Books - प्रज्ञा पुराण भाग-1
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लोककल्याण- जिज्ञासा प्रकरण - प्रथमोऽध्यायः-6
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गट्ठर नहीं टूटा
एक पिता के चार पुत्र थे। चारों में प्राय: झगड़ा बना रहता। इससे उनकी शारीरिक और आर्थिक ही नहीं मानसिक और बौद्धिक अवनति भी होती जा रही थी। यह देखकर पिता बड़ा दु:खी हुआ। पिता ने मरते समय अपने पुत्रों को बुलाया और उन्हें एक लकड़ी का गट्ठर दिया और कहा- 'तोड़ो इसे। ' लड़कों ने भरसक प्रयत्न किया परन्तु न तोड़ सके। अन्त में उसने कहा- 'एक- एक लकड़ी को तोड़ो। ' तब वह बड़े आराम से टूटने लगीं। तब पिता ने कहा- 'यदि इस प्रकार मिलकर रहोगे तो कोई तुम्हारा कुछ बिगाड़ न सकेगा और यदि फूट रही तो इसी प्रकार जैसे लकड़ियाँ क्षण में ही टूट गईं, वैसे ही नष्ट हो जाओगे। ' उस दिन से लड़के मिलकर रहने लगे।
सहयोग, त्याग और उदारता जैसी महानताओं का जनक है। जब इस तरह की वृत्तियाँ पनपने लगती हैं तो महान् साधन अपने आप उपलब्ध होने लगते है।
तिनके मिलने से रस्सा बँटने और सींकों के समन्वय से बुहारी बनने की बात सभी जानते और मानते हैं। साथ ही यह भी अनुभव करते हैं कि एक घटक चाहे कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, सीमित प्रभाव ही प्रस्तुत कर सकता है। बडे़ काम सदा संयुक्त प्रयासों से ही सम्पन्न होते रहे हैं।
पाण्डव विजयी क्यों?
पाण्डवों के अज्ञात वास से लौटने के बाद श्रीकृष्ण भगवान ने उनकी मन:स्थिति परखी और परिस्थिति को देखते हुए कौरवों से संघर्ष हेतु- महाभारत हेतु प्रवृत्त किया। असमंजस को देखते हुए उन्होंने कह- 'तुम्हारा विजयी होना सुनिश्चित है क्योंकि तुम पाँच होते हुए भी एक हो- और कौरव गण सौ होते हुए भी अलग- अलग मत वाले हैं। संघशक्ति के कारण ही नीति पक्ष की विजय होती है। ' हुआ भी यही। पाण्डवों में कोई सेनापति नहीं था। प्रतीक रूप में पाँच पाण्डवों को छोड़कर धृष्टद्युम्न को सेनापति पद दे दिया गया। संगठन शक्ति, सहयोग- सहकार के कारण वे विजयी हुए परन्तु कौरव गण सेनापति पद के लिए ही लड़ते रहे, परस्पर विरोध- विग्रह ही उनकी हार का मूल कारण बना।
धर्मस्य चेतनां भूयो जीवितां कर्तुमद्य तु। अधिष्ठात्रीं युगस्यास्य महाप्रज्ञामृतम्भराम् ॥६१॥ गायत्रीं लोकचित्ते तां कुरु पूर्णाप्रतिष्ठिताम्। पराक्रमं च प्रखरं कर्तुं सर्वत्र नारद ॥७०॥ पवित्रतोदारतां तु यज्ञजां च प्रचण्डताम्। प्रखरां कर्तुमेवाद्यानिवार्यं मन्यतां त्वया ॥७१॥
टीका- आज धर्मचेतना को पुनर्जीवित करने के लिए इस युग की अधिष्ठात्री महाप्रज्ञा ऋतम्भरा गायत्री को लोकमानस में प्रतिष्ठित किया जाय। हे नारद! पराक्रम की प्रखरता के लिए सर्वत्र यज्ञीय पवित्रतार उदारता एवं प्रचंडता को प्रखर करने की आवश्यकता है॥६९- ७१॥
