Books - पारिवारिक जीवन की समस्यायें
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Language: HINDI
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गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता महान है
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भारतवर्ष में विवाह-बन्धन अत्यन्त पवित्र धार्मिक कृत्य माना गया है। इसमें अनेकों उद्देश्यों की प्रतीति और महान् उत्तरदायित्वों की पूर्ति के साधन समाविष्ट हैa। भारत के प्राचीन मुनियों ने इसे मानव प्रकृति की उद्गम प्रवृत्तियों को स्वीकार करने, प्रकृति द्वारा आयोजित प्रजनन तथा सृष्टि विस्तार, सामाजिक सुव्यवस्था, सुदृढ़ नागरिक निर्माण और अन्त में निवृत्ति की चरम सीमा पर पहुंचने की व्यवस्था की है। धर्म शास्त्र का प्रवचन है:— ‘‘तथा तथैव कार्याणि न कालस्तु विधीयते । अभिन्नेव प्रयुज्जानो हास्मन्नेव प्रलीयते ।।’’ इस संसार के साथ हमारा संयोग है, इसी संसार में हमारा लय हो जायगा, तब हमें जिस समय जो कर्त्तव्य हो, वही करना अनिवार्य है। व्यक्तिगत सुविधा तथा असुविधा को लेकर कर्त्तव्य के पुण्य पथ से परिभ्रष्ट होना उचित नहीं। इसलिए धर्म ने गृहस्थाश्रम को तपोभूमि कह कर उसकी महत्ता स्वीकार की है। यहां तक कि धर्म की दृष्टि में गृहस्थाश्रम ही चारों आश्रमों का मुख्य केन्द्र है। इस संबंध में योगिवर वशिष्ट का निर्देश देखिये— ‘‘गृहस्थ एव यजते गृहस्थस्तप्यते तपः । चतुर्थामाश्रमाणान्तु गृहस्थस्तु विशिष्यते ।।’’ अर्थात्—गृहस्थ ही वास्तविक रूप से यज्ञ करते हैं। गृहस्थ ही वास्तविक तपस्वी हैं—इसलिए चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही सबका शिरमौर है। भारत धर्म के अनुसार गृहस्थाश्रम प्रकृत तपोभूमि है। इस काल में दो पवित्र आत्माओं का परस्पर सामंजस्य होता है तथा वे जीवन के युद्ध में प्रविष्ट होते हैं। उन्हें पग-पग पर उत्तरदायित्व, कठिनाइयां, सांसारिक संघर्ष, प्रतियोगिताओं में भाग लेना होता है। दोनों आत्माएं परस्पर सम्मिलित होकर एक दूसरे की सहायता करते हुए, तपस्या और साधना के मार्ग पर अग्रसर होते हैं। प्रकृति ने प्रजनन-क्रिया की सिद्धि के निमित्त जिस उद्दाम वासना को मानव हृदय में प्रतिष्ठित किया है, उसकी उच्छृंखलता यौवन में आकर इतनी तीव्र हो उठती है, कि सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से उसका संयम आवश्यक है। भारतीय धर्म ने उस उद्दाम प्रवृत्ति को स्वीकार किया है तथा विश्व की संस्थिति और सम्पूर्णता के लिए, मनुष्य के विकास के लिए जरूरी माना है। अतएव प्रत्येक नागरिक को इस महायज्ञ में प्रवृत्त होने का आदेश प्रदान किया है। गृहस्थाश्रम विषय-भोग की सामग्री नहीं है, स्वार्थमयी लालसा और पापमयी वासना का विलास मन्दिर नहीं, वरन् दो आत्माओं के पारस्परिक सहवास द्वारा शुद्ध आत्मा सुख, प्रेम और पुण्य का पवित्र प्रसाद है, वात्सल्य और त्याग की लीलाभूमि है, निर्वाण प्राप्ति के लिए शान्ति कुटीर है। विवाह से मनुष्य समाज का एक अंग बनता है, अपूर्णता से पूर्णता प्राप्त करता है, निर्बलता