Books - प्रज्ञायोग की सुगम साधना
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प्रज्ञायोग की सुगम साधना
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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ बोलें-
"ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।।"
देवियो, भाइयो! भगवान के अवतार समय- समय पर हुए हैं और जब जिस काम के लिए जरूरत पड़ी है, तब- तब उसी काम के लिए उन्होनें अवतार उसी तरह का धारण किया है। यह समय इस तरह का है कि इसमें आस्था संकट छाया हुआ है। सब जगह आस्थाएँ कमजोर पड़ गई हैं। आदर्शों के लिए कहिए, उत्कृष्टताओं के लिए कहिए सबके लिए आस्था कमजोर पड़ गई हैं। आस्थाएँ कमजोर पड़ने की वजह से जो आदमी काम कर रहा है, चिंतन कर रहा है, यह गलत कर रहा है। उसका निवारण करने के लिए भगवान का नया अवतार होना चाहिए। वह प्रज्ञा अवतार होगा। निष्कलंक भी इसी को कहते हैं। दसवाँ अवतार या चौबीसवाँ अवतार निष्कलंक अवतार है, जिसे प्रज्ञा अवतार भी कहते हैं।प्रज्ञा दूरदर्शी विवेकशीलता को कहते हैं। केवल वही निष्कलंक है और सबमें कलंक लगा हुआ है। इसलिए यह महाप्रज्ञा के अवतार का जो समय है, इसको आप बहुत महत्त्वपूर्ण मानें और इसी का स्मरण करें। अपनी उपासना में इसी का समावेश करें।
गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। सरस्वती, काली, लक्ष्मी इसके ही भीतर आ जाती हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी इसी के अंतर्गत आ जाते हैं। यह आदिशक्ति है। ब्रह्मा जी को तप करके सारे विश्व की सृष्टि को बनाने के लिए जो शक्ति मिली थी, इसी के द्वारा मिली थी। अब यही महाप्रज्ञा आदि- शक्ति गायत्री के रूप में नया अवतार ग्रहण कर रही है, आस्था संकट का निवारण करने के लिए। कैसे होगा यह अवतार? आपको मालूम है ना कि सीताजी का जन्म क्यों हुआ था? रावण को मारने के लिए जब सीताजी की जरूरत थी तब ऋषियों ने अपना रक्त एकत्र करके एक घड़े में बंद किया था। उसे जमीन में गाढ़ दिया था। राजा जनक ने उस घड़े को निकाला और सीताजी का जन्म हुआ। दुर्गा का अवतार कैसे हुआ, आपको मालूम है? सब के सब देवता इकट्ठा होकर प्रजापति के पास गए और प्रजापति से कहा," अब यह दैत्य हमारे संभालने में नहीं आते। आप ही कोई तरकीब बताइए।" उन्होंने कहा,"तुम सबकी शक्ति को इकट्ठा करके अभी हम दुर्गा का अवतार करेंगे और वह सारे के सारे दैत्यों का संहार कर देगी।"
भगवान सबको समान मानते हैं। आप भी उसमें शामिल हैं और जो नहीं आए हैं वे भी शामिल हैं। सब मिलकर के एक एसी सामूहिक उपासना करेंगे प्रज्ञा की, महाप्रज्ञा की आदिशक्ति की जिससे इस समय का जो आस्था संकट है और जिसने सारे के सारे इस विश्व को अस्त- व्यस्त कर रखा है, उसका निवारण किया जा सकना संभव हो सके। कैसे करना चाहिए? क्या करना पड़ेगा इसके लिए? इसका नाम प्रज्ञायोग रखा है हमने क्योंकि इसमें कई चीजें शुमार हैं। इसलिए प्रज्ञयोग की साधना, हम सब लोगों को करनी चाहिए। प्रज्ञायोग क्या है? प्रज्ञायोग में ज्ञान, कर्म और भक्ति की जिनको आप सरस्वती, लक्ष्मी, काली कहते हैं ये तीनों शक्तियाँ शामिल हैं। जिन्हें आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहते हैं, तीनों ही चीजों का इसमें समावेश है। यह आपको करना पड़ेगा। कैसे करना पड़ेगा? चाहिए, आप लोग नोट करते जाइए इनको या फिर ध्यान में रखिए। छपा हुआ भी है। प्रज्ञायोग कैसे करना चाहिए? प्रज्ञायोग का पहला चरण है कि आप चारपाई पर इसे करें, चारपाई पर पड़े हुए। जब सवेरे उठे़ तो उठने से पहले जमीन पर पैर रखने से पहले आप यह विचार करें कि हमारा नया जन्म हुआ है और आज हम नया जन्म ले रहे हैं। रात में जब आपका बिस्तर लगे और जब आप सोने की तैयारी करें, उस समय आप इस तरीके से करें कि हमारा आज मृत्यु का दिन आ गया और अब हम भगवान की गोदी में जा रहे हैं। चौरासी लाख योनियों में घूमने के बाद मनुष्य का जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है। आप यह विचार कीजिए कि हम अच्छे से अच्छा आज का उपयोग करेंगे। आज का दिन बेकार नहीं जाने देंगे और रात को जब आप सोएँ, तब आप समझिए कि आज का दिन, आज का जन्म खत्म हुआ। आज की बातों की समीक्षा केजिए। सवेरे प्रात: काल सारे दिन की स्कीम बनाइए कि आज हमको करना क्या है? और शाम को इसकी समीक्षा कीजिए कि हमने कोई गलती तो नहीं की है और की है तो उसका सुधार कैसे होना चाहिए और परिमार्जन कैसे होना चाहिए? सुबह और शाम को यह आपका प्रात:कालीन, संध्याकालीन क्रम होना चाहिए।
इस तरह सांयकालीन संध्या आपकी बिस्तर पर ही होनी चाहिए। बिस्तर के बाद कर्मयोग का नंबर आता है। कैसा कर्मयोग? कर्मयोग का जवाब यह है कि आपको करना क्या है? यह तो केवल विचार हुआ? ज्ञान कहते हैं विचार करने को और कर्मयोग कहते हैं काम करने को। काम करने में क्या करना है? आप स्नान करके, कपड़े बदलकर झाड़ू लगा करके अपने पूजा के सारे सामान को साफ करके बैठिए। सबसे पहला काम शुद्धता है। अगर आपका मन शुद्ध है, शरीर शुद्ध है, जीवन शुद्ध है, आजीविका शुद्ध है तो समझना चाहिए कि आपकी उपासना की शुरूआत हुई और यदि आपका मन गन्दा है, आपका शरीर भी गन्दा है, आपकी कमाई भी गन्दी है, आपके विचार भी गन्दे हैं तो आप समझिए कि आप जो पूजा कर रहे हैं, उसका परिणाम नहीं मिलेगा। इसलिए शुद्धता पहला काम है।शुद्धता के लिए कुछ विधियाँ बताई गई हैं। कौन- कौन सी विधियाँ हैं? पवित्रिकरण है, आचमन है, प्राणायाम है, न्यास है। ये आपने हमारे सब पुस्तकों में पढ़े होंगे। इन सब क्रियाओं का मतलब यह होता है कि आप अपने मन को, अपने वचन को, अपनी वाणी को, अपनी क्रीयाओं को और अपने इष्ट- चिंतन को, इन्द्रियों को सबको पुनीत बना रहे हैं। जो मलिनताएँ उनके अन्दर छाई हुई होंगी, उनको हम निकालेंगे। न्यास का अर्थ यह ही होता है कि हमारी जो इन्द्रियाँ हैं पाँचों इनका उपयोग हम ठीक तरीके से करेंगे। अच्छे काम में करेंगे। गलत या गंदे रूप में नहीं करेंगे। प्राणायाम का अर्थ होता है कि जो साँस हम लेंगे तो हमारी वह हर साँस इस तरीके से चलेगी कि इसमें कहीं कोई कमी और खामी न हो। इसी तरीके से जो आप सारे शरीर के ऊपर जल छिड़कते हैं, तीन बार आचमन करते हैं, उसका भी अर्थ यह है कि हमारे मन, वचन और कर्म तीनों ही स्वस्थ बनेंगे। इसके लिए सबसे पहले उपासना की आवश्यकता होगी।
इसके बाद में आपको देव पूजन करना पड़ेगा। देवपूजन किसका। भगवान का। भगवान तो निराकार हैं।मगर पूजा के समय में उनको साकार बनाया जाता है। गायत्री का कोई चित्र आपने रखा हो, कोई मूर्ति रखी हो, कुछ ना कुछ तो आपको रखना ही पड़ेगा। बिना प्रतेक के पूजा नहीं हो सकती। प्रतीक- पूजा होना आवश्यक है।भगवान निराकर हैं तो साकार भी तो हैं। आपने हमें शरीर में देखा है तो हम ये शरीर थोड़े ही है। हम तो जीवात्मा हैं।उसको आपको दिखाएँ? नहीं दिखाएँगे आपको। वह तो निराकर है। गायत्री माता क मूर्ति य चित्र जो भी अपने रखा हो, उसके सामने पाँच चीजों से पूजन् किया जाता है। पाँच चीजें क्या हैं? वैसे सोलह चीजें भी हैं। जल एक, अक्षत दो, धूप या सुगन्ध तीन, पुष्प चार और मीठा या प्रसाद पाँच। वे क्यों? उनको फूलों की जरूरत क्यों पड़ गई? भगवान को जरूरत नहीं पड़ गई। आपको स्मरण दिलाया गया है कि भगवान की आपकी पूजा तब सार्थक मानी जाएगी, जब आप इन चीजों को प्रतीक मानकर के अपना जीवन भी उसी तरीके का बनाएँ। जल सरस होता है, प्रवाही होता है। आपको सरस होना चाहिए। जल के समान कोमल होना चाहिए।