व्याख्या- महाप्रज्ञा को अध्यात्म की भाषा में गायत्री कहते हैं। इसके दो पथ हैं- एक दर्शन अर्थात् तत्वचिंतन- अध्यात्म, दूसरा व्यवहार अर्थात् शालीनता युक्त आचरण- धर्म। महाप्रज्ञा की परिणति अन्त:क्षेत्र में प्रतिष्ठित होने पर साधक के व्यक्तित्व में आमूल- चूल परिवर्तन ला देती है। आत्मिक विभूतियाँ- ऋद्धियाँ तथा लोक व्यवहार में प्राप्त सम्पदा- सिद्धियाँ इसी के तत्व चिन्तन का प्रतिफल हैं।
महाप्रज्ञा का माहात्म्य
शास्त्रों में महाप्रज्ञ की श्रेष्ठता के विषय में अनेक उदाहरण हैं। अत्रिशइष कहते हैं-
नास्ति गंगा समं तीर्थ न देव: केशवात्यर:। गायत्र्यास्तु परं जाप्यं न भूतं न भविष्यति ॥ - अत्रि
अर्थ- गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव के समान कोई देवता नहीं, गायत्री से श्रेष्ठ कोई जप न कभी हुआ है और न आगे होगा।
शास्त्रों में उन परिस्थितियों को जिनमें मनुष्य वातावरण से प्रभावित होकर दुष्कर्मों की ओर अग्रसर होता है, कलियुग कहा गया है। ऐसी परिस्थितियों के प्रभाव से उनके परिणाम स्वरूपहोने वाले दुष्कर्मो की ओर प्रेरणा, दबाव तथा उनसे बचे रहने के उपाय के सम्बन्ध में राजा जनमेजय मे महर्षि व्यास से पूछा तो महर्षि व्यास ने उत्तर दिया कि इसके लिए भगवती महाशक्ति का आश्रय लेना ही सर्वोत्तम है। उनकी शरण में जाने वाले की अन्त:प्रेरणा उसे दुष्कर्मो से और दुष्ट भावों से बचाती है। फलत: वह उन बाह्य एवं आन्तरिक कुकर्मो, कुभावों से भी बच जाता है, जिनकी प्रेरणा कलियुग के कुपथ पर चलने वालों से निरन्तर मिलती रहती है।
महर्षि व्यास और जनमेजय का देवी भगवत में यह सम्वाद इस प्रकार है-
भगवन्! सर्वधर्मज्ञ! सर्वशास्त्र विशारद। कलावधर्मअहुले नराणां का गतिर्भवेत्। यद्यस्ति तदुपायश्चेद्दयया तं वदस्व मे। एक एव महाराज तत्रोपायस्तु नापर: ॥ सर्वदोषनिरासार्थं ध्यायेद्देवी पदाम्बुजम् ॥
महर्षि वेद व्यासजी से राजा जनमेजय युगधर्म के कराल समय में सद्गति का उपाय पूछते हुए कहते हैं- हे सम्पूर्ण धर्म के तत्वज्ञाता और समस्त शास्त्रों के महामनीषी! अधर्म से परिपूर्ण इस घोर कलियुग में मनुष्यों की गति कैसे होगी, यदि इसका कोई उपाय हो तो आप कृपा करके बतलाये। व्यास महर्षि ने कहा- आज जैसीं परिस्थितियाँ हैं, उनमें गायत्री उपासना का अवलम्बन किए बिना कोई और विकल्प नहीं। वही विवेक की स्थापना कर संकीर्णता, विभेद को मिटा सकती है तथा समस्त मानव समाज को एकता के सूत्र में बाँध सकती है। गायत्री को मात्र २४ अक्षरों में लिखा हुआ सारगर्भित धर्म शास्त्र कह सकते है। यह मानवी एकता एवं गरिमा के अनुकूल बना शाश्वत संविधान है।
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का कथन है- गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मंत्र नहीं। सम्पूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप गायत्री मन्त्र की एक कला के समान भी नहीं है।
वशिष्ठ- विश्वामित्र संवाद में वर्णन आता है कि महाप्रज्ञा की श्रेष्ठता पर प्रश्न किये जाने पर मुनिवर वशिष्ठ ने कहा था- "महाप्रज्ञा"गायत्री का सार तत्व एक ही शब्द 'धीमहि' में सन्निहित है। अर्थात् हम उस श्रेष्ठता क्रो अपने अन्दर धारण करें। जब लोक मानस में श्रेष्ठता की सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित होंगी तो कहीं कोई संकट शेष न रहेगा। "
