Books - मरे तो सही, पर बुद्धिमत्ता के साथ
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Language: HINDI
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आसक्ति मनुष्य को मृत्यु के बाद भी घुमाती है
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आकांक्षाएं मनुष्य की चेतना का विशिष्ट लक्षण हैं। भोजन नींद, काम-चेष्टाएं और प्रजनन-क्रम सभी अन्य प्राणियों की तरह प्रकृति प्रेरणा से उसे भी प्रेरित-प्रभावित करते हैं। किन्तु इनमें भी उसकी आंतरिक आकांक्षाएं प्रेरणा की दिशा व स्वरूप निर्धारित करती हैं। यही कारण है कि इन प्राकृतिक आवेगों को भी मनुष्यों में अन्य प्राणियों जैसी समरूपता नहीं पाई जाती।
इन सामान्य जैविक हलचलों के अतिरिक्त जो मनुष्य की बहुविध गतिविधियां हैं, प्रगति के प्रयास और चरण हैं, वे सब आकांक्षाओं तथा उनकी पूर्ति के लिये किये गये कार्यों के ही परिणाम हैं। आकांक्षाएं ही मनुष्य को किसी लक्ष्य को स्थिर करने, तदनुरूप योजना बनाने और उसमें मनोयोग से जुट पड़ने की प्रेरणा देती हैं। मनुष्य की जीवन-पद्धति और क्रियाकलापों पर इन आकांक्षाओं का बहुत प्रभाव पड़ता है।
प्रत्येक व्यक्ति अपनी आकांक्षाएं पूरी करने का प्रयास करता है। यह उचित भी है। तो भी भारतीय तत्वदर्शन में निष्काम भाव से कर्म करने पर बल दिया गया है।
सामान्यतः लोगों को यह बात बहुत विचित्र लगती है। भला फलाकांक्षा के बिना काम कैसे किया जा सकता है? फिर यह भी पूछा जा सकता है कि निष्काम भाव से कर्म करने की सामर्थ्य और सिद्धि अर्जित करना भी क्या स्वयं एक आकांक्षा-कामना नहीं है?
वस्तुतः निष्काम भाव से कर्म का अर्थ आकांक्षा विहीन या प्रयोजन विहीन कार्य-प्रवृत्ति नहीं है। भारतीय मनीषियों का आशय यह था कि किसी भी ऐहिक आकांक्षा के प्रति इतनी आसक्ति न पाल ली जाय कि उसकी पूर्ति न होने पर मन अशान्ति, अतृप्ति और असन्तोष से भरा रहे। क्योंकि एक तो फल सदैव पुरुषार्थ पर ही निर्भर नहीं करता, परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। दूसरे सन्तोष-शांति परिणाम या उपलब्धियों की नहीं अपने मन की ही भाव-संवेदना है, जो व्यक्ति अमुक फलाकांक्षा के साथ बांध लेने पर उनकी पूर्ति से अनुभव करता है। इस तथ्य को समझाना भारतीय दर्शन का एक उद्देश्य रहा है। इसे समझ लेने पर जहां निरन्तर प्रगति-पथ पर बढ़ने की अनवरत प्रेरणा प्राप्त होती रहती है वहीं व्यग्रता, क्षोभ, खिन्नता, अशांति और कुंठा भी नहीं पनप पाती।’’ ‘‘हर दिन नया जन्म, हर रात नयी मृत्यु’’ और असंग भाव से कर्त्तव्य करते रहने के जीवन-सूत्र इसी दार्शनिक दृष्टि से प्राप्त होते रहते हैं।
जीवन के रहस्यों पर से जितना ही पर्दा उठता जाता है, उतना ही भारतीय मनीषियों के इस दार्शनिक प्रतिपादन की आवश्यकता और वास्तविकता स्पष्ट होती जाती है। यह ज्ञात होता जाता है कि अत्यधिक आसक्ति व्यक्ति को न केवल इस जीवन में अशांत बनाये रखती है वरन् मृत्यु के बाद भी वह उसी तृष्णा से मनुष्य को घुमाती बेचैन बनाये रहती है। भूत-प्रेत बने रहने और मारे-मारे भटकते फिरने की दयनीय विवशता का यह आसक्ति का अतिरेक ही कारण बनता है।
प्रायः प्रेतात्माओं के किस्सों में दंत कथाओं, कपोल-कल्पनाओं, ठग-व्यापार और प्रवंचनाओं की ही अधिकता होती है। किन्तु, इस धुंध और कुहासे से पृथक अनेक वास्तविक तथ्य उपलब्ध हुए हैं और परामनोविज्ञान के अन्वेषणों से प्रामाणिक घटनाएं सामने आई हैं। उनसे एक बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जहां मरने के बाद अनेक मनुष्य अपने इस जीवन के श्रम की थकान को दूर करने के लिये परलोक की गुफा में विश्राम लेते हैं स्वर्ग-नरक के स्वप्न दृश्यों में विचरण के बाद थकान और बोझ से मुक्त हो नयी क्षमता के साथ सक्रिय हो उठते हैं वहीं आसक्ति और आवेश की अधिकता से उद्विग्न, विक्षुब्ध, अशांत, अतृप्त, आतुर लोग प्रेत बनकर भटकते हैं और अपनी आसक्ति की तृप्ति के प्रयास में वर्षों यों ही गुजार देते हैं। आज तक प्रेतों के बारे में जितने भी प्रामाणिक विवरण मिले हैं, सभी दो तथ्यों की पुष्टि करते हैं। पहला तो यह कि अमुक वस्तुओं, साधना-उपकरणों या प्रवृत्तियों से प्रगाढ़ आसक्ति ही प्रेतयोनि की भटकन का कारण बनती है। दूसरा यह कि व्यक्ति का संस्कार-क्षेत्र इस जीवन में भी सक्रिय एवं प्रभावी रहता है। दुष्ट आत्माएं प्रेतयोनि पाकर भी दूसरों को पीड़ा पहुंचाने आतंकित करने और अनिष्ट करने में ही जुटी रहती हैं। जबकि सज्जन लोग अपनी आसक्ति के कारण भटकते तो हैं परन्तु दूसरों को क्षति नहीं पहुंचाते। उल्टे, यथाशक्ति यदा-कदा सहायता करते हैं।
अमरीका आज दुनिया का एक अग्रणी देश है। वैज्ञानिक प्रगति ही उसकी समृद्धि का कारण है। विज्ञान के केन्द्र इस देश के राष्ट्रपति का निवास ‘‘ह्वाइट-हाउस’’ कहलाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से इतने विकसित समाज के राष्ट्रपति कोई अविकसित दुर्बल मनःस्थिति वाले लोग नहीं हो सकते। बुद्धि-सामर्थ्य और राजनैतिक चातुर्य के बल पर ही वे इस पद पर पहुंचते हैं। इस राष्ट्रपति-निवास में रहने वाले प्रत्येक राष्ट्रपति ने अब तक एक अनुभव समान रूप से किया है वह है अमेरिका के महान राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के भूत का। यह भूत हाथ में घड़ी, सर पर टोप धारण किये एक कमरे से दूसरे कमरे में आता जाता सैकड़ों बार देखा जा चुका है। पर उसने कभी किसी को कोई क्षति नहीं पहुंचायी न ही आतंकित किया। हां, एक राष्ट्रपति लिंडन जानसन की पत्नी अवश्य उन्हें देखने के बाद वहां सोने को तैयार ही नहीं हुई और उनके रात्रि-शयन का प्रबन्ध व्हाइट-हाउस में ही दूसरे कोने के कमरों में किया गया। पर शेष राष्ट्रपति-परिवार वहीं रहते रहे हैं। वे अपना काम करते रहते हैं और यदा-कदा उस स्वर्गीय राष्ट्रपति को देखते रहते हैं। अब्राहम लिंकन एक श्रेष्ठ व्यक्ति थे—मानवीय उदारता और सत्वृत्तियों से भरपूर। किन्तु उनकी हत्या कर दी गई थी। लगता है लिंकन की अशांत आत्मा अभी तक व्हाइट हाउस के प्रति अपनी आसक्ति छोड़ नहीं पाई है। किन्तु अपनी सज्जन-प्रकृति के कारण उन्होंने वहां कभी कोई उत्पात भी नहीं किया। अमरीका के ही महान स्वातन्त्र्य-योद्धा राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन को भी वाशिंगटन शहर के पीछे नदी के तट पर शहीदों की समाधियों के बीच विचरण करते सैकड़ों बार देखा जा चुका है। लगता है स्वर्गीय राष्ट्रपति अपने प्रिय साथियों के प्रति अगाध स्नेह से बंधे होने के कारण ही वहां घूमते रहते हैं। हो सकता है वे वहां दबी-सिमटी आत्माओं के मार्गदर्शन के लिये ही अभी तक रुके हों और सबके साथ ही नया जीवनक्रम शुरू करने के अभिलाषी हों।
पत्रकार श्री जनार्दन ठाकुर ने पिछले दिनों लखनऊ में प्रेतात्माओं को जो प्रत्यक्ष अनुभव किया उसके आधार पर उन्होंने 7 मार्च 77 के ‘सन्डे’ में एक लेख ही लिख डाला और प्रश्न किया कि क्या प्रेतात्माओं का अस्तित्व है?
श्री ठाकुर का कहना है कि एक रात जब वे लखनऊ के प्रेस क्लब में ऊपरी हिस्से में रुके थे और टाइपराइटर पर एक रिपोर्ट टाइप कर रहे थे, तभी उन्हें नीचे हाल में टेबल टेनिस के खेलने की आवाज सुनायी पड़ी। देर तक सुनते रहने पर, उत्सुक ठाकुर ने कमरे से निकलकर रेलिंग से नीचे झांका, तो वहां बस टेनिस की गेंद मेज की एक ओर से दूसरी ओर आ जा रही थी। खिलाड़ी दिख नहीं रहे थे। श्री ठाकुर घबड़ा गये। बाद में पता चला कि और भी कई लोग रात में इन प्रेतात्माओं को यहां टेबल टेनिस खेलते देख चुके हैं। लगता है, उनकी आपसी आसक्ति और खेल तथा इस भवन से लगाव उन्हें मरने के बाद भी वहीं घुमा रहा है।
‘‘ब्रिटिश गवर्नमेंट इन इण्डिया’’ पुस्तक के अनुसार अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन ने कलकत्ता स्थित ‘‘हेस्टिंग्ज हाउस’’ में अपने एक पूर्ववर्ती गवर्नर जनरल लार्ड वारेन हेस्टिंग्ज का भूत कई बार देखा था। कभी वे देखते कि हेस्टिंग्ज चार घोड़ों की बग्घी में बैठकर आये। इमारत के सामने बग्घी रुकी और हेस्टिंग्ज उससे उतर कर सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। वहां ऊपर वे एक निश्चित कमरे में पहुंचकर एक दराज में कुछ ढूंढ़ते से रहे हैं। हर बार यही क्रम। कर्जन ने पता लगाया तो ज्ञात हुआ कि कुछ महत्वपूर्ण सरकारी दस्तावेज और कुछ निजी बहुमूल्य वस्तुएं हेस्टिंग्ज की इसी दराज से गुम हो गयी थीं। उस समय ‘कलकत्ता-गजट’, जोकि सरकारीपत्र था में उन चीजों की खोज करने वाले को बड़ी रकम इनाम में देने की घोषणा करने वाला विज्ञापन भी छपा था। जाहिर है कि वारेन हेस्टिंग्ज का मन उनके मरने के बाद भी उन्हीं वस्तुओं से बंधा है। परामनोविज्ञान-अनुसंधानों में रुचि लेने वाले और उस दिशा में कार्य करने वाले श्री कीर्तिस्वरूप रावत के अनुसार उन्हें एक बार ट्रेन में उनकी एक पूर्व परिचित महिला मिली। बीच में ही वे अदृश्य हो गईं जिससे ज्ञात हुआ कि वह उनका भूत था। इसी भूत ने श्री रावत को एक दूसरे भूत का किस्सा सुनाया। एक लेखक की एक पुस्तक का जयपुर में विमोचन होना था। वे ट्रेन से वहां आ रहे थे। मार्ग में उनका हृदयावरोध से निधन हो गया तब से वे लेखक महोदय ट्रेन में कई लोगों को ठीक उस दिन 14 नवंबर को मिलते और बताते कि मैं जयपुर जा रहा हूं मेरी अमुक पुस्तक का विमोचन होना है। उक्त महिला को भी वे सज्जन मिले थे। कुछ दिनों बाद यह महिला भी चल बसी थी और अब भूत रूप में श्री रावत को मिली। यदि यह घटना सत्य है तो स्पष्ट है कि उक्त लेखक और उक्त महिला दोनों ही अपनी पूर्व आसक्तियों से बंधे अवश्य हैं। श्री रावत एक बौद्धिक हैं तथा उन्हें दृष्टिभ्रम या दिवास्वप्न होने की गुंजाइश कम ही है। जब तक यह आसक्ति नहीं छूटती व्यक्ति उसी चक्कर में फंसा रहता है। आकांक्षा पूरी होने पर या अपनी मृगतृष्णा से जी उकता जाने पर अथवा भोग-भोग लेने पर जब वह आसक्ति समाप्त हो जाती है तो पूर्व संस्कारों के साथ अगला स्वाभाविक जीवन प्राप्त हो जाता है।
मृत्यु के तत्काल बाद दूरस्थ आत्मीयों को दिखना और फिर सदा के लिये अदृश्य हो जाना ऐसी ही आसक्ति और उसकी पूर्ति के बाद, अपने स्वाभाविक गन्तव्य की दिशा में प्रस्थान परिचायक है। ऐसी घटनाएं आये दिन घटती देखी जाती हैं। कई बार यह आसक्ति एक अरसे बाद पूरी होती है।
आस्ट्रेलिया के सिडनी नगर के नागरिक कैप्टन टाउन्स अपनी मृत्यु के डेढ़ माह बाद इस आसक्ति से छूटे। वे एक रोग से मर गये थे। मृत्यु के डेढ़ माह बाद एक दिन जब उनके दो मित्र शोक-संवेदना व्यक्त करने आये तो पत्नी ने उन्हें बैठने टाउन्स के कमरे में भेज दिया व चाय बनाने लगी। वहां उन मित्रों ने देखा कि अलमारी में से टाउन्स के चेहरे का आभास हो रहा है। तभी टाउन्स की लड़की कमरे में आई। उसने देखा तो भावावेश में चीख उठी—‘‘पिताजी!’’ श्रीमती टाउन्स भी तब तक आ गईं। पति को देख, भाव विह्वल हो वे हाथ फैलाये उधर बढ़ीं। जैसे ही उनकी उंगली अलमारी को छू गई टाउन्स की वह प्रतिच्छवि कांपी और सदा के लिये अदृश्य हो गयी। सम्भवतः पत्नी के अन्तिम स्पर्श की प्रबल आसक्ति रुग्ण टाउन्स में शेष रह गई थी।
मेरठ छावनी की माल रोड में आधी रात के आस-पास कुछ प्रेतात्माओं को भटकते देखने का दावा करने वालों की भी कमी नहीं। बताया जाता है सन् 1857 के स्वतन्त्रता-संग्राम के समय विद्रोही सिपाहियों ने मालरोड स्थित बंगलों में रहने वाले अनेक अंग्रेज नर नारियों को मार डाला था, उन्हीं की ये प्रेतात्माएं हैं। अब तक इंग्लैंड में प्रेतात्माओं की संख्या बहुत अधिक पाई गई है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वहां पुराने मकान, पुराने फर्नीचर ज्यों के त्यों सजाकर और संजोकर रखने का बड़ा शौक है। इन वस्तुओं और इमारतों को देखकर प्रेतात्माओं को अपनी पुरानी गतिविधियां याद हो आती हों और वे उनका नया ‘रिहर्सल’ करने लगते हों। दूसरे देशों में पुराने अवशेष उसी रूप में सुरक्षित न होने से प्रेतात्माओं में वैसी ललक अधिक न उभर पाती हो। फिर, जो लोग प्राचीन वस्तुओं को उसी रूप में संजोकर रखने के इतने शौकीन हैं उन्हें मरने के बाद भी अपनी प्राचीन वस्तुओं से मोह रहा आता हो तो क्या आश्चर्य? अमरीका में भूत-प्रेत काफी देखे-पाये जाते हैं। इसका कारण भी अमरीकी लोगों की प्रचंड आसक्ति-मूलक प्रवृत्तियां हो सकती हैं।
