Books - नया व्यक्ति बनेगा, नया युग आएगा
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नया व्यक्ति बनेगा, नया युग आएगा
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नया व्यक्ति बनेगा, नया युग आएगा
(पुर्नगठन वर्ष में ८ जुलाई १९७९ को शांतिकुञ्ज परिसर में दिया गया प्रवचन)
राजतंत्र एवं धर्मतंत्र
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! मध्यकालीन अंधकार युग समाप्त हुआ। हजार वर्ष तक हमने बार- बार ठोकरें खाईं। हजार वर्ष की गुलामी की ओर अगर हम दृष्टिपात करते हैं, तो आँखों में आँसू भर आते हैं। राजनैतिक, धार्मिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक- प्रत्येक क्षेत्र में हम इस अवधि में भटकते रहे। इन हजार वर्षों में हम इतना कुछ गँवा बैठे कि इसे पूरा करने में हमें काफी समय लगेगा। यह अवसर पिछले समय की बातें करने का नहीं है। अब आवश्यकता इस बात की है कि हम भविष्य का निर्धारण करें और अपनी शक्ति उसी दिशा में नियोजित करें।
भगवान् की इच्छा से अंधकार पूरा समाप्त हुआ। सूर्योदय का समय आया। अब से तीस साल पहले भारत की राजनीतिक स्वाधीनता मिली। अपने भाग्य का निर्माण अपने हाथों करने का समय आया। राजनीति को दो काम सौंपे गये। अर्थव्यवस्था को सुधारना एवं जन- साधारण को उद्दंडता एवं गलत कामों से रोकना, उसे दंड देना। आर्थिक एवं सामाजिक सुव्यवस्था- यही दो काम राजनीति के जिम्मे सौंपे गए। यह मनुष्य के भौतिक जीवन का पक्ष है, जिसकी जिम्मेदारी राजनीति को सौंपी गई।
दूसरा पक्ष मनुष्य का आंतरिक एवं आध्यात्मिक है। इसे प्रभावित करने की सामर्थ्य राजतंत्र में नहीं है। इसे पूर्ण करने की सामर्थ्य केवल धर्मतंत्र में है। आस्थाओं, विचारणाओं एवं गतिविधियों को नियंत्रित करें एवं उसे ऊँचा उठाकर उत्कृष्टता के साथ जोड़ें, यह उत्तरदायित्व धर्मतंत्र को सौंपा गया, ताकि देश को एक हजार वर्ष की गुलामी के कारण जो बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक अस्तव्यस्तता हुई है, उसे पूरा किया जाए तथा हम प्रगति की ओर बढ़ सकें।
परिष्कृत धर्मतंत्र का दायित्व
धर्मतंत्र को अपनी जिम्मेदारी निभानी थी, ताकि मनुष्य की खोई हुई गरिमा की पुनः स्थापना की जा सके। भारत के लोगों के आंतरिक खोखलेपन अर्थात् अपनी पात्रता एवं व्यक्तित्व की कमी के कारण मध्य एशिया से थोड़े- से डाकू आए और उन्होंने हमला करके भारत वर्ष को डेढ़ हजार वर्ष तक गुलाम बनाए रखा। अँग्रेज बाद में आए। उन घावों को पूरा करना हमारा काम है। हमारे से मतलब परिष्कृत धर्मतंत्र से है। यह धर्मतंत्र का काम है कि वह देखे कि किन कमजोरियों के कारण व्यक्ति भीतर से खोखला एवं बाहर से कमजोर होता है। उसकी छानबीन करे। यह उत्तरदायित्व धर्मतंत्र को निभाना था। धर्मतंत्र के विनम्र प्रतिनिधि के रूप में यह दत्तरदायित्व युगनिर्माण योजना ने अपने कंधों पर उठाया और यह वचन दिया कि हम जनता में धर्मबुद्धि, विवेकबुद्धि उत्पन्न करेंगे तथा उच्चस्तरीय मान्यताओं को, आदर्शों को जनमानस में प्रतिस्थापित करेंगे, जिसके द्वारा व्यक्ति, परिवार और समाज मजबूत बनते हैं तथा उनका चिरस्थायी वर्चस बना रहता है।
मित्रो! तीस वर्ष पूरे होने को आए, अपनी युग निर्माण योजना का कार्य करते हुए। इन तीस वर्षों में हमने क्या किया, इसके बारे में चर्चा करने का अभी समय नहीं है। इसके बारे में जिक्र करने का अभी समय नहीं है। यह तो आने वाला समय बतलाएगा कि इस छोटे- से मिशन ने कितना काम कर लिया तथा कितनी लंबी मंजिल पूरी कर ली है। अब हमें जो मंजिल पार करनी है, उसके लिए हमें और भी साहस एवं सामर्थ्य इकट्ठी करनी है। इस तीस साल में मिशन की किशोरावस्था समाप्त हुई। अब उसकी प्रौढ़ता का समय आया है। इस समय हम एवं हमारे परिजन अब भारी उत्तरदायित्व लेने की स्थिति में हैं। बच्चे का जब हम विद्यारंभ कराते हैं, तो सामान्य पूजन भर हो जाता है। उसके बैठने का स्थान भी सामान्य ही होता है, परंतु जैसे- जैसे वह बड़ा होता जाता है, उसका सारा क्रम, ढाँचा बदलता जाता है।
क्रमशः बढ़ता मिशन
अपने मिशन का भी क्रम इसी प्रकार बढ़ता जा रहा है। प्रारंभ में इसका नाम ‘गायत्री परिवार’ रखा गया था। वह प्रारंभ था। उस समय लोगों को यह बतलाया गया था कि गायत्री मंत्र भारतीय धर्म का मूल है। उसे लोगों को अपनाना चाहिए, जपना चाहिए, ताकि लोगों का भविष्य उज्ज्वल हो सके। इस प्रकार की बातें हमने तथा हमारे मिशन ने प्रारंभ में बतलाई थीं। इस बीज को लोगों को बतलाया गया था और यह कहा गया था कि जो व्यक्ति एक माला का नित्य जप करेंगे, उन्हें हम गायत्री परिवार का सदस्य मानेंगे। बचपन में यही था।
समय ने आगे के लिए कदम बढ़ाया। अपने परिवार एवं संगठन को एक और आयाम दिया गया। अब उसके साथ युग निर्माण योजना को भी जोड़ दिया गया है। उसका अर्थ यह था जो कि हमने लोगों को बतलाया कि हर व्यक्ति को एक माला गायत्री जप के साथ में नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रांति हेतु भी बढ़चढ़कर कुछ काम करने के लिए आगे आना चाहिए। उन्होंने उस समय व्यक्ति- निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज- निर्माण के कार्यक्रम भी चलाए।
यह युग निर्माण योजना के साथ जुड़कर मिशन के हुए विकास का क्रम था। हमने प्राइमरी कक्षा पूरी कर ली। हाईस्कूल की कक्षा भी हमारे मिशन ने पूरी कर ली है। अब हमने कॉलेज के स्तर की पढ़ाई प्रारंभ कर दी है, अर्थात् अब हमारी प्रौढ़ावस्था आ गई है। अतः अब हमें कॉलेज स्तर का होना चाहिए। उसी स्तर के क्रियाकलाप एवं योजना होनी चाहिए। वही अब बन रही है, बनाई जा रही है, परंतु इस बारे में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम जिस युग परिवर्तन की बात कर रहे हैं, जिस समाज को बदलने की प्रतिज्ञा लेकर चले हैं, हम जिस नए समाज के निर्माण की बात करते हैं, उस संदर्भ में हमें विचार करना होगा कि युग निर्माण क्या है?
