Books - प्रतीक पूजा का वैज्ञानिक आधार
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प्रतीक पूजा का वैज्ञानिक आधार
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गायत्री महामंत्र हमारे साथ- साथ-
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियों, भाइयों!! ईश- पूजन की आवश्यकता के बारे मैं आपको हमेशा से कहता और बताता चला आ रहा हूँ। पूजा की आवश्यकता हमेशा पड़ेगी और पग- पग पर पड़ती रहेगी। पूजा के खिलाफ मुसलमान सबसे ज्यादा हैं। मुसलमान सर्वप्रथम जब हिंदुस्तान में आए और हिंदुस्तान में आकर उन्होंने मंदिरों को तहस- नहस कर डाला। सोमनाथ के मंदिर को तोड़- फोड़कर उन्होंने फेंक दिया। श्री रामचंद्र जी का मंदिर अयोध्या में बना हुआ था, उसे भी उन्होंने तोड़- फोड़कर फेंक दिया। कृष्ण भगवान का मंदिर मथुरा में बना हुआ था, उसे तोड़- फोड़कर फेंक दिया। उनका ख्याल था कि व्यक्ति को मूर्ति- पूजा नहीं करनी चाहिए।
उनका ये ख्याल था कि पृथ्वी को हम मंदिरविहीन कर देंगे। अंत तक मूर्ति- पूजा न करने की बात पर वे कायम रहे। मक्काशरीफ में आप जाइए ,, वहाँ एक संगे अवसद नाम का पत्थर रखा हुआ है। वह काले रंग का है। जो कोई भी मुसलमान काबा में जाता है, मक्का- मदीना में जाता है, हज करने के लिए ,, तो उसको पत्थर के सामने इजरा करना होता है और बोसा लेना पड़ता है। चुंबन लेना पड़ता है। अगर चुंबन नहीं लिया, बोसा नहीं लिया उस काले रंग के पत्थर का तो, उनकी हज- यात्रा निरर्थक हो जाएगी। वह जो उनकी इबादत है और हज है, वह खत्म हो जाएगी। यह क्या बात हो गई? हमने भी अपने गोलमटोल शंकरजी बनाए थे और शालिगराम जी बनाए थे, उन्होंने इसे चौड़ा वाला पत्थर बना दिया। मूर्ति- पूजा से पिंड कहाँ छूटा? किसी का भी नहीं छूट सकता। मूर्ति- पूजा की खिलाफत आर्य समाज वाले भी करते हैं। आर्य समाज वाले मूर्ति- पूजा को नहीं मानते, लेकिन उनके यहाँ भी स्वामी दयानंद की मूर्ति लगी हुई है। स्वामी दयानंद की मूर्ति को उतारकर हम यदि उसका अपमान करने लगें तो क्या किसी आर्य- समाजी को यह अच्छा लगेगा? जबान से भले ही न कहे, लेकिन बाद में बहुत गालियाँ देगा और लड़ने आएगा और कहेगा कि आपने हमारे स्वामीजी का क्यों अपमान किया? उनका फोटोग्राफ या तसवीर अगर हम ले आएँ और उनका अपमान करने लगें तो क्या कोई आर्यसमाजी बरदाश्त करेगा? नहीं करेगा, उसको बहुत बुरा लगेगा। उसके चेहरे से आप देख सकते हैं।
यह क्या हो गया? यह प्रतीक पूजा हो गई, कम्यूनिस्ट पार्टी वाले इस बात को नही मानते कि कोई भगवान है और कोई पूजा है और कोई मंदिर होना चाहिए। वे भगवान की बात पर यकीन नहीं करते और मूर्ति- पूजा को नहीं मानते, लेकिन उनका लाल झंडा क्या है? लाल झंडे को अगर हम फाड़कर फेंक दें और लाल झंडे को हम उनके सामने जलाएँ तो वह कम्यूनिस्ट हमसे लड़ने आएँगे और यह कहेंगे कि आपने हमारा लाल झंडा क्यों जला दिया? भाई, वह तुम्हारा कौन था? वह तो हमारा था, हमने उसे अपने पैसे देकर खरीदा था। हमने इसे वहाँ लगाया था। हमने दियासलाई लगा दी। हमने इसका अपमान कर दिया, फिर तुम्हें इससे क्या शिकायत? तुम्हें इससे क्या लेना- देना? वाह! लेना- देना क्यों नहीं? यह अंतर्राष्ट्रीय कम्यूनिस्ट पार्टी का झंडा है, आपने इसे जला दिया और खाक कर दिया। कम्यूनिस्ट हमसे लड़े बिना नहीं रहेगा और राष्ट्रीय विचारधारा के लोग कांग्रेस के लोग जिन्होंने झंडे के लिए कितनी ज्यादा कुरबानियाँ दीं, बलिदान दिया। उन दिनों पटना के हाईकोर्ट के ऊपर विद्यार्थी झंडा लगाने के लिए जा रहे थे और गवर्नमेंट ने मना किया और कर्फ्यू लगाया और कहा आपको नहीं जाना चाहिए। विद्यार्थी नहीं माने। उन्होंने कहा हमारे देश का झंडा हाईकोर्ट पर अवश्य फहराया जाएगा। विद्यार्थी चले जा रहे थे। सिपाहियों ने कहा- अच्छा आप आगे जाएँगे, तो हम गोलियों से भून देंगे। उन्होंने कहा- आप गोलियों से भून दीजिए। वे सात विद्यार्थी थे, पटना में मारे गए और जिनका अभी भी स्मारक बना हुआ है झंडे के लिए। झंडे से क्या फायदा? झंडा तो एक रूपये का था, बारह आने का था और जान कितनी कीमती थी? झंडे के लिए उसे क्यों खरच कर डाला? झंडे के लिए क्यों आपने नुकसान उठाया, कष्ट उठाया? झंडे की बात नहीं है। उसके पीछे जो भावनाएँ जुड़ी हुई हैं, जो हमारे प्रतीक जुड़े हुए हैं, वे बड़े कीमती हैं।
हमारी मूर्तियाँ जो हमारे मंदिरों में स्थापित हैं, गीता की पुस्तक और भागवत की पुस्तक जिनको हम सिर पर रखकर जलूस निकालते हैं और गुरू ग्रंथ साहब, जिसके सामने हम मत्था टेकते हैं, वेद की पुस्तक जिनका हम जलूस निकालते हैं- ये सब हमारे प्रतीक- पूजन हैं और प्रतीक- पूजन बड़ा आवश्यक है। मैं तो प्रतीक- पूजन की हिमायत करता रहा हूँ। प्रतीकों की स्थापना मैंने जिंदगी भर की है। गायत्री तपोभूमि पर भी की। गायत्री माता वहाँ विद्यमान हैं और यहाँ पर गायत्री प्रतीक स्थापित हैं। अखण्ड ज्योति कार्यालय में जहाँ हम रहते थे, वहाँ भी दीपक के रूप में गायत्री माता के फोटोग्राफ और तसवीर के रूप में हमारा प्रतीक स्थापित है, पर मैं कई बार इन चीजों के बारे में आपको बुरा- भला कहता हूँ। यह क्यों कहता हूँ? प्रतीकों का कई बार मजाक उड़ाता हूँ क्यों? प्रतीकों का मजाक मैं इसलिए उड़ाता हूँ कि प्रतीकों के बारे में मैं बार- बार गरम बात इसलिए कहने लगता हूँ कि आपके प्रतीक को सब कुछ मान लिया है। प्रतीक ही सब कुछ नहीं है। वे रेलवे लाइन पर खड़े हुए सिगनल की तरीके से हैं। जो हमको यह बताते हैं कि हमको कहाँ चलना चाहिए और कहाँ जाना चाहिए?