देवी भागवत में गायत्री उपासना के माहात्म्य पक्ष पर एक कथा आती है।
व्यासजी ने जनमेजय से कहा- एक बार पन्द्रह वर्षो तक वर्षा नहीं हुई, इस अनावृष्टि के कारण भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। असंख्य प्राणी भूख से तड़पकर मर गये। उनकी लाशें घरों में सड़ने लगीं।
तब सज्जनों ने इकट्ठे होकर विचार किया कि गायत्री के परम उपासक तपोनिष्ठ गौतम के पास चलना चाहिए, वे इस विपत्ति को दूर कर सकेंगे। वे सब मिलकर गौतम के पास गये और कष्ट सुनाया।
आगन्तुकों को सम्मानपूर्वक आश्वासन देकर गौतम ऋषि ने सर्वशक्तिमान गायत्री से उस संकट के निवारण के लिए प्रार्थना की।
जगद्माता गायत्री ने प्रसन्न होकर गौतम ऋषि को समस्त प्राणियों का पोषण कर संकने में समर्थ एक पूर्ण पर्त्रि दिया और कहा- इससे तुम्हारी समस्त अभीष्ट अभिलाषाएँ पूर्ण हो जाया करेंगी। यह कहकर वेदमाता अर्न्तधान हो गई और उस पात्र की कृपा से अन्न के पर्वतों जैसे ढेर लग गये।
गौतम ऋषि ने आगन्तुकों के निमित्त आश्रम में ही गायत्री का एक परम तीर्थ बना दिया जहाँ रहकर वे सब गायत्री माता के पुरश्चरण भक्तिपूर्वक करने में संलग्र हो गये।
आज का युग बुद्धि और तर्क का, प्रत्यक्षवाद का युग है। इस शताब्दी के भी सभी महापुरुषों ने गायत्री के महत्व को उसी प्रकार स्वीकार किया है जैसा कि प्राचीन काल के तत्वदर्शी ऋषियों ने किया था। महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक, महामना मालवीयजी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, योगिराज श्री अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ एवं महर्षि रमण आदि ने जनमानस को उत्कृष्टता की ओर बढ़ाने के लिए गायत्री महाशक्ति की अभ्यर्थना का ही संकेत किया है।
एक पिता के चार पुत्र थे। चारों में प्राय: झगड़ा बना रहता। इससे उनकी शारीरिक और आर्थिक ही नहीं मानसिक और बौद्धिक अवनति भी होती जा रही थी। यह देखकर पिता बड़ा दु:खी हुआ। पिता ने मरते समय अपने पुत्रों को बुलाया और उन्हें एक लकड़ी का गट्ठर दिया और कहा- 'तोड़ो इसे। ' लड़कों ने भरसक प्रयत्न किया परन्तु न तोड़ सके। अन्त में उसने कहा- 'एक- एक लकड़ी को तोड़ो। ' तब वह बड़े आराम से टूटने लगीं। तब पिता ने कहा- 'यदि इस प्रकार मिलकर रहोगे तो कोई तुम्हारा कुछ बिगाड़ न सकेगा और यदि फूट रही तो इसी प्रकार जैसे लकड़ियाँ क्षण में ही टूट गईं, वैसे ही नष्ट हो जाओगे। ' उस दिन से लड़के मिलकर रहने लगे।
सहयोग, त्याग और उदारता जैसी महानताओं का जनक है। जब इस तरह की वृत्तियाँ पनपने लगती हैं तो महान् साधन अपने आप उपलब्ध होने लगते है।
तिनके मिलने से रस्सा बँटने और सींकों के समन्वय से बुहारी बनने की बात सभी जानते और मानते हैं। साथ ही यह भी अनुभव करते हैं कि एक घटक चाहे कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, सीमित प्रभाव ही प्रस्तुत कर सकता है। बडे़ काम सदा संयुक्त प्रयासों से ही सम्पन्न होते रहे हैं।
पाण्डव विजयी क्यों?