अक्षत? अक्षत का मतलब यह है कि जो आप कमाते हैं उसमें से एक अंश भगवान के लिए लगाइए। धूप? चाहे आप धूल जलाएँ, चाहे अगरबत्ती जलाएँ, दीपक जलाएँ, कुछ भी जलाएँ सुगन्ध जलाएँ तो आपका जीवन चंदन के तरीके से सुगन्ध फैलाने वाला हो। फूल? फूल कैसा कोमल होता है? कैसा सुन्दर होता है? आपका जीवन ऐसा सुन्दर होना चाहिए। ऐसा कोमल होना चाहिए और भगवान के चरणों पर चढ़ना चाहिए। याचक की सार्थकता इसमें है कि वह भगवान की चरणों पर चढे़, गले में पड़े। आपका जीवन ऐसा होन चाहिए। मिठास या मीठा? कोई मीठी चीज भगवान को खिलाते हैं, नमकीन नहीं। इसका अर्थ यह होता है कि आपकी वाणी, आपका व्यवहार ऐसा हो जिसमें मिठास ही मिठास भरी हो। जब आप किसी से बातचीत करें तो उसमें मिठास भरी हो। जब आप कोई व्यवहार करें तो ऐसा व्यवहार करें जिसमें मिठास भरी हुई हो। इस तरीके से देवपूजन में पाँचों चीजों का मतलब यह होता है कि हम स्वयं शिक्षा ग्रहण करें उनसे। ऐसा नहीं है कि भगवान को इनकी आवश्यकता नहीं है। धूपबत्ती आप जलाएँगे नहीं तो भगवान के लिए कोई मुश्किल आएगी। दीपक आप नहीं जलाएँगे तो भगवान को दिखाई नहीं पड़ेगा। यह मतलब नहीं है। भगवान के लिए नहीं, बल्कि अपनी याददाश्त को सही करने के लिए और अपनी जीवन- क्रिया के माप- तौल करने के लिए, उसका मापदण्ड रखने के लिए यह क्रम लिखे गए हैं।
चलिए, अब इसके बाद क्या करना चाहिए? इतना सब कुछ कर लेने के बाद जप और ध्यान करना चाहिए। जप किसका करना चाहिए? कितना करना चाहिए? गायत्रीमंत्र का जप करना चाहिए क्योंकि प्रज्ञा की देवी वह ही हैं। कितनी माला करनी चाहिए? तीन, तीन तो कम से कम करनी चाहिए। ज्यादा कर सकें तो आप ज्यादा कर लीजिए। तीन क्यों? तीन इसलिए कि आत्मपरिष्कार के लिए एक। जीवात्मा का नित्य संशोधन हो इसके लिए दो। तीसरी माला वातावरण संशोधन के लिए। इसका उद्देश्य यह है कि जो सारा का सारा वातावरण गंदा हो रहा है, उसकी सफाई करने के लिए, एक माला और एक यह कि हम और आप मिलकर काम कर रहे हैं। जो मिशन है, जो प्रज्ञा अभियान है, उसकी सफलता के लिए। इस तरह प्रज्ञा अभियान की सफलता के लिए एक ,, वातावरण के परिशोधन के लिए एक, और अपनी जीवन के संशोधन के लिए एक। तीन मालाएँ तो कम से कम आपको करनी ही चाहिए। ज्यादा कर सकें तो ज्यादा करिए। ज्यादा में कोई मनाही नहीं है। पर कम से कम तीन माला तो करनी ही हैं। यह मिनिमम है। मक्सिमम- ज्यादा कर सकते हैं आप। ज्यादा के लिए कोई सीमा नहीं है आपके लिए। अच्छा यह गायत्री का जप हुआ। इस तरीके से जप कीजिए कि किसी पास बैठे को सुनाई नहीं पडे़। माला से कर लीजिए। उँगलियों पर कर लीजिए गिनके। इस तरीके से तीन माला का बंधन निभाइए। प्रज्ञायोग तीन माला से कम में नही होता।
जप के साथ ध्यान करना चाहिए। जप और ध्यान का, दोनों का मिला समन्वय समझना चाहिए। ध्यान किसका करना चाहिए? सविता गायत्री का देवता है। प्रात:काल के समय पर। प्रात:काल सूरज आपने देखा है न। गायत्री का सूरज इसे ही मानना चाहिए। यूनिवर्सल है यह। गायत्री माता का जो चित्र आपने रखा है। वह तो आप हिंदू हैं तो रखा है और अगर आप मुसलमान हैं तो आप नहीं रखेंगे। इसलिए देवपूजा तो केवल हिंदूओं के लिए है और यह जो है, सविता का ध्यान, सविता का ध्यान सबके लिए है। यूनिवर्सल है। मुसलमान धर्म में, इसाई धर्म में, सब जगह भगवान का प्रतीक प्रकाश को माना गया है तो सविता प्रात:काल का निकलता हुआ सुनहरा सूर्य, उसका आप ध्यान करते जाइए। गायत्री का तीन माला- जप करने के साथ- साथ में एक और बात उसमें शामिल कीजिए कि सविता सवेरे का सूर्य पूर्व दिशा से निकलते हुए सूर्य के सामने आप छोटे बच्चे के तरीके से नंग बैठे हुए हैं और आपके मन में, आपके शरीर में और आपके अन्त:करण में, हृदय माना गया है, उसमें सविता की किरणें प्रवेश करती हैं तो आपकी अन्त:करण को भावनाओं से भर देती हैं। मस्तिष्क को ज्ञान से भर देती हैं। शरीर को बल से भर देती हैं या यह कहिए कि शरीर को श्रेष्ठ कर्म करने के लिए और बुद्धी को श्रेष्ठ चिंतन करने के लिए और भावनाओं में श्रेष्ठता भरने के लिए ये सविता कि किरणें हैं। ये अपना अनुग्रह और अपना अनुदान हमको दे रही है। जप करने के साथ- साथ में यह ध्यान करना आवश्यक है। जप करने से पहले देवपूजन चंदन, अक्षत और पुष्प, उसको मिलाकरके हमारा जीवन इस तरह का हो। फिर इसके बद में भगवान के अनुग्रह का भाव करना चाहिए। यह प्रतिज्ञा का भाव है। अनुग्रह का भाव है। भगवान ने इस रूप में, सूर्य में सविता के रूप में तीन अनुग्रह हमको दिए हैं। तीन क्षेत्रों में उनका प्रवेश हुआ है। इस तरह एक माला आत्मपरिष्कार के लिए, एक वातावरण के संशोधन करने के लिए और एक माला यह आपका प्रज्ञा- मिशन है इसकी सफलता के लिए। चलिए यह आपका जप हुआ।
जप करने के बाद में सूर्य अर्घ्यदान किया जाता है। भगवान को, सूर्य को, जो आपने जल रखा था, उस जल को सूर्य के सम्मुख चढ़ाते हैं। यह किस काम के लिए चढ़ाते हैं। यह समर्पण है। भगवान को, सूर्य को, सविता को समर्पण करते हैं। प्रात:काल आप जप कर रहे हों, तो आप पूर्व दिशा में जल चढ़ाइए ।सांयकाल को आप जप कर रहे हों तो पश्चिम दिशा में जल चढ़ाइए। सूर्य नारायण को भगवान का प्रतीक मान करके आप अपने आप का समर्पण करते हैं। समर्पण का चिन्ह क्या है? कैसे मानें कि समर्पण किया है किसी ने किया नहीं। अपना सुख बाँटना और दूसरे के दु:खों को बँटाना। किसी के दु:ख को आप बाँटते हैं और सुखों को आप लाकर के देतें हैं तो हम मानेंगे कि समर्पण आपने किया है, सूर्य भगवान को। पूजा- उपासना के पीछे, यह भावना करनी चाहिए। क्या करना चाहिए? पूजा- उपासना के बाद में आप जल चढ़ाएँ और साथ- साथ में यह भावना करें कि भगवान को अर्थात भगवान के संसार को, हम अपने सुखों को बाँटेंगे और संसार में अर्थात भगवान का विराट रूप है, विराट विश्व है, इसमें जो दु:ख फैले हुए हैं, उनको घटाने के लिए हम कोशिश करेंगे। सूर्य अर्घ्य देते समय यही भावनाएँ होनी चाहिए। हमारे पास जो संपदा है, वह जल के रूप में भगवान के चरणों पर गिरे और वह फैल करके सारे वातावरण में फैल जाए। यह भावना सूर्य अर्घ्य की है।
अब एक बात और रह जाती है और वह है- 'तप'। आपको विशेष रूप से ध्यान देना है और गौर करना है। रविवार के दिन या गुरुवार के दिन, दो में से कोई एक दिन चुन लीजिए। सप्ताह में एक दिन तो तप करना ही चाहिए। वैसे तो रोज ही करना चाहिए आदमी को पर अगर रोज नहीं कर सकता तो कम से कम एक दिन उसको अवश्य करना चाहिए। रविवार और गुरुवार में से आपको जो ठीक पड़ता हो उसे चुन लें। छुट्टी वाले दिन प्राय: लोग पकौड़े- कचौड़ी बनाते रहते हैं। मित्र, यार- दोस्त आते रहते हैं। उस दिन और कोई दिन अच्छा होता तो, ऐसा मालूम पड़ता हो आपको तो उस दिन भी कर सकते हैं लेकिन एक दिन आपको तप का अभ्यास अवश्य करना चाहिए, अपने आप को तपाने का। तपाने से ईंटे पक्की हो जाती हैं। तपाने से सोना साफ हो जाता है। तपाने से लोहा साफ हो जाता है। तपाने से पानी स्टीम बन जाती है। अपने आप को तपाना आवश्यक मानिए। यह तो था भगवान का योग और यह अब शुरू होता है- तप। तप में क्या काम करना चाहिए? तप का आपको प्रतीक बताता हूँ। थोड़ा- थोड़ा कर लीजिए। उसका सिद्धांत आपको याद रहना चाहिए। सिद्धांत आप भूल जाएँगे तो मुश्किल पडे़गी। एक तो है अस्वादव्रत का परिपालन। आप उसे एक समय का ही रखिए अगर दोनों समय आपके लिए संभव नहीं है तो स्वाद का त्याग कीजिए। नमक और शक्कर दोनों चीजों का त्याग करने का मतलब यह है कि आपने स्वाद पर विजय प्राप्त कर ली। जिह्वा इन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर ली है। जिह्वा इन्द्रिय पर ध्यान रखिए। आपको डूबो देने वाली, आपको परेशान करने वाली, हैरान करने वाली यह इंद्रिय बडी़ खराब है। आगे से आप जब कोई जप करेंगे, तप करेंगे, कोई मंत्र का उच्चारण करेंगे तो ध्यान रखेंगे। इसलिए पहला काम है जीभ पर कंट्रोल करना। वाणी पर भी कंट्रोल करना चाहिए लेकिन खाने पर तो करना ही करना चाहिए, स्वाद पर। एक समय नमक मत मिलाइए। तब ज्यादा नहीं खाएँगे फिर आप पेट के लिए खाएँगे। फिर आप स्वाद के लिए भोजन नहीं करेंगे, तो अस्वाद का अभ्यास हममें से प्रत्येक आदमी को करना चाहिए। चाहे सप्ताह में एक टाइम ही हो। यह एक तप हुआ।
