Books - प्रतीक पूजा के पीछे छिपे संकेत और शिक्षाएँ
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प्रतीक पूजा के पीछे छिपे संकेत और शिक्षाएँ
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प्रतीक पूजा के पीछे छिपे संकेत और शिक्षाएँ
मोम्बासा- केन्या (दिसम्बर १९७२)
भगवान से प्यार करते हैं, कीमत चुकाइए ]
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
ॐ अग्ने नय सुपथाराये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वानयुयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम्।
संकेतों को समझें- आत्मसात् करें
सम्भ्रान्त महानुभाव और देवियो! कल मैं भगवान शंकर जी के सम्बन्ध में निरन्तर प्रकाश डालता रहा हूँ। यह बताता रहा हूँ कि इनके विग्रह और इनके बाहरी स्वरूप के भीतर क्या शिक्षाएँ और क्या प्रेरणाएँ भरी हुई हैं? शिक्षाओं और प्रेरणाओं को मूर्तिमान करने के लिए अपने हिन्दू समाज में इनकी प्रतीक पूजा की व्यवस्था की गयी है। देवताओं के जितने भी प्रतीक हैं, उन सबके पीछे कोई न कोई संकेत भरा हुआ है। गायत्री माता का वाहन हंस है। हंस का क्या अर्थ है? हंस का अर्थ यह है कि जो नीर और क्षीर का विवेक कर सकता हो। दूध और पानी को अलग- अलग कर सकता हो। पानी को फेंक सकता हो और दूध को पी सकता हो। ऐसे हंस के ऊपर गायत्री माता सवार रहेंगी और वह उनकी कृपा का भाजन बन जायेगा।
मित्रो! हंस पर गायत्री माता सवार होती हों, ऐसी कोई बात नहीं है। हंस तो एक छोटा सा पक्षी होता है। गायत्री माता कम से कम एक- दो मन की तो होंगी ही। ऐसे में तो बेचारे हंस का कचूमर निकल जायेगा। जब वे हंस के ऊपर बैठेंगी, तब वह उड़ेगा कैसे, चलेगा कैसे? हंस की तो मुसीबत आ जाएगी। गायत्री माता हंस पर बैठती नहीं है, वरन् उसके भीतर जो शिक्षा भरी हुई है अगर उनको हम ग्रहण कर लें, तो भगवान के पास तक पहुँचने का रास्ता खोज सकते हैं। अगर हम इन बातों को समझेंगे नहीं, तो केवल हम हंस की ही पूजा करते रहेंगे। चूहे पर गणेश जी बैठते हैं, केवल इतना ही समझते रहेंगे, तो हम रहस्य तक नहीं पहुँच सकेंगे। छोटे बालकों को तस्वीरें दिखा करके शिक्षण किया जाता है। ‘क’ माने कबूतर। कबूतर की शकल दिखाकर के यह बताते हैं ‘क’ का स्थान कैसे होता है। अगर कोई छोटा बालक हमेशा कबूतर- कबूतर कहता रहे और उसमें से ‘क’ की आवाज को सीखने की कोशिश न करे, तो फिर उसको अक्षर ज्ञान होना, विद्या प्राप्त करना संभव नहीं है। प्रतीक पूजा का हमारे हिन्दू धर्म में बहुत महत्त्व है। प्रतीक पूजा को हम बड़ी मान्यता देते हैं और देनी भी चाहिए। लेकिन प्रतीक पूजा के पीछे जो शिक्षण, प्रेरणाएँ और दिशायें भरी पड़ी हैं, उनको जानना ही चाहिए।
हमारा असमंजस
साथियो! मैं आपको भगवान शंकर का उदाहरण देता रहा हूँ। सारे विश्व का कल्याण करने वाले भगवान शंकर विशेषतः हिन्दू समाज के पूज्य हैं। जिनकी हम दोनों वक्त आरती उतारते हैं। जिनका जप करते हैं। शिवरात्रि के दिन पूजा करते हैं, उपवास करते हैं। जिनकी न जाने क्या- क्या पूजा और प्रार्थना करते हैं और कराते हैं। क्या शंकर भगवान हमारी कठिनाइयों का कोई समाधान नहीं कर सकते? क्या हमारी उन्नति में भगवान शंकर कोई सहयोग नहीं दे सकते? भगवान को सहयोग देना चाहिए। हम उनके प्यारे हैं, हम उनके उपासक हैं, उनकी पूजा करते हैं। लेकिन पूजा करते हुए भी हम कहाँ से कहाँ फिसलते चले जा रहे हैं और दूसरे लोग जो शंकर भगवान की पूजा भी नहीं करते हैं वे कैसे उन्नतिशील होते चले जा रहे हैं। यह देखकर हमारा मन शंकित होता जाता है और हमारी आस्तिकता को चोट पहुँचती है। हमारा मन डाँवाडोल हो जाता है और कई बार यह विचार करने लगते हैं कि हमारी पूजा सार्थक है अथवा नहीं? अगर हमारी पूजा सार्थक रही होती, तो हम दूसरों की अपेक्षा अर्थात् जो नास्तिक हैं, उनसे कुछ ज्यादा अच्छा बन सकते थे और अच्छी स्थिति में रह सकते थे। आस्तिकता का हमें क्या लाभ मिला? ऐसा संदेह आपको भी उत्पन्न हो सकता है और मुझे भी। इसका समाधान क्या है? समाधान यह है कि हमने भगवान की भक्ति और पूजा तो की, लेकिन पूजा और भक्ति के पीछे जिन सिद्धान्तों का समावेश था, जो हमको सीखने और जानने चाहिए थे, अपने जीवन में उतारने चाहिए थे; उन सब बातों को हम भूलते चले गये और केवल प्रतीक पूजा तक सीमाबद्ध रह गये।
कसूर पात्रता का
मित्रो! पूर्व के व्याख्यान में, मैं पात्रता के बारे में निवेदन कर रहा था। एक बार ऐसा हुआ कि बादल बरसने लगे। रात भर वर्षा हुई। एक आदमी ने बाहर निकल कर देखा कि कहीं तालाब भरा हुआ था, कहीं झीलें भरी हुई थीं। किसी के घर बाल्टी रखी थी, वह पानी से भर गयी, पर एक अभागा मनुष्य पानी की एक बूँद के लिए तड़पता रह गया। किसका कसूर था? बादल का? नहीं बादल का कसूर नहीं था। बादल तो बराबर रात भर बरसता रहा। जिन्होंने अपनी छत के ऊपर, आँगन में एक कटोरी रखी थी। कटोरी में पानी भर गया। जिसने बाल्टी रखी थी, बाल्टी में पानी भर गया। जिसने कुण्ड, हौज आदि बना रखा था, उसका हौज भर गया और जिसने तालाब बना रखा था, उसका तालाब भर गया। बादल का कसूर था? बादल का कोई कसूर नहीं था। फिर किसका कसूर? कसूर सिर्फ उसका, जिसने अपना बर्तन, पात्र नहीं रखा।
क्या हो पूजा का उद्देश्य?
पात्रता का विकास करना, यही भक्ति का मूलभूत उद्देश्य है। भगवान के सब प्यारे हैं। प्रार्थना करें तो भी उसको प्यारे हैं और जो प्रार्थना करना नहीं जानते वे कीड़े- मकोड़े, पशु और पक्षी भी भगवान को प्यारे हैं। वह उनको भी अनाज देता है, खुराक देता है, उनको भी जिंदगी की सब चीजें देता है। उससे कोई बचा हुआ नहीं है। फिर पूजा का उद्देश्य, प्रार्थना का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य खुशामद करना नहीं है। भगवान को चीजों की कमी पड़ती हो, ऐसी भी बात नहीं है। भगवान के पास फल- फूल बहुत हैं, अक्षत बहुत हैं। चंदन बहुत है, धूप- दीप बहुत है। भगवान को पूजा की, खुशामद की कोई जरूरत नहीं है। हर जानवर, चिड़िया आदि हर पक्षी उनकी प्रार्थना करता है, फिर हमारी प्रार्थना और पूजा से ही भगवान क्यों प्रसन्न हों और क्यों हमारी पूजा के बिना नाराज हो जायें। वे पूजा के बिना नाराज नहीं होते हैं। फिर किससे नाराज होते हैं? वे इससे नाराज होते हैं कि हमने अपनी पात्रता का विकास नहीं किया। पात्रता का विकास करना, यही पूजा का उद्देश्य है।
मित्रो! प्रार्थना का एक ही उद्देश्य है कि हम अपने मन की मलीनताओं को साफ कर डालें और स्वच्छ बन जायें। अपनी पात्रता विकसित करें और इस लायक बनें कि हमको भगवान का प्यार, भगवान का स्नेह निरंतर मिलता हुआ चला जाये। अपने मल, आवरण और विक्षेप, अपने कषाय और कल्मष, दोष और दुर्गुण की सफाई कर डालना- यही पूजा का उद्देश्य है। साबुन लगाकर जब हम अपने कपड़े की सफाई कर लेते हैं, तब उसमें जो भी रंग चढ़ाते हैं, वह चढ़ता हुआ चला जाता है। मेरा धुला हुआ कपड़ा गुलाबी रंग में रंगियेगा, बिल्कुल गुलाबी होगा। पीला रंग रंगिये, पीला होगा। हरा रंग रंगिये, हरा होगा। कब? अगर आपने कपड़ा साफ किया हुआ है तब। अगर आपने कपड़ा साफ नहीं किया है तो गुलाबी रंग चढ़ने वाला नहीं है। पीला रंग- बसंती रंग चढ़ने वाला नहीं है। अपना मन हमने मलीनता दूर करके शुद्ध- स्वच्छ नहीं बनाया है। तब शंकर जी के नाम का पीला रंग चढ़ेगा कैसे? हनुमान जी का लाल- गुलाबी रंग चढ़ेगा कैसे? श्रीकृष्ण भगवान का हरा रंग चढ़ेगा कैसे?
उपासना का मर्म
वस्तुतः उपासना वहाँ से प्रारंभ होती है, जहाँ से हम अपने भीतर अंतरमुखी हों और ये देखें कि हमारे द्वेष और दुर्गुण कहाँ- कहाँ भरे पड़े हैं। उन्हें हमको दूर करना चाहिए। हमें अपने अंदर की विशेषताएँ विस्तृत कर, अपने गुण, कर्म और स्वभाव में परिष्कार करना चाहिए। पूजा का यही उद्देश्य है जो कि विकासमान, उदीयमान समाजों में हुआ करता है। कल मैं यही निवेदन कर रहा था। भगवान शंकर बादल की तरीके से हैं। अगर हमारी पात्रता विकसित होती चली जाएगी तो हमको ये लाभ मिलते चले जाएँगे, जो शंकर जी के भक्तों को मिलने चाहिए। लेकिन अगर हम केवल पूजा तक ही सीमित रहें और अपने दोष- दुर्गुणों को दूर करने से पीछे हटते चले जायें, पाप पंक में डूबे रहें तब शंकर भगवान का लाभ और वरदान हमारे कुछ काम न आ सकेंगे।
भस्मासुर कैसे भस्म हुआ?
एक लड़का था। उसने देखा कि शंकर भगवान की उपासना करते हुए लोगों ने बहुत लाभ और उन्नति कर ली। उसका मन आया कि मुझे भी तप करना चाहिए। वह शंकर जी का तप करने लगा, रुद्राष्टाध्यायी का पाठ करने लगा। महेन्द्र स्त्रोत पा पाठ, उपवास, पूजा और भजन करने लगा। नाम क्या था उस लड़के का? उसका नाम था भस्मासुर। उसके तप से प्रसन्न होकर भगवान प्रकट हुए। भस्मासुर ने प्रार्थना की भगवान हमको कोई वरदान दीजिए। शंकर जी ने कहा- हाँ, हम इसीलिये तो आये हैं। क्या वरदान माँगता है माँग? उसने एक वरदान माँगा कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूँ वो ही जल कर खाक हो जाए। शंकर जी ने वरदान दे दिया। मन का कच्चा, गंदा और दुष्ट भस्मासुर, पूजा- पाठ और जप- तप करता रहा। शंकर जी को नहलाता रहा, एक पाँव पर खड़ा रह कर भजन करता रहा, लेकिन अपनी मलीनताओं को दूर न कर सका। भस्मासुर वरदान लेकर के परीक्षा करने लगा कि देखूँ वरदान सही भी है कि नहीं। उसने चारों ओर निगाह फैला करके देखा, पार्वती जी दिखाई पड़ीं। उसने कहा ओ...हो! ये तो बहुत खूबसूरत हैं। ये तो हमारी घरवाली बननी चाहिए। ये तो खाना पकाएगी, तो अच्छा है। ये हमारे घर में रहेंगी तो अच्छा है।
बस, उसने सोचा पार्वती जी को प्राप्त करने के लिए पहले शंकर जी का सफाया करना चाहिए। भस्मासुर अपना हाथ लंबा करके शंकर जी के सिर पर हाथ रखने के लिए भागा और शंकर जी भागे, भस्मासुर भागा और शंकर जी भागे। भागते- भागते शंकर जी विष्णु भगवान के पास पहुँचे। उन्होंने कहा- महाराज जी यह तो बड़ी मुसीबत आ गई। क्या मुसीबत आ गई? भस्मासुर को वरदान दे दिया। विष्णु जी ने कहा- शंकर भगवान! आप तो बड़े भोले हो। आप को देखना चाहिए था कि यह आदमी देने लायक है भी या नहीं। यह इसका क्या इस्तेमाल करेगा और किसके लिए माँग रहा है। आपने परीक्षा नहीं ली और वैसे ही वरदान दे बैठे। शंकर जी ने कहा- महाराज जी! यह गलती तो जरूर हो गई। बिना जाने, बिना परखे, बिना देखे और इसके ईमान को जाने बिना मुझको वरदान नहीं देना चाहिए था, लेकिन गलती तो हो गई। अब गलती का उपाय क्या है? बस, भगवान विष्णु गये और उन्होंने पार्वती का रूप बनाया और उसको कहा कि नाच हमारे साथ में। भस्मासुर नाचने लगा। आप में से हरेक ने ये कथा सुनी होगी। भस्मासुर पार्वती को रिझाने के लिए अपने सिर पर हाथ रख कर नाचने लगा और जल करके खाक हो गया।
मतलब समझकर साधना हो
