Books - महाकाल की चेतावनी अनसुनी न करें
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Language: HINDI
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महाकाल की चेतावनी अनसुनी न करें!
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इस समय आपको भगवान् का काम करना चाहिए। दुनिया में कोई व्यक्ति भगवान् का केवल नाम लेकर ऊंचा नहीं उठा है। उसे भगवान् का काम भी करना पड़ा है। आपको भी कुछ काम करना होगा। अगर आप भगवान् का नाम लेकर अपने आपको बहकाते रहेंगे—भगवान् को बहकाते रहें तो आप इसी प्रकार खाली हाथ रहेंगे जैसे आप आज रह रहे हैं। यह आपके लिए खुली छूट है। निर्णय आपको करना है—कदम आपको ही बढ़ाना है। भगवान् काम नहीं कर सकता है, क्योंकि वह अपने आप में निराकार है। आप भगवान् का साकार रूप बनकर उनका कार्य करने का प्रयास करें।
(गुरु पूर्णिमा सन्देश-1980)
बहादुरी का अर्थ एक ही है कि ऐसे पराक्रम कर गुजरना जिससे अपनी महानता उभरती है और समय, समाज और संस्कृति की छवि निखरती है। ऐसा पुरुषार्थ करने का ठीक यही समय है। सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन और दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन की जैसी आवश्यकता इन दिनों है उतनी इससे पहले कभी नहीं रही। इस दुहरे मोर्चे पर जो जितना जुझारू हो सके, समझना चाहिए कि उसने युगधर्म समझा और समय की पुकार सुनकर अगली पंक्ति में बढ़ आया। (21 वीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-37)
दुष्ट जन गिरोह बना लेते हैं। आपस में सहयोग भी करते हैं, किन्तु तथाकथित सज्जन मात्र अपने काम से काम रखते हैं। लोकहित के प्रयोजन के लिए संगठित और कटिबद्ध होने से कतराते हैं। उनकी यही कमजोरी अन्य सभी गुणों और सामर्थ्यों को बेकार कर देती है। मन्यु की कमी ही इसका मूल कारण है। वह बहादुरी का ही काम है कि जो बुद्ध के धर्म-चक्र-प्रवर्तन और गांधी के सत्याग्रह आन्दोलन में सम्मिलित होने वालों की तरह सज्जनों का समुदाय जमा कर लेते हैं। (21 वीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-38)
इस समय सारे विश्व की व्यवस्था नये सिरे से बनने वाली है। उस समय आप कितने महान् बनेंगे इसका जवाब समय देगा। हनुमान ने कितनी उपासना की थी, नल-नील, जामवन्त, अर्जुन ने कितनी पूजा-तीर्थयात्रा की थी? यह हम कह नहीं सकते; परन्तु उन्होंने भगवान् का काम किया था। भगवान् ने भी उनके कार्यों में कंधा से कंधा मिलाया था। विभीषण, केवट ने भगवान् का काम किया था—ये लोग घाटे में नहीं रहे। भगवान् का काम करने वाले ही भगवान् के वास्तविक भक्त होते हैं। (गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
इस समय जो भगवान के भक्त हैं, जिन्हें इस संसार के प्रति दर्द है; उनके नाम पर विशेष सन्देश भेजा गया है कि वे अपने व्यक्तिगत लाभ के कार्यों में कटौती करें एवं भगवान् का काम करने के लिए आगे आएं। हमारा भी यही सन्देश है। अगर आप सुन-समझ सकेंगे तो आपके लिए अच्छा होगा। अगर आप इस परिवर्तन की वेला में भी अपना मतलब सिद्ध करते रहे और मालदार बनते रहे तो पीछे आपको पछताना पड़ेगा तथा आप हाथ मलते रह जायेंगे। (गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
पीला कपड़ा आप उतारना मत। यह हमारी शान है, हमारी इज्जत है। यह हमारी हर तरह की साधु और ब्राह्मण की परम्परा का उस समय की निशानी है, कुल की निशानी है। पीले कपड़े पहनकर जहां भी जायेंगे लोगों को मालूम पड़ेगा कि ये मिशन के आदमी हैं, जो सन्तों की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर बांधकर खड़े हो गये। जो ब्राह्मण की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर कसकर खड़े हो गये हैं। ऋषियों की निष्ठा को ऊंचा उठाने के लिए आप पीला कपड़ा जरूर पहनना। (कुंभ पर्व संदेश-8.4.1974)
जो कार्य और उत्तरदायित्व आपके जिम्मे सौंपा गया है वह यह है कि दीपक से दीपक को आप जलाएं। बुझे हुए दीपक से दीपक नहीं जलाया जा सकता। एक दीपक से दूसरा दीपक जलाना हो तो पहले हमको जलना पड़ेगा। इसके बाद में दूसरा दीपक जलाया जा सकेगा। आप स्वयं ज्वलंत दीपक के तरीके से अगर बनने में समर्थ हो सके तो हमारी वह सारी की सारी आकांक्षा पूरी हो जायेगी जिसको लेकर के हम चले हैं और यह मिशन चलाया है। आपका सारा ध्यान यहीं इकट्ठा होना चाहिए कि क्या हम अपने आपको एक मजबूत ठप्पे के रूप में बनाने में समर्थ हो गए? (कुंभ पर्व-8.4.74)
प्यार-मोहब्बत का व्यवहार आपको बोलना सीखना चाहिए। जहां कहीं भी शाखा में जाना है, कार्यकर्त्ताओं के बीच में जाना है और जनता के बीच में जाना है, उन लोगों के साथ में आपके बातचीत का ढंग ऐसा होना चाहिए कि उसमें प्यार ही प्यार भरा हुआ हो। दूसरों का दिल जीतने के लिए आप दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए इस तरह का आचरण लेकर जाएं, ताकि लोगों को यह कहने का मौका न मिले कि गुरुजी के पसंदीदे नाकाबिल हैं। अब आपकी इज्जत, आपकी इज्जत नहीं, हमारी इज्जत है। जैसे हमारी इज्जत हमारी इज्जत नहीं, हमारे मिशन की इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है। (कुंभ पर्व सन्देश-8.4.74)
परिजनों! सन्त हमेशा गरीबों जैसा होता है। अमीरों जैसा सन्त नहीं होता। संत कभी भी अमीर होकर नहीं चला है। जो आदमी हाथी पर सवार होकर जाता है, वह कैसे सन्त हो सकता है? संत को पैदल चलना पड़ता है। सन्त को मामूली कपड़े पहनकर चलना पड़ता है। सन्त चांदी की गाड़ी पर कैसे सवारी कर सकता है? आपको अपने पुराने बड़प्पन छोड़ देने चाहिए-पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए। (कुंभ पर्व सन्देश-8.4.74)
भगवान् के द्वार निजी प्रयोजनों के लिए अनेकों खटखटाते पाये जाते हैं, पर अबकी बार भगवान् ने अपना प्रयोजन पूरा करने के लिए साथी-सहयोगियों को पुकारा है। जो इसके लिए साहस जुटायेंगे वे लोक-परलोक की, सिद्धियों, विभूतियों से अलंकृत होकर रहेंगे। शान्तिकुंज के संचालकों से यही सम्पन्न किया और अपने को अति सामान्य होते हुए भी अत्यन्त महान् कहलाने का श्रेय पाया है। जाग्रत् आत्माओं से भी इन दिनों ऐसा अनुकरण करने की अपेक्षा की जा रही है। (21 वीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-40)
कोरी वाणी ने कब किसका कल्याण किया है? संवेदनशील की एक ही पहचान है कि वह जो भी कहता है—आचरण से। यदि ऐसा नहीं है तो समझना चाहिए कि बुद्धि ने पुष्पित वाणी का नया जामा पहन लिया है, जो हमेशा से अप्रमाणित रहा है और रहेगा। वैभव की दीवारों और शान-शौकत की पहरेदारी में गरीबों की बिलखती आवाजें नहीं घुसा करती हैं। (भाव-सम्वेदना की गंगोत्री-30)
भक्त वही है, जिसके लिए जन-जन का दर्द उसका अपना दर्द हो। अन्यथा वह विभक्त है—भगवान् से सर्वथा अलग-थलग। बड़े वे हैं, जिनका मन सर्वसामान्य की समस्याओं से व्याकुल रहता है। जिनकी बुद्धि इन समस्याओं के नित नये प्रभावकारी समाधान खोजती है। जिनके शरीर ने ‘अहर्निश सेवामहे’ का व्रत ले लिया है। झूठे बड़प्पन और सच्ची महानता में से एक ही चुना जा सकता है—दोनों एक साथ नहीं। (भाव-सम्वेदना की गंगोत्री-14,28)
जिन्हें किसी प्रकार का नेतृत्व निबाहना हो, उन्हें सर्वसाधारण की अपेक्षा अधिक वरिष्ठ और अति विशिष्ठ होना चाहिए। आत्म-परिष्कार की कसौटी पर कसकर स्वयं को इतना खरा बना लेना चाहिए कि किसी को अंगुली उठाने का अवसर ही न मिले। परीक्षा की इस घड़ी में यहां जांच खोज हो रही है कि यदि कहीं मानवता जीवित होगी, तो वह इस नवनिर्माण के पुण्य-पर्व पर अपनी जागरूकता और सक्रियता का परिचय दिये बिना न रहेगी। (21 वीं सदी में हमें क्या करना है-49)
आप यह कभी न सोचिए कि एक मैं ही पूर्ण हूं, मुझमें ही सब योग्यताएं हैं, मैं ही सब कुछ हूं, सबसे श्रेष्ठ हूं; वरन् यह सोचिए कि मुझमें भी कुछ है, में भी मनुष्य हूं, मेरे अन्दर जो कुछ है उसे मैं बढ़ा सकता हूं, उन्नत और विकसित कर सकता हूं। (अखण्ड ज्योति 1946, जुलाई-4)
हमारी परम्परा पूजा-उपासना की अवश्य है, पर व्यक्तिवाद की नहीं। अध्यात्म को हमने सदा उदारता, सेवा और परमार्थ की कसौटी से कसा है और स्वार्थी को खोटा और परमार्थी को खरा कहा है। (अखण्ड ज्योति 1964, दिसम्बर-51)
जो हमारे हाथ में लगी हुई मशाल को जलाये रखने में अपना हाथ लगा सकें, हमारे कंधों पर लदे हुए बोझ को हलका करने में अपना कंधा लगा सकें, ऐसे ही लोग हमारे प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी होंगे। (अखण्ड ज्योति 1964, दिसम्बर-51)
जो अपने निजी गोरखधंधे में इतने अधिक उलझे हुए हैं कि ईश्वर, देवता, साधु, गुरु किसी का भी उपयोग अपने लाभ के लिए करने का ताना-बाना बुनते रहते हैं, वे बेचारे सचमुच दयनीय हैं। (अखण्ड ज्योति 1964, दिसम्बर-50)