से सबलता की ओर अग्रसर होता है। उसे नये सम्बन्ध प्राप्त होते हैं, नये उत्तरदायित्व और नये आनन्द प्राप्त होते हैं। भारतीय ऋषियों ने गृहस्थाश्रम को अनेक व्रत, नियम, अनुष्ठान, आतिथ्य-सत्कार इत्यादि पुण्य कर्त्तव्यों की लीलाभूमि बनाकर उसकी महिमा को द्विगुणित किया है। उन्होंने पारिवारिक व्यवस्था में प्रेम और वात्सल्य तथा दूसरी ओर अपने से छोटे के लिये उन्हीं के हित में त्याग तथा तपस्या के द्वारा इसे तपोभूमि के समान पवित्र बना दिया है। एक लेखक का विचार है—‘‘इस तपोभूमि के पुण्य स्वरूप और पुण्य साधना का मधुर रहस्य जानने के लिये हम हिमालय की उस तुषार मंडित शिला पर चलें, जहां हिमालय की किशोरी पार्वती तपश्चर्या में निमग्न है। वही भारतीय गृहस्थाश्रम मंगलमय स्वरूप का प्रथम दर्शन है। गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने से पूर्व रमणी को तपोमयी साधना में प्रवृत्त होना पड़ता है, क्यों कि जिस मंगलमय उद्देश्य की पूर्ति के लिये वह अपनी पवित्र सुन्दर जीवन को उत्सर्ग करती है, उसके लिए तपस्या और त्याग की परम आवश्यकता है। कुमार की उत्पत्ति तपस्या की सिद्धि का मधुर फल है, क्योंकि विश्व के परित्राण के लिये, देश के मंगल के लिए, समाज के अभ्युदय के लिए और मनुष्य की मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिए ही कुमार के अवतार की आवश्यकता है। पुत्र या कन्या का जन्म भी धार्मिक महत्व रखता है। उसके साथ रमणी की उत्कृष्ट सिद्धि भी सम्मिलित है।’’ भारतीय वैवाहिक जीवन मंगलमय है। उसका प्रत्येक व्रत, नियम, अनुष्ठान, पूजन, चिन्तन इत्यादि विशेष महत्व रखता है। सतीत्व तथा एक पत्नीव्रत की पवित्रता से समुज्ज्वल, मातृत्व के मृदुल वात्सल्य से विभूषित, उत्तरदायित्वों के मनोरम भार से परिपूर्ण, प्रेम के प्रवाह से पूर्ण भारतीय विवाहित जीवन त्याग का तेजोमय तीर्थ और पुण्य एवं कर्म की भूमि है। इसके द्वारा स्त्रियों में स्त्रीत्व तथा पुरुषों में पुरुषत्व का विकास होता है। नर-नारी के मंगलमय चिर सम्मिलन के समय भारतीय समाज उन दोनों को प्रणय-सूत्र में आबद्ध करने के साथ ही साथ इस जन्म तथा मृत्यु के पश्चात परलोक में भी परस्पर सहायता, सहानुभूति एवं स्नेहमय व्यापार के प्रतिज्ञा सूत्र में आबद्ध करता है। हमारा हिन्दू धर्म जिस मंगलमयी साधना को लेकर सदा व्यस्त रहता है, वह है ‘‘प्रवृत्ति को निवृत्ति के पथ पर परिचालित करना।’’ हमारे यहां वासना की प्रवृत्ति को माना है, किन्तु साथ ही साथ हमने इस प्रवृत्ति के परिष्कार, उन्नतिकरण और अन्ततः निवृत्ति में परिणत करना यह फल माना है। वैवाहिक जीवन हमारे जीवन की एक स्टेज है, जो भावी जीवन के निर्माण में सहायक है। हम सदा से यह मानते आये हैं कि असंस्कृत और उच्छृंखल प्रवृत्ति साधना और तपस्या के द्वारा परम शान्त और त्यागमयी बनाई जा सकती है। विनाश की अपेक्षा वृत्तियों का सही मार्गों में बहाव, स्वार्थ और लालसा से निकल कर प्रेम और त्याग के मार्गों में उनका प्रवाह हमारे लिए विशेष महत्व रखता है। गृहस्थ में प्रविष्ट न होने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार