Books - पारिवारिक जीवन की समस्यायें
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Language: HINDI
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हमारे परिवार के आपसी सम्बन्ध
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परिवार एक प्रकार का प्रजातन्त्र है, जिसमें मुखिया प्रेसीडेन्ट तथा परिवार के अन्य सज्जन प्रजा हैं। पिता-माता, पुत्र, बहिन, चाचा-चाची, भाभी, नौकर इत्यादि सभी का इसमें सहयोग है। यदि सभी अपने सम्बन्ध आदर्श बनाने का प्रयत्न करें, तो हमारे समस्त झगड़े क्षण मात्र में दूर हो सकते हैं। पिता और पुत्र— पिता का उत्तरदायित्व सबसे अधिक है। वह परिवार का अधिष्ठाता है, आदेश कर्त्ता और संरक्षक है। उसके कर्त्तव्य सबसे अधिक हैं। वह परिवार की आर्थिक व्यवस्था करता है, बीमारी में दवा-दारू, कठिनाई में सहायता, कुटुम्ब की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। संपूर्ण कुटुम्ब उसी की बुद्धि, योजनाओं, योग्यताओं और पथ प्रदर्शन पर निर्भर हैं। क्या आप पिता हैं? यदि हैं तो आप पर उत्तरदायित्व का सबसे अधिक भार है। घर का प्रत्येक व्यक्ति आपसे पथ प्रदर्शन की आशा करता है। संकट के समय सहायता, मानसिक क्लेश के समय सान्त्वना और शैथिल्य में प्रेरणात्मक उत्साह चाहता है। पिता बनना सबसे कठिन है क्योंकि इसमें छोटे बड़ों सभी को इस प्रकार संतुष्ट रखना पड़ता है कि किसी से कटुता भी न हो, और कार्य भी होता रहे। घर के सब झगड़े भी दूर होते चलें और किसी के मन में गांठ भी न पड़े। परिवार के सब सदस्यों की आर्थिक आवश्यकताएं भी पूर्ण होती रहें, और कर्ज भी न हो, विवाह, उत्सव, यात्राएं, दान भी यथाशक्ति दिये जाते रहें। पुत्रों को पिता से कितनी प्रेरणा और पथ प्रदर्शन हो सकता है, इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों के अनुभव देखिये। युवक कैक्सटन कहता है— ‘‘मैं प्रायः औरों के साथ की लंबी सैर छोड़, क्रिकेट का खेल छोड़, मछली का शिकार छोड़ अपने पिता के साथ बाहर बगीचे की चहार दीवारी के किनारे धीरे धीरे टहलने जाता। वे कभी तो चुप रहते, कभी बीती हुई बातों को सोचते हुए आगे की बातों की चिन्ता करते, पर जिस समय वे अपनी विद्या के भंडार को खोलने लगते और मध्य में चुटकुले छोड़ते जाते, उस समय एक अपूर्व आनन्द आ जाता था।’’ कैक्सटन थोड़ी सी कठिनाई आ जाने पर पिता के पास जाता था और अपने हौसलों और आशाओं को उन्हीं के सामने कहता। वह उसे नई प्रेरणा से भर देता था। डॉक्टर ब्राउन कहते हैं—‘‘मेरी माता की मृत्यु के उपरान्त मैं उन्हीं के पास सोता था। उनका पलंग उनके पढ़ने के कमरे में रहता था, जिसमें एक बहुत छोटा सा आतिशदान भी था। मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि किस प्रकार वे उन मोटी बेढंगी जर्मन भाषा की पुस्तकों को उठाते थे और उनसे चारों ओर से घिर कर उनमें गड़ जाते थे। पर कभी कभी ऐसा होता कि बहुत रात गये या सवेरा होते-होते मेरी नींद टूटती और मैं देखता कि आग बुझ गई है, उजाला खिड़की के रास्ते से कुछ-कुछ आ रहा है, उनका सुन्दर गम्भीर मुख झुका हुआ है और उनकी दृष्टि उन्हीं पुस्तकों की ओर गड़ी हुई है। मेरी आहट सुन कर वे मुझे मेरी मां का रक्खा हुआ नाम लेकर पुकारते और बिस्तर पर आकर मेरे गरम शरीर को छाती से लगा कर सो रहते।’’ इस वृत्तांत से हमें उस स्नेह और विश्वास का आदर्श मिलता है, जो पिता पुत्र में होना चाहिए। आज के युग में पिता-पुत्र में जो कड़ुवाहट आ गयी है वह नितान्त संकुचितता है। पुत्र अपने अधिकार मांगता है किन्तु कर्त्तव्यों के प्रति मुख मोड़ता है, जमीन जायदाद में हिस्सा मांगता है, किन्तु वृद्ध पिता के आत्म सम्मान, स्वास्थ्य, उत्तरदायित्व, इच्छाओं पर तुषारपात करता है। पुत्र ने परिवार के बन्धन शिथिल कर दिये हैं। घर-घर में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा अनुशासन विरोध का कुचक्र फैल रहा है। यह प्रत्येक दृष्टि से निन्दनीय एवं त्याज्य है। पुत्र पिता से क्या क्या सीखता है? पिता-पुत्र का सम्बन्ध बड़ा पवित्र है। पिता को पुत्र के मनोविकारों की अच्छी जानकारी होती है। उसका पुत्र के साथ तीन प्रकार का सम्बन्ध होता है। (1) पथ प्रदर्शक का, (2) तत्व चिन्तक का, (3) मित्र का। पिता के संरक्षण में पुत्र निरन्तर कुछ न कुछ सीखता है। पिता को चाहिए कि बड़ी सावधानी से जीवन में आने वाले प्रलोभन, कठिनाइयां तथा अन्य आवश्यक जानकारी का परिचय वह पुत्र को करा दे। बड़ा होने पर पुत्र के साथ वही व्यवहार किया जाय, जो मित्र के साथ होता है। पिता-पुत्र के अच्छे सम्बन्धों का गुरु यही है कि ज्यों-ज्यों पुत्र बड़ा होता जाय, त्यों-त्यों पिता उस पर अनुशासन कम करता जाय, मित्र बनाने का उपक्रम करे, महत्वपूर्ण बातों में उससे सलाह ले, उसकी राय लेकर रुपया व्यय करे, और उस पर यह धाक जमा दे कि वह उसका पूर्ण विश्वास करता है। पिता पुत्र के स्नेह में यद्यपि मृदुलता कम रहती है, पर विश्वास की मात्रा अधिक रहती है। यद्यपि आवेग कम करता है, पर विवेक बुद्धि, नियन्त्रण, तर्क और विचार शीलता अधिक रहती है, यद्यपि अवलम्बन का मृदुल भाव कम रहता है, पर समता की बुद्धि विशेष रहती है। बुद्धिमान तथा सुशील पिता से जितना हम सीख सकते हैं उतना सैकड़ों शिक्षकों से नहीं। पिता सबसे बढ़ कर हितैषी, शिक्षक है, जिसके पाठ हम न केवल उसके मुख से, वरन् उसके कार्यकलाप आचार-व्यवहार, चरित्र, नैतिकता सबसे ग्रहण करते हैं। उसके धैर्य, आत्मनिग्रह, कोमल स्वभाव, सम्वेदनाओं की तीव्रता, शिष्टता, पवित्रता और धर्म परायणता आदि गुण का स्थायी प्रभाव पुत्र पर प्रतिपल पड़ता है। माता का प्रभाव— माता स्नेह की साक्षात् प्रतिमूर्ति है। उसकी भावनाओं तथा दूध पिलाते समय की आकांक्षाओं से हमारे मनोजगत का निर्माण हुआ करता है। माता बचपन में बालक को जैसी कहानियां, आपबीती, चुटकुले या और बातें सुनाया करती है, वे बालक के अन्तर्प्रदेश में प्रवेश करके ग्रन्थियों का निर्माण करते हैं। माता की लोरियां विशेष प्रभावशाली होती हैं। बालक अर्द्धनिद्रा में निमग्न है। माता लोरी गा-गा कर उसे सुला रही है। यह एक प्रकार की आत्म प्रेरणा है, जो धीरे-धीरे उसके बनते हुए गुप्त मन पर प्रभाव डाल रही है। इसी से उसका मानसिक संस्थान बनता है। माता की पूजा एक आध्यात्मिक साधन है जिससे मन को शान्ति प्राप्त होती है। माता भी पुत्र को उन्हीं अंशों तक दबाती है, जहां तक उसके ‘‘अहं’’ पर ठेस न पड़े। वह पुत्र के लिये महान त्याग को प्रस्तुत करती है। फिर पुत्र के लिए जो करदे, थोड़ा ही गिना जायेगा। पं. रामचन्द्र शुक्ल का मत श्रेष्ठ है। आप लिखते हैं—‘‘पुत्र को माता-पिता के व्यय का, उससे अधिक अनुभव का, उनके उन दुःखों का जिन्हें उनने उसके लिए उठाया है, सर्वदा ध्यान रखना चाहिये। पुत्र को पिता के स्वाभाविक बड़प्पन को स्नेह पूर्वक खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए। बहुत से पुत्र ऐसे होते हैं, जो बिलकुल बुरे, बेकहे और स्नेह शून्य तो नहीं होते, पर वे अपने पिता के साथ मान मर्यादा का भाव छोड़ इस प्रकार के हेल मेल का व्यवहार रखते हैं मानो उनका गहरा सगा हो। वे उससे चलती बाजारू बोली में बातचीत करते हैं और वे उसके प्रति इतना सम्मान भी नहीं दिखाते जितना एक बिना जाने सुने आदमी के प्रति दिखलाते हैं। यह बेअदबी तिरस्कार से भी बुरी है।’’ भाई-भाई का व्यवहार— भाई-भाई के झगड़ों के कारण एक ही घर में दीवार खिंच जाती है और थोड़ी सी बात में झगड़ा बढ़ सकता है। भाइयों में पारस्परिक कटुता के कारण प्रायः ये होते हैं—(1) जायदाद का बंटवारा, (2) पिता का एक पर अधिक स्नेह दूसरे का तिरस्कार, (3) एक भाई का अधिक पढ़ लिख सम्पन्न होना, दूसरे की हीनता, (4) मिथ्या गर्व और अपने बड़प्पन की मिथ्या भावना, (5) अशिष्ट व्यवहार, (6) एक भाई की कुसंगति, सिगरेट या व्यभिचार इत्यादि दुर्गुण, (7) उनकी पत्नियों का मन परस्पर न मिलना। उपर्युक्त कारणों में कोई भी उपस्थित होने पर बड़े भाई को पूर्ण शान्ति और विवेक से छोटे की मनोवृत्ति पर देख भाल, सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिये। कभी-कभी तनिक से विवेक बुद्धि और शान्ति से बड़े काम चलते हैं। गर्मा-गर्मी में आने से अपशब्द उठते हैं, बड़े भाई का आत्म सम्मान एवं प्रतिष्ठा की हानि होती है। यदि एक दूसरे के लिये थोड़ा सा त्याग कर दिया जाय, तो अनेक झगड़े तय हो सकते हैं। जायदाद के बटवारे के मामले में किसी बाहरी सज्जन को डाल कर उचित बटवारा कराना और जितना मिले उसी में प्रत्येक को सन्तोष रखना चाहिये। यदि हम थोड़ा सा त्याग करने को प्रस्तुत रहें, तो कोई कठिनाई आ ही नहीं सकती। यदि पिता एक पुत्र पर अधिक तथा दूसरे पर कम प्रेम प्रकट करते हैं, तो भी व्यग्र होने का कोई कारण नहीं है। पिता के हृदय में सबके प्रति समान प्रेम है। चाहे वे प्रकट एक पर ही करें, वह प्रत्येक पुत्र-पुत्री को समभाव से प्रेम करते हैं। इस प्रकार का दृष्टिकोण रखने से हम अनेक कलुषित और अनर्थकारी विचारों से बच सकते हैं। झगड़ा कराने में पत्नियों का विशेष हाथ रहता है। उनमें ईर्ष्या का दुर्गुण बहुत मात्रा में होता है। यदि पत्नियों को शिक्षा दी जावे और कुशलता से स्त्री स्वभाव की इस कमजोरी का ज्ञान करा दिया जावे, तो अनेक झगड़े प्रारम्भ ही न हों। एक अच्छा नियम यह है कि पत्नी की बातों में न आया जाय और गलतफहमी से बचा जाय। यदि कोई गलतफहमी आ जाय तो शान्ति से उसे दूर करना उचित है। उसे हृदय में रखना पाप की मूल है। बाहर वालों के कहने में कदापि न आना चाहिए। भाई से अपनी आत्मा और रक्त का सम्बन्ध है। दोनों में उसी आत्मा का अंश है, उसी रक्त से उनके शरीर, मन तथा भावनाओं का निर्माण हुआ है। उस में कटुता का तत्व किसी तीसरे के षडयंत्र से होता है। समाज में ऐसे व्यक्तियों की न्यूनता नहीं है, जो परस्पर युद्ध करा दें। अतः उनसे बड़े सावधान रहें। भाई आपका सबसे बड़ा मित्र और हितैषी है। बड़ा भाई पिता तुल्य गिना जाता है। छोटा भाई आड़े समय अवश्य काम आता है। सेवा करता है। एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। यदि दो भाई मिल जुल कर अग्रसर हों तो संसार में निर्विघ्न चल सकते हैं। एक दूसरे के आड़े समय पर काम आ सकते हैं, आर्थिक सहायता कर सकते हैं, और एक के मरने पर दूसरे के कुटुम्ब का पालन पोषण कर सकते हैं। वे भाई धन्य हैं जो मिल जुल कर चलते हैं। छोटा भाई आप में पथ प्रदर्शक, हितैषी एवं संरक्षक की प्रतिच्छाया देखता है। उसके लिए आपको वही त्याग और बलिदान करने चाहिए जो एक पिता अपने पुत्र के लिये करता है पिता की मृत्यु के पश्चात् ज्येष्ठ पुत्र के ऊपर सम्पूर्ण उत्तरदायित्व आ जाता है। सन्तान के साथ हमारा व्यवहार— ईश्वर ने जो सन्तान तुम्हें दी है, वह