मित्रो! क्या पाया भस्मासुर ने? भस्मासुर ने अगर आपके मोम्बासा में आ करके एक केंटीन खोल ली होती और उसमें पचास पैसे का नारियल बेचने लगा होता तो मालदार हो जाता। यहाँ से शिलिंग कमा करके अपने घर हिन्दुस्तान में दो तिहाई शिलिंग भी भेजता, तो मजा आ जाता। क्या फायदा किया भस्मासुर ने? जल कर खाक हो गया। पूजा बेकार गई, भजन बेकार गया, जप बेकार गया, भूखा मरा और मुसीबत उठायी। क्या फायदा उठाया? कुछ फायदा नहीं उठाया। क्यों फायदा नहीं उठाया? इसलिए फायदा नहीं उठाया, क्योंकि उसने अपने को धोया नहीं। शंकर जी की भक्ति के पीछे जो कल्याण की भावना छिपी हुई है, उससे दूर रहा। उस कल्याण की भावना को शिव शब्द के अर्थ में बताया गया है। शिव माने- कल्याण। कल्याण की दृष्टि रख करके हमको कदम उठाने चाहिए और हर क्रिया- कलाप, सोचने के तरीके का निर्माण करना चाहिए। यह ‘शिव’ शब्द का अर्थ होता है। कल्याण हमारा कहाँ है? लाभ कहाँ है? कल्याण को देखने की दृष्टि अगर हमारी पैदा हो जाए, तो हम यह कह सकते हैं कि हमने शिव भगवान के नाम का अर्थ जान लिया। ‘‘नमः शिवाय’’ का जप तो किया, लेकिन शिव शब्द का मतलब नहीं समझा। मतलब क्यों नहीं समझा? मतलब समझना चाहिए था। मतलब समझने के बाद में जप करना चाहिए था। लेकिन हम मतलब छोड़कर बाह्य रूप को पकड़ते चले जा रहे हैं। इससे क्या काम बनने वाला है? भगवान शंकर का आपने मंदिर बनाया है। जिनकी आरती के लिए हर आस्तिक हिन्दू उपस्थित होता है। हम और आप अपना मस्तक उनके चरणों में झुकाते हैं। उनकी कलाकृति को समझने की कोशिश नहीं करेंगे, तो आपकी पूजा अधूरी मानी जायेगी। अधूरी पूजा से अधूरा लाभ मिलेगा, पूरी पूजा से पूरा लाभ। शंकर भगवान की जो तस्वीर बनाई गई है, उसके भीतर भी विविध शिक्षाएँ दी गई है।
शिवजी की तीसरी आँख
मित्रो! भगवान शंकर की तीन आँखें हैं। तीन आँख क्यों? दो आँखें तो सबके होती हैं। शंकर जी की एक और आँख है, जो विवेक की आँख कहलाती है। एक तीसरी आँख आपकी भी है और तीसरी आँख शंकर जी की भी थी। तीसरी आँख का भगवान ने इस्तेमाल किया। कब? जब कामदेव उनको हैरान करने के लिए, लुभाने के लिए और पाप में डुबोने के लिए चला आ रहा था, तब शंकर भगवान ने अपनी तीसरी आँख खोली तो कामदेव जल करके भस्म हो गया। क्या यह कथा रामायण में आपने पढ़ी नहीं है? हाँ, आप में से हर एक ने यह कथा पढ़ी होगी। आपने गौर क्यों नहीं किया कि यह तीसरी आँख क्या है? कामदेव को जलाने की बात क्या है? जिन लोगों ने थोड़ी साइंस पढ़ी है वे जानते हैं कि थ्री डायमेंशन क्या होता है। थ्री डायमेंशन का मतलब आप समझते हैं- फोटोग्राफ होता है। इसमें दो चीजें सामने आती हैं- ब्लैक एण्ड ह्वाइट अर्थात् काला और सफेद। इसमें लम्बाई और चौड़ाई दो चीजें हमारी निगाह में आती हैं, लेकिन जो फोटो हम खींचते हैं उस तस्वीर में जो बात सामने आती है वह यह है कि उसमें गहराई देखने में नहीं आती। यदि गहराई देखने में आ जाए, तो फोटो देखने में जरा मजा आ जाए और वह फोटो असली मालूम पड़े।
सामान्य दृष्टि से परे
थ्री डायमेंशन वाली हमारी तीसरी आँख है, जो हमको गहराई में घुसने की बात सिखाती है। गहराई में हम घुसते नहीं हैं। हम बाहर खड़े रहकर बाहर की चीजों को ही देखते रहते हैं। इसमें हमको दो चीजें दिखाई पड़ती है- सुविधा और असुविधा, सुख और दुख, लाभ और हानि। यह दो ही चीजें- इन दो आँखों से दिखा करती हैं। यह दुनियावी आँखें भगवान ने आपको और हमको दी हैं। हमको यह अच्छा मालूम पड़ता है कि खाने में क्या चीज जायकेदार होती है, क्या बिना जायकेदार। हमारी जीभ फौरन कहती है, इसको खायेंगे, इसको नहीं खायेंगे। क्या चीज फायदे की है और क्या नहीं? बढ़िया कपड़ा होता है तो हम कहते हैं, बढ़िया कपड़ा लेंगे, घटिया कपड़ा नहीं लेंगे। सिनेमा का जो अच्छा खेल आता है उसको हम देखने चले जाते हैं, घटिया खेल हम नहीं देखते। दुनिया की सुख- सुविधाएँ क्या हैं? दुनिया के लाभ क्या हैं? शरीर के लाभ क्या हैं? मन की खुशी क्या है? यह जो कुछ देखने का माद्दा हम लोगों को है कि शरीर क्या माँगता है। इन्द्रियाँ क्या माँगती हैं- हमको मीठा खाने को चाहिए, पकौड़ी खाने को चाहिए, आँखों को सिनेमा देखने के लिए चाहिए। हमारी ब्याह- शादी होनी चाहिए। हमको अच्छा आराम का रहने के लिए चाहिए। एक आँख हमारी बराबर देखती है और हम समझते हैं कि हम समझदार हैं। यह हमको खुशहाली की बात दिखाती है। हम अमीर हो जाते हैं और रुपये वाले हो जाते हैं, हमें अहंकार हो जाता है। हम बड़े आदमी हो जाते हैं। हमारी औलाद हो जाती है। हम दूसरों की आँखों में क्या से क्या हो जाते हैं। ये दिमागी खुशी और शरीर की खुशी इन दो को देखने का माद्दा हमारे अंदर है। यही दो आँखें है हमारी और आप सबकी।
दूरदृष्टि की आदत विकसित करें
लेकिन शंकर जी की एक और आँख है। शंकर जी के प्रत्येक भक्त को यह एक और आँख रखनी चाहिए, एक और आँख खोलनी चाहिए। वह क्या है? दूरदृष्टि, दूर की देखने की आदत। आज क्या फायदा है, इसको हमें कल के फायदे के ऊपर कुर्बान कर देना चाहिए। किसान ऐसा ही करता है, वह बीज लेकर के जाया- बेकार करता है। बीज को खेत में बोता है, उस बेचारे का बीज गल जाता है- सड़ जाता है। घर में से एक वस्तु का नुकसान हो जाता है। मेहनत करता है, पानी डालता है। कोई कह सकता है कि अरे वेबकूफ आदमी पानी क्यों बहाता है? ये बीज क्यों खराब करता है? क्या फायदा हुआ? यह हमारी बाहर की चमड़े की आँखें कहती हैं कि किसान गलती कर रहा है। लेकिन एक समझदार किसान ही जानता है कि छह महीने बाद इसका क्या परिणाम होने वाला है। उसका घर अनाज से- फसल से भर जाने वाला है। यह तीसरी आँख वाला किसान, जो आज के नुकसान के पीछे कल के फायदे को देखता रहता है।
दो आँखें बनाम तीन आँखें
विद्यार्थी स्कूल में जाता है और पढ़ता रहता है। रात में भी पढ़ता है और दिन में भी पढ़ता है। इम्तहान के दिन आते हैं दूसरा विद्यार्थी कहता है- दोस्त चलो सिनेमा देखेंगे, मजा करेंगे, समुद्र के आगे घूमेंगे। पढ़ने से क्या फायदा? जिसकी आँखें पास की हैं वह कहता है, हाँ- हाँ किताब देखना बेकार है, दिमाग खराब करती है। चलो आज तो तमाशा देख करके आयेंगे। लेकिन जो समझदार लड़का है। वह देखता है कि मुझे पढ़- लिखकर अपने पाँव पर खड़ा होना है और जिंदगी में कुछ बनना है। दो पैसे कमाने हैं, बूढ़े माँ- बाप की सेवा करनी है। बीबी आयेगी, उसके बाल- बच्चे पैदा होंगे, उनके लिए दो पैसे कमाने हैं। यही उम्र है जबकि मैं विद्या पढ़ करके किसी काबिल बन सकता हूँ। एक समझदार लड़का दूर की देखता है, दूर की सोचता है। नासमझ लड़का जिसके दो ही आँखें हैं, वह इस समय के फायदे को देखता है। कल के फायदे की नहीं सोचता। हम और आप सब उसी श्रेणी के लोगों में से हैं। जिनकी दो आँखें काम करती हैं। एक शरीर का क्या फायदा है? शरीर का सुख हमको मालूम है और उसके लिए हम जिंदगी के बेशकीमती दिन खराब करते रहते हैं। एक हमारी आँखें वे हैं जो दिमागी लाभ, जिनको सम्मान कह सकते हैं, अहंकार की पूर्ति कह सकते हैं, वैभव कह सकते हैं, धन- दौलत कह सकते हैं, इन सब चीजों को इकट्ठा करने में लगी रहती हैं।
शंकर जी के ठप्पे में ढलिए
मित्रो! शंकर जी का भक्त जब अपने भगवान के चरणों में जाता है, तो यह देखता है कि इस ठप्पे में मुझे भी अपने आपको ढालना चाहिए। शंकर भगवान क्या हैं? एक ठप्पा। ठप्पा किसे कहते हैं? ठप्पा कहते हैं साँचे को। जैसा ठप्पा होगा वैसी आकृति बनेगी। गीली मिट्टी को मोर के साँचे में लगा करके कुम्हार बनाता है। बहुत से मोर बनते चले जाते हैं। इस तरह गीली मिट्टी चिपका कर वह मोर बनाता चला जाता है। शंकर भगवान केवल पूजा करने के लिए और हमारे पानी के ही प्यासे नहीं हैं। उनकी आरती ही काफी नहीं है। उसके लिए यह भी आवश्यक है कि भगवान के भक्त भगवान के पास जायें। उपासना शब्द का मतलब होता है- पास बैठना। पास बैठने का मतलब है- उनसे कुछ सीखना। उनके साथ संबंधित होना। आग और लकड़ी जब तक समीप नहीं बैठेंगी, तब तक रोशनी अग्नि में नहीं आ सकती और लकड़ी अग्नि नहीं बन सकती। हमको शंकर भगवान के पास तक जाना पड़ेगा। दूर रहकर ही प्रणाम कर लेने से काम चलने वाला नहीं है। शंकर जी से चिपक जाना चाहिए और उस ठप्पे में अपने आपको बदल लेना चाहिए। अपना जीवन शंकर जी जैसा बनाना चाहिए। हमको अपनी तीसरी आँख खोलनी चाहिए। हमको दूर की बात देखनी और समझनी चाहिए। आज हमारा भले ही नुकसान हो, लेकिन कल जिसमें हमारा फायदा है, उस काम को करने के लिए हमको हिम्मत करनी चाहिए और विवेक की आँख खोलनी चाहिए।
दूर का लाभ ही मूल दृष्टि
मित्रो! रामायण अगर आपने पढ़ी हो और गौर किया हो, तो उसमें यही मालूम पड़ेगा कि सारी की सारी रामायण में एक ही शिक्षा भरी पड़ी है। हमको इस समय का फायदा छोड़ करके आगे वाला फायदा सोचना चाहिए। रामायण में और क्या है? रामायण को अगर आपने गौर से नहीं पढ़ा है और आपने रामायण का केवल पाठ करना सीखा है, तो काम चलने वाला नहीं है। भगवान राम का जीवन चरित्र देखिए न, कितना सुन्दर, कितनी शिक्षाओं से भरा हुआ जीवन है। उन्होंने तीसरी आँख खोली। भगवान राम ने कहा- मेरे हर भक्त को, शंकर जी के भक्त को शंकर जी की तरीके से तीसरी आँख खोलनी चाहिए। राम और भरत में राजगद्दी को लेकर लड़ाई होने लगी। रामचन्द्र जी कहते थे, भरत मेरा छोटा भाई है, उसे गद्दी पर बैठना ही चाहिए। भरत कहते थे नहीं- नहीं, मेरा मन जिस लोक और परलोक को समझता है, वह बड़ी बात है। पद और पैसा कोई बड़ी चीज नहीं है। इस गद्दी पर भइया राम को बैठना चाहिए। राम ने कहा मैं जंगल में वनवासी हो करके, संत बन करके दिखाऊँगा और पैसे का त्याग करके दिखाऊँगा। दोनों खिलाड़ी राजगद्दी रूपी गेंद खेल रहे थे। फुटबॉल बीच में पड़ी हुई थी। एक ठोकर राम ने मारी और गेंद भरत की तरफ दौड़ती हुई चली गयी। एक ठोकर भरत ने मारी तो राम की तरफ दौड़ती हुई चली गयी। गेंद के खेल में जीतता कौन है और हारता कौन है बताइये? हारता वह आदमी है जिसकी तरफ गेंद चली जाती है। जीतता कौन है? जीतता वह आदमी है जो ठोकर मार कर गेंद को भगा देता है।
हमारी संस्कृति की शान
मित्रो! जीता कौन, राम जीते या भरत, बताइये? दोनों जीत गये। राम ने कहा- मेरे पिता की आज्ञा और माता की सहमति और भाई की प्रसन्नता के लिए गद्दी मेरे छोटे भाई को ही मिलेगी, मुझे नहीं चाहिए। भरत जी कहने लगे नहीं- नहीं, मेरे बड़े भाई पिता के समान हैं। मैं पिता की गद्दी पर कैसे बैठ सकता हूँ? भरत राम के पाँव की खड़ाऊँ ले आये। खड़ाऊँ को गद्दी पर रख दिया। बस, चौदह वर्ष तक उसी तरीके से, उसी वेष में उन्होंने अपनी जिंदगी का रहन- सहन शुरू कर दिया, जैसे कि भगवान राम और लक्ष्मण रह रहे थे। यह उद्देश्य और यही सलाह बनी रही हमारी संस्कृति की सदा ही जिसने कि लाखों वर्षों तक हमको टिकाए रखा है और हम टिके रहेंगे। दूसरे लोग थे जो हिन्दुस्तान में बड़े उत्साह और उल्लास से आये, लेकिन वे खत्म होते चले गये। भाइयों ने भाइयों के सिर कटवा दिए। हिन्दुस्तान की तवारीख आपने पढ़ी है। कुछ लोगों की तवारीख में ये किस्से भी आते हैं कि एक भाई ने दूसरे भाई का सिर कटवा करके थाली में रख करके अपने सामने पेश करवाया था और फिर उसे ठोकर मारी थी। आप भूल गये, आपको हिन्दुस्तान का सवाल याद नहीं है। आपको तवारीख याद रखनी चाहिए। हमारे यहाँ ऐसे भी बादशाह हुए हैं जिन्होंने अपने बाप को जेलखाने में कैद किया। फिर उसके बेटे ने उसे कैद किया। फिर उसके बेटे ने भी अपने बाप को कैद किया। यह भी परंपराएँ रही हैं। उसका परिणाम क्या हुआ? उसकी नसीहत क्या मिली? उन लोगों का क्या हुआ? देख लीजिए हजार वर्ष भी नहीं होने पाये कि किस तरह से उनकी मिट्टी पलीद हो गयी।
जटायु ने खोली अपनी दृष्टि
