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Books - प्रज्ञोपनिषद -4

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अध्याय -1

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देवसंस्कृति- जिज्ञासा प्रकरण

गुरुकुलेषु तदाऽन्येषु छात्रा आसंस्तु ये समे।
गुरुजनै: सह ते सर्वेऽप्यायाता द्रष्टुत्सुका:॥ १॥
ऋषे: कात्यायनस्येमां व्यवस्थामुत्तमामपि ।।
तस्याऽध्यापनशैली तां चर्या च ब्रह्मचारिणाम्॥ २॥
तै: श्रुतं यन्महर्षेर्यद् विद्यते गुरुकुलं शुभम्।
छात्रनिर्माणशालेव यत्रत्या: स्नातकास्तु ते॥ ३॥
समुन्नता भवन्त्येवं मन्यंते संस्कृता अपि।
सफला लौकिके संति समर्था अपि जीवने॥ ४॥
संपन्ना अपि चारित्र्य - संयुक्ता व्यक्तिरूपत: ।
उदात्तास्ते तथैवोच्चैस्तरा गणयंत उत्तमै:॥ ५॥

टीका—एक बार अन्यान्य गुरुकुलों के छात्र अपने- अपने गुरुजनों समेत महर्षि कात्यायन के आश्रम की व्यवस्था और अध्ययन शैली व दिनचर्या का पर्यवेक्षण करने आए। उनने सुना था कि कात्यायन का गुरुकुल टकसाल है, जिसमें पढ़कर निकलने वाले स्नातक न केवल समुन्नत होते हैं, वरन् सुसंस्कृत भी माने जाते हैं। वे लौकिक जीवन में समर्थ, सफल और संपन्न रहते हैं तथा व्यक्ति गत जीवन में चरित्रवान्, उदात्त एवं मूर्द्धन्य स्तर के गिने जाते हैं॥ १- ५॥

वैशिष्ट्यं चेदृशं छात्रा: केनाधारेण यांति ते।
इदं द्रष्टुं च विज्ञातुं छात्रास्ते गुरुभि: सह॥ ६॥
विभिन्नेभ्य: समायाता: क्षेत्रेभ्य उत्सुका भृशम्।
तदागमनवृत्तं च सदस्यैर्ज्ञातमेव तत् ॥ ७॥

टीका—ऐसी विशेषताएँ किस आधार पर छात्रगण प्राप्त करते हैं? यह जानने देखने की अभिलाषा लेकर वे छात्र मंडल अध्यापकों समेत विभिन्न क्षेत्रों, देशों से आए थे। उनके आगमन और उद्देश्य की पूर्व सूचना कात्यायन गुरुकुल के सभी छोटे- बड़े सदस्यों को विदित हो गई थी॥ ६- ७॥

ध्यानेनागंतुका: सर्वे दिनचर्या व्यवस्थितिम्।
कात्यायनाश्रमस्यास्य स्वच्छतां व्यस्ततामपि॥ ८॥
अनुशासनसम्मानं तत्रत्ये पाठ्यसंविधौ ।।
सुसंस्कारित्वभावं तं व्यवहारेऽवतारितुम् ॥ ९॥
पालितुं च सदाचारमध्यापनमिवानिशम् ।।
कर्तव्यं निजदायित्वं पालितुं चानुशासनम् ॥ १०॥
ध्यानं तत्र विशेषं हि दिनचर्यागतं ह्यभूत्।
वैशिष्ट्यं मौलिकं चाभूदेतदेवास्य सुदृढम्॥ ११॥

टीका—आगंतुकों ने कात्यायन आश्रम की दिनचर्या, व्यवस्था, स्वच्छता, व्यस्तता और अनुशासनप्रियता को ध्यानपूर्वक देखा। पाठ्य पुस्तकों के अध्ययन- अध्यापन की भाँति ही सुसंस्कारिता को व्यवहार में उतारने तथा शिष्टाचार पालने, कर्तव्य- उत्तरदायित्व समझने और उन्हें पालने के लिए अनुशासन बरतने पर समुचित ध्यान दिया जाता था यही इस आश्रम की सुदृढ़ मौलिकता थी॥ ८- ११॥

नैवाध्ययनमेवात्र पर्याप्तं भवति त्वयि ।।
नेतुं तान् प्रगतीं छात्रान् महामानवतामपि ॥ १२॥
व्यवहारे समावेशोऽभ्यासश्चापि विशेषत:।
सदाशयसमुद्भूतो मतस्त्वावश्यक: सदा॥ १३॥

टीका— व्यक्तित्वों को उभारने और सामान्य मनुष्यों को महामानव बनाने में मात्र अध्ययन ही पर्याप्त नहीं होता, व्यवहार में सदाशयता का समावेश अभ्यास इसके लिए नितांत आवश्यक है। इस सिद्धांत को उस आश्रम में भली प्रकार चरितार्थ होते हुए सभी आगंतुकों ने पाया॥ १२- १३॥

गुरुकुलों की महामानवों को ढालने वाली टकसाल के रूप में मान्यता देवसंस्कृति की अनेकानेक विशेषताओं का एक अंग रही है। ऐसे शिक्षालयों से तपकर निकलने वाले विद्यार्थी एकांगी प्रवीणता मात्र नहीं प्राप्त करते थे, अपितु अपने आपको संस्कारों की निधि से संपन्न बनाकर व्यावहारिक दृष्टि से बहिरंग जीवन में भी कुशल एवं सूझ- बूझ के धनी बनकर निकलते थे। ऐसे आरण्यकों के प्रति ऋषि समुदाय एवं अन्यान्य छात्रों की जिज्ञासा होना स्वाभाविक है।