मूर्ति को आप मानकर चलेंगे कि ये सब सामर्थ्यवान हैं और ये सर्वसमर्थ हैं तो हम नाराज होंगे। तब हम आपसे कहेंगे कि यह गीता की पुस्तक की तरीके से हैं। श्रीकृष्ण भगवान का ज्ञान जो उन्होंने अर्जुन को दिया था, उस सारे के सारे ज्ञान को हमने कैद कर रखा है- पकड़ करके रखा है, एक किताब में, जिसे गीता की किताब कहते हैं। गीता की पुस्तक में तो ज्ञान भरा हुआ है परंतु अगर आप ये कहेंगे कि नहीं साहब, हमको ज्ञान से क्या लेना- देना है? हम तो इसी पुस्तक की आरती उतारेंगे, इसी की हम जय बोलेंगे, इसी की हम कल्पना करेंगे, इसी को हम दीपक दिखाएँगे। वह जो कृष्ण भगवान ने अर्जुन को ज्ञान बताया था, उससे हम कोई ताल्लुक नहीं रखेंगे, तो मैं आपसे नाराज होऊँगा और यह कहुँगा कि आपने अपनी गीता का मूल्य नहीं समझा, महत्व नहीं समझा। आप तो खिलौने के पत्थर और न जाने किन- किन बातों को लेने लगे। मैं हमेशा यह चाहता रहा हूँ कि मेरे समझाने का मतलब आपकी समझ में आना चाहिए। जब आप यह कहेंगे कि हम इसको सब कुछ मानते हैं कि बद्रीनारायण वाले श्रीकृष्ण भगवान बड़े जबरदस्त हैं। उन्हीं को लेकर हम बैकुंठ को चले जाएँगे और वहाँ जो वृंदावन में रहते हैं, वह निकम्मे हैं, बेकार हैं, उनमें कोई ताकत नहीं है। बद्रीनारायण वाले भगवान में बड़ी ताकत है तो मैं नाराज होऊँगा और कहूँगा आप मूर्ति- पूजा का महत्व नहीं जानते, रहस्य नहीं जानते। जहाँ कहीं भी बद्रीनारायण, जहाँ कहीं भी श्रीकृष्ण भगवान हैं, चाहे वह आपके मकान पर रखे हुए हों, चाहे बद्रीनारायण, चाहे वृंदावन में रखे हुए हों, कहीं भी रखे हुए हों, आप ये मत कहिए कि वृंदावन वाला जबरदस्त है श्रीकृष्ण भगवान और मथुरा वाला कमजोर है। ये बात आप कहेंगे तो मैं नाराज होऊँगा। मूर्तियाँ सारी की सारी जहाँ कहीं भी रखी हैं, वे भगवान के रूप की- श्रीकृष्ण की याद दिलाती हैं, बस काम खत्म हो जाता है।
मूर्तियों में आप ताकत बताने लगेंगे तो क्या हो जाएगा। तब ये बुतपरस्ती के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था। पूजा को तो कोई भी मना नहीं कर सकता। मोहम्मद साहब तो क्या, कोई भी मना नहीं कर सकता। लेकिन बुतपरस्ती को सभी मना करते हैं।
मोहम्मद साहब जब पैदा हुए तब उन्होंने कहा कि यह बड़ी वाहियात बात है। तुम लोग अलग- अलग बुत मानते हो, पर खुदा तो एक है। इतने सारे खुदा भी कहीं हो सकते हैं? गाँव- गाँव का खुदा भी कहीं हो सकता है। यह आपने क्या वहम पाल रखा है। बच्चों को ‘जिबह ’(जो बधित किया गया हो) नहीं करना चाहिए। वाह! बच्चों को जिबह नहीं करेंगे तो हमारे बुत खाएगा क्या? अच्छा तो एक काम करो, बकरी को मार डालो। ऊँट को ‘जिबह’ कर लो। गाय को ‘ जिबह’ कर लो। कई बच्चों को मारो मत। ठीक बात है। मोहम्मद साहब ने अपने ढंग से स्वयं काम कर दिया था। उस जमाने में मोहम्मद साहब बुतपरस्ती के खिलाफ थे ।। वह और किसी तरह की बुतपरस्ती थी। हमारे आपके जैसी नहीं। वह मूर्ति- पूजा की कैसे खिलाफत कर सकते थे। मूर्ति- पूजा का कोई खंडन नहीं कर सकता। मूर्ति- पूजा दुनिया में रही है और रहेगी। लेकिन मूर्ति- पूजा के हम खिलाफ होंगे, मूर्ति- पूजा से हम इनकार करेंगे और मूर्ति- पूजा के लिए आपके वहम को हटाएँगे,दुनिया से वहम को हटाएँगे और आपकी श्रद्धा को हिलाएँगे। कब? जब आप यह ख्याल करने लगेंगे कि जो पत्थर अमुक जगह पर रखा हुआ है, वह बड़ा ताकतवर है। उसके ऊपर आप कपड़ा पहना देंगे और उस पर छत्र चढ़ा देंगे तो वह आपका अमुक काम बना देगा, अमुक काम बना देगा। ये वाहियात बातें आप करेंगे तो मैं नाखुश होऊँगा। यह कहिए कि ये बातें आपके समझ में नहीं आती। इसके पीछे जो किस्सा है, वजह है, वह यह है कि ये सारी की सारी चीजें यह याद दिलाने के लिए है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर सबके भीतर समाया हुआ है। श्री कृष्ण भगवान के मंदिर में जरूर जाएँगे और वहाँ सिर झुकाएँगे और सिजदा करेंगे, प्रणाम करेंगे। लेकिन वह हमारा प्रणाम उस पत्थर के लिए नहीं है। हमारा वह प्रणाम उनके लिए है आज से ५०००वर्ष पूर्व भगवान जी आए थे, जो दुनिया में नई धारा और नए विचार मनुष्य को देकर चले गए थे। हम उस मूर्ति का ध्यान करते हैं, सिजदा करते हैं। हमारा ईमान और हमारी निष्ठा वहाँ रहती है। उन्हीं कृष्ण के ऊपर जो सारे विश्व में समाए हैं और सब जगह समाए हुए हैं। मूर्ति- पूजा के बारे में, प्रतीक- पूजा के बारे में बार- बार आपके मन को कच्चा कर देता हूँ। बार- बार आपकी निष्ठा को डिगा देता हूँ। मेरी बात को समझिए, मेरी बात को समझने की कोशिश कीजिए कि क्या कहता हूँ। मैं यह कहता रहूँगा कि प्रतिमा को आप पूरा मान देंगे तो बात बनेगी नहीं।
राष्ट्रीय झंडा हमारे घर में लगा हुआ है, तिरंगा झंडा हमारे घर में लगा हुआ है, जो इस बात का द्योतक है कि हम सबसे बड़े देशभक्त हैं। आप देशभक्त हैं तो हिंदुस्तान में छाई मुसीबतों और असुविधाओं से आपको पीड़ा होती है क्या? नहीं साहब, हमको क्या पीड़ा होगी। आप अपने घर में अपनी खुशहाली में हिस्सा बँटाते हैं? नहीं साहब, हम क्यों खुशहाली में हिस्सा बँटाएँगे। हम तो देशभक्त हैं। देशभक्त क्यों हैं? देखिए हमारे घर में तिरंगा झंडा लगा हुआ है। तिरंगा झंडा इस बात का प्रतीक था कि हमारे मन में देशभक्ति का जागरण होना चाहिए।
मित्रो, मूर्तियाँ इस बात की प्रतीक हैं कि हम उन भावनाओं को, जिनको हम बार- बार भूल जाते हैं और जो बातें हमारे दिमाग में से निकल जाती हैं ,हमारे ख्यालों में से निकल जाती हैं, उन्हें हम अपने ख्यालों में जगाएँ। जो बातें श्रीकृष्ण भगवान जी के साथ जुड़ी हुई हैं, जो बातें भगवान शंकरजी के साथ जुड़ी हुई हैं, जो बातें भगवान श्री रामच्रंद जी के साथ में जुड़ी हुई हैं, जो बातें गणेश जी के साथ जुड़ी हुई हैं, जो देवी के साथ में जुड़ी हुई हैं, वह ख्यालात, वह विचारधारा, वह प्रेरणा और वह प्रकाश, वह सारी की सारी चीजें इन मूर्तियों को देखकर हमारे मन में उठेंगी। अगर वह मूर्तियाँ और वह प्रतीक हमारे मन में भावना को उठाएँगे तो हम उनका स्वागत करेंगे। उनके आगे प्रणाम करेंगे। उनकी उपयोगिता को स्वीकार करेंगे और गाँव- गाँव उनके मंदिर बनाएँगे। उनकी जय बोलेंगे।
मित्रो, प्रतीक हमारे माध्यम हैं और माध्यम केवल इसलिए हैं कि उनके साथ में जो मूल प्रेरणा और मूल प्रकृति जुड़ी हुई है उसके संबंध में हम जानकर रहें और उसको अपने हृदय में स्थान देने की कोशिश करें। न केवल हृदय में स्थान देने की कोशिश करें, बल्कि अपने जीवन का एक हिस्सा बना लें। ये है प्रतीक- पूजा का उद्देश्य। हमने आपसे यही कहा था। अब हम गायत्री माँ का प्रतीक घर- घर में स्थापित करना चाहते हैं और हर आदमी के दिमाग में इस बात की प्रेरणा स्थापित करना चाहते हैं कि हमको मनुष्यता का अनुयायी होना चाहिए और हमको नारी जाति के प्रति निष्ठावान और श्रद्धावान होना चाहिए। ये सारे के सारे ‘सिबोल’ हमारे इस गायत्री माता के साथ जुड़े हुए हैं। हमको विवेकशील होना चाहिए और विवेकशीलता की इज्जत करनी चाहिए। ये सारे के सारे सिद्धांत गायत्री माता के साथ जुड़े हुए हैं। इन सारें सिद्धांतों को लेकर के जो गायत्री माता का पूजन करेंगे तो उनका प्रतीक- पूजन सही होगा, सार्थक होगा और उससे दुनिया का फायदा होगा। मनुष्य जाति का उद्धार हो जाएगा। यही प्रतीक- पूजन का उद्देश्य है।
प्रतीकों के संबंध में विडंबना की शुरुआत वहाँ से प्रारंभ होती है, जहाँ हमने यह मानना शुरू कर दिया कि ये मूर्ति जो बैठी हुई है, बड़ी ताकतवर है। उसको हम मिठाई खिला देंगे, उसकी हम आरती उतारेंगे तो वह हमारा उद्धार कर देगी और हमें मालामाल कर देगी। ये ख्यालात आप करने लगेंगे तो हम नाराज होंगे। वास्तविकता को आप समझते क्यों नहीं? वास्तविकता को समझने की कोशिश कीजिए कि मूर्ति- पूजा क्यों बनाई गई थी और किसके लिए बनाई गई थी? एक दिन हमने आपसे एक बात कही थी कि गायत्री माँ, जो हमारी भारतीय संस्कृति की जीवात्मा है, जो हमारा प्राण है, जो चारों वेदों की जननी है। उसका एक ‘सिंबोल’ को लेकर के हम सारे हिंदू समाज को एक स्थान पर इकट्ठा कर सकते है। जो हमारे अनेक देवताओं के माध्यम से, संप्रदायों के माध्यम से, मंत्रों के माध्यम से, पैगबंरों के माध्यम से हजारों और लाखों टुकड़ों में हिंदू धर्म फैल गया और बिखर गया है, अब हम इसको फिर से इकट्ठा करना चाहते हैं। हम उसका बिखराव बरदाश्त नहीं करेंगे।
अब हम यह करेंगे कि हिंदू समाज का कोई न कोई तो प्रतीक होना चाहिए। कोई न कोई तो एक ‘सिंबोल’ होना चाहिए। कहीं तो एक जगह इकट्ठे होना चाहिए। राष्ट्रीय झंड़े के प्रति हम सारे हिंदुस्तानी नतमस्तक होते हैं। इसमें हिंदू भी शामिल हैं, मुसलमान भी शामिल हैं, ईसाई भी शामिल हैं। इस माध्यम से जब सारे के सारे लोग इकट्ठे किए जा सकते हैं तो क्या हम हिंदू संस्कृति को इकट्ठा करने के लिए माध्यम तलाश नहीं कर सकते। हाँ, माध्यम हमारा था और वही रहना चाहिए और वही रहेगा। कौन है वह माध्यम? वह है गायत्री मंत्र। गायत्री मंत्र हमारा माध्यम है और वही रह सकता है, दूसरा कोई बन ही नहीं सकता। हमारे पुराण, हमारे कुरान वे हैं, जिनको हम वेद कहते हैं। वेद कैसे हैं और वेदों का मूल हमारा कलमा, हिंदू का कलमा क्या हैं? हिंदू का कलमा एक है और वह है गायत्री मंत्र। हम दूसरों को भी इज्जत देते हैं। आप जिस देवता की पूजा करते हैं, आपको मुबारक, हमें क्या झगड़ना आपसे। आप श्रीकृष्ण भगवान की पूजा करते हैं तो खुशी- खुशी करें और आप ‘श्री कृष्णाय नमो नमः’ तो हम यह पूछेंगे कि जब ५०००वर्ष पहले भगवान श्रीकृष्ण का जन्म नहीं हुआ था, तब आप किसकी पूजा करते थे? श्रीकृष्ण भगवान क्या यह जाप करते थे ‘श्री कृष्णाय नमो नमः’। नहीं, ये जप नहीं करते थे। ५०००वर्ष पूर्व क्या उपासना थी? बताइए न आप!