नंबर दो? वाणी जो हमारी है इससे हम उच्चारण करते हैं तो समझ- सोंचकर उच्चारण नहीं करते कि हमको क्या कहना है? किससे क्या बात करनी चाहिए? किससे नहीं करनी चाहिए? जो हम कह रहे हैं, वह दूसरे के लिए फायदेमंद है या नुकसान देय है और दूसरे आदमी का दिल दुखाने वाली है? क्या है? क्या नहीं है? हम कुछ नहीं सोंचते। जो मुँह में आता है उल्लम- गल्लम वही हम बकते रहते हैं। यह न बक करके एक- एक शब्द को समझ- सोंचकर बोलना चाहिए। अभ्यास के लिए हमको मौन धारण करने की जरूरत है। दो घंटे को मौन रहिए आप। तमाम दिन तो मुश्किल है आपके लिए। तमाम दिन कैसे मौन रहेंगे? कभी बोलेंगे, कभी चिट्ठी लिखेंगे, कभी हाथ से लिखेंगे, कभी क्या करेंगे? कभी क्या करेंगे? कम से कम दो घंटे का मौन तो रखिए ही। उस समय रखिए जब लोग, मिलने जुलने वाले, आपके पास ज्यादा आते- जाते हैं। मौन के लिए सुबह का वक्त ठीक हो सकता है और शाम का वक्त भी ठीक हो सकता है। दिन में आपको अपनी दुकान से टाइम न मिलता हो तो आप सवेरे- शाम का रख लीजिए। नहीं साहब, हम तो सोया करेंगे तब मौन रखा करेंगे। रात को सोने में क्या मौन रखना? उस तरह के टाइम पर जिस पर कि लोगों के मिलने- जुलने की संभावना हो। घर वाले तो आपसे मिलते ही हैं सुबह- शाम और रात को घर वालों को तो आप बता भी सकते हैं। समझा भी सकते हैं। कह भी सकते हैं भई, बोलना मत हमसे। यह समय हमारे मौन धारण करने का है। मौन भी एक तप है। हम आजकल मौन का अभ्यास करते हैं। इससे पहले भी ऋषियों ने मौन के अभ्यास किए हैं। वाणी से वाणी का मौन जिसका अभ्यास करने से वाणी में तेजस्विता आती है। वाणी से हम जो कुछ कहते हैं उसका दूसरों पर असर पड़ता है, पर जब हमारी वाणी अस्त- व्यस्त है तो किसी पर असर नहीं पड़ेगा। इससे आप संगीत गाएँ, गाना गाएँ, व्याख्यान दें, परामर्श दें, प्रवचन दें, कोई नहीं करेगा वह काम। अत: वाणी हमारी शुद्ध हो, इसके लिए हमको मौन का अभ्यास करना चाहिए। स्वाद का अभ्यास करना चाहिए। इतना ही नहीं हमारा आहार भी पुनीत हो। आहार को पुनीत करने के लिए आपको अस्वाद का अभ्यास करना चाहिए।
इसके सिवाय दूसरी बात है- ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य में दो बातें आती हैं- एक तो शारीरिक संयम। उस दिन, जिस दिन आपको यह व्रत रखना है, उस दिन आपको ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। धर्मपत्नी आपकी हैं तो भी करना चाहिए और धर्मपत्नी नहीं है तो भी करना चाहिए। धर्मपत्नी नहीं है तो कैसे करें? वास्तव में ब्रह्मचर्य जो खंडित होता है, आदमी की कल्पनाओं से होता है। शरीर की कोई बात नहीं है। शरीर में तो स्वप्न- दोष भी हो जाते हैं। स्वप्न- दोष से पानी का क्षय हो जाना कोई नुकसान का नहीं है जितना की हम महिलाओं के संबंध में गलत दृष्टिकोण रखें। उस दिन आप खासतौर से अपने मन में यह विचार कर लीजिए कि कोई विचार आपके मन में इस तरह का न आए। आए तो इस विचार के ठीक उल्टे विचार शुरू कर दीजिए। कोई गंदा विचार आपके दिमाग में आया है तो उसके ठीक उल्टा विचार शुरू कर दीजिए। लीजिए आपको खाने के संबंध में आता है तो उन लोगों का ध्यान रखिए जिन लोगों ने अस्वाद व्रत रखे थे। काम वासना का विचार आया है तो यह ध्यान रखिए कि हनुमान जी थे, भीष्म पितामह थे, स्वामी दयानन्द थे, शंकराचार्य थे, इन लोगों ने किस तरीके से अपना जीवन जिया? किस तरीके से शक्ति का संग्रह किया? इस बात का विचार कीजिए। विचारों को विचारों से काट दीजिए। विचारों को रोका नहीं जा सकता। एक तरह के विचारों को हटा करके दूसरे तरह के विचारों को उस स्थान पर ले आएँ तो हमारा विचारों पर कंट्रोल करना सुगम हो जाएगा। ब्रह्मचर्य वास्तव में अपने विचारों पर कंट्रोल करने की विद्या है। ब्रह्मचर्य माने संयम। इस तरीके से वाणी का तप और कामेंद्रिय का तप, इन दोनों तपों को करना चाहिए।
तप चार तरह के होते हैं। सारी इंद्रियों का तप एक, पैसे का तप दो, समय का तप तीन और विचारों का तप चार। इंद्रियों की बात हो चुकी। अब दूसरा तप है- पैसे का। आप जो भी पैसा खरच करें, उसमें एक एक पैसे को ध्यान में रखिए कि कहीं यह गलत खरच तो नहीं हो रहा है। कहीं किसी पैसे का आप गलत खरच तो नहीं कर रहे हैं। हमने दो सौ रुपए महीने में बहुत सारी जिन्दगी काट डाली। यहाँ आने से पहले हम अखण्ड ज्योती कार्यालय में जितने समय तक रहे हैं, हमने दो- सौ रुपए महीने में अपना समय काटा है। पैंतीस साल के करीब हम अखण्ड ज्योती कार्यालय में रहे हैं। वहाँ भी, हमारी गवाहियाँ सुरक्षित हैं ताकि कोई आदमी यह न कहे कि पाँच आदमियों की गृहस्थी दो सौ रुपए में नहीं चल सकती? जरूर चल सकती है। पैसे का संयम कीजिए। पैसे का संयम करेंगे तो बुरे कामों से बच जाएँगे। नशाखोरी से बच जाएँगे। दुर्व्यसनों से बच जाएँगे। अगर पैसे के ऊपर आपका नियंत्रण नहीं है और मन चाहे जिस तरीके से पैसा खरच करते हैं तो फिर आपके अंदर नब्बे बुराइयाँ पैदा हो जाएँगी और उनको फिर आप रोक नहीं पाएँगे।
इस तरीके से इंद्रियों का संयम एक, पैसे का संयम दो, अब तीसरा संयम आता है- समय का, समय का भी आप टाइम- टेबल बना सकेंगे। टाइम- टेबल बनाकर आप काम करेंगे तो विनोबा ने इतनी लंबी यात्रा भी पूरी कर ली थी और इसके साथ- साथ में पढ़ने- लिखने का काम भी जारी रखा। तेईस भाषा के विद्वान थे वे। उन्होंने अपने समय का विभाजन इस तरीके से किया हुआ था कि एक सेकेंड भी बेकार नहीं जाता था। विश्राम करना? विश्राम भी समय पर था। विनोबा शाम को छह बजे सो जाते थे। गर्मियों में सात बजे सूर्य अस्त हो जाता है तो भी वे छह बजे सो जाते थे। उन्होंने यह कभी नहीं देखा कि सूरज आगे चलता है कि पीछे चलता है। उन्होंने घडी़ के ऊपर जिंदगी को नियमित रखा। जितने भी संसार में महापुरुष हुए हैं उन्होंने काल को पाटी से बाँधकर रखा था। आप भी काल को पाटी से बाँधकर रखिए। घडी़ को अपनी कलाई स बाँधकर रखिए। घडी़ के कहने पर अपने चलने का, फिरने का, खाने का, पीने का, सोने का, उठने का कार्यक्रम बनाएँ। अपना समय आपके अधिग्रहीत होना चाहिए। समय आपका अस्त- व्यस्त नहीं जाना चाहिए। ऐसा न हो कि समय को आप बेसिलसिले और बेहिसाब खरच करें। समय का निग्रह है यह।
समयसंयम के बाद आता है विचारों का निग्रह। विचारों का निग्रह कर नहीं पाते लोग। चाहे जो सोचते रहते हैं। रात को सोते हुए आँख खुल गई तो न जाने कहाँ के विचार कर रहे हैं, किस तरह के विचार कर रहे हैं? असंभव बातों के भी विचार कर रहे हैं। रात को सिनेमा देखा था। फलां औरत देखी थी, कैसी अच्छी है, उसकी हम चाह रखते हैं। उसका हम ओटोग्राफ लेकर आएँगे। अरे बाबा! कहाँ से ओटोग्राफ लेकर आएँगे? वहाँ तक का किराया तो दे नहीं पाएँगे फिर ओटोग्राफ कैसे लेकर के आएँगे। इस तरीके से विचारों का निग्रह करना आना चाहिए। विचार जिस काम में लगाना चाहिए, उसी काम में अगर आप लगाएँ तो आप वैज्ञानिक हो सकते हैं, साहित्यकार हो सकते हैं। जितने भी संसार में सफल जीवन के मनुष्य हुए हैं उन लोगों ने अपने विचारों पर कंट्रोल करना सीखा था। विचार को इस तरीके से उपयोग किया कि जहाँ करना है बस उसी जगह करना है। जहाँ नहीं करना है, उस जगह नहीं करना। मन के ऊपर नियंत्रण करने की विधि यही है कि विचारों को अस्त- व्यस्त न होने दें। विचारों को काम में लगा दें। आप अस्त- व्यस्त हैं। कहीं घूमने के लिए विचार बन रहा है तो वहाँ से हटाइए और जो आपके पास में ढेरों के ढेरों समस्याएँ हैं, उनके ऊपर लगाइए। बच्चों को कैसे पढा़एँगे? धर्मपत्नी का स्वास्थ्य कैसे अच्छा करेंगे? अपने जीवन को भी ठीक कैसे बनाएँगे? आप इस तरीके से योजनाएँ बनाने में, विचार करने में, विचारों को लगने दीजिए, जब खाली समय हो, तब और जब खाली समय न है तब? अपने काम को अपने सम्मान का प्रश्न बनाकर के सारे मन को उसी में लगा दीजिए। मन को एक मिनेट खाली मत रहने दीजिए। कोई काम आपके पास है तो उस काम को इस तरीके से करिए मानो यह हमारे लिए सबसे बडी़ जिम्मेदारी का काम है, जो काम अपने हाथ में ले रखा है, उसे पूरी जिम्मेदारी समझकर कीजिए। फिर देखिए आपका काम कैसा बढि़या, कैसा शानदार, कैसा अच्छा खूबसूरत काम हो गया?