समाज का अभिनव निर्माण
मित्रो! युग निर्माण का अर्थ होता है- नए समाज का निर्माण करना। समाज क्या है? समाज व्यक्तियों का समूह मात्र है। लोगों का समुदाय इकट्ठा होकर ही समाज बनता है। उसके प्रत्येक घटक को समुन्नत बनाना, समृद्धिशाली बनाना हमारा काम है। यही है समाज निर्माण का उद्देश्य। फूल इकट्ठे होकर ही माला बनते हैं। सींके इकट्ठा होकर बुहारी बनती है। धागे इकट्ठा होकर रस्सा बनते हैं। इसी तरह समाज व्यक्तियों से बनता है। समाज के लोगों को देखकर ही युग की स्थिति देखी जा सकती है। अतः समाज निर्माण के कार्य को आरंभ करने से पहले हमें आत्मनिर्माण का कार्य करना पड़ेगा। यह आज नहीं, वरन् आज से तीस साल पहले हमने बतला दिया था कि हमारे क्रियाकलाप क्या हैं तथा हमारी भावी
योजना क्या है?
समाज निर्माण कैसे होगा? इस संदर्भ में उन दिनों, एक युगनिर्माण सत्संकल्प के रूप में घोषणापत्र बनाया गया था, जिसमें यह बात स्पष्ट रूप से बतला दी गई थी कि व्यक्ति निर्माण के संबंध में चार चीजें परम आवश्यक हैं। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा, यह चार बातें आत्म निर्माण के लिए परमावश्यक हैं। यह चार बातें ऐसी हैं, जो एक- दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं। इन चारों को पूरा कर लेने पर आत्मनिर्माण का उद्देश्य पूरा होता है। इसमें एक भी ऐसा नहीं है, जिसे छोड़कर केवल अन्यों में पूरा कर लेने पर आत्मनिर्माण का उद्देश्य पूरा हो सके। यह चारों चीजें एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं। इन चारों को मिलाकर ही बात बनती है।
चार अनिवार्य चरण
यह बात वैसी ही है जैसे जीवन निर्माण के लिए चार चीजें आवश्यक हैं। वे हैं- आहार, श्रम, संयम और सफाई। इन चारों में से अगर हम एक को भी कम करेंगे, तो हमारा जीवन निर्माण संभव न हो सकेगा। हमें फसल लेने के लिए भी चार चीजों की आवश्यकता पड़ती है। वे हैं- जमीन, बीज, खाद- पानी एवं सुरक्षा। इनके अभाव में किसान फसल प्राप्त नहीं कर सकता है। व्यापार करने के लिए हमें चारचीजों की आवश्यकता पड़ती है- पूँजी, अनुभव, वस्तुओं की माँग एवं ग्राहक। इसमें से अगर एक भी चीज की कमी होगी, तो कोई भी व्यापर नहीं कर सकता है। मकान बनाना हो तो ईंट, चूना, लोहा, लकड़ी की आवश्यकता पड़ती है। इनमें से एक भी चीज की कमी हो जाएगी तो इमारत नहीं बन सकती है। उसी प्रकार व्यक्ति निर्माण के लिए चार चरणों की आवश्यकता है। ये चारों चरण जब भी एक साथ मिल सकेंगे, तो व्यक्ति के उत्कर्ष का आधार बनकर खड़ा हो जाएगा। मात्र एक से ही यह कार्य नहीं हो सकता है।
मित्रो! हमें युग निर्माण के लिए- नवनिर्माण के लिए दो कार्य करने हैं- पहला- जो आदमी इस उत्तरदायित्व को सँभाल रहे हैं, काम कर रहे हैं, उनका स्तर बढ़ना चाहिए। दूसरा- उसका विस्तार भी होना चाहिए। हम यह चाहते हैं कि व्यक्ति स्वयं विकसित होते हुए चले जाएँ तथा दूसरों को भी विकास कार्य में सहयोग दें तथा उन्हें आगे बढ़ाने का प्रयास करें, ताकि अपना विस्तार होता हुआ चला जाए। इस विस्तार के लिए शिक्षण के साथ- साथ टोलियों का कार्य बड़ा ही उत्तम रहता है। उसके माध्यम से विस्तार प्रक्रिया में तेजी आती है। टोलियों में जो काम करते हैं, वे सीखते भी हैं और सिखाते भी हैं। स्काउटिंग में जो लोग होते हैं वे सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं। टीचर- ट्रेनिंग जो होती है, उसमे वे सीखते भी जाते हैं तथा सिखाते भी जाते हैं। बुद्ध विहार में जो लोग साधना करते थे, वे साधना भी करते रहते थे तथा बाहर जाकर लोगों को सिखाते भी रहते थे। तीर्थयात्रा भी ऐसी ही प्रक्रिया थी, इसमें वे अपना परिष्कार भी करते थे तथा लोकशिक्षण का काम भी करते थे। स्वयं तपते थे तथा लोगों को भी प्रेरणा देकर तप का महत्त्व समझाते थे।
विचार क्रांति की अनिवार्यता
साथियो! हम विचारक्रांति आंदोलन को तीव्र करना चाहते हैं ताकि लोगों के विचार करने की प्रवृत्ति बदले।इस कार्य हेतु हमें अध्यात्म के सिद्धांतों को बतलाने की आवश्यकता है, ताकि जनमानस उसे अपने जीवन में उतार सके। अतः हमें नैतिक एवं सामाजिक क्रांति के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। जनसाधारण को यह समझाया जाना चाहिए कि मनःस्थिति को सुधारा जाना परम आवश्यक है। अगर हम केवल भौतिकस्थिति को सुधारने का प्रयास करेंगे, तो उससे काम नहीं बनने वाला। अगर मनुष्य को भौतिक लाभ मिल भी जाए, संपत्ति आ भी जाए तो उसे उतना लाभ नहीं मिल सकेगा, जब तक कि उसका आध्यात्मिक विकास न हो जाए। अतः हमारे लिए यह आवश्यक हो गया है कि हमारे चिंतन और चरित्र में जहाँ कहीं भी विकृतियाँ आ गईं हैं, उन्हें खोज- खोजकर निकाला जाए एवं उन्हें ठीक किया जाए। इसके लिए हमें प्रयास करना चाहिए।