जिसका हृदय विशाल है, जिसमें उदारता और परमार्थ की भावना विद्यमान है। समाज, युग, देश, धर्म, संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदायित्व की जिसमें कर्तव्य बुद्धि जम गई होगी, हमारी आशा के केन्द्र यही लोग हो सकते हैं और उन्हें ही हमारा सच्चा वात्सल्य भी मिल सकता है। बातों से नहीं काम से ही किसी की निष्ठा परखी जाती है और जो निष्ठावान् हैं, उनको दूसरों का हृदय जीतने में सफलता मिलती है हमारे लिए भी हमारे निष्ठावान् परिजन ही प्राणप्रिय हो सकते हैं। (अखण्ड ज्योति 1964, दिसम्बर 50-51)
जिनके कंधों पर हम अपनी परम्परा को आगे ले चलने का उत्तरदायित्व सौंपें वे सेवा और साधना दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से निष्ठावान् हों। एकांगी अभिरुचि वाले व्यक्ति हमारी दृष्टि में आधे अध्यात्मवादी हैं। (अखण्ड ज्योति 1964, दिसम्बर-51)
परिवर्तन की इस वेला में जो परिजन हाथ पर हाथ धरे उदासीन बैठा रहेगा, उसके लिए यही कहा जा सकता है कि एक महत्वपूर्ण अवसर पर कृपणता दिखाकर अपने साथ सोचनीय अन्याय कर डाला। (अखण्ड ज्योति 19864, जुलाई-53)
अब युग की रचना के लिए ऐसे व्यक्तित्वों की ही आवश्यकता है, जो वाचालता और प्रोपेगैंडा से दूर रहकर अपने जीवन को प्रखर एवं तेजस्वी बनाकर अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करें। (अखण्ड ज्योति 1964, मार्च-58)
आज धर्म शिक्षा देने वाले लेखक, वक्ता तो बहुत हैं, पर उनके पास कबीर, नानक, गुरु गोविन्दसिंह, रामदास, बुद्ध, गांधी, महावीर जैसा व्यक्तित्व नहीं है। प्रभाव वस्तुतः चरित्र का ही पड़ता है। (अखण्ड ज्योति 1964, मार्च-57)
गाल बजाने वाले पर उपदेश कुशल लोगों द्वारा दिव्य समाज की रचना यदि संभव होता तो वह अब से बहुत पहले ही सम्पन्न हो चुका होता। जरूरत उन लोगों की है, जो आध्यात्मिक आदर्शों की प्राप्ति को जीवन की सबसे बड़ी सफलता अनुभव करें और अपनी आस्था की सच्चाई प्रमाणित करने के लिए बड़ी से बड़ी परीक्षा का उत्साहपूर्ण स्वागत करें। (अखण्ड ज्योति 1964, मार्च-58)
हम नहीं चाहते कि अखण्ड ज्योति परिवार का एक भी सदस्य ऐसा बचे, जो लोकमंगल के अपने महान् कार्यक्रम की उपेक्षा करे या उदासी दिखावे। (अखण्ड ज्योति 1964, नवम्बर-49)
अपनी इच्छा, बड़प्पन, कामना, स्वाभिमान को गलाने का नाम समर्पण है। अपनी इमेज विनम्र से विनम्र बनाओ। मैनेजर की, इंचार्ज की, बॉस की नहीं, बल्कि स्वयंसेवक की। जो स्वयंसेवक जितना बड़ा है, वह उतना ही विनम्र है, उतना ही महान् बनने के बीजांकुर उसमें हैं। तुम सबमें वे मौजूद हैं। अहं की टकराहट बंद होते ही वे विकसित होना आरम्भ हो जाएंगे। (श्रावणी पर्व- 1988 कार्यकर्त्ता सन्देश)
तुम सब हमारी भुजा बन जाओ, हमारे अंग बन जाओ, यह हमारे मन की बात है। अब तुम पर निर्भर है कि तुम कितना हमारे बनते हो? समर्पण का अर्थ है दो का अस्तित्व मिट कर एक हो जाना। तुम भी अपना अस्तित्व मिटाकर हमारे साथ मिला दो व अपनी क्षुद्र महत्त्वाकांक्षा को हमारी अनन्त आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षाओं में विलीन कर दो। जिसका अहं जिन्दा है, वह वेश्या है। जिसका अहं मिट गया वह पवित्र है। देखना है कि हमारी भुजा, आंख, मस्तिष्क बनने के लिए तुम कितना अपने अहं को गला पाते हो? (श्रावणी पर्व-1988 कार्यकर्त्ता सन्देश)
आज दुनिया में पार्टियां तो बहुत हैं, पर किसी के पास कार्यकर्त्ता नहीं हैं। लेबर सबके पास है, पर समर्पित कार्यकर्त्ता जो सांचा बनता है व कई को बना देता है अपने जैसा, कहीं भी नहीं है। हमारी यह दिली ख्वाहिश है कि हम अपने पीछे कार्यकर्त्ता छोड़ कर जाएं। इन सभी को सही अर्थों में डाई एक सांचा बनना पड़ेगा तथा वही सबसे मुश्किल काम है। रॉ मैटेरियल तो ढेरों कहीं भी मिल सकता है, पर डाई कहीं-कहीं मिल पाती है। श्रेष्ठ कार्यकर्त्ता श्रेष्ठतम डाई बनाता है। तुम सबसे अपेक्षा है कि अपने गुरु की तरह एक श्रेष्ठ सांचा बनोगे। (श्रावणी पर्व-1988 कार्यकर्त्ता संदेश)
अपना मन सभी से मिलाओ। मिल-जुलकर रहो, अपना सुख बांटो-दुःख बंटाओ। यही सही अर्थों में ब्राह्मणत्व की साधना है। साधु तुम अभी बने नहीं हो। मन से ब्राह्मणत्व की साधना करोगे, तो पहले ब्राह्मण बनो तो साधु अपने आप बन जाओगे। सेवा बुद्धि का, दूसरों के प्रति पीड़ा का, भाव सम्वेदना का विकास करना ही साधुता को जगाना है। आशा है, तुम इसे अवश्य पूरा करोगे व हमारी भुजा, आंख व पैर बन जाने का संकल्प लोगे, यही आत्मा की वाणी है, जो तुमसे कुछ कराना चाहती है। (श्रावणी पर्व-1988 कार्यकर्त्ता संदेश)
आपमें से हर आदमी को हम यह काम सौंपते हैं कि आप हमारे बच्चे के तरीके से हमारे मिशन को चलाइए। बन्द मत होने दीजिए। हम तो अपनी विदाई ले जाएंगे, लेकिन जिम्मेदारी आपके पास आएगी। आप कपूत निकलेंगे तो फिर लोग आपकी बहुत निन्दा करेंगे और हमारी निन्दा करेंगे। कबीर का बच्चा ऐसा हुआ था जो कबीर के रास्ते पर चलता नहीं था तो सारी दुनिया ने उससे यह कहा—‘बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल’ आपको कमाल कहा जाएगा और यह कहा जाएगा कि कबीर तो अच्छे आदमी थे, लेकिन उनकी संतानें दो कौड़ी की भी नहीं है। (25 मार्च 1987-सन्देश)
परिजनो! आप हमारी वंश परम्परा को जानिए। अगर हमको यह मालूम पड़ा कि आपने हमारी परम्परा नहीं निबाही और अपना व्यक्तिगत ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया और अपना व्यक्तिगत अहंकार, अपनी व्यक्तिगत यश-कामना और व्यक्तिगत धन-संग्रह करने का सिलसिला शुरू कर दिया, व्यक्तिगत रूप से बड़ा आदमी बनना शुरू कर दिया, तो हमारी आंखों से आंसू टपकेंगे और वह आंसू आपको चैन से नहीं बैठने देंगे। आपको हैरान कर देंगे। (25 मार्च 1987-सन्देश)
हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में सीमाबद्ध है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप हमारे विचारों को फैलाने में सहायता कीजिए। अब हमको नई पीढ़ी चाहिए। हमारी विचारधारा उन तक पहुंचाइए। (4 अगस्त 1983-संदेश)
आपके पास जो भी घटना आए, परिस्थिति आए, व्यक्ति या विचार आए, प्रत्येक के ऊपर कसौटी लगाइए और देखिए कि इसमें क्या उचित है और क्या अनुचित है? कौन नाराज होता है और कौन खुश होता है—यह देखना आप बंद कीजिए। अगर आपने यह विचार करना शुरू कर दिया कि हमारे हितैषी किस बात में प्रसन्न होंगे तो फिर आप कोई सही काम नहीं कर सकते। हमको भगवान् की प्रसन्नता की जरूरत है। (5 अप्रैल 1976-संदेश)
सत्साहस अपनाने की गरिमा तो सदा ही रही है और रहेगी, पर इस दिशा में बढ़ने, सोचने वालों में से अत्यधिक भाग्यवान् वे हैं, जो किसी महान् अवसर के सामने आते ही उसे हाथ से न जाने देने की तत्परता बरत सके। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप कार्यक्रम-18)
बड़प्पन न बड़ा बनने में, न संचय में और न उपभोग में है। बड़प्पन एक दृष्टिकोण है, जिसमें सदा ऊंचा उठने, आगे बढ़ने, रास्ता बनाने और जो श्रेष्ठ है उसी को अपनाने की उमंग उठती और हिम्मत बंधती है। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप कार्यक्रम-20)
मूढ़ मान्यताओं में जकड़े, अनाचारों से अभ्यस्त, कुचक्री, षड्यंत्ररत लोगों को न हमारा परामर्शदाता होना चाहिए, न सूत्र संचालक, न नेता। भले ही वे अपनी चतुरता के कारण बड़े लोगों में गिने जाने लगे हों। कोई ब्राह्मण वंश में जन्मा है या साधुवेश धारण करता है, अधिक पढ़ा है या पदाधिकारी बन गया है—इनमें से एक भी ऐसा कारण नहीं हैं, जिससे इन्हें नीति-निर्धारक माना जा सके। इस अज्ञान, अंधकार, अनाचार और दुराग्रह के माहौल में हमें समुद्र में खड़े स्तम्भों की तरह एकाकी खड़े होना चाहिए। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप कार्यक्रम-23)
हम अपना अन्तःकरण टटोलें और उसमें यदि कुछ उदात्त जीवन तत्त्व के कण मिल जाएं तो उन्हें सींचें, संजोएं और जितना अधिक संभव हो सके ऋषियों की परम्परा जीवित रखने के लिए खुद ही कुछ कर दिखाएं। (हमारी युग निर्माण योजना-1, पेज-99)
सूझबूझ और हिम्मत के धनी एक बार जिस बात का निश्चय कर लेते हैं, जो ठान लेते हैं, उसके लिए जोश और होश को मिलाकर ऐसी चाल चलते हैं कि साधनों का अभाव और प्रतिकूलता का प्रभाव उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाता। (हमारी युग निर्माण योजना-1, पेज-104)
युग निर्माण परिजनों को जेवर, जायदाद बनाने की नहीं, विश्व निर्माण की योजनाएं बनानी चाहिए। ऐसा करने में ही युग सेनानी की –युग निर्माताओं के अनुरूप शान रहेगी। (हमारी युग निर्माण योजना-1, पेज-117)
मनुष्यता की गरिमा और मनुष्य की शान तभी अक्षुण्ण रहती है, जब भय व प्रलोभनों के आगे झुकना स्वीकार न किया जाय और नीति, न्याय के औचित्य का सम्बल पकड़े हुए सीना तानकर खड़ा रहा जाए। (हमारी युग निर्माण योजना-1, पेज-123)