विद्यालय का परिकर अपने एक- एक अंग से अपना परिचय देता है। बाह्य सुसज्जा, विद्यार्थियों का ठाट- बाट से रहना, बैठने- पढ़ने की सुव्यवस्था होना भर पर्याप्त नहीं। यह बाह्याडंबर तो आज हर कहीं रास्ता चलते देखा जा सकता है। अध्ययन- अध्यापन की श्रेष्ठ व्यवस्था होना भी समुचित नहीं। संस्कारों के अभिवर्द्धन के लिए, व्यक्ति को महामानव रूप में ढालने के लिए आत्मानुशासन को जीवन का अंग बनाने के लिए, उदारता परमार्थ परायणता को व्यवहार में समावेश करने हेतु क्या प्रयास पुरुषार्थ अध्ययन- अध्यापन के साथ किया गया, वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उसी में विद्यालय के विद्या का घर कहे जाने की सार्थकता है।
आश्रमस्थैस्तथा तत्र समायातैश्च निश्चितम्।
अवरुद्ध्य तु सप्ताहं शिक्षां तां लौकिकीं भवेत्॥ १४॥
विद्याया विषये चर्चा याऽमृतत्वाय कल्पते।
स्वभावे विनयं शीलं समाविष्टं करोति या॥ १५॥ अपेक्ष्य लौकिकीं शिक्षां विद्या या त्वात्मवादिनी।
तुलनायां महत्त्वं तु तस्या एवाधिकं मतम्॥ १६॥
उपस्थिता जना: सर्वे ज्ञातुमेतच्च विस्तरात्।
ऐच्छन्येन समे तथ्यं कुर्युस्तेऽवगतं स्वत: ॥ १७॥

टीका—आगंतुकों और आश्रमवासियों ने मिलकर निश्चय किया कि एक सप्ताह तक लौकिक जानकारियाँ देने वाला शिक्षाक्रम बंद रखा जाए और विद्या पर अधिक प्रकाश डाला जाए, जो अमृत कहलाती है और स्वभाव में विनयशील शालीनता का समावेश करती है। लौकिक शिक्षा की तुलना में आत्मवादी विद्या का कितना अधिक महत्त्व है इसे सभी उपस्थित जन और भी अधिक विस्तार से जानना चाहते थे। या इस तथ्य से किसी न किसी रूप में अवगत तो सभी थे॥ १४- १७॥

साप्ताहिकं समारब्धं संस्कृते: सत्रमुत्तमम्।
आगत: समुदायश्च यथास्थानमुपाविशत् ॥ १८॥
उद्बोधको महर्षि: सोऽगादीत्कात्यायनस्तदा।
प्रगते: सार्वभौमाया नृणामाधारगानि तु ॥ १९॥
तथ्यानि यानि संप्राप्य स्फुलिंग इव  शक्तिमान्।
विकासं पूर्णमासाद्य जीवो ब्रह्म भवेद् ध्रुवम्॥ २०॥

टीका—एक सप्ताह का संस्कृति सत्र आरंभ हुआ। उपस्थित समुदाय अपने- अपने निर्धारित स्थानों पर पंक्ति बद्ध होकर आसीन हुआ। उद्बोधनकर्त्ता महर्षि कात्यायन ने जिज्ञासुओं की आकांक्षा के अनुरूप मनुष्य की सर्वतोमुखी प्रगति के आधारभूत तथ्यों पर प्रकाश डालना आरंभ किया, जिन तथ्यों को प्राप्त कर शक्ति शाली चिंगारी के रूप में विद्यमान जीव पूर्ण विकास को प्राप्त कर ब्रह्मरूप बन जाता है॥ १८- २०॥

कात्यायन उवाच-

भद्रा! जन्मना मर्त्य: पशुवृत्तियुतो भवेत् ।।
संञ्चितो व्यवहारो यो योनिषु स हि निम्नग:॥ २१॥
भ्राम्यताशीतिसंख्यासु चतुरुत्तरकासु तु।
गरिम्णो मर्त्यभावस्य त्याज्यो विस्मर्य एव स:॥ २२॥
देवयोनिगरिम्णश्च योग्यानां गुणकर्मणाम्।
प्रकृतेरपि चाभ्यास: कर्तव्यो मर्त्यजन्मनि॥ २३॥
त्यागस्वीकारयोरेवानयोर्या प्रक्रिया मता।
देव संस्कृतिरुक्ता ऽ तो  देवत्वं नर आश्रयेत्॥ २४॥

टीका—कात्यायन बोले, हे भद्रजनो मनुष्य जन्मत: पशु- प्रवृत्ति का होता है। चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते समय जो व्यवहार संचित किया गया है, वह मनुष्य जीवन की गरिमा को देखते हुए ओछा पड़ता है। इसलिए उसे भुलाना, छोड़ना पड़ता है। इस देव योनि की गरिमा के उपयुक्त गुण, कर्म, स्वभाव का अभ्यास करना पड़ता है। इसी छोड़ने ग्रहण करने की उभयपक्षीय प्रक्रिया को देव संस्कृति भी कहते हैं, जिससे मनुष्य देवत्व को प्राप्त करता है॥ २१- २४॥

शिक्षा और विद्या में अंतर समझना अत्यंत अनिवार्य है। बहुसंख्य व्यक्ति दोनों को एक ही मानते एवं स्वयं तथा अपनी संतानों के लिए बहिरंग की जानकारी देने वाली शिक्षा को ही समुचित मान बैठते हैं।

