुष्य तो आपके काम का रहा नहीं। मनुष्य बड़ा चालाक हो गया है और मनुष्य बहुत छोटा हो गया है, बड़ा संकीर्ण हो गया है। उसके पास जाने से आपको कोई फायदा नहीं।’ भगवान् ने कहा- ‘‘नहीं, मनुष्य तो हमारा बच्चा है। हम तो जायेंगे और मनुष्य के पास रहेंगे और उसको रास्ता बतायेंगे और कर्तव्य बताएँगे।’’ भगवान् जी बैकुण्ठलोक से रवाना हो गये और पृथ्वी पर आये। पृथ्वी पर निवास करने लगे। लोगों से कहा- ‘‘मनुष्यो! हमने तुमको बनाया है और एक काम के लिए बनाया है। उस काम के लिए हम आपको शिक्षा देंगे और आपके दुःखों को दूर करेंगे। शान्ति के लिए आगे बढ़ाएँगे।’’ भगवान् ने मनुष्यों से यह बात कही। मनुष्य आये और भगवान् के पास घूमने लगे, चक्कर काटने लगे। भगवान् उनको ज्ञान की बातें बताने लगे, शिक्षा की बात बताने लगे। आत्मकल्याण की बात बताने लगे। परोपकार की बात बताने लगे। सेवा की बात बताने लगे। लेकिन मनुष्यों ने उसको सुनने से इंकार कर दिया।
मनोकामनाओं की लिस्ट
मनुष्यों ने कहा- ‘‘भगवान् जी! इन बातों की हमको जरूरत नहीं है।’’ तो फिर किस बात की जरूरत है? उन्होंने कहा कि महाराज जी! आप तो बतायें कि हमको खाँसी आ जाती है। हमको बुखार आ जाता है। आप हमारा बुखार अच्छा कर दीजिए। किसी ने कहा कि महाराज जी! हमारे ऊपर मुकदमा चल रहा है और आप मुकदमा ठीक करा दीजिए। किसी ने कहा कि महाराज जी! हमारा ब्याह नहीं हुआ है और हमारी इतनी उमर हो गयी और हमको अच्छी से अच्छी लड़की नहीं मिलती। किसी ने कहा कि महाराज जी! हमारी कन्या बाईस साल की हो गयी है। हम उसके लिए लड़का ढूँढ़ते हैं, मिलता नहीं। लोग ज्यादा से ज्यादा दहेज माँगते हैं। किसी ने कहा कि महाराज जी! हमारा ये काम करा दीजिये, वो काम करा दीजिये। भगवान् ने कहा- ‘‘लोगो! यह तुम्हारा काम है। हमारा काम नहीं है’’ लोगों ने कहा कि महाराज जी! यही आपके काम हैं और आप ही यह काम किया कीजिए।
भगवान् को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने कहा कि हम ज्ञान देने के लिए आये थे, मनुष्य जीवन का उद्देश्य बताने के लिए आये थे और शान्ति देने के लिए आये थे और आगे बढ़ाने के लिए आये थे। और ये कमबख्त ऐसे बेवकूफ हैं कि अपने दैनिक जीवन की जो छोटी- मोटी सी आवश्यकताएँ हैं, समस्याएँ हैं, जिनको कि आदमी अपनी अकल को सही रख करके आसानी से पूरी कर सकता है, समस्याएँ हल कर सकता है, उसको हमसे माँगता है। ये आदमी बड़े खराब हैं। भगवान् नाराज हो गये और उन्होंने अपना बिस्तर उठाया, अपना सामान उठाया, अटैची उठायी और चलने लगे।
पहाड़ पर प्रभु। वहाँ भी पहुँचा मानव
भगवान् जी को गुस्सा आया, तो उन्होंने विचार किया कि ऐसी जगह चलना चाहिए जहाँ कोई पहुँच न सके। सो वे पहाड़ के ऊपर चले गये। वे कैलाश पर्वत पर रहने लगे। लोगों ने कहा कि भगवान् जी को तलाश करना चाहिए और वहाँ चलना चाहिये और अपनी दिक्कतें बतानी चाहिए और वहीं से आशीर्वाद लाना चाहिए। भगवान् जी कैलाश पर्वत पर मानसरोवर के पास बैठे हुए थे। बस, लोगों ने रास्ता ढूँढ़ा। कौन सा रास्ता है? नैनीताल के पास से जाता है, अल्मोड़ा के पास से जाता है। तिब्बत तक का रास्ता ढूँढ़ते हुए पहाड़ों पर होते हुए कैलाश पर्वत तक वे जा पहुँचे। भगवान् ने कहा कि धक्के खाकर के मनुष्य मेरे पास आ गया, चलो अच्छा हुआ।
भगवान् ने कहा- ‘‘बच्चों! तुम्हारे पास सारी शक्तियाँ हैं और सारी सुविधाएँ है, जो मैंने तुम्हारे भीतर दबाकर रख दी हैं। तुमको उन्हें अपने भीतर तलाश करना चाहिए और तुमको अपना जीवन अच्छा बनाना चाहिए। जैसे ही तुम अपना जीवन अच्छा बनाओगे, सारी ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ, सारे सुख और सारी सुविधाएँ अनायास ही आती हुई चली आयेंगी।’’ लोगों ने कहा कि महाराज जी! यह तो बड़े झगड़े का काम है और बहुत झंझट का काम है। हम अपने आपको कैसे सिद्ध करेंगे और कैसे मन को नियंत्रित करेंगे? और कैसे इन्द्रियों का निग्रह करेंगे? सेवा के लिए हम मन कहाँ से लायेंगे और ऐसे कैसे करेंगे? यह हमसे नहीं हो सकता और हम नहीं करेंगे। भगवान् ने कहा- ‘फिर क्या करोगे?’ हम तो महाराज जी! बस आपका आशीर्वाद माँगेंगे और अपना फायदा करायेंगे आपसे।
क्षुद्र और क्षुद्रतम हम
भगवान् जी को फिर गुस्सा आया। उन्होंने कहा कि हम इसीलिए तो भाग करके यहाँ आये थे। हमने तुमको सारी विद्याएँ दे दीं, मजबूत कलाइयाँ दे दीं, अक्ल दे दी, सब काम कर दिया और इस लायक बना दिया कि अपने इस शरीर की जरूरतों को स्वयं पूरा कर लिया करो। और तुम हो कि शरीर की जरूरतों को भी पूरा कराने के लिए हमारे पास चले आते हो। यह बड़ी खराब बात है। हम तो तुम्हारी आत्मा को बढ़ायेंगे। लोगों ने कहा कि आत्मा को बढ़ाने की जरूरत नहीं है। हम तो आपसे अपने शरीर की चीजों को माँगेंगे। भगवान् जी को फिर नाराजगी हुई और वे फिर वहाँ से भाग खड़े हुए।
समुद्र में पहुँचे भगवान्
इस बार भगवान् वहाँ से भागकर समुद्र में जा पहुँचे। और कहा कि देखें अब यहाँ मनुष्य कहाँ से आ जायेंगे? द्वारिका के पास बेट द्वारिका नाम की एक जगह है, बस भगवान् वहाँ जा पहुँचे। वह चारों ओर से समुद्र से घिरा हुआ पड़ा था। चारों ओर समुद्र था और बीच में एक टापू था। बस, भगवान् जी वहाँ बैठ गये और वहीं रहने लगे। उन्होंने कहा कि देखें अब हमारे पास मनुष्य कहाँ से आ जायेगा? अब वह हमको खामख्वाह तंग नहीं करेगा। एक बार उनका मन आया कि अपने घर चलना चाहिए लक्ष्मी जी के पास, पर यह अपना वीक प्वाइंट था, क्योंकि लक्ष्मी जी से यह कह करके आये थे कि हम मनुष्यों के पास रहेंगे। और लक्ष्मी जी ने कह दिया था कि आपको वहाँ नहीं जाना चाहिए। मनुष्य बड़े निकम्मे हो गये हैं और अपने ही धंधे में फँस गये हैं। वे अपने जीवन के लक्ष्य को भूल गये हैं। वे आपकी बात सुनेंगे नहीं। एक बार उन्होंने फिर सोचा कि चलो लक्ष्मी जी के पास चलें, मनुष्यों को छोड़ दें। फिर उन्होंने कहा कि भाई! यह तो बड़े शर्म की बात है और उनके सामने नाक नीची करने से क्या फायदा? यहीं रहना चाहिए। भगवान् जी बेट द्वारिका में रहने लगे।
पशोपेश में भगवान्
मित्रो! लोगों को जब यह पता चला कि भगवान् जी द्वारिका में निवास करते हैं, तो उन्होंने नावें बना लीं, बोट बना लिए और भाग- भागकर वहीं जा पहुँचे। भगवान् ने कहा- ‘‘अब क्या करना चाहिए? पहाड़ पर वे छोड़ने वाले नहीं, जमीन पर वे छोड़ने वाले नहीं। समुद्र में भागकर आये तो भी इनसे पिण्ड नहीं छूटा। अब क्या करना चाहिए।’’ भगवान् जी बहुत दुःखी हो रहे थे, परेशान हो रहे थे और उनकी आँखों से बहुत आँसू आ रहे थे। उन्होंने कहा- ‘‘भाइयो! घर जाते हैं तो ठिकाना नहीं और इनके पास रहते हैं, तो ठिकाना नहीं। अब क्या करना चाहिए? अपनी कोई जगह बनानी चाहिए, जहाँ हम पृथ्वी पर भी बने रहें और लक्ष्मी जी के सामने बेइज्जती भी न हो। हम जमीन पर भी बने रहें और जो अच्छे मनुष्य हमको पाना चाहें, तो आसानी से पा भी सकें। ऐसी जगह भी न चुनी जाय कि कोई अच्छा मनुष्य चाहता हो कि हमको भगवान् मिल जायँ और हम उसे मिल न सकें। ऐसी जगह कहाँ तलाश करें।’’
विवेक का हो जागरण, तो हो कल्याण