इस तरीके से विचारों का संयम एक, समय का संयम दो, पैसे का संयम तीन और इंद्रियों का संयम चार। चार संयम अगर आप करने लगे तो मैं आपको तपस्वी कहूँगा। इसकी शुरूआत करने के लिए आप जीभ से और कामेंद्रियों से कामवासना के विचार और स्वाद के विचार, इन दोनों को निकालना शुरू करें। यह सबसे पहला शुरुआत का चरण है। इसके बाद के जो चारण हैं, वे वही हैं जिनका मैने अभी आपको निवेदन किया। इस तरीके से रविवार या गुरुवार के दिन आप शुरुआत करें और पीछे तो आप तमाम दिन कीजिए। हर दिन कीजिए। यह तो हर दिन करने की चीज है। आपको यह नहीं कहा जा रहा है कि आप केवल गुरुवार को ही करेंगे। फिर आपको चाहे जो छूट मिल जाएगी। फिर चाहे जब आप करेंगे। गुरुवार से आप शुरुआत करेंगे। प्रज्ञायोग यही है। दूसरा काम आपको यह करना है कि सोते और उठते समय नए जन्म और मृत्यु को याद रखेंगे। शुद्धता रखेंगे। शुद्धता रखने के लिए पवित्रिकरण, प्राणायाम और न्यास सब करेंगे और देवसेवा तथा देवपूजन करेंगे। जल, अक्षत, धूप के अनुरूप अपना जीवन बनाएँगे। भक्तियोग के लिए तीन मालाएँ करेंगे एक अपने लिए, एक अंत:करण संशोधन के लिए और एक अपने शरीर को सामर्थ्यवान बनाए रखने के लिए। सविता का ध्यान करेंगे गायत्री जप के साथ- साथ में सविता आपको बल दे और ज्ञान- बुद्धि दे। अर्घ्यदान करते हुए बराबर यह बात कहेंगे- "अपने सुख बाँटेगे और दूसरों का दुःख बँटाएँगे"। रविवार और गुरुवार में से किसी एक दिन आप यह करेंगे। बस, इतना ही प्रज्ञायोग है। प्रज्ञायोग आप नियमित रूप से कीजिए। समझ में न आए तो फिर आकर सीख लेना कभी। प्रज्ञायोग की आप साधना कीजिए। इस समय यह आपके लिए पर्याप्त है।
आज की बात समाप्त।
ॐ शांति:
प्रज्ञायोग : एक युगानुकूल साधना प्रयोग
कोई समय था जब परिवार के दायित्व स्वल्प थे। निर्वाह साधनों की कमी न थी। जीवनचर्या भी बिना चिंता, आशंका के हँसी- खुशी से चलती थी। समस्याएँ, कठिनाइयाँ और उलझनें भी न थीं। उस मन:स्तिथि और परिस्थिति में एकांत एकाग्रता सहज उपलब्ध होती थी और लोग लम्बे समय तक तप, योग, अनुष्ठान, स्वाध्याय जैसे प्रयोजनों में तत्परता और तन्मयता के साथ काफी समय तक लगे रहते थे। न किसी को व्यस्तता थी और न अभावग्रस्तता, चिंता, आशंका की कठिनाई। वह समय अनेकानेक साधनाएँ देर तक करते रहने के लिए उपर्युक्त रहा होगा,पर अब तो परिस्थितियाँ भिन्न हैं। आत्मपरिष्कार के आधार भी आवश्यक हो गये हैं, जो पहले स्वयं ही हस्तगत रहते थे।
सामयिक परिस्थितियों और आवश्यकताओं को देखते हुए सर्वसाधारण के लिए ऐसी क्रिया- प्रक्रिया का निर्धारण करना जरूरी है, जो सर्वसुलभ, समय के अनुरूप और पुरातन लक्ष्य की उपलब्धि करा सकने में समर्थ हो। यही है 'प्रज्ञायोग' इस अनास्था युग में ऋतंभरा प्रज्ञा की, दूरदर्शी विवेकशीलता की महती आवश्यकता प्रतीत होती है। इस इन दिनों उपासना का लक्ष्य 'प्रज्ञा' को बनाना ही समीचीन है। यों गायत्री महामंत्र के रूप में उसकी अभ्यर्थना आदिकाल से होती आई है।
मनुष्य इस सृष्टी में स्रष्टा के प्रतिनिधि के रूप में, राजकुमार के रूप में भेजा गया है। भूगर्भ में छिपी रत्नराशि की तरह उसके प्रसुप्त अंतराल में असंख्य संपदाओं के भण्डार, अनंत संभावनाएँ छिपी पडी़ हैं। जो साधना पुरुषार्थ करते हैं, वे उन्हें खोज- खोद निकालते हैं। नरपामर्, नरपशु, नरपिशाच वर्ग के मनुष्य मानव गरिमा को भुलाकर ज्यों- त्यों जीवन काटते, स्वयं कष्ट सहते, दूसरों को सताते- रुलाते विदा हो जाते हैं। जो अपने आप को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए उद्यत होते हैं, उन्हें देवमानव बनने की दिशा में अग्रसर नर मानव कहा जाता है। इसके लिए जो प्रयत्न किए जाते हैं, उसमें अपने आप को अनगढ़ से सुगढ़ बनाया जाता है। इसी प्रयत्नशीलता का नाम साधना है। प्रज्ञायोग इसी का सुव्यवस्थित स्वरूप है, जिसमें दैनंदिन जीवन में छाने वाले कषाय- कल्मषों को हटाया, मलीनताओं से मुक्त हुआ जाता है। साधना क्षेत्र के जितने भी मार्ग हैं, उनमें प्रज्ञायोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इसमें अंत:क्षेत्र की श्रद्धा को विकसित कर, विवेकशीलता का आश्रय लेकर प्रज्ञा को जगाया जाता है एवं वह निष्ठापूर्वक व्यक्ति के क्रिया- कलापों में, सुसंस्कृत व्यक्तित्व के रूप में देखी जा सकती है।
प्रज्ञायोग को ज्ञानयोग और क्रियायोग नामक दो चरणों में बाँटा गया है। आत्मिक प्रगति के ये दोनों चरण युग परिवर्तन की बदलती परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में एक दूसरे के पूरक मानकर सभी परिजनों द्वारा अपनाए जाना चाहिए। इसमे मात्र अपने परिष्कार- उत्थान की ही नहीं, अपितु समष्टिगत कल्याण की बात सोची जाती है। प्रज्ञायोग का मूल केंद्रबिंदु आद्य- शक्ति गायत्री का तत्वदर्शन है, जिस्में स्वयं को सद्बुद्धि मिलने के साथ- साथ सभी को श्रेष्ठ मार्ग पर चलने हेतु प्रेरणा मिले, ऐसी भावना अभिव्यक्त की जाती है। हर क्रियाकृत्य का अपना आधार है, जिसे भलीभाँति समझकर ही साधना क्षेत्र में कदम आगे बढा़ना चाहिए।
"ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।।"
देवियो, भाइयो! भगवान के अवतार समय- समय पर हुए हैं और जब जिस काम के लिए जरूरत पड़ी है, तब- तब उसी काम के लिए उन्होनें अवतार उसी तरह का धारण किया है। यह समय इस तरह का है कि इसमें आस्था संकट छाया हुआ है। सब जगह आस्थाएँ कमजोर पड़ गई हैं। आदर्शों के लिए कहिए, उत्कृष्टताओं के लिए कहिए सबके लिए आस्था कमजोर पड़ गई हैं। आस्थाएँ कमजोर पड़ने की वजह से जो आदमी काम कर रहा है, चिंतन कर रहा है, यह गलत कर रहा है। उसका निवारण करने के लिए भगवान का नया अवतार होना चाहिए। वह प्रज्ञा अवतार होगा। निष्कलंक भी इसी को कहते हैं। दसवाँ अवतार या चौबीसवाँ अवतार निष्कलंक अवतार है, जिसे प्रज्ञा अवतार भी कहते हैं।प्रज्ञा दूरदर्शी विवेकशीलता को कहते हैं। केवल वही निष्कलंक है और सबमें कलंक लगा हुआ है। इसलिए यह महाप्रज्ञा के अवतार का जो समय है, इसको आप बहुत महत्त्वपूर्ण मानें और इसी का स्मरण करें। अपनी उपासना में इसी का समावेश करें।
गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। सरस्वती, काली, लक्ष्मी इसके ही भीतर आ जाती हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी इसी के अंतर्गत आ जाते हैं। यह आदिशक्ति है। ब्रह्मा जी को तप करके सारे विश्व की सृष्टि को बनाने के लिए जो शक्ति मिली थी, इसी के द्वारा मिली थी। अब यही महाप्रज्ञा आदि- शक्ति गायत्री के रूप में नया अवतार ग्रहण कर रही है, आस्था संकट का निवारण करने के लिए। कैसे होगा यह अवतार? आपको मालूम है ना कि सीताजी का जन्म क्यों हुआ था? रावण को मारने के लिए जब सीताजी की जरूरत थी तब ऋषियों ने अपना रक्त एकत्र करके एक घड़े में बंद किया था। उसे जमीन में गाढ़ दिया था। राजा जनक ने उस घड़े को निकाला और सीताजी का जन्म हुआ। दुर्गा का अवतार कैसे हुआ, आपको मालूम है? सब के सब देवता इकट्ठा होकर प्रजापति के पास गए और प्रजापति से कहा," अब यह दैत्य हमारे संभालने में नहीं आते। आप ही कोई तरकीब बताइए।" उन्होंने कहा,"तुम सबकी शक्ति को इकट्ठा करके अभी हम दुर्गा का अवतार करेंगे और वह सारे के सारे दैत्यों का संहार कर देगी।"