मित्रो, तब एक ही उपासना रही है हमारी। ब्रह्माजी को आकाशवाणी के रूप में वह मिली थी। वह था- ‘गायत्री मंत्र’ और जिसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही नहीं राम और कृष्ण जो हमारे हिंदू धर्म के सूर्य और चंद्रमा माने जाते हैं, उन्होंने भी इस उपासना को अपनाया था। आप भागवत में पढ़ लीजिए। आप वाल्मीकि रामायण में पढ़ लीजिए। दोंनो को जो दीक्षाएँ दी गई थी, वह गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी और जब तक दोनों जिंदा रहे, तब तक वे गायत्री मंत्र की उपासना करते रहे। शिव की उपासना का मंत्र यही है। सूर्यवंशी राजा और चद्रंवंशी राजा जितने भी हुए, सबकी उपासना का मंत्र यही एक है और हमारी नमाज वही एक है। हमारी संध्या गायत्री के बिना संभव नहीं है। हम गायत्री के बिना संध्या कैसे कर सकते हैं? ये हमारा प्रतीक हैं और हम इस प्रतीक को, ‘सिंबोल’ को हर जगह जमाएँगे और इसलिए जमाएँगे कि सारे हिंदू समाज को यह मालूम हो जाए कि हमारी मूल जड़ कहाँ है और उद्गम कहाँ है? ताकि हम सारे समाज को एक सूत्र में पिरों सकें और सारे समाज को हम विवेकशीलता का अनुयायी बना सकें। हम विवेकशील लोग हैं। हम विचारशील लोग हैं। हम अंध- परंपराओं के अनुयायी नहीं हैं। हम हर चीज को विवेक की कसौटी पर कसते हैं, क्योंकि हमारा मंत्र हमारी उपासना गायत्री मंत्र है-
‘‘ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।’’
हम बुद्धि के उपासक हैं, हम विवेक के उपासक हैं, हम विचारों के उपासक हैं, हम तर्क के उपासक हैं। हम दलील के उपासक हैं, हम सच्चाई के उपासक हैं। हम किसी के ‘फालोवर ’ नहीं हैं, हम केवल सचाई के फालोवर हैं। ये सारी की सारी प्रेरणा कहाँ से मिल सकती हैं? ये सारी प्रेरणाएँ गायत्री मंत्र से मिल सकती हैं। इसलिए हम कमर कसकर खड़े हो गए हैं कि गायत्री मंत्र की पूजा करने के लिए हम हर आदमी को मजबूर करेंगे और गायत्री मंत्र की महत्ता को अंगीकार करने और हृदयंगम करने की सलाह देंगे और परामर्श देंगे।
एक दिन हमने आपको ये भी कहा था कि उपासना को सस्ती बनाएँगे और हर बच्चे- बच्चे को उपासना करने के लिए कहेंगे। हम यह कहेंगे कि ! गायत्री माता का एक फोटो अपने घर में पूजा- स्थली पर रखिए। यदि आप निराकार को मानने वाले हैं तो गायत्री मंत्र टाँग लीजिए। हमें कोई एतराज नहीं है। साकार उपासना को मानने वाले हैं तो आप गायत्री माता की तसवीर रख लीजिए और सुबह- शाम संध्यावंदन का क्रम आरंभ कीजिए। कोई भी व्यक्ति या स्कूल जाने वाला बच्चा सबसे पहले अपनी चप्पल उतार दे, अपनी टोपी उतार दे और अपने सिर को नीचा झुकाए। हाथ जोड़ करके प्रणाम करे, भारतीय परंपराओं की अनुभूति करे और पाँच बार गायत्री मंत्र मन ही मन बोल ले और नमस्कार करके स्कूल चला जाए पढ़ने के लिए। स्त्रियाँ खाना पकाने से पहले स्नान कर लिया है तो ठीक, नहीं भी कर लिया है तो भी ठीक, वे सिर को उघाड़कर के करके और पैरों से चप्पल उतार करके खड़ी हो जाएँ तथा पाँच बार मन ही मन गायत्री मंत्र का जप करें और उसके बाद में खाना पकाने के लिए चली जायें। दुकानदार अपनी दुकान को चला जाए। गायत्री माता का चित्र दुकान मे लगा हुआ है, उसके आगे मस्तक झुकाएँ, सिर झुकाएँ और पाँच बार मन ही मन गायत्री मंत्र जप ले। खड़े- खड़े हो करके यह उपासना कर ले और अपनी दुकानदारी को चलाए, अध्यापक या बच्चे स्कूल को चले जाएँ। इससे सस्ती उपासना तो और कोई नहीं हो सकती। मित्रो! इसमें तो शिकायत की बात भी नहीं है कि हमको समय नहीं मिलता और देखिए स्नान नहीं हुआ और ये नहीं और जनेऊ तो था नहीं। फिर कैसे करेंगे गायत्री जप? जनेऊ पहनना हो तो जरूर पहनना, हमें कोई शिकायत नहीं है और आपको स्नान करना हो तो जरूर करना। हम किससे मना करते हैं? लेकिन यदि आप बीमार हो गए हैं और आप नहीं नहा सकते हैं तो आपको ये कहने की आवश्यकता नहीं होगी कि चूँकि हम नहाए नहीं थे, इसलिए हम गायत्री मंत्र की उपासना नहीं कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में भी आपको जरूर करनी चाहिए उपासना।
गायत्री मंत्र के बारे में हम हर हिंदू से कहेंगे, हर घर में जाएँगे, हर आदमी को समझाएँगे और ये कहेंगे कि आपने अपनी संस्कृति के माता और पिता को भूला दिया था। अब आपको अपने पिता का और माता का नाम मालूम होना चाहिए और हर घर में उनकी स्थापना होनी चाहिए। भारतीय धर्म के माता- पिता कौन हैं? आपको उनका नाम मालूम होना चाहिए और आपको उनकी इज्जत करनी चाहिए, जैसे कि ऋषियों ने, देवताओं ने अनादिकाल से की और होती रहेगी। हमारे माता- पिता बदले नहीं जा सकते। आपको बुतपरस्त वालों ने और मजहब वालों ने बहका दिया है। इससे हमारी वैदिक संस्कृति को झुठलाया नहीं जा सकता। उनकी बात को टाला नहीं जा सकता। आज तो हर एक चालाक बाबाजी ने अपने- अपने नाम का मजहब खड़ा कर दिया है और अपने- अपने पैगंबर बनकर बैठे हैं और अपना- अपना मंत्र बना दिया है और अपनी- अपनी पुराण बना दी है। हम ये नहीं चलने देंगे। हम ये कहेंगे कि हिंदू धर्म एक ही था और एक ही रहेगा। ठीक है मजहब- परस्तों को अपने चेलों और चेलियों की हजामत बनाने के लिए तरह- तरह के संप्रदाय बनाने पड़े, पर इसकी क्या कीमत हो सकती है और इसकी क्या वकत हो सकती है, इसे हर विवेकशील को जानना और समझना चाहिए। जब सूरज निकलना शुरू होगा तो ये चमगादड़ और उल्लू अपनी जगह से भाग खड़े होंगे और इनकी कलई खुल जाएगी। इन्होंने ही हिंदू धर्म के टुकड़े काट- काटकर के फेंक दिए और अपने- अपने नाम के मजहब खड़े कर दिए। अब अपने- अपने नाम के मजहब नहीं चलेंगे। मजहब हमारा एक था और एक ही रहेगा।
मित्रो, अब हमको घरों में गायत्री माँ की स्थापना करनी चाहिए। गायत्री माता के ‘सिंबोल’ प्रतीक और उनकी चौकियाँ अपने घरों में स्थापित करना चाहिए। जहाँ पर थोड़ी देर बैठ करके, घंटे- आधा घंटे बैठकर भजन कर लिया करें और गायत्री मंत्र का अनुष्ठान कर लिया करें। हमकों जहाँ कहीं भी मौका मिले, इस तरह की स्थापना करनी चाहिए, जिस तरह हम यहाँ गायत्री माता की स्थापना कर रहे हैं और हमने गायत्री तपोभूमि में स्थापना की है। इस बात की जरूरत समझी जाए और जहाँ भी मौका मिले, जहाँ आवश्यकता हो वहाँ गायत्री माँ की स्थापना करनी चाहिए। हमने लोगों से यह भी कहा है कि आप चाहें तो मूर्तियाँ स्थापित करने की अपेक्षा एक चित्र स्थापित कर लें। इसमें एक फायदा आपको यह हो जाएगा कि आपके ऊपर वे जिम्मेदारियाँ नहीं आएँगी, जो हमारे ऊपर जिम्मेदारियाँ आती हैं। मूर्ति स्थापित करने से हमको भोग लगाना पड़ेगा। प्रसाद बाँटना पड़ेगा, सवेरे उनकी पूजा करनी पड़ेगी। हमें आरती करनी पड़ेगी। हमें ये करना पड़ेगा, वो करना पड़ेगा। अतः जहाँ जैसी जिम्मेदारियाँ उठाना संभव हो सके, वहाँ वैसी ही उठाई जाए। जहाँ पर संभव नहीं, वहाँ पर तसवीर स्थापित कर ली जाए और वहाँ पर सब के सब लोग इकट्ठे हों, गायत्री परिवार वाले इकट्ठे हों, बच्चे इकट्ठे हों और सब इकट्ठे होकर सायंकाल को केवल आरती उतार लिया करें। आरती के समय शंख बजा दिया जाए, घड़ियाल बजा दिया जाए। अगर आपके पास प्रसाद बाँटने के लिये न हो, तो पंचामृत वाला प्रसाद प्रस्तुत का सकते हैं। पानी में थोड़ी सी शक्कर,थोड़ा सा गंगाजल, तुलसी के पत्ते। बस उसी का हम पंचामृत बनाएँगे और उसी को सबको देंगे। अगर प्रसाद हमारे पास नहीं है, पैसे हमारे पास नहीं हैं तो हमारी पंचामृत वाली जो पद्धति है, जिसमें चंदन घुला रहता है, उसका ही हम प्रसाद बाँट सकते हैं। उसमें कोई हर्ज की बात नहीं है।