मित्रो! हजारों, लाखों वर्ष हो गये, कितनी सभ्यताएँ आयीं? कितनी समुद्र की लहरें आयीं, कितने तूफान आये, कितनी आँधियाँ आयीं। हमारे देश और हमारी संस्कृति पर कितने हमले होते चले गये, लेकिन वह रामायण ही है, जो हमको शिक्षा देती रहती है। जब तक ये नसीहतें हमारे पास हैं, जब तक हमारे पूर्व पुरुषों की बड़ी मूल्यवान संपदा हमारे पास है, तब तक हमको कोई हिला नहीं सकता। रामायण में अनेकों प्रेरणाप्रद शिक्षायें हैं। भगवान राम वनवास के लिए चले जा रहे हैं और सीता जी को रावण चुरा ले गया। रावण सीता जी को अपने रथ में बिठालकर ले जा रहा था। एक पेड़ पर जटायु नाम का पक्षी- गिद्ध बैठा हुआ था। उसने अपनी तीसरी आँख खोली और कहा कि अपने बुढ़ापे को मैं व्यर्थ ही गँवाता रहूँगा क्या? अब मेरा शरीर क्या भगवान के काम में नहीं लगेगा? क्या मैं लोभ और मोह के बंधन में ही बँधा रहूँगा? जटायु ने कहा कि मैं कुछ भी नहीं कर सकता। जानता हूँ- रावण बड़ा बलवान है। मैं उसका मुकाबला नहीं कर सकता, लेकिन अपनी जान तो होम सकता हूँ। दूसरे लोगों पर मुसीबतें आयें, दूसरे लोगों के साथ बेइंसाफियाँ हों और हम आँख बंद करके अपने मकान में बैठे रहें और यह कहते रहें कि दूसरों पर बीतती है, वे जानें और भुगतते रहें। हमें इससे क्या लेना- देना।
सबसे बड़ा सौभाग्य
मित्रो! ऐसी स्थिति में शांति नहीं रह सकती और दुनिया में लोग घुल मिलकर नहीं रह सकते। आप पर मुसीबत आयेगी, मैं सहायता नहीं करूँगा और मुझ पर मुसीबत आये तो आप सहायता मत कीजिएगा। इस तरह सब तबाह होते चले जायेंगे, बर्बाद होते चले जायेंगे। इसलिए मिलजुलकर बुराई का मुकाबला करना- भले मनुष्यों का काम है। जटायु ने तीसरी आँख खोली। उसने कहा कि हमारे देखने की दृष्टि थोड़ी टेढ़ी है, लेकिन मनुष्य की बेटी मेरी बेटी है। मनुष्य की बीबी मेरी बच्ची है। किसी के साथ बेइंसाफी हो रही है, उसके साथ जुल्म किया जा रहा है, तो मैं उसका मुकाबला करूँगा। रोकने की भी हर चंद कोशिश करूँगा। यह कहानी है तीसरी आँख वाले जटायु की। भगवान राम जब वहाँ आये, तो उन्होंने घायल पक्षी को पड़ा हुआ देखा। उन्होंने उसे उठाकर सीने से लगा लिया। उसकी धूल साफ की। अपनी आँखों से आँसू बहाते हुए भगवान राम ने जटायु के घावों को धोया। इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? इससे बड़ा सौभाग्य किसी का नहीं हो सकता है।
कीमत तो चुकाइए
मित्रो! जटायु ने सौभाग्य पाया? हाँ पाया। भगवान की भक्ति पायी। भगवान का प्यार पाया, पर उसकी कीमत चुकाई। शंकर भगवान के रास्ते पर चलने के लिए आपने क्या कीमत चुकायी? आप तो माँगते फिरते हैं। भगवान ये दो, यह मनोकामना पूर्ण करो, वह मनोकामना पूर्ण करो। शिवरात्रि के दिन आप लोग बेल पत्र लेकर के मंदिर जाते हैं और कहते हैं कि महाराज जी! हम तो अच्छे- खासे हैं। सबेरे चाय पीते हैं, बिस्कुट खाते हैं और आप बेल के पत्ते खा लीजिए। अच्छा भाई! ला बेल के पत्ते ही दे। अपने यहाँ हिन्दुस्तान में भगवान शंकर को आक के फूल और धतूरे का फल चढ़ाया जाता है। आपके यहाँ क्या खिलाते हैं, मालूम नहीं। बेल के पत्ते और धतूरे का फल आपके यहाँ होता है कि नहीं? भगवान शंकर ने कहा कि अच्छा भाई! तू मेरा भक्त है, तो ला और उन्होंने धतूरे का फल खा लिया। उनको नशा हो गया और चेला उनकी झोली ले करके भाग गया। शंकर जी की नींद खुली, तो देखा कि जो भक्त रोज पानी चढ़ाने आता था, वह कहाँ गया? महाराज जी! वह तो आपकी झोली ले करके गायब हो गया। हम और आप उन्हीं में से हैं।
शबरी की सेवा
मित्रो! हम लोगों में अगर यह भाव रहा होता, तो हम अपने कर्तव्य और धर्म की शिक्षा प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर के समीप जाते और उनसे कुछ सीख करके आते। तब हमने भी रामायण के पात्रों की तरीके से अपनी भूमिका सम्पन्न की होती और जटायु की तरीके से भगवान की आँखों में से आँसू हमारे जिस्म पर टपक रहे होते। हमारे आँसू भगवान के ऊपर टपकने की कोई जरूरत नहीं थी। एक घटना रामायण में और आती है- तीसरी आँख खोलने वाले की ।। एक शबरी थी। शबरी मतंग ऋषि के आश्रम के समीप रहती थी। मतंग ऋषि के आश्रम के विद्यार्थी सबेरे उठा करते थे और नहाने- धोने के लिए तालाब पर जाया करते थे। रास्ता काँटों से भरा हुआ जंगली था। सबेरे- सबेरे बच्चे जाते तो पैरों में काँटे लग जाते। शबरी ने देखा, तो सोचा ये मेरे बच्चे नहीं हैं तो क्या, दूसरों के बच्चे हैं तो क्या? पढ़ने वाले बच्चे हैं। नहाने जाते हैं, इनके लिए मैं कुछ सेवा तो कर ही सकती हूँ। बिना पढ़ी गँवार हूँ तो क्या है? अछूत हूँ तो क्या है? क्या मैं सेवा नहीं कर सकती? बस, शबरी के मन में आया हाँ, मनुष्य की सेवा करना भगवान की सेवा करना है। वह सबेरे जल्दी उठती और झाड़ू लगाती। जो रास्ता मतंग ऋषि के आश्रम से तालाब तक जाता था, रोज झाड़ू लगाती। मतंग ऋषि ने मना किया कि शबरी तू अछूत है। यहाँ रही तो हमसे छू जायेगी, और हमारा काम हर्ज हो जायेगा। वह अलग रहने लगी, लेकिन झाड़ू तो रोज लगाती रही। विद्यार्थियों ने गुरुजी से पूछा- महाराज जी पहले हमारे पाँव में रोज काँटे लगा करते थे। अब हम रोज जाते हैं तो रास्ता हमको झड़ा हुआ- साफ किया हुआ मिलता है। अब तो किसी को भी काँटा लगने की शिकायत नहीं है। यह कौन आता है, कौन झाड़ू लगाता है?
अछूत गुरु भक्त
ऋषि ने कहा- जो मनुष्य की सेवा करना जानता है, उसका नाम देवता होना चाहिए। उसका नाम भगवान होना चाहिए। कोई भगवान आता होगा, कोई देवता आता होगा झाड़ू लगाने के लिए। मनुष्य क्यों लगायेगा। मनुष्य तो बड़ा चालाक, बड़ा बेईमान और बड़ा स्वार्थी है। जहाँ कहीं भी जाता है, हर जगह से अपना मतलब सिद्ध करने की कोशिश करता है। गणेश जी के पास जाएगा तो यह कोशिश करेगा कि उनका चूहा हाथ लग जाए और हाथी के दाँत मिल जायें। गणेश जी रात को सो जायें, तो दोनों दाँत उखाड़ लूँ और बाजार में बेच दूँ। सौ- दो सौ रुपया जेब में रखूँ। आदमी बड़ा चालाक है, लेकिन शबरी चालाक नहीं थी। भक्त को जैसा होना चाहिए, उस तरह की थी। मतंग ऋषि ने जवाब दिया, विद्यार्थियों को कि बच्चो! कोई भगवान भी हो सकता है, जिसके मन में दया है और करुणा है। उसके मन में सेवा की वृत्ति है वह सिवाय भगवान के और कौन हो सकता है? विद्यार्थियों ने कहा- तो गुरुजी! हमको आप भगवान का दर्शन करा देंगे क्या? देवता का दर्शन करा देंगे क्या? ऋषि ने कहा- बच्चो! कहीं छिप करके बैठ जाओ, शायद तुम्हें कोई मिल जाये। शबरी रात को झाड़ू लगा रही थी। विद्यार्थी छिपकर बैठे हुए थे, उन्होंने उसे पकड़ लिया और कहा- तुम तो देवता हो, तुम तो भगवान हो। उसने कहा, नहीं- नहीं, मैं तो शबरी हूँ और बिना पढ़ी हूँ, मुझे छूना मत, मैं तो अछूत हूँ।
देवी जिसके घर राम आए
विद्यार्थियों ने कहा, नहीं- नहीं, तुम अछूत नहीं हो सकतीं। जिसके मन में दूसरों की सेवा करने की भावनाएँ हैं, करुणा की- परोपकार की भावनायें हिलोरें लेती हैं, वह मनुष्य कैसे अछूत हो सकता है। उसे देवता होना चाहिए। मतंग ऋषि के आश्रम में शबरी पेश की गई। ऋषि ने कहा- शबरी तू झाड़ू लगाती है, हमारे यहाँ भोजन कर लिया कर। शबरी ने कहा- महाराज जी! सेवा का बदला सेवा नहीं होती। सेवा की कीमत नहीं चुकानी चाहिए। मैं अपने हाथ- पाँव से कुछ करने लायक हूँ। मैं क्यों अपनी सेवा का मूल्य लूँ? मैं जंगल में से कंद, मूल, फल बीन सकती हूँ और अपना पेट भर सकती हूँ, फिर आपके सामने क्यों हाथ पसारूँ और क्यों सेवा की कीमत माँगूँ? बस वह अपनी कुटिया में चली गयी और रोज झाड़ू लगाती रही। भगवान राम वनवास में सीता जी को तलाश करते हुए जब आये और ऋषियों के आश्रम में पहुँचे। तो उन्होंने पूछा- शबरी कहाँ रहती है? ऋषियों ने कहा- वहाँ रहती है। कहाँ रहती है? वहाँ रहती है। ठोकर खाते- खाते रामचंद्र जी के पाँव में छाले पड़ गये। उन्होंने कुटिया का दरवाजा खटखटाया- शबरी! दरवाजा खोल। शबरी ने कहा- आप कौन है? उन्होंने कहा, मैं तो राम हूँ। राम हैं, तो क्या वे राम जिनका मैं भजन करती हूँ? उत्तर मिला हाँ, हम वही राम हैं जिनका आप भजन करती हैं।
तो आज आप यहाँ मेरे दरवाजे पर कैसे आ गये? राम ने कहा- भक्त भगवान के दरवाजे पर नहीं गया है। भगवान को ही भक्त के दरवाजे पर जाना पड़ा है। शबरी परम्परा यही रही है और यही रहेगी और रहनी भी चाहिए। मित्रो! भगवान के दरवाजे पर भक्त नहीं जाता, भक्त के दरवाजे पर भगवान को ही आना पड़ा है और आना चाहिए। राम ने कहा- शबरी मैं तेरे दरवाजे पर आया हूँ क्योंकि तेरी भक्ति कसौटी पर कसी हुई खरे सोने की तरह है। दूसरों की भक्ति मुलम्मे की तरीके से है। संस्कृत नहीं आती तो क्या, श्लोक पढ़ना नहीं आता, तो क्या? मंत्र जपना और कर्मकाण्ड नहीं आता तो क्या? अनुष्ठान करना नहीं आता तो क्या? शबरी तेरी भक्ति, तेरे सिद्धांत और तेरे उद्देश्य ऐसे हैं जो कि एक भक्त के मन में होने चाहिए। इसीलिए मैं आया हूँ। तू मुझे प्रसाद नहीं खिलाएगी क्या? शबरी ने कहा भगवान का प्रसाद भक्त खाया करते हैं। राम ने कहा- नहीं शबरी केवल भगवान का प्रसाद भक्त ही नहीं खाया करते, बल्कि भक्त का प्रसाद भगवान भी खाया करते हैं।
साग विदुर घर खाए
मित्रो! विदुर के यहाँ भी यही हुआ। विदुर की पत्नी केले छील- छीलकर गूदा जमीन पर डाल रही थी और केले के छिलके भगवान के हाथ में रखती जा रही थी और वे छिलकों को खाते जा रहे थे। विदुर आये, उन्होंने देखा तो धमकाया अरी मूरख! यह क्या कर रही है? भगवान को फल खिलाती है या छिलके खिलाती है? भगवान ने कहा- विदुर जी! आप हमारे और अपनी धर्मपत्नी के बीच में न बोलें। यहाँ मोहब्बत खायी जा रही है और मोहब्बत खिलायी जा रही है। भगवान प्यार खाता है, चीजें भगवान को नहीं खिलायी जाती हैं। चीजों का प्रसाद लगाया जाता है, पूजा करके हम और आप खा जाते हैं। प्रसाद बाँट देते हैं। आपकी खाने की चीजों से भगवान का क्या लेना- देना। भगवान तो प्यार खाता रहता है। उन्हें प्यार ही खिलाया जा सकता है। यह शंकर भगवान की विवेक की आँख है। इसमें यह देखा जाता है कि अगला कल्याण किसमें है। आज की हमारी हानि है कि नहीं? शबरी ने आज का फायदा देखा होता तो मतंग ऋषि से कहा होता- महाराज जी! आप मेरे खाने की बात कर रहे हैं, तो कपड़े का भी इंतजाम कीजिए। बुढ़ापे के लिए पेंशन का भी इंतजाम कर दीजिए। रहने के लिए नये क्वार्टर बनवाइए और हमारे क्वार्टर में बिजली की बत्ती भी लगवा दीजिए। शबरी ने यह सब डिमांड पेश की होती तो फिर शबरी का प्रसंग मिट्टी का हो जाता। फिर दरवाजा खटखटाने के लिए राम वहाँ क्यों जाते? उसने जिस तीसरी आँख को खोला, वह शंकर जी की तीसरी आँख है। जिसका व्याख्यान रामायण के पन्ने- पन्ने में किया गया है।
हनुमान का रूपान्तरण
जब रामचंद्र जी ऋष्यमूक पर्वत पर गये। तब हनुमान जी एक ब्राह्मण का रूप बना करके आये। उन्होंने प्रणाम किया और कहा- महाराज जी! हम तो ब्राह्मण हैं। हमको मत मार डालना, तुम्हारे हाथ में तीर- कमान है। हमारा सुग्रीव तो छिपा बैठा है उन्हें बालि मार डालेगा। आप दोनों हथियार लेकर आ रहे हैं, कहीं बालि के भेजे हुए तो नहीं हैं? हम तो ब्राह्मण- पंडित हैं। हमको मत मारना, और किसी को मारें। हम तो बहुत गरीब आदमी हैं। यह हनुमान जी ने कब कहा? जब वे सुग्रीव के नौकर थे तब। लेकिन जब हनुमान जी सुग्रीव के नौकर नहीं रहे, भगवान के नौकर हो गये तब? समुद्र छलांगने के लिए सभी बैठे थे। जामवंत ने हनुमान से कहा- समुद्र की छलांग लगाओ। उन्होंने कहा मैं तो बंदर हूँ। पानी में डूब गया तो? मेरी टाँग टूट गई तो? जामवंत ने कहा- तुम्हारी टाँग नहीं टूट सकती, क्योंकि अपने लिए नहीं, भगवान के काम के लिए छलाँग लगाने के लिए जा रहे हो। तीसरी आँख का मतलब है कि हम भगवान के लिए जियें, भगवान के लिए काम करें, भगवान के इशारों को समझें।
ईमान, आदत, सिद्धान्त, चरित्र