हमारे पूर्वज ऋषि इसीलिये जहां एक ओर मृतात्माओं की प्रिय वस्तुएं उसी रूप में संजोकर रखने के स्थान पर उनके उचित लोगों को दान का अग्रह करते रहे हैं ताकि वे लोकमंगल के पुण्य-प्रयोजन का अंग बन सकें वहीं, दैनन्दिन जीवनक्रम में भी आसक्ति-मोह के अतिरेक को दूर करने का परामर्श व प्रेरणा देते रहे हैं। ताकि चित्त पर स्मृतियों-आसक्तियों का बोझ नहीं रहे और हलके-फुलके होकर यह जीवन भी जिया जा सके और अगले जीवन में भी सहज गति में कोई बाधा नहीं रहे। वासनाओं और आवेशों का आधिक्य न केवल इस जीवन को भार बना डालता है, अपितु अगले जीवन को भी अभिशापमय बनाकर रख देता है। अतः उनसे मुक्त रहने का अभ्यास किया जाना चाहिए। तभी जीवन का स्वाभाविक आनन्द प्राप्त हो सकता है।
मृत्यु के समय जिन लोगों को कष्ट प्रतीत होता है, छटपटाहट होती है, वे वही लोग होते हैं, जो इहलौकिक जीवन से अत्यधिक आरुक्ति रखते हैं तथा जिनकी इस शरीर से जुड़ी वासनाएं अतृप्त और प्रज्ज्वलित रही होती हैं। इस शरीर से दूर और अपने परिचित परिवेश से दूर जाने की कल्पना मात्र से वे घबड़ाने लगते हैं। वह घबराहट और मानसिक उत्ताप ही मृत्यु के समय छटपटाहट के रूप में व्यक्त होते हैं। उसका वास्तविक शारीरिक पीड़ा से कोई सम्बन्ध नहीं होता। शारीरिक यातना का तो उस समय प्रश्न ही नहीं क्योंकि मृत्यु के तत्काल पहले चेतन मन पीछे धकेल दिया जाता है अर्थात् बेहोशी की-सी दशा हो जाती है और संस्कारों से भरा अवचेतन मन उभर कर हावी हो चुका होता है। आसक्ति और वासना के अनेक-विध संस्कार ही मनोव्यथा और अन्तर्वेदना के आधार बनकर उस छटपटाहट के रूप में दिखाई पड़ते हैं।
इसीलिए अपने यहां मनीषी पूर्वजों ने ऐसी व्यवस्था प्रचलित कराई थी कि मृत्यु के समय व्यक्ति से स्वयं ही दान का संकल्प कराया जाए। लोगों को जीवन में बार-बार बताया जाता था कि मरने के पूर्व अपनी प्रिय वस्तुएं सत्पात्र ब्राह्मण को दान कर देनी चाहिए। इसका उद्देश्य यही था कि स्वेच्छा से दान करने पर उन वस्तुओं के प्रति उस व्यक्ति का ममत्व समाप्त हो। उसकी आसक्ति का बंधन टूटे ताकि वह मृत्यु के बाद दूसरे लोक में शांति के साथ जा सके वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति आकर्षण तथा तीव्र राग से बंधा—विंधा, देह-नाश के बद भी वहीं आस-पास मंडराता रहे।
यह परम्परा विवेक सम्मत एवं श्रेष्ठ उद्देश्य से परिपूर्ण है। आसक्ति का बंधन देहान्त के बाद भी व्यक्ति को जकड़े रहकर कष्ट-क्लेश ही देता है। रागात्मक तीव्रता दिवंगत जीव को पुनः-पुनः, उसी घर, उन्हीं व्यक्तियों के समीप खींचती है। अतः न केवल मृत्यु के कुछ समय पूर्व दान आदि के द्वारा इस आसक्ति से मुक्त होने की कोशिशें जरूरी हैं, अपितु संपूर्ण जीवन का क्रम ही ऐसा ढालना चाहिए, जिससे आसक्ति की प्रगाढ़ता न पनपे और अनासक्ति-भाव जीवन तथा चिन्तन में घुल−मिल जाए। प्रसन्न-प्रफुल्ल, हलकी-फुलकी, मोहावेश रहित जिन्दगी जीने का अभ्यास कर लेने पर मृत्यु के समय न तो पीड़ा होती, न छटपटाहट।
उत्कृष्ट जीवन जियें भव्य मृत्यु वरें
भागवत में एक अत्यन्त मार्मिक-आख्यायिका आती है। देवर्षि नारद ने मरते हुए व्यक्ति को देखा, उनका अन्तःकरण जीव के मायावी बंधन देखकर द्रवित हो उठा। आत्मा ने तब तक शरीर छोड़ दिया था, उसके शव के समीप खड़े कुटुम्बीजन रुदन कर रहे थे। पुत्र भी विलाप कर रहा था कह रहा—हाय! पिताजी ने मुझे असहाय छोड़ दिया, नारद ने जीव को समझाया वत्स! इस मायावी बन्धन को तोड़ मेरे साथ चल, विराट् विश्व में कैसे-कैसे स्वर्गीय स्थल हैं चल और जीवन मुक्ति का आनन्द ले। किन्तु मृतक पिता की आसक्ति उन विलाप कर रहे कुटुम्बियों से जुड़ी थी, नारद की ओर उसने ध्यान ही नहीं किया अपने वासनामय सूक्ष्म शरीर से वहीं घूमता रहा। परिवारीय जन शोक मनाकर धीरे-धीरे अपनी सामान्य जिन्दगी बिताने लगे किन्तु मृतात्मा के विश्रृंखलित चित्त में बेटे का विलाप ही गूंजता रहा, उसने पशु योनि में प्रवेश किया, बैल हो गया और बैल बन कर अपने किसान बेटे की सेवा करने लगा।
कुछ दिन पश्चात् नारद पुनः बैल के पिंजरे में बन्द उस जीव से मिले और पूछा—तेरा मन हो तो चल और उच्च लोगों की उपलब्धियों का आनन्द प्राप्त कर। बैल ने कहा—भगवन् अभी तो जैसे-तैसे बेटे की—आर्थिक स्थिति कुछ नियन्त्रित हो पाई है अभी कहां चलूं? नारद चले गये। जीव डण्डे खाकर भी बेटे की आसक्ति का शिकार बना रहा। मृत्यु के समय भी बेटे की आसक्ति कम न हुई सो वह कुत्ता हो गया, हर बार बेटे को देखने की मोहभावना उसे क्रमशः अल्पायु योनि में प्रविष्ट कराती रही। कुत्ता बनकर वह बेटे की सम्पत्ति की रक्षा में तल्लीन हो गया। पूर्व जन्मों के संस्कार और मोहभावना उसे जब-जब उमड़ती वह भोजन के लिए चौके की ओर बढ़ता पर तभी मिलती दुत्कार और डण्डे—कुत्ता ड्यौढ़ी की ओर भागता। पर बेटे की रक्षा की बात उससे खून से जोंक की तरह चिपकी हुई थी सो उसने मालिक बने पुत्र का दरवाजा नहीं छोड़ा।
देवर्षि नारद फिर आये और चलने को कहा तो कुत्ते ने कहा—भगवन् आप देखते नहीं। मेरे बेटे की सम्पत्ति को चोर-बदमाश ताकते रहते हैं ऐसे में उसे छोड़कर कहां जाऊं? देवर्षि इस बात को समझते थे कि इस मोहासक्ति में उसी अपनी वासनायें और तृष्णायें भी जुड़ी हैं वह समझाते वत्स! तू जिन इन्द्रियों को सुख का साधन समझता है वे तुझे बार-बार छोड़ देती हैं फिर तू उनके पीछे बावला क्यों बना है किन्तु कुत्ते को समझ कहां से आती, मानवीय सत्ता तक तो सत्य को झांक नहीं पाती।
जीव को गुस्सा आया—मेरे द्वारा कमाये अन्न का एक अंश भी यह मेरा तथाकथित बेटा देता नहीं—इस बार ऐसा करूंगा कि मेरी कमाई तो मुझे खाने को मिले—इस तरह वह चूहा बना उस स्थिति में नारद ने पुनः दया की किन्तु तब भी उसे ज्ञान न हुआ, चूहों से तंग किसान ने विष मिले आटे की गोलियां रखीं चूहा मर गया। मृतक चूहे ने देखा कि विष देकर मेरा प्राणान्त किया गया है उसका मन क्रोध और प्रतिशोध की भावना से जल उठा। फलतः उसे सर्प योनि मिली। जीवन के बदले जीवन की क्रोधाग्नि के भड़कते ही सर्प ज्यों−ही बिल से बाहर निकला, उन्हीं घर वालों ने, जिनकी आसक्ति उसे निम्नतर योनियों में भ्रमण करा रही थीं, लाठियों पत्थरों से उसे कुचल-कुचल कर मार डाला। बेचारे नारद ने अब उधर जाना ही व्यर्थ समझा क्योंकि वे समझ चुके थे अभी वह इस प्रतिशोध की धुन में चींटी मच्छर मक्खी न जाने क्या-क्या बनेगा? कहानी के शास्त्रीय प्रतिपादन सम्भवतः आज के बुद्धिजीवी लोगों को प्रभावित न करें। वे इसे मात्र अन्ध विश्वास और पौराणिक गाथा कहकर उसकी उपेक्षा कर दें किन्तु सत्यान्वेषी पश्चिमी जगत के मूर्धन्य वैज्ञानिकों, प्रबुद्ध व्यक्तियों, डाक्टरों और पत्रकारों को जीवन और मृत्यु की संध्या के जो अनुभव हुए हैं वह इस आख्यायिका और हिन्दुओं की मरणोत्तर संस्कार परम्परा का पूरी तरह समर्थन करते हैं। यहां कुछ ऐसी ही घटनायें दी जा रही हैं जिनमें मरणासन्न व्यक्तियों के अनुभव में आये हैं। कई बार यों हुआ कि किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गई, मृत्यु के समय सुप्रसिद्ध डॉक्टर भी विद्यमान थे। लोग अन्तिम संस्कार की तैयारी करने लगे तभी एकाएक मृतक की चेतना उसी शरीर में पुनः लौट आई और वह जीवित उठ बैठा। कुछ व्यक्तियों का मस्तिष्क प्रखर और हृदय संवेदन शील रहा है उन्होंने अपनी चेतना को जीवन और मृत्यु की देहलीज पर-सन्धि पर-स्थिर कर उस पार जो कुछ देखा उसका वर्णन मरते-मरते कर दिया। किन्हीं माध्यमों के द्वारा मृतात्माओं से संपर्क का सम्मोहन विज्ञान भारतवर्ष ही नहीं पश्चिमी देशों में भी प्रचलित है इन अनुभवों की सत्यता की परख उनके द्वारा बताई गई इन अतिरिक्त बातों और घटनाओं से होती है जो मृतक के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था पीछे माध्यम के द्वारा बताये गये तथ्यों के आधार पर खोज की गई तो वह घटनायें सत्य पाई गईं।
इस तरह की घटनाओं के सैकड़ों उदाहरण डा. राबर्ट कूकत बी.एस.सी. (साइकोलाजी डी.एस.पी.एच.डी. पूर्ण निर्देशक वनस्पति विज्ञान एडरबीन विश्वविद्यालय की पुस्तक ‘‘टेकनीक्स आफ एस्ट्रल प्रोजेक्शन’’, एन्थोनी बोर्गिया लंदन की पुस्तक ‘‘मोर एबाउट लाइफ इन दी वर्ल्ड अनसीन’’, डब्ल्यू.एच. ऐतान लंदन द्वारा प्रकाशित डा. जेम्स पाइक की पुस्तक ‘‘दि अदर साइड’’ डब्ल्यू.टी. स्टेड की पुस्तक ‘‘आफ्टर डेथ’’ ‘‘बियान्ड दि होराइजन’’ ‘‘पोस्टमार्टम जनरल’’ ‘‘तगइफ वर्थ लिविंग’’ तथा ‘‘सुप्रीम एडवेंचर’’ जिन्हें क्रमशः ग्रेस रोशर (प्रकाशक मेसर्स नेविल्के स्पेयर मैन 112 व्हाइट फील्ड स्ट्रीट लंदन) मिसेज हैस लोप (प्रकाशक मेसर्स चार्ल्स टेलर बुक हाउस लंदन) तथा जियोलॉजिकल सर्वे लंदन के तत्कालीन प्रधानाचार्य और भूगर्भ विज्ञान वेत्ता हैं इस तरह के विख्यात व्यक्तियों की अनुभूतियों को यों ही ठुकराया जाना मानवीय आस्था के लिए घातक नहीं तो अशोभनीय अवश्य कहा जायेगा। इन पुस्तकों के कुछ उद्धरण—
लारेंस आफ अरेबिया जिन्हें लोग स्काट कहकर बुलाया करते थे ने अपने अनुभव इन शब्दों में व्यक्त किये हैं—यह एक ऐसी दुनिया है जहां न प्रकाश है और न अन्धकार है धूमिल वातावरण जान पड़ता है ऐसा लग रहा है कि दीपक बुझ रहा है और मुझे निद्रा घेरती चली आ रही है इस समय मेरी इच्छायें नींद में न जाने के लिए झगड़ती और मचलती सी लगती हैं किन्तु......।
‘‘वियान्ड दि होरइजन’’ में गोर्डन का अनुभव—मेरी चेतना शरीर से बाहर आ गई, मैंने इतना हलकापन अनुभव किया मानो सारे शरीर की थकावट विश्राम में बदल गई हो, पर मेरे मन में बार-बार पत्नी रोशर का स्नेह उमड़ता था अतएव वहां से हटने का मन नहीं कर रहा था। पत्नी की आंखों में आंसू थे, उनकी रोने की आवाज और वह जो भी कहती थीं उन्हें मैंने स्पष्ट सुना उन्होंने यह शब्द कहे—मैंने उसको समझाने उनके आंसू पोंछने का प्रयास भी किया पर न तो मुझ से और धुले न किसी ने मेरी आवाज सुनी, तब मैंने अनुभव किया कि जाने की अवस्था है उस समय बहुत दुःख हुआ। मैंने सारी शक्ति लगा कर अपने शरीर में घुसने का प्रयास किया, पीछे क्या हुआ कैसे हुआ याद नहीं आता।
‘आफ्टर डेथ’ में प्रकाशित जूलिया का संस्मरण और भी मार्मिक है। यह पुस्तक 1897 में प्रकाशित हुई और अब तक उसके लगभग बीस संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। जर्मन, स्विस फ्रेंच, डेनिस रशियन तथा इटेलियन भाषा में उसके अनुवाद भी छप चुके हैं। जूलिया एक बहुत रंगीन स्वभाव की लड़की थी सुन्दर होने के कारण उसके अनेक मित्र थे। अपने मित्रों से वह प्रायः कहा करती थी कि यदि मेरी मृत्यु हुई तो भी मिलती अवश्य रहूंगी। संयोगवश 12 दिसम्बर 1891 में उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद उसके कई मित्रों ने तो उसके प्रेत को मंडराते हुए देखा ही कुछ अजनबी आत्माओं को उसके सन्देश भी मिले जिनमें उन लोगों ने ने केवल वह सन्देश प्राप्त किये जिन्हें जूलिया के अत्यधिक निकट सम्बन्धी ही जानते थे। ऐसे लोगों में कुछ वह भी थे जिन्होंने उसे कभी देखा नहीं था पर जब सैकड़ों फोटो उनके सम्मुख रखे गये तो उन्होंने जूलिया का फोटोग्राफ पहचान कर बता दिया। उन लोगों ने बताया—जूलिया की आत्मा अपने मित्रों के लिये भटकती रहती हैं। वह उन्हें देखती है पर स्वयं न देखे जाने या स्पर्श जन्य अनुभूति का आनन्द न प्राप्त कर सकने के कारण वह आतंकित और पीड़ित रहती है।
डा. राबर्ट कूकल ने स्वीकार किया है मृत्यु के बाद मनुष्य अपने सूक्ष्म अणुओं के शरीर से बना रहता है उसके मन की चंचलता इच्छायें और वासनायें बनी रहती हैं यदि वे अतृप्त रहें या जहां आसक्ति होती है जीव वहीं मंडराता रहता है।’’
इन उद्धरणों में अभिव्यक्त सत्य पढ़ समझ कर देवर्षि नारद की वह कथा निरर्थक नहीं लगती जिसमें मनुष्य जैसे विचारशील प्राणी को नितान्त पार्थिव होने का भ्रम हो जाता है। अपने यहां किसी की मृत्यु के समय दुःख न करने, धार्मिक वातावरण बनाये रखने के पीछे ऐसा ही अकाट्य दर्शन सन्निहित है कि यदि मृत्यु के समय जीव अशांत आसक्त रहा हो तो देह त्याग के बाद भी यह अशान्ति बनी रहे अपितु उसे परमार्थ बोध हो जिससे वह जीवात्मा की विकास यात्रा पर चल पड़े। किन्तु भ्रम में पड़ी मानवीय बुद्धि को क्या कहा जाए? जो इतना भी नहीं सोच पाता कि मृत्यु के समय विचारणायें, वासनायें, इच्छायें स्वभाव सब वही तो रहेंगे जैसा जीवन भर का अभ्यास होगा जिसने जीवन भर परमात्मा की याद न की, अपना लक्ष्य न पहचाना, शारीरिक सुखों और इन्द्रिय जन्य अनुराग को निरर्थक नहीं समझा, उन्हीं में आसक्त रहा उसकी अन्तिम समय भावनायें एकाएक कैसे बदल पायेंगी?