अनेक जन्मों के वरदान और उपहार स्वरूप प्राप्त हुई है। उसे परमेश्वर का अनुग्रह समझ कर ग्रहण करना चाहिए। सन्तान के प्रति सच्चा और निष्कपट प्रेम करना चाहिये। यह अनुचित लाड़ या झूठा स्नेह न हो। जो तुम्हारी स्वार्थपरता और मूर्खता से उत्पन्न होता है और उनके जीवन को नष्ट करता है। तुम यह कभी न भूलो कि तुम्हारे गृह में पदार्पण करने वाले तुम्हारे आत्म स्वरूप ये बालक भावी नागरिक हैं, जो समाज और देश का निर्माण करने वाले हैं। ईश्वर की ओर से तुम्हारा यह कर्त्तव्य है कि उनकी सुशिक्षा, शिष्टता तथा परिष्कार की समस्या में हम पर्याप्त दिलचस्पी लें। तुम अपनी सन्तान को केवल जीवन के सुख और इच्छा पूर्ति मात्र की ही शिक्षा न दो, वरन् उनको धार्मिक जीवन, सदाचार और कर्त्तव्य पालन, आध्यात्मिक जीवन की भी शिक्षा प्रदान करो। इस स्वार्थमय समय में ऐसे माता-पिता विशेषतः धनवानों में विरले ही मिलेंगे, जो सन्तान की शिक्षा के भार को, जो उनके ऊपर है, ठीक ठीक परिमाण में तोल सकें। जैसा वातावरण तुम्हारे घर का है, उसी सांचे में ढलकर तुम्हारी सन्तानों का मानसिक संस्थान, आदतें, सांस्कृतिक स्तर का निर्माण होगा। जबकि तुम अपने भाइयों के प्रति दयालु, उदार और संयमी नहीं हो, तो अपनी सन्तान से क्या आशा करते हो कि वे तुम्हारे प्रति प्रेम दिखलाएंगे? जब तुम अपना मन विषय-वासना, आमोद प्रमोद तथा कुत्सित इच्छाओं से नहीं रोक सकते, तो भला वे क्यों न कामुक और इन्द्रिय लोलुप होंगे? यदि तुम मांस, मद्य या अन्य अभक्ष्य पदार्थों का उपभोग करते हो, तो वे भला किस प्रकार अपनी प्राकृतिक पवित्रता और दूध जैसी निष्कलंकता को सुरक्षित रख सकेंगे? यदि तुम अपनी अश्लील और निर्लज्ज आदतों, गन्दी गालियां, अशिष्ट व्यवहारों को नहीं छोड़ते, तो भला तुम्हारे बालक किस प्रकार गन्दी आदतें छोड़ सकेंगे? तुम्हारे शब्द, व्यवहार, दैनिक कार्य, सोना, उठना, बैठना ऐसे सांचे हैं, जिनमें उनकी मुलायम प्रकृति और आदतें ढाली जाती हैं। वे तुम्हारी प्रत्येक सूक्ष्म बात देखते और उनका अनुकरण करते हैं। तुम उनके सामने एक मौडल, एक नमूने या आदर्श हो, जिनके समीप वे पहुंच रहे हैं। इसलिए यह तुम्हीं पर निर्भर है कि तुम्हारी सन्तान मनुष्य हो या मनुष्याकृति वाले नर पशु। पारिवारिक मनोरंजन हमारे परिवारों में आमोद-प्रमोद का कोई विशेष ध्यान नहीं रक्खा जा रहा है, फलतः वह दुःख से भरे हैं। हम अपने परिवार से अनेक प्रकार के काम तो चाहते हैं, उनके लिए पुनः पुनः उनसे कहते हैं, किन्तु हम यह नहीं सोचते कि परिवार में मनोरंजन के कितने साधन हमने एकत्र किये हैं। सौ में अस्सी प्रतिशत परिवार अशिक्षा के अन्धकार से घनीभूत हैं। उनमें आमोद-प्रमोद की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की जाती। जिन परिवारों में आमोद प्रमोद का ध्यान नहीं दिया जाता, वहां के व्यक्तियों का जीवन बड़ा शुष्क और व्यस्त रहता है। वहां के व्यक्ति अल्पायु होते हैं। प्रफुल्लता, हंसी-मजाक, मनोविनोद, मनोरंजन जीवन के लिए उतने ही आवश्यक हैं, जितने भोजन तथा वायु, वस्त्र तथा जल। प्रत्येक बुजुर्ग का यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि अपनी रुचि, परिस्थिति, आय, समय तथा आवश्यकता के अनुसार स्वयं पूरे परिवार के लिये यहां तक कि प्रत्येक सदस्य के लिये—आमोद-प्रमोद की व्यवस्था करे। हम यह नहीं कहते कि सबको उच्च कोटि के अधिक खर्च वाले मनोरंजन ही प्राप्त हों, हां किसी न किसी प्रकार का विनोद अवश्य मिले। साधारण परिवार के लिये हम यहां कुछ उपयोगी सुझाव प्रस्तुत करते हैं— जिन