के मानसिक रोगों का शिकार बनता है। आयु कम रहती है, मानसिक भावनाएं विकसित नहीं हो पातीं, संसार के महत्वपूर्ण कार्यों में जी नहीं लगता, मन पुनः पुनः सुन्दर स्त्रियों के मानस चित्र बनाता और स्वप्न दोष उत्पन्न करता है। अविवाहित पुरुष की उत्पादन शक्ति क्षीण होती है। विवाह से उसे नया चाव, उत्साह, स्फूर्ति और प्रेरणा प्राप्त होती है। इसी प्रकार अविवाहित स्त्री कुढ़न, अनिद्रा, प्रमाद, चिन्ता, हिस्टीरिया, प्रजनन की गुप्त भावना, अतृप्ति, स्वार्थ और क्रोधी हो जाती है। विवाहित स्त्री का सौन्दर्य बढ़ता है। शरीर के सब अंगों का नवीन ढंग से विकास होता है। मृदुल भावनाओं—दया, प्रेम, सहानुभूति, वात्सल्य, करुणा की अभिवृद्धि होती है। डॉक्टर जेम्स स्टाक, रजिस्ट्रार जनरल आफ स्काटलैंड ने अपनी परिगणना द्वारा सिद्ध किया है कि कुंआरेपन से मनुष्य की आयु क्षीण होती है। विवाहित व्यक्तियों में से 40 और 20 वर्ष के मध्य 1407 व्यक्ति प्रति वर्ष मरते हैं किन्तु इसी अवस्था में कुंवारे एक लाख में से 1835 प्रति वर्ष मरते हैं। 25 से 40 के मध्य में मरने वाले कुंवारों की मृत्यु अनुपात विवाहितों से दुगुना है। बीमा कंपनियां अविवाहितों की अपेक्षा विवाहितों को पसन्द करती हैं। जैसे पिता वैसा परिवार— पिता का महत्व मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से बहुत अधिक है। प्रत्येक परिवार अनुकरण का दास है। अतः पिता के रहन-सहन, विचारों और आदतों द्वारा घर के बच्चों की आदतों का निर्माण होता है। पिता हर प्रकार से आदर्श रहें। अपने जीवन का कोई भी दोषपूर्ण पहलू परिवार के सामने न लायें। आदर्श पिता का परिवार ही सुखी समृद्ध और उन्नतिशील हो सकता है।घर का वातावरण बनाने वाले अन्य भी तत्व हैं। पहले घर में दीवारों पर लगी हुई तस्वीरों को ही लीजिये। यदि यह चित्र अश्लील, कामोत्तेजक, सस्ते, श्रृंगारपूर्ण जीवन या सिनेमा की अभिनेत्रियों से सम्बन्धित होंगे, तो अप्रत्यक्ष रूप से घर का वातावरण अशुद्ध होता रहेगा। इसका प्रभाव बड़ा होने पर बच्चों के चरित्र में प्रकट हो जायगा। इसी प्रकार जिन परिवारों में गन्दी गालियां देने, बच्चों या नौकरों को मारने पीटने, दुखी करने का क्रम है, उनके बच्चे दुष्ट और निर्मम प्रकृति के होते जायेंगे। पोशाक का दिखावा, अधिक बनाव पाउडर, सेन्ट, इत्र, खुशबूदार तेल लगाकर सज धज कर निकलने वाले परिवारों के बच्चे उद्दंड और कामुक प्रकृति के निकलेंगे। जैसा घर का वातावरण, वैसे ही बच्चे के संस्कार! पिता को अपना महान् दायित्व समझना चाहिये और स्वाध्याय, चिंतन, मनन एवं सेवाभाव के बीज पारिवारिक सदस्यों में बोने चाहिये। पिता ही प्रथम शिक्षक और पथ प्रदर्शक है। उसे उत्साही, मिलनसार, भावुक, परोपकारी, अधिक परिश्रमी, अटल विश्वासी, व्यवहार कुशल, सच्चा समालोचक, विनोदपूर्ण होना चाहिए। जिस संलग्नता से वह पवित्र जीवन व्यतीत करेगा, उसी परोपकारिता, पितृ भक्ति और मृदुलता से उसका परिवार उसके पद चिन्हों पर चलेगा। सम्मिलित रहें या पृथक हो जायं? सहयोग की भावना मनुष्य जाति की उन्नति