मृत्यु-जीवन का यथार्थ है, उसे कोई टाल नहीं सकता, फिर उसकी उपेक्षा क्या हितकर हो सकती है। समझदार वह है जो एक महान यात्रा की तैयारी के इस श्रीगणेश पर्व को अच्छी तरह जान लेता है और परिपूर्ण तैयारियां करके चलता है जिससे महान यात्रा के आनन्द मिल सकें। मानवेत्तर योनियों में भटकना पड़े तो महर्षि नारद के जीव की कथा अपनी ही सनसनी चाहिए किसी और की नहीं।
जीवन भर के संग्रहीत विचार और संस्कार मरने के समय उभरते हैं उनमें से जो अधिक तीव्र होते हैं उन्हें स्मृति पटल पर प्राथमिकता मिलती है, अन्य स्मृतियां गौण हो जाती है। जीवन भर जो सोचा—जो चाहा और जो किया है प्रायः उन्हीं का सम्मिलित पर, चेतना आकाश में घटा बनकर छाया होता है और मरणासन्न व्यक्ति उन्हीं भले-बुरे संस्कारों का छाया चित्र देखता है। उन घड़ियों में सचेतन मन क्षीण हो जाता है और अचेतन का प्राबल्य रहता है। अचेतन के लिए भावना प्रवाह को दृश्य चित्र जैसा बनाकर प्रस्तुत कर देना सरल है।
भारत के गृहमन्त्री पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त की मृत्यु से पन्द्रह दिन पूर्व की एक घटना है। अपने सेक्रेटरी को वे अंग्रेजी में बोलते हुए कुछ नोट लिखा रहे थे। वे कुछ रुके और हिन्दी में बोलने लगे। सेक्रेटरी अकचकाया कि प्रवाह कि कैसे बदला। बात वह भी पूरी न पड़ी फिर वे अपनी मातृभाषा पहाड़ी में बोलने लगे। इसके बाद वे एकदम मौन हो गये।
घटना मामूली सी है, पर उससे इस तथ्य का रहस्योद्घाटन होता है कि मृत्यु से पूर्व आत्मा पर चढ़े बाह्य आवरण उतरते जाते हैं और वह सुस्थिर संस्कारों की भूमिका में जागृत होता जाता है। अंग्रेजी बाहरी भाषा थी—हिन्दी भी उनने स्कूल जाने पर सीखी। जन्म से तो पन्तजी को पहाड़ी भाषा में ही बोलना, सीखना पड़ा था। घर परिवार के लोगों के साथ सहज स्वाभाविक स्थिति में वे पहाड़ी में ही बोलते थे। यह उनका अधिक गहरा स्वाभाविक संस्कार था। मरने से पूर्व बाहरी आवरण उसी क्रम से उतरते हैं जिस क्रम से कि उन्हें पहना या प्रयोग किया जाता है। कपड़े उतारते समय हम पहले कोट उतारते हैं, उसके बाद कुर्ती, सबसे अन्त में बनियान इसी प्रकार पहले बनावटी व्यक्तित्व दूर होता है, फिर स्वभाव में घुसी आदतों की प्रभाव छाया दूर होती है और अन्ततः जीवात्मा की वे मूलभूत आस्थायें, आकांक्षायें ही शेष रहती हैं, जिनमें व्यक्तित्व घुल गया था।
मृत्यु से सब डरते हैं, पर इसलिए नहीं कि वह सचमुच ही डरावनी है। हमें सिर्फ अविज्ञात से डर लगता है, अपरिचित के सम्बन्ध में अनेकों आशंकाएं रहती हैं। अनिश्चय ही—अविश्वस्त स्थिति ही डरावनी होती है। रात्रि के अन्धकार में डर लगता है, पर किसका? चोर का नहीं इस सुरक्षित स्थान तक उसकी कोई पहुंच नहीं। सर्प का—नहीं इस ऊंची अट्टालिका के संगमरमर से बने फर्श तक आ सकने का उसका कोई रास्ता नहीं। भूत का—नहीं वह तो भ्रममात्र है, उसके अस्तित्व पर कोई भरोसा नहीं। फिर वही प्रश्न—अंधेरा क्यों डरा रहा है?सुनसान में सिहरन क्यों हो रही है? निश्चय ही यह अनिश्चय की—स्थिति है जो अपरिचित से डरने के लिए बाध्य करती है। अपरिचित अर्थात् अज्ञात। सचमुच अज्ञात सबसे अधिक डरावना है। मौत अज्ञात की छाया मात्र है।
एक गड़रिया राजकीय सम्मान के लिए सिपाहियों द्वारा दरबार में उपस्थित किया गया। वह बेतरह कांप रहा था। भय था कि न जाने उसका क्या होगा, पर जब उसे सम्मानित किया गया और उपहार से लादा गया तब वह सोचने लगा मैं व्यर्थ ही थर-थर कांपता रहा और अपना रक्त सुखाता रहा।
डरावनी मृत्यु आखिर है क्या? तनिक जानने की कोशिश करें कि वह तनिक सी विश्रान्ति भर है। अनवरत यात्रा करते-करते जब थक कर चेतना चूर-चूर हो जाती है तब वह विश्राम चाहती है नियति उसकी अभिलाषा पूर्ण करने की व्यवस्था बनाती है। थकान को नवीन स्फूर्ति में बदलने वाले कुछ विश्राम के क्षण वस्तुतः बड़े मधुर और सुखद होते हैं। क्या उन्हें दुःखद दुर्भाग्य माना जाय?
सूर्य हर दिन अस्त होता है, पर वह किसी भी दिन मरता नहीं। अस्त होते समय विदाई की ‘अलविदा’ मन भारी करती है, पर यह मानकर सन्तोष कर लिया जाता है कि कुछ ही समय बाद उल्लास भरे प्रभात का अभिनन्दन प्रस्तुत होगा।
पके फल को प्रकृति उस पेड़ से उतार लेती है। इस लिए कि उसका परिपुष्ट बीज अन्यत्र उगे और नये वृक्ष के रूप में स्वतन्त्र भूमिका सम्पादन करे। वृक्ष से अलग होते समय वियोग की, दुलहन के पतिगृह में प्रवेश करने की तैयारी नहीं है। क्या बिछुड़न की व्यथा में मिलन की सुखद संवेदना छिपी नहीं होती। इन विदाई के क्षणों को दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य? मृत्यु को अभिशाप कहें या वरदान? इन निर्णय पर पहुंचने के लिए गहरे चिन्तन की आवश्यकता पड़ेगी।
मरण के कन्धों पर बैठ कर हम पड़ौस की हाट देखने पर जाते हैं और शाम तक घूम फिर कर फिर घर आ जाते हैं। मृत्यु के बाद भी हमें इसी नीले आसमान की चादर के नीचे रहना है। अपनी परिचित धूप और चांदनी से कभी वियोग नहीं हो सकता। जो वहां चिरकाल से गति देती रही है उसका सान्निध्य पीछे भी मिलता रहेगा। दृश्य भोजन उदरस्थ होकर अदृश्य ऊर्जा बन जाता है इसमें घाटा क्या रहा? सम्बन्धियों की सद्भावना और अपनी शुभेच्छा आदान-प्रदान जब बना ही रहने वाला है तो सम्बन्ध टूटा कहां? इस परिवर्तन भरे विश्व में जीवन का स्वरूप भी तो बदलना चाहिए ज्वार भाटे की तरह जीवन और मरण के विशाल समुद्र में हम सब प्राणी क्रीड़ा कल्लोल कर रहे हैं। इस हास्य को रुदन क्यों मानें?
श्मशान को देखकर कुड़कुड़ाओ मत। वह नव जीवन का उद्यान है। उसमें सोई आत्माएं मधुर सपने संजो रही हैं ताकि विगत की अपेक्षा आगत को अधिक समुन्नत बना सकें। लोगों, डरो मत। यहां मरता कोई नहीं, सिर्फ बदलते भर हैं। और परिवर्तन सदा से रुचिर माना जाता रहा है रुचिर के आगमन पर रुदन क्यों?
एक नहीं हजार तक तथा युक्तियों से यह बात सिद्ध होती है कि मृत्यु यदि उसका वरण ठीक स्थिति में किया जाये तो जीवन से कहीं अधिक सुखकर तथा विश्रामदायिका ही पाई जाती है। महात्मा गांधी के इस कथन में कितना यथार्थ सत्य छिपा हुआ है। इसको देख समझ कर भी क्या मृत्यु से घबराने, उससे घृणा करने अथवा उसे अवरणीय मानने का कोई कारण हो सकता है। वे लिखते हैं—
‘‘मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि मृत्यु को जीवन की अपेक्षा अधिक सुन्दर होना चाहिए। जनम से पूर्व मां के गर्भ में जो यातना भोगनी पड़ती है उसे छोड़ देता हूं, पर जन्म लेने के बाद तो सारे जीवन भर यातनायें ही भुगतनी पड़ती है। इसका तो हमें प्रत्यक्ष अनुभव है। जीवन की पराधीनता हर मनुष्य के लिए एक सी है। जीवन यदि स्वच्छ रहा तो मृत्यु के बाद पराधीनता जैसी कोई बात न होनी चाहिए। बालक जनम लेता है तो उसमें किसी तरह का ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है फिर भी आत्मज्ञान नहीं हो पाता, पर मृत्यु के बाद तो ब्राह्मी स्थिति का बोध सहज ही हो जाता है। यह दूसरी बात है कि विकार युक्त होने के कारण उसका लाभ न उठा सकें। किन्तु जिनका जीवन शुद्ध और पवित्र होता है उन्हें तो उस समय बन्धन मुक्त ही समझना चाहिए। सदाचार का अभ्यास इसीलिए तो जीवन में आवश्यक बताया जाता है ताकि मृत्यु होते ही मनुष्य शाश्वत शान्ति की स्थिति प्राप्त कर ले।’’
वास्तविक बात तो यह है कि जिस मनुष्य ने अपने अपकर्मों द्वारा जीवन को काला बना लिया है। पुण्य प्रकाश से कोई वास्ता नहीं रखा उसका मृत्यु से डरना तो क्या जीवन से डर लगा करता है। सदाचार तथा पुण्य परमार्थ से आलोकित जिन्दगी में तो आनन्द है ही मृत्यु के पश्चात् तो अक्षय आनन्द के कोष खुल जाते हैं। मृत्यु का भय छोड़िये और अपने पुण्य परमार्थ द्वारा जीवन एवं मृत्यु दोनों को एक वीर योद्धा की तरह विजय कर अक्षय पद प्राप्त कर लीजिए।
योगवशिष्ठ में भी कहा है—
‘‘अभ्यस्य धारणानिष्ठो देहं त्यक्त्वा यथा सुखम् । प्रयाति धारणाभ्यासी युक्तियुक्तस्तथैव च ।।’’ मूर्खः स्वमृति कालेऽसौ दुःखमेत्यवशाशयः । (3।54।36, 37)
अर्थात् धारणा का अभ्यास करने वाला ज्ञानयुक्त पुरुष शरीर को सुखपूर्वक त्याग देता है। किन्तु वे मूर्ख, अज्ञानी जिनका मन वश में नहीं है, मरते समय अत्यधिक दुःख दग्ध होते हैं। ‘दीनतां परमामेति परिलूतमिवाम्बुजम ।’ (3।54।38)
अर्थात् अज्ञानी व्यक्ति मृत्यु के समय टूटे हुए कमल की तरह दीन-दयनीय हो जाता है।
मरते समय शारीरिक पीड़ा प्रायः नहीं के बराबर होती है। बीमारी में जितना कष्ट सहना पड़ता है, मरते समय उतना भी नहीं होता। इसलिए मरने से इस आधार पर डरने की जरूरत नहीं है कि उस समय अधिक कष्ट होगा।
दांत में कीड़ा लगने या उखड़ने के दिनों बहुत दर्द होता रहता है। पर जब कुशल डॉक्टर उसे निकालता है तो सुई लगाकर उसे सुन्न कर देता है और यह पता भी नहीं चलता कि कब उखड़ गया। अस्पताल में किसी चोट या व्रण का आपरेशन कराने के लिए भर्ती होना पड़ता है। चोट या दर्द में बहुत दर्द होता रहता है पर जब डॉक्टर आपरेशन करता है तो बेहोशी की दवा सुंघा देता या सुई लगाकर सुन्न कर देता है। रोगी के साथ डॉक्टर की सद्भावना रहती है सो वह बिना कष्ट पहुंचाये ही अपना प्रयोजन पूरा कर देता है।
मृत्यु का समय आने से पूर्व कुछ दिन बीमार रहना पड़ता है। बीमारी में स्नायु मण्डल और नाड़ी मण्डल दुर्बल हो जाता है और अनुभूति की क्षमता शिथिल पड़ जाती है। जैसे जैसे मरने का समय निकट आता जाता है वैसे वैसे यह शिथिलता और बढ़ती जाती है। मस्तिष्क अपना काम समाप्त करता जाता है। प्रायः मरने से पूर्व हर व्यक्ति अचेत हो जाता है। उसकी चेतना लुप्त हो जाती है। कुटुम्बियों तक को पहचानने की शक्ति नहीं रहती। जीभ बोलना बन्द कर देती है और कान, आंख आदि खुले रहने पर भी अपना काम नहीं करते। अनुभव करने की शक्ति धीरे-धीरे अधिकाधिक शिथिल होती चली जाती है और मरने की घड़ी आने से पूर्व ही वह अवचेतन अवस्था इतनी घनी हो जाती है कि प्राण त्यागने के समय प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट अनुभव नहीं होता।
मृत्यु के समय अधिकतर लोग बहुत व्यथित और उद्विग्न पाये जाते हैं। इसका कारण शारीरिक नहीं मानसिक है। एक तो मनुष्य मोह ममता के बन्धन में बेतरह जकड़ जाता है और उन्हें तोड़ते हुए कष्ट होता है। ढीली हथकड़ी बेड़ी आसानी से कट जाती हैं पर यदि वे शरीर में बहुत कस कर बंधी हों तो काटने में कष्ट होगा। पैसा मेरा—घर मेरा—कुटुम्ब मेरा—यह ‘मेरा’ जितना गहरा और कड़ा होगा उसका टूटना मानसिक दृष्टि से उतना ही भारी पड़ेगा। यदि पहले से ही मनुष्य यह सोचता रहे कि धन सम्पदा समाज या परमेश्वर की है मैं उसको कार्यों में प्रयुक्त करने वाला कर्मचारी भर हूं। स्वामित्व मेरा किसी पर नहीं। तो उसे वस्तुओं से मोह न बढ़ेगा और वे छूटते समय कष्ट न देंगी। इसी प्रकार सब जीवों को ईश्वर का अंश और पुत्र समझ कर स्वतन्त्र इकाई माना जाय। उनके साथ रास्ता चलते पथिक जैसा संयोग माना जाय। परिवार रूपी उद्यान का अपने को माली भर समझा जाय। तो फिर कुटुम्बियों से ममता न बढ़ेगी। स्नेह सद्भाव के निर्वाह और कर्त्तव्य पालन भर में संतोष और आनन्द होता रहेगा। उनके वियोग में वैसी पीड़ा न होगी जैसी आमतौर से अज्ञानग्रस्त लोगों को होती है।
मरने के समय दूसरा कष्टदायक कारण है जीवन को निरर्थक एवं अनर्थ जैसे कामों में बर्बाद कर देना। पाप की गठरी सिर पर लादकर ले चलना और भविष्य में कुकर्मों के फलस्वरूप दुखद परिस्थितियों में पड़ने की सम्भावना का आंखों के सामने मूर्तिमान होना। उस समय पश्चाताप की आग बेतरह जलाती है और कर्मफल के दण्ड का भय लगता है। यह कष्ट वास्तविक है। पर होता उन्हीं को है जिनने सुर दुर्लभ मानव शरीर के बहुमूल्य क्षण निरर्थक गंवाये। जीवनोद्देश्य को नहीं समझा। धर्म और कर्त्तव्य से विमुख रहे और आत्म-कल्याण तथा लोक-कल्याण के लिये भी कुछ करना है इस बात को भूले रहे। मृत्यु की अनिवार्यता हमें ध्यान में रखनी चाहिये। उस समय शरीरगत कष्ट से तो डरने की आवश्यकता नहीं है। पर मानसिक पश्चात्ताप और मोह ममता के कारण व्यथित न होना पड़े इसलिये अपना दृष्टिकोण और कर्तृत्व ऐसा बनाना चाहिये जिससे मृत्यु को शान्ति, धैर्य और साहस पूर्वक स्वीकार किया जा सके।
स्वामी विवेकानन्द ने मृत्यु के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए एक बार कहा था—जब मैं मृत्यु के सम्बन्ध में सोचता हूं तो मेरी सारी कमजोरियां विदा हो जाती हैं। उस कल्पना में न मुझे भय लगता है और न शंका सन्देह भरी बेचैनी अनुभव होती है तब मेरे मन में उस महायात्रा की तैयारी के लिये योजनायें भर बनती रहती हैं।मरने के बाद एक अवर्णनीय प्रकाश पुंज का साक्षात्कार होगा इस कल्पना से मेरा अन्तरात्मा पुलकन और सिहरन से गदगद हो जाता है।