पाण्डवों के अज्ञात वास से लौटने के बाद श्रीकृष्ण भगवान ने उनकी मन:स्थिति परखी और परिस्थिति को देखते हुए कौरवों से संघर्ष हेतु- महाभारत हेतु प्रवृत्त किया। असमंजस को देखते हुए उन्होंने कह- 'तुम्हारा विजयी होना सुनिश्चित है क्योंकि तुम पाँच होते हुए भी एक हो- और कौरव गण सौ होते हुए भी अलग- अलग मत वाले हैं। संघशक्ति के कारण ही नीति पक्ष की विजय होती है। ' हुआ भी यही। पाण्डवों में कोई सेनापति नहीं था। प्रतीक रूप में पाँच पाण्डवों को छोड़कर धृष्टद्युम्न को सेनापति पद दे दिया गया। संगठन शक्ति, सहयोग- सहकार के कारण वे विजयी हुए परन्तु कौरव गण सेनापति पद के लिए ही लड़ते रहे, परस्पर विरोध- विग्रह ही उनकी हार का मूल कारण बना।
धर्मस्य चेतनां भूयो जीवितां कर्तुमद्य तु। अधिष्ठात्रीं युगस्यास्य महाप्रज्ञामृतम्भराम् ॥६१॥ गायत्रीं लोकचित्ते तां कुरु पूर्णाप्रतिष्ठिताम्। पराक्रमं च प्रखरं कर्तुं सर्वत्र नारद ॥७०॥ पवित्रतोदारतां तु यज्ञजां च प्रचण्डताम्। प्रखरां कर्तुमेवाद्यानिवार्यं मन्यतां त्वया ॥७१॥
टीका- आज धर्मचेतना को पुनर्जीवित करने के लिए इस युग की अधिष्ठात्री महाप्रज्ञा ऋतम्भरा गायत्री को लोकमानस में प्रतिष्ठित किया जाय। हे नारद! पराक्रम की प्रखरता के लिए सर्वत्र यज्ञीय पवित्रतार उदारता एवं प्रचंडता को प्रखर करने की आवश्यकता है॥६९- ७१॥
व्याख्या- महाप्रज्ञा को अध्यात्म की भाषा में गायत्री कहते हैं। इसके दो पथ हैं- एक दर्शन अर्थात् तत्वचिंतन- अध्यात्म, दूसरा व्यवहार अर्थात् शालीनता युक्त आचरण- धर्म। महाप्रज्ञा की परिणति अन्त:क्षेत्र में प्रतिष्ठित होने पर साधक के व्यक्तित्व में आमूल- चूल परिवर्तन ला देती है। आत्मिक विभूतियाँ- ऋद्धियाँ तथा लोक व्यवहार में प्राप्त सम्पदा- सिद्धियाँ इसी के तत्व चिन्तन का प्रतिफल हैं।
महाप्रज्ञा का माहात्म्य
शास्त्रों में महाप्रज्ञ की श्रेष्ठता के विषय में अनेक उदाहरण हैं। अत्रिशइष कहते हैं-
नास्ति गंगा समं तीर्थ न देव: केशवात्यर:। गायत्र्यास्तु परं जाप्यं न भूतं न भविष्यति ॥ - अत्रि
अर्थ- गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव के समान कोई देवता नहीं, गायत्री से श्रेष्ठ कोई जप न कभी हुआ है और न आगे होगा।
शास्त्रों में उन परिस्थितियों को जिनमें मनुष्य वातावरण से प्रभावित होकर दुष्कर्मों की ओर अग्रसर होता है, कलियुग कहा गया है। ऐसी परिस्थितियों के प्रभाव से उनके परिणाम स्वरूपहोने वाले दुष्कर्मो की ओर प्रेरणा, दबाव तथा उनसे बचे रहने के उपाय के सम्बन्ध में राजा जनमेजय मे महर्षि व्यास से पूछा तो महर्षि व्यास ने उत्तर दिया कि इसके लिए भगवती महाशक्ति का आश्रय लेना ही सर्वोत्तम है। उनकी शरण में जाने वाले की अन्त:प्रेरणा उसे दुष्कर्मो से और दुष्ट भावों से बचाती है। फलत: वह उन बाह्य एवं आन्तरिक कुकर्मो, कुभावों से भी बच जाता है, जिनकी प्रेरणा कलियुग के कुपथ पर चलने वालों से निरन्तर मिलती रहती है।
महर्षि व्यास और जनमेजय का देवी भगवत में यह सम्वाद इस प्रकार है-
भगवन्! सर्वधर्मज्ञ! सर्वशास्त्र विशारद। कलावधर्मअहुले नराणां का गतिर्भवेत्। यद्यस्ति तदुपायश्चेद्दयया तं वदस्व मे। एक एव महाराज तत्रोपायस्तु नापर: ॥ सर्वदोषनिरासार्थं ध्यायेद्देवी पदाम्बुजम् ॥