भगवान सबको समान मानते हैं। आप भी उसमें शामिल हैं और जो नहीं आए हैं वे भी शामिल हैं। सब मिलकर के एक एसी सामूहिक उपासना करेंगे प्रज्ञा की, महाप्रज्ञा की आदिशक्ति की जिससे इस समय का जो आस्था संकट है और जिसने सारे के सारे इस विश्व को अस्त- व्यस्त कर रखा है, उसका निवारण किया जा सकना संभव हो सके। कैसे करना चाहिए? क्या करना पड़ेगा इसके लिए? इसका नाम प्रज्ञायोग रखा है हमने क्योंकि इसमें कई चीजें शुमार हैं। इसलिए प्रज्ञयोग की साधना, हम सब लोगों को करनी चाहिए। प्रज्ञायोग क्या है? प्रज्ञायोग में ज्ञान, कर्म और भक्ति की जिनको आप सरस्वती, लक्ष्मी, काली कहते हैं ये तीनों शक्तियाँ शामिल हैं। जिन्हें आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहते हैं, तीनों ही चीजों का इसमें समावेश है। यह आपको करना पड़ेगा। कैसे करना पड़ेगा? चाहिए, आप लोग नोट करते जाइए इनको या फिर ध्यान में रखिए। छपा हुआ भी है। प्रज्ञायोग कैसे करना चाहिए? प्रज्ञायोग का पहला चरण है कि आप चारपाई पर इसे करें, चारपाई पर पड़े हुए। जब सवेरे उठे़ तो उठने से पहले जमीन पर पैर रखने से पहले आप यह विचार करें कि हमारा नया जन्म हुआ है और आज हम नया जन्म ले रहे हैं। रात में जब आपका बिस्तर लगे और जब आप सोने की तैयारी करें, उस समय आप इस तरीके से करें कि हमारा आज मृत्यु का दिन आ गया और अब हम भगवान की गोदी में जा रहे हैं। चौरासी लाख योनियों में घूमने के बाद मनुष्य का जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है। आप यह विचार कीजिए कि हम अच्छे से अच्छा आज का उपयोग करेंगे। आज का दिन बेकार नहीं जाने देंगे और रात को जब आप सोएँ, तब आप समझिए कि आज का दिन, आज का जन्म खत्म हुआ। आज की बातों की समीक्षा केजिए। सवेरे प्रात: काल सारे दिन की स्कीम बनाइए कि आज हमको करना क्या है? और शाम को इसकी समीक्षा कीजिए कि हमने कोई गलती तो नहीं की है और की है तो उसका सुधार कैसे होना चाहिए और परिमार्जन कैसे होना चाहिए? सुबह और शाम को यह आपका प्रात:कालीन, संध्याकालीन क्रम होना चाहिए।
इस तरह सांयकालीन संध्या आपकी बिस्तर पर ही होनी चाहिए। बिस्तर के बाद कर्मयोग का नंबर आता है। कैसा कर्मयोग? कर्मयोग का जवाब यह है कि आपको करना क्या है? यह तो केवल विचार हुआ? ज्ञान कहते हैं विचार करने को और कर्मयोग कहते हैं काम करने को। काम करने में क्या करना है? आप स्नान करके, कपड़े बदलकर झाड़ू लगा करके अपने पूजा के सारे सामान को साफ करके बैठिए। सबसे पहला काम शुद्धता है। अगर आपका मन शुद्ध है, शरीर शुद्ध है, जीवन शुद्ध है, आजीविका शुद्ध है तो समझना चाहिए कि आपकी उपासना की शुरूआत हुई और यदि आपका मन गन्दा है, आपका शरीर भी गन्दा है, आपकी कमाई भी गन्दी है, आपके विचार भी गन्दे हैं तो आप समझिए कि आप जो पूजा कर रहे हैं, उसका परिणाम नहीं मिलेगा। इसलिए शुद्धता पहला काम है।शुद्धता के लिए कुछ विधियाँ बताई गई हैं। कौन- कौन सी विधियाँ हैं? पवित्रिकरण है, आचमन है, प्राणायाम है, न्यास है। ये आपने हमारे सब पुस्तकों में पढ़े होंगे। इन सब क्रियाओं का मतलब यह होता है कि आप अपने मन को, अपने वचन को, अपनी वाणी को, अपनी क्रीयाओं को और अपने इष्ट- चिंतन को, इन्द्रियों को सबको पुनीत बना रहे हैं। जो मलिनताएँ उनके अन्दर छाई हुई होंगी, उनको हम निकालेंगे। न्यास का अर्थ यह ही होता है कि हमारी जो इन्द्रियाँ हैं पाँचों इनका उपयोग हम ठीक तरीके से करेंगे। अच्छे काम में करेंगे। गलत या गंदे रूप में नहीं करेंगे। प्राणायाम का अर्थ होता है कि जो साँस हम लेंगे तो हमारी वह हर साँस इस तरीके से चलेगी कि इसमें कहीं कोई कमी और खामी न हो। इसी तरीके से जो आप सारे शरीर के ऊपर जल छिड़कते हैं, तीन बार आचमन करते हैं, उसका भी अर्थ यह है कि हमारे मन, वचन और कर्म तीनों ही स्वस्थ बनेंगे। इसके लिए सबसे पहले उपासना की आवश्यकता होगी।
इसके बाद में आपको देव पूजन करना पड़ेगा। देवपूजन किसका। भगवान का। भगवान तो निराकार हैं।मगर पूजा के समय में उनको साकार बनाया जाता है। गायत्री का कोई चित्र आपने रखा हो, कोई मूर्ति रखी हो, कुछ ना कुछ तो आपको रखना ही पड़ेगा। बिना प्रतेक के पूजा नहीं हो सकती। प्रतीक- पूजा होना आवश्यक है।भगवान निराकर हैं तो साकार भी तो हैं। आपने हमें शरीर में देखा है तो हम ये शरीर थोड़े ही है। हम तो जीवात्मा हैं।उसको आपको दिखाएँ? नहीं दिखाएँगे आपको। वह तो निराकर है। गायत्री माता क मूर्ति य चित्र जो भी अपने रखा हो, उसके सामने पाँच चीजों से पूजन् किया जाता है। पाँच चीजें क्या हैं? वैसे सोलह चीजें भी हैं। जल एक, अक्षत दो, धूप या सुगन्ध तीन, पुष्प चार और मीठा या प्रसाद पाँच। वे क्यों? उनको फूलों की जरूरत क्यों पड़ गई? भगवान को जरूरत नहीं पड़ गई। आपको स्मरण दिलाया गया है कि भगवान की आपकी पूजा तब सार्थक मानी जाएगी, जब आप इन चीजों को प्रतीक मानकर के अपना जीवन भी उसी तरीके का बनाएँ। जल सरस होता है, प्रवाही होता है। आपको सरस होना चाहिए। जल के समान कोमल होना चाहिए।
अक्षत? अक्षत का मतलब यह है कि जो आप कमाते हैं उसमें से एक अंश भगवान के लिए लगाइए। धूप? चाहे आप धूल जलाएँ, चाहे अगरबत्ती जलाएँ, दीपक जलाएँ, कुछ भी जलाएँ सुगन्ध जलाएँ तो आपका जीवन चंदन के तरीके से सुगन्ध फैलाने वाला हो। फूल? फूल कैसा कोमल होता है? कैसा सुन्दर होता है? आपका जीवन ऐसा सुन्दर होना चाहिए। ऐसा कोमल होना चाहिए और भगवान के चरणों पर चढ़ना चाहिए। याचक की सार्थकता इसमें है कि वह भगवान की चरणों पर चढे़, गले में पड़े। आपका जीवन ऐसा होन चाहिए। मिठास या मीठा? कोई मीठी चीज भगवान को खिलाते हैं, नमकीन नहीं। इसका अर्थ यह होता है कि आपकी वाणी, आपका व्यवहार ऐसा हो जिसमें मिठास ही मिठास भरी हो। जब आप किसी से बातचीत करें तो उसमें मिठास भरी हो। जब आप कोई व्यवहार करें तो ऐसा व्यवहार करें जिसमें मिठास भरी हुई हो। इस तरीके से देवपूजन में पाँचों चीजों का मतलब यह होता है कि हम स्वयं शिक्षा ग्रहण करें उनसे। ऐसा नहीं है कि भगवान को इनकी आवश्यकता नहीं है। धूपबत्ती आप जलाएँगे नहीं तो भगवान के लिए कोई मुश्किल आएगी। दीपक आप नहीं जलाएँगे तो भगवान को दिखाई नहीं पड़ेगा। यह मतलब नहीं है। भगवान के लिए नहीं, बल्कि अपनी याददाश्त को सही करने के लिए और अपनी जीवन- क्रिया के माप- तौल करने के लिए, उसका मापदण्ड रखने के लिए यह क्रम लिखे गए हैं।