परिवारों में लोगों का पेशा या व्यवसाय शारीरिक श्रमपूर्ण है, जो दिन भर अपने शरीर से परिश्रम कर पसीना बहाकर द्रव्योपार्जन करते हैं, उनके आमोद-प्रमोद मूलतः मानसिक होने चाहिए। वे मनोरंजन के ऐसे साधन निकालें, जिनसे उनके थके हुए शरीर को अधिक परिश्रम न करना पड़े, प्रत्युत मानसिक दृष्टि से भी उन्हें प्रसन्नता के साधन मिल जायं। ऐसे व्यक्तियों के लिये उनका पठन-पाठन उत्तम मनोरंजन का साधन हो सकता है। वे नई-नई पुस्तकें पढ़े। अपना अधिकांश समय पुस्तकालय में बिताएं और नये-नये समाचार-पत्र, साप्ताहिक, मासिक पत्र पढ़े, और मनोरंजन के साथ ज्ञान-वृद्धि भी करें। मजदूर, श्रमिक, मिल के सेवक, दुकानदार, मिस्तरी, बाहरी फेरी लगाने वाले, काश्तकार जितना मनोरंजन पुस्तकों तथा समाचार पत्रों से प्राप्त कर सकते हैं, उतना सिनेमा से नहीं। सिनेमा का मनोरंजन महंगा और अश्लील है। सरस कविता के उच्च स्वर से पाठ करने में थकान और शुष्कता दोनों दूर हो जाते हैं। इसके द्वारा गम्भीर और चिन्तनशील पाठक उत्तम सांस्कृतिक और सात्विक मनोरंजन प्राप्त कर सकता है। कविताएं, गीत, दोहे, चौपाई सस्ते से सस्ते सात्विक मनोरंजन हैं। नित्य के भोजन से निवृत्त होकर पूरा परिवार बैठ जाय, एक व्यक्ति कोई मनोरंजन पुस्तक समाचार-पत्र, पौराणिक, धार्मिक ग्रन्थ या रामायण इत्यादि काव्य उच्च स्वर से पढ़े, अन्य उसे सुनें। यदि परिवार में पुस्तक, समाचार-पत्र या मासिक पत्र मंगाने की सामर्थ्य हो, तो घर में एक घरेलू पुस्तकालय खोला जाय और साहित्य का आनन्द लूटा जाय। प्रत्येक परिवार में ऐसे पत्र पत्रिकाएं मंगवाये जायें, जिनमें ज्ञान वर्द्धन के साथ-साथ समाचार और मनोरंजन दोनों प्राप्त होते रहें। सिनेमा के मनोरंजन के पक्ष में हम नहीं हैं। हां, यदि कोई उच्च कोटि का सामाजिक या धार्मिक चित्र आ जाय तो दूसरी बात है। यह स्मरण रहे कि हमारे अधिकांश फिल्म अत्यन्त विषैली, कामोत्तेजक सामग्रियों से भरे हुए हैं और यदि संभल कर चुनाव न किया जाय, तो यह मनोरंजन हमारे समाज को पतन और मृत्यु के मार्ग में ढकेल सकता है। हमें चाहिये कि परिवार के लिए घरेलू खेलों को अपनावें। जब सिनेमा न था, अखाड़ों की मिट्टी बोलती थी और भजन, कीर्तन, पूजा में दिल हंसते-रोते थे। रामायण तथा महाभारत की कथाएं, आल्हा के छन्द हमारी रगों में रक्त बनकर दौड़ते थे। हम देशी खेल-कूद, तैरना इत्यादि से स्वस्थ रहते थे। पुराने काल में मनोरंजन से स्वास्थ्य और आचरण दोनों ही ठीक रहते थे। हमें चाहिए कि पुनः उन सात्विक मनोरंजनों को अपनायें और उच्छृंखलता तथा गृहकलह उत्पन्न करने वाले सिनेमा के विषैले मनोरंजन से बचें। भारतीय परिवारों के लिए संगीत मनोरंजन का उत्कृष्ट साधन है। भारतीय नारी का यह विशेष आभूषण है। वे अपने कटु अनुभवों को संगीत की स्वर-लहरी में तिरोहित कर सकती हैं जो भी वाद्ययंत्र रुचे—हारमोनियम, सितार, तम्बूरा, ढोलक—उसी पर गाना चाहिए। जो कविता उत्तम जंचे, जो काव्य ग्रंथ रुचे, जिस कवि की वाणी मीठी लगे, उसे ही उन्मुक्त कंठ से पाठ करना चाहिए। संगीत और वादन मनोरंजन के सात्विक साधन हैं। परिवार के व्यक्ति अपनी छुट्टी का दिन घर के जेलखाने से बाहर बितायें। भोजन साथ ले लें और बाहर निकल पड़ें। शहर में या बाहर किसी उद्यान, झील, सरिता-तट, जंगल या अन्य किसी रमणीय प्राकृतिक स्थान में व्यतीत करना चाहिए। कैम्प जीवन का स्त्रियों और बच्चों के स्वास्थ्य पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। बाहर सैर-सपाटे से पाचन क्रिया तो ठीक होती ही है, हृदय भी नवशक्ति से परिपूर्ण हो जाता