गाँव- गाँव में, घर- घर में, मोहल्ले- मोहल्ले में इस तरह के मंदिर स्थापित करने पड़ेंगे ताकि वहाँ पर स्त्रियाँ, बच्चे, बुजुर्ग, बूढ़े और बालक सब इकट्ठे हो सकें और प्रार्थना में शामिल हो सकें। आप लोग आरती कीजिए और लोगों को अपने माता- पिता की अर्थात गायत्री और यज्ञ की जानकारी कराइए। हम प्रतीकों को जिंदा रखेंगे। हम प्रतिकों को नष्ट करने वालें नहीं हैं। हम प्रतीकों का मजाक उड़ाने वाले नहीं हैं। प्रतीकों के प्रति हम अनास्था उत्पन्न करने वाले नहीं हैं। हम तो अनास्था वहाँ उत्पन्न करते हैं और बार- बार आपसे झगड़ने के लिए इसलिए खड़े हो जाते हैं कि आप प्रतीक को ही सब कुछ मान बैठते हैं और प्रतीक जिस काम के लिए बनाया गया था, उस पर आप ध्यान देना नहीं चाहते।
मूर्तियों के माध्यम से, प्रतीकों के माध्यम से, तसवीरों के माध्यम से हमको अपने हृदय के कपाट खोलने पड़ते हैं और अपने मस्तिष्क का परिष्कार करना पड़ता है। हमको अपने जीवन का उद्धार करना पड़ता है। साथ ही हमको यह बात मालूम करनी पड़ती है कि हमको जाना कहाँ है? चलना कहाँ है? यदि आपकी मंशा में यही उद्देश्य निहित है तो हम आपकी पूजा की बराबर प्रशंसा करेंगे और बराबर सराहना करेंगे। हमको लड़ना तब पड़ता है, हमको गुस्सा तब आता है और हम आपको झकझोरते तब हैं, जब आप मूर्ति को ही सब कुछ मान बैठते हैं और कहते हैं कि यही हमारी मनोकामना पूर्ण करेगी। यही हमको बेटा देगी। यह मूर्ति हमारा ये करेगी, हमारा वह करेगी। जब आप ऐसा कहना शुरू कर देते हैं, तब हम आपसे नाराज होते हैं और यह कहते हैं कि असलियत को क्यों नहीं समझते? असलियत को समझिए। असलियत को जब आप समझेंगे नहीं तो आप मूर्तिपूजक नहीं रहेंगे, फिर आप बुतपरस्त हो जाएँगे। मूर्ति- पूजन और बुतपरस्ती में जमीन- आसमान का फरक है। मूर्ति पूजक वे हैं जो मूर्ति का इस्तेमाल गीता की पुस्तक के तरीके से किया करते हैं और ज्ञान को जहाँ से वह ज्ञान आता है, भगवान जहाँ रहते हैं, वहाँ तक अपने मन को भगाकर ले जाते हैं और ज्ञान को पकड़कर लाते हैं। वह आदमी मूर्तिपूजक है, बुत- परस्त नहीं। बुतपरस्त कौन थे? वो लोग थे बुतपरस्त जिन्हें बद्दू कहा जाता था। आप लोग बद्दू लोगों की नकल करना शुरू कर देगें तो फिर हम आप पर झल्लाएँगे और कहेंगे कि आप तो बुतपरस्त बद्दू हो जाते हैं। बद्दू आप होइए मत और किसी भी मूर्ति को ये मानकर जाइए मत कि वह सामर्थ्यवान है। उसमें चमत्कार है और वह देवी तो ऐसा कर देती है, वैसा कर देती है। वह चतत्कारी देवी है। वो चमत्कारी देवी नहीं है। चमत्कारी केवल भगवान है जो सारे विश्व में समाया हुआ है। उसी की शक्ति हमारे विचारों से संबंध रखती है, हमारे आचारण से संबंध रखती है। आचारण और विचारों से संबंध रखने वाली देवी को अगर आप उस मूर्ति के माध्यम से पकड़ते हैं तो हम आपको ठीक कहेंगे और हम आपको मुबारकबाद देंगे और कहेंगे कि आप जानकार लोगों में से हैं, आप सही आदमी हैं।
मित्रो, क्या हम प्रतीकों की अपेक्षा कर सकते हैं? नहीं, हम प्रतीकों की अपेक्षा नहीं कर सकते। प्रतीकों के माध्यम से हम उस ज्ञान को जो हमारी भारतीय संस्कृति का मूल है, हर आदमी के गले में उतारने की हम कोशिश करेंगे। इंजेक्शन की सिरिंज के बिना हम किसी तरीके से दवा आपके खून में प्रवेश नहीं करा सकते हैं। दवा हमारे पास बहुत बढ़िया वाली रखी है। उसको इंजेक्शन से लगाने के लिए सुई तो हमको चाहिए ही। सुई क्या है? सुई मित्रो, जिसको हम प्रतीक- पूजा कहते हैं। इसके अंदर जो दवा भरी जाती है, जो सिरिंज लगाई जाती है वो क्या है? वो है जिसको हम विचारणाएँ कहते हैं, भावनाएँ कहते हैं, दिशाएँ कहते हैं। जिसके लिए हमें प्रतीक- पूजा के बारे में फड़फड़ाकर आगे बढ़ना होगा। प्रतीक- पूजा के लिए हमको कदम बढ़ाना पड़ेगा और हिम्मत बढ़ानी पड़ेगी। गाँव- गाँव में मंदिर और मोहल्लों में मंदिर, घर- घर में मंदिर हमको स्थापित करने पड़ेगे, फोटोग्राफ के माध्यम से और तसवीरों के माध्यम से। क्योंकि मूर्ति के साथ में ऋद्धि- सिद्धि का वहम शामिल हो गया है। इसलिए हम मूर्तियों को इतना प्रोत्साहन नहीं देंगे, क्योंकि लोग हर मूर्तिको चमत्कारी कहने लगते हैं। ये क्या आफत आ गई? चमत्कारी कहिए मत किसी को। उसको आप प्रतीक कहिए। इसलिए हम थोड़े दिनों तक ये कोशिश करेंगे कि मूर्तियाँ कम से कम स्थापित हों और तसवीरें ज्यादा से ज्यादा स्थापित हों। हर जगह उनकी स्थापना हो ताकि हम उनके माध्यम से, उनके सहारे से उनकी व्याख्या करते हुए, उसको समझाते हुए, उसको बताते हुए भारतीय संस्कृति का मूल जो हमारा था- गायत्री मंत्र और यज्ञ, अर्थात विवेकशीलता और क्रियाशीलता अर्थात अच्छे कर्म और अच्छे स्वभाव इन दोनों का संवर्द्धन करने और उन्हें अक्षुण्ण रखने के लिए हम नए सिरे से मनुष्य को नया मनुष्य बना सकें।
मनुष्य में देवत्व का अवतरण करने के लिए, मनुष्य में भगवान का अवतरण करने के लिए और जमीन पर स्वर्ग को लाने के लिए हम यह कहेंगे कि इन प्रतीकों को इन सिंबलों को आप फिर से सँभालिए, क्योंकि ये हमारी बंदूकें हैं, ये हमारे हथियार हैं और इन हथियारों के माध्यम से मनुष्यों के अज्ञान से लड़ाई लड़नी है, ये हमारी छैनी- हथौड़े हैं। इन छैनी- हथौड़ों को हम दूर नहीं फेंक सकते हैं। यह छैनी- हथोंड़ा हरदम काम करेगा। लेकिन छैनी- हथौड़े को अगर फेंक देंगे और खाली ये कहेंगे कि हमारी ताकत में बल है और हम तो लोहे को भी ठीक कर सकते हैं। अभी मुक्का मारेंगे और लोहे को भी ठीक करेंगे, तो मुक्के से ही काम नहीं बनेगा। छैनी- हथौड़े भी आपको रखने होंगे। छैनी- हथौड़े से ही कलाई में ताकत आएगी। हमारे पास विचारणाएँ होनी चाहिए, भावनाएँ होनी चाहिए सही, लेकिन हमारे पास प्रतीक भी होने चाहिए और हमारे पास ‘सिंबल’ भी होने चाहिए। प्रतीक और सिंबलों के साथ- साथ हमको विचारणा और विवेकशीलता का विस्तार करना है। यह हमारी क्रियापद्धति है।