चलिए, अब इसके बाद क्या करना चाहिए? इतना सब कुछ कर लेने के बाद जप और ध्यान करना चाहिए। जप किसका करना चाहिए? कितना करना चाहिए? गायत्रीमंत्र का जप करना चाहिए क्योंकि प्रज्ञा की देवी वह ही हैं। कितनी माला करनी चाहिए? तीन, तीन तो कम से कम करनी चाहिए। ज्यादा कर सकें तो आप ज्यादा कर लीजिए। तीन क्यों? तीन इसलिए कि आत्मपरिष्कार के लिए एक। जीवात्मा का नित्य संशोधन हो इसके लिए दो। तीसरी माला वातावरण संशोधन के लिए। इसका उद्देश्य यह है कि जो सारा का सारा वातावरण गंदा हो रहा है, उसकी सफाई करने के लिए, एक माला और एक यह कि हम और आप मिलकर काम कर रहे हैं। जो मिशन है, जो प्रज्ञा अभियान है, उसकी सफलता के लिए। इस तरह प्रज्ञा अभियान की सफलता के लिए एक ,, वातावरण के परिशोधन के लिए एक, और अपनी जीवन के संशोधन के लिए एक। तीन मालाएँ तो कम से कम आपको करनी ही चाहिए। ज्यादा कर सकें तो ज्यादा करिए। ज्यादा में कोई मनाही नहीं है। पर कम से कम तीन माला तो करनी ही हैं। यह मिनिमम है। मक्सिमम- ज्यादा कर सकते हैं आप। ज्यादा के लिए कोई सीमा नहीं है आपके लिए। अच्छा यह गायत्री का जप हुआ। इस तरीके से जप कीजिए कि किसी पास बैठे को सुनाई नहीं पडे़। माला से कर लीजिए। उँगलियों पर कर लीजिए गिनके। इस तरीके से तीन माला का बंधन निभाइए। प्रज्ञायोग तीन माला से कम में नही होता।
जप के साथ ध्यान करना चाहिए। जप और ध्यान का, दोनों का मिला समन्वय समझना चाहिए। ध्यान किसका करना चाहिए? सविता गायत्री का देवता है। प्रात:काल के समय पर। प्रात:काल सूरज आपने देखा है न। गायत्री का सूरज इसे ही मानना चाहिए। यूनिवर्सल है यह। गायत्री माता का जो चित्र आपने रखा है। वह तो आप हिंदू हैं तो रखा है और अगर आप मुसलमान हैं तो आप नहीं रखेंगे। इसलिए देवपूजा तो केवल हिंदूओं के लिए है और यह जो है, सविता का ध्यान, सविता का ध्यान सबके लिए है। यूनिवर्सल है। मुसलमान धर्म में, इसाई धर्म में, सब जगह भगवान का प्रतीक प्रकाश को माना गया है तो सविता प्रात:काल का निकलता हुआ सुनहरा सूर्य, उसका आप ध्यान करते जाइए। गायत्री का तीन माला- जप करने के साथ- साथ में एक और बात उसमें शामिल कीजिए कि सविता सवेरे का सूर्य पूर्व दिशा से निकलते हुए सूर्य के सामने आप छोटे बच्चे के तरीके से नंग बैठे हुए हैं और आपके मन में, आपके शरीर में और आपके अन्त:करण में, हृदय माना गया है, उसमें सविता की किरणें प्रवेश करती हैं तो आपकी अन्त:करण को भावनाओं से भर देती हैं। मस्तिष्क को ज्ञान से भर देती हैं। शरीर को बल से भर देती हैं या यह कहिए कि शरीर को श्रेष्ठ कर्म करने के लिए और बुद्धी को श्रेष्ठ चिंतन करने के लिए और भावनाओं में श्रेष्ठता भरने के लिए ये सविता कि किरणें हैं। ये अपना अनुग्रह और अपना अनुदान हमको दे रही है। जप करने के साथ- साथ में यह ध्यान करना आवश्यक है। जप करने से पहले देवपूजन चंदन, अक्षत और पुष्प, उसको मिलाकरके हमारा जीवन इस तरह का हो। फिर इसके बद में भगवान के अनुग्रह का भाव करना चाहिए। यह प्रतिज्ञा का भाव है। अनुग्रह का भाव है। भगवान ने इस रूप में, सूर्य में सविता के रूप में तीन अनुग्रह हमको दिए हैं। तीन क्षेत्रों में उनका प्रवेश हुआ है। इस तरह एक माला आत्मपरिष्कार के लिए, एक वातावरण के संशोधन करने के लिए और एक माला यह आपका प्रज्ञा- मिशन है इसकी सफलता के लिए। चलिए यह आपका जप हुआ।
जप करने के बाद में सूर्य अर्घ्यदान किया जाता है। भगवान को, सूर्य को, जो आपने जल रखा था, उस जल को सूर्य के सम्मुख चढ़ाते हैं। यह किस काम के लिए चढ़ाते हैं। यह समर्पण है। भगवान को, सूर्य को, सविता को समर्पण करते हैं। प्रात:काल आप जप कर रहे हों, तो आप पूर्व दिशा में जल चढ़ाइए ।सांयकाल को आप जप कर रहे हों तो पश्चिम दिशा में जल चढ़ाइए। सूर्य नारायण को भगवान का प्रतीक मान करके आप अपने आप का समर्पण करते हैं। समर्पण का चिन्ह क्या है? कैसे मानें कि समर्पण किया है किसी ने किया नहीं। अपना सुख बाँटना और दूसरे के दु:खों को बँटाना। किसी के दु:ख को आप बाँटते हैं और सुखों को आप लाकर के देतें हैं तो हम मानेंगे कि समर्पण आपने किया है, सूर्य भगवान को। पूजा- उपासना के पीछे, यह भावना करनी चाहिए। क्या करना चाहिए? पूजा- उपासना के बाद में आप जल चढ़ाएँ और साथ- साथ में यह भावना करें कि भगवान को अर्थात भगवान के संसार को, हम अपने सुखों को बाँटेंगे और संसार में अर्थात भगवान का विराट रूप है, विराट विश्व है, इसमें जो दु:ख फैले हुए हैं, उनको घटाने के लिए हम कोशिश करेंगे। सूर्य अर्घ्य देते समय यही भावनाएँ होनी चाहिए। हमारे पास जो संपदा है, वह जल के रूप में भगवान के चरणों पर गिरे और वह फैल करके सारे वातावरण में फैल जाए। यह भावना सूर्य अर्घ्य की है।
अब एक बात और रह जाती है और वह है- 'तप'। आपको विशेष रूप से ध्यान देना है और गौर करना है। रविवार के दिन या गुरुवार के दिन, दो में से कोई एक दिन चुन लीजिए। सप्ताह में एक दिन तो तप करना ही चाहिए। वैसे तो रोज ही करना चाहिए आदमी को पर अगर रोज नहीं कर सकता तो कम से कम एक दिन उसको अवश्य करना चाहिए। रविवार और गुरुवार में से आपको जो ठीक पड़ता हो उसे चुन लें। छुट्टी वाले दिन प्राय: लोग पकौड़े- कचौड़ी बनाते रहते हैं। मित्र, यार- दोस्त आते रहते हैं। उस दिन और कोई दिन अच्छा होता तो, ऐसा मालूम पड़ता हो आपको तो उस दिन भी कर सकते हैं लेकिन एक दिन आपको तप का अभ्यास अवश्य करना चाहिए, अपने आप को तपाने का। तपाने से ईंटे पक्की हो जाती हैं। तपाने से सोना साफ हो जाता है। तपाने से लोहा साफ हो जाता है। तपाने से पानी स्टीम बन जाती है। अपने आप को तपाना आवश्यक मानिए। यह तो था भगवान का योग और यह अब शुरू होता है- तप। तप में क्या काम करना चाहिए? तप का आपको प्रतीक बताता हूँ। थोड़ा- थोड़ा कर लीजिए। उसका सिद्धांत आपको याद रहना चाहिए। सिद्धांत आप भूल जाएँगे तो मुश्किल पडे़गी। एक तो है अस्वादव्रत का परिपालन। आप उसे एक समय का ही रखिए अगर दोनों समय आपके लिए संभव नहीं है तो स्वाद का त्याग कीजिए। नमक और शक्कर दोनों चीजों का त्याग करने का मतलब यह है कि आपने स्वाद पर विजय प्राप्त कर ली। जिह्वा इन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर ली है। जिह्वा इन्द्रिय पर ध्यान रखिए। आपको डूबो देने वाली, आपको परेशान करने वाली, हैरान करने वाली यह इंद्रिय बडी़ खराब है। आगे से आप जब कोई जप करेंगे, तप करेंगे, कोई मंत्र का उच्चारण करेंगे तो ध्यान रखेंगे। इसलिए पहला काम है जीभ पर कंट्रोल करना। वाणी पर भी कंट्रोल करना चाहिए लेकिन खाने पर तो करना ही करना चाहिए, स्वाद पर। एक समय नमक मत मिलाइए। तब ज्यादा नहीं खाएँगे फिर आप पेट के लिए खाएँगे। फिर आप स्वाद के लिए भोजन नहीं करेंगे, तो अस्वाद का अभ्यास हममें से प्रत्येक आदमी को करना चाहिए। चाहे सप्ताह में एक टाइम ही हो। यह एक तप हुआ।