मित्रो! भगवान के इशारों को समझने का मतलब है ‘‘सादा जीवन- उच्च विचार’’। हमारे ऊँचे ख्यालात और श्रेष्ठ काम, यही है भगवान का आदेश और यही है संदेश। हनुमान जिस दिन उस रास्ते पर आ गये, छलाँग लगायी और समुद्र पार हो गये। नल और नील उस समुद्र का पुल बनाने लगे, तब पुल पर पत्थरों ने कहा- हम भी कुछ मदद करेंगे और पानी पर तैरना शुरू करेंगे। आपको खम्भे भी नहीं बनाने पड़ेंगे। नल नील की पत्थरों ने क्यों मदद की? क्योंकि नल- नील का ईमान और उनकी भावनायें उच्च कोटि की थीं। वे लोकमंगल की भावना से पुल बना रहे थे। अगर नल और नील ने भगवान रामचंद्र से ठेका लिया होता और उसमें से आधा सीमेंट और आधी मिट्टी मिला करके खम्भे खड़े किये होते तब? तब नल- नील का दिवाला निकल जाता, फिर वह पुल नहीं बन सकता था। टूट- फूटकर भरभराकर गिर जाता। फिर इस पुल पर से कोई उस पार नहीं होता। मनुष्य के ईमान और मनुष्य की भावनायें, मनुष्य की आदत और मनुष्य के सिद्धांत, मनुष्य के कर्म और मनुष्य के चरित्र, यही हैं जो हमारी तीसरी आँख खोलने के लिए पर्याप्त हैं। बाहर की दो आँखें हमको यह बताती हैं कि बढ़िया खाना चाहिए, बढ़िया पहनना चाहिए। हमारी बाहर की आँख यह दिखाती है कि दूसरे लोगों की आँखों में हमें बड़ा आदमी और मालदार आदमी बनना चाहिए। लेकिन शंकर भगवान की एक तीसरी आँख है। हम और आप भी अपनी तीसरी आँख खोल डालें तो मजा आ जाए।
गिलहरी की भूमिका
एक गिलहरी थी, वह अपने बालों में मिट्टी भरकर ले आती और समुद्र में छिड़कती। बन्दरों ने कहा- अरे गिलहरी! क्या करती है? उसने कहा, तुम इतने बड़े हो, कुछ काम कर सकते हो। मैं तो गरीब हूँ, छोटी सी हूँ। मैं तो बिना पढ़ी हूँ, कमजोर हूँ, लेकिन ऊँचे सिद्धान्तों के लिए तो मैं भी काम कर सकती हूँ। वह बालों में मिट्टी भर कर ले जाती और समुद्र में फेंकती। वह बोली- अगर समुद्र ऊँचा हो जाएगा, तो आप रीछ- वानरों को निकलना सुगम हो जाएगा। गिलहरी को बन्दर पकड़ कर ले गये और भगवान राम के सामने रखा कि यह गिलहरी है। यह क्या करती है? समुद्र में बालू- मिट्टी डालती है। भगवान ने पूछा- अरी गिलहरी तू तो बहुत कमजोर है। तेरी हैसियत क्या है, तेरी औकात क्या है? तू तो बिल्कुल नाचीज है। फिर यह क्या करती है? उसने कहा- नाचीज मेरा शरीर है। नाचीज मैं पैसे के हिसाब से हूँ। नाचीज मेरा मन नहीं। मेरा मन उतना बड़ा नहीं है जितना कि बड़ा हनुमान जी का। इसलिए मैं पत्थर- पहाड़ तो नहीं उठा सकती, लेकिन मिट्टी ले जा सकती हूँ और फेंक सकती हूँ। भगवान राम ने उसको प्यार किया, छाती से लगाया, पुचकारा और उसकी पीठ पर हाथ फिराए, सुना है कि भगवान साँवले रंग के थे। इसलिए गिलहरी की पीठ पर जब प्यार से भगवान राम ने अँगुलियाँ फिराई, तो उसकी पीठ पर लगी और काले निशान बन गये। कहा जाता है कि इन गिलहरियों की जो औलादें हैं, उनकी पीठ पर वही काले रंग के निशान पाये जाते हैं। गिलहरी, जिसे आप स्क्वेरल कहते हैं, इनकी पीठ पर जो निशान होते हैं, उसे आप भगवान का प्यार कह सकते हैं।
पूजा के साथ होती है सेवा
मित्रो! भक्त केवल भगवान की पूजा तक ही सीमित नहीं हो जाते। पूजा के साथ सेवा शब्द और जुड़ा हुआ है। आप पूजा के साथ कुछ सेवा भी करते हैं या नहीं करते? या यों ही फालतू बैठे रहते हैं? नहीं साहब! हम पूजा और सेवा दोनों करते हैं। हाँ भाई साहब! सेवा और पूजा का जोड़ा है। एक से ही गाड़ी नहीं चलेगी। एक से ही काम नहीं बनेगा। अगर आप केवल पूजन करते रहेंगे और सेवा से नाता तोड़ लेंगे, सेवा से मन मोड़ लेंगे, तो बात बनने वाली नहीं है। हमें सेवा को भी जीवन में रखना पड़ेगा। हमको अपने बच्चों की सेवा करना चाहिए। उनको सुसंस्कृत बनाना चाहिए। हमको अपनी बीबी की सेवा करनी चाहिए, उसको सुयोग्य बनाना चाहिए। हमको अपने शरीर की सेवा करनी चाहिए, ताकि इसको परलोक में जाकर के नरक में नहीं पड़ना पड़े और हमको बीमार नहीं पड़ना पड़े। हम तो सबकी सेवा कर सकते हैं। आप भी अपनी सेवा करें, अपने बच्चों की सेवा करें, अपने माँ- बाप की सेवा करें। अपने पड़ोसियों की सेवा करें, अपने देश की सेवा करें। समाज की सेवा करें, संस्कृति की सेवा करें। ये सारी बातें भी हमारी पूजा में शामिल होनी चाहिए।
सीखें शंकर जी से
साथियो! अगर हमारी भी तीसरी आँख भगवान शंकर की तरीके से खुली हुई हो, तब भगवान शंकर जाने क्या से क्या सिखाते हैं? भगवान शंकर के शरीर को जब हम देखते हैं, तो मालूम पड़ता है कि वे भस्म लगाये हुए हैं। वे मरघट में निवास करते हैं और गले में मुण्डों की माला पहने हुए हैं। इसका क्या मतलब है? वे मरघट में क्यों रहते हैं? इसका मतलब है कि हमको जिन्दगी और मौत- दोनों को जोड़कर रखना पड़ेगा। जिन्दगी के साथ में मौत को भी याद रखना पड़ेगा। हमें सब चीजें याद हैं, लेकिन हम मौत को भूल गये। हमको अपना कायदा याद है, हमको नुकसान याद है। हमको जवानी याद है, खाना- पीना याद है, पर मौत को हम बिलकुल भूल गये। मौत जरा भी याद नहीं रही। हमें अपनी मौत याद है और अगर आपको भी याद रही होती, तो हमारे काम करने के तरीके और सोचने के तरीके अलग तरह के रहे होते। वैसे न होते जैसे आज हैं।
कुछ नहीं ले जा पाएँगे
शंकर भगवान हमें यही सिखाते हैं, जिसे दूसरों ने भी सीखा। कहते हैं कि बादशाह सिकन्दर ने बहुत सारी दौलत इकट्ठी कर ली। उसने अनीति और अन्याय से बहुत पैसा कमाया। उसके पास बहुत सारा धन इकट्ठा हो गया। जब मरने का समय आया, तो उसने अपने साथियों, मंत्रियों को बुलाया। उसने कहा कि हमने अपनी बेशकीमती जिन्दगी न्यौछावर करके उसकी कीमत पर जो धन- दौलत कमाया था, वह कहाँ है? लाओ, अब हम मरने को हैं, उसे अपने साथ ले जायेंगे। मंत्रियों ने कहा कि आप भी क्या गजब की बात करते हैं। क्यों भाई! इसमें गजब की क्या बात है? हमने कमाया है तो क्या हमको नहीं मिलेगा? हम फायदा नहीं उठायेंगे? उन्होंने कहा नहीं, कोई आदमी फायदा नहीं उठा सकता। यही दुनिया का कायदा है। भगवान ने हर आदमी के लिए एक कोटा मुकर्रर कर दिया है। उससे आगे कोई नहीं इस्तेमाल कर सकता। आप इकट्ठा कर सकते हैं, पर इस्तेमाल नहीं कर सकते। आप पाँच रोटी खाते हैं, पर पच्चीस रोटी नहीं खा सकते। खा सकते हों तो खाकर दिखाइये। आप छः हजार रुपये महीने कमाते हैं, तो आप पच्चीस रोटी रोज खाया कीजिए। नहीं साहब! पच्चीस रोटी हम कैसे खा सकते हैं? हम तो चार रोटी ही खायेंगे। इस तरह आपका कोटा मुकर्रर है। आपने पाँचवी रोटी खाई और पेट में दर्द शुरू हुआ और उल्टी होने लगी। पाँचवीं रोटी आप कैसे खा सकते हैं? कुदरत आपको एक सीमा तक ही खाने देगी। ज्यादा चीजें आपके पास हैं, तो चाहे वह आपको बेटा हो, चाहे आपका साली हो, चाहे आपका भतीजा हो, सब छीन ले जायेगा। आप इस्तेमाल नहीं कर सकते।
अपरिग्रह का सिद्धान्त जीवन में उतरे
मित्रो! आपका कुर्ता साढ़े तीन गज या तीन मीटर का बना हुआ है। आप में से ऐसा कोई है जो सौ मीटर का कुर्ता पहनता हो और सौ मीटर की कमीज पहनकर दिखाये। सब धूल- मिट्टी में लोटती फि रेगी और गंदी हो जायेगी। फिर उसे धोना मुश्किल पड़ जायेगा। उसे टाँगना और पहनना तो मुश्किल पड़ेगा ही। उसे पहन कर साइकिल चलाना मुश्किल पड़ जायेगा और सब धूल- मिट्टी में सन जायेगी। सौ गज की कमीज पहनना नामुमकिन है, आप नहीं पहन सकते। आपको तीन गज की ही पहननी पड़ेगी। छः हाथ की चारपाई पर आप सोते हैं। आप सौ हाथ की चारपाई पर सोइये? सौ हाथ की चारपाई पर सोयेंगे, तो फिर घर में न उठने की जगह, न फैलने की जगह और न कहीं ठहरने की जगह मिलेगी। सारे मकान में चारपाई ही चारपाई नजर आयेगी। फिर उसे कहाँ उठाये, कहाँ रखें? मुसीबत आ जायेगी आप इतनी बड़ी चारपाई को इस्तेमाल कर सकते हैं? नहीं कर सकते। हर चीज के इस्तेमाल की एक सीमा मुकर्रर है। मित्रो! सिकन्दर यही भूल गया। उसने कहा कि हम अपना पैसा साथ ले जायेंगे। मंत्रियों ने कहा कि आप नहीं ले जा सकते। जितना आपने खा लिया, उतना ही काफी है। जितना आपने पहन लिया, बस काफी है या आपने किसी अच्छे काम में लगा दिया, वह काफी है। बाकी सारी दौलत इस दुनिया की थी, है और रहेगी। इस दुनिया में यह बात अनादि काल से चली आ रही है और चलती रहेगी।
हर दिन का बेहतर उपयोग करें
आपने इसका भला- बुरा इस्तेमाल कर लिया, आपके लिये यही पर्याप्त था। यह बात सिकन्दर की समझ में आ गयी और जब वह मरने को हुआ, तो उसने बहुत अफसोस किया। उसने अपने मंत्रियों को बुलाकर कहा कि लोगों से कहना कि सिकन्दर बहुत बेवकूफ था। उसने कहा कि आप ऐसा करना कि मेरे दोनों हाथ ताबूत से बाहर निकाल देना, ताकि जब सड़कों पर मेरा जनाजा निकले, तो लोगों को यह मालूम पड़े कि सिकन्दर खाली हाथ आया था और खाली हाथ चला गया। मित्रो! हम खाली हाथ आये हैं और खाली हाथ ही हमें चले जाना है। केवल बुराई और भलाई का गट्ठर अपने सिर पर लादकर हम ले जा सकते हैं। अपने मुँह को सफेद और काला बनाकर ले जा सकते हैं। हम और कुछ नहीं कर सकते हैं। मजबूर हैं। अगर मौत याद है तो हमको यह ख्याल बना रहेगा कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। मौत को हम भूल जाते हैं। राजा परीक्षित का ऐसा ही किस्सा है। परीक्षित को साँप के काटने का शाप मिला था कि उन्हें सातवें दिन तक्षक नाग काट खायेगा। सात दिन बाद मौत की बात जब राजा परीक्षित ने सुनी तो न वह रोया, न चिल्लाया और न कुछ काम किया। बस उसने एक ही काम किया कि जीवन के शेष बचे सात दिनों का बेहतरीन इस्तेमाल क्या हो सकता है और इसका अच्छे से अच्छा उपयोग मैं
क्या कर सकता हूँ? यही सोचता रहा।
राजा परीक्षित ने भागवत् की कथा सुनना शुरू कर दिया। राम का नाम लेना शुरू कर दिया। पुण्य- परमार्थ करना शुरू कर दिया। अच्छे काम करना शुरू कर दिया। सात दिन उसने ऐसे ही कार्यों में व्यतीत कर दिये। सातवें दिन साँप ने राजा परीक्षित को काट खाया। मित्रो! राजा परीक्षित की भाँति आपको भी सात दिन के भीतर ही साँप काटेगा। सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पति, शुक्रवार, शनिवार और रविवार- इससे आगे और कोई दिन नहीं हैं। सात दिन के भीतर ही परीक्षित को शाप लगा हुआ था और सात दिन के भीतर ही हमको और आपको शाप लगा हुआ है। हम सबको सात दिन के भीतर ही साँप काटने वाला है, अगर यह ख्याल बना रहे, तो हम अच्छे आदमी की जिंदगी जी सकते हैं। शरीफ की और नेक आदमी की जिंदगी जी सकते हैं। परोपकारी की जिंदगी जी सकते हैं।
भस्म धारण का सिद्धान्त
मित्रो! अच्छे इंसान की जिंदगी जीना हमको कहाँ आता है? अगर हमको यह आता होता तो शंकर जी के भस्म धारण करने वाली बात हमारी समझ में आ गयी होती। हमारा यह दिमाग कैसा गंदा और फूहड़ है जो अपनी मौत को रोज भूलता चला जाता है। शंकर भगवान की पूजा करने के बाद हम हवन करते हैं और उसकी भस्म मस्तक पर धारण करते हैं। ‘भस्म धारणम्’ में यह भावना समाहित है कि यह शरीर खाक होने वाला है। मिट्टी और धूल में मिलकर हवा में उड़ने वाला है। जिस शरीर पर आज हमको अहंकार है, कल वही शरीर लोगों के पैरों तले कुचला जाने वाला है और हवा के झोंकों के साथ आसमान पर उड़ने वाला है- हमें यह ख्याल नहीं आता। हम यही सोचते रहते हैं कि हमको तो लाखों- करोड़ों वर्ष जीना है। सारी दौलत हमारी होने वाली है और सात पीढ़ियों तक रहनेवाली है। हम यही सोचते रहते हैं कि हम जो खा लेंगे, पहन लेंगे, बस वही हमारा है। हमें परलोक से क्या मतलब है? अच्छे काम से क्या मतलब है? जीवन उद्देश्य क्या होता है? भगवान के इशारे क्या होते हैं? हमें पता नहीं, हम तो भगवान को अपने इशारे पर चलाना चाहते हैं।
क्या भगवान हमारा नौकर है?