इससे पूर्व के अंक में आप पढ़ चुके हैं कि साहस और विवेक, पात्रता संवर्धन तथा आत्म चिन्तन, जिसने इन चार पर गंभीरता पूर्वक ध्यान दिया, उसका जीवन बदलता चला गया। जिसने इनकी उपेक्षा की, वह पिछड़ता चला गया। हम गहराई तक प्रवेश करें और ढूँढ़ें अनन्त शक्ति एवं शान्ति के स्रोत को। इस सम्बन्ध में परम पूज्य गुरुदेव ने एक रोचक कथानक सुनाया है जिसका आधा हिस्सा आप पढ़ चुके हैं। भगवान् ज्ञान बाँटने धरती पर आए पर मनोकामनाओं की लिस्ट लिए आदमी उनसे आशीर्वाद माँगने लगा। घबराए वे पहाड़ पर पहुँचे, मनुष्य वहाँ भी चला गया। क्षुद्र मनुष्य समुद्र में भी पहुँच गया, जब उसे पता चला कि अब भगवान् का डेरा वहाँ है। असमंजस में पड़े भगवान् को अब एक ही सहारा था। इस कथानक का व इस व्याख्यान का भी, अब उत्तरार्द्ध आगे पढ़ें।
देवर्षि से भेंट
मित्रो! भगवान् जी ऐसी एकांत जगह तलाश करने के लिए सिर खुजला रहे थे, जहाँ कोई पहुँच न सके। इतनी देर में वीणा बजाते हुए कहीं से नारद जी आ गये। उन्होंने कहा कि महाराज जी! आज आपको क्या हुआ? कोई जुकाम, बुखार हो गया है क्या? भगवान् जी ने कहा- ‘‘नहीं नारद जी! जुकाम- बुखार तो कुछ नहीं हुआ।’’ फिर क्या हुआ? कोई लड़ाई- झगड़ा हुआ? नहीं, कोई लड़ाई- झगड़ा नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि लड़ाई- झगड़ा भी नहीं हुआ, तो फिर किस्सा क्या है? आप दुःखी क्यों बैठे हुए हैं? भगवान् ने कहा कि हम लोगों के पास आये थे और उन्हें कल्याण का रास्ता बताना चाहते थे। उन्हें सुख और शान्ति का मार्ग बताना चाहते थे। उनको स्वर्ग और मुक्ति का आनन्द देना चाहते थे और उनको महामानव बनाना चाहते थे। हम उनको यह बताना चाहते थे कि इन्सान भगवान् का बेटा है और भगवान् के तरीके से उसको दुनिया में शान से रहना चाहिए। भगवान् के पास जो आनन्द है, उसका पूरा- पूरा लाभ उठाना चाहिए।
सही स्थान की तलाश
भगवान् ने कहा ‘‘नारद जी! हम इनको यही सिखाने के लिए आये थे, लेकिन ये मनुष्य बड़े निकम्मे हैं और बड़े स्वार्थी हैं। ये केवल छोटी- छोटी चीजों के लिए ख्वाहिश करते हैं और बड़ी- बड़ी चीजों के लिए इनका मन नहीं है। मैं इनके पास नहीं रहूँगा। भाग जाऊँगा और इनसे दूर रहूँगा; लेकिन मैं अपने घर नहीं जाना चाहता। नारद जी! मैं ऐसी जगह तलाश करना चाहता हूँ, जहाँ मैं बना भी रहूँ, पृथ्वी पर भी रहूँ और मेरा मनुष्यों से सम्बन्ध भी बना रहे। लेकिन मैं दिखाई भी न पड़ूँ। ऐसी जगह मुझे चाहिए, जो दिखाई न पड़े, समुद्र में गया, तो वहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया, यहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया। पहाड़ पर गया, तो वहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया और जमीन पर था, तो वहाँ भी मुझे पकड़ लिया। अब अगर तुम्हारे दिमाग में हो, तो ऐसी जगह बताओ- जहाँ मैं आराम से छिपा बैठा रहूँ और कोई आदमी चाहे, तो आसानी से वह मुझ तक पहुँच सके। ऐसा भी न हो जाये कि चाहने वाला कोई आदमी पहुँच भी न सके और ऐसा भी न हो कि लोग मुझे आसानी से पकड़ लें और तंग करने लगें। ऐसा स्थान बता दीजिए।’’
आज तक वहीं पर हैं भगवान्
नारद जी ने कहा- ‘‘वाह! भगवन्! आपको इतना भी नहीं मालूम? इतनी बढ़िया जगह है, मैं अभी आपको बताता हूँ। भगवान् जी को नारद जी ने जगह बता दी और भगवान् जी उस दिन के बाद से आज तक उसी जगह पर विराजमान हैं। न वहाँ से हटे, न वहाँ से चले, बिलकुल वहीं बैठे रहते हैं। जमीन पर रहते हैं और वहाँ आसानी से आदमी पहुँच सकता है और जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है। भगवान् से वार्तालाप कर सकता है और भगवान् के पास रहने का बहुत फायदा उठा सकता है। तब से लेकर अब तक भगवान् वहीं बैठे हुए हैं। आप पूछना चाहेंगे गुरु जी! हमें भी बता दीजिये। बता दूँ आपको? नहीं, आप किसी से कहना मत। कहेंगे तो नहीं किसी से? कह देंगे, तो नहीं बताऊँगा। कहना मत। नहीं तो सबको मालूम पड़ जायेगा। वे सब वहीं पहुँच जायेंगे और भगवान् जी बहुत नाराज होंगे। वे कहेंगे कि हमने तो अपने को छिपाकर ऐसी जगह रखा था, जहाँ नारद जी ने हमसे कहा था, उन्होंने कहा था कि कोई आदमी आप तक नहीं आएगा। लोग दुनिया में चक्कर काटते रहेंगे और कोई आप तक पहुँच ही नहीं सकेगा।’’
वह तो तेरे पास रे
मित्रो! मैं आपको जगह बता दूँ, तो आप पहुँचेंगे? नहीं पहुँचेंगे। पहुँचना भी मत, अगर वहाँ पहुँच जायेंगे, तो भगवान् जी बहुत नाराज होंगे। जहाँ भगवान् जी रहते हैं, वह जगह मैं बताये देता हूँ। आप जब चाहें, उन्हें पा सकते हैं। आप जब चाहें, उनसे मिल सकते हैं और जब चाहें तो बात भी हो सकती है। भगवान् जी का द्वार खुला हुआ है, पर है ऐसा कि भगवान् दिखाई नहीं पड़ता वह जगह ऐसी है, जो आदमी की पकड़ में नहीं आती है और पता भी नहीं चलता है। आपको बताऊँ, कहाँ है वह जगह? अच्छा! आपको बताये देता हूँ, आप किसी से मत कहना, नहीं तो और लोग पहुँच जायेंगे। वह जगह है इन्सान का दिल- हृदय। इन्सान के हृदय में- दिल में भगवान् बैठा हुआ है। वह कहीं बाहर नहीं है। जब कभी भी किसी को भी भगवान् मिला है, अपने हृदय के भीतर मिला है। वह बाहर दुनिया में नहीं है वह। बाहर दुनिया में केवल प्रकृति है, पंचभूत हैं, जड़ पदार्थ हैं। बस, और कुछ नहीं। बाहर की दुनिया में शान्ति नहीं है। वस्तुओं में शान्ति नहीं है? वस्तुओं में कोई शान्ति नहीं है। पदार्थों में कोई शान्ति नहीं है।
शान्ति वहाँ नहीं है
मित्रो! सुख- सुविधाओं में शान्ति है? नहीं, सुख- सुविधाओं में कोई शान्ति नहीं है। सुख- सुविधाओं में शान्ति रही होती, तो रावण ने शान्ति प्राप्त कर ली होती। क्यों? क्योंकि उसके पास बहुत सुविधाएँ थीं। उसके पास सोने के अम्बार लगे हुए थे और उसका मकान सोने का बना हुआ था। संतान? संतान के द्वारा अगर दुनिया में शान्ति मिली होती, तो रावण के एक लाख पूत और सवा लाख नाती अर्थात्, सवा दो लाख थे। सवा दो लाख संतान पाने के बाद में रावण जरूर सुखी हो गया होता। मित्रो! जिन चीजों के बारे में लोगों का यह सवाल है कि यह चीजें हमको मिल जायें, तो हम सुखी बन सकते हैं। वह वास्तव में ईमानदारी की बात है कि कोई सुख दे नहीं सकते। विद्या हमको मिल जाये, हम एम.ए. पास हो जायें, फर्स्ट डिवीजन में पास हो जायें, पी- एच.डी. हो जायें, नौकरी मिल जाये और हम बड़े विद्वान हो जायें, तो हम दुनिया में शान्ति पा सकते हैं? यह नामुमकिन है।
विद्वान पर खोखला व्यक्ति
साथियो! रावण बहुत विद्वान था। ज्यादा पढ़ा हुआ था। उसके पास कोई कमी नहीं थी। कोई आदमी बलवान हो जाये, ताकतवर हो जाये, तो उसे शान्ति मिल जायेगी? सुविधा मिल जाये, तो चैन मिल जायेगा? नहीं, न शान्ति मिल सकती और न चैन मिल सकता है। रावण बहुत ताकतवर था, बहुत बलवान था और उसकी कलाइयों में बहुत बल था। वह बड़ा संपन्न था। उसके पास न विद्या की कमी थी, न पैसे की कमी थी, न ताकत की कमी थी, न पुरुषार्थ की कमी थी। किसी चीज की कमी नहीं थी। पर बेचारा शान्ति नहीं पा सका। और जब मरने का समय आया, तब उसके शरीर में हजारों छेद बने हुए विद्यमान थे। जब लक्ष्मण जी ने रामचंद्र जी से यह पूछा कि महाराज! आपने जब रावण को मारा था, तब आपने एक ही तीर चलाया था न? हाँ, हमने तो एक ही तीर चलाया था। तो रावण के शरीर में एक ही निशान होना चाहिए, एक ही घाव होना चाहिए, लेकिन उसकी जो लाश पड़ी हुई है, उसमें तो जहाँ तहाँ हजारों छेद हैं। यह कैसे हुआ? रावण को इतने तीर किसने मारे? इतने छेद किसने कर दिए? इतने सुराख इसमें कैसे हो गए? किस तरीके से इन सूराखों से खून बह रहा है। आपने तो एक ही तीर मारा था? हाँ, हमने एक ही तीर मारा था। तो ये हजारों तीर किस तरीके से लगे? रामचंद्र जी ने बताया कि ये जो हजारों छेद हैं, रावण के पाप हैं, रावण के गुनाह हैं। रावण की कमजोरियाँ, रावण का घटियापन एवं रावण का कमीनापन है, जिसने कि उसके सारे शरीर में छेद कर डाले और उसका सारे का सारा व्यक्तित्व खराब कर दिया।