नंबर दो? वाणी जो हमारी है इससे हम उच्चारण करते हैं तो समझ- सोंचकर उच्चारण नहीं करते कि हमको क्या कहना है? किससे क्या बात करनी चाहिए? किससे नहीं करनी चाहिए? जो हम कह रहे हैं, वह दूसरे के लिए फायदेमंद है या नुकसान देय है और दूसरे आदमी का दिल दुखाने वाली है? क्या है? क्या नहीं है? हम कुछ नहीं सोंचते। जो मुँह में आता है उल्लम- गल्लम वही हम बकते रहते हैं। यह न बक करके एक- एक शब्द को समझ- सोंचकर बोलना चाहिए। अभ्यास के लिए हमको मौन धारण करने की जरूरत है। दो घंटे को मौन रहिए आप। तमाम दिन तो मुश्किल है आपके लिए। तमाम दिन कैसे मौन रहेंगे? कभी बोलेंगे, कभी चिट्ठी लिखेंगे, कभी हाथ से लिखेंगे, कभी क्या करेंगे? कभी क्या करेंगे? कम से कम दो घंटे का मौन तो रखिए ही। उस समय रखिए जब लोग, मिलने जुलने वाले, आपके पास ज्यादा आते- जाते हैं। मौन के लिए सुबह का वक्त ठीक हो सकता है और शाम का वक्त भी ठीक हो सकता है। दिन में आपको अपनी दुकान से टाइम न मिलता हो तो आप सवेरे- शाम का रख लीजिए। नहीं साहब, हम तो सोया करेंगे तब मौन रखा करेंगे। रात को सोने में क्या मौन रखना? उस तरह के टाइम पर जिस पर कि लोगों के मिलने- जुलने की संभावना हो। घर वाले तो आपसे मिलते ही हैं सुबह- शाम और रात को घर वालों को तो आप बता भी सकते हैं। समझा भी सकते हैं। कह भी सकते हैं भई, बोलना मत हमसे। यह समय हमारे मौन धारण करने का है। मौन भी एक तप है। हम आजकल मौन का अभ्यास करते हैं। इससे पहले भी ऋषियों ने मौन के अभ्यास किए हैं। वाणी से वाणी का मौन जिसका अभ्यास करने से वाणी में तेजस्विता आती है। वाणी से हम जो कुछ कहते हैं उसका दूसरों पर असर पड़ता है, पर जब हमारी वाणी अस्त- व्यस्त है तो किसी पर असर नहीं पड़ेगा। इससे आप संगीत गाएँ, गाना गाएँ, व्याख्यान दें, परामर्श दें, प्रवचन दें, कोई नहीं करेगा वह काम। अत: वाणी हमारी शुद्ध हो, इसके लिए हमको मौन का अभ्यास करना चाहिए। स्वाद का अभ्यास करना चाहिए। इतना ही नहीं हमारा आहार भी पुनीत हो। आहार को पुनीत करने के लिए आपको अस्वाद का अभ्यास करना चाहिए।
इसके सिवाय दूसरी बात है- ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य में दो बातें आती हैं- एक तो शारीरिक संयम। उस दिन, जिस दिन आपको यह व्रत रखना है, उस दिन आपको ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। धर्मपत्नी आपकी हैं तो भी करना चाहिए और धर्मपत्नी नहीं है तो भी करना चाहिए। धर्मपत्नी नहीं है तो कैसे करें? वास्तव में ब्रह्मचर्य जो खंडित होता है, आदमी की कल्पनाओं से होता है। शरीर की कोई बात नहीं है। शरीर में तो स्वप्न- दोष भी हो जाते हैं। स्वप्न- दोष से पानी का क्षय हो जाना कोई नुकसान का नहीं है जितना की हम महिलाओं के संबंध में गलत दृष्टिकोण रखें। उस दिन आप खासतौर से अपने मन में यह विचार कर लीजिए कि कोई विचार आपके मन में इस तरह का न आए। आए तो इस विचार के ठीक उल्टे विचार शुरू कर दीजिए। कोई गंदा विचार आपके दिमाग में आया है तो उसके ठीक उल्टा विचार शुरू कर दीजिए। लीजिए आपको खाने के संबंध में आता है तो उन लोगों का ध्यान रखिए जिन लोगों ने अस्वाद व्रत रखे थे। काम वासना का विचार आया है तो यह ध्यान रखिए कि हनुमान जी थे, भीष्म पितामह थे, स्वामी दयानन्द थे, शंकराचार्य थे, इन लोगों ने किस तरीके से अपना जीवन जिया? किस तरीके से शक्ति का संग्रह किया? इस बात का विचार कीजिए। विचारों को विचारों से काट दीजिए। विचारों को रोका नहीं जा सकता। एक तरह के विचारों को हटा करके दूसरे तरह के विचारों को उस स्थान पर ले आएँ तो हमारा विचारों पर कंट्रोल करना सुगम हो जाएगा। ब्रह्मचर्य वास्तव में अपने विचारों पर कंट्रोल करने की विद्या है। ब्रह्मचर्य माने संयम। इस तरीके से वाणी का तप और कामेंद्रिय का तप, इन दोनों तपों को करना चाहिए।
तप चार तरह के होते हैं। सारी इंद्रियों का तप एक, पैसे का तप दो, समय का तप तीन और विचारों का तप चार। इंद्रियों की बात हो चुकी। अब दूसरा तप है- पैसे का। आप जो भी पैसा खरच करें, उसमें एक एक पैसे को ध्यान में रखिए कि कहीं यह गलत खरच तो नहीं हो रहा है। कहीं किसी पैसे का आप गलत खरच तो नहीं कर रहे हैं। हमने दो सौ रुपए महीने में बहुत सारी जिन्दगी काट डाली। यहाँ आने से पहले हम अखण्ड ज्योती कार्यालय में जितने समय तक रहे हैं, हमने दो- सौ रुपए महीने में अपना समय काटा है। पैंतीस साल के करीब हम अखण्ड ज्योती कार्यालय में रहे हैं। वहाँ भी, हमारी गवाहियाँ सुरक्षित हैं ताकि कोई आदमी यह न कहे कि पाँच आदमियों की गृहस्थी दो सौ रुपए में नहीं चल सकती? जरूर चल सकती है। पैसे का संयम कीजिए। पैसे का संयम करेंगे तो बुरे कामों से बच जाएँगे। नशाखोरी से बच जाएँगे। दुर्व्यसनों से बच जाएँगे। अगर पैसे के ऊपर आपका नियंत्रण नहीं है और मन चाहे जिस तरीके से पैसा खरच करते हैं तो फिर आपके अंदर नब्बे बुराइयाँ पैदा हो जाएँगी और उनको फिर आप रोक नहीं पाएँगे।
इस तरीके से इंद्रियों का संयम एक, पैसे का संयम दो, अब तीसरा संयम आता है- समय का, समय का भी आप टाइम- टेबल बना सकेंगे। टाइम- टेबल बनाकर आप काम करेंगे तो विनोबा ने इतनी लंबी यात्रा भी पूरी कर ली थी और इसके साथ- साथ में पढ़ने- लिखने का काम भी जारी रखा। तेईस भाषा के विद्वान थे वे। उन्होंने अपने समय का विभाजन इस तरीके से किया हुआ था कि एक सेकेंड भी बेकार नहीं जाता था। विश्राम करना? विश्राम भी समय पर था। विनोबा शाम को छह बजे सो जाते थे। गर्मियों में सात बजे सूर्य अस्त हो जाता है तो भी वे छह बजे सो जाते थे। उन्होंने यह कभी नहीं देखा कि सूरज आगे चलता है कि पीछे चलता है। उन्होंने घडी़ के ऊपर जिंदगी को नियमित रखा। जितने भी संसार में महापुरुष हुए हैं उन्होंने काल को पाटी से बाँधकर रखा था। आप भी काल को पाटी से बाँधकर रखिए। घडी़ को अपनी कलाई स बाँधकर रखिए। घडी़ के कहने पर अपने चलने का, फिरने का, खाने का, पीने का, सोने का, उठने का कार्यक्रम बनाएँ। अपना समय आपके अधिग्रहीत होना चाहिए। समय आपका अस्त- व्यस्त नहीं जाना चाहिए। ऐसा न हो कि समय को आप बेसिलसिले और बेहिसाब खरच करें। समय का निग्रह है यह।
समयसंयम के बाद आता है विचारों का निग्रह। विचारों का निग्रह कर नहीं पाते लोग। चाहे जो सोचते रहते हैं। रात को सोते हुए आँख खुल गई तो न जाने कहाँ के विचार कर रहे हैं, किस तरह के विचार कर रहे हैं? असंभव बातों के भी विचार कर रहे हैं। रात को सिनेमा देखा था। फलां औरत देखी थी, कैसी अच्छी है, उसकी हम चाह रखते हैं। उसका हम ओटोग्राफ लेकर आएँगे। अरे बाबा! कहाँ से ओटोग्राफ लेकर आएँगे? वहाँ तक का किराया तो दे नहीं पाएँगे फिर ओटोग्राफ कैसे लेकर के आएँगे। इस तरीके से विचारों का निग्रह करना आना चाहिए। विचार जिस काम में लगाना चाहिए, उसी काम में अगर आप लगाएँ तो आप वैज्ञानिक हो सकते हैं, साहित्यकार हो सकते हैं। जितने भी संसार में सफल जीवन के मनुष्य हुए हैं उन लोगों ने अपने विचारों पर कंट्रोल करना सीखा था। विचार को इस तरीके से उपयोग किया कि जहाँ करना है बस उसी जगह करना है। जहाँ नहीं करना है, उस जगह नहीं करना। मन के ऊपर नियंत्रण करने की विधि यही है कि विचारों को अस्त- व्यस्त न होने दें। विचारों को काम में लगा दें। आप अस्त- व्यस्त हैं। कहीं घूमने के लिए विचार बन रहा है तो वहाँ से हटाइए और जो आपके पास में ढेरों के ढेरों समस्याएँ हैं, उनके ऊपर लगाइए। बच्चों को कैसे पढा़एँगे? धर्मपत्नी का स्वास्थ्य कैसे अच्छा करेंगे? अपने जीवन को भी ठीक कैसे बनाएँगे? आप इस तरीके से योजनाएँ बनाने में, विचार करने में, विचारों को लगने दीजिए, जब खाली समय हो, तब और जब खाली समय न है तब? अपने काम को अपने सम्मान का प्रश्न बनाकर के सारे मन को उसी में लगा दीजिए। मन को एक मिनेट खाली मत रहने दीजिए। कोई काम आपके पास है तो उस काम को इस तरीके से करिए मानो यह हमारे लिए सबसे बडी़ जिम्मेदारी का काम है, जो काम अपने हाथ में ले रखा है, उसे पूरी जिम्मेदारी समझकर कीजिए। फिर देखिए आपका काम कैसा बढि़या, कैसा शानदार, कैसा अच्छा खूबसूरत काम हो गया?