शिक्षा का अर्थ है, जानकारी को व्यापक बनाना, बुद्धि विस्तार करना, ताकि वह दैनंदिन जीवन में काम आ सकें। विद्या वह है, जो जीवन को सुसंस्कारी बनाती एवं आत्मिक प्रगति में सहायक भूमिका निभाती है। दोनों ही समग्र मानवी विकास के लिए जरूरी हैं। जहाँ एक व्यक्ति के बहुमुखी लौकिक विकास के लिए उत्तरदायी है, वहाँ दूसरी, व्यक्ति के अंत:क्षेत्र के परिशोधन, परिष्कार एवं उन्नयन की भूमिका संपादित करते हैं। अत: शिक्षा मनुष्य के बहिरंग जीवन को सुविकसित करती है और विद्या अंतरंग को। शिक्षा सांसारिक योग्यता, प्रतिभा बढ़ाती है और विद्या मनुष्य को सुसंस्कारी, उदार, उदात्त बनाती है व्यक्ति त्व को श्रेष्ठता एवं शालीनता से सुसंपन्न करती है। एक को सभ्यता के विकास का साधन तथा दूसरे को सांस्कृतिक उन्नति का माध्यम समझा जा सकता है। प्रगतिशील जीवन दोनों के समन्वय एवं सुविकसित होने पर बनता है।

ऋषि श्रेष्ठ कात्यायन यहाँ बड़े स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि कुसंस्कारों का बोझ अपने सिर पर लिए नर- पशु के रूप में जन्मे अनगढ़ मनुष्य के लिए सुरदुर्लभ मानव योनि में जो बहुमूल्य अवसर स्वयं के उत्थान हेतु मिला है, उसे गँवाया नहीं जाना चाहिए। पशु स्तर त्यागकर मानवी गरिमा में प्रवेश करना ही प्रकारांतर से देव- संस्कृति है। शब्दार्थ एवं भावार्थ दोनों ही रूप में इसका आशय है ऐसी विद्या जो पेट प्रजनन तक सीमाबद्ध रखने वाली पशु- प्रवृत्तियों का परित्याग एवं देवत्व को अंतराल में उतारने, उत्कृष्ट आदर्शवादिता को जीवन में समाविष्ट करने का सर्वांगपूर्ण शिक्षण दे। कायाकल्प करने के कारण ही इसे अमृत कहा गया है।

नाञ्जसाऽभ्येति चैषा तु शिक्षा यत्नेन मानवै:।
शिक्षणीया भवत्येषा विद्या   प्रोक्ता मनीषिभि:॥ २५॥
संबद्धा सुविधाभिस्तु साफल्येन च या तु सा।
क्षेत्रस्य भौतिकस्यात्र शिक्षा  प्रोक्ता मनीषिभि:॥ २६॥
शिक्षाऽप्यस्ति च सा नूनमनिवार्या तथाऽपि तु।
अपूर्णैव तथैकांगं विना विद्या समन्वयात्॥ २७॥

टीका—यह अनायास नहीं, अति प्रयत्नपूर्वक सीखनी और सिखानी पड़ती है। यही विद्या है शिक्षा उसे कहते हैं, जो भौतिक क्षेत्र की सुविधा, सफलता से संबंधित है। शिक्षा भी आवश्यक तो है पर विद्या का समन्वय हुए बिना वह अपूर्ण एवं एकांगी ही रहती है॥ २५- २७॥ विद्या एवं शिक्षा का युग्म है। शिक्षा बाहर से थोपी जा सकती है एवं वह लौकिक प्रगति में सहायक होती है, किंतु विद्या को बाहर से आरोपित नहीं किया जा सकता। बिना अंत: की सुसंस्कारिता के अनगढ़ व्यक्ति को दी गई शिक्षा तो बंदर के हाथ तलवार की तरह सिद्ध होती है। विद्या के लिए मनुष्य को स्वयं प्रयास करना पड़ता है, प्रेरणा स्रोत कोई भी बन सकता है। वातावरण, शिक्षक, अभिभावक, मित्र अथवा हितैषीगण। विद्या अर्जन एक प्रकार की साधना है, अंतक्षेत्र का प्रचंड पुरुषार्थ है, जिसे संपादित किए बिना मानव जीवन की हर उपलब्धि व्यर्थ है।

ज्ञानविज्ञानयोर्योग: पन्थानं प्रगते: सदा।
सार्वत्रिक्या: प्रशस्तं स विदधाति न संशय: ॥ २८॥
शरीरयात्रासौविध्य संग्रह: क्रियते यथा ।।
तथैवात्मिकप्राखर्यप्राप्यते यततामपि ॥ २९॥
विना तेन नरस्तिष्ठेन्नरवानररूपक: ।।
नरपामररूपो वा हेयप्रकृतिकारणात् ॥ ३०॥
अविकासस्थितस्तिष्ठेदसंतुष्टस्तिरस्कृत: ।।
स्वास्थ्यशिक्षा साधनानां दृष्ट्या त्राससहश्च स:॥ ३१॥

टीका—ज्ञान और विज्ञान का समन्वय ही सर्वतोन्मुखी प्रगति का पथ- प्रशस्त करता है। इसलिए शरीर यात्रा की सुविधाएँ जुटाने की तरह ही आत्मिक प्रखरता के लिए भी प्रयत्न होना चाहिए। उसके बिना मनुष्य को नर- वानर या नर- पामर बनकर रहना पड़ता है, हेय आदतों के कारण पिछड़ेपन के अतिरिक्त स्वास्थ्य तथा साधनों की दृष्टि से भी त्रास सहता है॥ २८- ३१॥