विवेक की स्थापना
मूढ़मान्यताएँ, अवांछनीयताएँ, अंधविश्वास आदि न जाने कितनी चीजें हमारे बौद्धिक क्षेत्र में हावी हो गई हैं। हमें उसे निकालने का प्रयास करना चाहिए। उसके स्थान पर हमें विवेकशीलता तथा दूरदर्शिता की स्थापना करने का प्रयास करना चाहिए जो उचित है, उसे ही ग्रहण करें। जो उचित नहीं है, उसे झाड़कर बुहारी से हमें फेंक देना चाहिए। जनमानस को उसी प्रकार की हमें शिक्षा देनी है, ताकि अनावश्यक चीजें, जो हमारे बौद्धिक क्षेत्र में घुस पड़ी हैं, उन्हें हम हटा सकें।
दूसरी बात है- नैतिक क्रान्ति। धर्मतंत्र का दूसरा काम है- नैतिक स्तर को बनाए रखना। इसके लिए जनमानस को चरित्रनिष्ठा की शिक्षा देनी चाहिए। इस काम को हमें अपने से प्रारंभ करना चाहिए। व्यक्तित्व की गरिमा का शिक्षण किया जाए तथा मनुष्य की आस्थाओं को उच्चस्तरीय बनाया जाए। नैतिकता मनुष्य की आकांक्षाओं पर टिकी हुई है। आज हर आदमी की इच्छाएँ बड़प्पन को, विलासिता को, अहंता को पूरा करने में लगी हुई हैं। अतः नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए हर आदमी को सिद्धांतों का जीवन में महत्त्व एवं सिद्धांतों के मूल्य को समझाया जाना चाहिए। आदमी को यह समझाया जाए कि बड़प्पन की अपेक्षा महानता का मूल्य ज्यादा है। महानता मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई है। यह भौतिक संपदाओं के साथ कदापि नहीं जुड़ी है। हमें हर आदमी को यह समझाना होगा कि आप अपने जीवन की नीति ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की बनाएँ। मनुष्य अगर अपने अंदर सादा जीवन अपना ले, तो उसे छल- कपट करने की,बेईमानी करने की आवश्यकता नही रह जाएगी।
नैतिक विकास
वास्तव में बड़प्पन एवं ठाट- बाट के कारण मनुष्य की कामनाएँ बढ़ती जाती हैं और वह अपना नैतिक स्तर खो बैठता है। अगर हर मनुष्य को ‘सादा जीवन- उच्च विचार’ की बात समझायी जा सके, तो हमारा विश्वास है कि हम वैसा बन सकते हैं तथा हमारा स्तर वैसा हो सकता है, जैसा कि हम प्राचीनकाल में थे। संयम, नम्रता, सज्जनता, ईमानदारी, जिम्मेदारी, कर्त्तव्यनिष्ठा जैसे सद्गुण हमारे स्वभाव में आ जाएँ, तो हमारे नैतिक स्तर में विस्तार हो सकता है। इस बात की जानकारी हमें जनमानस को देनी ही चाहिए, साथ ही इस मिशन के सभी कार्यकर्त्ता आंशिक, पूर्ण समयदानी- जीवनदानी को भी इसे अपने जीवन में ग्रहण करना चाहिए। आदर्शों एवं सिद्धांतों को वे जीवन में जिएँगे, तो हमें पक्का विश्वास है कि हमारा नैतिक स्तर बढ़ेगा और हमारी खोई हुई गरिमा वापस मिल सकेगी।
हमारे बौद्धिक स्तर का इतना विकास होना चाहिए कि हमारे अंदर अवांछनीयता एवं अनुचित मान्यताओं के लिए कोई स्थान न हो। इस प्रकार की बातें अवश्य होनी चाहिए, ताकि किसी को भी हमारे ऊपर अँगुली उठाने का मौका न मिले और यह कहने का मौका न मिले कि हम चरित्र की दृष्टि से घटिया स्तर के बने हुए हैं। अगर हमारा स्तर बढ़िया होगा, तो उसका प्रभाव जनमानस पर पड़ेगा तथा लोग हमारी बातों को मानने के लिए बाध्य होंगे।
श्रेष्ठ समाज बने
तीसरा काम जो धर्मतंत्र का है, उसे सामाजिक क्रांति कहा जाता है। इसके द्वारा मनुष्य की अंतःचेतना का विकास होता है। सामाजिक क्रांति के लिए समाज के बीच में जो सामाजिक बुराइयाँ हमें दिखलाई पड़ती हैं, उन्हें हटाने के लिए विरोध एवं सामूहिक जनांदोलन करने की आवश्यकता तो है ही, श्रेष्ठ समाज बनाने के लिए जिन रचनात्मक बातों को जीवन में धारण करने की खास जरूरत है, वह वे उच्चस्तरीय सिद्धांत हैं, जो व्यक्ति को समाजपरायण बनाते हैं। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की मान्यता जन- जन के अंतःकरण में जमाई जानी चाहिए। हमारे अंदर यह मान्यता होनी चाहिए कि हम दूसरों के साथ वही व्यवहार करेंगे जिनकी हमें दूसरों से अपेक्षा रहती है। सामाजिक क्रांति के लिए यह परम आवश्यक है। हर आदमी के मन में यह गहराई से प्रवेश कर जाना चाहिए। हमें हर आदमी के भीतर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना जाग्रत करनी होगी। उनकी मान्यता यह होनी चाहिए कि हमारे कुटुंब में मात्र दो- पाँच आदमी ही नहीं हैं, वरन् अनेक लोग हैं। सारी वसुंधरा के लोग हमारे हैं। जिस प्रकार हम अपने छोटे से परिवार का ध्यान रखते हैं, उसी प्रकार हमें पूरे समाज के लोगों का ध्यान रखना चाहिए। हमें इस तरह का ध्यान रखना तथा प्रयत्न करना आवश्यक है, ताकि लोग सुखी संपन्न रह सकें।
आध्यात्मिक समाजवाद