गलत मार्ग पर चलने की परिणति
रामायण में भी यही बात आती है कि आदमी बहुत कमजोर होता है। आदमी का रूहानी बल, उसका चरित्र, उसकी महानता और आत्मा कमजोर हो जाये, तो आदमी बहुत कमजोर हो जाता है। रावण बहुत ही बलवान था। काल को उसने अपनी पाटी से बाँध रखा था। वह इतना जबरदस्त था कि उसने सब देवताओं को पकड़ लिया था। सोने की लंका बनाई। समुद्र पर काबू पाया, लेकिन एक समय रावण बहुत ही कमजोर हो गया और बहुत ही दुबला हो गया। बहुत ही कमजोर हो गया। कब? जब कि वह सीता जी का हरण करने को गया। सीताजी का हरण करने को बेचारे को बहुत ढोंग रचाने पड़े। भिखारी का रूप बनाना पड़ा। रावण भिखारी क्यों बना? रावण के दरवाजे पर तो अनेक भिखारी पड़े रहते थे। उसे क्यों बनना पड़ा और यह भी इधर- उधर देखकर के, कि कोई मुझे देख तो नहीं रहा? इस तरीके से रावण चला। रावण की दशा बहुत ही दयनीय थी। क्यों? क्योंकि उसने गलत रास्ते पर कदम रखने शुरू किये थे-
‘जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नींद दिन अन्न न खाहीं।’
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥
अर्थात् व्यक्ति यदि गलत रास्ते पर कदम उठाना शुरू कर देता है, तो उसका तेज, बल और बुद्धि- सारे के सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं- इनका सफाया हो जाता है।
हम तो लुट गये
मित्रो! हमारे जीवन की महानतम भूल यही है कि हमको जिस काम के लिए जीवन मिला था, ऐसा उज्ज्वल जीवन जीने के लिए मिला था, उसके बारे में हम बेखबर होते हुए चले गए। हमने वह सारी की सारी चीजें भुला दीं, जिसे भगवान् ने हमको जन्म के समय सौंपी थीं। हम छोटी- छोटी चीजों में उलझ गये और हमारे जीवन का जो महत्त्व और जो लाभ मिलना चाहिए था, वह न मिल सका। हम दुनिया में आकर के लुट गये, बरबाद हो गये। भगवान् के यहाँ से हम कितनी बड़ी दौलत लेकर के आये थे। अपरिमित शक्तियों के भण्डार बनकर के हम आये थे। हमारी आँखों में सूरज, चाँद थे। हमारे सारे शरीर में सारे के सारे देवताओं का निवास था। शक्ति की देवी का हमारे शरीर में निवास है। गणेश जी का निवास हमारे मस्तिष्क में है और सरस्वती का निवास हमारी जिह्वा पर है। हमारे हृदय में चार मुख वाले ब्रह्माजी, नाभि में शंकर भगवान्- इन सारे के सारे देवताओं का निवास हमारे शरीर में है। देवताओं के निवास से भरा हुआ ऐसा शरीर हमको मिला, लेकिन इस देवताओं से भरे हुए शरीर का जो लाभ हमको उठाना चाहिए था, जो फल उसका लेना चाहिए था, हम वह फल लेने से वंचित रह गए। हमारी यह छोटी सी भूल जीवन के उद्देश्य को भूला देने के सम्बन्ध में हुई।
गलत सोच बैठी रही मन में
जीवन के उद्देश्य के बारे में हमको यही याद बनी रही, जो कि हमारे मुहल्ले वालों और पड़ोसियों ने कहा। उन्होंने कहा कि मनुष्य खाने- पीने के लिए पैदा हुआ है और मनुष्य कुछ चीजें इकट्ठी करने के लिए पैदा हुआ है। मनुष्य इंद्रियों के लाभ और इंद्रियों की सुविधाएँ इकट्ठी करने के लिए पैदा हुआ है और मनुष्य नाम और यश कमाने के लिए पैदा हुआ है। मनुष्य अपना बड़प्पन, अपना गौरव, अपना आतंक दूसरे लोगों के ऊपर जमाने के लिए पैदा हुआ है। मुहल्ले वालों ने हमसे यही कहा, पड़ोसियों ने हमसे यही कहा और रिश्तेदारों ने हमसे यही बात कही। यह बातें हमारे दिमाग के ऊपर हावी होती गयीं और पूरी तरह सवार हो गयीं। हमने उसी बात को सही मान लिया और सारी जिंदगी को उसी ढंग से खर्च करना शुरू कर दिया।
एक चूक का परिणाम कितना बड़ा
मित्रो! हमारी इतनी बड़ी भूल जो कि इस चौराहे पर आकर हमको मालूम हुई। हमारी एक भूल- चूक हो गई। ऐसी ही एक भूल कलिंग देश के एक राजा ने की थी। कलिंग देश का एक राजा था। एक बार उसको जलपान के समय- नास्ते के समय मधुपर्क दिया गया अर्थात् दही और शहद दिया गया। दही और शहद को अच्छे तरीके से खाना चाहिए था, तमीज के साथ खाना चाहिये था लेकिन तमीज के साथ उसने शहद नहीं खाया। इधर- उधर देखता रहा, बात करता रहा और शहद खाता रहा। इस तरह शहद खाने से क्या हुआ? आधा शहद प्याले में गया, आधा खा चुका और आधा शहद जमीन पर फैल गया। इसके बाद कलिंग राजा चला गया।
कलिंग राजा जब चला गया तो थोड़ी देर में जो शहद वहाँ फैल गया था वहाँ मक्खियाँ आयीं और आकर के शहद खाने लगीं। वहाँ बहुत सी मक्खियाँ मँडरा रहीं थी। उसी समय एक छिपकली आयी और मक्खियों को खाने का अंदाज लगाने लगी। फिर एक और छिपकली आयी। जब कई छिपकलियाँ इकट्ठी होने लगीं, तो एक बिल्ली आई। बिल्ली ने कहा कि ये छिपकलियाँ बहुत गड़बड़ करती हैं चलो इन्हें खाना चाहिए। इनको खाने में मजा मिलेगा। बस, मक्खियों को खाने के लिए छिपकलियाँ तैयारी करने लगी थीं और छिपकलियों को खाने के लिए बिल्ली। बिल्ली जैसे ही उन्हें खाने के लिए आई वैसे ही कहीं से एक कुत्ता आ गया। उसने कहा कि यह बिल्ली बहुत अच्छी है। इसको मजा चखाना चाहिये। इसकी टाँग पकड़ लेनी चाहिए। बस, कुत्ता आया और उसने बिल्ली की टाँग पकड़ ली। कान पकड़ लिया और बिल्ली के बाल नोचने लगा। जब तक एक और कुत्ता आ गया और उस कुत्ते के ऊपर बिगड़ने लगा। कुत्ते से लड़ने लगा। बिल्ली तो भाग गई और कुत्तों में लड़ाई हो गयी।
बात बढ़ती चली गयी
कुत्ते जब आपस में बहुत देर तक लड़ते रहे और घायल हो गये, तो उन कुत्तों के मालिक आये। उन्होंने आपस में कहा कि तुम्हारे कुत्ते ने हमारे कुत्ते को काटा। दूसरे ने कहा कि तुम्हारे कुत्ते ने हमारे कुत्ते को काटा। उन्होंने कहा कि तुम्हारा कुसूर है, तुमने अपने कुत्ते को बाँधकर के क्यों नहीं रखा? दूसरे ने भी यही कहा कि तुमने अपने कुत्ते को बाँधकर के क्यों नहीं रखा? दोनों में टेंशन होने लगी और आपस में मारपीट हो गई। झगड़ा हो गया? फिर क्या हुआ? वे ब्राह्मण और ठाकुर थे। ब्राह्मणों को पता चला कि हमारे ब्राह्मण की ठाकुरों ने पिटाई कर दी, तो उन्होंने कहा ब्राह्मणों की बहुत बेइज्जती हो गई, चलो ठाकुरों पर हमला करेंगे। उधर ठाकुरों ने कहा कि चलो, ब्राह्मणों को ठीक करेंगे। उधर ब्राह्मणों ने कहा कि ठाकुरों का मुकाबला करेंगे। जो होगा देखा जायेगा।
फिर दोनों में बहुत जोरदार लड़ाई हुई। मारपीट और दंगा हो गया। दंगा हो गया, तो मुहल्ले में जो चोर और डाकू थे, उन्होंने कहा कि दंगा हो रहा है। इस समय हमें बड़ा बलवा खड़ा कर देना चाहिए और जो भी माल लूट- पाट में मिले, उसे लेकर के भाग जाना चाहिए। बस दंगा होते ही बहुत सारे दंगाई आ गये और सारे शहर में दंगा मचाने लगे और लूटपाट करने लगे। उन्होंने कहा कि इन गाँव वालों के पास क्या रखा है? सारा खजाना तो राजा के पास है। चलो राजा के पास चलें और उसका सारे का सारा खजाना लूटकर ले आयें। बस दंगाइयों ने राजा के खजाने पर धावा बोल दिया और राजा के खजाने में जो माल रखा था, सब चुराकर ले गये। सोना, चाँदी, नगीना आदि सब गायब हो गये।
अब पछताय होत क्या?
राजा जो था, वह बहुत दुःखी हुआ और बेचारा बैठकर रोने लगा। क्या हुआ? उन्होंने कहा कि राजा के सारे खजाने में जो लाखों रुपया रखा था, दंगाई आये, डकैत आये और लूट खसोट कर ले गये। फिर राजा के मंत्री आये और दूसरे लोग आये। उन्होंने कहा कि यह दंगा कैसे हो गया? बलवा कैसे हो गया? एक एक कमेटी बैठायी गयी और एक आयोग नियुक्त किया गया, जो इस बात की इन्क्वायरी करे कि दंगा होने की वजह क्या थी?