सार्थकं जन्ममानुष्यं कर्तुमावश्यकं मतम्।
सुसंस्कारत्वमत्रैतद् व्यर्थं जन्मान्यथानृणाम्॥ ३२॥
तस्योपलब्धेरेषैव विद्यापद्धतिरुत्तमा ।।
निश्चिताऽप्यनुभूता च शिक्षाविद्यासुसंगम:॥ ३३॥
महत्त्वपूर्णो मंतव्यो नरै: सर्वत्र सर्वदा।
नोचेन्न स सदाचारं व्यवहर्तुं क्षमो भवेत्॥ ३४॥

टीका—मनुष्य जन्म को सार्थक करने के लिए सुसंस्कारिता का संपादन नितांत आवश्यक माना गया है। विद्या उसी को उपलब्ध कराने की, सुनिश्चित एवं अनुभूत पद्धति है। अस्तु शिक्षा के साथ विद्या के समावेश का महत्त्व सर्वत्र समझा जाना चाहिए नहीं तो वह दैनिक जीवन में सदाचार का व्यवहार नहीं कर पाएगा॥ ३२- ३४॥

मनुष्यों व पशुओं में आकृति भेद होते हुए भी अनेकों में प्रकृति एक- सी पाई जाती है। वनमानुष देखे तो नहीं जाते, किंतु उस मनोभूमि वाले नर- वानरों की कोई कमी नहीं। ऐसे भी अनेकों हैं, जो निरुद्देश्य जीवन जीते या मर्यादा को तब तक ही मानते हैं, जब तक कि उन पर अंकुश रहे। मनुष्य को जन्म मिलने के साथ- साथ विधाता ने मानव आकृति भी दी है। किंतु प्रकृति उसे अपने पुरुषार्थ से स्वयं अर्जित करनी होती है। खदान से निकला लोहा मिट्टी मिला होता है। उसे भट्टी में गलाना पड़ता है। जब मिला हुआ अंश जलकर नष्ट हो जाता है, तो वही अनगढ़ लोहा शुद्ध लोहे के रूप में सामने आता है। तपाने पर एवं साँचे में ढलाई करने पर भिन्न- भिन्न पात्रों उपकरणों के रूप में सामने आता है। लगभग यही तथ्य मनुष्य पर भी लागू होता है।

जीवन निर्वाह के लिए साधन जुटाना है। पर यह पर्याप्त नहीं है। अंतरंग के विकास के बिना जीवन यात्रा अधूरी है। यदि उसने बहिरंग जीवन में काम आने वाले साधन जुटा भी लिए तो वे आत्मिक प्रगति के अभाव में निरुद्देश्य ही पड़े रहेंगे, साधनों का अंबार होते हुए भी व्यक्ति अनगढ़ ही बना रहेगा, कोई लाभ उसका उठा नहीं पाएगा।

यहाँ ऋषि ज्ञान व विज्ञान के समन्वय की जीवन में महत्ता प्रतिपादित करते हुए व्यक्ति के सांस्कृतिक विकास के लिए इसे अनिवार्य बताते हैं। ज्ञान वह जो अंत: की समृद्धि बढ़ाए गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार करे। विज्ञान वह जो बहिर्मुखी व्यावहारिक जानकारी मनुष्य को दे। दोनों एक दूसरे के बिना अपूर्ण हैं। ज्ञान संस्कृति का जन्मदाता है, तो विज्ञान सभ्यता का। संस्कृति व सभ्यता एक दूसरे के साथ चलने पर ही मनुष्य को सर्वांगपूर्ण विकास के पथ पर बढ़ाते हैं। अत: विद्या एवं शिक्षा दोनों को, ऊपर बताई गई दो आवश्यकताओं को दृष्टिगत रख समंवित रूप में प्रारंभ से ही दिए जाने की व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। मनुष्य स्वेच्छाचारिता न बरतकर अनुशासित रहे, सदाचारी बने, इसके लिए यह समन्वय अत्यंत अनिवार्य है।

             आगतेषु गुरूष्वत्र महर्षि: स ऋतंभर:।
उत्थाय कृतवान् व्यक्ता जिज्ञासां नम्रभावत:॥ ३५॥
टीका—आगंतुक अध्यापकों में से महामनीषी महर्षि ऋतंभर ने उठकर विनम्रतापूर्वक जिज्ञासा व्यक्त की॥ ३५॥
ऋतंभर उवाच
संस्कारिणीमिमां विद्यां विधातुं मर्त्यजीवने।
समाविष्टां विधिर्वाच्यो बोधबोधनयो: प्रभो॥ ३६॥

टीका—ऋतंभर ने कहा, भगवन् सुसंस्कारी विद्या को मनुष्य जीवन में समाविष्ट करने की विधि व्यवस्था समझाएँ। उसे किस प्रकार सीखा और सिखाया जाना चाहिए॥ ३६॥
कात्यायन उवाच
भद्र एष शुभारंभ: पितृभ्यां मर्त्यजीवने।
निजे कृत्वा परिष्कारं विधातव्यो यथा च तत्॥ ३७॥ बीजं भवति चोत्पत्ति: क्षुपाणां तादृशां भवेत्।
दायित्वं पितरौ बुद्ध्वा सच्चारित्र्यं च चिंतनम्॥ ३८॥
उच्चस्तरं तु गृह्णीयुर्भूत्वा कामातुरास्तु ते।
अनीप्सितां न चोत्पन्नां कुर्यु: संततिमात्मन:॥ ३९॥