इस सामाजिक क्रांति के लिए आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करना आवश्यक है, जो हमारे ऋषियों ने बनाया था। इसे हमें व्यक्तिवाद परक न होकर समाज परक बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की मान्यता आ जाना आवश्यक है, तभी हम मिल- बाँटकर खा सकते हैं और सुखी एवं संपन्न रह सकते हैं। हम समाज में सुख बाँटने का प्रयास करें, हम उपार्जन तो करें, यह अच्छी बात है, परंतु सही उपयोग करना भी सीखें, तभी समाज में सुख- शांति आ सकती है।
समता हमारे जीवन का अंग होनी चाहिए। नर- नारी में भिन्नता भी नहीं होनी चाहिए। श्रेष्ठ समाज के लिए समता का होना परम आवश्यक है। जाति, लिंग की समानता के साथ ही आर्थिक समता भी होनी चाहिए। हममें से प्रत्येक नागरिक को श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करना चाहिए। हममें से प्रत्येक नागरिक को सहकारिता के सिद्धांत को जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए। सामाजिक जीवन में हर काम की व्यवस्था बनानी चाहिए। समाज में जहाँ कहीं भी अनीति, अन्याय, अत्याचार दिखाई पड़े, उससे लड़ने के लिए हमें एवं आपको जटायु जैसा साहस दिखाना चाहिए।
संघर्ष की जरूरत
आप जानते हैं कि हमारी भारत भूमि में भगवान् के जितने भी अवतार हुए हैं, उन्होंने धर्म की स्थापना एवं अधर्म के विनाश के लिए प्रयास किया है। हमारे भीतर जब कभी भी भगवान् की प्रेरणा आएगी, तो हमें दोनों ही क्रियाकलाप समान रूप से अपनाने पड़ेंगे। अपने आचरण को सुधारना तथा दूसरों के आचरण को ठीक करना परम आवश्यक है। आसपास के वातावरण में जहाँ कहीं भी आपको लगता हो कि अनैतिकता, अन्याय का बोलबाला है, तो आपको उसका डटकर विरोध करना चाहिए। इतना ही नहीं, संघर्ष के लिए भी तैयार रहना चाहिए। जहाँ कहीं भी अनाचार दिखलाई पड़ता हो, तो उससे लोहा लेने के लिए अपनी परिस्थिति के अनुसार असहयोग, संघर्ष जो भी संभव हो, अवश्य करना चाहिए। इसके लिए आप अपने अंदर साहस इकट्ठा करें।
मित्रो! समाज की सुव्यवस्था इसी आधार पर संभव है। डरपोक आदमी, कायर आदमी, पाप से भयभीत होने वाले आदमी, गुंडागर्दी के भय से मुँह छिपाने वाले आदमी कभी भी इन बुराइयों को दूर नहीं कर पाएँगे और इस तरह समाज में जहाँ सुव्यवस्था की आवश्यकता है, जहाँ अनीति के निवारण की इस प्रकार की आवश्यकता है, वह पूरी न हो पाएगी।
साहस एवं हिम्मत
सामाजिक क्रांति के लिए साहस एवं हिम्मत को जगाने की आवश्यकता है। भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए हमें इन प्रयासों को करना ही होगा। आज संपूर्ण मानव जाति जहाँ सामूहिक आत्महत्या के लिए अग्रसर हो रही है, वहीं हमें उनके उत्थान के लिए प्रयास करने होंगे। इस कार्य के लिए हमें धर्मतंत्र को पुनः जाग्रत करना होगा। बड़ा काम हमेशा बड़े साधनों से होता है। यह बड़े आदमी ही इकट्ठा कर सकते हैं। यही है—हमारा लक्ष्य। हम चाहते हैं कि हर आदमी में यह जागरुकता पैदा हो। हमारा निवेदन है कि हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत सुख- सुविधा को त्यागकर कुछ आगे बढ़- चढ़कर सामाजिक जीवन के लिए कदम बढ़ावें।
नया इंसान, नया समाज
मित्रो, मिशन के पुनर्गठन में हमारी यही मतलब हैं कि हम नया व्यक्ति बनाएँ, नया समाज बनाएँ, नया युग लाएँ। इसके लिए हमारा एवं आपका कर्त्तव्य है कि हम व्यक्ति- निर्माण के कार्य में जुट जाएँ, ताकि श्रेष्ठ व्यक्तित्व आगे आकर मोर्चे का काम सँभाल सकें। इसके बिना समाज के नवनिर्माण का कार्य होना संभव नहीं है। हमें इसके लिए भरपूर प्रयास करना है, तभी हमारे मिशन का कार्य आगे बढ़ सकता है।
ॐ शान्ति
(पुर्नगठन वर्ष में ८ जुलाई १९७९ को शांतिकुञ्ज परिसर में दिया गया प्रवचन)
राजतंत्र एवं धर्मतंत्र
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! मध्यकालीन अंधकार युग समाप्त हुआ। हजार वर्ष तक हमने बार- बार ठोकरें खाईं। हजार वर्ष की गुलामी की ओर अगर हम दृष्टिपात करते हैं, तो आँखों में आँसू भर आते हैं। राजनैतिक, धार्मिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक- प्रत्येक क्षेत्र में हम इस अवधि में भटकते रहे। इन हजार वर्षों में हम इतना कुछ गँवा बैठे कि इसे पूरा करने में हमें काफी समय लगेगा। यह अवसर पिछले समय की बातें करने का नहीं है। अब आवश्यकता इस बात की है कि हम भविष्य का निर्धारण करें और अपनी शक्ति उसी दिशा में नियोजित करें।