मरने से डरने का कारण केवल मनुष्य की वह भीरुता एवं भयभीत मनःस्थिति है जो अपरिचित स्थिति में जाने और एकाकी रहने की आशंका से उभरती है सम्बन्धित व्यक्तियों अथवा वस्तुओं से सम्पर्क छूट-टूट जायगा यह डर भी मनुष्य को मौत से बहुत डराता है। पर जिनने मर कर देखा है उनका कथन है कि मौत में डरावनेपन की कोई बात नहीं है।
मरने से पूर्व कैसा अनुभव होता है यह मनुष्य की अंतःस्थिति पर निर्भर है। वह आजीवन जैसा सोचता रहा है अन्तिम अनुभूतियां क्षण भर में प्रस्तुत हुआ उसी का सार तत्व कहा जा सकता है। किन्हीं को मृदुल संगीत सुनाई पड़ता है, कुछ को नशा चढ़ने जैसी स्थिति अनुभव होती है। किन्तु कुछ को दम घुटने और डूबने जैसी अकुलाहट भी होती है। जिन्होंने जीवन दर्शन को समझा है उन्हें मरण सुखद ही लगता है। प्राणिशास्त्री विलियम हण्टर ने मरने से पूर्व मन्द स्वर में कहा था—यदि मुझ में लिखने की ताकत होती तो विस्तार से लिखता कि मृत्यु कितनी सरल और सुखद है।
डिट्रोयम (अमेरिका) के अखबार में ‘उस पार’ शीर्षक से एक लेखमाला कुछ समय पूर्व छपी थी उसमें उन लोगों के अनुभव संस्मरणों का संकलन था जो मरे के बाद भी जी उठे थे। इन संस्मरणों में एक अनुभव मियानी निवासी लिनमेलविन का है जिन्होंने बताया कि मृत्यु से पूर्व उन्हें तीव्र ज्वर के कारण मस्तिष्क में भारी जलन हो रही थी कि अचानक सब कुछ शान्त हो गया और वे शान्ति, स्वतन्त्रता और शीतलता अनुभव करती हुई हवा में तैरने लगी। अपने चारों ओर मुझे रंगीन और सुहावना लगा। इस आश्चर्य भरी स्थिति का कारण पहले तो कुछ समझ न पाई पीछे लगा कि मैं मर गई हूं और आत्मा के रूप में स्वच्छन्द विचरण कर रही हूं। किन्तु यह स्थिति अधिक न रही। किसी ने मुझे पुनः शरीर में धकेल दिया और जीवित हो उठी। देखा तो पाया कि मेरे मृत शरीर को दफनाने के लिये परिवार के लोग आवश्यक तैयारी करने में लगे हुये थे। मर कर फिर जी पड़ने पर उन्होंने भी प्रसन्न अनुभव की खासतौर से मेरी छोटी लड़की ने।
ट्टिाइज आन सस्पेंडेस ऐन्टी मेशन नामक ग्रन्थ के लेखक बोस्टन निवासी डा. मूर रसेल फ्लेचर ने लगातार 25 वर्षों तक इस तथ्य का अन्वेषण किया कि मरने के उपरान्त मनुष्य को किस प्रकार की अनुभूति होती है। मैसाचुसेट्स मेडिकल सोसाइटी के वे आजीवन अग्रणी नेता रहे। इस सन्दर्भ में उन्हें ऐसे लोगों से भी वास्ता पड़ा जो कुछ समय तक मृत रहने के उपरान्त पुनः जीवित हो उठे थे। ऐसे लोगों को खोज-खोज कर डा. फ्लेचर ने उनके बयान लिये और उन्हें अपनी उपरोक्त पुस्तक में छापा। इन बयानों में एक गानर्निर नगर निवासी श्रीमती जान डी. ब्लेक का है। वे तीन दिन तक मृत स्थिति में पड़ी रही थीं। डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था पर कुछ लक्षण ऐसे थे जिनके कारण घर वालों ने उन्हें दफनाया नहीं और पुनर्जीवन की प्रतीक्षा में लाश को सम्भाले रहे। तीन दिन बाद वे जी उठीं। पूछने पर उनने बताया कि वे एक ऐसे लोक में गईं जिसे परियों का देश कह सकते हैं। वहां बहुत आत्माएं थीं जिनमें उसकी मृत सहेलियां भी थीं वे बिना परों के आसमान में उड़ती थीं और सभी प्रसन्न थीं।
वरमान्य—हद्रिगेट की एक अध्यापिका ने भी कुछ समय मृत रहने के बाद पुनर्जीवन पाया था—उसने बताया—मृत्यु देश के सभी निवासी प्रसन्न थे। किसी के चेहरे पर विषाद नहीं था। सभी आमोद प्रमोद में मग्न थे।
वोस्टन से सेन्टजान जाने वाला जलयान समुद्र में डूबा तो उसमें से केवल एक लड़की बची। पानी में एक घण्टा डूबी रहने के बाद वह लहरों के साथ किनारे पर लगी। मृतक समझी जाने के बाद भी वह बच गई। डा. फ्लेचर को उसने बताया मृत्यु और जीवन के बीच का समय उसने सुनहरे प्रकाश के बीच बड़े आनन्द के साथ बिताया। लन्दन के पादरी लेजली वेदरहुड एक मरणासन्न रोगी के निकट प्रार्थना करने के लिये गये। वे उसका हाथ पकड़े चारपाई के सिरहाने बैठे थे। रोगी ने मूर्छा छोड़कर आंखें खोलीं और कहा—मेरा हाथ पीछे मत खींचो मुझे आगे जाने दो जहां मुझे स्वागत पूर्वक बुलाया जा रहा है।
यहूदी विद्वान सोलमन ने लिखा है—इस जीवन के बाद भी एक जीवन है। देह मिट्टी में मिलकर एक दिन समाप्त हो जायगी फिर भी जीवन अनन्तकाल तक यथावत् बना रहेगा।
दार्शनिक नशाद सृंश ने कहा है—आत्मा की अमरता माने बिना मनुष्य की निराशा और उच्छृंखलता से नहीं बचा जा सकता। यदि मनुष्य को आदर्शवादी बनना हो तो अविनाशी जीवन और कर्मफल की अनिवार्यता के सिद्धान्त उसके गले उतारने ही पड़ेंगे।
ख्यातिनामा साहित्यकार विक्टर ह्यूगों ने लिखा है—कब्र में अन्धकार और श्मशान की नीरवता की बात ने मुझे कभी क्षुब्ध नहीं किया। क्योंकि मैं सदा विश्वास करता रहा—शरीर को तो नष्ट होना ही है पर आत्मा को कोई भी घेरा कैद नहीं कर सकता। उसे उन्मुक्त विचरण करने का अवसर सदा ही मिलता रहेगा। वस्तुतः मृत्यु न तो कोई अचम्भे की वस्तु है और न डरने की। वह जीवन क्रम में अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई एक सरल और स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसमें पुरातन का नवीनीकरण का सुखद परिवर्तन जुड़ा हुआ है। यदि जीवन सरल रहे तो मृत्यु के जटिल और भयंकर लगने का फिर कोई कारण न रहेगा।
यदि मनुष्य आरम्भ से ही मृत्यु को जीवन का अन्तिम अतिथि मानकर चलें, उसकी अनिवार्यता को समझें और अपनी गतिविधियां इस स्तर की बनाये रखें जिससे मृत्यु के समय जीवन व्यर्थ जाने का पश्चात्ताप न हो तो मृत्यु हर किसी के लिये सरल और सुखद हो सकती है। थकान मिटाने के लिये निद्रा की गोद में जाना जब अखरता नहीं तो कोई कारण प्रतीत नहीं होता कि कुछ अधिक लम्बी निद्रा प्रदान करने वाली मृत्यु से न कोई डरे-न घबरायें।
जार्ज वाशिंगटन मरने लगे तो उनने कहा—मौत आ गई, चलो अच्छा हुआ, विश्राम मिला। हेनरी थोरो ने शान्त और गम्भीर मुद्रा में मृत्यु का स्वागत करते हुये कहा—मुझे संसार छोड़ने में कोई पश्चात्ताप नहीं है कोहन्स ने और भी अधिक प्रसन्नता व्यक्त की तथा कहा—लगता है मेरे बदन पर फूल ही फूल छा गये। हेनरी ने अपनी मृत्यु के समय अलंकारिक भाषा में कहा—बत्तियां जला दो, मैं अन्धकार से नहीं जाऊंगा। विलियम ने अपनी अभिव्यक्ति करते हुए कहा, मरना कितना सुखद है। स्वामी दयानन्द ने प्रसन्नता प्रकट करते हुये मरण के क्षणों का स्वागत किया और कहा, ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हुई।
शोक प्रसिद्ध दार्शनिक मेचीन काफ ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया है कि—वृद्धावस्था के साथ-साथ एक आंतरिक थकान आती है और सक्रियता में अनिच्छा उत्पन्न होने लगती है। जिस तरह थका हुआ मनुष्य नींद चाहता है उसी तरह थकी हुई अन्तः चेतना मृत्यु रूपी विश्राम भरी नींद की आकांक्षा करती है। मोह और लोभ वश मन मृत्यु को नापसन्द करता है, पर अन्तःचेतना तो स्वतन्त्र है। मन का उस पर बहुत प्रभाव नहीं पड़ता। वह अपनी सरल स्वाभाविक आवश्यकता पूरी करने के लिए मृत्यु की ओर खिसकती जाती है और यह सूक्ष्म संकल्प ही समयानुसार मौत के रूप में अपनी अभीष्ट उपलब्धि प्राप्त कर लेता है।
वाल्टर स्काट ने कहा है—मृत्यु निविड़ अन्धकार भरी निशा में आखिरी नींद नहीं, वरन् ब्राह्ममुहूर्त का प्रथम जागरण है जिसके बाद हम उस ओर बढ़ सकते हैं जिस सम्बन्ध में कि अभी सोचना ही सम्भव है। कनफ्यूसियश ने लिखा है—हम जिस जिन्दगी को जी रहे हैं, उस तक का मर्म नहीं जान पाये, तो उस मृत्यु का जो अभी कई कोस आगे है—रहस्य कैसे जान पायेंगे? विलियम हैटर ने अपने शोध कार्यों को पूरा कर लेने पर मृत्यु समय की अन्तिम सांस लेते हुए कहा—यदि इस समय भी मुझमें कलम उठा कर लिखने की शक्ति होती तो लिखता मरना कितना सरल और शान्ति पूर्ण है।
कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपनी एक कविता में कहा है—‘जन्म जीवन का प्रारम्भ नहीं है और न मृत्यु—देह का आदि और अन्त मात्र, विस्तृत जीवन-क्रम का एक छोटा-सा अध्ययन मात्र है।’
शेक्सपियर का एक नायक कहता है—यह जीवन उस बेतुकी कहानी की तरह है जो किसी सिड़ी द्वारा कही गई हो। जीवन वह नक्कारखाना है जिसमें केवल शोर, रुदन और आंधी तूफान के उतार-चढ़ाव तो भरे पड़े हैं पर न उस रुदन का कुछ अर्थ है न हास्य का, और न स्वयं इस बेतुके जीवन का।
जो हो, हमें यह मानकर चलना ही होगा कि जीवन के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है। इसलिये दोनों घनिष्ठ सहचर मानकर चलें। जब तक जीवन है इस तरह जियें जिसे शानदार और सराहनीय कहा जा सके। जब मृत्यु आये तब शान्ति और मुस्कराहट के साथ उनका ऐसा स्वागत करें जैसा विचारशील, धैर्यवान और बहादुर लोग किया करते हैं। आत्मा की पुकार है, ‘‘मृत्योर्माऽमृतं गमय’ हे परमेश्वर, मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चल।’ मरण कितना अवांछनीय और जीवन कितना अभीष्ट है इसका आभास इस पुकार में मिलता है। अन्तरात्मा की प्रबल काना है, जिजीविषा। वह जीना चाहता है। यह सभी जानते हैं कि शरीरगत मृत्यु अपराजित है। वह प्रकृति पदार्थों को परिवर्तित करने के लिए अनिवार्य रूप से आती है। किन्तु निश्चय ही उसका भय जीता जा सकता है। मौत अपने आप में डरावनी नहीं है। परिवर्तन में विनोद है और उत्साह भी। स्थिरता में नीरसता रहती है। गति और सरलता बनाये रहने के लिए परिवर्तन आवश्यक है। यह स्वाभाविक सरल प्रक्रिया ही मरण कहलाती है जिसे काय-कलेवर का परिवर्तन ही कह सकते हैं। इसमें न तो कुछ अप्रिय है न अनुचित और न कष्टकर। कष्टकारक तो मृत्यु का भय है। यदि उससे निवृत्ति मिल सके तो समझना चाहिये कि मृत्यु से छुटकारा पाने और अमरता का लाभ लेने जैसा आनन्द मिल गया।
मृत्यु कोई विभीषिका नहीं एक सुनिश्चित संभावना है, उसे एक समस्या का रूप दिया जा सकता है। उसका हल इतना ही खोजा जा सकता है कि सुखद, संतोषजनक और सराहनीय मृत्यु का वरण किस प्रकार सम्भव हो। इसका उत्तर एक ही है कि जीवन का सदुपयोग इस प्रकार किया जाय कि जन्मोत्सव की तरह ही मरणोत्सव भी देह छोड़ने वाले प्राणी को सरल प्रतीत हो सके। सुखद मृत्यु जीवन देवता की आराधना का वरदान है। जो इस साधना को कर सके उसके लिये मरण का दिन पश्चात्ताप का नहीं वरन् अधिक सुखद परिस्थितियों के लिए विनोद यात्रा पर निकलने की तरह उत्साहवर्धक ही बन कर आता है।
भगवान बुद्ध जब मरने लगे तो रोते हुए अपने प्रिय शिष्य आनन्द को दुलारते हुए उन्होंने कहा, ‘आनन्द, रोओ मत, यह रोने का अवसर नहीं है। स्वयं अपने लिये दीपक बनो। निर्वाण तो नितान्त स्वाभाविक है। इसके लिये तो पहले से ही तैयार रहना है।’ बिल्सन ने मृत्यु की बेला में मुस्कराते हुए किसी अज्ञात से कहा, ‘मैं तो बिलकुल तैयार हूं।’ और उन्होंने आंखें मूंद लीं। वाल्टेयर ने उपस्थित लोगों से मरते समय कहा, ‘आप लोग, गड़बड़ न करें शान्ति से मरने दें।’ गेटे ने मरण की उपस्थिति को प्रकाश के रूप में देखा और वे बड़े उत्साह से चिल्लाये प्रकाश-प्रकाश, अनन्त प्रकाश। इतनी अनुभूति व्यक्त करके उनकी वाणी मौन हो गई। स्वामी दयानन्द ने सन्तोषभरी लम्बी सांस खींची और कहा, हे! दयामय तेरी इच्छा पूर्ण हो।’ गान्धी जी के मुख से अन्तिम शब्द निकला, ‘हे राम’ और वे राम में सही समा गये।
जीवन का सदुपयोग ही मौत को सरल बनाने की पूर्व तैयारी है जो उसे कर सके उनके लिये जीवन और मरण दोनों अभिन्न मित्रों की तरह सुखद और सहयोगी प्रतीत होते हैं।
इन सामान्य जैविक हलचलों के अतिरिक्त जो मनुष्य की बहुविध गतिविधियां हैं, प्रगति के प्रयास और चरण हैं, वे सब आकांक्षाओं तथा उनकी पूर्ति के लिये किये गये कार्यों के ही परिणाम हैं। आकांक्षाएं ही मनुष्य को किसी लक्ष्य को स्थिर करने, तदनुरूप योजना बनाने और उसमें मनोयोग से जुट पड़ने की प्रेरणा देती हैं। मनुष्य की जीवन-पद्धति और क्रियाकलापों पर इन आकांक्षाओं का बहुत प्रभाव पड़ता है।
प्रत्येक व्यक्ति अपनी आकांक्षाएं पूरी करने का प्रयास करता है। यह उचित भी है। तो भी भारतीय तत्वदर्शन में निष्काम भाव से कर्म करने पर बल दिया गया है।
सामान्यतः लोगों को यह बात बहुत विचित्र लगती है। भला फलाकांक्षा के बिना काम कैसे किया जा सकता है? फिर यह भी पूछा जा सकता है कि निष्काम भाव से कर्म करने की सामर्थ्य और सिद्धि अर्जित करना भी क्या स्वयं एक आकांक्षा-कामना नहीं है?