दंगा होने की वजह जब मालूम की गयी, तो यह मालूम हुआ कि जो दंगा हुआ था, इसलिए हुआ था कि ब्राह्मणों और ठाकुरों में लड़ाई हुई थी। फिर पता चला कि कुत्तों के मारे लड़ाई हो गयी। फिर यह पूछा गया कि कुत्तों की लड़ाई क्यों हुई? तब पता चला कि बिल्ली को पकड़ने के लिए कुत्ते आ गये थे, इसलिए यह हुआ। बिल्लियाँ कहाँ से आयीं? क्योंकि छिपकलियाँ आ गयीं थी और उन्होंने ऐसे गड़बड़ किया कि उन्हें पकड़ने के लिए बिल्ली आ गयी। फिर उन्होंने कहा कि अच्छा। छिपकलियाँ कहाँ से आयीं? उन्होंने कहा कि वहाँ मक्खियाँ भिन−भिना रही थीं और उन मक्खियों के भिनभिनाने की वजह? उन्होंने कहा राजा साहब ने जो शहद खाया था और शहद खाने में गलती कर डाली थी, बस उसी की वजह से यह सारा झगड़ा हो गया।
सारा ढाँचा विवेकशीलता पर टिका
मित्रो! हमारे जीवन में भी यही होता है। विवेकहीनता के कारण बिलकुल हमारे जीवन में भी यही घटना घटित होती रहती है। राजा बड़ा बेवकूफ और विवेकहीन था, क्योंकि उसने शहद सँभलकर नहीं खाया। शहद को सँभलकर खाया होता, तो मक्खियाँ क्यों आतीं? बिल्ली क्यों आती? छिपकलियाँ क्यों आतीं? कुत्ते क्यों आते? दंगा क्यों होता? और बलवा क्यों होता? और खजाने पर हमला क्यों बोला गया होता? छोटी सी भूल के कारण राजा अपना खजाना खो बैठा और छोटी सी हमारी भूल के कारण राजा अपना खजाना खो बैठा और छोटी सी हमारी भूल हमारे खजाने को खो बैठी। जरा सी बात थी, विवेक की बात थी। यह इशारा भर था कि हमारे जीवन में यह ख्याल बना रहता कि हम इंसान के रूप में जीवन लेकर के इस दुनिया में आये हैं और हमको ब्राह्मण वाले जीवन को ब्राह्मण की तरीके से खर्च करना चाहिए और इसके बदले में बहुमूल्य आनन्द और बहुमूल्य लाभ प्राप्त करना चाहिए। इतनी सी रत्ती भर बात अगर हमारे मन में सावधानी के रूप में बनी रहती, तो हमारी ये गतिविधियाँ कुछ अलग तरह की रहतीं और जिस तरह की गतिविधियाँ आज हमारी हैं, उस तरह का गंदा, कमीना जीवन जीने के लिए हमको मजबूर न करतीं। फिर हमारी ख्वाहिशें अलग तरह की होतीं, फिर हमारी इच्छाएँ अलग तरह की होतीं। फिर हमारी कामनाएँ अलग तरह की होतीं, फिर हमारी दिशाएँ अलग तरह की होतीं फिर हमारे सोचने का ढंग अलग तरह का होता। आज यह सब जैसा है, उसमें जमीन- आसमान का फर्क होता। हमारे विचार करने का ढंग, काम करने का ढंग अलग तरह का होता। यह सारे का सारा ढाँचा हमारी विवेकशीलता पर टिका हुआ है। विवेकवान बनकर ही हम अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं।
आज की बात समाप्त।
ॐ शान्तिः
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मन की साधना कैसे करें?
देवियो, भाइयो! मैंने आपको शरीर की साधना के दो माध्यम बताए हैं- आहार और विहार। वैसे ही मन की साधना के भी दो माध्यम हैं- एक का नाम है- विवेक और दूसरे का नाम है- साहस। साहस और विवेक- इनकी जितनी मात्रा हम अपने भीतर इकट्ठी करते हुए चले जाते हैं, उतना ही हमारा जीवन विभूतियों से- समृद्धियों से, ऋद्धियों से और सिद्धियों से भरता हुआ चला जाता है। मित्रो! इस सम्बन्ध में मैं आपको इतिहास की बात बताना चाहता हूँ, कुछ घटनाएँ सुनाना चाहता हूँ।
विवेकवान् की रीति−नीति
समर्थ गुरु रामदास के ब्याह की तैयारियाँ चल रही थीं। बुआ ने कहा कि उनका ब्याह तो जरूर होना चाहिए। अम्मा ने कहा- ‘‘मेरे बेटे का ब्याह नहीं होगा, तो काम कैसे चलेगा?’’ ढोलक बजायी जा रही थी और हल्दी चढ़ाई जा रही थी। घोड़ी चढ़ाने के लिए बारात निकाली और बारात वहाँ जा पहुँची बेटी वालों के यहाँ। बेटी वालों के यहाँ मंडप सजाया गया। समर्थ गुरु रामदास व्याह करने के लिए वहाँ जा पहुँचे। एक पुरोहित ने कहा कि महाराज! यहाँ ब्याह करने पर एक आवाज लगाई जाती है। उन्होंने कहा- ‘‘लड़का लड़की सावधान’’! लड़के ने कहा कि पल भर की देरी है, लेकिन सावधान क्यों कहा गया? अरे! जीवन के मोल का यही अंत? चार छोकरी- चार छोकरे और एक पंडित- ९। नौ ग्रह, नौ की दुहाई, नौ तरह की बीमारियाँ। मर जायेगा। अरे अभागे! दो तरीके से मारा जायेगा। इसीलिए भगवान् चिल्ला रहा है- सावधान! सावधान! अरे, दोनों तरफ की दिशाएँ क्या देख रहा है? एक तरफ चल और समर्थ गुरु रामदास ये भागे, वो भागे। लोगों ने बाजा बजाना बन्द कर दिया। वह गया, सो गया। बुआ ने कहा- बेवकूफ, अम्मा ने कहा पागल, बाप ने कहा- सिरफिरा, रिश्तेदारों ने कहा कि उल्लू है। सबने जाने क्या- क्या कहा। दुनिया वाले क्या- क्या कहते हैं, लेकिन विवेकवानों की विचार करने की शैली अलग होती है। वे अपना रास्ता अलग बनाते हैं और अपने रास्ते पर आप चला करते हैं।
पात्रता की अनिवार्यता
मित्रो! जो विवेकवान् लोग अपने रास्ते पर चले हैं, वे संसार के इतिहास में उज्ज्वल तारे की तरह टिमटिमाते रहे हैं और टिमटिमाते रहेंगे। यह परम्पराएँ पहले भी चलीं थीं और आगे भी चलती रहेंगी। मैंने आपको मन की, मस्तिष्क की, सूक्ष्म शरीर की उपासना के साथ साधना करने की विधि पहले भी बताई थी और विवेकशीलता को उसका एक अंग बताया था। एक दूसरा अंग है, पात्रता का विकास, व्यक्तित्व का विकास। इसके अभाव में सारी साधना, उपासना निष्फल चली जाती है।
एक बड़े सम्भ्रान्त व्यक्ति ने सुन रखा था कि संसार में सबसे बड़ा लाभदायक काम भगवान् का प्यार प्राप्त करना है। भगवान् सारी दुनिया का स्वामी है, मालिक है। सारी संपदाएँ और सारी सुविधाएँ उसके एक इशारे पर चलती रहती हैं। मनुष्य को भी जिन सुविधाओं की आवश्यकता है, जिन लाभों की जरूरत है, जिन वस्तुओं की जरूरत है, वह भगवान् के एक कृपांश के ऊपर, भगवान् के एक इशारे के ऊपर, इशारे की एक किरण के ऊपर टिके हुए हैं। भगवान् अगर हमसे नाराज हो जाये, तो हमारा अच्छा भला शरीर देखते ही देखते बरबाद हो जाये। गठिया आदि लग जाये, लकवा आदि हो जाये। हमारा सारा खाना- पीना भी बट्टे खाते में चला जाये। हमारी पढ़ाई- लिखाई सब बेकार चली जाये। सोलह वर्ष तक पढ़ाई की। एम.ए. की पढ़ाई की और डिवीजन खराब हो जाये, थर्ड डिवीजन पास हो जाये और नौकरी के लिए जगह न मिले। चपरासी के लिए मारा- मारा फिरना पड़े, तब? भगवान् की एक कृपा का कण यदि हमारे विरुद्ध हो जाये, तो हमारा सब कुछ चौपट हो जायेगा।
कैसे मिले भगवान् का प्यार
उस व्यक्ति को मालूम था कि भगवान् का प्यार पाना और भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करना मनुष्य के लिए जीवन का सबसे बड़ा लाभ है। उस लाभ को प्राप्त करने के लिए अपने समय के सबसे बड़े उदार संत और भगवान् के सबसे बड़े भक्त सुकरात के पास वह व्यक्ति गया और कहने लगा कि भगवन्! मुझे ऐसा उपाय बताइये, जिससे मैं भगवान् की कृपा प्राप्त कर सकूँ और भगवान् का साक्षात्कार कर सकूँ। भगवान् तक पहुँच सकूँ। सुकरात चुप हो गये। उन्होंने कहा कि फिर कभी देखा जायेगा। कई दिनों बाद वह व्यक्ति फिर आया। उसने कहा- ‘‘भगवन्! आपने भगवान् को देखा है और भगवान् का प्यार पाया है। क्या आप मुझे भी प्राप्त करा सकेंगे?’’ क्या भगवान् का अनुग्रह मेरे ऊपर न होगा? सुकरात ने कहा- ‘अच्छा तुम कल आना और मेरी एक सेवा करना, फिर मैं तुम्हें उसका मार्गदर्शन करूँगा।’ दूसरे दिन वह व्यक्ति सुकरात के पास पहुँचा। सुकरात ने मिट्टी का कच्चा वाला एक घड़ा पहले से ही मँगाकर रखा था। वह पकाया नहीं गया था, वरन् मिट्टी का बना हुआ कच्चा था। सुकरात ने कहा- ‘ बच्चे जाओ मेरे लिए एक घड़ा पानी लाओ और मैं उससे स्नान कर लूँ, पानी पी लूँ, पीछे मैं तुम्हारा मार्गदर्शन करूँगा।’
घड़ा पक्का होना चाहिए
कच्चा घड़ा लेकर वह व्यक्ति कुएँ पर गया। रस्सी बाँधी और रस्सी बाँधकर के उसको कुएँ में डुबोया। खींचते- खींचते घड़े का बहुत सारा हिस्सा, कोना टूट- फूट गया। किसी तरीके से थोड़ा- बहुत पानी लेकर वह घड़ा ऊपर आया। घड़े को उसने सिर पर रखा, हाथ पर रखा। सुकरात के पास उसे लेकर जब तक वह पहुँचा, मिट्टी का वह घड़ा बिखर गया। उसने सुकरात से कहा कि- भगवन्! जो घड़ा आपने मुझे पानी भरने के लिए दिया था वह रास्ते में ही बिखर गया। उन्होंने कहा- ‘ठीक यही फिलॉसफी भगवान् का प्यार प्राप्त करने और भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करने की है।’ कच्चा घड़ा अपने भीतर पानी को धारण नहीं कर सका। उसके लिए जरूरत इस बात की पड़ती है कि घड़ा पक्का हो। अगर हमारे पास पक्का घड़ा है, तो पानी भर जायेगा, ठंडा रहेगा, बेतकल्लुफ खड़ा रहेगा और पानी हमको मिल जायेगा। अगर घड़ा कच्चा है, तो पानी बिखर जायेगा। सुकरात ने यह बात उस व्यक्ति से कही।
संव्याप्त भ्रान्तियाँ
मित्रो! भगवान् को अपने भीतर धारण करने के लिए पक्का अर्थात् चरित्रवान, पक्का अर्थात् त्यागी, पक्का अर्थात् निष्ठावान्, पक्का अर्थात् व्यक्तित्व से सम्पन्न व्यक्ति होना चाहिए। यही हैं भगवान् की पूजा- उपासना के माध्यम। लेकिन क्या किया जाय? लोगों ने पिछले दिनों हमको गलत बातें बता दीं, गलत नियम सिखा दिये कि पूजा- उपासना के खेल जैसे कर्मकाण्ड भगवान् का प्यार प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं और हमारे जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करा सकते हैं। हमको अपने जीवन को सुधारने की आवश्यकता नहीं है। हमको अपने आपको महान बनाने की आवश्यकता नहीं है। हम केवल थोड़े से कर्मकाण्ड कर लिया करें, तो हमको शान्ति मिल जायेगी और हमको भगवान् का अनुग्रह मिल जायेगा। इस अज्ञान और भ्रम ने हमारा रास्ता भटका दिया और हम एक मंजिल पर चल सकते थे, थोड़ी दूर तक पहुँच सकते थे, उससे महरूम और वंचित रह गये।
तीर्थ स्नान से मिलेगी मन की शान्ति?