भगवान् की इच्छा से अंधकार पूरा समाप्त हुआ। सूर्योदय का समय आया। अब से तीस साल पहले भारत की राजनीतिक स्वाधीनता मिली। अपने भाग्य का निर्माण अपने हाथों करने का समय आया। राजनीति को दो काम सौंपे गये। अर्थव्यवस्था को सुधारना एवं जन- साधारण को उद्दंडता एवं गलत कामों से रोकना, उसे दंड देना। आर्थिक एवं सामाजिक सुव्यवस्था- यही दो काम राजनीति के जिम्मे सौंपे गए। यह मनुष्य के भौतिक जीवन का पक्ष है, जिसकी जिम्मेदारी राजनीति को सौंपी गई।
दूसरा पक्ष मनुष्य का आंतरिक एवं आध्यात्मिक है। इसे प्रभावित करने की सामर्थ्य राजतंत्र में नहीं है। इसे पूर्ण करने की सामर्थ्य केवल धर्मतंत्र में है। आस्थाओं, विचारणाओं एवं गतिविधियों को नियंत्रित करें एवं उसे ऊँचा उठाकर उत्कृष्टता के साथ जोड़ें, यह उत्तरदायित्व धर्मतंत्र को सौंपा गया, ताकि देश को एक हजार वर्ष की गुलामी के कारण जो बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक अस्तव्यस्तता हुई है, उसे पूरा किया जाए तथा हम प्रगति की ओर बढ़ सकें।
परिष्कृत धर्मतंत्र का दायित्व
धर्मतंत्र को अपनी जिम्मेदारी निभानी थी, ताकि मनुष्य की खोई हुई गरिमा की पुनः स्थापना की जा सके। भारत के लोगों के आंतरिक खोखलेपन अर्थात् अपनी पात्रता एवं व्यक्तित्व की कमी के कारण मध्य एशिया से थोड़े- से डाकू आए और उन्होंने हमला करके भारत वर्ष को डेढ़ हजार वर्ष तक गुलाम बनाए रखा। अँग्रेज बाद में आए। उन घावों को पूरा करना हमारा काम है। हमारे से मतलब परिष्कृत धर्मतंत्र से है। यह धर्मतंत्र का काम है कि वह देखे कि किन कमजोरियों के कारण व्यक्ति भीतर से खोखला एवं बाहर से कमजोर होता है। उसकी छानबीन करे। यह उत्तरदायित्व धर्मतंत्र को निभाना था। धर्मतंत्र के विनम्र प्रतिनिधि के रूप में यह दत्तरदायित्व युगनिर्माण योजना ने अपने कंधों पर उठाया और यह वचन दिया कि हम जनता में धर्मबुद्धि, विवेकबुद्धि उत्पन्न करेंगे तथा उच्चस्तरीय मान्यताओं को, आदर्शों को जनमानस में प्रतिस्थापित करेंगे, जिसके द्वारा व्यक्ति, परिवार और समाज मजबूत बनते हैं तथा उनका चिरस्थायी वर्चस बना रहता है।
मित्रो! तीस वर्ष पूरे होने को आए, अपनी युग निर्माण योजना का कार्य करते हुए। इन तीस वर्षों में हमने क्या किया, इसके बारे में चर्चा करने का अभी समय नहीं है। इसके बारे में जिक्र करने का अभी समय नहीं है। यह तो आने वाला समय बतलाएगा कि इस छोटे- से मिशन ने कितना काम कर लिया तथा कितनी लंबी मंजिल पूरी कर ली है। अब हमें जो मंजिल पार करनी है, उसके लिए हमें और भी साहस एवं सामर्थ्य इकट्ठी करनी है। इस तीस साल में मिशन की किशोरावस्था समाप्त हुई। अब उसकी प्रौढ़ता का समय आया है। इस समय हम एवं हमारे परिजन अब भारी उत्तरदायित्व लेने की स्थिति में हैं। बच्चे का जब हम विद्यारंभ कराते हैं, तो सामान्य पूजन भर हो जाता है। उसके बैठने का स्थान भी सामान्य ही होता है, परंतु जैसे- जैसे वह बड़ा होता जाता है, उसका सारा क्रम, ढाँचा बदलता जाता है।
क्रमशः बढ़ता मिशन
अपने मिशन का भी क्रम इसी प्रकार बढ़ता जा रहा है। प्रारंभ में इसका नाम ‘गायत्री परिवार’ रखा गया था। वह प्रारंभ था। उस समय लोगों को यह बतलाया गया था कि गायत्री मंत्र भारतीय धर्म का मूल है। उसे लोगों को अपनाना चाहिए, जपना चाहिए, ताकि लोगों का भविष्य उज्ज्वल हो सके। इस प्रकार की बातें हमने तथा हमारे मिशन ने प्रारंभ में बतलाई थीं। इस बीज को लोगों को बतलाया गया था और यह कहा गया था कि जो व्यक्ति एक माला का नित्य जप करेंगे, उन्हें हम गायत्री परिवार का सदस्य मानेंगे। बचपन में यही था।
समय ने आगे के लिए कदम बढ़ाया। अपने परिवार एवं संगठन को एक और आयाम दिया गया। अब उसके साथ युग निर्माण योजना को भी जोड़ दिया गया है। उसका अर्थ यह था जो कि हमने लोगों को बतलाया कि हर व्यक्ति को एक माला गायत्री जप के साथ में नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रांति हेतु भी बढ़चढ़कर कुछ काम करने के लिए आगे आना चाहिए। उन्होंने उस समय व्यक्ति- निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज- निर्माण के कार्यक्रम भी चलाए।
यह युग निर्माण योजना के साथ जुड़कर मिशन के हुए विकास का क्रम था। हमने प्राइमरी कक्षा पूरी कर ली। हाईस्कूल की कक्षा भी हमारे मिशन ने पूरी कर ली है। अब हमने कॉलेज के स्तर की पढ़ाई प्रारंभ कर दी है, अर्थात् अब हमारी प्रौढ़ावस्था आ गई है। अतः अब हमें कॉलेज स्तर का होना चाहिए। उसी स्तर के क्रियाकलाप एवं योजना होनी चाहिए। वही अब बन रही है, बनाई जा रही है, परंतु इस बारे में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम जिस युग परिवर्तन की बात कर रहे हैं, जिस समाज को बदलने की प्रतिज्ञा लेकर चले हैं, हम जिस नए समाज के निर्माण की बात करते हैं, उस संदर्भ में हमें विचार करना होगा कि युग निर्माण क्या है?