गायत्री परिवार की यही क्रियापद्धति है। हमारी और आपकी यही क्रियापद्धति होनी चाहिए हम आस्तिकता की स्थापना करने के लिए चले हैं और हम धार्मिकता की स्थापना करने के लिए चले हैं। यही तो हमारे उद्देश्य हैं तीन, जिनको आप गायत्री माता के तीन चरण कहते हैं। यही है तीन चरण जिनकी अमने अपने ढंग से व्याख्या करना शुरू कर दिया है। भगवान पर विश्वास, हम हर आदमी के मन में स्थापित करेंगे- गायत्री मंत्र का चरण नंबर एक। गायत्री मंत्र का चरण नंबर दो- हम हर आदमी को धार्मिक बनाना शुरू करेंगे और हर आदमी को सामाजिक बनाना शुरू शुरू करेंगे। हर आदमी को सामाजिक बनाना शुरू करेंगे। हर आदमी को समाजपरक और सूक्ष्म सेन्स को, भाव- संवेदना को अपनाने वाला बनाना शुरू करेंगे। हम हर आदमी को अध्यात्मवादी बनाना शुरू करेंगे अर्थात अपने ईमान को साबित करने वाला, अपने चरित्र को सही और उज्जवल रखने वाला बनाने की कोशिश करेंगे। हमारा मतलब आध्यात्मिकता से यही है। हमारा मतलब आस्तिकता से यही है। हमारा मतलब धर्मनिष्ठा से यही है। इन तीनों की स्थापना करने के लिए हम गायत्री मंत्र का तिरंगा झंड़ा लेकर चले हैं। इस तिरंगे झंड़े को हम बहुत प्यार करते हैं और इस झंड़े की हर जगह उसी तरह स्थापना करना चाहते हैं, जिस तरह से हमारे पूर्वजों ने और हमारे ऋषियों ने उसे प्यार किया और सुदृढ़ बनाया था।
आज की बात समाप्त।
॥ ऊँ शांतिः॥
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियों, भाइयों!! ईश- पूजन की आवश्यकता के बारे मैं आपको हमेशा से कहता और बताता चला आ रहा हूँ। पूजा की आवश्यकता हमेशा पड़ेगी और पग- पग पर पड़ती रहेगी। पूजा के खिलाफ मुसलमान सबसे ज्यादा हैं। मुसलमान सर्वप्रथम जब हिंदुस्तान में आए और हिंदुस्तान में आकर उन्होंने मंदिरों को तहस- नहस कर डाला। सोमनाथ के मंदिर को तोड़- फोड़कर उन्होंने फेंक दिया। श्री रामचंद्र जी का मंदिर अयोध्या में बना हुआ था, उसे भी उन्होंने तोड़- फोड़कर फेंक दिया। कृष्ण भगवान का मंदिर मथुरा में बना हुआ था, उसे तोड़- फोड़कर फेंक दिया। उनका ख्याल था कि व्यक्ति को मूर्ति- पूजा नहीं करनी चाहिए।
उनका ये ख्याल था कि पृथ्वी को हम मंदिरविहीन कर देंगे। अंत तक मूर्ति- पूजा न करने की बात पर वे कायम रहे। मक्काशरीफ में आप जाइए ,, वहाँ एक संगे अवसद नाम का पत्थर रखा हुआ है। वह काले रंग का है। जो कोई भी मुसलमान काबा में जाता है, मक्का- मदीना में जाता है, हज करने के लिए ,, तो उसको पत्थर के सामने इजरा करना होता है और बोसा लेना पड़ता है। चुंबन लेना पड़ता है। अगर चुंबन नहीं लिया, बोसा नहीं लिया उस काले रंग के पत्थर का तो, उनकी हज- यात्रा निरर्थक हो जाएगी। वह जो उनकी इबादत है और हज है, वह खत्म हो जाएगी। यह क्या बात हो गई? हमने भी अपने गोलमटोल शंकरजी बनाए थे और शालिगराम जी बनाए थे, उन्होंने इसे चौड़ा वाला पत्थर बना दिया। मूर्ति- पूजा से पिंड कहाँ छूटा? किसी का भी नहीं छूट सकता। मूर्ति- पूजा की खिलाफत आर्य समाज वाले भी करते हैं। आर्य समाज वाले मूर्ति- पूजा को नहीं मानते, लेकिन उनके यहाँ भी स्वामी दयानंद की मूर्ति लगी हुई है। स्वामी दयानंद की मूर्ति को उतारकर हम यदि उसका अपमान करने लगें तो क्या किसी आर्य- समाजी को यह अच्छा लगेगा? जबान से भले ही न कहे, लेकिन बाद में बहुत गालियाँ देगा और लड़ने आएगा और कहेगा कि आपने हमारे स्वामीजी का क्यों अपमान किया? उनका फोटोग्राफ या तसवीर अगर हम ले आएँ और उनका अपमान करने लगें तो क्या कोई आर्यसमाजी बरदाश्त करेगा? नहीं करेगा, उसको बहुत बुरा लगेगा। उसके चेहरे से आप देख सकते हैं।
यह क्या हो गया? यह प्रतीक पूजा हो गई, कम्यूनिस्ट पार्टी वाले इस बात को नही मानते कि कोई भगवान है और कोई पूजा है और कोई मंदिर होना चाहिए। वे भगवान की बात पर यकीन नहीं करते और मूर्ति- पूजा को नहीं मानते, लेकिन उनका लाल झंडा क्या है? लाल झंडे को अगर हम फाड़कर फेंक दें और लाल झंडे को हम उनके सामने जलाएँ तो वह कम्यूनिस्ट हमसे लड़ने आएँगे और यह कहेंगे कि आपने हमारा लाल झंडा क्यों जला दिया? भाई, वह तुम्हारा कौन था? वह तो हमारा था, हमने उसे अपने पैसे देकर खरीदा था। हमने इसे वहाँ लगाया था। हमने दियासलाई लगा दी। हमने इसका अपमान कर दिया, फिर तुम्हें इससे क्या शिकायत? तुम्हें इससे क्या लेना- देना? वाह! लेना- देना क्यों नहीं? यह अंतर्राष्ट्रीय कम्यूनिस्ट पार्टी का झंडा है, आपने इसे जला दिया और खाक कर दिया। कम्यूनिस्ट हमसे लड़े बिना नहीं रहेगा और राष्ट्रीय विचारधारा के लोग कांग्रेस के लोग जिन्होंने झंडे के लिए कितनी ज्यादा कुरबानियाँ दीं, बलिदान दिया। उन दिनों पटना के हाईकोर्ट के ऊपर विद्यार्थी झंडा लगाने के लिए जा रहे थे और गवर्नमेंट ने मना किया और कर्फ्यू लगाया और कहा आपको नहीं जाना चाहिए। विद्यार्थी नहीं माने। उन्होंने कहा हमारे देश का झंडा हाईकोर्ट पर अवश्य फहराया जाएगा। विद्यार्थी चले जा रहे थे। सिपाहियों ने कहा- अच्छा आप आगे जाएँगे, तो हम गोलियों से भून देंगे। उन्होंने कहा- आप गोलियों से भून दीजिए। वे सात विद्यार्थी थे, पटना में मारे गए और जिनका अभी भी स्मारक बना हुआ है झंडे के लिए। झंडे से क्या फायदा? झंडा तो एक रूपये का था, बारह आने का था और जान कितनी कीमती थी? झंडे के लिए उसे क्यों खरच कर डाला? झंडे के लिए क्यों आपने नुकसान उठाया, कष्ट उठाया? झंडे की बात नहीं है। उसके पीछे जो भावनाएँ जुड़ी हुई हैं, जो हमारे प्रतीक जुड़े हुए हैं, वे बड़े कीमती हैं।
हमारी मूर्तियाँ जो हमारे मंदिरों में स्थापित हैं, गीता की पुस्तक और भागवत की पुस्तक जिनको हम सिर पर रखकर जलूस निकालते हैं और गुरू ग्रंथ साहब, जिसके सामने हम मत्था टेकते हैं, वेद की पुस्तक जिनका हम जलूस निकालते हैं- ये सब हमारे प्रतीक- पूजन हैं और प्रतीक- पूजन बड़ा आवश्यक है। मैं तो प्रतीक- पूजन की हिमायत करता रहा हूँ। प्रतीकों की स्थापना मैंने जिंदगी भर की है। गायत्री तपोभूमि पर भी की। गायत्री माता वहाँ विद्यमान हैं और यहाँ पर गायत्री प्रतीक स्थापित हैं। अखण्ड ज्योति कार्यालय में जहाँ हम रहते थे, वहाँ भी दीपक के रूप में गायत्री माता के फोटोग्राफ और तसवीर के रूप में हमारा प्रतीक स्थापित है, पर मैं कई बार इन चीजों के बारे में आपको बुरा- भला कहता हूँ। यह क्यों कहता हूँ? प्रतीकों का कई बार मजाक उड़ाता हूँ क्यों? प्रतीकों का मजाक मैं इसलिए उड़ाता हूँ कि प्रतीकों के बारे में मैं बार- बार गरम बात इसलिए कहने लगता हूँ कि आपके प्रतीक को सब कुछ मान लिया है। प्रतीक ही सब कुछ नहीं है। वे रेलवे लाइन पर खड़े हुए सिगनल की तरीके से हैं। जो हमको यह बताते हैं कि हमको कहाँ चलना चाहिए और कहाँ जाना चाहिए?