साथियो! भगवान के इशारे पर हम चलने के लिए तैयार नहीं हैं। हम तो ‘बॉस’ हैं और भगवान हमारा नौकर है। हम कहते हैं- ऐ भगवान। जल्दी आ जा। हमारे बाल- बच्चा नहीं होता, जल्दी पैदा करो। हाँ महाराज जी! अभी पैदा करता हूँ। हमने कहा कि तुम्हारी पूजा की, प्रसाद चढ़ाया। अहा! तो हमारा काम करोगे? हाँ हुजूर, बताइये, क्या काम करूँ? हमारा मुकदमा चल रहा है, हमको जितवा दो। अच्छा हुजूर, अभी आपका मुकदमा जितवाता हूँ। भगवान मालिक है या आप मालिक हैं? नहीं, आप मालिक हैं और भगवान नौकर है, क्योंकि आपने उसको मिठाई खिला दी है। अतः आपको उसकी कीमत भगवान से वसूल करनी चाहिए। भगवान से कहना कि यह फोकट की ऐसी मिठाई नहीं है। गला फाड़कर सब वसूल कर लिया जायेगा। भगवान कहता है कि अच्छी मिठाई खाई। बाबा! इससे तो अच्छा था कि प्रसाद नहीं खाता। आज हमारी यही परिस्थितियाँ हैं।
याद करें अपने शिक्षण को
हम इस बात को भूलते चले जाते हैं कि हमारे अध्यात्म का शिक्षण क्या था, जिसकी वजह से हम दुनिया में जगद्गुरु कहलाते थे, चक्रवर्ती शासक कहलाते थे। दैवी सम्पदाओं के स्वामी कहलाते थे। किसी जमाने में सातों द्वीपों पर सात ऋषियों का शासन था। क्यों? क्योंकि हमारे सोचने के तरीके ऊँचे थे। हमारे काम करने के ढंग ऊँचे थे। हमारी सलाह ऊँची थी। हमारे जीवन उच्चकोटि के थे। लेकिन अब हम अपने जीवन को गंदा और जलील बनाते चले जा रहे हैं और यह ख्याल करते रहते हैं कि पूजा- पाठ से हमारे जीवन के सारे उद्देश्य पूरे हो जायेंगे। यह हमारी भूल है।
मरघट मुण्डों की माला
शंकर भगवान अपना निवास मरघट में रखते थे। वे कहते थे कि जिंदगी और मौत मिली हुई है। आज हम जिन्दा हैं, तो कल हमको करना ही पड़ेगा। आज हम मरे हैं, तो कल जिंदा रहना ही पड़ेगा। मरघट और घर दोनों एक ही होने चाहिए। दोनों को एक ही समझना चाहिए। आज का घर कल मरघट होने वाला है। हमारी आज की जिंदगी कल मौत में बदलने वाली है। कल की हमारी मौत नयी जिंदगी में बदलने वाली है। मौत और जिंदगी दिन और रात की तरीके से एक खेल है। मौत से डरने से क्या फायदा? हमें मौत की तैयारी क्यों नहीं करनी चाहिए? शंकर भगवान के मरघट में रहने और अपने शरीर पर भस्म लगाने की नसीहतें हमको यही सिखाती हैं।
शंकर भगवान के गले पर मुण्डों की माला क्या सिखाती है? अभी हम जिस चेहरे को शीशे में बीस बार देखते हैं। इधर से निकलते हैं तब शीशा, उधर से निकलते हैं तब शीशा। इधर कंघी, उधर कंघी- हेयर शैम्पू, क्रीम, पाउडर, इधर लाल रंग, उधर पीला रंग, ओठों पर लाल रंग, चेहरे पर काला रंग, आँखों पर नीला रंग- यह सब पैसे ही बनाते हैं, माना रंग- बिरंगी तस्वीर बनने के लिए जा रही है। यह ख्याल नहीं है कि यह काया मुण्डों की हड्डियों का टुकड़ा है। इसके बाहर के चेहरे को खोल करके देखें। हमारी आँखें खराब होती रहती हैं। लड़कियों की आँखें लड़कों की तरफ और लड़कों की आँखें लड़कियों की तरफ देखकर खराब होती रहती हैं और हम उस बात को भूलते चले जा रहे हैं, जो भारतीय संस्कृति का मूल है। जब शिवाजी के सामने एक नौजवान महिला को सामने लाया गया, तो उन्होंने कहा कि अगर ऐसी खूबसूरत मेरी माँ होती, तो मैं भी ऐसा ही सुन्दर बालक पैदा होता। यह मेरे माँ के बराबर है। इसे सम्मान वहीं पहुँचा दिया जाय, जहाँ से इसे लाया गया है।
अर्जुन जैसा जीवन हो
कहा जाता है कि अर्जुन जब स्वर्गलोक में गये थे, तो स्वर्ग की अप्सराएँ उनके सामने आयीं। उन्होंने कहा कि हम तुम्हारे जैसा एक बेटा पैदा करना चाहते हैं। उनका मतलब अर्जुन के साथ में संपर्क बनाने का था। अर्जुन ने कहा कि माँ! मुझसे जो लड़का या लड़की पैदा हुई और वह मेरे जैसी न हुई या फूहड़ पैदा हुई तब? और फिर वह कितने साल का हो जायेगा, तब मेरे बराबर होगा? मैं तो बत्तीस साल का हूँ। आपको बत्तीस साल तक इंतजार करना पड़ेगा, तब मेरे बराबर बेटा होगा। मैं तो आज से ही तुम्हारा बेटा हो जाता हूँ। तुम मेरी माँ और मैं तुम्हारा बेटा। बेटा चाहती हो न? बस मैं तो बना- बनाया बेटा तैयार हूँ, जिसने तुम्हारे पेट में भी तकलीफ नहीं दी। तुम्हारा दूध भी नहीं पिया, तुम्हारी जवानी भी खराब नहीं की। लो मैं तुरंत ही तुम्हारा बेटा बन जाता हूँ। उच्चकोटि के यह सिद्धान्त, उच्चकोटि के यह दृष्टिकोण जब हमारे थे, तब हम चेहरों को हड्डियों का टुकड़ा मानते थे। तब हम ब्रह्मचारी थे, तब हम सदाचारी थे। तब आपकी बेटी हमारी बेटी थी। तब आपकी बहन हमारी बहन थी और आपकी माँ हमारी माँ थी।
देह का आकर्षण
लेकिन मित्रो! आज हमारी आँखों में कैसा रंग सवार हो रहा है। हड्डी के टुकड़े के ऊपर चढ़े हुए चमड़े के ऊपर जो सुनहरा रंग दिया गया है, उस बाहर वाले टुकड़े को तो हम देखते हैं, लेकिन भीतर वाले को नहीं देखते। अभी हड्डियों के टुकड़े वाले जिस खूबसूरत शरीर को, शक्ल को हम बार- बार शीशे में देखने है और जिनके फोटो लिए हम इधर- उधर फिरते हैं और जिनकी फोटो हमने बाजार में से खरीदकर अपने कमरों में सजा रखी हैं। यह किसका फोटो है? यह अमुक सिने कलाकार का फोटो है। यह आपकी कौन लगती है? बुआ, चाची, मौसी? कौन है ये? नहीं साहब! यह सिनेमा की एक्टर है। तो आपने इसे किसके लिए लगा रखा है? इससे आपका क्या ताल्लुक है? अजी साहब! यह बहुत खूबसूरत है और देखने में हमें बहुत अच्छा लगता है। अच्छा, तो इसका यह हड्डी का चेहरा क्यों नहीं देखता। इसकी चमड़ी को उखाड़ करके देख, इसके नीचे सिर्फ हड्डी का टुकड़ा जमा पड़ा है। शंकर भगवान के गले में पड़ी हुई हड्डियों के मुण्डों की माला हमें यही नसीहत देती है, यही शिक्षण देती है।
शिक्षण प्रमुख है, उसे याद रखें
मित्रो! न केवल शंकर भगवान के चरणों में बैठकर, वरन् हर देवी देवता तथा भगवान के जितने भी रूप बनाये हुए हैं, सब में उसी तरह की शिक्षायें भरी पड़ी हैं। प्राचीनकाल में हम भगवान के चरणों में जाते थे। देवताओं का पूजन करते थे। देवताओं को नमस्कार करते थे। देवताओं की आरती उतारते थे, परिक्रमा करते थे। लेकिन देवताओं के साथ- साथ मनुष्य को देवता बनाने वाली जो शिक्षाएँ उनमें भरी पड़ी हैं, उनको भी हम सीखते थे। उसकी फिलॉसफी को भी हम समझते थे। कथाओं में यही उपदेश था। कीर्तनों का यही उद्देश्य था और प्रवचनों में यही बात सिखाई जाती थी। लेकिन हाय रे! हमारा अज्ञान और हाय रे! हम, केवल प्रतीक हमारे हाथ में रह गया और उसके भीतर के कलेवर को हम भूल गये। केवल कपड़ा हाथ में रह गया। जो कपड़ा पहनता था, उस कपड़ा पहनने वाले की बात को हम भूल गये। हमको केवल प्रतीक पूजा याद है और उनकी शिक्षाओं को हम भूल गये। हमें प्रतीकों की, विग्रहों की शिक्षाओं को फिर से याद करना पड़ेगा, फिर से समझना पड़ेगा, जैसे कि मैंने शंकर भगवान के सम्बन्ध में निवेदन किया।
देवभूमि भारत के वासियों से अपेक्षाएँ
मित्रो! इसी तरीके से सारी पौराणिक कथाओं और सारे पौराणिक देवी- देवताओं में विशेष संदेश और शिक्षायें भरी पड़ी हैं। काश! हमने उनको समझने की कोशिश की होती, तो हम प्राचीनकाल के उसी तरीके से रत्नों में से एक रहे होते, जिनको कि दुनिया वाले तैंतीस कोटि देवता कहते थे। उस समय हिन्दुस्तान में तैंतीस करोड़ आदमी रहते थे। दुनिया वाले कहते थे कि ये इंसान नहीं, देवता हैं, क्योंकि उनके विचार और कर्म ऊँचे हैं। जिन लोगों के ऊँचे कर्म और ऊँचे विचार हैं, उन्हें देवता नहीं तो और क्या कहेंगे? वह भारत भूमि जहाँ से कि आप पधारे हैं, वह देवताओं की भूमि थी और उसे देवताओं की भूमि रहनी चाहिए। आपको यहाँ देवताओं की तरीके से आना चाहिए। देवता जहाँ कहीं भी जाते हैं, वहाँ शान्ति और सौंदर्य तथा प्रेम और संपत्ति पैदा करते हैं। आप लोग जहाँ कहीं भी जायँ, वहाँ आपको ऐसा ही करना चाहिए। आप लोगों ने मेरी बात सुनी, आप लोगों का बहुत- बहुत आभार।
मोम्बासा- केन्या (दिसम्बर १९७२)
भगवान से प्यार करते हैं, कीमत चुकाइए ]
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
ॐ अग्ने नय सुपथाराये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वानयुयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम्।
संकेतों को समझें- आत्मसात् करें
सम्भ्रान्त महानुभाव और देवियो! कल मैं भगवान शंकर जी के सम्बन्ध में निरन्तर प्रकाश डालता रहा हूँ। यह बताता रहा हूँ कि इनके विग्रह और इनके बाहरी स्वरूप के भीतर क्या शिक्षाएँ और क्या प्रेरणाएँ भरी हुई हैं? शिक्षाओं और प्रेरणाओं को मूर्तिमान करने के लिए अपने हिन्दू समाज में इनकी प्रतीक पूजा की व्यवस्था की गयी है। देवताओं के जितने भी प्रतीक हैं, उन सबके पीछे कोई न कोई संकेत भरा हुआ है। गायत्री माता का वाहन हंस है। हंस का क्या अर्थ है? हंस का अर्थ यह है कि जो नीर और क्षीर का विवेक कर सकता हो। दूध और पानी को अलग- अलग कर सकता हो। पानी को फेंक सकता हो और दूध को पी सकता हो। ऐसे हंस के ऊपर गायत्री माता सवार रहेंगी और वह उनकी कृपा का भाजन बन जायेगा।
मित्रो! हंस पर गायत्री माता सवार होती हों, ऐसी कोई बात नहीं है। हंस तो एक छोटा सा पक्षी होता है। गायत्री माता कम से कम एक- दो मन की तो होंगी ही। ऐसे में तो बेचारे हंस का कचूमर निकल जायेगा। जब वे हंस के ऊपर बैठेंगी, तब वह उड़ेगा कैसे, चलेगा कैसे? हंस की तो मुसीबत आ जाएगी। गायत्री माता हंस पर बैठती नहीं है, वरन् उसके भीतर जो शिक्षा भरी हुई है अगर उनको हम ग्रहण कर लें, तो भगवान के पास तक पहुँचने का रास्ता खोज सकते हैं। अगर हम इन बातों को समझेंगे नहीं, तो केवल हम हंस की ही पूजा करते रहेंगे। चूहे पर गणेश जी बैठते हैं, केवल इतना ही समझते रहेंगे, तो हम रहस्य तक नहीं पहुँच सकेंगे। छोटे बालकों को तस्वीरें दिखा करके शिक्षण किया जाता है। ‘क’ माने कबूतर। कबूतर की शकल दिखाकर के यह बताते हैं ‘क’ का स्थान कैसे होता है। अगर कोई छोटा बालक हमेशा कबूतर- कबूतर कहता रहे और उसमें से ‘क’ की आवाज को सीखने की कोशिश न करे, तो फिर उसको अक्षर ज्ञान होना, विद्या प्राप्त करना संभव नहीं है। प्रतीक पूजा का हमारे हिन्दू धर्म में बहुत महत्त्व है। प्रतीक पूजा को हम बड़ी मान्यता देते हैं और देनी भी चाहिए। लेकिन प्रतीक पूजा के पीछे जो शिक्षण, प्रेरणाएँ और दिशायें भरी पड़ी हैं, उनको जानना ही चाहिए।
हमारा असमंजस
साथियो! मैं आपको भगवान शंकर का उदाहरण देता रहा हूँ। सारे विश्व का कल्याण करने वाले भगवान शंकर विशेषतः हिन्दू समाज के पूज्य हैं। जिनकी हम दोनों वक्त आरती उतारते हैं। जिनका जप करते हैं। शिवरात्रि के दिन पूजा करते हैं, उपवास करते हैं। जिनकी न जाने क्या- क्या पूजा और प्रार्थना करते हैं और कराते हैं। क्या शंकर भगवान हमारी कठिनाइयों का कोई समाधान नहीं कर सकते? क्या हमारी उन्नति में भगवान शंकर कोई सहयोग नहीं दे सकते? भगवान को सहयोग देना चाहिए। हम उनके प्यारे हैं, हम उनके उपासक हैं, उनकी पूजा करते हैं। लेकिन पूजा करते हुए भी हम कहाँ से कहाँ फिसलते चले जा रहे हैं और दूसरे लोग जो शंकर भगवान की पूजा भी नहीं करते हैं वे कैसे उन्नतिशील होते चले जा रहे हैं। यह देखकर हमारा मन शंकित होता जाता है और हमारी आस्तिकता को चोट पहुँचती है। हमारा मन डाँवाडोल हो जाता है और कई बार यह विचार करने लगते हैं कि हमारी पूजा सार्थक है अथवा नहीं? अगर हमारी पूजा सार्थक रही होती, तो हम दूसरों की अपेक्षा अर्थात् जो नास्तिक हैं, उनसे कुछ ज्यादा अच्छा बन सकते थे और अच्छी स्थिति में रह सकते थे। आस्तिकता का हमें क्या लाभ मिला? ऐसा संदेह आपको भी उत्पन्न हो सकता है और मुझे भी। इसका समाधान क्या है? समाधान यह है कि हमने भगवान की भक्ति और पूजा तो की, लेकिन पूजा और भक्ति के पीछे जिन सिद्धान्तों का समावेश था, जो हमको सीखने और जानने चाहिए थे, अपने जीवन में उतारने चाहिए थे; उन सब बातों को हम भूलते चले गये और केवल प्रतीक पूजा तक सीमाबद्ध रह गये।
कसूर पात्रता का
मित्रो! पूर्व के व्याख्यान में, मैं पात्रता के बारे में निवेदन कर रहा था। एक बार ऐसा हुआ कि बादल बरसने लगे। रात भर वर्षा हुई। एक आदमी ने बाहर निकल कर देखा कि कहीं तालाब भरा हुआ था, कहीं झीलें भरी हुई थीं। किसी के घर बाल्टी रखी थी, वह पानी से भर गयी, पर एक अभागा मनुष्य पानी की एक बूँद के लिए तड़पता रह गया। किसका कसूर था? बादल का? नहीं बादल का कसूर नहीं था। बादल तो बराबर रात भर बरसता रहा। जिन्होंने अपनी छत के ऊपर, आँगन में एक कटोरी रखी थी। कटोरी में पानी भर गया। जिसने बाल्टी रखी थी, बाल्टी में पानी भर गया। जिसने कुण्ड, हौज आदि बना रखा था, उसका हौज भर गया और जिसने तालाब बना रखा था, उसका तालाब भर गया। बादल का कसूर था? बादल का कोई कसूर नहीं था। फिर किसका कसूर? कसूर सिर्फ उसका, जिसने अपना बर्तन, पात्र नहीं रखा।
क्या हो पूजा का उद्देश्य?