समाज का अभिनव निर्माण
मित्रो! युग निर्माण का अर्थ होता है- नए समाज का निर्माण करना। समाज क्या है? समाज व्यक्तियों का समूह मात्र है। लोगों का समुदाय इकट्ठा होकर ही समाज बनता है। उसके प्रत्येक घटक को समुन्नत बनाना, समृद्धिशाली बनाना हमारा काम है। यही है समाज निर्माण का उद्देश्य। फूल इकट्ठे होकर ही माला बनते हैं। सींके इकट्ठा होकर बुहारी बनती है। धागे इकट्ठा होकर रस्सा बनते हैं। इसी तरह समाज व्यक्तियों से बनता है। समाज के लोगों को देखकर ही युग की स्थिति देखी जा सकती है। अतः समाज निर्माण के कार्य को आरंभ करने से पहले हमें आत्मनिर्माण का कार्य करना पड़ेगा। यह आज नहीं, वरन् आज से तीस साल पहले हमने बतला दिया था कि हमारे क्रियाकलाप क्या हैं तथा हमारी भावी
योजना क्या है?
समाज निर्माण कैसे होगा? इस संदर्भ में उन दिनों, एक युगनिर्माण सत्संकल्प के रूप में घोषणापत्र बनाया गया था, जिसमें यह बात स्पष्ट रूप से बतला दी गई थी कि व्यक्ति निर्माण के संबंध में चार चीजें परम आवश्यक हैं। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा, यह चार बातें आत्म निर्माण के लिए परमावश्यक हैं। यह चार बातें ऐसी हैं, जो एक- दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं। इन चारों को पूरा कर लेने पर आत्मनिर्माण का उद्देश्य पूरा होता है। इसमें एक भी ऐसा नहीं है, जिसे छोड़कर केवल अन्यों में पूरा कर लेने पर आत्मनिर्माण का उद्देश्य पूरा हो सके। यह चारों चीजें एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं। इन चारों को मिलाकर ही बात बनती है।
चार अनिवार्य चरण
यह बात वैसी ही है जैसे जीवन निर्माण के लिए चार चीजें आवश्यक हैं। वे हैं- आहार, श्रम, संयम और सफाई। इन चारों में से अगर हम एक को भी कम करेंगे, तो हमारा जीवन निर्माण संभव न हो सकेगा। हमें फसल लेने के लिए भी चार चीजों की आवश्यकता पड़ती है। वे हैं- जमीन, बीज, खाद- पानी एवं सुरक्षा। इनके अभाव में किसान फसल प्राप्त नहीं कर सकता है। व्यापार करने के लिए हमें चारचीजों की आवश्यकता पड़ती है- पूँजी, अनुभव, वस्तुओं की माँग एवं ग्राहक। इसमें से अगर एक भी चीज की कमी होगी, तो कोई भी व्यापर नहीं कर सकता है। मकान बनाना हो तो ईंट, चूना, लोहा, लकड़ी की आवश्यकता पड़ती है। इनमें से एक भी चीज की कमी हो जाएगी तो इमारत नहीं बन सकती है। उसी प्रकार व्यक्ति निर्माण के लिए चार चरणों की आवश्यकता है। ये चारों चरण जब भी एक साथ मिल सकेंगे, तो व्यक्ति के उत्कर्ष का आधार बनकर खड़ा हो जाएगा। मात्र एक से ही यह कार्य नहीं हो सकता है।
मित्रो! हमें युग निर्माण के लिए- नवनिर्माण के लिए दो कार्य करने हैं- पहला- जो आदमी इस उत्तरदायित्व को सँभाल रहे हैं, काम कर रहे हैं, उनका स्तर बढ़ना चाहिए। दूसरा- उसका विस्तार भी होना चाहिए। हम यह चाहते हैं कि व्यक्ति स्वयं विकसित होते हुए चले जाएँ तथा दूसरों को भी विकास कार्य में सहयोग दें तथा उन्हें आगे बढ़ाने का प्रयास करें, ताकि अपना विस्तार होता हुआ चला जाए। इस विस्तार के लिए शिक्षण के साथ- साथ टोलियों का कार्य बड़ा ही उत्तम रहता है। उसके माध्यम से विस्तार प्रक्रिया में तेजी आती है। टोलियों में जो काम करते हैं, वे सीखते भी हैं और सिखाते भी हैं। स्काउटिंग में जो लोग होते हैं वे सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं। टीचर- ट्रेनिंग जो होती है, उसमे वे सीखते भी जाते हैं तथा सिखाते भी जाते हैं। बुद्ध विहार में जो लोग साधना करते थे, वे साधना भी करते रहते थे तथा बाहर जाकर लोगों को सिखाते भी रहते थे। तीर्थयात्रा भी ऐसी ही प्रक्रिया थी, इसमें वे अपना परिष्कार भी करते थे तथा लोकशिक्षण का काम भी करते थे। स्वयं तपते थे तथा लोगों को भी प्रेरणा देकर तप का महत्त्व समझाते थे।
विचार क्रांति की अनिवार्यता