है। पाश्चात्य देशों में स्नान करने के लिए बड़ी संख्या में लोग सरिता-तट या झील पर जाते हैं, धूप-स्नान करते हैं, नदी में तैरते हैं, खेल-कूद करते हैं। पूर्ण स्वास्थ्य के लिये कैम्प जीवन अत्यन्त आवश्यक है। घर की पुरानी परिस्थितियों से निकल कर प्रकृति की नवीन परिस्थितियों में आने से मन प्रफुल्लित हो जाता है। पर्वतों का पर्यटन आयु को और भी बढ़ा देता है। जंगल, उद्यान, घास पर टहलना मनोविनोद के अच्छे साधन हैं। प्रत्येक परिवार के मुखिया को स्वयं सोचकर अपनी परिस्थिति के अनुसार खेलों तथा मनोरंजन की योजना बनानी चाहिये। मित्रता की आवश्यकता एवं उसका निर्वाह— परिवारों में अनेक ऐसी अड़चनें आती हैं जिनमें बिना पड़ौसी तथा मित्रों की सहायता के काम नहीं चलता। विवाह, जन्मोत्सव, प्रवास हो जाने पर, बीमारी में, मृत्यु के दुःखद प्रसंगों में, आर्थिक कठिनाइयों के मौकों पर तथा जटिल अवसरों पर राय लेने के लिए मित्रों की अतीव आवश्यकता है। पर मित्र तथा उत्तम पड़ोसी का चुनना बड़ा कठिन है। अनेक व्यक्ति आपसे अपना काम निकालने के स्वार्थमय उद्देश्य से मित्रता करने को उतावले रहते हैं किन्तु अपना कार्य निकल जाने पर कोई सहायता नहीं करते। अतः बड़ी सावधानी से व्यक्ति का चरित्र, आदतें, संग, शिक्षा इत्यादि का निश्चय करके मित्र का चुनाव होना चाहिये। आपका मित्र उदार, बुद्धिमान, पुरुषार्थी और सत्य परायण होना चाहिए। विश्वास पात्र मित्र जीवन की एक औषधि है। हमें अपने मित्रों से यह आशा करनी चाहिए कि वे हमारे उत्तम संकल्प को दृढ़ करेंगे, तथा दोषों एवं त्रुटियों से बचावेंगे, हमारी सत्य पवित्रता और मर्यादा को पुष्ट करेंगे। यदि हम कुमार्ग पर पांव रक्खेंगे, तब हमें सचेत करेंगे। सच्चा मित्र एक पथप्रदर्शक, विश्वास पात्र और सच्ची सहानुभूति से पूर्ण होना चाहिए। पं. रामचन्द्र शुक्ल ने मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया है—‘‘उच्च और महा कार्यों में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिखाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ। यह कर्त्तव्य उसी से पूर्ण होगा, जो दृढ़ चित्त और सत्य संकल्प का हो। हमें ऐसे ही मित्रों का पल्ला पकड़ना चाहिए जिनमें आत्म बल हो, जैसे सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था।’’ मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिनसे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें और यह विश्वास कर सकें कि किसी प्रकार का धोखा न होगा। मित्रता एक नई शक्ति की योजना है। बर्क ने कहा है—‘‘आचरण दृष्टान्त ही मनुष्य जाति की पाठशाला है, जो कुछ वह उससे सीख सकता है वह और किसी से नहीं।’’ यदि आप किसी के मित्र बनते हैं तो स्मरण रखिये आपके ऊपर वह जिम्मेदारी आ रही है। आपको चाहिए कि अपने मित्र की विवेक बुद्धि, अन्तरात्मा जागृत करें, कर्त्तव्य बुद्धि को उत्तेजना प्रदान करें, और उसके लड़खड़ाते पांवों में दृढ़ता उत्पन्न करदें। जीवन के आवश्यक कार्य— हमारे कर्म चार प्रकार के होते हैं। (1) पशु तुल्य, (2) राक्षस तुल्य, (3) सत्पुरुष तुल्य, (4) देव तुल्य। प्रत्येक व्यक्ति को अपने परिवार में कार्य करते समय इन पर दृष्टि डालनी चाहिये। वे सब कार्य जिनमें बुद्धि का उपयोग न किया जाय, क्षणिक आवेग या प्रकृति के संकेत पर बिना जाने बूझे कर डाले जायं पशु तुल्य कार्य हैं। जैसे भोजन, कामेच्छा की पूर्ति, गुस्से में मार बैठना, प्रसन्नता में वृथा फूल उठना, जीभ तथा वासना जन्य सुख इसी श्रेणी में आते हैं। स्वार्थ की पूर्ति के