महर्षि वेद व्यासजी से राजा जनमेजय युगधर्म के कराल समय में सद्गति का उपाय पूछते हुए कहते हैं- हे सम्पूर्ण धर्म के तत्वज्ञाता और समस्त शास्त्रों के महामनीषी! अधर्म से परिपूर्ण इस घोर कलियुग में मनुष्यों की गति कैसे होगी, यदि इसका कोई उपाय हो तो आप कृपा करके बतलाये। व्यास महर्षि ने कहा- आज जैसीं परिस्थितियाँ हैं, उनमें गायत्री उपासना का अवलम्बन किए बिना कोई और विकल्प नहीं। वही विवेक की स्थापना कर संकीर्णता, विभेद को मिटा सकती है तथा समस्त मानव समाज को एकता के सूत्र में बाँध सकती है। गायत्री को मात्र २४ अक्षरों में लिखा हुआ सारगर्भित धर्म शास्त्र कह सकते है। यह मानवी एकता एवं गरिमा के अनुकूल बना शाश्वत संविधान है।
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का कथन है- गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मंत्र नहीं। सम्पूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप गायत्री मन्त्र की एक कला के समान भी नहीं है।
वशिष्ठ- विश्वामित्र संवाद में वर्णन आता है कि महाप्रज्ञा की श्रेष्ठता पर प्रश्न किये जाने पर मुनिवर वशिष्ठ ने कहा था- "महाप्रज्ञा"गायत्री का सार तत्व एक ही शब्द 'धीमहि' में सन्निहित है। अर्थात् हम उस श्रेष्ठता क्रो अपने अन्दर धारण करें। जब लोक मानस में श्रेष्ठता की सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित होंगी तो कहीं कोई संकट शेष न रहेगा। "
देवी भागवत में गायत्री उपासना के माहात्म्य पक्ष पर एक कथा आती है।
व्यासजी ने जनमेजय से कहा- एक बार पन्द्रह वर्षो तक वर्षा नहीं हुई, इस अनावृष्टि के कारण भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। असंख्य प्राणी भूख से तड़पकर मर गये। उनकी लाशें घरों में सड़ने लगीं।
तब सज्जनों ने इकट्ठे होकर विचार किया कि गायत्री के परम उपासक तपोनिष्ठ गौतम के पास चलना चाहिए, वे इस विपत्ति को दूर कर सकेंगे। वे सब मिलकर गौतम के पास गये और कष्ट सुनाया।
आगन्तुकों को सम्मानपूर्वक आश्वासन देकर गौतम ऋषि ने सर्वशक्तिमान गायत्री से उस संकट के निवारण के लिए प्रार्थना की।
जगद्माता गायत्री ने प्रसन्न होकर गौतम ऋषि को समस्त प्राणियों का पोषण कर संकने में समर्थ एक पूर्ण पर्त्रि दिया और कहा- इससे तुम्हारी समस्त अभीष्ट अभिलाषाएँ पूर्ण हो जाया करेंगी। यह कहकर वेदमाता अर्न्तधान हो गई और उस पात्र की कृपा से अन्न के पर्वतों जैसे ढेर लग गये।
गौतम ऋषि ने आगन्तुकों के निमित्त आश्रम में ही गायत्री का एक परम तीर्थ बना दिया जहाँ रहकर वे सब गायत्री माता के पुरश्चरण भक्तिपूर्वक करने में संलग्र हो गये।
आज का युग बुद्धि और तर्क का, प्रत्यक्षवाद का युग है। इस शताब्दी के भी सभी महापुरुषों ने गायत्री के महत्व को उसी प्रकार स्वीकार किया है जैसा कि प्राचीन काल के तत्वदर्शी ऋषियों ने किया था। महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक, महामना मालवीयजी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, योगिराज श्री अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ एवं महर्षि रमण आदि ने जनमानस को उत्कृष्टता की ओर बढ़ाने के लिए गायत्री महाशक्ति की अभ्यर्थना का ही संकेत किया है।