आज की विषम परिस्थितियों में युग निर्माण परिवार के व्यक्तियों को महाकाल ने बड़े जतन से ढूंढ़-खोजकर निकाला है। आप सभी बड़े ही महत्त्वपूर्ण एवं सौभाग्यशाली हैं। इस समय कुछ खास जिम्मेदारियों के लिए आपको महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। भगवान् के कार्य में भागीदारी निभानी है। आप धरती पर केवल बच्चे पैदा करने और पेट भरने के लिए नहीं आए हैं, बल्कि आज की इन विषम परिस्थितियों को बदलने में भगवान् की मदद करने के लिए आए हैं। (सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन)
भगवान् अगर किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो उसे बहुत सारी धन-सम्पत्ति देते हैं तथा औलाद देते हैं, यह बिलकुल गलत ख्याल है। वास्तविकता यह है कि जो भगवान् के नजदीक होते हैं उन्हें धन-सम्पत्ति एवं औलाद से अलग कर दिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में ही उनके द्वारा यह संभव हो सकता है कि वे भगवान् का काम करने के लिए अपना साहस एकत्रित कर सकें और श्रेय प्राप्त कर सके। इससे कम कीमत पर किसी को भी श्रेय नहीं मिला है। (सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन)
हमारी उनसे प्रार्थना है, जो जागरूक हैं। जो सोये हुए हैं उनसे हम क्या कह सकते हैं। आपसे कहना चाहते हैं कि फिर कोई ऐसा समय नहीं आयेगा, जिसमें आपको औलाद या धन से वंचित रहना पड़े, परन्तु अभी इस जन्म में इन दोनों की बाबत न सोचें। विराम लगा दें। आपको भगवान् के काम के अन्तर्गत रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता सदा पूरी होती रहेगी, इसके लिए किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। (सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन)
अगले दिनों धन का संग्रह कोई नहीं कर सकेगा, क्योंकि आने वाले दिनों में धन के वितरण पर लोग जोर देंगे। शासन भी अगले दिनों आपको कुछ जमा नहीं करने देगा। अतः आप मालदार बनने का विचार छोड़ दें। आप अगर जमाखोरी का विचार छोड़ देंगे तो इसमें कुछ हर्ज नहीं है। अगर आप पेट भरने-गुजारे भर की बात सोचें तो कुछ हर्ज नहीं है। आप सन्तान के लिए धन जमा करने, उनके लिए व्यवस्था बनाने की चिन्ता छोड़ देंगे। उन्हें उनके ढंग से जीने दें। संसार में जो आया है, वह अपना भाग्य लेकर आया है। (सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन)
आगामी दिनों प्रज्ञावतार का कार्य विस्तार होने वाला है। उस काम की जिम्मेदारी केवल ब्राह्मण तथा संत ही पूरा कर सकते हैं। आपको इन दो वर्गों में आकर खड़ा हो जाना चाहिए तथा प्रज्ञावतार के सहयोगी बनकर उनके कार्य को पूरा करना चाहिए। अगर आप अपने खर्च में कटौती करके तथा समय में से कुछ बचत करके इस ब्राह्मण एवं सन्त परम्परा को जीवित कर सकें, तो आने वाली पीढ़ियां आप पर गर्व करेंगी। अगर समस्याओं के समाधान करने के लिए खर्चे में कुछ कमी आती है, तो हम आपको सहयोग करेंगे। (सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन)
यों युग शिल्पियों की संख्या एक लाख के लगभग है, पर उनमें एक ही कमी है, संकल्प में सुनिश्चितता का-दृढ़ता का-अनवरतता का अभाव। अभी उत्साह उभरा तो उछलकर आकाश चूमने लगे और दूसरे दिन ठंडे हुए तो झाग की तरह बैठ गये। इस अस्थिरता में लक्ष्यवेध नहीं हो सकता। उसके लिए अर्जुन जैसी तन्मयता होनी चाहिए जो मछली की आंख भर ही देखें। इसके लिए एकलव्य जैसी निष्ठा होनी चाहिए, जो मिट्टी के पुतले को निष्णात अध्यापक बना ले। (अखण्ड ज्योति-1981, नवम्बर 64)
मेरी चाह है कि हाथ से सत्य न जाने पाये। जिस सत्य को तलाशने और पाने के लिए मैंने कंकरीले, रेतीले मार्ग पर चलना स्वीकार किया है, वह आत्म-स्वीकृति किसी भी मूल्य पर, किसी भी संकट के समय डगमगाने न पाये। सत्य का अवलम्बन बना रहे, क्योंकि उसकी शक्ति असीम है। मैं उसी के सहारे अपनी हिम्मत संजोये रहूंगा। (अखण्ड ज्योति 1985, मई)
प्रज्ञा परिवार को अन्य संगठनों, आन्दोलनों, सभा-संस्थाओं के समतुल्य नहीं मानना चाहिए। वह युग सृजन के निमित्त अग्रगामी मूर्धन्य लोगों का एक सुसंस्कारी परिकर-परिसर है। उन्हें केवल एक ही बात सोचनी चाहिए कि समय की जिस चुनौती ने जाग्रत् आत्माओं को कान पकड़कर झकझोरा है, उसके उत्तर में उन्हें दांत निपोरने हैं या सीना तानना है? (वाङ्मय क्र.1, पेज-6.1)
यह क्षुद्रता कैसी, जो अग्रदूतों की भूमिका निभाने में अवरोध बनकर अड़ गई है। समर्थ को असहाय बनाने वाला यह व्यामोह आखिर कैसा भवबन्धन है? कुसंस्कार है? दुर्विपाक है या मकड़ी का जाल? कुछ ठीक से समझ नहीं आता। यह समय पराक्रम और पौरुष का है, शौर्य और साहस का है। इस विषम वेला में युग के अर्जुनों के हाथों से गांडीव क्यों छूटे जा रहे हैं? सिद्धान्तवाद क्या कथा-गाथा जैसा कोई विनोद मनोरंजन है, जिसकी यथार्थता परखी जाने का कभी अवसर ही न आये? (वाङ्मय क्र.1, पेज-6.1)
नवनिर्माण के कंधे पर लदे उत्तरदायित्व मिल-जुलकर संपन्न हो सकने वाला कार्य था, सो समझदारों में कोई हाथ न लगा तो अपने बाल परिवार-गायत्री परिवार को लेकर जुट पड़े। बात अगले दिनों की आती है। इस सम्बन्ध में स्मरण दिलाने योग्य बात एक ही है कि हमारी आकांक्षा और आवश्यकताओं को भुला न दिया जाय। समय विकट है। प्रत्येक परिजन का भावभरा सहयोग हमें चाहिए। (हमारी वसीयत और विरासत-174)
गायत्री परिवार का हर व्यक्ति बड़ा है। छोटेपन का उसने मुखौटा भर पहन रखा है। उतारने भर की देर है कि उसका असली चेहरा दृष्टिगोचर होगा। हमें हमारे मार्गदर्शक ने एक पल में क्षुद्रता का लबादा झटककर महानता का परिधान पहना दिया था। इस काया कल्प में मात्र इतना ही हुआ था कि लोभ, मोह की कीचड़ से उबरना पड़ा। जिस-तिस के परामर्शों—आग्रहों की उपेक्षा करनी पड़ी और आत्मा-परमात्मा के संयुक्त निर्णय को शिरोधार्य करने का साहस जुटाना पड़ा। इसके बाद एकाकी नहीं रहना पड़ा। (हमारी वसीयत और विरासत-174)
इस समय जो भगवान के भक्त हैं, जिन्हें इस संसार के प्रति दर्द है, उनके नाम हमारा यही सन्देश है कि वे अपने व्यक्तिगत लाभ के कार्यों में कटौती करें एवं भगवान् का काम करने के लिए आगे आएं। अगर इस समय भी आप अपना मतलब सिद्ध करते रहे और मालदार बनते रहे, तो पीछे आपको बहुत पछताना पड़ेगा। अब आपकी इज्जत- आपकी इज्जत नहीं, हमारी इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है। (गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
भगवान् कृष्ण ने महाभारत के उपरान्त राजसूय यज्ञ में आग्रहपूर्वक आगन्तुकों के पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था और सज्जनोचित विनम्रता का परिचय दिया था। गांधीजी कांग्रेस के पदाधिकारी नहीं रहे, किन्तु फिर भी सबसे अधिक सेवा करने और मान पाने में समर्थ हुए। चाणक्य झोपड़ी में रहते थे, ताकि राजमद उनके ऊपर न चढ़े और किसी साथी के मन में प्रधानमन्त्री का ठाट-बाट देखकर वैसी ही ललक न उठे। राजा जनक हल जोतते थे। बादशाह नसीरुद्दीन टोपी सीकर गुजारा करते थे। यह वे उदाहरण हैं जिनसे साथियों को अधिक विनम्र और संयमी बनने की प्रेरणा मिलती है। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप-32)
हनुमान ने कितनी उपासना की थी, नल-नील, जामवन्त, अर्जुन ने कितनी पूजा एवं तीर्थयात्रा की थी? यह हम नहीं कह सकते, परन्तु उन्होंने भगवान् का काम किया था। ये लोग घाटे में नहीं रहे। इस समय महाकाल कुछ गलाई-ढलाई करने जा रहे हैं। अब नये व्यक्ति, नयी परम्पराएं, नये चिन्तन उभरकर आयेंगे। अगले दिनों यह सोचकर अचम्भा करेंगे कितने कम समय में इतना परिवर्तन कैसे हो गया। अगर हम समय को पहचान पाये तो आप सच्चे अर्थों में भाग्यवान बन सकते हैं। (गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
हम आत्मीयता का क्षेत्र व्यापक करें। कुछ लोगों को ही अपना मानने और उन्हीं की फरमाइशें पूरी करने, उपहार लादते रहने के व्यामोह दलदल में न फंसें। अपनी सामर्थ्य को सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगाएं। देश, धर्म, समाज और संस्कृति को प्यार करें। आत्मीयता को व्यापक बनाएं। सबको अपना और अपने को सबका समझें। इस आत्म-विस्तार का व्यावहारिक स्वरूप लोकमंगल की सेवा-साधना से ही निखरता है। उदारता बरतें और बदले में आत्म-संतोष, लोक सम्मान तथा दैवी अनुग्रह की विभूतियां कमाएं। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-39)
संत, सुधारक और शहीद सामान्य जन जीवन से ऊंचे स्तर के होने के कारण छोटे-बड़े अवतारों की गिनती में आते हैं। संत अपनी सज्जनता से मानव जीवन के सदुपयोगों का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। जनजीवन पर छाये निकृष्ट चिंतन और दुराचरण से जूझने का प्रबल पराक्रम सुधारकों को करना होता है। शहीद वे होते हैं, जो स्वार्थ और परमार्थ में उत्सर्ग कर देते हैं। अपने दायरे को वे शरीर, परिवार तक सीमित न रख विश्व नागरिक जैसा बना लेते हैं। (प्रज्ञा अभियान-1983, जुलाई)