साथियो! हम विचारक्रांति आंदोलन को तीव्र करना चाहते हैं ताकि लोगों के विचार करने की प्रवृत्ति बदले।इस कार्य हेतु हमें अध्यात्म के सिद्धांतों को बतलाने की आवश्यकता है, ताकि जनमानस उसे अपने जीवन में उतार सके। अतः हमें नैतिक एवं सामाजिक क्रांति के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। जनसाधारण को यह समझाया जाना चाहिए कि मनःस्थिति को सुधारा जाना परम आवश्यक है। अगर हम केवल भौतिकस्थिति को सुधारने का प्रयास करेंगे, तो उससे काम नहीं बनने वाला। अगर मनुष्य को भौतिक लाभ मिल भी जाए, संपत्ति आ भी जाए तो उसे उतना लाभ नहीं मिल सकेगा, जब तक कि उसका आध्यात्मिक विकास न हो जाए। अतः हमारे लिए यह आवश्यक हो गया है कि हमारे चिंतन और चरित्र में जहाँ कहीं भी विकृतियाँ आ गईं हैं, उन्हें खोज- खोजकर निकाला जाए एवं उन्हें ठीक किया जाए। इसके लिए हमें प्रयास करना चाहिए।
विवेक की स्थापना
मूढ़मान्यताएँ, अवांछनीयताएँ, अंधविश्वास आदि न जाने कितनी चीजें हमारे बौद्धिक क्षेत्र में हावी हो गई हैं। हमें उसे निकालने का प्रयास करना चाहिए। उसके स्थान पर हमें विवेकशीलता तथा दूरदर्शिता की स्थापना करने का प्रयास करना चाहिए जो उचित है, उसे ही ग्रहण करें। जो उचित नहीं है, उसे झाड़कर बुहारी से हमें फेंक देना चाहिए। जनमानस को उसी प्रकार की हमें शिक्षा देनी है, ताकि अनावश्यक चीजें, जो हमारे बौद्धिक क्षेत्र में घुस पड़ी हैं, उन्हें हम हटा सकें।
दूसरी बात है- नैतिक क्रान्ति। धर्मतंत्र का दूसरा काम है- नैतिक स्तर को बनाए रखना। इसके लिए जनमानस को चरित्रनिष्ठा की शिक्षा देनी चाहिए। इस काम को हमें अपने से प्रारंभ करना चाहिए। व्यक्तित्व की गरिमा का शिक्षण किया जाए तथा मनुष्य की आस्थाओं को उच्चस्तरीय बनाया जाए। नैतिकता मनुष्य की आकांक्षाओं पर टिकी हुई है। आज हर आदमी की इच्छाएँ बड़प्पन को, विलासिता को, अहंता को पूरा करने में लगी हुई हैं। अतः नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए हर आदमी को सिद्धांतों का जीवन में महत्त्व एवं सिद्धांतों के मूल्य को समझाया जाना चाहिए। आदमी को यह समझाया जाए कि बड़प्पन की अपेक्षा महानता का मूल्य ज्यादा है। महानता मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई है। यह भौतिक संपदाओं के साथ कदापि नहीं जुड़ी है। हमें हर आदमी को यह समझाना होगा कि आप अपने जीवन की नीति ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की बनाएँ। मनुष्य अगर अपने अंदर सादा जीवन अपना ले, तो उसे छल- कपट करने की,बेईमानी करने की आवश्यकता नही रह जाएगी।
नैतिक विकास
वास्तव में बड़प्पन एवं ठाट- बाट के कारण मनुष्य की कामनाएँ बढ़ती जाती हैं और वह अपना नैतिक स्तर खो बैठता है। अगर हर मनुष्य को ‘सादा जीवन- उच्च विचार’ की बात समझायी जा सके, तो हमारा विश्वास है कि हम वैसा बन सकते हैं तथा हमारा स्तर वैसा हो सकता है, जैसा कि हम प्राचीनकाल में थे। संयम, नम्रता, सज्जनता, ईमानदारी, जिम्मेदारी, कर्त्तव्यनिष्ठा जैसे सद्गुण हमारे स्वभाव में आ जाएँ, तो हमारे नैतिक स्तर में विस्तार हो सकता है। इस बात की जानकारी हमें जनमानस को देनी ही चाहिए, साथ ही इस मिशन के सभी कार्यकर्त्ता आंशिक, पूर्ण समयदानी- जीवनदानी को भी इसे अपने जीवन में ग्रहण करना चाहिए। आदर्शों एवं सिद्धांतों को वे जीवन में जिएँगे, तो हमें पक्का विश्वास है कि हमारा नैतिक स्तर बढ़ेगा और हमारी खोई हुई गरिमा वापस मिल सकेगी।
हमारे बौद्धिक स्तर का इतना विकास होना चाहिए कि हमारे अंदर अवांछनीयता एवं अनुचित मान्यताओं के लिए कोई स्थान न हो। इस प्रकार की बातें अवश्य होनी चाहिए, ताकि किसी को भी हमारे ऊपर अँगुली उठाने का मौका न मिले और यह कहने का मौका न मिले कि हम चरित्र की दृष्टि से घटिया स्तर के बने हुए हैं। अगर हमारा स्तर बढ़िया होगा, तो उसका प्रभाव जनमानस पर पड़ेगा तथा लोग हमारी बातों को मानने के लिए बाध्य होंगे।
श्रेष्ठ समाज बने
तीसरा काम जो धर्मतंत्र का है, उसे सामाजिक क्रांति कहा जाता है। इसके द्वारा मनुष्य की अंतःचेतना का विकास होता है। सामाजिक क्रांति के लिए समाज के बीच में जो सामाजिक बुराइयाँ हमें दिखलाई पड़ती हैं, उन्हें हटाने के लिए विरोध एवं सामूहिक जनांदोलन करने की आवश्यकता तो है ही, श्रेष्ठ समाज बनाने के लिए जिन रचनात्मक बातों को जीवन में धारण करने की खास जरूरत है, वह वे उच्चस्तरीय सिद्धांत हैं, जो व्यक्ति को समाजपरायण बनाते हैं। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की मान्यता जन- जन के अंतःकरण में जमाई जानी चाहिए। हमारे अंदर यह मान्यता होनी चाहिए कि हम दूसरों के साथ वही व्यवहार करेंगे जिनकी हमें दूसरों से अपेक्षा रहती है। सामाजिक क्रांति के लिए यह परम आवश्यक है। हर आदमी के मन में यह गहराई से प्रवेश कर जाना चाहिए। हमें हर आदमी के भीतर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना जाग्रत करनी होगी। उनकी मान्यता यह होनी चाहिए कि हमारे कुटुंब में मात्र दो- पाँच आदमी ही नहीं हैं, वरन् अनेक लोग हैं। सारी वसुंधरा के लोग हमारे हैं। जिस प्रकार हम अपने छोटे से परिवार का ध्यान रखते हैं, उसी प्रकार हमें पूरे समाज के लोगों का ध्यान रखना चाहिए। हमें इस तरह का ध्यान रखना तथा प्रयत्न करना आवश्यक है, ताकि लोग सुखी संपन्न रह सकें।