मूर्ति को आप मानकर चलेंगे कि ये सब सामर्थ्यवान हैं और ये सर्वसमर्थ हैं तो हम नाराज होंगे। तब हम आपसे कहेंगे कि यह गीता की पुस्तक की तरीके से हैं। श्रीकृष्ण भगवान का ज्ञान जो उन्होंने अर्जुन को दिया था, उस सारे के सारे ज्ञान को हमने कैद कर रखा है- पकड़ करके रखा है, एक किताब में, जिसे गीता की किताब कहते हैं। गीता की पुस्तक में तो ज्ञान भरा हुआ है परंतु अगर आप ये कहेंगे कि नहीं साहब, हमको ज्ञान से क्या लेना- देना है? हम तो इसी पुस्तक की आरती उतारेंगे, इसी की हम जय बोलेंगे, इसी की हम कल्पना करेंगे, इसी को हम दीपक दिखाएँगे। वह जो कृष्ण भगवान ने अर्जुन को ज्ञान बताया था, उससे हम कोई ताल्लुक नहीं रखेंगे, तो मैं आपसे नाराज होऊँगा और यह कहुँगा कि आपने अपनी गीता का मूल्य नहीं समझा, महत्व नहीं समझा। आप तो खिलौने के पत्थर और न जाने किन- किन बातों को लेने लगे। मैं हमेशा यह चाहता रहा हूँ कि मेरे समझाने का मतलब आपकी समझ में आना चाहिए। जब आप यह कहेंगे कि हम इसको सब कुछ मानते हैं कि बद्रीनारायण वाले श्रीकृष्ण भगवान बड़े जबरदस्त हैं। उन्हीं को लेकर हम बैकुंठ को चले जाएँगे और वहाँ जो वृंदावन में रहते हैं, वह निकम्मे हैं, बेकार हैं, उनमें कोई ताकत नहीं है। बद्रीनारायण वाले भगवान में बड़ी ताकत है तो मैं नाराज होऊँगा और कहूँगा आप मूर्ति- पूजा का महत्व नहीं जानते, रहस्य नहीं जानते। जहाँ कहीं भी बद्रीनारायण, जहाँ कहीं भी श्रीकृष्ण भगवान हैं, चाहे वह आपके मकान पर रखे हुए हों, चाहे बद्रीनारायण, चाहे वृंदावन में रखे हुए हों, कहीं भी रखे हुए हों, आप ये मत कहिए कि वृंदावन वाला जबरदस्त है श्रीकृष्ण भगवान और मथुरा वाला कमजोर है। ये बात आप कहेंगे तो मैं नाराज होऊँगा। मूर्तियाँ सारी की सारी जहाँ कहीं भी रखी हैं, वे भगवान के रूप की- श्रीकृष्ण की याद दिलाती हैं, बस काम खत्म हो जाता है।
मूर्तियों में आप ताकत बताने लगेंगे तो क्या हो जाएगा। तब ये बुतपरस्ती के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था। पूजा को तो कोई भी मना नहीं कर सकता। मोहम्मद साहब तो क्या, कोई भी मना नहीं कर सकता। लेकिन बुतपरस्ती को सभी मना करते हैं।
मोहम्मद साहब जब पैदा हुए तब उन्होंने कहा कि यह बड़ी वाहियात बात है। तुम लोग अलग- अलग बुत मानते हो, पर खुदा तो एक है। इतने सारे खुदा भी कहीं हो सकते हैं? गाँव- गाँव का खुदा भी कहीं हो सकता है। यह आपने क्या वहम पाल रखा है। बच्चों को ‘जिबह ’(जो बधित किया गया हो) नहीं करना चाहिए। वाह! बच्चों को जिबह नहीं करेंगे तो हमारे बुत खाएगा क्या? अच्छा तो एक काम करो, बकरी को मार डालो। ऊँट को ‘जिबह’ कर लो। गाय को ‘ जिबह’ कर लो। कई बच्चों को मारो मत। ठीक बात है। मोहम्मद साहब ने अपने ढंग से स्वयं काम कर दिया था। उस जमाने में मोहम्मद साहब बुतपरस्ती के खिलाफ थे ।। वह और किसी तरह की बुतपरस्ती थी। हमारे आपके जैसी नहीं। वह मूर्ति- पूजा की कैसे खिलाफत कर सकते थे। मूर्ति- पूजा का कोई खंडन नहीं कर सकता। मूर्ति- पूजा दुनिया में रही है और रहेगी। लेकिन मूर्ति- पूजा के हम खिलाफ होंगे, मूर्ति- पूजा से हम इनकार करेंगे और मूर्ति- पूजा के लिए आपके वहम को हटाएँगे,दुनिया से वहम को हटाएँगे और आपकी श्रद्धा को हिलाएँगे। कब? जब आप यह ख्याल करने लगेंगे कि जो पत्थर अमुक जगह पर रखा हुआ है, वह बड़ा ताकतवर है। उसके ऊपर आप कपड़ा पहना देंगे और उस पर छत्र चढ़ा देंगे तो वह आपका अमुक काम बना देगा, अमुक काम बना देगा। ये वाहियात बातें आप करेंगे तो मैं नाखुश होऊँगा। यह कहिए कि ये बातें आपके समझ में नहीं आती। इसके पीछे जो किस्सा है, वजह है, वह यह है कि ये सारी की सारी चीजें यह याद दिलाने के लिए है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर सबके भीतर समाया हुआ है। श्री कृष्ण भगवान के मंदिर में जरूर जाएँगे और वहाँ सिर झुकाएँगे और सिजदा करेंगे, प्रणाम करेंगे। लेकिन वह हमारा प्रणाम उस पत्थर के लिए नहीं है। हमारा वह प्रणाम उनके लिए है आज से ५०००वर्ष पूर्व भगवान जी आए थे, जो दुनिया में नई धारा और नए विचार मनुष्य को देकर चले गए थे। हम उस मूर्ति का ध्यान करते हैं, सिजदा करते हैं। हमारा ईमान और हमारी निष्ठा वहाँ रहती है। उन्हीं कृष्ण के ऊपर जो सारे विश्व में समाए हैं और सब जगह समाए हुए हैं। मूर्ति- पूजा के बारे में, प्रतीक- पूजा के बारे में बार- बार आपके मन को कच्चा कर देता हूँ। बार- बार आपकी निष्ठा को डिगा देता हूँ। मेरी बात को समझिए, मेरी बात को समझने की कोशिश कीजिए कि क्या कहता हूँ। मैं यह कहता रहूँगा कि प्रतिमा को आप पूरा मान देंगे तो बात बनेगी नहीं।
राष्ट्रीय झंडा हमारे घर में लगा हुआ है, तिरंगा झंडा हमारे घर में लगा हुआ है, जो इस बात का द्योतक है कि हम सबसे बड़े देशभक्त हैं। आप देशभक्त हैं तो हिंदुस्तान में छाई मुसीबतों और असुविधाओं से आपको पीड़ा होती है क्या? नहीं साहब, हमको क्या पीड़ा होगी। आप अपने घर में अपनी खुशहाली में हिस्सा बँटाते हैं? नहीं साहब, हम क्यों खुशहाली में हिस्सा बँटाएँगे। हम तो देशभक्त हैं। देशभक्त क्यों हैं? देखिए हमारे घर में तिरंगा झंडा लगा हुआ है। तिरंगा झंडा इस बात का प्रतीक था कि हमारे मन में देशभक्ति का जागरण होना चाहिए।
मित्रो, मूर्तियाँ इस बात की प्रतीक हैं कि हम उन भावनाओं को, जिनको हम बार- बार भूल जाते हैं और जो बातें हमारे दिमाग में से निकल जाती हैं ,हमारे ख्यालों में से निकल जाती हैं, उन्हें हम अपने ख्यालों में जगाएँ। जो बातें श्रीकृष्ण भगवान जी के साथ जुड़ी हुई हैं, जो बातें भगवान शंकरजी के साथ जुड़ी हुई हैं, जो बातें भगवान श्री रामच्रंद जी के साथ में जुड़ी हुई हैं, जो बातें गणेश जी के साथ जुड़ी हुई हैं, जो देवी के साथ में जुड़ी हुई हैं, वह ख्यालात, वह विचारधारा, वह प्रेरणा और वह प्रकाश, वह सारी की सारी चीजें इन मूर्तियों को देखकर हमारे मन में उठेंगी। अगर वह मूर्तियाँ और वह प्रतीक हमारे मन में भावना को उठाएँगे तो हम उनका स्वागत करेंगे। उनके आगे प्रणाम करेंगे। उनकी उपयोगिता को स्वीकार करेंगे और गाँव- गाँव उनके मंदिर बनाएँगे। उनकी जय बोलेंगे।
मित्रो, प्रतीक हमारे माध्यम हैं और माध्यम केवल इसलिए हैं कि उनके साथ में जो मूल प्रेरणा और मूल प्रकृति जुड़ी हुई है उसके संबंध में हम जानकर रहें और उसको अपने हृदय में स्थान देने की कोशिश करें। न केवल हृदय में स्थान देने की कोशिश करें, बल्कि अपने जीवन का एक हिस्सा बना लें। ये है प्रतीक- पूजा का उद्देश्य। हमने आपसे यही कहा था। अब हम गायत्री माँ का प्रतीक घर- घर में स्थापित करना चाहते हैं और हर आदमी के दिमाग में इस बात की प्रेरणा स्थापित करना चाहते हैं कि हमको मनुष्यता का अनुयायी होना चाहिए और हमको नारी जाति के प्रति निष्ठावान और श्रद्धावान होना चाहिए। ये सारे के सारे ‘सिबोल’ हमारे इस गायत्री माता के साथ जुड़े हुए हैं। हमको विवेकशील होना चाहिए और विवेकशीलता की इज्जत करनी चाहिए। ये सारे के सारे सिद्धांत गायत्री माता के साथ जुड़े हुए हैं। इन सारें सिद्धांतों को लेकर के जो गायत्री माता का पूजन करेंगे तो उनका प्रतीक- पूजन सही होगा, सार्थक होगा और उससे दुनिया का फायदा होगा। मनुष्य जाति का उद्धार हो जाएगा। यही प्रतीक- पूजन का उद्देश्य है।
प्रतीकों के संबंध में विडंबना की शुरुआत वहाँ से प्रारंभ होती है, जहाँ हमने यह मानना शुरू कर दिया कि ये मूर्ति जो बैठी हुई है, बड़ी ताकतवर है। उसको हम मिठाई खिला देंगे, उसकी हम आरती उतारेंगे तो वह हमारा उद्धार कर देगी और हमें मालामाल कर देगी। ये ख्यालात आप करने लगेंगे तो हम नाराज होंगे। वास्तविकता को आप समझते क्यों नहीं? वास्तविकता को समझने की कोशिश कीजिए कि मूर्ति- पूजा क्यों बनाई गई थी और किसके लिए बनाई गई थी? एक दिन हमने आपसे एक बात कही थी कि गायत्री माँ, जो हमारी भारतीय संस्कृति की जीवात्मा है, जो हमारा प्राण है, जो चारों वेदों की जननी है। उसका एक ‘सिंबोल’ को लेकर के हम सारे हिंदू समाज को एक स्थान पर इकट्ठा कर सकते है। जो हमारे अनेक देवताओं के माध्यम से, संप्रदायों के माध्यम से, मंत्रों के माध्यम से, पैगबंरों के माध्यम से हजारों और लाखों टुकड़ों में हिंदू धर्म फैल गया और बिखर गया है, अब हम इसको फिर से इकट्ठा करना चाहते हैं। हम उसका बिखराव बरदाश्त नहीं करेंगे।
अब हम यह करेंगे कि हिंदू समाज का कोई न कोई तो प्रतीक होना चाहिए। कोई न कोई तो एक ‘सिंबोल’ होना चाहिए। कहीं तो एक जगह इकट्ठे होना चाहिए। राष्ट्रीय झंड़े के प्रति हम सारे हिंदुस्तानी नतमस्तक होते हैं। इसमें हिंदू भी शामिल हैं, मुसलमान भी शामिल हैं, ईसाई भी शामिल हैं। इस माध्यम से जब सारे के सारे लोग इकट्ठे किए जा सकते हैं तो क्या हम हिंदू संस्कृति को इकट्ठा करने के लिए माध्यम तलाश नहीं कर सकते। हाँ, माध्यम हमारा था और वही रहना चाहिए और वही रहेगा। कौन है वह माध्यम? वह है गायत्री मंत्र। गायत्री मंत्र हमारा माध्यम है और वही रह सकता है, दूसरा कोई बन ही नहीं सकता। हमारे पुराण, हमारे कुरान वे हैं, जिनको हम वेद कहते हैं। वेद कैसे हैं और वेदों का मूल हमारा कलमा, हिंदू का कलमा क्या हैं? हिंदू का कलमा एक है और वह है गायत्री मंत्र। हम दूसरों को भी इज्जत देते हैं। आप जिस देवता की पूजा करते हैं, आपको मुबारक, हमें क्या झगड़ना आपसे। आप श्रीकृष्ण भगवान की पूजा करते हैं तो खुशी- खुशी करें और आप ‘श्री कृष्णाय नमो नमः’ तो हम यह पूछेंगे कि जब ५०००वर्ष पहले भगवान श्रीकृष्ण का जन्म नहीं हुआ था, तब आप किसकी पूजा करते थे? श्रीकृष्ण भगवान क्या यह जाप करते थे ‘श्री कृष्णाय नमो नमः’। नहीं, ये जप नहीं करते थे। ५०००वर्ष पूर्व क्या उपासना थी? बताइए न आप!