टीका—कात्यायन बोले भद्रजनो यह शुभारंभ माता- पिता को अपनी जीवनचर्या में सुधार, परिष्कार करके आरंभ करना चाहिए। जैसा बीज होता है, वैसी ही पौध उगती है। इसलिए जनक- जननी अपने महान् उत्तरदायित्व को समझें और सुयोग्य संतान के लिए उच्चस्तरीय चिंतन और चरित्र अपनाएँ। कामातुर होकर अवांछनीय संतान उत्पन्न न करें॥ ३७- ३९॥

काँटेदार बबूल का बीज बोकर आम का वृक्ष पनपने की आशा नहीं की जाती। खाद, पानी, निराई, गुड़ाई जितनी महत्त्वपूर्ण है, उससे भी अधिक यह कि बीज श्रेष्ठ है या नहीं। किसान इसलिए अपनी फसल बोने से पहले श्रेष्ठ बीज ढूँढ़ते हैं, तदुपरांत अन्य व्यवस्थाएँ करते हैं। माता- पिता की, शिशु निर्माण में किसान जैसी ही भूमिका है। जितना श्रेष्ठ चिंतन व चरित्र का स्तर माता- पिता का होगा, उतनी ही उच्चस्तरीय सुसंतति होगी। एक नया जीवन संसार में प्रवेश ले, उसके पूर्व माता- पिता स्वयं अपनी मनोभूमि बनाएँ, संस्कारों को पोषण दें, तो ही ऐसी श्रेष्ठ संतान की अपेक्षा की जा सकती है। जो विद्यार्जन हेतु सक्षम आत्मबल जुटा सके।

अबोधा: शिशवो मातुरुदरावधित: स्वयं।
अभ्यस्तास्ते कुटुंबस्य ज्ञेयं वातावृतौ बहु॥ ४०॥
शिशूनां सप्तवर्षाणां प्रायो  व्यक्तित्वनिर्मिति:।
पूर्णैव जायते चास्यामवधौ पारिवारिकी ॥ ४१॥
वातावृति: शिशून् कृत्वा पूर्णतस्तु प्रभावितान्।
सुनिश्चिते क्रमे चैतान् परिवर्तयति स्वयम्॥ ४२॥

टीका—अबोध शिशु माता के उदर से लेकर परिवार के वातावरण में बहुत कुछ सीख लेते हैं। सात वर्ष की आयु तक बच्चों का व्यक्ति त्व बहुत बड़ी मात्रा में विनिर्मित हो चुका है। इस अवधि में पारिवारिक वातावरण का ही भला- बुरा प्रभाव बालकों को सुनिश्चित ढाँचे में ढालता है॥ ४०- ४२॥

विद्या वह उच्चस्तरीय संस्कारयुक्त मार्गदर्शन है, जिसका शुभारंभ गर्भावस्था से ही हो जाता है। माता की गर्भकाल की अवधि में जैसी मन:स्थिति होती है, जैसा चिंतन प्रवाह चलता है, बालक वैसा ही ढलता है। जन्म के तुरंत बाद से ही वह शिक्षण प्रत्यक्ष रूप से चल पड़ता है। आनुवांशिकता से गुण संपदा के संतान में समाविष्ट होने की बात जितनी सही है, उतनी ही यह भी कि वातावरण में, स्वयं के जीवन क्रम में उन संस्कारों का समावेश किया गया अथवा नहीं, जो माता- पिता अपनी संतानों में चाहते हैं। एक दार्शनिक का वह कथन शत- प्रतिशत सही है, जिसमें उन्होंने ५ वर्ष की अवधि के बाद शिक्षण हेतु अपने बच्चे को लेकर आने वाली एक माता को कहा था कि बच्चे को विद्या देने की बहुमूल्य अवधि ५ वर्ष तो वह गँवा चुकी। वस्तुत: सुसंतति के निर्धारण हेतु माता- पिता का स्थान भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि जन्मोपरांत निर्धारित अवधि में गुरुकुल पहुँचने पर शिक्षक का।

अत: पश्चाद् विनिर्मान्ति व्यक्ति त्वं गुरवश्च ते।
नोपदेशेन पाठ्यैर्वा विषयै: संभवेदिदम्॥ ४३॥
गुरुकुलेषु निवासस्याऽध्यापनस्याऽपि च द्वयो:।
कार्यं सहैव सम्पन्नं जायते तेन तत्र च ॥ ४४॥
ग्रंथाऽध्यापनमात्रं न जायतेऽपितु विद्यते।
प्रबंधस्तत्र शिक्षाया व्यवहारस्य शोभन: ॥ ४५॥
सुयोग्य परिवारस्य भूमिकां निर्वहंति ये।
यत्र वातावृति: स्फूर्तिदाऽस्ति विद्यालयास्तु ते॥ ४६॥

टीका—इसके उपरांत गुरुजन बालकों का व्यक्ति त्व बनाते हैं। यह कार्य मात्र उपदेश या पाठ्यक्रम के सहारे संपन्न नहीं होता। गुरुकुलों में निवास और अध्ययन के दोनों ही कार्य साथ- साथ चलते हैं। इसलिए वहाँ पुस्तक पढ़ाने का ही नहीं, व्यवहार सिखाने का भी प्रबंध किया जाता है। सुयोग्य परिवार की भूमिका जो निभा सकते हैं, जहाँ प्रेरणाप्रद वातावरण होता है, वस्तुत: वे ही विद्यालय कहलाने के अधिकारी हैं॥ ४३- ४६॥