उपदेश तो बहुत पा चुके हो, किन्तु उसके अनुसार क्या तुम कार्य करते हो? अपने चरित्र का संशोधन करने में अभी भी क्या किसी अन्य की राह देख रहे हो? तुम तो अब श्रेष्ठ कार्य करने की योग्यता प्राप्त करो। विवेक बुद्धि की किसी प्रकार अब उपेक्षा न करो। अपने चरित्र का संशोधन करने में लापरवाही करोगे या प्रयत्न में ढिलाई करोगे तो उन्नति कैसे हो सकती है? अपने शुभ अवसरों को न खोकर जीवन रणक्षेत्र में प्रबल पराक्रम से निरन्तर अग्रसर होकर विजयी प्राप्त करने के लिए सदैव तत्पर रहना सीखो। (अखण्ड ज्योति-1964)
हमारी अभिलाषा है कि गायत्री परिवार का हर सदस्य उत्कृष्ट प्रकार के व्यक्तित्व से सम्पन्न भारतीय धर्म और संस्कृति का सिर ऊंचा करने वाला सज्जन व्यक्ति बने। उसका जीवन उलझनों और कुंठाओं से भरा हुआ नहीं, वरन् आशा, उत्साह, संतोष एवं मस्ती से भरा हुआ बीते। अपनी श्रेष्ठता का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करना—इस कसौटी पर हमारी वास्तविकता अब परखी जानी है। अब तक उपदेशों का कितना प्रभाव अंतःकरण पर हुआ? इस प्रश्न का उत्तर अब हमें आचरण द्वारा ही देना पड़ेगा। (अखण्ड ज्योति-1964)
छोटे-छोटे मकान, पुलों को मामूली ओवरसियर बना लेते हैं, पर जब बड़ा बांध बनाना होता है तो बड़े इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ती है। मेजर आपरेशन छोटे अनुभवहीन डॉक्टरों के बस की बात नहीं। उसे सिद्धहस्त सर्जन ही करते हैं। समाज में मामूली गड़बड़ियां तो बार-बार होती, उठती रहती है। उनका सुधार कार्य सामान्य स्तर के सुधार ही कर लेते हैं, जब पाप अपनी सीमा का उल्लंघन कर देता है, मर्यादाएं टूटने लगती हैं, तो महासुधारक की आवश्यकता होती है, तब इस कार्य को महाकाल स्वयं करते हैं। (प्रज्ञा अभियान-1983, जून)
आज आदर्शवादिता कहने-सुनने भर की वस्तु रह गई है। उसका उपयोग कथा, प्रवचनों और स्वाध्याय-सत्संगों तक ही सीमित है। आदर्शों की दुहाई देने और प्रचलनों की लकीर पीटने से कुछ बनता नहीं। इन दिनों वैसा ही हो रहा है। अस्तु, दीपक तले अंधेरा होने जैसी उपहासास्पद स्थिति बन रही है। आवश्यकता इस बात की है कि सांस्कृतिक आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में प्रवेश मिले। हम ऋषि परम्परा के अनुगामी हैं, उन नर वीरों की संतानें हैं, यह ध्यान में रखते हुए आदर्शों की प्रवंचना से बचा ही जाना चाहिए। (वाङ्मय क्रमांक- 35, पेज-1.12)
इन दिनों सामाजिक प्रचलनों में अनैतिकता, मूढ़ मान्यता और अवांछनीयता की भरमार है। हमें उलटे को उलटा करके सीधा करने की नीति अपनानी चाहिए। इसके लिए नैतिक, बौद्धिक और समाजिक क्रान्ति आवश्यक अनुभव करें और उसे पूरा करने में कुछ उठा न रखें। आत्म-सुधार में तपस्वी, परिवार निर्माण में मनस्वी और समाज निर्माण में तेजस्वी की भूमिका निबाहें। अनीति के वातावरण में मूक-दर्शक बनकर न रहें। शौर्य, साहस के धनी बनें और अनीति उन्मूलन तथा उत्कृष्टता अभिवर्धन में प्रखर पराक्रम का परिचय दें। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-40)
20 वीं सदी का अंत और 21 वीं सदी का आरम्भ युग सन्धि का ऐसा अवसर है, जिसे अभूतपूर्व कहा जा सकता है। शायद भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति कभी न हो। अपने मतलब से मतलब रखने का आदिमकालीन सोच अब चल न सकेगा। इन दिनों महाविनाश एवं महासृजन आमने-सामने खड़े हैं। इनमें से एक का चयन सामूहिक मानवी चेतना को ही करना पड़ेगा। देखना इतना भर है कि इस परिवर्तन काल में युग शिल्पी की भूमिका संपादन के लिए श्रेय कौन पाता है? (अखण्ड ज्योति-1988, सितम्बर)
प्रखर प्रतिभा संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊंची उठी होती है। उसे मानवी गरिमा का ध्यान रहता है। उसमें आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा का समावेश रहता है। लोकमंगल और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन से उसे गहरी रुचि रहती है। ऐसे लोग असफल रहने पर शहीदों में गिने और देवताओं की तरह पूजे जाते हैं। यदि वे सफल होते हैं, तो इतिहास बदल देते हैं। प्रवाहों को उलटना इन्हीं का काम होता है। (21 वीं सदी बनाव उज्ज्वल भविष्य-29)
अवांछनीयताओं के विरुद्ध मोर्चा लेने के लिए अपनी नीति और कार्यपद्धति स्पष्ट है। ज्ञानयज्ञ का- विचार क्रान्ति का प्रचार अभियान इसीलिए खड़ा किया गया है। अवांछनीयताएं वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में बेतरह घुस पड़ी हैं। यह सब चल इस लिए रहा है कि उसे सहन कर लिया गया है। इसके लिए लोकमानस ने समझौता कर लिया है और बहुत हद तक उसे अपना लिया है। जन साधारण को प्रचार अभियान द्वारा प्रकाश का लाभ और अंधकार की हानि को गहराई तक अनुभव करा दिया, तो निश्चय ही दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध विद्रोह भड़क सकता है। अवांछनीयता एवं दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष व्यापक रूप से खड़ा किया जाना चाहिए। इसके लिए भर्त्सना अभियान चलाएं। (हमारी युग निर्माण योजना-2, पेज-203)
दुर्योधन जैसे अनीति का चयन करने वाले एवं अर्जुन जैसे ईश्वरीय कृपा को वरण करने वाले तत्त्व हर मनुष्य के भीतर विद्यमान है। एक को विवेक या सुबुद्धि एवं दूसरे को अविवेक या दुर्बुद्धि कह सकते हैं। किसका चयन व्यक्ति करता है, यह उसकी स्वतंत्रता है। (प्रज्ञापुराण-1, पेज-51)
समस्त मनुष्य समाज एक शरीर की तरह है और उसके घटकों को सुख-दुःख में सहयोगी रहना पड़ता है। एक नाव में बैठने वाले साथ-साथ डूबते पार होते हैं। मानवी चिन्तन और चरित्र यदि निकृष्टता के प्रवाह में बहेगा तो उसकी अवांछनीय प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत् में विषाक्त विक्षोभ उत्पन्न करेगी और प्राकृतिक विपत्तियों के रूप में प्रकृति प्रताड़ना बरसेगी। चित्र-विचित्र स्तर के दैवी प्रकोप, संकटों और त्रासों से जनजीवन को अस्त-व्यस्त करके रख देंगे। हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपनी सज्जनता तक ही न सीमित रहे, वरन् आगे बढ़कर संपर्क क्षेत्रों की अवांछनीयता से जूझें। जो इस समूह धर्म की अवहेलना करता है, वह भी विश्व व्यवस्था की अदालत में अपराधी माना जाता है। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-8)
मुद्दतों से देव परम्पराएं अवरुद्ध हुई पड़ी हैं। अब हमें सारा साहस समेटकर तृष्णा और वासना के कीचड़ से बाहर निकलना होगा और वाचालता और विडम्बना से नहीं, अपनी कृतियों से अपनी उत्कृष्टता का प्रमाण देना होगा। हमारा उदाहरण ही दूसरे अनेक लोगों को अनुकरण का साहस प्रदान करेगा। यही ठोस, वास्तविक और प्रभावशाली पद्धति है। (महाकाल का युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया-)
युग निर्माण की सारी योजनाओं का आधार ही यह है कि जो करना है, जो कराना है, जो बदलना है, जो सुधारना है, उसका आरम्भ अपने से करें। आप भला तो जग भला- वाला सिद्धान्त रखने वाले अधूरे संत होते हैं। पूरा संत दूसरों को भला बनाने में उतना ही तत्पर रहता है, जितना कि अपना सुधार करने में। (सामूहिक चेतना की ओर)
गर्मी की तपन बढ़ चलने पर वर्षा की संभावना का अनुमान लगा लिया जाता है। दीपक जब बुझने को होता है, उसकी लौ जोर से चमकती है। मरण की वेला निकट आते ही रोगी में हलकी-सी चेतना लौटती है एवं लम्बी सांसें चलने लगती हैं। जब संसार में अनीति की मात्रा बढ़ती है, जागरूकता, आदर्शवादिता और साहसिकता की उमंगें अनय की असुरता के पराभव हेतु आत्माओं में जलने लगती हैं। प्रज्ञावतार की इस भूमिका को युग परिवर्तन की वेला में ज्ञानवानों की पैनी दृष्टि सरलतापूर्वक देख सकती है। (प्रज्ञा अभियान-1983, जुलाई-17)
मनुष्य की गतिविधियां दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का रूप ले बैठी हैं। विश्व के व्यवस्थापक मनुष्य की रीति-नीति ओछी और उच्छृंखल हो जाय, तो फिर संतुलन कहां रह सकता है? मर्यादाएं हटती जा रही हैं और उच्छृंखलता के झंडे फहरा रहे हैं। कर्त्तव्य को बहिष्कृत कर दिया गया है। अधिकार का बोलबाला है। जिसके हाथ जो कुछ है, वह उसका अधिक से अधिक उपयोग अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए कर रहा है। शिकायत सबको सबकी है, संतोष किसी को किसी से नहीं। यह परिस्थिति यथावत देर तक नहीं चल सकती। भगवान् को यह स्वीकार नहीं। अब की बार उनका आगमन किसी व्यक्ति के रूप में नहीं, एक प्रखर आंधी और तूफान जैसी प्रक्रिया के रूप में होगा, इसी का नाम है—युग परिवर्तन अभियान। (हमारी युग निर्माण योजना-1, पेज-37)