मित्रो, तब एक ही उपासना रही है हमारी। ब्रह्माजी को आकाशवाणी के रूप में वह मिली थी। वह था- ‘गायत्री मंत्र’ और जिसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही नहीं राम और कृष्ण जो हमारे हिंदू धर्म के सूर्य और चंद्रमा माने जाते हैं, उन्होंने भी इस उपासना को अपनाया था। आप भागवत में पढ़ लीजिए। आप वाल्मीकि रामायण में पढ़ लीजिए। दोंनो को जो दीक्षाएँ दी गई थी, वह गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी और जब तक दोनों जिंदा रहे, तब तक वे गायत्री मंत्र की उपासना करते रहे। शिव की उपासना का मंत्र यही है। सूर्यवंशी राजा और चद्रंवंशी राजा जितने भी हुए, सबकी उपासना का मंत्र यही एक है और हमारी नमाज वही एक है। हमारी संध्या गायत्री के बिना संभव नहीं है। हम गायत्री के बिना संध्या कैसे कर सकते हैं? ये हमारा प्रतीक हैं और हम इस प्रतीक को, ‘सिंबोल’ को हर जगह जमाएँगे और इसलिए जमाएँगे कि सारे हिंदू समाज को यह मालूम हो जाए कि हमारी मूल जड़ कहाँ है और उद्गम कहाँ है? ताकि हम सारे समाज को एक सूत्र में पिरों सकें और सारे समाज को हम विवेकशीलता का अनुयायी बना सकें। हम विवेकशील लोग हैं। हम विचारशील लोग हैं। हम अंध- परंपराओं के अनुयायी नहीं हैं। हम हर चीज को विवेक की कसौटी पर कसते हैं, क्योंकि हमारा मंत्र हमारी उपासना गायत्री मंत्र है-
‘‘ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।’’
हम बुद्धि के उपासक हैं, हम विवेक के उपासक हैं, हम विचारों के उपासक हैं, हम तर्क के उपासक हैं। हम दलील के उपासक हैं, हम सच्चाई के उपासक हैं। हम किसी के ‘फालोवर ’ नहीं हैं, हम केवल सचाई के फालोवर हैं। ये सारी की सारी प्रेरणा कहाँ से मिल सकती हैं? ये सारी प्रेरणाएँ गायत्री मंत्र से मिल सकती हैं। इसलिए हम कमर कसकर खड़े हो गए हैं कि गायत्री मंत्र की पूजा करने के लिए हम हर आदमी को मजबूर करेंगे और गायत्री मंत्र की महत्ता को अंगीकार करने और हृदयंगम करने की सलाह देंगे और परामर्श देंगे।
एक दिन हमने आपको ये भी कहा था कि उपासना को सस्ती बनाएँगे और हर बच्चे- बच्चे को उपासना करने के लिए कहेंगे। हम यह कहेंगे कि ! गायत्री माता का एक फोटो अपने घर में पूजा- स्थली पर रखिए। यदि आप निराकार को मानने वाले हैं तो गायत्री मंत्र टाँग लीजिए। हमें कोई एतराज नहीं है। साकार उपासना को मानने वाले हैं तो आप गायत्री माता की तसवीर रख लीजिए और सुबह- शाम संध्यावंदन का क्रम आरंभ कीजिए। कोई भी व्यक्ति या स्कूल जाने वाला बच्चा सबसे पहले अपनी चप्पल उतार दे, अपनी टोपी उतार दे और अपने सिर को नीचा झुकाए। हाथ जोड़ करके प्रणाम करे, भारतीय परंपराओं की अनुभूति करे और पाँच बार गायत्री मंत्र मन ही मन बोल ले और नमस्कार करके स्कूल चला जाए पढ़ने के लिए। स्त्रियाँ खाना पकाने से पहले स्नान कर लिया है तो ठीक, नहीं भी कर लिया है तो भी ठीक, वे सिर को उघाड़कर के करके और पैरों से चप्पल उतार करके खड़ी हो जाएँ तथा पाँच बार मन ही मन गायत्री मंत्र का जप करें और उसके बाद में खाना पकाने के लिए चली जायें। दुकानदार अपनी दुकान को चला जाए। गायत्री माता का चित्र दुकान मे लगा हुआ है, उसके आगे मस्तक झुकाएँ, सिर झुकाएँ और पाँच बार मन ही मन गायत्री मंत्र जप ले। खड़े- खड़े हो करके यह उपासना कर ले और अपनी दुकानदारी को चलाए, अध्यापक या बच्चे स्कूल को चले जाएँ। इससे सस्ती उपासना तो और कोई नहीं हो सकती। मित्रो! इसमें तो शिकायत की बात भी नहीं है कि हमको समय नहीं मिलता और देखिए स्नान नहीं हुआ और ये नहीं और जनेऊ तो था नहीं। फिर कैसे करेंगे गायत्री जप? जनेऊ पहनना हो तो जरूर पहनना, हमें कोई शिकायत नहीं है और आपको स्नान करना हो तो जरूर करना। हम किससे मना करते हैं? लेकिन यदि आप बीमार हो गए हैं और आप नहीं नहा सकते हैं तो आपको ये कहने की आवश्यकता नहीं होगी कि चूँकि हम नहाए नहीं थे, इसलिए हम गायत्री मंत्र की उपासना नहीं कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में भी आपको जरूर करनी चाहिए उपासना।
गायत्री मंत्र के बारे में हम हर हिंदू से कहेंगे, हर घर में जाएँगे, हर आदमी को समझाएँगे और ये कहेंगे कि आपने अपनी संस्कृति के माता और पिता को भूला दिया था। अब आपको अपने पिता का और माता का नाम मालूम होना चाहिए और हर घर में उनकी स्थापना होनी चाहिए। भारतीय धर्म के माता- पिता कौन हैं? आपको उनका नाम मालूम होना चाहिए और आपको उनकी इज्जत करनी चाहिए, जैसे कि ऋषियों ने, देवताओं ने अनादिकाल से की और होती रहेगी। हमारे माता- पिता बदले नहीं जा सकते। आपको बुतपरस्त वालों ने और मजहब वालों ने बहका दिया है। इससे हमारी वैदिक संस्कृति को झुठलाया नहीं जा सकता। उनकी बात को टाला नहीं जा सकता। आज तो हर एक चालाक बाबाजी ने अपने- अपने नाम का मजहब खड़ा कर दिया है और अपने- अपने पैगंबर बनकर बैठे हैं और अपना- अपना मंत्र बना दिया है और अपनी- अपनी पुराण बना दी है। हम ये नहीं चलने देंगे। हम ये कहेंगे कि हिंदू धर्म एक ही था और एक ही रहेगा। ठीक है मजहब- परस्तों को अपने चेलों और चेलियों की हजामत बनाने के लिए तरह- तरह के संप्रदाय बनाने पड़े, पर इसकी क्या कीमत हो सकती है और इसकी क्या वकत हो सकती है, इसे हर विवेकशील को जानना और समझना चाहिए। जब सूरज निकलना शुरू होगा तो ये चमगादड़ और उल्लू अपनी जगह से भाग खड़े होंगे और इनकी कलई खुल जाएगी। इन्होंने ही हिंदू धर्म के टुकड़े काट- काटकर के फेंक दिए और अपने- अपने नाम के मजहब खड़े कर दिए। अब अपने- अपने नाम के मजहब नहीं चलेंगे। मजहब हमारा एक था और एक ही रहेगा।
मित्रो, अब हमको घरों में गायत्री माँ की स्थापना करनी चाहिए। गायत्री माता के ‘सिंबोल’ प्रतीक और उनकी चौकियाँ अपने घरों में स्थापित करना चाहिए। जहाँ पर थोड़ी देर बैठ करके, घंटे- आधा घंटे बैठकर भजन कर लिया करें और गायत्री मंत्र का अनुष्ठान कर लिया करें। हमकों जहाँ कहीं भी मौका मिले, इस तरह की स्थापना करनी चाहिए, जिस तरह हम यहाँ गायत्री माता की स्थापना कर रहे हैं और हमने गायत्री तपोभूमि में स्थापना की है। इस बात की जरूरत समझी जाए और जहाँ भी मौका मिले, जहाँ आवश्यकता हो वहाँ गायत्री माँ की स्थापना करनी चाहिए। हमने लोगों से यह भी कहा है कि आप चाहें तो मूर्तियाँ स्थापित करने की अपेक्षा एक चित्र स्थापित कर लें। इसमें एक फायदा आपको यह हो जाएगा कि आपके ऊपर वे जिम्मेदारियाँ नहीं आएँगी, जो हमारे ऊपर जिम्मेदारियाँ आती हैं। मूर्ति स्थापित करने से हमको भोग लगाना पड़ेगा। प्रसाद बाँटना पड़ेगा, सवेरे उनकी पूजा करनी पड़ेगी। हमें आरती करनी पड़ेगी। हमें ये करना पड़ेगा, वो करना पड़ेगा। अतः जहाँ जैसी जिम्मेदारियाँ उठाना संभव हो सके, वहाँ वैसी ही उठाई जाए। जहाँ पर संभव नहीं, वहाँ पर तसवीर स्थापित कर ली जाए और वहाँ पर सब के सब लोग इकट्ठे हों, गायत्री परिवार वाले इकट्ठे हों, बच्चे इकट्ठे हों और सब इकट्ठे होकर सायंकाल को केवल आरती उतार लिया करें। आरती के समय शंख बजा दिया जाए, घड़ियाल बजा दिया जाए। अगर आपके पास प्रसाद बाँटने के लिये न हो, तो पंचामृत वाला प्रसाद प्रस्तुत का सकते हैं। पानी में थोड़ी सी शक्कर,थोड़ा सा गंगाजल, तुलसी के पत्ते। बस उसी का हम पंचामृत बनाएँगे और उसी को सबको देंगे। अगर प्रसाद हमारे पास नहीं है, पैसे हमारे पास नहीं हैं तो हमारी पंचामृत वाली जो पद्धति है, जिसमें चंदन घुला रहता है, उसका ही हम प्रसाद बाँट सकते हैं। उसमें कोई हर्ज की बात नहीं है।