वस्तुतः निष्काम भाव से कर्म का अर्थ आकांक्षा विहीन या प्रयोजन विहीन कार्य-प्रवृत्ति नहीं है। भारतीय मनीषियों का आशय यह था कि किसी भी ऐहिक आकांक्षा के प्रति इतनी आसक्ति न पाल ली जाय कि उसकी पूर्ति न होने पर मन अशान्ति, अतृप्ति और असन्तोष से भरा रहे। क्योंकि एक तो फल सदैव पुरुषार्थ पर ही निर्भर नहीं करता, परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। दूसरे सन्तोष-शांति परिणाम या उपलब्धियों की नहीं अपने मन की ही भाव-संवेदना है, जो व्यक्ति अमुक फलाकांक्षा के साथ बांध लेने पर उनकी पूर्ति से अनुभव करता है। इस तथ्य को समझाना भारतीय दर्शन का एक उद्देश्य रहा है। इसे समझ लेने पर जहां निरन्तर प्रगति-पथ पर बढ़ने की अनवरत प्रेरणा प्राप्त होती रहती है वहीं व्यग्रता, क्षोभ, खिन्नता, अशांति और कुंठा भी नहीं पनप पाती।’’ ‘‘हर दिन नया जन्म, हर रात नयी मृत्यु’’ और असंग भाव से कर्त्तव्य करते रहने के जीवन-सूत्र इसी दार्शनिक दृष्टि से प्राप्त होते रहते हैं।
जीवन के रहस्यों पर से जितना ही पर्दा उठता जाता है, उतना ही भारतीय मनीषियों के इस दार्शनिक प्रतिपादन की आवश्यकता और वास्तविकता स्पष्ट होती जाती है। यह ज्ञात होता जाता है कि अत्यधिक आसक्ति व्यक्ति को न केवल इस जीवन में अशांत बनाये रखती है वरन् मृत्यु के बाद भी वह उसी तृष्णा से मनुष्य को घुमाती बेचैन बनाये रहती है। भूत-प्रेत बने रहने और मारे-मारे भटकते फिरने की दयनीय विवशता का यह आसक्ति का अतिरेक ही कारण बनता है।
प्रायः प्रेतात्माओं के किस्सों में दंत कथाओं, कपोल-कल्पनाओं, ठग-व्यापार और प्रवंचनाओं की ही अधिकता होती है। किन्तु, इस धुंध और कुहासे से पृथक अनेक वास्तविक तथ्य उपलब्ध हुए हैं और परामनोविज्ञान के अन्वेषणों से प्रामाणिक घटनाएं सामने आई हैं। उनसे एक बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जहां मरने के बाद अनेक मनुष्य अपने इस जीवन के श्रम की थकान को दूर करने के लिये परलोक की गुफा में विश्राम लेते हैं स्वर्ग-नरक के स्वप्न दृश्यों में विचरण के बाद थकान और बोझ से मुक्त हो नयी क्षमता के साथ सक्रिय हो उठते हैं वहीं आसक्ति और आवेश की अधिकता से उद्विग्न, विक्षुब्ध, अशांत, अतृप्त, आतुर लोग प्रेत बनकर भटकते हैं और अपनी आसक्ति की तृप्ति के प्रयास में वर्षों यों ही गुजार देते हैं। आज तक प्रेतों के बारे में जितने भी प्रामाणिक विवरण मिले हैं, सभी दो तथ्यों की पुष्टि करते हैं। पहला तो यह कि अमुक वस्तुओं, साधना-उपकरणों या प्रवृत्तियों से प्रगाढ़ आसक्ति ही प्रेतयोनि की भटकन का कारण बनती है। दूसरा यह कि व्यक्ति का संस्कार-क्षेत्र इस जीवन में भी सक्रिय एवं प्रभावी रहता है। दुष्ट आत्माएं प्रेतयोनि पाकर भी दूसरों को पीड़ा पहुंचाने आतंकित करने और अनिष्ट करने में ही जुटी रहती हैं। जबकि सज्जन लोग अपनी आसक्ति के कारण भटकते तो हैं परन्तु दूसरों को क्षति नहीं पहुंचाते। उल्टे, यथाशक्ति यदा-कदा सहायता करते हैं।
अमरीका आज दुनिया का एक अग्रणी देश है। वैज्ञानिक प्रगति ही उसकी समृद्धि का कारण है। विज्ञान के केन्द्र इस देश के राष्ट्रपति का निवास ‘‘ह्वाइट-हाउस’’ कहलाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से इतने विकसित समाज के राष्ट्रपति कोई अविकसित दुर्बल मनःस्थिति वाले लोग नहीं हो सकते। बुद्धि-सामर्थ्य और राजनैतिक चातुर्य के बल पर ही वे इस पद पर पहुंचते हैं। इस राष्ट्रपति-निवास में रहने वाले प्रत्येक राष्ट्रपति ने अब तक एक अनुभव समान रूप से किया है वह है अमेरिका के महान राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के भूत का। यह भूत हाथ में घड़ी, सर पर टोप धारण किये एक कमरे से दूसरे कमरे में आता जाता सैकड़ों बार देखा जा चुका है। पर उसने कभी किसी को कोई क्षति नहीं पहुंचायी न ही आतंकित किया। हां, एक राष्ट्रपति लिंडन जानसन की पत्नी अवश्य उन्हें देखने के बाद वहां सोने को तैयार ही नहीं हुई और उनके रात्रि-शयन का प्रबन्ध व्हाइट-हाउस में ही दूसरे कोने के कमरों में किया गया। पर शेष राष्ट्रपति-परिवार वहीं रहते रहे हैं। वे अपना काम करते रहते हैं और यदा-कदा उस स्वर्गीय राष्ट्रपति को देखते रहते हैं। अब्राहम लिंकन एक श्रेष्ठ व्यक्ति थे—मानवीय उदारता और सत्वृत्तियों से भरपूर। किन्तु उनकी हत्या कर दी गई थी। लगता है लिंकन की अशांत आत्मा अभी तक व्हाइट हाउस के प्रति अपनी आसक्ति छोड़ नहीं पाई है। किन्तु अपनी सज्जन-प्रकृति के कारण उन्होंने वहां कभी कोई उत्पात भी नहीं किया। अमरीका के ही महान स्वातन्त्र्य-योद्धा राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन को भी वाशिंगटन शहर के पीछे नदी के तट पर शहीदों की समाधियों के बीच विचरण करते सैकड़ों बार देखा जा चुका है। लगता है स्वर्गीय राष्ट्रपति अपने प्रिय साथियों के प्रति अगाध स्नेह से बंधे होने के कारण ही वहां घूमते रहते हैं। हो सकता है वे वहां दबी-सिमटी आत्माओं के मार्गदर्शन के लिये ही अभी तक रुके हों और सबके साथ ही नया जीवनक्रम शुरू करने के अभिलाषी हों।
पत्रकार श्री जनार्दन ठाकुर ने पिछले दिनों लखनऊ में प्रेतात्माओं को जो प्रत्यक्ष अनुभव किया उसके आधार पर उन्होंने 7 मार्च 77 के ‘सन्डे’ में एक लेख ही लिख डाला और प्रश्न किया कि क्या प्रेतात्माओं का अस्तित्व है?
श्री ठाकुर का कहना है कि एक रात जब वे लखनऊ के प्रेस क्लब में ऊपरी हिस्से में रुके थे और टाइपराइटर पर एक रिपोर्ट टाइप कर रहे थे, तभी उन्हें नीचे हाल में टेबल टेनिस के खेलने की आवाज सुनायी पड़ी। देर तक सुनते रहने पर, उत्सुक ठाकुर ने कमरे से निकलकर रेलिंग से नीचे झांका, तो वहां बस टेनिस की गेंद मेज की एक ओर से दूसरी ओर आ जा रही थी। खिलाड़ी दिख नहीं रहे थे। श्री ठाकुर घबड़ा गये। बाद में पता चला कि और भी कई लोग रात में इन प्रेतात्माओं को यहां टेबल टेनिस खेलते देख चुके हैं। लगता है, उनकी आपसी आसक्ति और खेल तथा इस भवन से लगाव उन्हें मरने के बाद भी वहीं घुमा रहा है।
‘‘ब्रिटिश गवर्नमेंट इन इण्डिया’’ पुस्तक के अनुसार अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन ने कलकत्ता स्थित ‘‘हेस्टिंग्ज हाउस’’ में अपने एक पूर्ववर्ती गवर्नर जनरल लार्ड वारेन हेस्टिंग्ज का भूत कई बार देखा था। कभी वे देखते कि हेस्टिंग्ज चार घोड़ों की बग्घी में बैठकर आये। इमारत के सामने बग्घी रुकी और हेस्टिंग्ज उससे उतर कर सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। वहां ऊपर वे एक निश्चित कमरे में पहुंचकर एक दराज में कुछ ढूंढ़ते से रहे हैं। हर बार यही क्रम। कर्जन ने पता लगाया तो ज्ञात हुआ कि कुछ महत्वपूर्ण सरकारी दस्तावेज और कुछ निजी बहुमूल्य वस्तुएं हेस्टिंग्ज की इसी दराज से गुम हो गयी थीं। उस समय ‘कलकत्ता-गजट’, जोकि सरकारीपत्र था में उन चीजों की खोज करने वाले को बड़ी रकम इनाम में देने की घोषणा करने वाला विज्ञापन भी छपा था। जाहिर है कि वारेन हेस्टिंग्ज का मन उनके मरने के बाद भी उन्हीं वस्तुओं से बंधा है। परामनोविज्ञान-अनुसंधानों में रुचि लेने वाले और उस दिशा में कार्य करने वाले श्री कीर्तिस्वरूप रावत के अनुसार उन्हें एक बार ट्रेन में उनकी एक पूर्व परिचित महिला मिली। बीच में ही वे अदृश्य हो गईं जिससे ज्ञात हुआ कि वह उनका भूत था। इसी भूत ने श्री रावत को एक दूसरे भूत का किस्सा सुनाया। एक लेखक की एक पुस्तक का जयपुर में विमोचन होना था। वे ट्रेन से वहां आ रहे थे। मार्ग में उनका हृदयावरोध से निधन हो गया तब से वे लेखक महोदय ट्रेन में कई लोगों को ठीक उस दिन 14 नवंबर को मिलते और बताते कि मैं जयपुर जा रहा हूं मेरी अमुक पुस्तक का विमोचन होना है। उक्त महिला को भी वे सज्जन मिले थे। कुछ दिनों बाद यह महिला भी चल बसी थी और अब भूत रूप में श्री रावत को मिली। यदि यह घटना सत्य है तो स्पष्ट है कि उक्त लेखक और उक्त महिला दोनों ही अपनी पूर्व आसक्तियों से बंधे अवश्य हैं। श्री रावत एक बौद्धिक हैं तथा उन्हें दृष्टिभ्रम या दिवास्वप्न होने की गुंजाइश कम ही है। जब तक यह आसक्ति नहीं छूटती व्यक्ति उसी चक्कर में फंसा रहता है। आकांक्षा पूरी होने पर या अपनी मृगतृष्णा से जी उकता जाने पर अथवा भोग-भोग लेने पर जब वह आसक्ति समाप्त हो जाती है तो पूर्व संस्कारों के साथ अगला स्वाभाविक जीवन प्राप्त हो जाता है।
मृत्यु के तत्काल बाद दूरस्थ आत्मीयों को दिखना और फिर सदा के लिये अदृश्य हो जाना ऐसी ही आसक्ति और उसकी पूर्ति के बाद, अपने स्वाभाविक गन्तव्य की दिशा में प्रस्थान परिचायक है। ऐसी घटनाएं आये दिन घटती देखी जाती हैं। कई बार यह आसक्ति एक अरसे बाद पूरी होती है।
आस्ट्रेलिया के सिडनी नगर के नागरिक कैप्टन टाउन्स अपनी मृत्यु के डेढ़ माह बाद इस आसक्ति से छूटे। वे एक रोग से मर गये थे। मृत्यु के डेढ़ माह बाद एक दिन जब उनके दो मित्र शोक-संवेदना व्यक्त करने आये तो पत्नी ने उन्हें बैठने टाउन्स के कमरे में भेज दिया व चाय बनाने लगी। वहां उन मित्रों ने देखा कि अलमारी में से टाउन्स के चेहरे का आभास हो रहा है। तभी टाउन्स की लड़की कमरे में आई। उसने देखा तो भावावेश में चीख उठी—‘‘पिताजी!’’ श्रीमती टाउन्स भी तब तक आ गईं। पति को देख, भाव विह्वल हो वे हाथ फैलाये उधर बढ़ीं। जैसे ही उनकी उंगली अलमारी को छू गई टाउन्स की वह प्रतिच्छवि कांपी और सदा के लिये अदृश्य हो गयी। सम्भवतः पत्नी के अन्तिम स्पर्श की प्रबल आसक्ति रुग्ण टाउन्स में शेष रह गई थी।
मेरठ छावनी की माल रोड में आधी रात के आस-पास कुछ प्रेतात्माओं को भटकते देखने का दावा करने वालों की भी कमी नहीं। बताया जाता है सन् 1857 के स्वतन्त्रता-संग्राम के समय विद्रोही सिपाहियों ने मालरोड स्थित बंगलों में रहने वाले अनेक अंग्रेज नर नारियों को मार डाला था, उन्हीं की ये प्रेतात्माएं हैं। अब तक इंग्लैंड में प्रेतात्माओं की संख्या बहुत अधिक पाई गई है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वहां पुराने मकान, पुराने फर्नीचर ज्यों के त्यों सजाकर और संजोकर रखने का बड़ा शौक है। इन वस्तुओं और इमारतों को देखकर प्रेतात्माओं को अपनी पुरानी गतिविधियां याद हो आती हों और वे उनका नया ‘रिहर्सल’ करने लगते हों। दूसरे देशों में पुराने अवशेष उसी रूप में सुरक्षित न होने से प्रेतात्माओं में वैसी ललक अधिक न उभर पाती हो। फिर, जो लोग प्राचीन वस्तुओं को उसी रूप में संजोकर रखने के इतने शौकीन हैं उन्हें मरने के बाद भी अपनी प्राचीन वस्तुओं से मोह रहा आता हो तो क्या आश्चर्य? अमरीका में भूत-प्रेत काफी देखे-पाये जाते हैं। इसका कारण भी अमरीकी लोगों की प्रचंड आसक्ति-मूलक प्रवृत्तियां हो सकती हैं।
हमारे पूर्वज ऋषि इसीलिये जहां एक ओर मृतात्माओं की प्रिय वस्तुएं उसी रूप में संजोकर रखने के स्थान पर उनके उचित लोगों को दान का अग्रह करते रहे हैं ताकि वे लोकमंगल के पुण्य-प्रयोजन का अंग बन सकें वहीं, दैनन्दिन जीवनक्रम में भी आसक्ति-मोह के अतिरेक को दूर करने का परामर्श व प्रेरणा देते रहे हैं। ताकि चित्त पर स्मृतियों-आसक्तियों का बोझ नहीं रहे और हलके-फुलके होकर यह जीवन भी जिया जा सके और अगले जीवन में भी सहज गति में कोई बाधा नहीं रहे। वासनाओं और आवेशों का आधिक्य न केवल इस जीवन को भार बना डालता है, अपितु अगले जीवन को भी अभिशापमय बनाकर रख देता है। अतः उनसे मुक्त रहने का अभ्यास किया जाना चाहिए। तभी जीवन का स्वाभाविक आनन्द प्राप्त हो सकता है।