पात्रता का विकास करना, यही भक्ति का मूलभूत उद्देश्य है। भगवान के सब प्यारे हैं। प्रार्थना करें तो भी उसको प्यारे हैं और जो प्रार्थना करना नहीं जानते वे कीड़े- मकोड़े, पशु और पक्षी भी भगवान को प्यारे हैं। वह उनको भी अनाज देता है, खुराक देता है, उनको भी जिंदगी की सब चीजें देता है। उससे कोई बचा हुआ नहीं है। फिर पूजा का उद्देश्य, प्रार्थना का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य खुशामद करना नहीं है। भगवान को चीजों की कमी पड़ती हो, ऐसी भी बात नहीं है। भगवान के पास फल- फूल बहुत हैं, अक्षत बहुत हैं। चंदन बहुत है, धूप- दीप बहुत है। भगवान को पूजा की, खुशामद की कोई जरूरत नहीं है। हर जानवर, चिड़िया आदि हर पक्षी उनकी प्रार्थना करता है, फिर हमारी प्रार्थना और पूजा से ही भगवान क्यों प्रसन्न हों और क्यों हमारी पूजा के बिना नाराज हो जायें। वे पूजा के बिना नाराज नहीं होते हैं। फिर किससे नाराज होते हैं? वे इससे नाराज होते हैं कि हमने अपनी पात्रता का विकास नहीं किया। पात्रता का विकास करना, यही पूजा का उद्देश्य है।
मित्रो! प्रार्थना का एक ही उद्देश्य है कि हम अपने मन की मलीनताओं को साफ कर डालें और स्वच्छ बन जायें। अपनी पात्रता विकसित करें और इस लायक बनें कि हमको भगवान का प्यार, भगवान का स्नेह निरंतर मिलता हुआ चला जाये। अपने मल, आवरण और विक्षेप, अपने कषाय और कल्मष, दोष और दुर्गुण की सफाई कर डालना- यही पूजा का उद्देश्य है। साबुन लगाकर जब हम अपने कपड़े की सफाई कर लेते हैं, तब उसमें जो भी रंग चढ़ाते हैं, वह चढ़ता हुआ चला जाता है। मेरा धुला हुआ कपड़ा गुलाबी रंग में रंगियेगा, बिल्कुल गुलाबी होगा। पीला रंग रंगिये, पीला होगा। हरा रंग रंगिये, हरा होगा। कब? अगर आपने कपड़ा साफ किया हुआ है तब। अगर आपने कपड़ा साफ नहीं किया है तो गुलाबी रंग चढ़ने वाला नहीं है। पीला रंग- बसंती रंग चढ़ने वाला नहीं है। अपना मन हमने मलीनता दूर करके शुद्ध- स्वच्छ नहीं बनाया है। तब शंकर जी के नाम का पीला रंग चढ़ेगा कैसे? हनुमान जी का लाल- गुलाबी रंग चढ़ेगा कैसे? श्रीकृष्ण भगवान का हरा रंग चढ़ेगा कैसे?
उपासना का मर्म
वस्तुतः उपासना वहाँ से प्रारंभ होती है, जहाँ से हम अपने भीतर अंतरमुखी हों और ये देखें कि हमारे द्वेष और दुर्गुण कहाँ- कहाँ भरे पड़े हैं। उन्हें हमको दूर करना चाहिए। हमें अपने अंदर की विशेषताएँ विस्तृत कर, अपने गुण, कर्म और स्वभाव में परिष्कार करना चाहिए। पूजा का यही उद्देश्य है जो कि विकासमान, उदीयमान समाजों में हुआ करता है। कल मैं यही निवेदन कर रहा था। भगवान शंकर बादल की तरीके से हैं। अगर हमारी पात्रता विकसित होती चली जाएगी तो हमको ये लाभ मिलते चले जाएँगे, जो शंकर जी के भक्तों को मिलने चाहिए। लेकिन अगर हम केवल पूजा तक ही सीमित रहें और अपने दोष- दुर्गुणों को दूर करने से पीछे हटते चले जायें, पाप पंक में डूबे रहें तब शंकर भगवान का लाभ और वरदान हमारे कुछ काम न आ सकेंगे।
भस्मासुर कैसे भस्म हुआ?
एक लड़का था। उसने देखा कि शंकर भगवान की उपासना करते हुए लोगों ने बहुत लाभ और उन्नति कर ली। उसका मन आया कि मुझे भी तप करना चाहिए। वह शंकर जी का तप करने लगा, रुद्राष्टाध्यायी का पाठ करने लगा। महेन्द्र स्त्रोत पा पाठ, उपवास, पूजा और भजन करने लगा। नाम क्या था उस लड़के का? उसका नाम था भस्मासुर। उसके तप से प्रसन्न होकर भगवान प्रकट हुए। भस्मासुर ने प्रार्थना की भगवान हमको कोई वरदान दीजिए। शंकर जी ने कहा- हाँ, हम इसीलिये तो आये हैं। क्या वरदान माँगता है माँग? उसने एक वरदान माँगा कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूँ वो ही जल कर खाक हो जाए। शंकर जी ने वरदान दे दिया। मन का कच्चा, गंदा और दुष्ट भस्मासुर, पूजा- पाठ और जप- तप करता रहा। शंकर जी को नहलाता रहा, एक पाँव पर खड़ा रह कर भजन करता रहा, लेकिन अपनी मलीनताओं को दूर न कर सका। भस्मासुर वरदान लेकर के परीक्षा करने लगा कि देखूँ वरदान सही भी है कि नहीं। उसने चारों ओर निगाह फैला करके देखा, पार्वती जी दिखाई पड़ीं। उसने कहा ओ...हो! ये तो बहुत खूबसूरत हैं। ये तो हमारी घरवाली बननी चाहिए। ये तो खाना पकाएगी, तो अच्छा है। ये हमारे घर में रहेंगी तो अच्छा है।
बस, उसने सोचा पार्वती जी को प्राप्त करने के लिए पहले शंकर जी का सफाया करना चाहिए। भस्मासुर अपना हाथ लंबा करके शंकर जी के सिर पर हाथ रखने के लिए भागा और शंकर जी भागे, भस्मासुर भागा और शंकर जी भागे। भागते- भागते शंकर जी विष्णु भगवान के पास पहुँचे। उन्होंने कहा- महाराज जी यह तो बड़ी मुसीबत आ गई। क्या मुसीबत आ गई? भस्मासुर को वरदान दे दिया। विष्णु जी ने कहा- शंकर भगवान! आप तो बड़े भोले हो। आप को देखना चाहिए था कि यह आदमी देने लायक है भी या नहीं। यह इसका क्या इस्तेमाल करेगा और किसके लिए माँग रहा है। आपने परीक्षा नहीं ली और वैसे ही वरदान दे बैठे। शंकर जी ने कहा- महाराज जी! यह गलती तो जरूर हो गई। बिना जाने, बिना परखे, बिना देखे और इसके ईमान को जाने बिना मुझको वरदान नहीं देना चाहिए था, लेकिन गलती तो हो गई। अब गलती का उपाय क्या है? बस, भगवान विष्णु गये और उन्होंने पार्वती का रूप बनाया और उसको कहा कि नाच हमारे साथ में। भस्मासुर नाचने लगा। आप में से हरेक ने ये कथा सुनी होगी। भस्मासुर पार्वती को रिझाने के लिए अपने सिर पर हाथ रख कर नाचने लगा और जल करके खाक हो गया।
मतलब समझकर साधना हो
मित्रो! क्या पाया भस्मासुर ने? भस्मासुर ने अगर आपके मोम्बासा में आ करके एक केंटीन खोल ली होती और उसमें पचास पैसे का नारियल बेचने लगा होता तो मालदार हो जाता। यहाँ से शिलिंग कमा करके अपने घर हिन्दुस्तान में दो तिहाई शिलिंग भी भेजता, तो मजा आ जाता। क्या फायदा किया भस्मासुर ने? जल कर खाक हो गया। पूजा बेकार गई, भजन बेकार गया, जप बेकार गया, भूखा मरा और मुसीबत उठायी। क्या फायदा उठाया? कुछ फायदा नहीं उठाया। क्यों फायदा नहीं उठाया? इसलिए फायदा नहीं उठाया, क्योंकि उसने अपने को धोया नहीं। शंकर जी की भक्ति के पीछे जो कल्याण की भावना छिपी हुई है, उससे दूर रहा। उस कल्याण की भावना को शिव शब्द के अर्थ में बताया गया है। शिव माने- कल्याण। कल्याण की दृष्टि रख करके हमको कदम उठाने चाहिए और हर क्रिया- कलाप, सोचने के तरीके का निर्माण करना चाहिए। यह ‘शिव’ शब्द का अर्थ होता है। कल्याण हमारा कहाँ है? लाभ कहाँ है? कल्याण को देखने की दृष्टि अगर हमारी पैदा हो जाए, तो हम यह कह सकते हैं कि हमने शिव भगवान के नाम का अर्थ जान लिया। ‘‘नमः शिवाय’’ का जप तो किया, लेकिन शिव शब्द का मतलब नहीं समझा। मतलब क्यों नहीं समझा? मतलब समझना चाहिए था। मतलब समझने के बाद में जप करना चाहिए था। लेकिन हम मतलब छोड़कर बाह्य रूप को पकड़ते चले जा रहे हैं। इससे क्या काम बनने वाला है? भगवान शंकर का आपने मंदिर बनाया है। जिनकी आरती के लिए हर आस्तिक हिन्दू उपस्थित होता है। हम और आप अपना मस्तक उनके चरणों में झुकाते हैं। उनकी कलाकृति को समझने की कोशिश नहीं करेंगे, तो आपकी पूजा अधूरी मानी जायेगी। अधूरी पूजा से अधूरा लाभ मिलेगा, पूरी पूजा से पूरा लाभ। शंकर भगवान की जो तस्वीर बनाई गई है, उसके भीतर भी विविध शिक्षाएँ दी गई है।
शिवजी की तीसरी आँख
मित्रो! भगवान शंकर की तीन आँखें हैं। तीन आँख क्यों? दो आँखें तो सबके होती हैं। शंकर जी की एक और आँख है, जो विवेक की आँख कहलाती है। एक तीसरी आँख आपकी भी है और तीसरी आँख शंकर जी की भी थी। तीसरी आँख का भगवान ने इस्तेमाल किया। कब? जब कामदेव उनको हैरान करने के लिए, लुभाने के लिए और पाप में डुबोने के लिए चला आ रहा था, तब शंकर भगवान ने अपनी तीसरी आँख खोली तो कामदेव जल करके भस्म हो गया। क्या यह कथा रामायण में आपने पढ़ी नहीं है? हाँ, आप में से हर एक ने यह कथा पढ़ी होगी। आपने गौर क्यों नहीं किया कि यह तीसरी आँख क्या है? कामदेव को जलाने की बात क्या है? जिन लोगों ने थोड़ी साइंस पढ़ी है वे जानते हैं कि थ्री डायमेंशन क्या होता है। थ्री डायमेंशन का मतलब आप समझते हैं- फोटोग्राफ होता है। इसमें दो चीजें सामने आती हैं- ब्लैक एण्ड ह्वाइट अर्थात् काला और सफेद। इसमें लम्बाई और चौड़ाई दो चीजें हमारी निगाह में आती हैं, लेकिन जो फोटो हम खींचते हैं उस तस्वीर में जो बात सामने आती है वह यह है कि उसमें गहराई देखने में नहीं आती। यदि गहराई देखने में आ जाए, तो फोटो देखने में जरा मजा आ जाए और वह फोटो असली मालूम पड़े।
सामान्य दृष्टि से परे
थ्री डायमेंशन वाली हमारी तीसरी आँख है, जो हमको गहराई में घुसने की बात सिखाती है। गहराई में हम घुसते नहीं हैं। हम बाहर खड़े रहकर बाहर की चीजों को ही देखते रहते हैं। इसमें हमको दो चीजें दिखाई पड़ती है- सुविधा और असुविधा, सुख और दुख, लाभ और हानि। यह दो ही चीजें- इन दो आँखों से दिखा करती हैं। यह दुनियावी आँखें भगवान ने आपको और हमको दी हैं। हमको यह अच्छा मालूम पड़ता है कि खाने में क्या चीज जायकेदार होती है, क्या बिना जायकेदार। हमारी जीभ फौरन कहती है, इसको खायेंगे, इसको नहीं खायेंगे। क्या चीज फायदे की है और क्या नहीं? बढ़िया कपड़ा होता है तो हम कहते हैं, बढ़िया कपड़ा लेंगे, घटिया कपड़ा नहीं लेंगे। सिनेमा का जो अच्छा खेल आता है उसको हम देखने चले जाते हैं, घटिया खेल हम नहीं देखते। दुनिया की सुख- सुविधाएँ क्या हैं? दुनिया के लाभ क्या हैं? शरीर के लाभ क्या हैं? मन की खुशी क्या है? यह जो कुछ देखने का माद्दा हम लोगों को है कि शरीर क्या माँगता है। इन्द्रियाँ क्या माँगती हैं- हमको मीठा खाने को चाहिए, पकौड़ी खाने को चाहिए, आँखों को सिनेमा देखने के लिए चाहिए। हमारी ब्याह- शादी होनी चाहिए। हमको अच्छा आराम का रहने के लिए चाहिए। एक आँख हमारी बराबर देखती है और हम समझते हैं कि हम समझदार हैं। यह हमको खुशहाली की बात दिखाती है। हम अमीर हो जाते हैं और रुपये वाले हो जाते हैं, हमें अहंकार हो जाता है। हम बड़े आदमी हो जाते हैं। हमारी औलाद हो जाती है। हम दूसरों की आँखों में क्या से क्या हो जाते हैं। ये दिमागी खुशी और शरीर की खुशी इन दो को देखने का माद्दा हमारे अंदर है। यही दो आँखें है हमारी और आप सबकी।
दूरदृष्टि की आदत विकसित करें
लेकिन शंकर जी की एक और आँख है। शंकर जी के प्रत्येक भक्त को यह एक और आँख रखनी चाहिए, एक और आँख खोलनी चाहिए। वह क्या है? दूरदृष्टि, दूर की देखने की आदत। आज क्या फायदा है, इसको हमें कल के फायदे के ऊपर कुर्बान कर देना चाहिए। किसान ऐसा ही करता है, वह बीज लेकर के जाया- बेकार करता है। बीज को खेत में बोता है, उस बेचारे का बीज गल जाता है- सड़ जाता है। घर में से एक वस्तु का नुकसान हो जाता है। मेहनत करता है, पानी डालता है। कोई कह सकता है कि अरे वेबकूफ आदमी पानी क्यों बहाता है? ये बीज क्यों खराब करता है? क्या फायदा हुआ? यह हमारी बाहर की चमड़े की आँखें कहती हैं कि किसान गलती कर रहा है। लेकिन एक समझदार किसान ही जानता है कि छह महीने बाद इसका क्या परिणाम होने वाला है। उसका घर अनाज से- फसल से भर जाने वाला है। यह तीसरी आँख वाला किसान, जो आज के नुकसान के पीछे कल के फायदे को देखता रहता है।
दो आँखें बनाम तीन आँखें