गाँव- गाँव में, घर- घर में, मोहल्ले- मोहल्ले में इस तरह के मंदिर स्थापित करने पड़ेंगे ताकि वहाँ पर स्त्रियाँ, बच्चे, बुजुर्ग, बूढ़े और बालक सब इकट्ठे हो सकें और प्रार्थना में शामिल हो सकें। आप लोग आरती कीजिए और लोगों को अपने माता- पिता की अर्थात गायत्री और यज्ञ की जानकारी कराइए। हम प्रतीकों को जिंदा रखेंगे। हम प्रतिकों को नष्ट करने वालें नहीं हैं। हम प्रतीकों का मजाक उड़ाने वाले नहीं हैं। प्रतीकों के प्रति हम अनास्था उत्पन्न करने वाले नहीं हैं। हम तो अनास्था वहाँ उत्पन्न करते हैं और बार- बार आपसे झगड़ने के लिए इसलिए खड़े हो जाते हैं कि आप प्रतीक को ही सब कुछ मान बैठते हैं और प्रतीक जिस काम के लिए बनाया गया था, उस पर आप ध्यान देना नहीं चाहते।
मूर्तियों के माध्यम से, प्रतीकों के माध्यम से, तसवीरों के माध्यम से हमको अपने हृदय के कपाट खोलने पड़ते हैं और अपने मस्तिष्क का परिष्कार करना पड़ता है। हमको अपने जीवन का उद्धार करना पड़ता है। साथ ही हमको यह बात मालूम करनी पड़ती है कि हमको जाना कहाँ है? चलना कहाँ है? यदि आपकी मंशा में यही उद्देश्य निहित है तो हम आपकी पूजा की बराबर प्रशंसा करेंगे और बराबर सराहना करेंगे। हमको लड़ना तब पड़ता है, हमको गुस्सा तब आता है और हम आपको झकझोरते तब हैं, जब आप मूर्ति को ही सब कुछ मान बैठते हैं और कहते हैं कि यही हमारी मनोकामना पूर्ण करेगी। यही हमको बेटा देगी। यह मूर्ति हमारा ये करेगी, हमारा वह करेगी। जब आप ऐसा कहना शुरू कर देते हैं, तब हम आपसे नाराज होते हैं और यह कहते हैं कि असलियत को क्यों नहीं समझते? असलियत को समझिए। असलियत को जब आप समझेंगे नहीं तो आप मूर्तिपूजक नहीं रहेंगे, फिर आप बुतपरस्त हो जाएँगे। मूर्ति- पूजन और बुतपरस्ती में जमीन- आसमान का फरक है। मूर्ति पूजक वे हैं जो मूर्ति का इस्तेमाल गीता की पुस्तक के तरीके से किया करते हैं और ज्ञान को जहाँ से वह ज्ञान आता है, भगवान जहाँ रहते हैं, वहाँ तक अपने मन को भगाकर ले जाते हैं और ज्ञान को पकड़कर लाते हैं। वह आदमी मूर्तिपूजक है, बुत- परस्त नहीं। बुतपरस्त कौन थे? वो लोग थे बुतपरस्त जिन्हें बद्दू कहा जाता था। आप लोग बद्दू लोगों की नकल करना शुरू कर देगें तो फिर हम आप पर झल्लाएँगे और कहेंगे कि आप तो बुतपरस्त बद्दू हो जाते हैं। बद्दू आप होइए मत और किसी भी मूर्ति को ये मानकर जाइए मत कि वह सामर्थ्यवान है। उसमें चमत्कार है और वह देवी तो ऐसा कर देती है, वैसा कर देती है। वह चतत्कारी देवी है। वो चमत्कारी देवी नहीं है। चमत्कारी केवल भगवान है जो सारे विश्व में समाया हुआ है। उसी की शक्ति हमारे विचारों से संबंध रखती है, हमारे आचारण से संबंध रखती है। आचारण और विचारों से संबंध रखने वाली देवी को अगर आप उस मूर्ति के माध्यम से पकड़ते हैं तो हम आपको ठीक कहेंगे और हम आपको मुबारकबाद देंगे और कहेंगे कि आप जानकार लोगों में से हैं, आप सही आदमी हैं।
मित्रो, क्या हम प्रतीकों की अपेक्षा कर सकते हैं? नहीं, हम प्रतीकों की अपेक्षा नहीं कर सकते। प्रतीकों के माध्यम से हम उस ज्ञान को जो हमारी भारतीय संस्कृति का मूल है, हर आदमी के गले में उतारने की हम कोशिश करेंगे। इंजेक्शन की सिरिंज के बिना हम किसी तरीके से दवा आपके खून में प्रवेश नहीं करा सकते हैं। दवा हमारे पास बहुत बढ़िया वाली रखी है। उसको इंजेक्शन से लगाने के लिए सुई तो हमको चाहिए ही। सुई क्या है? सुई मित्रो, जिसको हम प्रतीक- पूजा कहते हैं। इसके अंदर जो दवा भरी जाती है, जो सिरिंज लगाई जाती है वो क्या है? वो है जिसको हम विचारणाएँ कहते हैं, भावनाएँ कहते हैं, दिशाएँ कहते हैं। जिसके लिए हमें प्रतीक- पूजा के बारे में फड़फड़ाकर आगे बढ़ना होगा। प्रतीक- पूजा के लिए हमको कदम बढ़ाना पड़ेगा और हिम्मत बढ़ानी पड़ेगी। गाँव- गाँव में मंदिर और मोहल्लों में मंदिर, घर- घर में मंदिर हमको स्थापित करने पड़ेगे, फोटोग्राफ के माध्यम से और तसवीरों के माध्यम से। क्योंकि मूर्ति के साथ में ऋद्धि- सिद्धि का वहम शामिल हो गया है। इसलिए हम मूर्तियों को इतना प्रोत्साहन नहीं देंगे, क्योंकि लोग हर मूर्तिको चमत्कारी कहने लगते हैं। ये क्या आफत आ गई? चमत्कारी कहिए मत किसी को। उसको आप प्रतीक कहिए। इसलिए हम थोड़े दिनों तक ये कोशिश करेंगे कि मूर्तियाँ कम से कम स्थापित हों और तसवीरें ज्यादा से ज्यादा स्थापित हों। हर जगह उनकी स्थापना हो ताकि हम उनके माध्यम से, उनके सहारे से उनकी व्याख्या करते हुए, उसको समझाते हुए, उसको बताते हुए भारतीय संस्कृति का मूल जो हमारा था- गायत्री मंत्र और यज्ञ, अर्थात विवेकशीलता और क्रियाशीलता अर्थात अच्छे कर्म और अच्छे स्वभाव इन दोनों का संवर्द्धन करने और उन्हें अक्षुण्ण रखने के लिए हम नए सिरे से मनुष्य को नया मनुष्य बना सकें।
मनुष्य में देवत्व का अवतरण करने के लिए, मनुष्य में भगवान का अवतरण करने के लिए और जमीन पर स्वर्ग को लाने के लिए हम यह कहेंगे कि इन प्रतीकों को इन सिंबलों को आप फिर से सँभालिए, क्योंकि ये हमारी बंदूकें हैं, ये हमारे हथियार हैं और इन हथियारों के माध्यम से मनुष्यों के अज्ञान से लड़ाई लड़नी है, ये हमारी छैनी- हथौड़े हैं। इन छैनी- हथौड़ों को हम दूर नहीं फेंक सकते हैं। यह छैनी- हथोंड़ा हरदम काम करेगा। लेकिन छैनी- हथौड़े को अगर फेंक देंगे और खाली ये कहेंगे कि हमारी ताकत में बल है और हम तो लोहे को भी ठीक कर सकते हैं। अभी मुक्का मारेंगे और लोहे को भी ठीक करेंगे, तो मुक्के से ही काम नहीं बनेगा। छैनी- हथौड़े भी आपको रखने होंगे। छैनी- हथौड़े से ही कलाई में ताकत आएगी। हमारे पास विचारणाएँ होनी चाहिए, भावनाएँ होनी चाहिए सही, लेकिन हमारे पास प्रतीक भी होने चाहिए और हमारे पास ‘सिंबल’ भी होने चाहिए। प्रतीक और सिंबलों के साथ- साथ हमको विचारणा और विवेकशीलता का विस्तार करना है। यह हमारी क्रियापद्धति है।
गायत्री परिवार की यही क्रियापद्धति है। हमारी और आपकी यही क्रियापद्धति होनी चाहिए हम आस्तिकता की स्थापना करने के लिए चले हैं और हम धार्मिकता की स्थापना करने के लिए चले हैं। यही तो हमारे उद्देश्य हैं तीन, जिनको आप गायत्री माता के तीन चरण कहते हैं। यही है तीन चरण जिनकी अमने अपने ढंग से व्याख्या करना शुरू कर दिया है। भगवान पर विश्वास, हम हर आदमी के मन में स्थापित करेंगे- गायत्री मंत्र का चरण नंबर एक। गायत्री मंत्र का चरण नंबर दो- हम हर आदमी को धार्मिक बनाना शुरू करेंगे और हर आदमी को सामाजिक बनाना शुरू शुरू करेंगे। हर आदमी को सामाजिक बनाना शुरू करेंगे। हर आदमी को समाजपरक और सूक्ष्म सेन्स को, भाव- संवेदना को अपनाने वाला बनाना शुरू करेंगे। हम हर आदमी को अध्यात्मवादी बनाना शुरू करेंगे अर्थात अपने ईमान को साबित करने वाला, अपने चरित्र को सही और उज्जवल रखने वाला बनाने की कोशिश करेंगे। हमारा मतलब आध्यात्मिकता से यही है। हमारा मतलब आस्तिकता से यही है। हमारा मतलब धर्मनिष्ठा से यही है। इन तीनों की स्थापना करने के लिए हम गायत्री मंत्र का तिरंगा झंड़ा लेकर चले हैं। इस तिरंगे झंड़े को हम बहुत प्यार करते हैं और इस झंड़े की हर जगह उसी तरह स्थापना करना चाहते हैं, जिस तरह से हमारे पूर्वजों ने और हमारे ऋषियों ने उसे प्यार किया और सुदृढ़ बनाया था।
आज की बात समाप्त।
॥ ऊँ शांतिः॥