मृत्यु के समय जिन लोगों को कष्ट प्रतीत होता है, छटपटाहट होती है, वे वही लोग होते हैं, जो इहलौकिक जीवन से अत्यधिक आरुक्ति रखते हैं तथा जिनकी इस शरीर से जुड़ी वासनाएं अतृप्त और प्रज्ज्वलित रही होती हैं। इस शरीर से दूर और अपने परिचित परिवेश से दूर जाने की कल्पना मात्र से वे घबड़ाने लगते हैं। वह घबराहट और मानसिक उत्ताप ही मृत्यु के समय छटपटाहट के रूप में व्यक्त होते हैं। उसका वास्तविक शारीरिक पीड़ा से कोई सम्बन्ध नहीं होता। शारीरिक यातना का तो उस समय प्रश्न ही नहीं क्योंकि मृत्यु के तत्काल पहले चेतन मन पीछे धकेल दिया जाता है अर्थात् बेहोशी की-सी दशा हो जाती है और संस्कारों से भरा अवचेतन मन उभर कर हावी हो चुका होता है। आसक्ति और वासना के अनेक-विध संस्कार ही मनोव्यथा और अन्तर्वेदना के आधार बनकर उस छटपटाहट के रूप में दिखाई पड़ते हैं।
इसीलिए अपने यहां मनीषी पूर्वजों ने ऐसी व्यवस्था प्रचलित कराई थी कि मृत्यु के समय व्यक्ति से स्वयं ही दान का संकल्प कराया जाए। लोगों को जीवन में बार-बार बताया जाता था कि मरने के पूर्व अपनी प्रिय वस्तुएं सत्पात्र ब्राह्मण को दान कर देनी चाहिए। इसका उद्देश्य यही था कि स्वेच्छा से दान करने पर उन वस्तुओं के प्रति उस व्यक्ति का ममत्व समाप्त हो। उसकी आसक्ति का बंधन टूटे ताकि वह मृत्यु के बाद दूसरे लोक में शांति के साथ जा सके वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति आकर्षण तथा तीव्र राग से बंधा—विंधा, देह-नाश के बद भी वहीं आस-पास मंडराता रहे।
यह परम्परा विवेक सम्मत एवं श्रेष्ठ उद्देश्य से परिपूर्ण है। आसक्ति का बंधन देहान्त के बाद भी व्यक्ति को जकड़े रहकर कष्ट-क्लेश ही देता है। रागात्मक तीव्रता दिवंगत जीव को पुनः-पुनः, उसी घर, उन्हीं व्यक्तियों के समीप खींचती है। अतः न केवल मृत्यु के कुछ समय पूर्व दान आदि के द्वारा इस आसक्ति से मुक्त होने की कोशिशें जरूरी हैं, अपितु संपूर्ण जीवन का क्रम ही ऐसा ढालना चाहिए, जिससे आसक्ति की प्रगाढ़ता न पनपे और अनासक्ति-भाव जीवन तथा चिन्तन में घुल−मिल जाए। प्रसन्न-प्रफुल्ल, हलकी-फुलकी, मोहावेश रहित जिन्दगी जीने का अभ्यास कर लेने पर मृत्यु के समय न तो पीड़ा होती, न छटपटाहट।
उत्कृष्ट जीवन जियें भव्य मृत्यु वरें
भागवत में एक अत्यन्त मार्मिक-आख्यायिका आती है। देवर्षि नारद ने मरते हुए व्यक्ति को देखा, उनका अन्तःकरण जीव के मायावी बंधन देखकर द्रवित हो उठा। आत्मा ने तब तक शरीर छोड़ दिया था, उसके शव के समीप खड़े कुटुम्बीजन रुदन कर रहे थे। पुत्र भी विलाप कर रहा था कह रहा—हाय! पिताजी ने मुझे असहाय छोड़ दिया, नारद ने जीव को समझाया वत्स! इस मायावी बन्धन को तोड़ मेरे साथ चल, विराट् विश्व में कैसे-कैसे स्वर्गीय स्थल हैं चल और जीवन मुक्ति का आनन्द ले। किन्तु मृतक पिता की आसक्ति उन विलाप कर रहे कुटुम्बियों से जुड़ी थी, नारद की ओर उसने ध्यान ही नहीं किया अपने वासनामय सूक्ष्म शरीर से वहीं घूमता रहा। परिवारीय जन शोक मनाकर धीरे-धीरे अपनी सामान्य जिन्दगी बिताने लगे किन्तु मृतात्मा के विश्रृंखलित चित्त में बेटे का विलाप ही गूंजता रहा, उसने पशु योनि में प्रवेश किया, बैल हो गया और बैल बन कर अपने किसान बेटे की सेवा करने लगा।
कुछ दिन पश्चात् नारद पुनः बैल के पिंजरे में बन्द उस जीव से मिले और पूछा—तेरा मन हो तो चल और उच्च लोगों की उपलब्धियों का आनन्द प्राप्त कर। बैल ने कहा—भगवन् अभी तो जैसे-तैसे बेटे की—आर्थिक स्थिति कुछ नियन्त्रित हो पाई है अभी कहां चलूं? नारद चले गये। जीव डण्डे खाकर भी बेटे की आसक्ति का शिकार बना रहा। मृत्यु के समय भी बेटे की आसक्ति कम न हुई सो वह कुत्ता हो गया, हर बार बेटे को देखने की मोहभावना उसे क्रमशः अल्पायु योनि में प्रविष्ट कराती रही। कुत्ता बनकर वह बेटे की सम्पत्ति की रक्षा में तल्लीन हो गया। पूर्व जन्मों के संस्कार और मोहभावना उसे जब-जब उमड़ती वह भोजन के लिए चौके की ओर बढ़ता पर तभी मिलती दुत्कार और डण्डे—कुत्ता ड्यौढ़ी की ओर भागता। पर बेटे की रक्षा की बात उससे खून से जोंक की तरह चिपकी हुई थी सो उसने मालिक बने पुत्र का दरवाजा नहीं छोड़ा।
देवर्षि नारद फिर आये और चलने को कहा तो कुत्ते ने कहा—भगवन् आप देखते नहीं। मेरे बेटे की सम्पत्ति को चोर-बदमाश ताकते रहते हैं ऐसे में उसे छोड़कर कहां जाऊं? देवर्षि इस बात को समझते थे कि इस मोहासक्ति में उसी अपनी वासनायें और तृष्णायें भी जुड़ी हैं वह समझाते वत्स! तू जिन इन्द्रियों को सुख का साधन समझता है वे तुझे बार-बार छोड़ देती हैं फिर तू उनके पीछे बावला क्यों बना है किन्तु कुत्ते को समझ कहां से आती, मानवीय सत्ता तक तो सत्य को झांक नहीं पाती।
जीव को गुस्सा आया—मेरे द्वारा कमाये अन्न का एक अंश भी यह मेरा तथाकथित बेटा देता नहीं—इस बार ऐसा करूंगा कि मेरी कमाई तो मुझे खाने को मिले—इस तरह वह चूहा बना उस स्थिति में नारद ने पुनः दया की किन्तु तब भी उसे ज्ञान न हुआ, चूहों से तंग किसान ने विष मिले आटे की गोलियां रखीं चूहा मर गया। मृतक चूहे ने देखा कि विष देकर मेरा प्राणान्त किया गया है उसका मन क्रोध और प्रतिशोध की भावना से जल उठा। फलतः उसे सर्प योनि मिली। जीवन के बदले जीवन की क्रोधाग्नि के भड़कते ही सर्प ज्यों−ही बिल से बाहर निकला, उन्हीं घर वालों ने, जिनकी आसक्ति उसे निम्नतर योनियों में भ्रमण करा रही थीं, लाठियों पत्थरों से उसे कुचल-कुचल कर मार डाला। बेचारे नारद ने अब उधर जाना ही व्यर्थ समझा क्योंकि वे समझ चुके थे अभी वह इस प्रतिशोध की धुन में चींटी मच्छर मक्खी न जाने क्या-क्या बनेगा? कहानी के शास्त्रीय प्रतिपादन सम्भवतः आज के बुद्धिजीवी लोगों को प्रभावित न करें। वे इसे मात्र अन्ध विश्वास और पौराणिक गाथा कहकर उसकी उपेक्षा कर दें किन्तु सत्यान्वेषी पश्चिमी जगत के मूर्धन्य वैज्ञानिकों, प्रबुद्ध व्यक्तियों, डाक्टरों और पत्रकारों को जीवन और मृत्यु की संध्या के जो अनुभव हुए हैं वह इस आख्यायिका और हिन्दुओं की मरणोत्तर संस्कार परम्परा का पूरी तरह समर्थन करते हैं। यहां कुछ ऐसी ही घटनायें दी जा रही हैं जिनमें मरणासन्न व्यक्तियों के अनुभव में आये हैं। कई बार यों हुआ कि किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गई, मृत्यु के समय सुप्रसिद्ध डॉक्टर भी विद्यमान थे। लोग अन्तिम संस्कार की तैयारी करने लगे तभी एकाएक मृतक की चेतना उसी शरीर में पुनः लौट आई और वह जीवित उठ बैठा। कुछ व्यक्तियों का मस्तिष्क प्रखर और हृदय संवेदन शील रहा है उन्होंने अपनी चेतना को जीवन और मृत्यु की देहलीज पर-सन्धि पर-स्थिर कर उस पार जो कुछ देखा उसका वर्णन मरते-मरते कर दिया। किन्हीं माध्यमों के द्वारा मृतात्माओं से संपर्क का सम्मोहन विज्ञान भारतवर्ष ही नहीं पश्चिमी देशों में भी प्रचलित है इन अनुभवों की सत्यता की परख उनके द्वारा बताई गई इन अतिरिक्त बातों और घटनाओं से होती है जो मृतक के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था पीछे माध्यम के द्वारा बताये गये तथ्यों के आधार पर खोज की गई तो वह घटनायें सत्य पाई गईं।
इस तरह की घटनाओं के सैकड़ों उदाहरण डा. राबर्ट कूकत बी.एस.सी. (साइकोलाजी डी.एस.पी.एच.डी. पूर्ण निर्देशक वनस्पति विज्ञान एडरबीन विश्वविद्यालय की पुस्तक ‘‘टेकनीक्स आफ एस्ट्रल प्रोजेक्शन’’, एन्थोनी बोर्गिया लंदन की पुस्तक ‘‘मोर एबाउट लाइफ इन दी वर्ल्ड अनसीन’’, डब्ल्यू.एच. ऐतान लंदन द्वारा प्रकाशित डा. जेम्स पाइक की पुस्तक ‘‘दि अदर साइड’’ डब्ल्यू.टी. स्टेड की पुस्तक ‘‘आफ्टर डेथ’’ ‘‘बियान्ड दि होराइजन’’ ‘‘पोस्टमार्टम जनरल’’ ‘‘तगइफ वर्थ लिविंग’’ तथा ‘‘सुप्रीम एडवेंचर’’ जिन्हें क्रमशः ग्रेस रोशर (प्रकाशक मेसर्स नेविल्के स्पेयर मैन 112 व्हाइट फील्ड स्ट्रीट लंदन) मिसेज हैस लोप (प्रकाशक मेसर्स चार्ल्स टेलर बुक हाउस लंदन) तथा जियोलॉजिकल सर्वे लंदन के तत्कालीन प्रधानाचार्य और भूगर्भ विज्ञान वेत्ता हैं इस तरह के विख्यात व्यक्तियों की अनुभूतियों को यों ही ठुकराया जाना मानवीय आस्था के लिए घातक नहीं तो अशोभनीय अवश्य कहा जायेगा। इन पुस्तकों के कुछ उद्धरण—
लारेंस आफ अरेबिया जिन्हें लोग स्काट कहकर बुलाया करते थे ने अपने अनुभव इन शब्दों में व्यक्त किये हैं—यह एक ऐसी दुनिया है जहां न प्रकाश है और न अन्धकार है धूमिल वातावरण जान पड़ता है ऐसा लग रहा है कि दीपक बुझ रहा है और मुझे निद्रा घेरती चली आ रही है इस समय मेरी इच्छायें नींद में न जाने के लिए झगड़ती और मचलती सी लगती हैं किन्तु......।
‘‘वियान्ड दि होरइजन’’ में गोर्डन का अनुभव—मेरी चेतना शरीर से बाहर आ गई, मैंने इतना हलकापन अनुभव किया मानो सारे शरीर की थकावट विश्राम में बदल गई हो, पर मेरे मन में बार-बार पत्नी रोशर का स्नेह उमड़ता था अतएव वहां से हटने का मन नहीं कर रहा था। पत्नी की आंखों में आंसू थे, उनकी रोने की आवाज और वह जो भी कहती थीं उन्हें मैंने स्पष्ट सुना उन्होंने यह शब्द कहे—मैंने उसको समझाने उनके आंसू पोंछने का प्रयास भी किया पर न तो मुझ से और धुले न किसी ने मेरी आवाज सुनी, तब मैंने अनुभव किया कि जाने की अवस्था है उस समय बहुत दुःख हुआ। मैंने सारी शक्ति लगा कर अपने शरीर में घुसने का प्रयास किया, पीछे क्या हुआ कैसे हुआ याद नहीं आता।
‘आफ्टर डेथ’ में प्रकाशित जूलिया का संस्मरण और भी मार्मिक है। यह पुस्तक 1897 में प्रकाशित हुई और अब तक उसके लगभग बीस संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। जर्मन, स्विस फ्रेंच, डेनिस रशियन तथा इटेलियन भाषा में उसके अनुवाद भी छप चुके हैं। जूलिया एक बहुत रंगीन स्वभाव की लड़की थी सुन्दर होने के कारण उसके अनेक मित्र थे। अपने मित्रों से वह प्रायः कहा करती थी कि यदि मेरी मृत्यु हुई तो भी मिलती अवश्य रहूंगी। संयोगवश 12 दिसम्बर 1891 में उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद उसके कई मित्रों ने तो उसके प्रेत को मंडराते हुए देखा ही कुछ अजनबी आत्माओं को उसके सन्देश भी मिले जिनमें उन लोगों ने ने केवल वह सन्देश प्राप्त किये जिन्हें जूलिया के अत्यधिक निकट सम्बन्धी ही जानते थे। ऐसे लोगों में कुछ वह भी थे जिन्होंने उसे कभी देखा नहीं था पर जब सैकड़ों फोटो उनके सम्मुख रखे गये तो उन्होंने जूलिया का फोटोग्राफ पहचान कर बता दिया। उन लोगों ने बताया—जूलिया की आत्मा अपने मित्रों के लिये भटकती रहती हैं। वह उन्हें देखती है पर स्वयं न देखे जाने या स्पर्श जन्य अनुभूति का आनन्द न प्राप्त कर सकने के कारण वह आतंकित और पीड़ित रहती है।
डा. राबर्ट कूकल ने स्वीकार किया है मृत्यु के बाद मनुष्य अपने सूक्ष्म अणुओं के शरीर से बना रहता है उसके मन की चंचलता इच्छायें और वासनायें बनी रहती हैं यदि वे अतृप्त रहें या जहां आसक्ति होती है जीव वहीं मंडराता रहता है।’’
इन उद्धरणों में अभिव्यक्त सत्य पढ़ समझ कर देवर्षि नारद की वह कथा निरर्थक नहीं लगती जिसमें मनुष्य जैसे विचारशील प्राणी को नितान्त पार्थिव होने का भ्रम हो जाता है। अपने यहां किसी की मृत्यु के समय दुःख न करने, धार्मिक वातावरण बनाये रखने के पीछे ऐसा ही अकाट्य दर्शन सन्निहित है कि यदि मृत्यु के समय जीव अशांत आसक्त रहा हो तो देह त्याग के बाद भी यह अशान्ति बनी रहे अपितु उसे परमार्थ बोध हो जिससे वह जीवात्मा की विकास यात्रा पर चल पड़े। किन्तु भ्रम में पड़ी मानवीय बुद्धि को क्या कहा जाए? जो इतना भी नहीं सोच पाता कि मृत्यु के समय विचारणायें, वासनायें, इच्छायें स्वभाव सब वही तो रहेंगे जैसा जीवन भर का अभ्यास होगा जिसने जीवन भर परमात्मा की याद न की, अपना लक्ष्य न पहचाना, शारीरिक सुखों और इन्द्रिय जन्य अनुराग को निरर्थक नहीं समझा, उन्हीं में आसक्त रहा उसकी अन्तिम समय भावनायें एकाएक कैसे बदल पायेंगी?