मित्रो! एक बार ऐसा हुआ- एक था मल्लाह। बहुत दुःखी बैठा हुआ था और कह रहा था कि मेरे मन में बड़ी अशांति है और मुझे बड़ा दुःख है। अब मुझे भगवान् की तरफ चलना चाहिए और भगवान् से शान्ति प्राप्ति करके लानी चाहिए। क्या किया जाय? क्या न किया जाय? उसके जी में आया कि तीर्थयात्रा के लिए चलना चाहिए और भगवान् के दर्शन करना चाहिए। उसकी स्त्री केशिका ने कहा कि पतिदेव! तीर्थयात्रा जाने से आपको शान्ति नहीं मिलेगी। शान्ति तो अपने भीतर भरी हुई पड़ी है। जब तक हम अपने भीतर के कपाट नहीं खोलेंगे, जब तक अपनी अंतरंग शान्ति के द्वार नहीं खोलेंगे, तब तक किस तरीके से आपको शान्ति मिल सकती है? बाहर शान्ति है कहाँ? जिसको तलाश करने के लिए आप जा रहे हैं? उसने कहना नहीं माना। उसने कहा कि मैं तो तीर्थयात्रा के लिए जाऊँगा और वहाँ से शान्ति लेकर के आऊँगा। मैं तो गंगा स्नान करूँगा और मैं तो जगन्नाथपुरी जाऊँगा और वहाँ से शान्ति ले करके आऊँगा। स्त्री ने मना किया, लेकिन उसका पति बड़ा दुःखी था और खिन्न था और उसको बहुत जल्दी भगवान् की कृपा प्राप्त करने की इच्छा थी।
पत्नी ने दी शिक्षा
वह तीर्थयात्रा की तैयारियाँ करने लगा। उसकी स्त्री केशिका भी साथ जाने के लिए तैयार हो गयी। उसने एक रूमाल में चार बैंगन बाँधकर रख दिए और जहाँ- जहाँ पतिदेव ने तीर्थयात्रा की, वहाँ- वहाँ वह स्वयं भी नहायी और पानी में बैंगनों को भी स्नान कराया। जहाँ- जहाँ दर्शन के लिए पतिदेव गये, वहाँ स्वयं भी दर्शन किया और उन चार बैंगनों को भी दर्शन कराया। सारे के सारे तीर्थ यात्रा करने के बाद उसका पति भी आ गया और केशिका भी आ गयी। जब घर आकर के बैठे, तब क्या हुआ कि उसने अपने पति के लिए भोजन बनाया। और वे चार बैंगन जो थे, जो कि सारे के सारे तीर्थों की यात्रा कर चुके थे और सब नदियों में स्नान कर चुके थे, उन बैंगनों की उसने साग बनाया। साग बनाकर पतिदेव की थाली में परोसकर रख दिया, तो पतिदेव को बड़ी दुर्गन्ध आयी।
पतिदेव ने कहा- अरे भागवान्! तूने यह क्या रख दिया? बदबू के मारे मेरी नाक सड़ी जा रही है और मुझे उल्टी होने वाली है। पत्नी ने कहा कि ये वह बैंगन हैं, जो चारों धाम की यात्रा करके आये हैं। ये वह बैगन हैं, जो भगवान् के जितने भी सारे तीर्थ हैं, उनके दर्शन करके आये हैं। इनमें तो सुगंध होनी चाहिए थी? इनमें तो स्वाद होना चाहिए था? उसने कहा- परन्तु इनमें न तो सुगंध है और न स्वाद है, तो मैं किस तरीके से मान लूँ? पत्नी ने कहा कि जब ये बैंगन सुगंध न प्राप्त कर सके, खुशबू प्राप्त न कर सके और स्वाद न प्राप्त कर सके, तो फिर यह तीर्थयात्रा आपको शान्ति दे पायेंगे क्या? भगवान् के दर्शन, कर्मकाण्ड आपको शान्ति दे पायेंगे क्या? मल्लाह के हृदय कपाट खुल गये और उसने अपने भीतर भगवान् को तलाश करना शुरू कर दिया और उसको शान्ति मिली।
गहराई में प्रवेश करें
मित्रो! भगवान्, जिसके आधार पर यह सारा विश्व टिका हुआ है और मानव की सारी उन्नति उसके कृपा कटाक्ष के ऊपर अवलम्बित है, उसको हमको तलाश करना चाहिए और प्राप्त करना चाहिए। मेरे जीवन का सारे का सारा समय इसी काम में समाप्त हो गया और मेरी साठ साल की जिन्दगी सिर्फ इसी काम में समाप्त हो गयी। भगवान् कहाँ है? और भगवान् को किस तरीके से प्राप्त किया जाये? हमको इसके बारे में थोड़ी गहराई तक जाना पड़ेगा, जैसे कि मुझे मेरे गुरुजी ने गहराई में धकेलने की कोशिश की। मैं चाहता हूँ कि आपको भी गहराई तक धकेल दूँ, ताकि आप वास्तविकता को समझ सकें।
मित्रो! एक बार ऐसा हुआ कि भगवान् जी की इच्छा हुई कि मेरा प्यारा मनुष्य इस पृथ्वी पर निवास करता है और उसके पास मैं चलूँ, उसके पास रहूँ और उसकी खोज- खबर लिया करूँ, उसको शिक्षा दिया करूँ। मैंने बड़ी उम्मीदों और तमन्नाओं से उसको बनाया था। मैं उसको रास्ता बताऊँगा, उसको उसके कर्तव्य बताऊँगा और उसको यह बताऊँगा कि मनुष्य का जीवन कितना महान है और मनुष्य के जीवन से क्या किया जा सकता है? भगवान् जो कार्य स्वयं करता है, उसको मानव भी स्वयं कर सकता है, मैं जा करके ऐसा शिक्षण मनुष्य को दूँगा।
भगवान् आए धरती पर
इसी उद्देश्य से भगवान् पृथ्वी पर आने की तैयारियाँ करने लगे। लक्ष्मी जी ने कहा ‘अरे! आप तो बेकार परेशान हो रहे हैं। मनुष्य तो आपके काम का रहा नहीं। मनुष्य बड़ा चालाक हो गया है और मनुष्य बहुत छोटा हो गया है, बड़ा संकीर्ण हो गया है। उसके पास जाने से आपको कोई फायदा नहीं।’ भगवान् ने कहा- ‘‘नहीं, मनुष्य तो हमारा बच्चा है। हम तो जायेंगे और मनुष्य के पास रहेंगे और उसको रास्ता बतायेंगे और कर्तव्य बताएँगे।’’ भगवान् जी बैकुण्ठलोक से रवाना हो गये और पृथ्वी पर आये। पृथ्वी पर निवास करने लगे। लोगों से कहा- ‘‘मनुष्यो! हमने तुमको बनाया है और एक काम के लिए बनाया है। उस काम के लिए हम आपको शिक्षा देंगे और आपके दुःखों को दूर करेंगे। शान्ति के लिए आगे बढ़ाएँगे।’’ भगवान् ने मनुष्यों से यह बात कही। मनुष्य आये और भगवान् के पास घूमने लगे, चक्कर काटने लगे। भगवान् उनको ज्ञान की बातें बताने लगे, शिक्षा की बात बताने लगे। आत्मकल्याण की बात बताने लगे। परोपकार की बात बताने लगे। सेवा की बात बताने लगे। लेकिन मनुष्यों ने उसको सुनने से इंकार कर दिया।
मनोकामनाओं की लिस्ट
मनुष्यों ने कहा- ‘‘भगवान् जी! इन बातों की हमको जरूरत नहीं है।’’ तो फिर किस बात की जरूरत है? उन्होंने कहा कि महाराज जी! आप तो बतायें कि हमको खाँसी आ जाती है। हमको बुखार आ जाता है। आप हमारा बुखार अच्छा कर दीजिए। किसी ने कहा कि महाराज जी! हमारे ऊपर मुकदमा चल रहा है और आप मुकदमा ठीक करा दीजिए। किसी ने कहा कि महाराज जी! हमारा ब्याह नहीं हुआ है और हमारी इतनी उमर हो गयी और हमको अच्छी से अच्छी लड़की नहीं मिलती। किसी ने कहा कि महाराज जी! हमारी कन्या बाईस साल की हो गयी है। हम उसके लिए लड़का ढूँढ़ते हैं, मिलता नहीं। लोग ज्यादा से ज्यादा दहेज माँगते हैं। किसी ने कहा कि महाराज जी! हमारा ये काम करा दीजिये, वो काम करा दीजिये। भगवान् ने कहा- ‘‘लोगो! यह तुम्हारा काम है। हमारा काम नहीं है’’ लोगों ने कहा कि महाराज जी! यही आपके काम हैं और आप ही यह काम किया कीजिए।
भगवान् को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने कहा कि हम ज्ञान देने के लिए आये थे, मनुष्य जीवन का उद्देश्य बताने के लिए आये थे और शान्ति देने के लिए आये थे और आगे बढ़ाने के लिए आये थे। और ये कमबख्त ऐसे बेवकूफ हैं कि अपने दैनिक जीवन की जो छोटी- मोटी सी आवश्यकताएँ हैं, समस्याएँ हैं, जिनको कि आदमी अपनी अकल को सही रख करके आसानी से पूरी कर सकता है, समस्याएँ हल कर सकता है, उसको हमसे माँगता है। ये आदमी बड़े खराब हैं। भगवान् नाराज हो गये और उन्होंने अपना बिस्तर उठाया, अपना सामान उठाया, अटैची उठायी और चलने लगे।
पहाड़ पर प्रभु। वहाँ भी पहुँचा मानव
भगवान् जी को गुस्सा आया, तो उन्होंने विचार किया कि ऐसी जगह चलना चाहिए जहाँ कोई पहुँच न सके। सो वे पहाड़ के ऊपर चले गये। वे कैलाश पर्वत पर रहने लगे। लोगों ने कहा कि भगवान् जी को तलाश करना चाहिए और वहाँ चलना चाहिये और अपनी दिक्कतें बतानी चाहिए और वहीं से आशीर्वाद लाना चाहिए। भगवान् जी कैलाश पर्वत पर मानसरोवर के पास बैठे हुए थे। बस, लोगों ने रास्ता ढूँढ़ा। कौन सा रास्ता है? नैनीताल के पास से जाता है, अल्मोड़ा के पास से जाता है। तिब्बत तक का रास्ता ढूँढ़ते हुए पहाड़ों पर होते हुए कैलाश पर्वत तक वे जा पहुँचे। भगवान् ने कहा कि धक्के खाकर के मनुष्य मेरे पास आ गया, चलो अच्छा हुआ।