कुसंस्कारयुते वातावरणे याति विकृतिम्।
व्यक्ति त्वं बालाकानां सा शिक्षा व्यर्थत्वमेति च॥ ४७॥
भौतिकी वर्तते चाल्पं महत्त्वं ज्ञानजं परम्।
प्रतिभाया महत्त्वेन युतायास्त्वधिकं मतम्॥ ४८॥

टीका—कुसंस्कारी वातावरण में बालकों के व्यक्ति त्व उलटे बिगड़ते हैं। शिक्षा के रूप में जो भौतिक जानकारी प्राप्त हुई थी, वह भी निरर्थक चली जाती है। जानकारी का क्रम और संस्कारवान् प्रतिभा का महत्त्व अधिक है॥ ४७- ४८॥

माता- पिता बाल्याकाल के प्रारंभिक वर्षों में बालक के विकास हेतु उत्तरदायी हैं, तो गुरु- शिक्षक उनके उत्तरकाल के लिए। यही वह अवधि है, जिनमें मस्तिष्क की पकड़ अत्यंत पैनी होती है। बालक गीली मिट्टी के समान होते हैं। इस समय उन्हें जैसे साँचे में ढाला जाएगा, वैसे ही वे बनेंगे। उनका व्यावहारिक शिक्षण मानसिक पोषण जैसा होगा, वैसा ही उनका विकास होगा। वस्तुत: गुरुकुल भी एक परिवार संस्था ही है, गुरुजन अभिभावक है एवं अन्य साथी भाई- बहिन के समान। जो मर्यादाएँ परिवार संस्था पर लागू होती हैं, उन्हीं का परिपालन गुरुकुलों में भी होना चाहिए। पारिवारिक स्नेह, यथोचित सुधार हेतु अंकुश, संरक्षण मार्गदर्शन पाकर व्यक्तित्व समग्र रूप में निखर कर आता एवं श्रेष्ठ नागरिक को जन्म देता है। यदि गुरुकुल मात्र लौकिक जानकारी तक ही सीमित रहें, वातावरण निर्माण की ओर वहाँ ध्यान न दिया जा रहा हो, तो बालकों में संस्कार नहीं विकसित हो पाते।

वातावृति: करोत्येतत्कार्यं संपन्नमञ्जसा ।।
मात्रमध्यापकस्त्वेतन्न कर्तुं प्रभवेदिह ॥ ४९॥
शिक्षणेन महत्कार्यं परमध्यापको भवेत् ।।
स्वभावेन चरित्रेण व्यवहारेण चोच्चग:॥ ५०॥
काले सोऽध्यापनस्यात्र पाठयत्येव नो परम्।
अभिभावकदायित्वं तदा निर्वहति स्वयम्॥ ५१॥
दायित्वमेतद् यो यावन्निर्वहेद् वस्तुतस्तु स:।
अधिकारी गुरुत्वस्य वर्तते धन्यजीवन:॥ ५२॥
 
टीका—यह कार्य विद्यालय का वातावरण ही सरलता से संपन्न करता है। अकेला अध्यापक मात्र प्रशिक्षण के सहारे इतना महान् कार्य संपन्न नहीं कर सकता। अध्यापक को अपना स्वभाव, चरित्र और व्यवहार भी उच्चस्तरीय रखना चाहिए, क्योंकि अध्यापन काल में वह मात्र पढ़ाता ही नहीं, अभिभावकों और परिवार वालों की भी जिम्मेदारी निभाता है इसी जिम्मेदारी को जो, जितनी अच्छी तरह निभा सके, वही सच्चे अर्थों में गुरुजन कहलाने का अधिकारी है तथा उसका जीवन धन्य है॥ ४९- ५२॥

वर्तमान मान्यता विद्यालयों की मात्र इतनी है कि पुस्तकों से लदकर वहाँ तक जाया जाए, समयक्षेप करके बच्चों के शाम को वापस लौटते ही अध्यापक एवं अभिभावक अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री समझ लें। दोनों के ही रुचि न लेने एवं अभीष्ट वातावरण न बनने के कारण ही शिक्षा का स्तर नित्य गिरता जाता है। लौकिक शिक्षा की पदवी प्राप्त छात्रों की संख्या नित्य बढ़ती जा रही है। कहीं श्रेष्ठ विद्यार्थी नाम भर को दिखाई देते हैं। जो हैं, वे स्वयं के पुरुषार्थ से अथवा अपनी जन्मजात विलक्षण प्रतिभा के बलबूते ऊँचे उठे होते हैं।

यहाँ ऋषि श्रेष्ठ कात्यायन संकेत करते हैं कि छात्र निर्माण हेतु जितनी बड़ी जिम्मेदारी अभिभावकों की, एवं श्रेष्ठ वातावरण की है, उच्चस्तरीय शिक्षण की है, उससे भी अधिक स्वयं शिक्षक की है। उन्हें व्यक्ति गत जीवन में श्रेष्ठ चरित्र वाला एवं मातृ हृदय संपन्न होना चाहिए। पढ़ाना, विद्या को छात्र के अंदर तक उतार देना जितना जरूरी है, उतना ही अपने चरित्र से शिक्षण देना भी। शिक्षक का यह नैतिक दायित्व है कि वे पहले स्वयं वैसा बनें, जैसा वह छात्रों से अपेक्षा रखते हैं।