इस तरीके से विचारों का संयम एक, समय का संयम दो, पैसे का संयम तीन और इंद्रियों का संयम चार। चार संयम अगर आप करने लगे तो मैं आपको तपस्वी कहूँगा। इसकी शुरूआत करने के लिए आप जीभ से और कामेंद्रियों से कामवासना के विचार और स्वाद के विचार, इन दोनों को निकालना शुरू करें। यह सबसे पहला शुरुआत का चरण है। इसके बाद के जो चारण हैं, वे वही हैं जिनका मैने अभी आपको निवेदन किया। इस तरीके से रविवार या गुरुवार के दिन आप शुरुआत करें और पीछे तो आप तमाम दिन कीजिए। हर दिन कीजिए। यह तो हर दिन करने की चीज है। आपको यह नहीं कहा जा रहा है कि आप केवल गुरुवार को ही करेंगे। फिर आपको चाहे जो छूट मिल जाएगी। फिर चाहे जब आप करेंगे। गुरुवार से आप शुरुआत करेंगे। प्रज्ञायोग यही है। दूसरा काम आपको यह करना है कि सोते और उठते समय नए जन्म और मृत्यु को याद रखेंगे। शुद्धता रखेंगे। शुद्धता रखने के लिए पवित्रिकरण, प्राणायाम और न्यास सब करेंगे और देवसेवा तथा देवपूजन करेंगे। जल, अक्षत, धूप के अनुरूप अपना जीवन बनाएँगे। भक्तियोग के लिए तीन मालाएँ करेंगे एक अपने लिए, एक अंत:करण संशोधन के लिए और एक अपने शरीर को सामर्थ्यवान बनाए रखने के लिए। सविता का ध्यान करेंगे गायत्री जप के साथ- साथ में सविता आपको बल दे और ज्ञान- बुद्धि दे। अर्घ्यदान करते हुए बराबर यह बात कहेंगे- "अपने सुख बाँटेगे और दूसरों का दुःख बँटाएँगे"। रविवार और गुरुवार में से किसी एक दिन आप यह करेंगे। बस, इतना ही प्रज्ञायोग है। प्रज्ञायोग आप नियमित रूप से कीजिए। समझ में न आए तो फिर आकर सीख लेना कभी। प्रज्ञायोग की आप साधना कीजिए। इस समय यह आपके लिए पर्याप्त है।
आज की बात समाप्त।
ॐ शांति:
प्रज्ञायोग : एक युगानुकूल साधना प्रयोग
कोई समय था जब परिवार के दायित्व स्वल्प थे। निर्वाह साधनों की कमी न थी। जीवनचर्या भी बिना चिंता, आशंका के हँसी- खुशी से चलती थी। समस्याएँ, कठिनाइयाँ और उलझनें भी न थीं। उस मन:स्तिथि और परिस्थिति में एकांत एकाग्रता सहज उपलब्ध होती थी और लोग लम्बे समय तक तप, योग, अनुष्ठान, स्वाध्याय जैसे प्रयोजनों में तत्परता और तन्मयता के साथ काफी समय तक लगे रहते थे। न किसी को व्यस्तता थी और न अभावग्रस्तता, चिंता, आशंका की कठिनाई। वह समय अनेकानेक साधनाएँ देर तक करते रहने के लिए उपर्युक्त रहा होगा,पर अब तो परिस्थितियाँ भिन्न हैं। आत्मपरिष्कार के आधार भी आवश्यक हो गये हैं, जो पहले स्वयं ही हस्तगत रहते थे।
सामयिक परिस्थितियों और आवश्यकताओं को देखते हुए सर्वसाधारण के लिए ऐसी क्रिया- प्रक्रिया का निर्धारण करना जरूरी है, जो सर्वसुलभ, समय के अनुरूप और पुरातन लक्ष्य की उपलब्धि करा सकने में समर्थ हो। यही है 'प्रज्ञायोग' इस अनास्था युग में ऋतंभरा प्रज्ञा की, दूरदर्शी विवेकशीलता की महती आवश्यकता प्रतीत होती है। इस इन दिनों उपासना का लक्ष्य 'प्रज्ञा' को बनाना ही समीचीन है। यों गायत्री महामंत्र के रूप में उसकी अभ्यर्थना आदिकाल से होती आई है।
मनुष्य इस सृष्टी में स्रष्टा के प्रतिनिधि के रूप में, राजकुमार के रूप में भेजा गया है। भूगर्भ में छिपी रत्नराशि की तरह उसके प्रसुप्त अंतराल में असंख्य संपदाओं के भण्डार, अनंत संभावनाएँ छिपी पडी़ हैं। जो साधना पुरुषार्थ करते हैं, वे उन्हें खोज- खोद निकालते हैं। नरपामर्, नरपशु, नरपिशाच वर्ग के मनुष्य मानव गरिमा को भुलाकर ज्यों- त्यों जीवन काटते, स्वयं कष्ट सहते, दूसरों को सताते- रुलाते विदा हो जाते हैं। जो अपने आप को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए उद्यत होते हैं, उन्हें देवमानव बनने की दिशा में अग्रसर नर मानव कहा जाता है। इसके लिए जो प्रयत्न किए जाते हैं, उसमें अपने आप को अनगढ़ से सुगढ़ बनाया जाता है। इसी प्रयत्नशीलता का नाम साधना है। प्रज्ञायोग इसी का सुव्यवस्थित स्वरूप है, जिसमें दैनंदिन जीवन में छाने वाले कषाय- कल्मषों को हटाया, मलीनताओं से मुक्त हुआ जाता है। साधना क्षेत्र के जितने भी मार्ग हैं, उनमें प्रज्ञायोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इसमें अंत:क्षेत्र की श्रद्धा को विकसित कर, विवेकशीलता का आश्रय लेकर प्रज्ञा को जगाया जाता है एवं वह निष्ठापूर्वक व्यक्ति के क्रिया- कलापों में, सुसंस्कृत व्यक्तित्व के रूप में देखी जा सकती है।
प्रज्ञायोग को ज्ञानयोग और क्रियायोग नामक दो चरणों में बाँटा गया है। आत्मिक प्रगति के ये दोनों चरण युग परिवर्तन की बदलती परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में एक दूसरे के पूरक मानकर सभी परिजनों द्वारा अपनाए जाना चाहिए। इसमे मात्र अपने परिष्कार- उत्थान की ही नहीं, अपितु समष्टिगत कल्याण की बात सोची जाती है। प्रज्ञायोग का मूल केंद्रबिंदु आद्य- शक्ति गायत्री का तत्वदर्शन है, जिस्में स्वयं को सद्बुद्धि मिलने के साथ- साथ सभी को श्रेष्ठ मार्ग पर चलने हेतु प्रेरणा मिले, ऐसी भावना अभिव्यक्त की जाती है। हर क्रियाकृत्य का अपना आधार है, जिसे भलीभाँति समझकर ही साधना क्षेत्र में कदम आगे बढा़ना चाहिए।