भगवान् ने कहा- ‘‘बच्चों! तुम्हारे पास सारी शक्तियाँ हैं और सारी सुविधाएँ है, जो मैंने तुम्हारे भीतर दबाकर रख दी हैं। तुमको उन्हें अपने भीतर तलाश करना चाहिए और तुमको अपना जीवन अच्छा बनाना चाहिए। जैसे ही तुम अपना जीवन अच्छा बनाओगे, सारी ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ, सारे सुख और सारी सुविधाएँ अनायास ही आती हुई चली आयेंगी।’’ लोगों ने कहा कि महाराज जी! यह तो बड़े झगड़े का काम है और बहुत झंझट का काम है। हम अपने आपको कैसे सिद्ध करेंगे और कैसे मन को नियंत्रित करेंगे? और कैसे इन्द्रियों का निग्रह करेंगे? सेवा के लिए हम मन कहाँ से लायेंगे और ऐसे कैसे करेंगे? यह हमसे नहीं हो सकता और हम नहीं करेंगे। भगवान् ने कहा- ‘फिर क्या करोगे?’ हम तो महाराज जी! बस आपका आशीर्वाद माँगेंगे और अपना फायदा करायेंगे आपसे।
क्षुद्र और क्षुद्रतम हम
भगवान् जी को फिर गुस्सा आया। उन्होंने कहा कि हम इसीलिए तो भाग करके यहाँ आये थे। हमने तुमको सारी विद्याएँ दे दीं, मजबूत कलाइयाँ दे दीं, अक्ल दे दी, सब काम कर दिया और इस लायक बना दिया कि अपने इस शरीर की जरूरतों को स्वयं पूरा कर लिया करो। और तुम हो कि शरीर की जरूरतों को भी पूरा कराने के लिए हमारे पास चले आते हो। यह बड़ी खराब बात है। हम तो तुम्हारी आत्मा को बढ़ायेंगे। लोगों ने कहा कि आत्मा को बढ़ाने की जरूरत नहीं है। हम तो आपसे अपने शरीर की चीजों को माँगेंगे। भगवान् जी को फिर नाराजगी हुई और वे फिर वहाँ से भाग खड़े हुए।
समुद्र में पहुँचे भगवान्
इस बार भगवान् वहाँ से भागकर समुद्र में जा पहुँचे। और कहा कि देखें अब यहाँ मनुष्य कहाँ से आ जायेंगे? द्वारिका के पास बेट द्वारिका नाम की एक जगह है, बस भगवान् वहाँ जा पहुँचे। वह चारों ओर से समुद्र से घिरा हुआ पड़ा था। चारों ओर समुद्र था और बीच में एक टापू था। बस, भगवान् जी वहाँ बैठ गये और वहीं रहने लगे। उन्होंने कहा कि देखें अब हमारे पास मनुष्य कहाँ से आ जायेगा? अब वह हमको खामख्वाह तंग नहीं करेगा। एक बार उनका मन आया कि अपने घर चलना चाहिए लक्ष्मी जी के पास, पर यह अपना वीक प्वाइंट था, क्योंकि लक्ष्मी जी से यह कह करके आये थे कि हम मनुष्यों के पास रहेंगे। और लक्ष्मी जी ने कह दिया था कि आपको वहाँ नहीं जाना चाहिए। मनुष्य बड़े निकम्मे हो गये हैं और अपने ही धंधे में फँस गये हैं। वे अपने जीवन के लक्ष्य को भूल गये हैं। वे आपकी बात सुनेंगे नहीं। एक बार उन्होंने फिर सोचा कि चलो लक्ष्मी जी के पास चलें, मनुष्यों को छोड़ दें। फिर उन्होंने कहा कि भाई! यह तो बड़े शर्म की बात है और उनके सामने नाक नीची करने से क्या फायदा? यहीं रहना चाहिए। भगवान् जी बेट द्वारिका में रहने लगे।
पशोपेश में भगवान्
मित्रो! लोगों को जब यह पता चला कि भगवान् जी द्वारिका में निवास करते हैं, तो उन्होंने नावें बना लीं, बोट बना लिए और भाग- भागकर वहीं जा पहुँचे। भगवान् ने कहा- ‘‘अब क्या करना चाहिए? पहाड़ पर वे छोड़ने वाले नहीं, जमीन पर वे छोड़ने वाले नहीं। समुद्र में भागकर आये तो भी इनसे पिण्ड नहीं छूटा। अब क्या करना चाहिए।’’ भगवान् जी बहुत दुःखी हो रहे थे, परेशान हो रहे थे और उनकी आँखों से बहुत आँसू आ रहे थे। उन्होंने कहा- ‘‘भाइयो! घर जाते हैं तो ठिकाना नहीं और इनके पास रहते हैं, तो ठिकाना नहीं। अब क्या करना चाहिए? अपनी कोई जगह बनानी चाहिए, जहाँ हम पृथ्वी पर भी बने रहें और लक्ष्मी जी के सामने बेइज्जती भी न हो। हम जमीन पर भी बने रहें और जो अच्छे मनुष्य हमको पाना चाहें, तो आसानी से पा भी सकें। ऐसी जगह भी न चुनी जाय कि कोई अच्छा मनुष्य चाहता हो कि हमको भगवान् मिल जायँ और हम उसे मिल न सकें। ऐसी जगह कहाँ तलाश करें।’’
विवेक का हो जागरण, तो हो कल्याण
इससे पूर्व के अंक में आप पढ़ चुके हैं कि साहस और विवेक, पात्रता संवर्धन तथा आत्म चिन्तन, जिसने इन चार पर गंभीरता पूर्वक ध्यान दिया, उसका जीवन बदलता चला गया। जिसने इनकी उपेक्षा की, वह पिछड़ता चला गया। हम गहराई तक प्रवेश करें और ढूँढ़ें अनन्त शक्ति एवं शान्ति के स्रोत को। इस सम्बन्ध में परम पूज्य गुरुदेव ने एक रोचक कथानक सुनाया है जिसका आधा हिस्सा आप पढ़ चुके हैं। भगवान् ज्ञान बाँटने धरती पर आए पर मनोकामनाओं की लिस्ट लिए आदमी उनसे आशीर्वाद माँगने लगा। घबराए वे पहाड़ पर पहुँचे, मनुष्य वहाँ भी चला गया। क्षुद्र मनुष्य समुद्र में भी पहुँच गया, जब उसे पता चला कि अब भगवान् का डेरा वहाँ है। असमंजस में पड़े भगवान् को अब एक ही सहारा था। इस कथानक का व इस व्याख्यान का भी, अब उत्तरार्द्ध आगे पढ़ें।
देवर्षि से भेंट
मित्रो! भगवान् जी ऐसी एकांत जगह तलाश करने के लिए सिर खुजला रहे थे, जहाँ कोई पहुँच न सके। इतनी देर में वीणा बजाते हुए कहीं से नारद जी आ गये। उन्होंने कहा कि महाराज जी! आज आपको क्या हुआ? कोई जुकाम, बुखार हो गया है क्या? भगवान् जी ने कहा- ‘‘नहीं नारद जी! जुकाम- बुखार तो कुछ नहीं हुआ।’’ फिर क्या हुआ? कोई लड़ाई- झगड़ा हुआ? नहीं, कोई लड़ाई- झगड़ा नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि लड़ाई- झगड़ा भी नहीं हुआ, तो फिर किस्सा क्या है? आप दुःखी क्यों बैठे हुए हैं? भगवान् ने कहा कि हम लोगों के पास आये थे और उन्हें कल्याण का रास्ता बताना चाहते थे। उन्हें सुख और शान्ति का मार्ग बताना चाहते थे। उनको स्वर्ग और मुक्ति का आनन्द देना चाहते थे और उनको महामानव बनाना चाहते थे। हम उनको यह बताना चाहते थे कि इन्सान भगवान् का बेटा है और भगवान् के तरीके से उसको दुनिया में शान से रहना चाहिए। भगवान् के पास जो आनन्द है, उसका पूरा- पूरा लाभ उठाना चाहिए।
सही स्थान की तलाश
भगवान् ने कहा ‘‘नारद जी! हम इनको यही सिखाने के लिए आये थे, लेकिन ये मनुष्य बड़े निकम्मे हैं और बड़े स्वार्थी हैं। ये केवल छोटी- छोटी चीजों के लिए ख्वाहिश करते हैं और बड़ी- बड़ी चीजों के लिए इनका मन नहीं है। मैं इनके पास नहीं रहूँगा। भाग जाऊँगा और इनसे दूर रहूँगा; लेकिन मैं अपने घर नहीं जाना चाहता। नारद जी! मैं ऐसी जगह तलाश करना चाहता हूँ, जहाँ मैं बना भी रहूँ, पृथ्वी पर भी रहूँ और मेरा मनुष्यों से सम्बन्ध भी बना रहे। लेकिन मैं दिखाई भी न पड़ूँ। ऐसी जगह मुझे चाहिए, जो दिखाई न पड़े, समुद्र में गया, तो वहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया, यहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया। पहाड़ पर गया, तो वहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया और जमीन पर था, तो वहाँ भी मुझे पकड़ लिया। अब अगर तुम्हारे दिमाग में हो, तो ऐसी जगह बताओ- जहाँ मैं आराम से छिपा बैठा रहूँ और कोई आदमी चाहे, तो आसानी से वह मुझ तक पहुँच सके। ऐसा भी न हो जाये कि चाहने वाला कोई आदमी पहुँच भी न सके और ऐसा भी न हो कि लोग मुझे आसानी से पकड़ लें और तंग करने लगें। ऐसा स्थान बता दीजिए।’’
आज तक वहीं पर हैं भगवान्