परिजनो! अपनी आज की मनोदशा पर हमें विचार करना ही है। अपनी अब तक की गतिविधियों पर हमें शान्त चित्त से ध्यान देना है। क्या हमारे कदम सही दिशा में चल रहे हैं? यदि नहीं, तो क्या यह उचित न होगा कि हम ठहरें, रुकें, सोचें और यदि रास्ता भूल गये हैं, तो पीछे लौटकर सही रास्ता पर चलें। इस विचार मन्थन की वेला में आज हमें यही करना चाहिए—यही सामयिक चेतावनी और विवेकपूर्ण दूरदर्शिता का तकाजा है। (अखण्ड ज्योति-1961, नवम्बर 5)
बहादुरी का अर्थ एक ही है कि ऐसे पराक्रम कर गुजरना जिससे अपनी महानता उभरती है और समय, समाज और संस्कृति की छवि निखरती है। ऐसा पुरुषार्थ करने का ठीक यही समय है। सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन और दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन की जैसी आवश्यकता इन दिनों है उतनी इससे पहले कभी नहीं रही। इस दुहरे मोर्चे पर जो जितना जुझारू हो सके, समझना चाहिए कि उसने युगधर्म समझा और समय की पुकार सुनकर अगली पंक्ति में बढ़ आया। (21 वीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-37)
दुष्ट जन गिरोह बना लेते हैं। आपस में सहयोग भी करते हैं, किन्तु तथाकथित सज्जन मात्र अपने काम से काम रखते हैं। लोकहित के प्रयोजन के लिए संगठित और कटिबद्ध होने से कतराते हैं। उनकी यही कमजोरी अन्य सभी गुणों और सामर्थ्यों को बेकार कर देती है। मन्यु की कमी ही इसका मूल कारण है। वह बहादुरी का ही काम है कि जो बुद्ध के धर्म-चक्र-प्रवर्तन और गांधी के सत्याग्रह आन्दोलन में सम्मिलित होने वालों की तरह सज्जनों का समुदाय जमा कर लेते हैं। (21 वीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-38)
इस समय सारे विश्व की व्यवस्था नये सिरे से बनने वाली है। उस समय आप कितने महान् बनेंगे इसका जवाब समय देगा। हनुमान ने कितनी उपासना की थी, नल-नील, जामवन्त, अर्जुन ने कितनी पूजा-तीर्थयात्रा की थी? यह हम कह नहीं सकते; परन्तु उन्होंने भगवान् का काम किया था। भगवान् ने भी उनके कार्यों में कंधा से कंधा मिलाया था। विभीषण, केवट ने भगवान् का काम किया था—ये लोग घाटे में नहीं रहे। भगवान् का काम करने वाले ही भगवान् के वास्तविक भक्त होते हैं। (गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
इस समय जो भगवान के भक्त हैं, जिन्हें इस संसार के प्रति दर्द है; उनके नाम पर विशेष सन्देश भेजा गया है कि वे अपने व्यक्तिगत लाभ के कार्यों में कटौती करें एवं भगवान् का काम करने के लिए आगे आएं। हमारा भी यही सन्देश है। अगर आप सुन-समझ सकेंगे तो आपके लिए अच्छा होगा। अगर आप इस परिवर्तन की वेला में भी अपना मतलब सिद्ध करते रहे और मालदार बनते रहे तो पीछे आपको पछताना पड़ेगा तथा आप हाथ मलते रह जायेंगे। (गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
पीला कपड़ा आप उतारना मत। यह हमारी शान है, हमारी इज्जत है। यह हमारी हर तरह की साधु और ब्राह्मण की परम्परा का उस समय की निशानी है, कुल की निशानी है। पीले कपड़े पहनकर जहां भी जायेंगे लोगों को मालूम पड़ेगा कि ये मिशन के आदमी हैं, जो सन्तों की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर बांधकर खड़े हो गये। जो ब्राह्मण की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर कसकर खड़े हो गये हैं। ऋषियों की निष्ठा को ऊंचा उठाने के लिए आप पीला कपड़ा जरूर पहनना। (कुंभ पर्व संदेश-8.4.1974)
जो कार्य और उत्तरदायित्व आपके जिम्मे सौंपा गया है वह यह है कि दीपक से दीपक को आप जलाएं। बुझे हुए दीपक से दीपक नहीं जलाया जा सकता। एक दीपक से दूसरा दीपक जलाना हो तो पहले हमको जलना पड़ेगा। इसके बाद में दूसरा दीपक जलाया जा सकेगा। आप स्वयं ज्वलंत दीपक के तरीके से अगर बनने में समर्थ हो सके तो हमारी वह सारी की सारी आकांक्षा पूरी हो जायेगी जिसको लेकर के हम चले हैं और यह मिशन चलाया है। आपका सारा ध्यान यहीं इकट्ठा होना चाहिए कि क्या हम अपने आपको एक मजबूत ठप्पे के रूप में बनाने में समर्थ हो गए? (कुंभ पर्व-8.4.74)
प्यार-मोहब्बत का व्यवहार आपको बोलना सीखना चाहिए। जहां कहीं भी शाखा में जाना है, कार्यकर्त्ताओं के बीच में जाना है और जनता के बीच में जाना है, उन लोगों के साथ में आपके बातचीत का ढंग ऐसा होना चाहिए कि उसमें प्यार ही प्यार भरा हुआ हो। दूसरों का दिल जीतने के लिए आप दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए इस तरह का आचरण लेकर जाएं, ताकि लोगों को यह कहने का मौका न मिले कि गुरुजी के पसंदीदे नाकाबिल हैं। अब आपकी इज्जत, आपकी इज्जत नहीं, हमारी इज्जत है। जैसे हमारी इज्जत हमारी इज्जत नहीं, हमारे मिशन की इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है। (कुंभ पर्व सन्देश-8.4.74)
परिजनों! सन्त हमेशा गरीबों जैसा होता है। अमीरों जैसा सन्त नहीं होता। संत कभी भी अमीर होकर नहीं चला है। जो आदमी हाथी पर सवार होकर जाता है, वह कैसे सन्त हो सकता है? संत को पैदल चलना पड़ता है। सन्त को मामूली कपड़े पहनकर चलना पड़ता है। सन्त चांदी की गाड़ी पर कैसे सवारी कर सकता है? आपको अपने पुराने बड़प्पन छोड़ देने चाहिए-पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए। (कुंभ पर्व सन्देश-8.4.74)
भगवान् के द्वार निजी प्रयोजनों के लिए अनेकों खटखटाते पाये जाते हैं, पर अबकी बार भगवान् ने अपना प्रयोजन पूरा करने के लिए साथी-सहयोगियों को पुकारा है। जो इसके लिए साहस जुटायेंगे वे लोक-परलोक की, सिद्धियों, विभूतियों से अलंकृत होकर रहेंगे। शान्तिकुंज के संचालकों से यही सम्पन्न किया और अपने को अति सामान्य होते हुए भी अत्यन्त महान् कहलाने का श्रेय पाया है। जाग्रत् आत्माओं से भी इन दिनों ऐसा अनुकरण करने की अपेक्षा की जा रही है। (21 वीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-40)
कोरी वाणी ने कब किसका कल्याण किया है? संवेदनशील की एक ही पहचान है कि वह जो भी कहता है—आचरण से। यदि ऐसा नहीं है तो समझना चाहिए कि बुद्धि ने पुष्पित वाणी का नया जामा पहन लिया है, जो हमेशा से अप्रमाणित रहा है और रहेगा। वैभव की दीवारों और शान-शौकत की पहरेदारी में गरीबों की बिलखती आवाजें नहीं घुसा करती हैं। (भाव-सम्वेदना की गंगोत्री-30)
भक्त वही है, जिसके लिए जन-जन का दर्द उसका अपना दर्द हो। अन्यथा वह विभक्त है—भगवान् से सर्वथा अलग-थलग। बड़े वे हैं, जिनका मन सर्वसामान्य की समस्याओं से व्याकुल रहता है। जिनकी बुद्धि इन समस्याओं के नित नये प्रभावकारी समाधान खोजती है। जिनके शरीर ने ‘अहर्निश सेवामहे’ का व्रत ले लिया है। झूठे बड़प्पन और सच्ची महानता में से एक ही चुना जा सकता है—दोनों एक साथ नहीं। (भाव-सम्वेदना की गंगोत्री-14,28)
जिन्हें किसी प्रकार का नेतृत्व निबाहना हो, उन्हें सर्वसाधारण की अपेक्षा अधिक वरिष्ठ और अति विशिष्ठ होना चाहिए। आत्म-परिष्कार की कसौटी पर कसकर स्वयं को इतना खरा बना लेना चाहिए कि किसी को अंगुली उठाने का अवसर ही न मिले। परीक्षा की इस घड़ी में यहां जांच खोज हो रही है कि यदि कहीं मानवता जीवित होगी, तो वह इस नवनिर्माण के पुण्य-पर्व पर अपनी जागरूकता और सक्रियता का परिचय दिये बिना न रहेगी। (21 वीं सदी में हमें क्या करना है-49)
आप यह कभी न सोचिए कि एक मैं ही पूर्ण हूं, मुझमें ही सब योग्यताएं हैं, मैं ही सब कुछ हूं, सबसे श्रेष्ठ हूं; वरन् यह सोचिए कि मुझमें भी कुछ है, में भी मनुष्य हूं, मेरे अन्दर जो कुछ है उसे मैं बढ़ा सकता हूं, उन्नत और विकसित कर सकता हूं। (अखण्ड ज्योति 1946, जुलाई-4)
हमारी परम्परा पूजा-उपासना की अवश्य है, पर व्यक्तिवाद की नहीं। अध्यात्म को हमने सदा उदारता, सेवा और परमार्थ की कसौटी से कसा है और स्वार्थी को खोटा और परमार्थी को खरा कहा है। (अखण्ड ज्योति 1964, दिसम्बर-51)
जो हमारे हाथ में लगी हुई मशाल को जलाये रखने में अपना हाथ लगा सकें, हमारे कंधों पर लदे हुए बोझ को हलका करने में अपना कंधा लगा सकें, ऐसे ही लोग हमारे प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी होंगे। (अखण्ड ज्योति 1964, दिसम्बर-51)
जो अपने निजी गोरखधंधे में इतने अधिक उलझे हुए हैं कि ईश्वर, देवता, साधु, गुरु किसी का भी उपयोग अपने लाभ के लिए करने का ताना-बाना बुनते रहते हैं, वे बेचारे सचमुच दयनीय हैं। (अखण्ड ज्योति 1964, दिसम्बर-50)
जिसका हृदय विशाल है, जिसमें उदारता और परमार्थ की भावना विद्यमान है। समाज, युग, देश, धर्म, संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदायित्व की जिसमें कर्तव्य बुद्धि जम गई होगी, हमारी आशा के केन्द्र यही लोग हो सकते हैं और उन्हें ही हमारा सच्चा वात्सल्य भी मिल सकता है। बातों से नहीं काम से ही किसी की निष्ठा परखी जाती है और जो निष्ठावान् हैं, उनको दूसरों का हृदय जीतने में सफलता मिलती है हमारे लिए भी हमारे निष्ठावान् परिजन ही प्राणप्रिय हो सकते हैं। (अखण्ड ज्योति 1964, दिसम्बर 50-51)