मृत्यु-जीवन का यथार्थ है, उसे कोई टाल नहीं सकता, फिर उसकी उपेक्षा क्या हितकर हो सकती है। समझदार वह है जो एक महान यात्रा की तैयारी के इस श्रीगणेश पर्व को अच्छी तरह जान लेता है और परिपूर्ण तैयारियां करके चलता है जिससे महान यात्रा के आनन्द मिल सकें। मानवेत्तर योनियों में भटकना पड़े तो महर्षि नारद के जीव की कथा अपनी ही सनसनी चाहिए किसी और की नहीं।
जीवन भर के संग्रहीत विचार और संस्कार मरने के समय उभरते हैं उनमें से जो अधिक तीव्र होते हैं उन्हें स्मृति पटल पर प्राथमिकता मिलती है, अन्य स्मृतियां गौण हो जाती है। जीवन भर जो सोचा—जो चाहा और जो किया है प्रायः उन्हीं का सम्मिलित पर, चेतना आकाश में घटा बनकर छाया होता है और मरणासन्न व्यक्ति उन्हीं भले-बुरे संस्कारों का छाया चित्र देखता है। उन घड़ियों में सचेतन मन क्षीण हो जाता है और अचेतन का प्राबल्य रहता है। अचेतन के लिए भावना प्रवाह को दृश्य चित्र जैसा बनाकर प्रस्तुत कर देना सरल है।
भारत के गृहमन्त्री पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त की मृत्यु से पन्द्रह दिन पूर्व की एक घटना है। अपने सेक्रेटरी को वे अंग्रेजी में बोलते हुए कुछ नोट लिखा रहे थे। वे कुछ रुके और हिन्दी में बोलने लगे। सेक्रेटरी अकचकाया कि प्रवाह कि कैसे बदला। बात वह भी पूरी न पड़ी फिर वे अपनी मातृभाषा पहाड़ी में बोलने लगे। इसके बाद वे एकदम मौन हो गये।
घटना मामूली सी है, पर उससे इस तथ्य का रहस्योद्घाटन होता है कि मृत्यु से पूर्व आत्मा पर चढ़े बाह्य आवरण उतरते जाते हैं और वह सुस्थिर संस्कारों की भूमिका में जागृत होता जाता है। अंग्रेजी बाहरी भाषा थी—हिन्दी भी उनने स्कूल जाने पर सीखी। जन्म से तो पन्तजी को पहाड़ी भाषा में ही बोलना, सीखना पड़ा था। घर परिवार के लोगों के साथ सहज स्वाभाविक स्थिति में वे पहाड़ी में ही बोलते थे। यह उनका अधिक गहरा स्वाभाविक संस्कार था। मरने से पूर्व बाहरी आवरण उसी क्रम से उतरते हैं जिस क्रम से कि उन्हें पहना या प्रयोग किया जाता है। कपड़े उतारते समय हम पहले कोट उतारते हैं, उसके बाद कुर्ती, सबसे अन्त में बनियान इसी प्रकार पहले बनावटी व्यक्तित्व दूर होता है, फिर स्वभाव में घुसी आदतों की प्रभाव छाया दूर होती है और अन्ततः जीवात्मा की वे मूलभूत आस्थायें, आकांक्षायें ही शेष रहती हैं, जिनमें व्यक्तित्व घुल गया था।
मृत्यु से सब डरते हैं, पर इसलिए नहीं कि वह सचमुच ही डरावनी है। हमें सिर्फ अविज्ञात से डर लगता है, अपरिचित के सम्बन्ध में अनेकों आशंकाएं रहती हैं। अनिश्चय ही—अविश्वस्त स्थिति ही डरावनी होती है। रात्रि के अन्धकार में डर लगता है, पर किसका? चोर का नहीं इस सुरक्षित स्थान तक उसकी कोई पहुंच नहीं। सर्प का—नहीं इस ऊंची अट्टालिका के संगमरमर से बने फर्श तक आ सकने का उसका कोई रास्ता नहीं। भूत का—नहीं वह तो भ्रममात्र है, उसके अस्तित्व पर कोई भरोसा नहीं। फिर वही प्रश्न—अंधेरा क्यों डरा रहा है?सुनसान में सिहरन क्यों हो रही है? निश्चय ही यह अनिश्चय की—स्थिति है जो अपरिचित से डरने के लिए बाध्य करती है। अपरिचित अर्थात् अज्ञात। सचमुच अज्ञात सबसे अधिक डरावना है। मौत अज्ञात की छाया मात्र है।
एक गड़रिया राजकीय सम्मान के लिए सिपाहियों द्वारा दरबार में उपस्थित किया गया। वह बेतरह कांप रहा था। भय था कि न जाने उसका क्या होगा, पर जब उसे सम्मानित किया गया और उपहार से लादा गया तब वह सोचने लगा मैं व्यर्थ ही थर-थर कांपता रहा और अपना रक्त सुखाता रहा।
डरावनी मृत्यु आखिर है क्या? तनिक जानने की कोशिश करें कि वह तनिक सी विश्रान्ति भर है। अनवरत यात्रा करते-करते जब थक कर चेतना चूर-चूर हो जाती है तब वह विश्राम चाहती है नियति उसकी अभिलाषा पूर्ण करने की व्यवस्था बनाती है। थकान को नवीन स्फूर्ति में बदलने वाले कुछ विश्राम के क्षण वस्तुतः बड़े मधुर और सुखद होते हैं। क्या उन्हें दुःखद दुर्भाग्य माना जाय?
सूर्य हर दिन अस्त होता है, पर वह किसी भी दिन मरता नहीं। अस्त होते समय विदाई की ‘अलविदा’ मन भारी करती है, पर यह मानकर सन्तोष कर लिया जाता है कि कुछ ही समय बाद उल्लास भरे प्रभात का अभिनन्दन प्रस्तुत होगा।
पके फल को प्रकृति उस पेड़ से उतार लेती है। इस लिए कि उसका परिपुष्ट बीज अन्यत्र उगे और नये वृक्ष के रूप में स्वतन्त्र भूमिका सम्पादन करे। वृक्ष से अलग होते समय वियोग की, दुलहन के पतिगृह में प्रवेश करने की तैयारी नहीं है। क्या बिछुड़न की व्यथा में मिलन की सुखद संवेदना छिपी नहीं होती। इन विदाई के क्षणों को दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य? मृत्यु को अभिशाप कहें या वरदान? इन निर्णय पर पहुंचने के लिए गहरे चिन्तन की आवश्यकता पड़ेगी।
मरण के कन्धों पर बैठ कर हम पड़ौस की हाट देखने पर जाते हैं और शाम तक घूम फिर कर फिर घर आ जाते हैं। मृत्यु के बाद भी हमें इसी नीले आसमान की चादर के नीचे रहना है। अपनी परिचित धूप और चांदनी से कभी वियोग नहीं हो सकता। जो वहां चिरकाल से गति देती रही है उसका सान्निध्य पीछे भी मिलता रहेगा। दृश्य भोजन उदरस्थ होकर अदृश्य ऊर्जा बन जाता है इसमें घाटा क्या रहा? सम्बन्धियों की सद्भावना और अपनी शुभेच्छा आदान-प्रदान जब बना ही रहने वाला है तो सम्बन्ध टूटा कहां? इस परिवर्तन भरे विश्व में जीवन का स्वरूप भी तो बदलना चाहिए ज्वार भाटे की तरह जीवन और मरण के विशाल समुद्र में हम सब प्राणी क्रीड़ा कल्लोल कर रहे हैं। इस हास्य को रुदन क्यों मानें?
श्मशान को देखकर कुड़कुड़ाओ मत। वह नव जीवन का उद्यान है। उसमें सोई आत्माएं मधुर सपने संजो रही हैं ताकि विगत की अपेक्षा आगत को अधिक समुन्नत बना सकें। लोगों, डरो मत। यहां मरता कोई नहीं, सिर्फ बदलते भर हैं। और परिवर्तन सदा से रुचिर माना जाता रहा है रुचिर के आगमन पर रुदन क्यों?
एक नहीं हजार तक तथा युक्तियों से यह बात सिद्ध होती है कि मृत्यु यदि उसका वरण ठीक स्थिति में किया जाये तो जीवन से कहीं अधिक सुखकर तथा विश्रामदायिका ही पाई जाती है। महात्मा गांधी के इस कथन में कितना यथार्थ सत्य छिपा हुआ है। इसको देख समझ कर भी क्या मृत्यु से घबराने, उससे घृणा करने अथवा उसे अवरणीय मानने का कोई कारण हो सकता है। वे लिखते हैं—
‘‘मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि मृत्यु को जीवन की अपेक्षा अधिक सुन्दर होना चाहिए। जनम से पूर्व मां के गर्भ में जो यातना भोगनी पड़ती है उसे छोड़ देता हूं, पर जन्म लेने के बाद तो सारे जीवन भर यातनायें ही भुगतनी पड़ती है। इसका तो हमें प्रत्यक्ष अनुभव है। जीवन की पराधीनता हर मनुष्य के लिए एक सी है। जीवन यदि स्वच्छ रहा तो मृत्यु के बाद पराधीनता जैसी कोई बात न होनी चाहिए। बालक जनम लेता है तो उसमें किसी तरह का ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है फिर भी आत्मज्ञान नहीं हो पाता, पर मृत्यु के बाद तो ब्राह्मी स्थिति का बोध सहज ही हो जाता है। यह दूसरी बात है कि विकार युक्त होने के कारण उसका लाभ न उठा सकें। किन्तु जिनका जीवन शुद्ध और पवित्र होता है उन्हें तो उस समय बन्धन मुक्त ही समझना चाहिए। सदाचार का अभ्यास इसीलिए तो जीवन में आवश्यक बताया जाता है ताकि मृत्यु होते ही मनुष्य शाश्वत शान्ति की स्थिति प्राप्त कर ले।’’
वास्तविक बात तो यह है कि जिस मनुष्य ने अपने अपकर्मों द्वारा जीवन को काला बना लिया है। पुण्य प्रकाश से कोई वास्ता नहीं रखा उसका मृत्यु से डरना तो क्या जीवन से डर लगा करता है। सदाचार तथा पुण्य परमार्थ से आलोकित जिन्दगी में तो आनन्द है ही मृत्यु के पश्चात् तो अक्षय आनन्द के कोष खुल जाते हैं। मृत्यु का भय छोड़िये और अपने पुण्य परमार्थ द्वारा जीवन एवं मृत्यु दोनों को एक वीर योद्धा की तरह विजय कर अक्षय पद प्राप्त कर लीजिए।
योगवशिष्ठ में भी कहा है—
‘‘अभ्यस्य धारणानिष्ठो देहं त्यक्त्वा यथा सुखम् । प्रयाति धारणाभ्यासी युक्तियुक्तस्तथैव च ।।’’ मूर्खः स्वमृति कालेऽसौ दुःखमेत्यवशाशयः । (3।54।36, 37)
अर्थात् धारणा का अभ्यास करने वाला ज्ञानयुक्त पुरुष शरीर को सुखपूर्वक त्याग देता है। किन्तु वे मूर्ख, अज्ञानी जिनका मन वश में नहीं है, मरते समय अत्यधिक दुःख दग्ध होते हैं। ‘दीनतां परमामेति परिलूतमिवाम्बुजम ।’ (3।54।38)
अर्थात् अज्ञानी व्यक्ति मृत्यु के समय टूटे हुए कमल की तरह दीन-दयनीय हो जाता है।
मरते समय शारीरिक पीड़ा प्रायः नहीं के बराबर होती है। बीमारी में जितना कष्ट सहना पड़ता है, मरते समय उतना भी नहीं होता। इसलिए मरने से इस आधार पर डरने की जरूरत नहीं है कि उस समय अधिक कष्ट होगा।
दांत में कीड़ा लगने या उखड़ने के दिनों बहुत दर्द होता रहता है। पर जब कुशल डॉक्टर उसे निकालता है तो सुई लगाकर उसे सुन्न कर देता है और यह पता भी नहीं चलता कि कब उखड़ गया। अस्पताल में किसी चोट या व्रण का आपरेशन कराने के लिए भर्ती होना पड़ता है। चोट या दर्द में बहुत दर्द होता रहता है पर जब डॉक्टर आपरेशन करता है तो बेहोशी की दवा सुंघा देता या सुई लगाकर सुन्न कर देता है। रोगी के साथ डॉक्टर की सद्भावना रहती है सो वह बिना कष्ट पहुंचाये ही अपना प्रयोजन पूरा कर देता है।
मृत्यु का समय आने से पूर्व कुछ दिन बीमार रहना पड़ता है। बीमारी में स्नायु मण्डल और नाड़ी मण्डल दुर्बल हो जाता है और अनुभूति की क्षमता शिथिल पड़ जाती है। जैसे जैसे मरने का समय निकट आता जाता है वैसे वैसे यह शिथिलता और बढ़ती जाती है। मस्तिष्क अपना काम समाप्त करता जाता है। प्रायः मरने से पूर्व हर व्यक्ति अचेत हो जाता है। उसकी चेतना लुप्त हो जाती है। कुटुम्बियों तक को पहचानने की शक्ति नहीं रहती। जीभ बोलना बन्द कर देती है और कान, आंख आदि खुले रहने पर भी अपना काम नहीं करते। अनुभव करने की शक्ति धीरे-धीरे अधिकाधिक शिथिल होती चली जाती है और मरने की घड़ी आने से पूर्व ही वह अवचेतन अवस्था इतनी घनी हो जाती है कि प्राण त्यागने के समय प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट अनुभव नहीं होता।
मृत्यु के समय अधिकतर लोग बहुत व्यथित और उद्विग्न पाये जाते हैं। इसका कारण शारीरिक नहीं मानसिक है। एक तो मनुष्य मोह ममता के बन्धन में बेतरह जकड़ जाता है और उन्हें तोड़ते हुए कष्ट होता है। ढीली हथकड़ी बेड़ी आसानी से कट जाती हैं पर यदि वे शरीर में बहुत कस कर बंधी हों तो काटने में कष्ट होगा। पैसा मेरा—घर मेरा—कुटुम्ब मेरा—यह ‘मेरा’ जितना गहरा और कड़ा होगा उसका टूटना मानसिक दृष्टि से उतना ही भारी पड़ेगा। यदि पहले से ही मनुष्य यह सोचता रहे कि धन सम्पदा समाज या परमेश्वर की है मैं उसको कार्यों में प्रयुक्त करने वाला कर्मचारी भर हूं। स्वामित्व मेरा किसी पर नहीं। तो उसे वस्तुओं से मोह न बढ़ेगा और वे छूटते समय कष्ट न देंगी। इसी प्रकार सब जीवों को ईश्वर का अंश और पुत्र समझ कर स्वतन्त्र इकाई माना जाय। उनके साथ रास्ता चलते पथिक जैसा संयोग माना जाय। परिवार रूपी उद्यान का अपने को माली भर समझा जाय। तो फिर कुटुम्बियों से ममता न बढ़ेगी। स्नेह सद्भाव के निर्वाह और कर्त्तव्य पालन भर में संतोष और आनन्द होता रहेगा। उनके वियोग में वैसी पीड़ा न होगी जैसी आमतौर से अज्ञानग्रस्त लोगों को होती है।
मरने के समय दूसरा कष्टदायक कारण है जीवन को निरर्थक एवं अनर्थ जैसे कामों में बर्बाद कर देना। पाप की गठरी सिर पर लादकर ले चलना और भविष्य में कुकर्मों के फलस्वरूप दुखद परिस्थितियों में पड़ने की सम्भावना का आंखों के सामने मूर्तिमान होना। उस समय पश्चाताप की आग बेतरह जलाती है और कर्मफल के दण्ड का भय लगता है। यह कष्ट वास्तविक है। पर होता उन्हीं को है जिनने सुर दुर्लभ मानव शरीर के बहुमूल्य क्षण निरर्थक गंवाये। जीवनोद्देश्य को नहीं समझा। धर्म और कर्त्तव्य से विमुख रहे और आत्म-कल्याण तथा लोक-कल्याण के लिये भी कुछ करना है इस बात को भूले रहे। मृत्यु की अनिवार्यता हमें ध्यान में रखनी चाहिये। उस समय शरीरगत कष्ट से तो डरने की आवश्यकता नहीं है। पर मानसिक पश्चात्ताप और मोह ममता के कारण व्यथित न होना पड़े इसलिये अपना दृष्टिकोण और कर्तृत्व ऐसा बनाना चाहिये जिससे मृत्यु को शान्ति, धैर्य और साहस पूर्वक स्वीकार किया जा सके।