लिए जो कार्य किये जायं वे राक्षस जैसे कार्य होते हैं। राक्षस वृत्ति वाले पुरुष साम, दाम, दंड, भेद से, अपना ही अपना भला चाहते हैं। दूसरों को मार कर स्वयं आनन्द में मस्त रहते हैं। उन्हें किसी के दुःख, तकलीफ, मरने-जीने से कोई सरोकार नहीं है। ऐसे अविवेकी मांस भक्षण, रति प्रेम, व्यभिचार, चोरी, रिश्वत खोरी, भ्रष्टाचार, गुप्त पाप किया करते हैं। ‘‘खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ’’ यही उनका आदर्श है। दुर्भोग, व्यभिचार, मांस भक्षण, मद्यपान, भोग उसके आनन्द के ढंग हैं। सत्पुरुष आज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता, कल के लिए योजना बनाता, धन, अनाज, वस्त्र इत्यादि का संग्रह करता, अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखता, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और भावी उन्नति का विचार रखता है। वह पृथ्वी पर ही अपनी सद्भावनाओं तथा सद्इच्छाओं द्वारा स्वर्ग का निर्माण करता है। वह जानता है कि जीवन में सफलता की कसौटी नहीं है। धन वह साधन है जिसके द्वारा पुण्य जीविका एकत्र की जाती है। वह पाप जीविका, छल जीविका, जुआ, सट्टा, भिक्षा, ब्याज से दूर रहता है। वह दूसरे को ठगने का प्रयत्न नहीं करता। उसकी जीविका उपार्जन का कार्य सदुद्देश्य से होता है। सचाई और पुण्य की कमाई से खूब फूलता फलता है। बुराई से खरीदी हुई प्रतिष्ठा क्षणिक होती है। यथाशक्ति वह दूसरों को दान पुण्य से सहायता करता है। जीवन निर्वाह के बदले वह उचित सेवा भी करता है। देव तुल्य जीवन का उद्देश्य त्याग तथा साधना द्वारा जन सेवा के कार्य हैं। यह सेवा शरीर, मन या शुभ विचारों के द्वारा हो सकती है। विश्व कल्याण के लिए जीने वाले व्यक्ति मनुष्य होते हुए भी देवता हैं। वह अपनी बुद्धि एवं ज्ञान को विश्वहित के लिए बलिदान करता है ज्ञान चर्चा द्वारा वह दूसरों का मन भी उच्च विषयों की ओर फेरता है। उसकी दिनचर्या में उत्तम प्रवचनों का श्रवण, शंका निवारण, पठन, चिन्तन, आत्मनिरीक्षण निर्माण और उपदेश होते हैं। वह संसार की वासनाओं के ऊपर शासन करता है। हमारे उत्सव तथा त्यौहार— सुखद पारिवारिक जीवन के लिए उत्सव तथा त्यौहार बड़े उपयोगी हैं। इनके द्वारा अनेक लाभ हैं। (1) अच्छा मनोरंजन होता है। इसमें सम्मिलित रूप से समस्त परिवार के व्यक्ति सम्मिलित हो सकते हैं। अभिनय, गान, कीर्तन, पठन पाठन, स्वाध्याय इत्यादि साथ-साथ करने से सब में भ्रातृ भाव का संचार होता है। (2) समता का प्रचार त्यौहारों में हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति सामूहिक रूप से उन्हें सफल बनाने का उद्योग करता है। (3) पुराने सांसारिक एवं आध्यात्मिक गौरव की स्मृति पुनः हरी हो जाती है। यदि हम गहराई से विचार करें, तो हमें प्रतीत होगा कि प्रत्येक त्यौहार का कुछ गुप्त आध्यात्मिक अर्थ है। हिन्दू उत्सव एवं त्यौहारों में समता, सहानुभूति तथा पारस्परिक संगठन की पवित्र भावना निहित है। इन गुणों का विकास होता है। (4) आध्यात्मिक उन्नति का अवसर हमें इन्हीं त्यौहारों द्वारा प्राप्त होता है। हमारे प्रत्येक उपवास, मौनव्रत, समारोह का अभिप्राय सब परिवार में प्रेम, ईमानदारी, सत्यता, उदारता, दया, श्रद्धा, भक्ति और उत्साह के भाव उत्पन्न करना होता है। ये सब आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं ये ही मनुष्य की स्थायी शक्तियां हैं। ये उत्सव तथा त्यौहार केवल रस्म अदायगी, बाह्य दर्शन या झूठा दिखावा मात्र न बनें, प्रत्युत पारिवारिक भावना, संगठन, एकता, समता और प्रेम की भावनाओं