जिनके कंधों पर हम अपनी परम्परा को आगे ले चलने का उत्तरदायित्व सौंपें वे सेवा और साधना दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से निष्ठावान् हों। एकांगी अभिरुचि वाले व्यक्ति हमारी दृष्टि में आधे अध्यात्मवादी हैं। (अखण्ड ज्योति 1964, दिसम्बर-51)
परिवर्तन की इस वेला में जो परिजन हाथ पर हाथ धरे उदासीन बैठा रहेगा, उसके लिए यही कहा जा सकता है कि एक महत्वपूर्ण अवसर पर कृपणता दिखाकर अपने साथ सोचनीय अन्याय कर डाला। (अखण्ड ज्योति 19864, जुलाई-53)
अब युग की रचना के लिए ऐसे व्यक्तित्वों की ही आवश्यकता है, जो वाचालता और प्रोपेगैंडा से दूर रहकर अपने जीवन को प्रखर एवं तेजस्वी बनाकर अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करें। (अखण्ड ज्योति 1964, मार्च-58)
आज धर्म शिक्षा देने वाले लेखक, वक्ता तो बहुत हैं, पर उनके पास कबीर, नानक, गुरु गोविन्दसिंह, रामदास, बुद्ध, गांधी, महावीर जैसा व्यक्तित्व नहीं है। प्रभाव वस्तुतः चरित्र का ही पड़ता है। (अखण्ड ज्योति 1964, मार्च-57)
गाल बजाने वाले पर उपदेश कुशल लोगों द्वारा दिव्य समाज की रचना यदि संभव होता तो वह अब से बहुत पहले ही सम्पन्न हो चुका होता। जरूरत उन लोगों की है, जो आध्यात्मिक आदर्शों की प्राप्ति को जीवन की सबसे बड़ी सफलता अनुभव करें और अपनी आस्था की सच्चाई प्रमाणित करने के लिए बड़ी से बड़ी परीक्षा का उत्साहपूर्ण स्वागत करें। (अखण्ड ज्योति 1964, मार्च-58)
हम नहीं चाहते कि अखण्ड ज्योति परिवार का एक भी सदस्य ऐसा बचे, जो लोकमंगल के अपने महान् कार्यक्रम की उपेक्षा करे या उदासी दिखावे। (अखण्ड ज्योति 1964, नवम्बर-49)
अपनी इच्छा, बड़प्पन, कामना, स्वाभिमान को गलाने का नाम समर्पण है। अपनी इमेज विनम्र से विनम्र बनाओ। मैनेजर की, इंचार्ज की, बॉस की नहीं, बल्कि स्वयंसेवक की। जो स्वयंसेवक जितना बड़ा है, वह उतना ही विनम्र है, उतना ही महान् बनने के बीजांकुर उसमें हैं। तुम सबमें वे मौजूद हैं। अहं की टकराहट बंद होते ही वे विकसित होना आरम्भ हो जाएंगे। (श्रावणी पर्व- 1988 कार्यकर्त्ता सन्देश)
तुम सब हमारी भुजा बन जाओ, हमारे अंग बन जाओ, यह हमारे मन की बात है। अब तुम पर निर्भर है कि तुम कितना हमारे बनते हो? समर्पण का अर्थ है दो का अस्तित्व मिट कर एक हो जाना। तुम भी अपना अस्तित्व मिटाकर हमारे साथ मिला दो व अपनी क्षुद्र महत्त्वाकांक्षा को हमारी अनन्त आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षाओं में विलीन कर दो। जिसका अहं जिन्दा है, वह वेश्या है। जिसका अहं मिट गया वह पवित्र है। देखना है कि हमारी भुजा, आंख, मस्तिष्क बनने के लिए तुम कितना अपने अहं को गला पाते हो? (श्रावणी पर्व-1988 कार्यकर्त्ता सन्देश)
आज दुनिया में पार्टियां तो बहुत हैं, पर किसी के पास कार्यकर्त्ता नहीं हैं। लेबर सबके पास है, पर समर्पित कार्यकर्त्ता जो सांचा बनता है व कई को बना देता है अपने जैसा, कहीं भी नहीं है। हमारी यह दिली ख्वाहिश है कि हम अपने पीछे कार्यकर्त्ता छोड़ कर जाएं। इन सभी को सही अर्थों में डाई एक सांचा बनना पड़ेगा तथा वही सबसे मुश्किल काम है। रॉ मैटेरियल तो ढेरों कहीं भी मिल सकता है, पर डाई कहीं-कहीं मिल पाती है। श्रेष्ठ कार्यकर्त्ता श्रेष्ठतम डाई बनाता है। तुम सबसे अपेक्षा है कि अपने गुरु की तरह एक श्रेष्ठ सांचा बनोगे। (श्रावणी पर्व-1988 कार्यकर्त्ता संदेश)
अपना मन सभी से मिलाओ। मिल-जुलकर रहो, अपना सुख बांटो-दुःख बंटाओ। यही सही अर्थों में ब्राह्मणत्व की साधना है। साधु तुम अभी बने नहीं हो। मन से ब्राह्मणत्व की साधना करोगे, तो पहले ब्राह्मण बनो तो साधु अपने आप बन जाओगे। सेवा बुद्धि का, दूसरों के प्रति पीड़ा का, भाव सम्वेदना का विकास करना ही साधुता को जगाना है। आशा है, तुम इसे अवश्य पूरा करोगे व हमारी भुजा, आंख व पैर बन जाने का संकल्प लोगे, यही आत्मा की वाणी है, जो तुमसे कुछ कराना चाहती है। (श्रावणी पर्व-1988 कार्यकर्त्ता संदेश)
आपमें से हर आदमी को हम यह काम सौंपते हैं कि आप हमारे बच्चे के तरीके से हमारे मिशन को चलाइए। बन्द मत होने दीजिए। हम तो अपनी विदाई ले जाएंगे, लेकिन जिम्मेदारी आपके पास आएगी। आप कपूत निकलेंगे तो फिर लोग आपकी बहुत निन्दा करेंगे और हमारी निन्दा करेंगे। कबीर का बच्चा ऐसा हुआ था जो कबीर के रास्ते पर चलता नहीं था तो सारी दुनिया ने उससे यह कहा—‘बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल’ आपको कमाल कहा जाएगा और यह कहा जाएगा कि कबीर तो अच्छे आदमी थे, लेकिन उनकी संतानें दो कौड़ी की भी नहीं है। (25 मार्च 1987-सन्देश)
परिजनो! आप हमारी वंश परम्परा को जानिए। अगर हमको यह मालूम पड़ा कि आपने हमारी परम्परा नहीं निबाही और अपना व्यक्तिगत ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया और अपना व्यक्तिगत अहंकार, अपनी व्यक्तिगत यश-कामना और व्यक्तिगत धन-संग्रह करने का सिलसिला शुरू कर दिया, व्यक्तिगत रूप से बड़ा आदमी बनना शुरू कर दिया, तो हमारी आंखों से आंसू टपकेंगे और वह आंसू आपको चैन से नहीं बैठने देंगे। आपको हैरान कर देंगे। (25 मार्च 1987-सन्देश)
हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में सीमाबद्ध है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप हमारे विचारों को फैलाने में सहायता कीजिए। अब हमको नई पीढ़ी चाहिए। हमारी विचारधारा उन तक पहुंचाइए। (4 अगस्त 1983-संदेश)
आपके पास जो भी घटना आए, परिस्थिति आए, व्यक्ति या विचार आए, प्रत्येक के ऊपर कसौटी लगाइए और देखिए कि इसमें क्या उचित है और क्या अनुचित है? कौन नाराज होता है और कौन खुश होता है—यह देखना आप बंद कीजिए। अगर आपने यह विचार करना शुरू कर दिया कि हमारे हितैषी किस बात में प्रसन्न होंगे तो फिर आप कोई सही काम नहीं कर सकते। हमको भगवान् की प्रसन्नता की जरूरत है। (5 अप्रैल 1976-संदेश)
सत्साहस अपनाने की गरिमा तो सदा ही रही है और रहेगी, पर इस दिशा में बढ़ने, सोचने वालों में से अत्यधिक भाग्यवान् वे हैं, जो किसी महान् अवसर के सामने आते ही उसे हाथ से न जाने देने की तत्परता बरत सके। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप कार्यक्रम-18)
बड़प्पन न बड़ा बनने में, न संचय में और न उपभोग में है। बड़प्पन एक दृष्टिकोण है, जिसमें सदा ऊंचा उठने, आगे बढ़ने, रास्ता बनाने और जो श्रेष्ठ है उसी को अपनाने की उमंग उठती और हिम्मत बंधती है। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप कार्यक्रम-20)
मूढ़ मान्यताओं में जकड़े, अनाचारों से अभ्यस्त, कुचक्री, षड्यंत्ररत लोगों को न हमारा परामर्शदाता होना चाहिए, न सूत्र संचालक, न नेता। भले ही वे अपनी चतुरता के कारण बड़े लोगों में गिने जाने लगे हों। कोई ब्राह्मण वंश में जन्मा है या साधुवेश धारण करता है, अधिक पढ़ा है या पदाधिकारी बन गया है—इनमें से एक भी ऐसा कारण नहीं हैं, जिससे इन्हें नीति-निर्धारक माना जा सके। इस अज्ञान, अंधकार, अनाचार और दुराग्रह के माहौल में हमें समुद्र में खड़े स्तम्भों की तरह एकाकी खड़े होना चाहिए। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप कार्यक्रम-23)
हम अपना अन्तःकरण टटोलें और उसमें यदि कुछ उदात्त जीवन तत्त्व के कण मिल जाएं तो उन्हें सींचें, संजोएं और जितना अधिक संभव हो सके ऋषियों की परम्परा जीवित रखने के लिए खुद ही कुछ कर दिखाएं। (हमारी युग निर्माण योजना-1, पेज-99)
सूझबूझ और हिम्मत के धनी एक बार जिस बात का निश्चय कर लेते हैं, जो ठान लेते हैं, उसके लिए जोश और होश को मिलाकर ऐसी चाल चलते हैं कि साधनों का अभाव और प्रतिकूलता का प्रभाव उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाता। (हमारी युग निर्माण योजना-1, पेज-104)
युग निर्माण परिजनों को जेवर, जायदाद बनाने की नहीं, विश्व निर्माण की योजनाएं बनानी चाहिए। ऐसा करने में ही युग सेनानी की –युग निर्माताओं के अनुरूप शान रहेगी। (हमारी युग निर्माण योजना-1, पेज-117)
मनुष्यता की गरिमा और मनुष्य की शान तभी अक्षुण्ण रहती है, जब भय व प्रलोभनों के आगे झुकना स्वीकार न किया जाय और नीति, न्याय के औचित्य का सम्बल पकड़े हुए सीना तानकर खड़ा रहा जाए। (हमारी युग निर्माण योजना-1, पेज-123)
आज की विषम परिस्थितियों में युग निर्माण परिवार के व्यक्तियों को महाकाल ने बड़े जतन से ढूंढ़-खोजकर निकाला है। आप सभी बड़े ही महत्त्वपूर्ण एवं सौभाग्यशाली हैं। इस समय कुछ खास जिम्मेदारियों के लिए आपको महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। भगवान् के कार्य में भागीदारी निभानी है। आप धरती पर केवल बच्चे पैदा करने और पेट भरने के लिए नहीं आए हैं, बल्कि आज की इन विषम परिस्थितियों को बदलने में भगवान् की मदद करने के लिए आए हैं। (सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन)