का मूल कारण है। हमारी एकता शक्ति, आध्यात्मिकता, मैत्री भावना, सहयोग परायणता ही हमारी आधुनिक सभ्यता का मूल मन्त्र है। सभ्यता के आरम्भ में मनुष्यों ने आपस में एक दूसरे को सहयोग दिया, अपनी स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों को परस्पर मिलाया। इस संगठन से उन्हें ऐसी चेतनाएं एवं सुविधाएं प्राप्त हुईं, जिनके कारण अनेक हिंस्र पशुओं के ऊपर मनुष्य का आधिपत्य स्थापित हो गया। दूसरे प्राणी जो साधारणतः शारीरिक दृष्टि से मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक सक्षम थे, इस मैत्री भावना, सम्मिलित योग्यता के अभाव में जहां के तहां अविकसित पड़े रहे। उनकी शक्तियां विश्रृंखलित, विघटित, असंगठित रहीं। संघशक्ति का प्रादुर्भाव उनमें न हो सका। यही बात परिवारों के सम्बन्ध में है। वे ही परिवार उन्नति कर सकते हैं जिसमें पारस्परिक सहयोग, संगठन, एकता, पारस्परिक सद्भाव रहे हैं। बड़े सेठ, साहूकारों, संस्थाओं, फर्मों का निरीक्षण करके मालूम करें तो उनका संगठन ही उन्नति का मूल मिलेगा। विद्युत, अग्नि, गैस, वाष्प की तरह जनशक्ति भी एक होकर अनेक गुनी अभिवृद्धि को प्राप्त होती है। व्यक्तिवाद के स्थान पर समूहवाद की प्रतिष्ठा पाना संसार अब पहिचानता जा रहा है। मजदूर, किसान, कारीगर अपने संघ विनिर्मित कर रहे हैं। यहां तक कि बुरे व्यक्ति भी बुरे कर्मों के लिये घनिष्ठ संघ बनाकर अवांछनीय साहसिक कार्य संपादित कर रहे हैं। सम्मिलित कुटुम्ब के असंख्य लाभ— प्रथक-प्रथक रूप से छोटे-छोटे प्रयत्न करने में शक्ति का अपव्यय अधिक और कार्य न्यून होता है। अकेला मनुष्य थोड़ी देर बाद रुक जाता है। परन्तु सामूहिक और संगठित सहयोग से ऐसी अनेक चेतनाओं और सुविधाओं की उत्पत्ति होती है, जिसके द्वारा बड़े-बड़े कठिन कार्य सहज हो जाते हैं। सम्मिलित खेत, सम्मिलित रसोई, सम्मिलित व्यापार, सम्मिलित संस्था, सम्मिलित परिवार का क्षेत्र विस्तृत होता है। सम्मिलित परिवार की प्रवृत्ति से मानव प्राणी की सुख, शान्ति एवं सफलताओं में आश्चर्यजनक रीति से अभिवृद्धि होती है। आर्थिक दृष्टि से विचार कीजिये तो धन का मितव्यय होता है तथा सम्पन्नता में अभिवृद्धि होती है। प्रथक-प्रथक रहने पर प्रथक ही चूल्हे जलते हैं, दीपक जलते हैं, भोजन निवास तथा शिक्षा इत्यादि के निमित्त प्रत्येक छोटे परिवार को प्रथक ही व्यय करना पड़ता है। आजकल मकान की समस्या बड़ी विषम है। चार भाई यदि पारस्परिक स्नेह का विकास कर सम्मिलित रहें, तो चार मकानों के स्थान पर एक से ही कार्य चल जायेगा। चार मकान, चार फर्नीचर, फर्श, सजावट का सामान की आवश्यकता प्रतीत न होगी। अतिथियों के लिये अतिरिक्त पलंग, बिस्तर फिर सबको प्रथक रखने की क्या जरूरत? घर के साधारण नौकर जैसे—कहार, रसोइया, मेहतर, चौकीदार, दूध दुहने वाले का व्यय भी एक ही स्थान से किया जा सकेगा और चारों भाइयों को आराम भी प्राप्त होगा। चार भाइयों के एक साथ सम्मिलित रहने में यदि दो सौ रुपये का व्यय है, तो प्रथक रहने में चार सौ का व्यय अवश्य हो जायेगा। एक भाई दूसरे अच्छे भाई के व्यवहार, प्रोग्राम, दिनचर्या देख कर उसका अनुकरण करेगा, गन्दगी से बचेगा, व्यर्थ की आदतों—‘‘जैसे सिनेमा, मद्य, सिगरेट, सैर-सपाटा इत्यादि अनेक प्रकार के अपव्यय से बचा रहेगा।’’ जो मैं चाहता हूं, वह सबको भी होना चाहिए। सबके लिए वही व्यवस्था करने में बहुत व्यय पड़ेगा। केवल मेरे ही लिए यह वस्तु होने से सबको बुरा प्रतीत होगा—‘‘ऐसा सोच कर गृह के अन्य सदस्य भी अपनी आवश्यकताओं पर संयम और मन पर नियन्त्रण रक्खेंगे। जब यह नियंत्रण हट जाता है, तो हर व्यक्ति खुले हाथ व्यय करता है। घर की जुड़ी हुई सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। झूठे दिखावे में आदमी बरबाद हो जाता है। आर्थिक लाभ— इस प्रकार जहां व्यय में किफायत होती है, वहां सम्पन्नता में वृद्धि होती है। मितव्यय वाला धन क्रमशः एकत्रित होता है। सम्मिलित श्रम से लाभ भी अधिक होता है। घर के विश्वस्त आदमी मिलकर कारोबार में जितना लाभ कर सकते हैं, उतना नौकरों द्वारा नहीं हो सकता। सब की आय एक ही स्थान पर एकत्रित होने से, संचित पूंजी में वृद्धि होती है। अर्थशास्त्र का अकाट्य नियम हैं, ‘‘अधिक पूंजी अधिक लाभ।’’ जैसे किसी व्यापार में एक हजार की पूंजी लगाई जाती है, तो दस प्रतिशत लाभ होता है। पर उसी में दस हजार की पूंजी लगाई जावे, तो पन्द्रह प्रतिशत लाभ होने लगेगा। सबकी कमाई एक स्थान पर होने से, पारिवारिक उद्योग धन्धे, छोटे छोटे व्यापार और छोटी कम्पनियां चालू की जा सकती हैं। ये ही छोटी कम्पनियां मिल कर बड़ी कम्पनियां बन जाती हैं। प्रत्येक परिवार की एक साख होती है। अच्छी साख वाले परिवार के प्रत्येक सदस्य को जीवन में अग्रसर होने में यह पूर्व संचित प्रतिष्ठा-सम्पदा बहुत लाभ पहुंचाती है। मानसिक दृष्टि से लाभ— मानसिक दृष्टि से विचार कीजिए, तो अनेक लाभ हैं। साथ-साथ रहने से सामाजिकता की वृद्धि होती है। मनोरंजन रहता है और तबियत लगी रहती है। चित्त ऊबता नहीं। बच्चों की मीठी तोतली बोली, माता का सुखद वात्सल्य, भाई बहिनों का सौंदर्य, पत्नी का प्रेम, सबका सहयोग, कष्ट के समय उत्साह जैसे विविध भावों का एक रुचिकर थाल सामने रहता है जिसे खाकर मानसिक क्षुधा तृप्त हो जाती है। पत्नी को लेकर पृथक हो जाने वाले लोग इन षटरस मानसिक व्यंजनों से वंचित रह जाते हैं। छोटे बच्चों का खेलना, बड़े बच्चों का पढ़ना, लड़कियों का काढ़ना-बुनना, अध्ययन, संगीत, स्त्रियों की अनुभव पूर्ण बातें, गृहकार्य करना, गृहपति का आगंतुकों से वार्तालाप, वृद्धाओं की धर्म चर्चा एवं नानी की कहानियां—किसी में प्रेम, किसी में चख चख, खटमिट्टा स्वाद मिलाकर कुटुम्ब एक अच्छा मनोरंजन स्थल बन जाता है। यह अपने आप में एक सोसायटी है। आपत्ति की सुरक्षा के लिए सम्मिलित कुटुम्ब की प्रथा एक बहुत बड़ी गारण्टी है। स्त्रियों के शील सदाचार की रक्षा के लिये यह एक ढाल के समान है। बीमार पड़ जाने पर इतने व्यक्ति सेवा शुश्रूषा के लिये प्रस्तुत रहते हैं और रोग मुक्ति का उपाय करते हैं। सबके साथ वृद्धावस्था आराम से कट जाने का सन्तोष रहता है। अपाहिज या अशक्त हो जाने पर भी इस आश्रय का विश्वास