आध्यात्मिक समाजवाद
इस सामाजिक क्रांति के लिए आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करना आवश्यक है, जो हमारे ऋषियों ने बनाया था। इसे हमें व्यक्तिवाद परक न होकर समाज परक बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की मान्यता आ जाना आवश्यक है, तभी हम मिल- बाँटकर खा सकते हैं और सुखी एवं संपन्न रह सकते हैं। हम समाज में सुख बाँटने का प्रयास करें, हम उपार्जन तो करें, यह अच्छी बात है, परंतु सही उपयोग करना भी सीखें, तभी समाज में सुख- शांति आ सकती है।
समता हमारे जीवन का अंग होनी चाहिए। नर- नारी में भिन्नता भी नहीं होनी चाहिए। श्रेष्ठ समाज के लिए समता का होना परम आवश्यक है। जाति, लिंग की समानता के साथ ही आर्थिक समता भी होनी चाहिए। हममें से प्रत्येक नागरिक को श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करना चाहिए। हममें से प्रत्येक नागरिक को सहकारिता के सिद्धांत को जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए। सामाजिक जीवन में हर काम की व्यवस्था बनानी चाहिए। समाज में जहाँ कहीं भी अनीति, अन्याय, अत्याचार दिखाई पड़े, उससे लड़ने के लिए हमें एवं आपको जटायु जैसा साहस दिखाना चाहिए।
संघर्ष की जरूरत
आप जानते हैं कि हमारी भारत भूमि में भगवान् के जितने भी अवतार हुए हैं, उन्होंने धर्म की स्थापना एवं अधर्म के विनाश के लिए प्रयास किया है। हमारे भीतर जब कभी भी भगवान् की प्रेरणा आएगी, तो हमें दोनों ही क्रियाकलाप समान रूप से अपनाने पड़ेंगे। अपने आचरण को सुधारना तथा दूसरों के आचरण को ठीक करना परम आवश्यक है। आसपास के वातावरण में जहाँ कहीं भी आपको लगता हो कि अनैतिकता, अन्याय का बोलबाला है, तो आपको उसका डटकर विरोध करना चाहिए। इतना ही नहीं, संघर्ष के लिए भी तैयार रहना चाहिए। जहाँ कहीं भी अनाचार दिखलाई पड़ता हो, तो उससे लोहा लेने के लिए अपनी परिस्थिति के अनुसार असहयोग, संघर्ष जो भी संभव हो, अवश्य करना चाहिए। इसके लिए आप अपने अंदर साहस इकट्ठा करें।
मित्रो! समाज की सुव्यवस्था इसी आधार पर संभव है। डरपोक आदमी, कायर आदमी, पाप से भयभीत होने वाले आदमी, गुंडागर्दी के भय से मुँह छिपाने वाले आदमी कभी भी इन बुराइयों को दूर नहीं कर पाएँगे और इस तरह समाज में जहाँ सुव्यवस्था की आवश्यकता है, जहाँ अनीति के निवारण की इस प्रकार की आवश्यकता है, वह पूरी न हो पाएगी।
साहस एवं हिम्मत
सामाजिक क्रांति के लिए साहस एवं हिम्मत को जगाने की आवश्यकता है। भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए हमें इन प्रयासों को करना ही होगा। आज संपूर्ण मानव जाति जहाँ सामूहिक आत्महत्या के लिए अग्रसर हो रही है, वहीं हमें उनके उत्थान के लिए प्रयास करने होंगे। इस कार्य के लिए हमें धर्मतंत्र को पुनः जाग्रत करना होगा। बड़ा काम हमेशा बड़े साधनों से होता है। यह बड़े आदमी ही इकट्ठा कर सकते हैं। यही है—हमारा लक्ष्य। हम चाहते हैं कि हर आदमी में यह जागरुकता पैदा हो। हमारा निवेदन है कि हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत सुख- सुविधा को त्यागकर कुछ आगे बढ़- चढ़कर सामाजिक जीवन के लिए कदम बढ़ावें।
नया इंसान, नया समाज
मित्रो, मिशन के पुनर्गठन में हमारी यही मतलब हैं कि हम नया व्यक्ति बनाएँ, नया समाज बनाएँ, नया युग लाएँ। इसके लिए हमारा एवं आपका कर्त्तव्य है कि हम व्यक्ति- निर्माण के कार्य में जुट जाएँ, ताकि श्रेष्ठ व्यक्तित्व आगे आकर मोर्चे का काम सँभाल सकें। इसके बिना समाज के नवनिर्माण का कार्य होना संभव नहीं है। हमें इसके लिए भरपूर प्रयास करना है, तभी हमारे मिशन का कार्य आगे बढ़ सकता है।
ॐ शान्ति