भगवान् अगर किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो उसे बहुत सारी धन-सम्पत्ति देते हैं तथा औलाद देते हैं, यह बिलकुल गलत ख्याल है। वास्तविकता यह है कि जो भगवान् के नजदीक होते हैं उन्हें धन-सम्पत्ति एवं औलाद से अलग कर दिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में ही उनके द्वारा यह संभव हो सकता है कि वे भगवान् का काम करने के लिए अपना साहस एकत्रित कर सकें और श्रेय प्राप्त कर सके। इससे कम कीमत पर किसी को भी श्रेय नहीं मिला है। (सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन)
हमारी उनसे प्रार्थना है, जो जागरूक हैं। जो सोये हुए हैं उनसे हम क्या कह सकते हैं। आपसे कहना चाहते हैं कि फिर कोई ऐसा समय नहीं आयेगा, जिसमें आपको औलाद या धन से वंचित रहना पड़े, परन्तु अभी इस जन्म में इन दोनों की बाबत न सोचें। विराम लगा दें। आपको भगवान् के काम के अन्तर्गत रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता सदा पूरी होती रहेगी, इसके लिए किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। (सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन)
अगले दिनों धन का संग्रह कोई नहीं कर सकेगा, क्योंकि आने वाले दिनों में धन के वितरण पर लोग जोर देंगे। शासन भी अगले दिनों आपको कुछ जमा नहीं करने देगा। अतः आप मालदार बनने का विचार छोड़ दें। आप अगर जमाखोरी का विचार छोड़ देंगे तो इसमें कुछ हर्ज नहीं है। अगर आप पेट भरने-गुजारे भर की बात सोचें तो कुछ हर्ज नहीं है। आप सन्तान के लिए धन जमा करने, उनके लिए व्यवस्था बनाने की चिन्ता छोड़ देंगे। उन्हें उनके ढंग से जीने दें। संसार में जो आया है, वह अपना भाग्य लेकर आया है। (सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन)
आगामी दिनों प्रज्ञावतार का कार्य विस्तार होने वाला है। उस काम की जिम्मेदारी केवल ब्राह्मण तथा संत ही पूरा कर सकते हैं। आपको इन दो वर्गों में आकर खड़ा हो जाना चाहिए तथा प्रज्ञावतार के सहयोगी बनकर उनके कार्य को पूरा करना चाहिए। अगर आप अपने खर्च में कटौती करके तथा समय में से कुछ बचत करके इस ब्राह्मण एवं सन्त परम्परा को जीवित कर सकें, तो आने वाली पीढ़ियां आप पर गर्व करेंगी। अगर समस्याओं के समाधान करने के लिए खर्चे में कुछ कमी आती है, तो हम आपको सहयोग करेंगे। (सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन)
यों युग शिल्पियों की संख्या एक लाख के लगभग है, पर उनमें एक ही कमी है, संकल्प में सुनिश्चितता का-दृढ़ता का-अनवरतता का अभाव। अभी उत्साह उभरा तो उछलकर आकाश चूमने लगे और दूसरे दिन ठंडे हुए तो झाग की तरह बैठ गये। इस अस्थिरता में लक्ष्यवेध नहीं हो सकता। उसके लिए अर्जुन जैसी तन्मयता होनी चाहिए जो मछली की आंख भर ही देखें। इसके लिए एकलव्य जैसी निष्ठा होनी चाहिए, जो मिट्टी के पुतले को निष्णात अध्यापक बना ले। (अखण्ड ज्योति-1981, नवम्बर 64)
मेरी चाह है कि हाथ से सत्य न जाने पाये। जिस सत्य को तलाशने और पाने के लिए मैंने कंकरीले, रेतीले मार्ग पर चलना स्वीकार किया है, वह आत्म-स्वीकृति किसी भी मूल्य पर, किसी भी संकट के समय डगमगाने न पाये। सत्य का अवलम्बन बना रहे, क्योंकि उसकी शक्ति असीम है। मैं उसी के सहारे अपनी हिम्मत संजोये रहूंगा। (अखण्ड ज्योति 1985, मई)
प्रज्ञा परिवार को अन्य संगठनों, आन्दोलनों, सभा-संस्थाओं के समतुल्य नहीं मानना चाहिए। वह युग सृजन के निमित्त अग्रगामी मूर्धन्य लोगों का एक सुसंस्कारी परिकर-परिसर है। उन्हें केवल एक ही बात सोचनी चाहिए कि समय की जिस चुनौती ने जाग्रत् आत्माओं को कान पकड़कर झकझोरा है, उसके उत्तर में उन्हें दांत निपोरने हैं या सीना तानना है? (वाङ्मय क्र.1, पेज-6.1)
यह क्षुद्रता कैसी, जो अग्रदूतों की भूमिका निभाने में अवरोध बनकर अड़ गई है। समर्थ को असहाय बनाने वाला यह व्यामोह आखिर कैसा भवबन्धन है? कुसंस्कार है? दुर्विपाक है या मकड़ी का जाल? कुछ ठीक से समझ नहीं आता। यह समय पराक्रम और पौरुष का है, शौर्य और साहस का है। इस विषम वेला में युग के अर्जुनों के हाथों से गांडीव क्यों छूटे जा रहे हैं? सिद्धान्तवाद क्या कथा-गाथा जैसा कोई विनोद मनोरंजन है, जिसकी यथार्थता परखी जाने का कभी अवसर ही न आये? (वाङ्मय क्र.1, पेज-6.1)
नवनिर्माण के कंधे पर लदे उत्तरदायित्व मिल-जुलकर संपन्न हो सकने वाला कार्य था, सो समझदारों में कोई हाथ न लगा तो अपने बाल परिवार-गायत्री परिवार को लेकर जुट पड़े। बात अगले दिनों की आती है। इस सम्बन्ध में स्मरण दिलाने योग्य बात एक ही है कि हमारी आकांक्षा और आवश्यकताओं को भुला न दिया जाय। समय विकट है। प्रत्येक परिजन का भावभरा सहयोग हमें चाहिए। (हमारी वसीयत और विरासत-174)
गायत्री परिवार का हर व्यक्ति बड़ा है। छोटेपन का उसने मुखौटा भर पहन रखा है। उतारने भर की देर है कि उसका असली चेहरा दृष्टिगोचर होगा। हमें हमारे मार्गदर्शक ने एक पल में क्षुद्रता का लबादा झटककर महानता का परिधान पहना दिया था। इस काया कल्प में मात्र इतना ही हुआ था कि लोभ, मोह की कीचड़ से उबरना पड़ा। जिस-तिस के परामर्शों—आग्रहों की उपेक्षा करनी पड़ी और आत्मा-परमात्मा के संयुक्त निर्णय को शिरोधार्य करने का साहस जुटाना पड़ा। इसके बाद एकाकी नहीं रहना पड़ा। (हमारी वसीयत और विरासत-174)
इस समय जो भगवान के भक्त हैं, जिन्हें इस संसार के प्रति दर्द है, उनके नाम हमारा यही सन्देश है कि वे अपने व्यक्तिगत लाभ के कार्यों में कटौती करें एवं भगवान् का काम करने के लिए आगे आएं। अगर इस समय भी आप अपना मतलब सिद्ध करते रहे और मालदार बनते रहे, तो पीछे आपको बहुत पछताना पड़ेगा। अब आपकी इज्जत- आपकी इज्जत नहीं, हमारी इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है। (गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
भगवान् कृष्ण ने महाभारत के उपरान्त राजसूय यज्ञ में आग्रहपूर्वक आगन्तुकों के पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था और सज्जनोचित विनम्रता का परिचय दिया था। गांधीजी कांग्रेस के पदाधिकारी नहीं रहे, किन्तु फिर भी सबसे अधिक सेवा करने और मान पाने में समर्थ हुए। चाणक्य झोपड़ी में रहते थे, ताकि राजमद उनके ऊपर न चढ़े और किसी साथी के मन में प्रधानमन्त्री का ठाट-बाट देखकर वैसी ही ललक न उठे। राजा जनक हल जोतते थे। बादशाह नसीरुद्दीन टोपी सीकर गुजारा करते थे। यह वे उदाहरण हैं जिनसे साथियों को अधिक विनम्र और संयमी बनने की प्रेरणा मिलती है। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप-32)
हनुमान ने कितनी उपासना की थी, नल-नील, जामवन्त, अर्जुन ने कितनी पूजा एवं तीर्थयात्रा की थी? यह हम नहीं कह सकते, परन्तु उन्होंने भगवान् का काम किया था। ये लोग घाटे में नहीं रहे। इस समय महाकाल कुछ गलाई-ढलाई करने जा रहे हैं। अब नये व्यक्ति, नयी परम्पराएं, नये चिन्तन उभरकर आयेंगे। अगले दिनों यह सोचकर अचम्भा करेंगे कितने कम समय में इतना परिवर्तन कैसे हो गया। अगर हम समय को पहचान पाये तो आप सच्चे अर्थों में भाग्यवान बन सकते हैं। (गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
हम आत्मीयता का क्षेत्र व्यापक करें। कुछ लोगों को ही अपना मानने और उन्हीं की फरमाइशें पूरी करने, उपहार लादते रहने के व्यामोह दलदल में न फंसें। अपनी सामर्थ्य को सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगाएं। देश, धर्म, समाज और संस्कृति को प्यार करें। आत्मीयता को व्यापक बनाएं। सबको अपना और अपने को सबका समझें। इस आत्म-विस्तार का व्यावहारिक स्वरूप लोकमंगल की सेवा-साधना से ही निखरता है। उदारता बरतें और बदले में आत्म-संतोष, लोक सम्मान तथा दैवी अनुग्रह की विभूतियां कमाएं। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-39)
संत, सुधारक और शहीद सामान्य जन जीवन से ऊंचे स्तर के होने के कारण छोटे-बड़े अवतारों की गिनती में आते हैं। संत अपनी सज्जनता से मानव जीवन के सदुपयोगों का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। जनजीवन पर छाये निकृष्ट चिंतन और दुराचरण से जूझने का प्रबल पराक्रम सुधारकों को करना होता है। शहीद वे होते हैं, जो स्वार्थ और परमार्थ में उत्सर्ग कर देते हैं। अपने दायरे को वे शरीर, परिवार तक सीमित न रख विश्व नागरिक जैसा बना लेते हैं। (प्रज्ञा अभियान-1983, जुलाई)