नारद जी ने कहा- ‘‘वाह! भगवन्! आपको इतना भी नहीं मालूम? इतनी बढ़िया जगह है, मैं अभी आपको बताता हूँ। भगवान् जी को नारद जी ने जगह बता दी और भगवान् जी उस दिन के बाद से आज तक उसी जगह पर विराजमान हैं। न वहाँ से हटे, न वहाँ से चले, बिलकुल वहीं बैठे रहते हैं। जमीन पर रहते हैं और वहाँ आसानी से आदमी पहुँच सकता है और जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है। भगवान् से वार्तालाप कर सकता है और भगवान् के पास रहने का बहुत फायदा उठा सकता है। तब से लेकर अब तक भगवान् वहीं बैठे हुए हैं। आप पूछना चाहेंगे गुरु जी! हमें भी बता दीजिये। बता दूँ आपको? नहीं, आप किसी से कहना मत। कहेंगे तो नहीं किसी से? कह देंगे, तो नहीं बताऊँगा। कहना मत। नहीं तो सबको मालूम पड़ जायेगा। वे सब वहीं पहुँच जायेंगे और भगवान् जी बहुत नाराज होंगे। वे कहेंगे कि हमने तो अपने को छिपाकर ऐसी जगह रखा था, जहाँ नारद जी ने हमसे कहा था, उन्होंने कहा था कि कोई आदमी आप तक नहीं आएगा। लोग दुनिया में चक्कर काटते रहेंगे और कोई आप तक पहुँच ही नहीं सकेगा।’’
वह तो तेरे पास रे
मित्रो! मैं आपको जगह बता दूँ, तो आप पहुँचेंगे? नहीं पहुँचेंगे। पहुँचना भी मत, अगर वहाँ पहुँच जायेंगे, तो भगवान् जी बहुत नाराज होंगे। जहाँ भगवान् जी रहते हैं, वह जगह मैं बताये देता हूँ। आप जब चाहें, उन्हें पा सकते हैं। आप जब चाहें, उनसे मिल सकते हैं और जब चाहें तो बात भी हो सकती है। भगवान् जी का द्वार खुला हुआ है, पर है ऐसा कि भगवान् दिखाई नहीं पड़ता वह जगह ऐसी है, जो आदमी की पकड़ में नहीं आती है और पता भी नहीं चलता है। आपको बताऊँ, कहाँ है वह जगह? अच्छा! आपको बताये देता हूँ, आप किसी से मत कहना, नहीं तो और लोग पहुँच जायेंगे। वह जगह है इन्सान का दिल- हृदय। इन्सान के हृदय में- दिल में भगवान् बैठा हुआ है। वह कहीं बाहर नहीं है। जब कभी भी किसी को भी भगवान् मिला है, अपने हृदय के भीतर मिला है। वह बाहर दुनिया में नहीं है वह। बाहर दुनिया में केवल प्रकृति है, पंचभूत हैं, जड़ पदार्थ हैं। बस, और कुछ नहीं। बाहर की दुनिया में शान्ति नहीं है। वस्तुओं में शान्ति नहीं है? वस्तुओं में कोई शान्ति नहीं है। पदार्थों में कोई शान्ति नहीं है।
शान्ति वहाँ नहीं है
मित्रो! सुख- सुविधाओं में शान्ति है? नहीं, सुख- सुविधाओं में कोई शान्ति नहीं है। सुख- सुविधाओं में शान्ति रही होती, तो रावण ने शान्ति प्राप्त कर ली होती। क्यों? क्योंकि उसके पास बहुत सुविधाएँ थीं। उसके पास सोने के अम्बार लगे हुए थे और उसका मकान सोने का बना हुआ था। संतान? संतान के द्वारा अगर दुनिया में शान्ति मिली होती, तो रावण के एक लाख पूत और सवा लाख नाती अर्थात्, सवा दो लाख थे। सवा दो लाख संतान पाने के बाद में रावण जरूर सुखी हो गया होता। मित्रो! जिन चीजों के बारे में लोगों का यह सवाल है कि यह चीजें हमको मिल जायें, तो हम सुखी बन सकते हैं। वह वास्तव में ईमानदारी की बात है कि कोई सुख दे नहीं सकते। विद्या हमको मिल जाये, हम एम.ए. पास हो जायें, फर्स्ट डिवीजन में पास हो जायें, पी- एच.डी. हो जायें, नौकरी मिल जाये और हम बड़े विद्वान हो जायें, तो हम दुनिया में शान्ति पा सकते हैं? यह नामुमकिन है।
विद्वान पर खोखला व्यक्ति
साथियो! रावण बहुत विद्वान था। ज्यादा पढ़ा हुआ था। उसके पास कोई कमी नहीं थी। कोई आदमी बलवान हो जाये, ताकतवर हो जाये, तो उसे शान्ति मिल जायेगी? सुविधा मिल जाये, तो चैन मिल जायेगा? नहीं, न शान्ति मिल सकती और न चैन मिल सकता है। रावण बहुत ताकतवर था, बहुत बलवान था और उसकी कलाइयों में बहुत बल था। वह बड़ा संपन्न था। उसके पास न विद्या की कमी थी, न पैसे की कमी थी, न ताकत की कमी थी, न पुरुषार्थ की कमी थी। किसी चीज की कमी नहीं थी। पर बेचारा शान्ति नहीं पा सका। और जब मरने का समय आया, तब उसके शरीर में हजारों छेद बने हुए विद्यमान थे। जब लक्ष्मण जी ने रामचंद्र जी से यह पूछा कि महाराज! आपने जब रावण को मारा था, तब आपने एक ही तीर चलाया था न? हाँ, हमने तो एक ही तीर चलाया था। तो रावण के शरीर में एक ही निशान होना चाहिए, एक ही घाव होना चाहिए, लेकिन उसकी जो लाश पड़ी हुई है, उसमें तो जहाँ तहाँ हजारों छेद हैं। यह कैसे हुआ? रावण को इतने तीर किसने मारे? इतने छेद किसने कर दिए? इतने सुराख इसमें कैसे हो गए? किस तरीके से इन सूराखों से खून बह रहा है। आपने तो एक ही तीर मारा था? हाँ, हमने एक ही तीर मारा था। तो ये हजारों तीर किस तरीके से लगे? रामचंद्र जी ने बताया कि ये जो हजारों छेद हैं, रावण के पाप हैं, रावण के गुनाह हैं। रावण की कमजोरियाँ, रावण का घटियापन एवं रावण का कमीनापन है, जिसने कि उसके सारे शरीर में छेद कर डाले और उसका सारे का सारा व्यक्तित्व खराब कर दिया।
गलत मार्ग पर चलने की परिणति
रामायण में भी यही बात आती है कि आदमी बहुत कमजोर होता है। आदमी का रूहानी बल, उसका चरित्र, उसकी महानता और आत्मा कमजोर हो जाये, तो आदमी बहुत कमजोर हो जाता है। रावण बहुत ही बलवान था। काल को उसने अपनी पाटी से बाँध रखा था। वह इतना जबरदस्त था कि उसने सब देवताओं को पकड़ लिया था। सोने की लंका बनाई। समुद्र पर काबू पाया, लेकिन एक समय रावण बहुत ही कमजोर हो गया और बहुत ही दुबला हो गया। बहुत ही कमजोर हो गया। कब? जब कि वह सीता जी का हरण करने को गया। सीताजी का हरण करने को बेचारे को बहुत ढोंग रचाने पड़े। भिखारी का रूप बनाना पड़ा। रावण भिखारी क्यों बना? रावण के दरवाजे पर तो अनेक भिखारी पड़े रहते थे। उसे क्यों बनना पड़ा और यह भी इधर- उधर देखकर के, कि कोई मुझे देख तो नहीं रहा? इस तरीके से रावण चला। रावण की दशा बहुत ही दयनीय थी। क्यों? क्योंकि उसने गलत रास्ते पर कदम रखने शुरू किये थे-
‘जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नींद दिन अन्न न खाहीं।’
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥
अर्थात् व्यक्ति यदि गलत रास्ते पर कदम उठाना शुरू कर देता है, तो उसका तेज, बल और बुद्धि- सारे के सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं- इनका सफाया हो जाता है।
हम तो लुट गये
मित्रो! हमारे जीवन की महानतम भूल यही है कि हमको जिस काम के लिए जीवन मिला था, ऐसा उज्ज्वल जीवन जीने के लिए मिला था, उसके बारे में हम बेखबर होते हुए चले गए। हमने वह सारी की सारी चीजें भुला दीं, जिसे भगवान् ने हमको जन्म के समय सौंपी थीं। हम छोटी- छोटी चीजों में उलझ गये और हमारे जीवन का जो महत्त्व और जो लाभ मिलना चाहिए था, वह न मिल सका। हम दुनिया में आकर के लुट गये, बरबाद हो गये। भगवान् के यहाँ से हम कितनी बड़ी दौलत लेकर के आये थे। अपरिमित शक्तियों के भण्डार बनकर के हम आये थे। हमारी आँखों में सूरज, चाँद थे। हमारे सारे शरीर में सारे के सारे देवताओं का निवास था। शक्ति की देवी का हमारे शरीर में निवास है। गणेश जी का निवास हमारे मस्तिष्क में है और सरस्वती का निवास हमारी जिह्वा पर है। हमारे हृदय में चार मुख वाले ब्रह्माजी, नाभि में शंकर भगवान्- इन सारे के सारे देवताओं का निवास हमारे शरीर में है। देवताओं के निवास से भरा हुआ ऐसा शरीर हमको मिला, लेकिन इस देवताओं से भरे हुए शरीर का जो लाभ हमको उठाना चाहिए था, जो फल उसका लेना चाहिए था, हम वह फल लेने से वंचित रह गए। हमारी यह छोटी सी भूल जीवन के उद्देश्य को भूला देने के सम्बन्ध में हुई।