ज्ञानात्पुस्तकसंबद्धादतिरिक्तं च कौशलम्।
व्यवहारसमुद्भूतं स्वभाव: श्रेष्ठतां गत:॥ ५३॥
तयोर्निर्मितये भाव्यं वातावृत्याऽनुकूलया।
निर्देशेन तथाऽनेकै: साधनैरपि संततम् ॥ ५४॥
विशेषताभिरेताभिर्युता शिक्षणपद्धति: ।।
यत्रास्ते तत्र ये बाला पुष्टिं यांति पठन्त्यपि॥ ५५॥
प्रगतिं सार्वभौमां ते सन्ततं यांति च क्रमात्।
जीवने चाऽन्यमर्त्यानां कृते प्रामाणिकाश्च ते॥ ५६॥
परिवाराद् भूमिका सा प्रारब्धा सन्ततं चलेत्।
विद्यालस्य कैशोर्यं यावदत्येति बालक:॥ ५७॥
प्रौढतां परिपक्वत्वं गृह्णात्येव च नो यदा।
तदैव ज्ञेयं बालस्य जाता निर्मितिरुत्तमा॥ ५८॥

टीका—पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त व्यवहार, कौशल और श्रेष्ठता संपन्न स्वभाव बनाने के लिए तदनुरूप वातावरण, मार्गदर्शन एवं साधन भी होने चाहिए। ऐसी विशेषताओं से युक्त शिक्षण पद्धति जहाँ है, वहाँ पढ़ने, पलने और बढ़ने वाले बालक सर्वतोन्मुखी प्रगति करते हैं तथा जीवन में अन्य लोगों के लिए प्रमाण बनते हैं। अस्तु घर- परिवार से विद्यालय की भूमिका आरंभ होकर तब तक चलती रहनी चाहिए, जब तक कच्ची आयु पार करके प्रौढ़ता परिपक्वता की भूमिका न निभाने लगे। जब ऐसा हो जाए तब समझना चाहिए कि बालक का निर्माण हो गया॥ ५३- ५८॥

जीवन बहुरंगी है। यहाँ तरह- तरह की परिस्थितियों से, भिन्न- भिन्न मन:स्थिति के व्यक्ति यों से निरंतर पाला पड़ता रहता है। जीवन संग्राम में सफल होने के लिए व्यक्ति को व्यवहार कुशल होना अत्यंत अनिवार्य है। इस विधा का शिक्षण किसी विद्यालय में अलग से नहीं दिया जाता, अपितु समग्र शिक्षण पद्धति ही ऐसी होती है, जिससे उससे जुड़ने वाले छात्र सर्वांगपूर्ण विकास कर सकें। शिक्षण तभी समग्र माना जा सकता है, जब बच्चे को परिवार संस्था से लेकर गुरुकुल तक निरंतर इसी प्रकार मार्गदर्शन मिलता रहे। एक बार मन:स्थिति के साँचे में ढलने पर वह जीवन का एक अंग बन जाती है। तब यह प्रयास पुरुषार्थ सफल हुआ माना जा सकता है।

भद्रा नरेषु संस्कारभावनायास्तु जागृते: ।।
दायित्वं बालकेष्वत्र जातेष्वपि युवस्वपि॥ ५९॥
समाप्तिं याति नो देवसंस्कृति: प्राक् तु जन्मन:।
पश्चादपि च मृत्योस्तां कर्तुं संस्कारसंयुताम्॥ ६०॥
मानवीं चेतनां दिव्यमकार्षीत्क्रममुत्तमम्।
नोद्गच्छेत्पशुता मर्त्येऽनिवार्यं चाङ्गमत्र तु॥ ६१॥
इदं तु सभ्यता स्थूलनियमाश्रितमप्यलम् ।।
सिद्ध्यतीह ततोऽग्रे च मनुष्ये बलिदानिनाम्॥ ६२॥
सतां समाजसंस्कारकर्तृणां चित्तभूमिकाम्।
कर्तुं विकसितां तं च निर्मातुमृषिमुत्तमम् ॥ ६३॥
मनीषिणां महामर्त्यं देवदूतं समिष्यते।
संस्कृतेरिदमेवास्ति कार्य मंगलदं नृणाम्॥ ६४॥

टीका—हे भद्रजनो मनुष्य में सुसंस्कारिता जगाने का उत्तरदायित्व बालकों के युवा हो जाने पर ही समाप्त हो जाता है। देवसंस्कृति ने जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक मानव चेतना को संस्कारित करने का क्रम बनाया है। मनुष्य में पशुता के कुसंस्कार न उभरने देना उसका एक अनिवार्य पक्ष है। यह तो सभ्यता के स्थूल नियमों के माध्यम से भी किसी सीमा तक सध जाता है, किंतु इसे आगे मनुष्य में संत, सुधारक, शहीद की मनोभूमि विकसित करना उसे मनीषी, ऋषि, महामानव, देवदूत स्तर तक विकसित करना भी अभीष्ट है। यह कार्य संस्कृति का है॥ ५९- ६४॥

मात्र विद्यार्जन कर विद्वान बना देना, पदवी दिलाकर वैभव संपन्न बना देना ही शिक्षा का लक्ष्य नहीं होता। देव संस्कृति के इस महत्त्वपूर्ण प्रसंग की परिधि अत्यंत विशाल है। बालक में जगाए गए संस्कारों की परिणति आगे चलकर और भी महान् हो, यह उद्देश्य ऋषिगणों का, शिक्षण प्रक्रिया के मूल में रहा है। गर्भावस्था से ही संस्कारों के पोषण की प्रक्रिया आरंभ होती एवं मृत्योपरांत तक चलती रहती है। यह देव संस्कृति के विभिन्न उपक्रमों के माध्यम से संपन्न होता है। व्यक्ति न बिगड़े, अपनी पूर्व योनियों के चिर संचित संस्कारों की ओर पुन: उन्मुख न हो यह ठीक है, किंतु यह भी जरूरी है कि वह और भी श्रेष्ठ बने।