रहता है। मृत्यु हो जाने पर स्त्री बच्चों का पालन-पोषण हो जाने की निश्चिन्तता रहती है। पाश्चात्य देशों में जहां प्रथक परिवार हैं विधवाओं का जीवन बड़ा अश्लील रहता है। उन्हें स्वयं गृह के बाहर का काम-काज करना पड़ता है, या अन्यों का मोहताज रहना पड़ता है। हमारे बड़े परिवार में इनके पालन-पोषण तथा सम्पूर्ण जीवन सुख से व्यतीत करने की अच्छी सुव्यवस्था है। बच्चे, बूढ़े, अपंग, पागल, विधवा सभी को आश्रय प्राप्त हो जाता है। बाल्य मनोविज्ञान के अनुसार बच्चे अनुकरण प्रिय होते हैं। एक अच्छा परिवार एक स्कूल की भांति है, इसमें हर एक बच्चा प्रारम्भ से ही घरेलू शिक्षा प्राप्त करता है। वे साथ-साथ खेलते-कूदते खाते पीते हैं, उनका शारीरिक और बौद्धिक स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होता है। परिवार का प्रत्येक बालक बड़ों का अनुकरण कर कुछ न कुछ उत्तम शिक्षा, आदर स्वभाव की विशेषता ग्रहण करता है। यही कारण है कि बड़े प्रतिष्ठित खानदानों की लड़कियां प्रायः चतुर, सुसंस्कृत, अच्छी आदतों वाली, सभ्य और व्यवहार कुशल होती हैं। मां-बाप की अकेली सन्तान विशेषकर कन्या, बड़े परिवार से प्रथक प्रायः अकेली मां-बाप के साथ रहती है, तो वह गृह संचालक के कार्य में बहुत कम सफल हो पाती है। उसके पारिवारिक संस्कार विकसित नहीं हो पाते। बुजुर्गों और अनुभवी व्यक्तियों के गुप्त संस्कार प्रतिपल बच्चों का आत्मिक विकास किया करते हैं। अतः प्रथक रह कर बालक उतना विकसित नहीं हो पाता, जितना एक सुसंस्कृत, सुशिक्षित और सात्विक प्रकृति के सुसंचालित परिवार में पनपता है। सामाजिक दृष्टिकोण से लाभ— सामाजिक दृष्टि से सम्मिलित परिवार अधिक प्रतिष्ठित माना जाता है। चार अनुभवी व्यक्तियों के परिवार की सम्मिलित जनशक्ति देखकर प्रतिद्वन्द्वी अनायास मुकाबला नहीं करते, मित्र आकर्षित होते हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है। सम्मिलित शक्ति के स्वामित्व का बल घर के प्रत्येक सदस्य को रहता है। हर सदस्य समझता है कि किसी ने मेरा अपमान किया तो समस्त परिवार की जनशक्ति उससे प्रतिशोध लेगी। बीस व्यक्तियों के कुटुम्ब की सबकी शक्ति का अनुमान मान लीजिए एक मन है, तो वैसे प्रथक-प्रथक हर एक का बल दो सेर हुआ। पर समाज में हर एक का बल एक-एक मन समझा जाता है। इस प्रकार हर एक को बीस गुनी शक्ति का लाभ तो अनायास ही प्राप्त हो जाता है। पृथक रहने पर तो मनुष्य की जो वास्तविक शक्ति होती है, उससे भी न्यून प्रतीत होती है। दूसरे व्यक्ति समझते हैं कि ‘‘अपनी निजी आवश्यकताओं से इसके पास समय, बल और धन कम ही बचता होगा इसके द्वारा यह किसी को हानि लाभ न पहुंचा सकेगा।’’ इस मान्यता के आधार पर यह व्यक्ति वास्तविक स्थिति से भी छोटा प्रतीत होने लगता है। ऐसी स्थिति में देश या समाज की सेवा के निमित्त कोई महान् त्याग करने के लिये भी वह व्यक्ति तत्पर नहीं हो पाता। यदि हो भी जाता है, तो उसे अतीव चिन्ता रहती है तथा उसके आश्रितों की कठिनाई का ठिकाना नहीं रहता। धार्मिक दृष्टि से लाभ— धार्मिक दृष्टि से सम्मिलित परिवार कर्त्तव्य, संयम, त्याग, निःस्वार्थता, सेवा-भावना की शिक्षा का पुण्य स्थान है। माता-पिता, बड़े भाई, सास, ननद, जिठानी आदि के प्रति जो कर्त्तव्य है, वह सम्मिलित कुटुम्ब में रह कर ही निभाया जा सकता है। बड़े का सत्कार, सेवा, आदर तभी सम्भव है, जब तक उनके साथ रहें। बड़े भी अपने अनुभव का लाभ छोटों को उसी दशा में दे सकते हैं। जिन बड़ों ने एक बालक को गोदी में खिलाया है और एक युग तक बड़ी बड़ी आशाएं रक्खी हैं, वह समर्थ होते ही, पृथक हो जाता है, तो उन्हें भयंकर मानसिक आघात लगता है। यह धार्मिक दृष्टि से एक कृतघ्नता है। ऐसी कृतघ्नता को अपनाने से मनुष्य अपने सहज धर्म लाभ से, कर्त्तव्य पालन से, वंचित रह जाता है। जो परिवार को अपना धर्म क्षेत्र मान कर, नाना प्रकार के पुण्य कर्त्तव्यों का पालन करते हुए उसके द्वारा प्रभु पूजा करते हैं, वे सच्चा आत्म लाभ करते हैं। अपना परिवार परमेश्वर के द्वारा आपको सौंपा हुआ एक उद्यान है। उसमें नाना प्रकार के छोटे-बड़े पौधे लगे हुए हैं। एक कर्त्तव्य शील माली की तरह आपको प्रत्येक छोटे बड़े पौधे को सींचना है। जो इस प्रकार अपने कर्त्तव्य का पालन करते हैं, वे एक प्रकार की योग साधना करते हैं और योग के फल को प्राप्त करते हैं। अपने निजी सीमित स्वार्थ की दृष्टि को विस्तृत करके जब मनुष्य उसे स्त्री, पुत्र, पौत्र, परिजन आदि को फैलाता है, तब वह अहंभाव का विस्तार द्रुतगति से होने लगता है। फिर ग्राम, देश, विश्व से बढ़ कर वसुधैव कुटुम्बकम् की उसकी दृष्टि हो जाती है और अपना सब कुछ अपना-आत्मा का, परमात्मा का दीखने लगता है, यही जीवन मुक्ति है। इस प्रकार सम्मिलित परिवार एक सुदृढ़ गढ़ है, जिसमें कोई भी बाहर का व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता, कोई हानि नहीं पहुंचा सकता, सर्वतोमुखी उन्नति हो सकती है। पर खेद के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि आज हमारे अधिकांश सम्मिलित परिवार कलह और मनोमालिन्य के शिकार हैं। इसका कारण मुखिया (अधिष्ठाता घर का प्रधान) की कमजोरियां हैं। यदि प्रधान मनुष्य मनोविज्ञान का अच्छा जानकार है, बच्चों, बूढ़ों, युवकों और स्त्री-स्वभाव को अच्छी तरह समझता है, तो वह कुटुम्ब में कलह का अवसर ही न आने देगा। उसे बड़ा अनुभवी, दूरदर्शी, न्यायसंगत, निःस्वार्थ, निष्पक्ष, शान्त स्वभाव का होना चाहिये। उसका विवेक जाग्रत रहे, वह शान्ति से सबके पक्ष सुने, विचारे और तत्पश्चात निर्णय प्रदान करे। वह परिवार का कन्ट्रोलर या पथ प्रदर्शक है, उसे आने वाली कठिनाइयां, घर की आर्थिक सुव्यवस्था, विवाह सम्बन्धों की चिन्ता, युवकों की नौकरियां, स्त्रियों के स्वास्थ्य और शिशुपालन का ज्ञान होना अपेक्षित है। अनेक बार उसे युक्ति से काम लेना पड़ेगा, प्रशंसा और प्रेरणा देनी होगी, क्रोध और डांट-फटकार का प्रयोग कर पथ भ्रष्टों को सन्मार्ग पर लाना होगा, और आर्थिक कार्यों में आगे चलना होगा। अपनी धार्मिक उज्ज्वलता से उसे परिवार के सब सदस्यों का आदर और प्रतिष्ठा का पात्र भी बनना होगा।
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