विद्यार्थी स्कूल में जाता है और पढ़ता रहता है। रात में भी पढ़ता है और दिन में भी पढ़ता है। इम्तहान के दिन आते हैं दूसरा विद्यार्थी कहता है- दोस्त चलो सिनेमा देखेंगे, मजा करेंगे, समुद्र के आगे घूमेंगे। पढ़ने से क्या फायदा? जिसकी आँखें पास की हैं वह कहता है, हाँ- हाँ किताब देखना बेकार है, दिमाग खराब करती है। चलो आज तो तमाशा देख करके आयेंगे। लेकिन जो समझदार लड़का है। वह देखता है कि मुझे पढ़- लिखकर अपने पाँव पर खड़ा होना है और जिंदगी में कुछ बनना है। दो पैसे कमाने हैं, बूढ़े माँ- बाप की सेवा करनी है। बीबी आयेगी, उसके बाल- बच्चे पैदा होंगे, उनके लिए दो पैसे कमाने हैं। यही उम्र है जबकि मैं विद्या पढ़ करके किसी काबिल बन सकता हूँ। एक समझदार लड़का दूर की देखता है, दूर की सोचता है। नासमझ लड़का जिसके दो ही आँखें हैं, वह इस समय के फायदे को देखता है। कल के फायदे की नहीं सोचता। हम और आप सब उसी श्रेणी के लोगों में से हैं। जिनकी दो आँखें काम करती हैं। एक शरीर का क्या फायदा है? शरीर का सुख हमको मालूम है और उसके लिए हम जिंदगी के बेशकीमती दिन खराब करते रहते हैं। एक हमारी आँखें वे हैं जो दिमागी लाभ, जिनको सम्मान कह सकते हैं, अहंकार की पूर्ति कह सकते हैं, वैभव कह सकते हैं, धन- दौलत कह सकते हैं, इन सब चीजों को इकट्ठा करने में लगी रहती हैं।
शंकर जी के ठप्पे में ढलिए
मित्रो! शंकर जी का भक्त जब अपने भगवान के चरणों में जाता है, तो यह देखता है कि इस ठप्पे में मुझे भी अपने आपको ढालना चाहिए। शंकर भगवान क्या हैं? एक ठप्पा। ठप्पा किसे कहते हैं? ठप्पा कहते हैं साँचे को। जैसा ठप्पा होगा वैसी आकृति बनेगी। गीली मिट्टी को मोर के साँचे में लगा करके कुम्हार बनाता है। बहुत से मोर बनते चले जाते हैं। इस तरह गीली मिट्टी चिपका कर वह मोर बनाता चला जाता है। शंकर भगवान केवल पूजा करने के लिए और हमारे पानी के ही प्यासे नहीं हैं। उनकी आरती ही काफी नहीं है। उसके लिए यह भी आवश्यक है कि भगवान के भक्त भगवान के पास जायें। उपासना शब्द का मतलब होता है- पास बैठना। पास बैठने का मतलब है- उनसे कुछ सीखना। उनके साथ संबंधित होना। आग और लकड़ी जब तक समीप नहीं बैठेंगी, तब तक रोशनी अग्नि में नहीं आ सकती और लकड़ी अग्नि नहीं बन सकती। हमको शंकर भगवान के पास तक जाना पड़ेगा। दूर रहकर ही प्रणाम कर लेने से काम चलने वाला नहीं है। शंकर जी से चिपक जाना चाहिए और उस ठप्पे में अपने आपको बदल लेना चाहिए। अपना जीवन शंकर जी जैसा बनाना चाहिए। हमको अपनी तीसरी आँख खोलनी चाहिए। हमको दूर की बात देखनी और समझनी चाहिए। आज हमारा भले ही नुकसान हो, लेकिन कल जिसमें हमारा फायदा है, उस काम को करने के लिए हमको हिम्मत करनी चाहिए और विवेक की आँख खोलनी चाहिए।
दूर का लाभ ही मूल दृष्टि
मित्रो! रामायण अगर आपने पढ़ी हो और गौर किया हो, तो उसमें यही मालूम पड़ेगा कि सारी की सारी रामायण में एक ही शिक्षा भरी पड़ी है। हमको इस समय का फायदा छोड़ करके आगे वाला फायदा सोचना चाहिए। रामायण में और क्या है? रामायण को अगर आपने गौर से नहीं पढ़ा है और आपने रामायण का केवल पाठ करना सीखा है, तो काम चलने वाला नहीं है। भगवान राम का जीवन चरित्र देखिए न, कितना सुन्दर, कितनी शिक्षाओं से भरा हुआ जीवन है। उन्होंने तीसरी आँख खोली। भगवान राम ने कहा- मेरे हर भक्त को, शंकर जी के भक्त को शंकर जी की तरीके से तीसरी आँख खोलनी चाहिए। राम और भरत में राजगद्दी को लेकर लड़ाई होने लगी। रामचन्द्र जी कहते थे, भरत मेरा छोटा भाई है, उसे गद्दी पर बैठना ही चाहिए। भरत कहते थे नहीं- नहीं, मेरा मन जिस लोक और परलोक को समझता है, वह बड़ी बात है। पद और पैसा कोई बड़ी चीज नहीं है। इस गद्दी पर भइया राम को बैठना चाहिए। राम ने कहा मैं जंगल में वनवासी हो करके, संत बन करके दिखाऊँगा और पैसे का त्याग करके दिखाऊँगा। दोनों खिलाड़ी राजगद्दी रूपी गेंद खेल रहे थे। फुटबॉल बीच में पड़ी हुई थी। एक ठोकर राम ने मारी और गेंद भरत की तरफ दौड़ती हुई चली गयी। एक ठोकर भरत ने मारी तो राम की तरफ दौड़ती हुई चली गयी। गेंद के खेल में जीतता कौन है और हारता कौन है बताइये? हारता वह आदमी है जिसकी तरफ गेंद चली जाती है। जीतता कौन है? जीतता वह आदमी है जो ठोकर मार कर गेंद को भगा देता है।
हमारी संस्कृति की शान
मित्रो! जीता कौन, राम जीते या भरत, बताइये? दोनों जीत गये। राम ने कहा- मेरे पिता की आज्ञा और माता की सहमति और भाई की प्रसन्नता के लिए गद्दी मेरे छोटे भाई को ही मिलेगी, मुझे नहीं चाहिए। भरत जी कहने लगे नहीं- नहीं, मेरे बड़े भाई पिता के समान हैं। मैं पिता की गद्दी पर कैसे बैठ सकता हूँ? भरत राम के पाँव की खड़ाऊँ ले आये। खड़ाऊँ को गद्दी पर रख दिया। बस, चौदह वर्ष तक उसी तरीके से, उसी वेष में उन्होंने अपनी जिंदगी का रहन- सहन शुरू कर दिया, जैसे कि भगवान राम और लक्ष्मण रह रहे थे। यह उद्देश्य और यही सलाह बनी रही हमारी संस्कृति की सदा ही जिसने कि लाखों वर्षों तक हमको टिकाए रखा है और हम टिके रहेंगे। दूसरे लोग थे जो हिन्दुस्तान में बड़े उत्साह और उल्लास से आये, लेकिन वे खत्म होते चले गये। भाइयों ने भाइयों के सिर कटवा दिए। हिन्दुस्तान की तवारीख आपने पढ़ी है। कुछ लोगों की तवारीख में ये किस्से भी आते हैं कि एक भाई ने दूसरे भाई का सिर कटवा करके थाली में रख करके अपने सामने पेश करवाया था और फिर उसे ठोकर मारी थी। आप भूल गये, आपको हिन्दुस्तान का सवाल याद नहीं है। आपको तवारीख याद रखनी चाहिए। हमारे यहाँ ऐसे भी बादशाह हुए हैं जिन्होंने अपने बाप को जेलखाने में कैद किया। फिर उसके बेटे ने उसे कैद किया। फिर उसके बेटे ने भी अपने बाप को कैद किया। यह भी परंपराएँ रही हैं। उसका परिणाम क्या हुआ? उसकी नसीहत क्या मिली? उन लोगों का क्या हुआ? देख लीजिए हजार वर्ष भी नहीं होने पाये कि किस तरह से उनकी मिट्टी पलीद हो गयी।
जटायु ने खोली अपनी दृष्टि
मित्रो! हजारों, लाखों वर्ष हो गये, कितनी सभ्यताएँ आयीं? कितनी समुद्र की लहरें आयीं, कितने तूफान आये, कितनी आँधियाँ आयीं। हमारे देश और हमारी संस्कृति पर कितने हमले होते चले गये, लेकिन वह रामायण ही है, जो हमको शिक्षा देती रहती है। जब तक ये नसीहतें हमारे पास हैं, जब तक हमारे पूर्व पुरुषों की बड़ी मूल्यवान संपदा हमारे पास है, तब तक हमको कोई हिला नहीं सकता। रामायण में अनेकों प्रेरणाप्रद शिक्षायें हैं। भगवान राम वनवास के लिए चले जा रहे हैं और सीता जी को रावण चुरा ले गया। रावण सीता जी को अपने रथ में बिठालकर ले जा रहा था। एक पेड़ पर जटायु नाम का पक्षी- गिद्ध बैठा हुआ था। उसने अपनी तीसरी आँख खोली और कहा कि अपने बुढ़ापे को मैं व्यर्थ ही गँवाता रहूँगा क्या? अब मेरा शरीर क्या भगवान के काम में नहीं लगेगा? क्या मैं लोभ और मोह के बंधन में ही बँधा रहूँगा? जटायु ने कहा कि मैं कुछ भी नहीं कर सकता। जानता हूँ- रावण बड़ा बलवान है। मैं उसका मुकाबला नहीं कर सकता, लेकिन अपनी जान तो होम सकता हूँ। दूसरे लोगों पर मुसीबतें आयें, दूसरे लोगों के साथ बेइंसाफियाँ हों और हम आँख बंद करके अपने मकान में बैठे रहें और यह कहते रहें कि दूसरों पर बीतती है, वे जानें और भुगतते रहें। हमें इससे क्या लेना- देना।
सबसे बड़ा सौभाग्य
मित्रो! ऐसी स्थिति में शांति नहीं रह सकती और दुनिया में लोग घुल मिलकर नहीं रह सकते। आप पर मुसीबत आयेगी, मैं सहायता नहीं करूँगा और मुझ पर मुसीबत आये तो आप सहायता मत कीजिएगा। इस तरह सब तबाह होते चले जायेंगे, बर्बाद होते चले जायेंगे। इसलिए मिलजुलकर बुराई का मुकाबला करना- भले मनुष्यों का काम है। जटायु ने तीसरी आँख खोली। उसने कहा कि हमारे देखने की दृष्टि थोड़ी टेढ़ी है, लेकिन मनुष्य की बेटी मेरी बेटी है। मनुष्य की बीबी मेरी बच्ची है। किसी के साथ बेइंसाफी हो रही है, उसके साथ जुल्म किया जा रहा है, तो मैं उसका मुकाबला करूँगा। रोकने की भी हर चंद कोशिश करूँगा। यह कहानी है तीसरी आँख वाले जटायु की। भगवान राम जब वहाँ आये, तो उन्होंने घायल पक्षी को पड़ा हुआ देखा। उन्होंने उसे उठाकर सीने से लगा लिया। उसकी धूल साफ की। अपनी आँखों से आँसू बहाते हुए भगवान राम ने जटायु के घावों को धोया। इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? इससे बड़ा सौभाग्य किसी का नहीं हो सकता है।
कीमत तो चुकाइए
मित्रो! जटायु ने सौभाग्य पाया? हाँ पाया। भगवान की भक्ति पायी। भगवान का प्यार पाया, पर उसकी कीमत चुकाई। शंकर भगवान के रास्ते पर चलने के लिए आपने क्या कीमत चुकायी? आप तो माँगते फिरते हैं। भगवान ये दो, यह मनोकामना पूर्ण करो, वह मनोकामना पूर्ण करो। शिवरात्रि के दिन आप लोग बेल पत्र लेकर के मंदिर जाते हैं और कहते हैं कि महाराज जी! हम तो अच्छे- खासे हैं। सबेरे चाय पीते हैं, बिस्कुट खाते हैं और आप बेल के पत्ते खा लीजिए। अच्छा भाई! ला बेल के पत्ते ही दे। अपने यहाँ हिन्दुस्तान में भगवान शंकर को आक के फूल और धतूरे का फल चढ़ाया जाता है। आपके यहाँ क्या खिलाते हैं, मालूम नहीं। बेल के पत्ते और धतूरे का फल आपके यहाँ होता है कि नहीं? भगवान शंकर ने कहा कि अच्छा भाई! तू मेरा भक्त है, तो ला और उन्होंने धतूरे का फल खा लिया। उनको नशा हो गया और चेला उनकी झोली ले करके भाग गया। शंकर जी की नींद खुली, तो देखा कि जो भक्त रोज पानी चढ़ाने आता था, वह कहाँ गया? महाराज जी! वह तो आपकी झोली ले करके गायब हो गया। हम और आप उन्हीं में से हैं।
शबरी की सेवा
मित्रो! हम लोगों में अगर यह भाव रहा होता, तो हम अपने कर्तव्य और धर्म की शिक्षा प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर के समीप जाते और उनसे कुछ सीख करके आते। तब हमने भी रामायण के पात्रों की तरीके से अपनी भूमिका सम्पन्न की होती और जटायु की तरीके से भगवान की आँखों में से आँसू हमारे जिस्म पर टपक रहे होते। हमारे आँसू भगवान के ऊपर टपकने की कोई जरूरत नहीं थी। एक घटना रामायण में और आती है- तीसरी आँख खोलने वाले की ।। एक शबरी थी। शबरी मतंग ऋषि के आश्रम के समीप रहती थी। मतंग ऋषि के आश्रम के विद्यार्थी सबेरे उठा करते थे और नहाने- धोने के लिए तालाब पर जाया करते थे। रास्ता काँटों से भरा हुआ जंगली था। सबेरे- सबेरे बच्चे जाते तो पैरों में काँटे लग जाते। शबरी ने देखा, तो सोचा ये मेरे बच्चे नहीं हैं तो क्या, दूसरों के बच्चे हैं तो क्या? पढ़ने वाले बच्चे हैं। नहाने जाते हैं, इनके लिए मैं कुछ सेवा तो कर ही सकती हूँ। बिना पढ़ी गँवार हूँ तो क्या है? अछूत हूँ तो क्या है? क्या मैं सेवा नहीं कर सकती? बस, शबरी के मन में आया हाँ, मनुष्य की सेवा करना भगवान की सेवा करना है। वह सबेरे जल्दी उठती और झाड़ू लगाती। जो रास्ता मतंग ऋषि के आश्रम से तालाब तक जाता था, रोज झाड़ू लगाती। मतंग ऋषि ने मना किया कि शबरी तू अछूत है। यहाँ रही तो हमसे छू जायेगी, और हमारा काम हर्ज हो जायेगा। वह अलग रहने लगी, लेकिन झाड़ू तो रोज लगाती रही। विद्यार्थियों ने गुरुजी से पूछा- महाराज जी पहले हमारे पाँव में रोज काँटे लगा करते थे। अब हम रोज जाते हैं तो रास्ता हमको झड़ा हुआ- साफ किया हुआ मिलता है। अब तो किसी को भी काँटा लगने की शिकायत नहीं है। यह कौन आता है, कौन झाड़ू लगाता है?