गलत सोच बैठी रही मन में
जीवन के उद्देश्य के बारे में हमको यही याद बनी रही, जो कि हमारे मुहल्ले वालों और पड़ोसियों ने कहा। उन्होंने कहा कि मनुष्य खाने- पीने के लिए पैदा हुआ है और मनुष्य कुछ चीजें इकट्ठी करने के लिए पैदा हुआ है। मनुष्य इंद्रियों के लाभ और इंद्रियों की सुविधाएँ इकट्ठी करने के लिए पैदा हुआ है और मनुष्य नाम और यश कमाने के लिए पैदा हुआ है। मनुष्य अपना बड़प्पन, अपना गौरव, अपना आतंक दूसरे लोगों के ऊपर जमाने के लिए पैदा हुआ है। मुहल्ले वालों ने हमसे यही कहा, पड़ोसियों ने हमसे यही कहा और रिश्तेदारों ने हमसे यही बात कही। यह बातें हमारे दिमाग के ऊपर हावी होती गयीं और पूरी तरह सवार हो गयीं। हमने उसी बात को सही मान लिया और सारी जिंदगी को उसी ढंग से खर्च करना शुरू कर दिया।
एक चूक का परिणाम कितना बड़ा
मित्रो! हमारी इतनी बड़ी भूल जो कि इस चौराहे पर आकर हमको मालूम हुई। हमारी एक भूल- चूक हो गई। ऐसी ही एक भूल कलिंग देश के एक राजा ने की थी। कलिंग देश का एक राजा था। एक बार उसको जलपान के समय- नास्ते के समय मधुपर्क दिया गया अर्थात् दही और शहद दिया गया। दही और शहद को अच्छे तरीके से खाना चाहिए था, तमीज के साथ खाना चाहिये था लेकिन तमीज के साथ उसने शहद नहीं खाया। इधर- उधर देखता रहा, बात करता रहा और शहद खाता रहा। इस तरह शहद खाने से क्या हुआ? आधा शहद प्याले में गया, आधा खा चुका और आधा शहद जमीन पर फैल गया। इसके बाद कलिंग राजा चला गया।
कलिंग राजा जब चला गया तो थोड़ी देर में जो शहद वहाँ फैल गया था वहाँ मक्खियाँ आयीं और आकर के शहद खाने लगीं। वहाँ बहुत सी मक्खियाँ मँडरा रहीं थी। उसी समय एक छिपकली आयी और मक्खियों को खाने का अंदाज लगाने लगी। फिर एक और छिपकली आयी। जब कई छिपकलियाँ इकट्ठी होने लगीं, तो एक बिल्ली आई। बिल्ली ने कहा कि ये छिपकलियाँ बहुत गड़बड़ करती हैं चलो इन्हें खाना चाहिए। इनको खाने में मजा मिलेगा। बस, मक्खियों को खाने के लिए छिपकलियाँ तैयारी करने लगी थीं और छिपकलियों को खाने के लिए बिल्ली। बिल्ली जैसे ही उन्हें खाने के लिए आई वैसे ही कहीं से एक कुत्ता आ गया। उसने कहा कि यह बिल्ली बहुत अच्छी है। इसको मजा चखाना चाहिये। इसकी टाँग पकड़ लेनी चाहिए। बस, कुत्ता आया और उसने बिल्ली की टाँग पकड़ ली। कान पकड़ लिया और बिल्ली के बाल नोचने लगा। जब तक एक और कुत्ता आ गया और उस कुत्ते के ऊपर बिगड़ने लगा। कुत्ते से लड़ने लगा। बिल्ली तो भाग गई और कुत्तों में लड़ाई हो गयी।
बात बढ़ती चली गयी
कुत्ते जब आपस में बहुत देर तक लड़ते रहे और घायल हो गये, तो उन कुत्तों के मालिक आये। उन्होंने आपस में कहा कि तुम्हारे कुत्ते ने हमारे कुत्ते को काटा। दूसरे ने कहा कि तुम्हारे कुत्ते ने हमारे कुत्ते को काटा। उन्होंने कहा कि तुम्हारा कुसूर है, तुमने अपने कुत्ते को बाँधकर के क्यों नहीं रखा? दूसरे ने भी यही कहा कि तुमने अपने कुत्ते को बाँधकर के क्यों नहीं रखा? दोनों में टेंशन होने लगी और आपस में मारपीट हो गई। झगड़ा हो गया? फिर क्या हुआ? वे ब्राह्मण और ठाकुर थे। ब्राह्मणों को पता चला कि हमारे ब्राह्मण की ठाकुरों ने पिटाई कर दी, तो उन्होंने कहा ब्राह्मणों की बहुत बेइज्जती हो गई, चलो ठाकुरों पर हमला करेंगे। उधर ठाकुरों ने कहा कि चलो, ब्राह्मणों को ठीक करेंगे। उधर ब्राह्मणों ने कहा कि ठाकुरों का मुकाबला करेंगे। जो होगा देखा जायेगा।
फिर दोनों में बहुत जोरदार लड़ाई हुई। मारपीट और दंगा हो गया। दंगा हो गया, तो मुहल्ले में जो चोर और डाकू थे, उन्होंने कहा कि दंगा हो रहा है। इस समय हमें बड़ा बलवा खड़ा कर देना चाहिए और जो भी माल लूट- पाट में मिले, उसे लेकर के भाग जाना चाहिए। बस दंगा होते ही बहुत सारे दंगाई आ गये और सारे शहर में दंगा मचाने लगे और लूटपाट करने लगे। उन्होंने कहा कि इन गाँव वालों के पास क्या रखा है? सारा खजाना तो राजा के पास है। चलो राजा के पास चलें और उसका सारे का सारा खजाना लूटकर ले आयें। बस दंगाइयों ने राजा के खजाने पर धावा बोल दिया और राजा के खजाने में जो माल रखा था, सब चुराकर ले गये। सोना, चाँदी, नगीना आदि सब गायब हो गये।
अब पछताय होत क्या?
राजा जो था, वह बहुत दुःखी हुआ और बेचारा बैठकर रोने लगा। क्या हुआ? उन्होंने कहा कि राजा के सारे खजाने में जो लाखों रुपया रखा था, दंगाई आये, डकैत आये और लूट खसोट कर ले गये। फिर राजा के मंत्री आये और दूसरे लोग आये। उन्होंने कहा कि यह दंगा कैसे हो गया? बलवा कैसे हो गया? एक एक कमेटी बैठायी गयी और एक आयोग नियुक्त किया गया, जो इस बात की इन्क्वायरी करे कि दंगा होने की वजह क्या थी?
दंगा होने की वजह जब मालूम की गयी, तो यह मालूम हुआ कि जो दंगा हुआ था, इसलिए हुआ था कि ब्राह्मणों और ठाकुरों में लड़ाई हुई थी। फिर पता चला कि कुत्तों के मारे लड़ाई हो गयी। फिर यह पूछा गया कि कुत्तों की लड़ाई क्यों हुई? तब पता चला कि बिल्ली को पकड़ने के लिए कुत्ते आ गये थे, इसलिए यह हुआ। बिल्लियाँ कहाँ से आयीं? क्योंकि छिपकलियाँ आ गयीं थी और उन्होंने ऐसे गड़बड़ किया कि उन्हें पकड़ने के लिए बिल्ली आ गयी। फिर उन्होंने कहा कि अच्छा। छिपकलियाँ कहाँ से आयीं? उन्होंने कहा कि वहाँ मक्खियाँ भिन−भिना रही थीं और उन मक्खियों के भिनभिनाने की वजह? उन्होंने कहा राजा साहब ने जो शहद खाया था और शहद खाने में गलती कर डाली थी, बस उसी की वजह से यह सारा झगड़ा हो गया।
सारा ढाँचा विवेकशीलता पर टिका
मित्रो! हमारे जीवन में भी यही होता है। विवेकहीनता के कारण बिलकुल हमारे जीवन में भी यही घटना घटित होती रहती है। राजा बड़ा बेवकूफ और विवेकहीन था, क्योंकि उसने शहद सँभलकर नहीं खाया। शहद को सँभलकर खाया होता, तो मक्खियाँ क्यों आतीं? बिल्ली क्यों आती? छिपकलियाँ क्यों आतीं? कुत्ते क्यों आते? दंगा क्यों होता? और बलवा क्यों होता? और खजाने पर हमला क्यों बोला गया होता? छोटी सी भूल के कारण राजा अपना खजाना खो बैठा और छोटी सी हमारी भूल के कारण राजा अपना खजाना खो बैठा और छोटी सी हमारी भूल हमारे खजाने को खो बैठी। जरा सी बात थी, विवेक की बात थी। यह इशारा भर था कि हमारे जीवन में यह ख्याल बना रहता कि हम इंसान के रूप में जीवन लेकर के इस दुनिया में आये हैं और हमको ब्राह्मण वाले जीवन को ब्राह्मण की तरीके से खर्च करना चाहिए और इसके बदले में बहुमूल्य आनन्द और बहुमूल्य लाभ प्राप्त करना चाहिए। इतनी सी रत्ती भर बात अगर हमारे मन में सावधानी के रूप में बनी रहती, तो हमारी ये गतिविधियाँ कुछ अलग तरह की रहतीं और जिस तरह की गतिविधियाँ आज हमारी हैं, उस तरह का गंदा, कमीना जीवन जीने के लिए हमको मजबूर न करतीं। फिर हमारी ख्वाहिशें अलग तरह की होतीं, फिर हमारी इच्छाएँ अलग तरह की होतीं। फिर हमारी कामनाएँ अलग तरह की होतीं, फिर हमारी दिशाएँ अलग तरह की होतीं फिर हमारे सोचने का ढंग अलग तरह का होता। आज यह सब जैसा है, उसमें जमीन- आसमान का फर्क होता। हमारे विचार करने का ढंग, काम करने का ढंग अलग तरह का होता। यह सारे का सारा ढाँचा हमारी विवेकशीलता पर टिका हुआ है। विवेकवान बनकर ही हम अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं।
आज की बात समाप्त।
ॐ शान्तिः