उपदेश तो बहुत पा चुके हो, किन्तु उसके अनुसार क्या तुम कार्य करते हो? अपने चरित्र का संशोधन करने में अभी भी क्या किसी अन्य की राह देख रहे हो? तुम तो अब श्रेष्ठ कार्य करने की योग्यता प्राप्त करो। विवेक बुद्धि की किसी प्रकार अब उपेक्षा न करो। अपने चरित्र का संशोधन करने में लापरवाही करोगे या प्रयत्न में ढिलाई करोगे तो उन्नति कैसे हो सकती है? अपने शुभ अवसरों को न खोकर जीवन रणक्षेत्र में प्रबल पराक्रम से निरन्तर अग्रसर होकर विजयी प्राप्त करने के लिए सदैव तत्पर रहना सीखो। (अखण्ड ज्योति-1964)
हमारी अभिलाषा है कि गायत्री परिवार का हर सदस्य उत्कृष्ट प्रकार के व्यक्तित्व से सम्पन्न भारतीय धर्म और संस्कृति का सिर ऊंचा करने वाला सज्जन व्यक्ति बने। उसका जीवन उलझनों और कुंठाओं से भरा हुआ नहीं, वरन् आशा, उत्साह, संतोष एवं मस्ती से भरा हुआ बीते। अपनी श्रेष्ठता का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करना—इस कसौटी पर हमारी वास्तविकता अब परखी जानी है। अब तक उपदेशों का कितना प्रभाव अंतःकरण पर हुआ? इस प्रश्न का उत्तर अब हमें आचरण द्वारा ही देना पड़ेगा। (अखण्ड ज्योति-1964)
छोटे-छोटे मकान, पुलों को मामूली ओवरसियर बना लेते हैं, पर जब बड़ा बांध बनाना होता है तो बड़े इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ती है। मेजर आपरेशन छोटे अनुभवहीन डॉक्टरों के बस की बात नहीं। उसे सिद्धहस्त सर्जन ही करते हैं। समाज में मामूली गड़बड़ियां तो बार-बार होती, उठती रहती है। उनका सुधार कार्य सामान्य स्तर के सुधार ही कर लेते हैं, जब पाप अपनी सीमा का उल्लंघन कर देता है, मर्यादाएं टूटने लगती हैं, तो महासुधारक की आवश्यकता होती है, तब इस कार्य को महाकाल स्वयं करते हैं। (प्रज्ञा अभियान-1983, जून)
आज आदर्शवादिता कहने-सुनने भर की वस्तु रह गई है। उसका उपयोग कथा, प्रवचनों और स्वाध्याय-सत्संगों तक ही सीमित है। आदर्शों की दुहाई देने और प्रचलनों की लकीर पीटने से कुछ बनता नहीं। इन दिनों वैसा ही हो रहा है। अस्तु, दीपक तले अंधेरा होने जैसी उपहासास्पद स्थिति बन रही है। आवश्यकता इस बात की है कि सांस्कृतिक आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में प्रवेश मिले। हम ऋषि परम्परा के अनुगामी हैं, उन नर वीरों की संतानें हैं, यह ध्यान में रखते हुए आदर्शों की प्रवंचना से बचा ही जाना चाहिए। (वाङ्मय क्रमांक- 35, पेज-1.12)
इन दिनों सामाजिक प्रचलनों में अनैतिकता, मूढ़ मान्यता और अवांछनीयता की भरमार है। हमें उलटे को उलटा करके सीधा करने की नीति अपनानी चाहिए। इसके लिए नैतिक, बौद्धिक और समाजिक क्रान्ति आवश्यक अनुभव करें और उसे पूरा करने में कुछ उठा न रखें। आत्म-सुधार में तपस्वी, परिवार निर्माण में मनस्वी और समाज निर्माण में तेजस्वी की भूमिका निबाहें। अनीति के वातावरण में मूक-दर्शक बनकर न रहें। शौर्य, साहस के धनी बनें और अनीति उन्मूलन तथा उत्कृष्टता अभिवर्धन में प्रखर पराक्रम का परिचय दें। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-40)
20 वीं सदी का अंत और 21 वीं सदी का आरम्भ युग सन्धि का ऐसा अवसर है, जिसे अभूतपूर्व कहा जा सकता है। शायद भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति कभी न हो। अपने मतलब से मतलब रखने का आदिमकालीन सोच अब चल न सकेगा। इन दिनों महाविनाश एवं महासृजन आमने-सामने खड़े हैं। इनमें से एक का चयन सामूहिक मानवी चेतना को ही करना पड़ेगा। देखना इतना भर है कि इस परिवर्तन काल में युग शिल्पी की भूमिका संपादन के लिए श्रेय कौन पाता है? (अखण्ड ज्योति-1988, सितम्बर)
प्रखर प्रतिभा संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊंची उठी होती है। उसे मानवी गरिमा का ध्यान रहता है। उसमें आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा का समावेश रहता है। लोकमंगल और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन से उसे गहरी रुचि रहती है। ऐसे लोग असफल रहने पर शहीदों में गिने और देवताओं की तरह पूजे जाते हैं। यदि वे सफल होते हैं, तो इतिहास बदल देते हैं। प्रवाहों को उलटना इन्हीं का काम होता है। (21 वीं सदी बनाव उज्ज्वल भविष्य-29)
अवांछनीयताओं के विरुद्ध मोर्चा लेने के लिए अपनी नीति और कार्यपद्धति स्पष्ट है। ज्ञानयज्ञ का- विचार क्रान्ति का प्रचार अभियान इसीलिए खड़ा किया गया है। अवांछनीयताएं वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में बेतरह घुस पड़ी हैं। यह सब चल इस लिए रहा है कि उसे सहन कर लिया गया है। इसके लिए लोकमानस ने समझौता कर लिया है और बहुत हद तक उसे अपना लिया है। जन साधारण को प्रचार अभियान द्वारा प्रकाश का लाभ और अंधकार की हानि को गहराई तक अनुभव करा दिया, तो निश्चय ही दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध विद्रोह भड़क सकता है। अवांछनीयता एवं दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष व्यापक रूप से खड़ा किया जाना चाहिए। इसके लिए भर्त्सना अभियान चलाएं। (हमारी युग निर्माण योजना-2, पेज-203)
दुर्योधन जैसे अनीति का चयन करने वाले एवं अर्जुन जैसे ईश्वरीय कृपा को वरण करने वाले तत्त्व हर मनुष्य के भीतर विद्यमान है। एक को विवेक या सुबुद्धि एवं दूसरे को अविवेक या दुर्बुद्धि कह सकते हैं। किसका चयन व्यक्ति करता है, यह उसकी स्वतंत्रता है। (प्रज्ञापुराण-1, पेज-51)
समस्त मनुष्य समाज एक शरीर की तरह है और उसके घटकों को सुख-दुःख में सहयोगी रहना पड़ता है। एक नाव में बैठने वाले साथ-साथ डूबते पार होते हैं। मानवी चिन्तन और चरित्र यदि निकृष्टता के प्रवाह में बहेगा तो उसकी अवांछनीय प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत् में विषाक्त विक्षोभ उत्पन्न करेगी और प्राकृतिक विपत्तियों के रूप में प्रकृति प्रताड़ना बरसेगी। चित्र-विचित्र स्तर के दैवी प्रकोप, संकटों और त्रासों से जनजीवन को अस्त-व्यस्त करके रख देंगे। हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपनी सज्जनता तक ही न सीमित रहे, वरन् आगे बढ़कर संपर्क क्षेत्रों की अवांछनीयता से जूझें। जो इस समूह धर्म की अवहेलना करता है, वह भी विश्व व्यवस्था की अदालत में अपराधी माना जाता है। (प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-8)
मुद्दतों से देव परम्पराएं अवरुद्ध हुई पड़ी हैं। अब हमें सारा साहस समेटकर तृष्णा और वासना के कीचड़ से बाहर निकलना होगा और वाचालता और विडम्बना से नहीं, अपनी कृतियों से अपनी उत्कृष्टता का प्रमाण देना होगा। हमारा उदाहरण ही दूसरे अनेक लोगों को अनुकरण का साहस प्रदान करेगा। यही ठोस, वास्तविक और प्रभावशाली पद्धति है। (महाकाल का युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया-)
युग निर्माण की सारी योजनाओं का आधार ही यह है कि जो करना है, जो कराना है, जो बदलना है, जो सुधारना है, उसका आरम्भ अपने से करें। आप भला तो जग भला- वाला सिद्धान्त रखने वाले अधूरे संत होते हैं। पूरा संत दूसरों को भला बनाने में उतना ही तत्पर रहता है, जितना कि अपना सुधार करने में। (सामूहिक चेतना की ओर)
गर्मी की तपन बढ़ चलने पर वर्षा की संभावना का अनुमान लगा लिया जाता है। दीपक जब बुझने को होता है, उसकी लौ जोर से चमकती है। मरण की वेला निकट आते ही रोगी में हलकी-सी चेतना लौटती है एवं लम्बी सांसें चलने लगती हैं। जब संसार में अनीति की मात्रा बढ़ती है, जागरूकता, आदर्शवादिता और साहसिकता की उमंगें अनय की असुरता के पराभव हेतु आत्माओं में जलने लगती हैं। प्रज्ञावतार की इस भूमिका को युग परिवर्तन की वेला में ज्ञानवानों की पैनी दृष्टि सरलतापूर्वक देख सकती है। (प्रज्ञा अभियान-1983, जुलाई-17)
मनुष्य की गतिविधियां दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का रूप ले बैठी हैं। विश्व के व्यवस्थापक मनुष्य की रीति-नीति ओछी और उच्छृंखल हो जाय, तो फिर संतुलन कहां रह सकता है? मर्यादाएं हटती जा रही हैं और उच्छृंखलता के झंडे फहरा रहे हैं। कर्त्तव्य को बहिष्कृत कर दिया गया है। अधिकार का बोलबाला है। जिसके हाथ जो कुछ है, वह उसका अधिक से अधिक उपयोग अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए कर रहा है। शिकायत सबको सबकी है, संतोष किसी को किसी से नहीं। यह परिस्थिति यथावत देर तक नहीं चल सकती। भगवान् को यह स्वीकार नहीं। अब की बार उनका आगमन किसी व्यक्ति के रूप में नहीं, एक प्रखर आंधी और तूफान जैसी प्रक्रिया के रूप में होगा, इसी का नाम है—युग परिवर्तन अभियान। (हमारी युग निर्माण योजना-1, पेज-37)
परिजनो! अपनी आज की मनोदशा पर हमें विचार करना ही है। अपनी अब तक की गतिविधियों पर हमें शान्त चित्त से ध्यान देना है। क्या हमारे कदम सही दिशा में चल रहे हैं? यदि नहीं, तो क्या यह उचित न होगा कि हम ठहरें, रुकें, सोचें और यदि रास्ता भूल गये हैं, तो पीछे लौटकर सही रास्ता पर चलें। इस विचार मन्थन की वेला में आज हमें यही करना चाहिए—यही सामयिक चेतावनी और विवेकपूर्ण दूरदर्शिता का तकाजा है। (अखण्ड ज्योति-1961, नवम्बर 5)