स्वामी विवेकानन्द ने मृत्यु के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए एक बार कहा था—जब मैं मृत्यु के सम्बन्ध में सोचता हूं तो मेरी सारी कमजोरियां विदा हो जाती हैं। उस कल्पना में न मुझे भय लगता है और न शंका सन्देह भरी बेचैनी अनुभव होती है तब मेरे मन में उस महायात्रा की तैयारी के लिये योजनायें भर बनती रहती हैं।मरने के बाद एक अवर्णनीय प्रकाश पुंज का साक्षात्कार होगा इस कल्पना से मेरा अन्तरात्मा पुलकन और सिहरन से गदगद हो जाता है।
मरने से डरने का कारण केवल मनुष्य की वह भीरुता एवं भयभीत मनःस्थिति है जो अपरिचित स्थिति में जाने और एकाकी रहने की आशंका से उभरती है सम्बन्धित व्यक्तियों अथवा वस्तुओं से सम्पर्क छूट-टूट जायगा यह डर भी मनुष्य को मौत से बहुत डराता है। पर जिनने मर कर देखा है उनका कथन है कि मौत में डरावनेपन की कोई बात नहीं है।
मरने से पूर्व कैसा अनुभव होता है यह मनुष्य की अंतःस्थिति पर निर्भर है। वह आजीवन जैसा सोचता रहा है अन्तिम अनुभूतियां क्षण भर में प्रस्तुत हुआ उसी का सार तत्व कहा जा सकता है। किन्हीं को मृदुल संगीत सुनाई पड़ता है, कुछ को नशा चढ़ने जैसी स्थिति अनुभव होती है। किन्तु कुछ को दम घुटने और डूबने जैसी अकुलाहट भी होती है। जिन्होंने जीवन दर्शन को समझा है उन्हें मरण सुखद ही लगता है। प्राणिशास्त्री विलियम हण्टर ने मरने से पूर्व मन्द स्वर में कहा था—यदि मुझ में लिखने की ताकत होती तो विस्तार से लिखता कि मृत्यु कितनी सरल और सुखद है।
डिट्रोयम (अमेरिका) के अखबार में ‘उस पार’ शीर्षक से एक लेखमाला कुछ समय पूर्व छपी थी उसमें उन लोगों के अनुभव संस्मरणों का संकलन था जो मरे के बाद भी जी उठे थे। इन संस्मरणों में एक अनुभव मियानी निवासी लिनमेलविन का है जिन्होंने बताया कि मृत्यु से पूर्व उन्हें तीव्र ज्वर के कारण मस्तिष्क में भारी जलन हो रही थी कि अचानक सब कुछ शान्त हो गया और वे शान्ति, स्वतन्त्रता और शीतलता अनुभव करती हुई हवा में तैरने लगी। अपने चारों ओर मुझे रंगीन और सुहावना लगा। इस आश्चर्य भरी स्थिति का कारण पहले तो कुछ समझ न पाई पीछे लगा कि मैं मर गई हूं और आत्मा के रूप में स्वच्छन्द विचरण कर रही हूं। किन्तु यह स्थिति अधिक न रही। किसी ने मुझे पुनः शरीर में धकेल दिया और जीवित हो उठी। देखा तो पाया कि मेरे मृत शरीर को दफनाने के लिये परिवार के लोग आवश्यक तैयारी करने में लगे हुये थे। मर कर फिर जी पड़ने पर उन्होंने भी प्रसन्न अनुभव की खासतौर से मेरी छोटी लड़की ने।
ट्टिाइज आन सस्पेंडेस ऐन्टी मेशन नामक ग्रन्थ के लेखक बोस्टन निवासी डा. मूर रसेल फ्लेचर ने लगातार 25 वर्षों तक इस तथ्य का अन्वेषण किया कि मरने के उपरान्त मनुष्य को किस प्रकार की अनुभूति होती है। मैसाचुसेट्स मेडिकल सोसाइटी के वे आजीवन अग्रणी नेता रहे। इस सन्दर्भ में उन्हें ऐसे लोगों से भी वास्ता पड़ा जो कुछ समय तक मृत रहने के उपरान्त पुनः जीवित हो उठे थे। ऐसे लोगों को खोज-खोज कर डा. फ्लेचर ने उनके बयान लिये और उन्हें अपनी उपरोक्त पुस्तक में छापा। इन बयानों में एक गानर्निर नगर निवासी श्रीमती जान डी. ब्लेक का है। वे तीन दिन तक मृत स्थिति में पड़ी रही थीं। डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था पर कुछ लक्षण ऐसे थे जिनके कारण घर वालों ने उन्हें दफनाया नहीं और पुनर्जीवन की प्रतीक्षा में लाश को सम्भाले रहे। तीन दिन बाद वे जी उठीं। पूछने पर उनने बताया कि वे एक ऐसे लोक में गईं जिसे परियों का देश कह सकते हैं। वहां बहुत आत्माएं थीं जिनमें उसकी मृत सहेलियां भी थीं वे बिना परों के आसमान में उड़ती थीं और सभी प्रसन्न थीं।
वरमान्य—हद्रिगेट की एक अध्यापिका ने भी कुछ समय मृत रहने के बाद पुनर्जीवन पाया था—उसने बताया—मृत्यु देश के सभी निवासी प्रसन्न थे। किसी के चेहरे पर विषाद नहीं था। सभी आमोद प्रमोद में मग्न थे।
वोस्टन से सेन्टजान जाने वाला जलयान समुद्र में डूबा तो उसमें से केवल एक लड़की बची। पानी में एक घण्टा डूबी रहने के बाद वह लहरों के साथ किनारे पर लगी। मृतक समझी जाने के बाद भी वह बच गई। डा. फ्लेचर को उसने बताया मृत्यु और जीवन के बीच का समय उसने सुनहरे प्रकाश के बीच बड़े आनन्द के साथ बिताया। लन्दन के पादरी लेजली वेदरहुड एक मरणासन्न रोगी के निकट प्रार्थना करने के लिये गये। वे उसका हाथ पकड़े चारपाई के सिरहाने बैठे थे। रोगी ने मूर्छा छोड़कर आंखें खोलीं और कहा—मेरा हाथ पीछे मत खींचो मुझे आगे जाने दो जहां मुझे स्वागत पूर्वक बुलाया जा रहा है।
यहूदी विद्वान सोलमन ने लिखा है—इस जीवन के बाद भी एक जीवन है। देह मिट्टी में मिलकर एक दिन समाप्त हो जायगी फिर भी जीवन अनन्तकाल तक यथावत् बना रहेगा।
दार्शनिक नशाद सृंश ने कहा है—आत्मा की अमरता माने बिना मनुष्य की निराशा और उच्छृंखलता से नहीं बचा जा सकता। यदि मनुष्य को आदर्शवादी बनना हो तो अविनाशी जीवन और कर्मफल की अनिवार्यता के सिद्धान्त उसके गले उतारने ही पड़ेंगे।
ख्यातिनामा साहित्यकार विक्टर ह्यूगों ने लिखा है—कब्र में अन्धकार और श्मशान की नीरवता की बात ने मुझे कभी क्षुब्ध नहीं किया। क्योंकि मैं सदा विश्वास करता रहा—शरीर को तो नष्ट होना ही है पर आत्मा को कोई भी घेरा कैद नहीं कर सकता। उसे उन्मुक्त विचरण करने का अवसर सदा ही मिलता रहेगा। वस्तुतः मृत्यु न तो कोई अचम्भे की वस्तु है और न डरने की। वह जीवन क्रम में अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई एक सरल और स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसमें पुरातन का नवीनीकरण का सुखद परिवर्तन जुड़ा हुआ है। यदि जीवन सरल रहे तो मृत्यु के जटिल और भयंकर लगने का फिर कोई कारण न रहेगा।
यदि मनुष्य आरम्भ से ही मृत्यु को जीवन का अन्तिम अतिथि मानकर चलें, उसकी अनिवार्यता को समझें और अपनी गतिविधियां इस स्तर की बनाये रखें जिससे मृत्यु के समय जीवन व्यर्थ जाने का पश्चात्ताप न हो तो मृत्यु हर किसी के लिये सरल और सुखद हो सकती है। थकान मिटाने के लिये निद्रा की गोद में जाना जब अखरता नहीं तो कोई कारण प्रतीत नहीं होता कि कुछ अधिक लम्बी निद्रा प्रदान करने वाली मृत्यु से न कोई डरे-न घबरायें।
जार्ज वाशिंगटन मरने लगे तो उनने कहा—मौत आ गई, चलो अच्छा हुआ, विश्राम मिला। हेनरी थोरो ने शान्त और गम्भीर मुद्रा में मृत्यु का स्वागत करते हुये कहा—मुझे संसार छोड़ने में कोई पश्चात्ताप नहीं है कोहन्स ने और भी अधिक प्रसन्नता व्यक्त की तथा कहा—लगता है मेरे बदन पर फूल ही फूल छा गये। हेनरी ने अपनी मृत्यु के समय अलंकारिक भाषा में कहा—बत्तियां जला दो, मैं अन्धकार से नहीं जाऊंगा। विलियम ने अपनी अभिव्यक्ति करते हुए कहा, मरना कितना सुखद है। स्वामी दयानन्द ने प्रसन्नता प्रकट करते हुये मरण के क्षणों का स्वागत किया और कहा, ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हुई।
शोक प्रसिद्ध दार्शनिक मेचीन काफ ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया है कि—वृद्धावस्था के साथ-साथ एक आंतरिक थकान आती है और सक्रियता में अनिच्छा उत्पन्न होने लगती है। जिस तरह थका हुआ मनुष्य नींद चाहता है उसी तरह थकी हुई अन्तः चेतना मृत्यु रूपी विश्राम भरी नींद की आकांक्षा करती है। मोह और लोभ वश मन मृत्यु को नापसन्द करता है, पर अन्तःचेतना तो स्वतन्त्र है। मन का उस पर बहुत प्रभाव नहीं पड़ता। वह अपनी सरल स्वाभाविक आवश्यकता पूरी करने के लिए मृत्यु की ओर खिसकती जाती है और यह सूक्ष्म संकल्प ही समयानुसार मौत के रूप में अपनी अभीष्ट उपलब्धि प्राप्त कर लेता है।
वाल्टर स्काट ने कहा है—मृत्यु निविड़ अन्धकार भरी निशा में आखिरी नींद नहीं, वरन् ब्राह्ममुहूर्त का प्रथम जागरण है जिसके बाद हम उस ओर बढ़ सकते हैं जिस सम्बन्ध में कि अभी सोचना ही सम्भव है। कनफ्यूसियश ने लिखा है—हम जिस जिन्दगी को जी रहे हैं, उस तक का मर्म नहीं जान पाये, तो उस मृत्यु का जो अभी कई कोस आगे है—रहस्य कैसे जान पायेंगे? विलियम हैटर ने अपने शोध कार्यों को पूरा कर लेने पर मृत्यु समय की अन्तिम सांस लेते हुए कहा—यदि इस समय भी मुझमें कलम उठा कर लिखने की शक्ति होती तो लिखता मरना कितना सरल और शान्ति पूर्ण है।
कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपनी एक कविता में कहा है—‘जन्म जीवन का प्रारम्भ नहीं है और न मृत्यु—देह का आदि और अन्त मात्र, विस्तृत जीवन-क्रम का एक छोटा-सा अध्ययन मात्र है।’
शेक्सपियर का एक नायक कहता है—यह जीवन उस बेतुकी कहानी की तरह है जो किसी सिड़ी द्वारा कही गई हो। जीवन वह नक्कारखाना है जिसमें केवल शोर, रुदन और आंधी तूफान के उतार-चढ़ाव तो भरे पड़े हैं पर न उस रुदन का कुछ अर्थ है न हास्य का, और न स्वयं इस बेतुके जीवन का।
जो हो, हमें यह मानकर चलना ही होगा कि जीवन के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है। इसलिये दोनों घनिष्ठ सहचर मानकर चलें। जब तक जीवन है इस तरह जियें जिसे शानदार और सराहनीय कहा जा सके। जब मृत्यु आये तब शान्ति और मुस्कराहट के साथ उनका ऐसा स्वागत करें जैसा विचारशील, धैर्यवान और बहादुर लोग किया करते हैं। आत्मा की पुकार है, ‘‘मृत्योर्माऽमृतं गमय’ हे परमेश्वर, मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चल।’ मरण कितना अवांछनीय और जीवन कितना अभीष्ट है इसका आभास इस पुकार में मिलता है। अन्तरात्मा की प्रबल काना है, जिजीविषा। वह जीना चाहता है। यह सभी जानते हैं कि शरीरगत मृत्यु अपराजित है। वह प्रकृति पदार्थों को परिवर्तित करने के लिए अनिवार्य रूप से आती है। किन्तु निश्चय ही उसका भय जीता जा सकता है। मौत अपने आप में डरावनी नहीं है। परिवर्तन में विनोद है और उत्साह भी। स्थिरता में नीरसता रहती है। गति और सरलता बनाये रहने के लिए परिवर्तन आवश्यक है। यह स्वाभाविक सरल प्रक्रिया ही मरण कहलाती है जिसे काय-कलेवर का परिवर्तन ही कह सकते हैं। इसमें न तो कुछ अप्रिय है न अनुचित और न कष्टकर। कष्टकारक तो मृत्यु का भय है। यदि उससे निवृत्ति मिल सके तो समझना चाहिये कि मृत्यु से छुटकारा पाने और अमरता का लाभ लेने जैसा आनन्द मिल गया।
मृत्यु कोई विभीषिका नहीं एक सुनिश्चित संभावना है, उसे एक समस्या का रूप दिया जा सकता है। उसका हल इतना ही खोजा जा सकता है कि सुखद, संतोषजनक और सराहनीय मृत्यु का वरण किस प्रकार सम्भव हो। इसका उत्तर एक ही है कि जीवन का सदुपयोग इस प्रकार किया जाय कि जन्मोत्सव की तरह ही मरणोत्सव भी देह छोड़ने वाले प्राणी को सरल प्रतीत हो सके। सुखद मृत्यु जीवन देवता की आराधना का वरदान है। जो इस साधना को कर सके उसके लिये मरण का दिन पश्चात्ताप का नहीं वरन् अधिक सुखद परिस्थितियों के लिए विनोद यात्रा पर निकलने की तरह उत्साहवर्धक ही बन कर आता है।
भगवान बुद्ध जब मरने लगे तो रोते हुए अपने प्रिय शिष्य आनन्द को दुलारते हुए उन्होंने कहा, ‘आनन्द, रोओ मत, यह रोने का अवसर नहीं है। स्वयं अपने लिये दीपक बनो। निर्वाण तो नितान्त स्वाभाविक है। इसके लिये तो पहले से ही तैयार रहना है।’ बिल्सन ने मृत्यु की बेला में मुस्कराते हुए किसी अज्ञात से कहा, ‘मैं तो बिलकुल तैयार हूं।’ और उन्होंने आंखें मूंद लीं। वाल्टेयर ने उपस्थित लोगों से मरते समय कहा, ‘आप लोग, गड़बड़ न करें शान्ति से मरने दें।’ गेटे ने मरण की उपस्थिति को प्रकाश के रूप में देखा और वे बड़े उत्साह से चिल्लाये प्रकाश-प्रकाश, अनन्त प्रकाश। इतनी अनुभूति व्यक्त करके उनकी वाणी मौन हो गई। स्वामी दयानन्द ने सन्तोषभरी लम्बी सांस खींची और कहा, हे! दयामय तेरी इच्छा पूर्ण हो।’ गान्धी जी के मुख से अन्तिम शब्द निकला, ‘हे राम’ और वे राम में सही समा गये।
जीवन का सदुपयोग ही मौत को सरल बनाने की पूर्व तैयारी है जो उसे कर सके उनके लिये जीवन और मरण दोनों अभिन्न मित्रों की तरह सुखद और सहयोगी प्रतीत होते हैं।