विज्ञानं भौतिकं लोके पदार्थस्य तदोजस: ।।
उपयोगं प्रशास्त्येव नियंत्रणमथापि च ॥ ६५॥
आश्रित्याध्यात्मविज्ञानमंतश्चैतन्यगं तथा ।।
महाचैतन्यगं नूनं लभ्यतेऽत्रानुशासनम् ॥ ६६॥
नियंत्रिता पदार्था: स्युरंतश्चेतनया तथा ।।
जीवांतश्चेतना स्याच्च परचैतन्य संयुता ॥ ६७॥
विकासस्य सुखस्याथ शांते: श्रेष्ठ: क्रमस्त्वयम्।
देवसंस्कृतिरेनं च सिद्धान्तं सुप्रतिष्ठितम् ॥ ६८॥
नरस्य चिंतने कर्तुं चरित्रे सफला ह्यभूत्।
लोककल्याणमत्यर्थमस्मादेवह्यभूत्तत: ॥ ६९॥
अतो विश्वस्तरेणेयं श्रेष्ठां याता च मान्यताम्।
निर्माति मानवं या तु देवं वै देवसंस्कृति: ॥ ७०॥

टीका—भौतिक विज्ञान पदार्थ एवं पदार्थगत ऊर्जा के नियंत्रण और उपयोग का मार्ग प्रशस्त करता है। अध्यात्म विज्ञान के सहारे अंत:चेतना तथा महत् चेतना के अनुशासन हस्तगत होते हैं। पदार्थ पर अंत:चेतना का नियंत्रण रहे, अंत:चेतना महत् चेतना से युक्त रहे। विकास और सुख- शांति का श्रेष्ठ क्रम यही है। यह महान सिद्धांत, देव संस्कृति ने जन- जन के चिंतन और चरित्र में उतार देने में सफलता पाई है। इसी से महान् लोक कल्याण हुआ है। इसीलिए इसे विश्वस्तर पर श्रेष्ठ संस्कृति के रूप में मान्यता मिली है। यह मानव को देवता बनाती है, अत: देव संस्कृति कहलाती है॥ ६५- ७०॥

भारतीय संस्कृति देव संस्कृति ने चिर पुरातनकाल से मानवता को अनेकानेक अनुदान दिए हैं। अपने स्वरूप श्रेष्ठ उद्देश्यों, सार्वभौम रूप के कारण इसे विश्व संस्कृति का पर्याय माना जा सकता है। सभ्यता इसी के गर्भ से पनपी जिससे ज्ञान- विज्ञान की अनेकानेक विधाओं ने जन्म लिया एवं सारे विश्व को उन उपलब्धियों से लाभांवित किया। किसी देश, जाति, धर्म संप्रदाय वर्ग, समाज विशेष तक सीमित न रहकर यह संपूर्ण मानव जाति के विकास एवं कल्याण का पथ प्रशस्त करती रही है। इसका मूल आधार है यहाँ की ऋषि परंपरा। ऋषियों की आध्यात्मिक एवं वैचारिक संपदा अब भी परोक्ष रूप से वातावरण में गुंजित पाई जा सकती है।

भौतिकी और आत्मिकी की परस्पर अन्योन्याश्रयता का प्रतिपादन देव संस्कृति की मूलभूत विशेषता है। पदार्थ विज्ञान, भौतिकी स्थूल उपादानों से संबंधित है, जबकि चेतना विज्ञान, आत्मिकी, परोक्ष चेतन हलचलों से संबंधित है। पदार्थ में गति है तो चेतन में गति है। गति के पीछे कोई उद्देश्य न हो, वह गति से प्रज्ञा- विवेक अंतर्दृष्टि समंवित न हो तो एक निरर्थक परिभ्रमण की खिलवाड़ ही चारों ओर नजर आएगी। साधनों के बिना गति, अंतश्चेतना भी अधूरी है। भौतिकी का अनुदान सुविधा है तो आत्मिकी का वरदान है प्रतिभा। दोनों की अपनी- अपनी उपयोगिता है, किंतु इन्हें समंवित रूप से प्रस्तुत करना संस्कृति का उत्तरदायित्व है। देव संस्कृति ने इन्हीं सूत्रों को जनसुलभ बनाकर जन- जन के मनों तक पहुँचाया है। इसी कारण इसके अनुयायी बाह्य सुख साधनों के उपभोग तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु अंत: के पुरुषार्थ में सतत् संलग्न रहें। धर्म संस्कृति की प्राण चेतना का जीवंत रहना ही इसके अनुयाइयों की चरित्र निष्ठा के मूल में रही है।

विकसंति महात्मान: संस्कृतिश्चापि कुत्रचित्।
क्षेत्रे विशेष एवात्र परं बद्धा न सीम्नि ते ॥ ७१॥
विकासं भारते याता देवसंस्कृतिरित्यहो।
सत्यं परंतु सा विश्वसंस्कृतौ चिंतिता बुधै:॥ ७२॥
गौरवं चेदमेवेयं गता काले महत्तरे ।।
तदा विश्वं सुखं शांतिमन्वभूच्च निरंतरम्॥ ७३॥
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