के विकास में सहायक हों। पारिवारिक जीवन का विकास करने के लिए हमें कटुता और विषमता की भावना त्यागनी होगी, स्नेह सरिता प्रवाहित करनी होगी और सहानुभूति का सूर्य उदय करना होगा। उत्सव और त्यौहारों में हम सबको एक ही स्थान पर एकत्रित होने का अवसर प्राप्त होता है, हम मिलजुल कर परस्पर विचार विनिमय कर सकते हैं, एक ही विषय पर सोच विचार कर अपनी समस्याओं का हल सोच सकते हैं। परस्पर साथ रहने से हम एक दूसरे के गुण-दोषों की ओर भी संकेत कर सकते हैं। ये वे अवसर हैं जो पारस्परिक भेदभाव भुला कर पुनः स्नेह सहानुभूति में आबद्ध करते हैं। बड़े उत्साह से हमें इन्हें मनाना चाहिये। मूर्खतापूर्ण आदतें— वे आदत कौन हैं जिनसे परिवार का सर्वनाश होता है? प्रथम तो स्वार्थमय दृष्टिकोण है जिसकी संकुचित परिधि में केवल मुखिया ही रहता है। जो मुखिया अपने आप अच्छी से अच्छी चीजें खाता, सुन्दर वस्त्र पहिनता, अपने आराम का ध्यान रखता है और परिवार के अन्य सदस्यों को दुःखी रखता है, वह दुर्मति है। इसी प्रकार अत्यधिक क्रोधी, कामी, अस्थिर चित्त, मारने-पीटने वाला, वेश्यागामी व्यक्ति परिवार के लिये अभिशाप है। अनेक परिवार अभक्ष्य पदार्थ के उपभोग के कारण नष्ट हुए हैं। शराब ने अनेक परिवारों को नष्ट किया है। इसी प्रकार सिगरेट, पान, तम्बाकू, बीड़ी, गांजा, भांग, चरस, चाय इत्यादि वस्तुओं में सबसे अधिक धन स्वाहा होता आया है। इन चीजों से जब खर्चा बढ़ता जाता है तो उसकी पूर्ति जुआ, सट्टा, चोरी, रिश्वत, भ्रष्टाचार से की जाती है। जो व्यक्ति संयमी नहीं है, उससे उच्च आध्यात्मिक जीवन की कैसे आशा की जा सकती है। नशे में मनुष्य अपव्यय करता है और परिवार तथा समाज के उत्तरदायित्व को पूर्ण नहीं कर पाता। विवेकहीन होने के कारण वह दूसरों का अपमान कर डालता है, व्यर्थ सताता है, मुकदमेबाजी चलाता है। समय और धन नष्ट हो जाता है। शराबी लोगों के गृह नष्ट हो जाते हैं, प्रतिष्ठा की हानि होती है, बच्चों और पत्नी की दुर्दशा हो जाती है। जो लोग भंग अफीम इत्यादि का नशा करते हैं वे भी एक प्रकार के मद्यपी ही परिगणित किये जायेंगे। मांस भक्षण भी एक ऐसा ही दुष्कर्म है, जिससे प्राणी मात्र को हानि होती है। इससे हिंसा, प्राणीवध, भांति-भांति के जटिल रोग उत्पन्न होते हैं। पशु प्रकृति जाग्रत होती है। अधिक मिठाइयां या चाट पकौड़ी खाना भी उचित नहीं है। कर्जा लेने की आदत अनेक परिवारों को नष्ट करती है। विवाह, जन्मोत्सव, यात्रा, आमोद-प्रमोद में अधिक व्यय करने के आदी अविवेकी व्यक्ति अनाप-सनाप व्यय करते हैं। कर्जा लेते हैं और बाद में रोते हैं। एक बार का लिया हुआ कर्ज भी नहीं उतरता। सामान और घर तक बिक जाते हैं। आभूषण बेचने तक की नौबत आती है। इसी श्रेणी में मुकदमेबाजी आती है। यथाशक्ति आपस में सुलह मेल-मिलाप कर लेना ही उचित है। मुकदमे के चक्र में समय और धन दोनों की बरबादी होती है। व्यभिचार सम्बन्धी आदतें समाज में पाप और छल की वृद्धि करती हैं। विवाहित जीवन में जब पुरुष अन्य स्त्रियों के सम्पर्क में आते हैं, तो समाज में पाप फैलता है। कुटुम्ब का प्रेम, समस्वरता, संगठन नष्ट हो जाता है। गृह पत्नी से विश्वासघात होने से सम्पूर्ण घर का वातावरण दूषित और विषैला हो उठता है। शोक है कि इस पाप से हम सैकड़ों परिवारों को नष्ट होते देखते हैं। और फिर भी ऐसी मूर्खतापूर्ण आदतें डाल लेते हैं। आज के समाज में प्रेयसी, सखी, फ्रेन्ड के रूप में खुला आदान-प्रदान चलता है। इसके बड़े भयंकर दुष्परिणाम होते हैं।
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