अछूत गुरु भक्त
ऋषि ने कहा- जो मनुष्य की सेवा करना जानता है, उसका नाम देवता होना चाहिए। उसका नाम भगवान होना चाहिए। कोई भगवान आता होगा, कोई देवता आता होगा झाड़ू लगाने के लिए। मनुष्य क्यों लगायेगा। मनुष्य तो बड़ा चालाक, बड़ा बेईमान और बड़ा स्वार्थी है। जहाँ कहीं भी जाता है, हर जगह से अपना मतलब सिद्ध करने की कोशिश करता है। गणेश जी के पास जाएगा तो यह कोशिश करेगा कि उनका चूहा हाथ लग जाए और हाथी के दाँत मिल जायें। गणेश जी रात को सो जायें, तो दोनों दाँत उखाड़ लूँ और बाजार में बेच दूँ। सौ- दो सौ रुपया जेब में रखूँ। आदमी बड़ा चालाक है, लेकिन शबरी चालाक नहीं थी। भक्त को जैसा होना चाहिए, उस तरह की थी। मतंग ऋषि ने जवाब दिया, विद्यार्थियों को कि बच्चो! कोई भगवान भी हो सकता है, जिसके मन में दया है और करुणा है। उसके मन में सेवा की वृत्ति है वह सिवाय भगवान के और कौन हो सकता है? विद्यार्थियों ने कहा- तो गुरुजी! हमको आप भगवान का दर्शन करा देंगे क्या? देवता का दर्शन करा देंगे क्या? ऋषि ने कहा- बच्चो! कहीं छिप करके बैठ जाओ, शायद तुम्हें कोई मिल जाये। शबरी रात को झाड़ू लगा रही थी। विद्यार्थी छिपकर बैठे हुए थे, उन्होंने उसे पकड़ लिया और कहा- तुम तो देवता हो, तुम तो भगवान हो। उसने कहा, नहीं- नहीं, मैं तो शबरी हूँ और बिना पढ़ी हूँ, मुझे छूना मत, मैं तो अछूत हूँ।
देवी जिसके घर राम आए
विद्यार्थियों ने कहा, नहीं- नहीं, तुम अछूत नहीं हो सकतीं। जिसके मन में दूसरों की सेवा करने की भावनाएँ हैं, करुणा की- परोपकार की भावनायें हिलोरें लेती हैं, वह मनुष्य कैसे अछूत हो सकता है। उसे देवता होना चाहिए। मतंग ऋषि के आश्रम में शबरी पेश की गई। ऋषि ने कहा- शबरी तू झाड़ू लगाती है, हमारे यहाँ भोजन कर लिया कर। शबरी ने कहा- महाराज जी! सेवा का बदला सेवा नहीं होती। सेवा की कीमत नहीं चुकानी चाहिए। मैं अपने हाथ- पाँव से कुछ करने लायक हूँ। मैं क्यों अपनी सेवा का मूल्य लूँ? मैं जंगल में से कंद, मूल, फल बीन सकती हूँ और अपना पेट भर सकती हूँ, फिर आपके सामने क्यों हाथ पसारूँ और क्यों सेवा की कीमत माँगूँ? बस वह अपनी कुटिया में चली गयी और रोज झाड़ू लगाती रही। भगवान राम वनवास में सीता जी को तलाश करते हुए जब आये और ऋषियों के आश्रम में पहुँचे। तो उन्होंने पूछा- शबरी कहाँ रहती है? ऋषियों ने कहा- वहाँ रहती है। कहाँ रहती है? वहाँ रहती है। ठोकर खाते- खाते रामचंद्र जी के पाँव में छाले पड़ गये। उन्होंने कुटिया का दरवाजा खटखटाया- शबरी! दरवाजा खोल। शबरी ने कहा- आप कौन है? उन्होंने कहा, मैं तो राम हूँ। राम हैं, तो क्या वे राम जिनका मैं भजन करती हूँ? उत्तर मिला हाँ, हम वही राम हैं जिनका आप भजन करती हैं।
तो आज आप यहाँ मेरे दरवाजे पर कैसे आ गये? राम ने कहा- भक्त भगवान के दरवाजे पर नहीं गया है। भगवान को ही भक्त के दरवाजे पर जाना पड़ा है। शबरी परम्परा यही रही है और यही रहेगी और रहनी भी चाहिए। मित्रो! भगवान के दरवाजे पर भक्त नहीं जाता, भक्त के दरवाजे पर भगवान को ही आना पड़ा है और आना चाहिए। राम ने कहा- शबरी मैं तेरे दरवाजे पर आया हूँ क्योंकि तेरी भक्ति कसौटी पर कसी हुई खरे सोने की तरह है। दूसरों की भक्ति मुलम्मे की तरीके से है। संस्कृत नहीं आती तो क्या, श्लोक पढ़ना नहीं आता, तो क्या? मंत्र जपना और कर्मकाण्ड नहीं आता तो क्या? अनुष्ठान करना नहीं आता तो क्या? शबरी तेरी भक्ति, तेरे सिद्धांत और तेरे उद्देश्य ऐसे हैं जो कि एक भक्त के मन में होने चाहिए। इसीलिए मैं आया हूँ। तू मुझे प्रसाद नहीं खिलाएगी क्या? शबरी ने कहा भगवान का प्रसाद भक्त खाया करते हैं। राम ने कहा- नहीं शबरी केवल भगवान का प्रसाद भक्त ही नहीं खाया करते, बल्कि भक्त का प्रसाद भगवान भी खाया करते हैं।
साग विदुर घर खाए
मित्रो! विदुर के यहाँ भी यही हुआ। विदुर की पत्नी केले छील- छीलकर गूदा जमीन पर डाल रही थी और केले के छिलके भगवान के हाथ में रखती जा रही थी और वे छिलकों को खाते जा रहे थे। विदुर आये, उन्होंने देखा तो धमकाया अरी मूरख! यह क्या कर रही है? भगवान को फल खिलाती है या छिलके खिलाती है? भगवान ने कहा- विदुर जी! आप हमारे और अपनी धर्मपत्नी के बीच में न बोलें। यहाँ मोहब्बत खायी जा रही है और मोहब्बत खिलायी जा रही है। भगवान प्यार खाता है, चीजें भगवान को नहीं खिलायी जाती हैं। चीजों का प्रसाद लगाया जाता है, पूजा करके हम और आप खा जाते हैं। प्रसाद बाँट देते हैं। आपकी खाने की चीजों से भगवान का क्या लेना- देना। भगवान तो प्यार खाता रहता है। उन्हें प्यार ही खिलाया जा सकता है। यह शंकर भगवान की विवेक की आँख है। इसमें यह देखा जाता है कि अगला कल्याण किसमें है। आज की हमारी हानि है कि नहीं? शबरी ने आज का फायदा देखा होता तो मतंग ऋषि से कहा होता- महाराज जी! आप मेरे खाने की बात कर रहे हैं, तो कपड़े का भी इंतजाम कीजिए। बुढ़ापे के लिए पेंशन का भी इंतजाम कर दीजिए। रहने के लिए नये क्वार्टर बनवाइए और हमारे क्वार्टर में बिजली की बत्ती भी लगवा दीजिए। शबरी ने यह सब डिमांड पेश की होती तो फिर शबरी का प्रसंग मिट्टी का हो जाता। फिर दरवाजा खटखटाने के लिए राम वहाँ क्यों जाते? उसने जिस तीसरी आँख को खोला, वह शंकर जी की तीसरी आँख है। जिसका व्याख्यान रामायण के पन्ने- पन्ने में किया गया है।
हनुमान का रूपान्तरण
जब रामचंद्र जी ऋष्यमूक पर्वत पर गये। तब हनुमान जी एक ब्राह्मण का रूप बना करके आये। उन्होंने प्रणाम किया और कहा- महाराज जी! हम तो ब्राह्मण हैं। हमको मत मार डालना, तुम्हारे हाथ में तीर- कमान है। हमारा सुग्रीव तो छिपा बैठा है उन्हें बालि मार डालेगा। आप दोनों हथियार लेकर आ रहे हैं, कहीं बालि के भेजे हुए तो नहीं हैं? हम तो ब्राह्मण- पंडित हैं। हमको मत मारना, और किसी को मारें। हम तो बहुत गरीब आदमी हैं। यह हनुमान जी ने कब कहा? जब वे सुग्रीव के नौकर थे तब। लेकिन जब हनुमान जी सुग्रीव के नौकर नहीं रहे, भगवान के नौकर हो गये तब? समुद्र छलांगने के लिए सभी बैठे थे। जामवंत ने हनुमान से कहा- समुद्र की छलांग लगाओ। उन्होंने कहा मैं तो बंदर हूँ। पानी में डूब गया तो? मेरी टाँग टूट गई तो? जामवंत ने कहा- तुम्हारी टाँग नहीं टूट सकती, क्योंकि अपने लिए नहीं, भगवान के काम के लिए छलाँग लगाने के लिए जा रहे हो। तीसरी आँख का मतलब है कि हम भगवान के लिए जियें, भगवान के लिए काम करें, भगवान के इशारों को समझें।
ईमान, आदत, सिद्धान्त, चरित्र
मित्रो! भगवान के इशारों को समझने का मतलब है ‘‘सादा जीवन- उच्च विचार’’। हमारे ऊँचे ख्यालात और श्रेष्ठ काम, यही है भगवान का आदेश और यही है संदेश। हनुमान जिस दिन उस रास्ते पर आ गये, छलाँग लगायी और समुद्र पार हो गये। नल और नील उस समुद्र का पुल बनाने लगे, तब पुल पर पत्थरों ने कहा- हम भी कुछ मदद करेंगे और पानी पर तैरना शुरू करेंगे। आपको खम्भे भी नहीं बनाने पड़ेंगे। नल नील की पत्थरों ने क्यों मदद की? क्योंकि नल- नील का ईमान और उनकी भावनायें उच्च कोटि की थीं। वे लोकमंगल की भावना से पुल बना रहे थे। अगर नल और नील ने भगवान रामचंद्र से ठेका लिया होता और उसमें से आधा सीमेंट और आधी मिट्टी मिला करके खम्भे खड़े किये होते तब? तब नल- नील का दिवाला निकल जाता, फिर वह पुल नहीं बन सकता था। टूट- फूटकर भरभराकर गिर जाता। फिर इस पुल पर से कोई उस पार नहीं होता। मनुष्य के ईमान और मनुष्य की भावनायें, मनुष्य की आदत और मनुष्य के सिद्धांत, मनुष्य के कर्म और मनुष्य के चरित्र, यही हैं जो हमारी तीसरी आँख खोलने के लिए पर्याप्त हैं। बाहर की दो आँखें हमको यह बताती हैं कि बढ़िया खाना चाहिए, बढ़िया पहनना चाहिए। हमारी बाहर की आँख यह दिखाती है कि दूसरे लोगों की आँखों में हमें बड़ा आदमी और मालदार आदमी बनना चाहिए। लेकिन शंकर भगवान की एक तीसरी आँख है। हम और आप भी अपनी तीसरी आँख खोल डालें तो मजा आ जाए।
गिलहरी की भूमिका
एक गिलहरी थी, वह अपने बालों में मिट्टी भरकर ले आती और समुद्र में छिड़कती। बन्दरों ने कहा- अरे गिलहरी! क्या करती है? उसने कहा, तुम इतने बड़े हो, कुछ काम कर सकते हो। मैं तो गरीब हूँ, छोटी सी हूँ। मैं तो बिना पढ़ी हूँ, कमजोर हूँ, लेकिन ऊँचे सिद्धान्तों के लिए तो मैं भी काम कर सकती हूँ। वह बालों में मिट्टी भर कर ले जाती और समुद्र में फेंकती। वह बोली- अगर समुद्र ऊँचा हो जाएगा, तो आप रीछ- वानरों को निकलना सुगम हो जाएगा। गिलहरी को बन्दर पकड़ कर ले गये और भगवान राम के सामने रखा कि यह गिलहरी है। यह क्या करती है? समुद्र में बालू- मिट्टी डालती है। भगवान ने पूछा- अरी गिलहरी तू तो बहुत कमजोर है। तेरी हैसियत क्या है, तेरी औकात क्या है? तू तो बिल्कुल नाचीज है। फिर यह क्या करती है? उसने कहा- नाचीज मेरा शरीर है। नाचीज मैं पैसे के हिसाब से हूँ। नाचीज मेरा मन नहीं। मेरा मन उतना बड़ा नहीं है जितना कि बड़ा हनुमान जी का। इसलिए मैं पत्थर- पहाड़ तो नहीं उठा सकती, लेकिन मिट्टी ले जा सकती हूँ और फेंक सकती हूँ। भगवान राम ने उसको प्यार किया, छाती से लगाया, पुचकारा और उसकी पीठ पर हाथ फिराए, सुना है कि भगवान साँवले रंग के थे। इसलिए गिलहरी की पीठ पर जब प्यार से भगवान राम ने अँगुलियाँ फिराई, तो उसकी पीठ पर लगी और काले निशान बन गये। कहा जाता है कि इन गिलहरियों की जो औलादें हैं, उनकी पीठ पर वही काले रंग के निशान पाये जाते हैं। गिलहरी, जिसे आप स्क्वेरल कहते हैं, इनकी पीठ पर जो निशान होते हैं, उसे आप भगवान का प्यार कह सकते हैं।
पूजा के साथ होती है सेवा
मित्रो! भक्त केवल भगवान की पूजा तक ही सीमित नहीं हो जाते। पूजा के साथ सेवा शब्द और जुड़ा हुआ है। आप पूजा के साथ कुछ सेवा भी करते हैं या नहीं करते? या यों ही फालतू बैठे रहते हैं? नहीं साहब! हम पूजा और सेवा दोनों करते हैं। हाँ भाई साहब! सेवा और पूजा का जोड़ा है। एक से ही गाड़ी नहीं चलेगी। एक से ही काम नहीं बनेगा। अगर आप केवल पूजन करते रहेंगे और सेवा से नाता तोड़ लेंगे, सेवा से मन मोड़ लेंगे, तो बात बनने वाली नहीं है। हमें सेवा को भी जीवन में रखना पड़ेगा। हमको अपने बच्चों की सेवा करना चाहिए। उनको सुसंस्कृत बनाना चाहिए। हमको अपनी बीबी की सेवा करनी चाहिए, उसको सुयोग्य बनाना चाहिए। हमको अपने शरीर की सेवा करनी चाहिए, ताकि इसको परलोक में जाकर के नरक में नहीं पड़ना पड़े और हमको बीमार नहीं पड़ना पड़े। हम तो सबकी सेवा कर सकते हैं। आप भी अपनी सेवा करें, अपने बच्चों की सेवा करें, अपने माँ- बाप की सेवा करें। अपने पड़ोसियों की सेवा करें, अपने देश की सेवा करें। समाज की सेवा करें, संस्कृति की सेवा करें। ये सारी बातें भी हमारी पूजा में शामिल होनी चाहिए।
सीखें शंकर जी से
साथियो! अगर हमारी भी तीसरी आँख भगवान शंकर की तरीके से खुली हुई हो, तब भगवान शंकर जाने क्या से क्या सिखाते हैं? भगवान शंकर के शरीर को जब हम देखते हैं, तो मालूम पड़ता है कि वे भस्म लगाये हुए हैं। वे मरघट में निवास करते हैं और गले में मुण्डों की माला पहने हुए हैं। इसका क्या मतलब है? वे मरघट में क्यों रहते हैं? इसका मतलब है कि हमको जिन्दगी और मौत- दोनों को जोड़कर रखना पड़ेगा। जिन्दगी के साथ में मौत को भी याद रखना पड़ेगा। हमें सब चीजें याद हैं, लेकिन हम मौत को भूल गये। हमको अपना कायदा याद है, हमको नुकसान याद है। हमको जवानी याद है, खाना- पीना याद है, पर मौत को हम बिलकुल भूल गये। मौत जरा भी याद नहीं रही। हमें अपनी मौत याद है और अगर आपको भी याद रही होती, तो हमारे काम करने के तरीके और सोचने के तरीके अलग तरह के रहे होते। वैसे न होते जैसे आज हैं।
कुछ नहीं ले जा पाएँगे
शंकर भगवान हमें यही सिखाते हैं, जिसे दूसरों ने भी सीखा। कहते हैं कि बादशाह सिकन्दर ने बहुत सारी दौलत इकट्ठी कर ली। उसने अनीति और अन्याय से बहुत पैसा कमाया। उसके पास बहुत सारा धन इकट्ठा हो गया। जब मरने का समय आया, तो उसने अपने साथियों, मंत्रियों को बुलाया। उसने कहा कि हमने अपनी बेशकीमती जिन्दगी न्यौछावर करके उसकी कीमत पर जो धन- दौलत कमाया था, वह कहाँ है? लाओ, अब हम मरने को हैं, उसे अपने साथ ले जायेंगे। मंत्रियों ने कहा कि आप भी क्या गजब की बात करते हैं। क्यों भाई! इसमें गजब की क्या बात है? हमने कमाया है तो क्या हमको नहीं मिलेगा? हम फायदा नहीं उठायेंगे? उन्होंने कहा नहीं, कोई आदमी फायदा नहीं उठा सकता। यही दुनिया का कायदा है। भगवान ने हर आदमी के लिए एक कोटा मुकर्रर कर दिया है। उससे आगे कोई नहीं इस्तेमाल कर सकता। आप इकट्ठा कर सकते हैं, पर इस्तेमाल नहीं कर सकते। आप पाँच रोटी खाते हैं, पर पच्चीस रोटी नहीं खा सकते। खा सकते हों तो खाकर दिखाइये। आप छः हजार रुपये महीने कमाते हैं, तो आप पच्चीस रोटी रोज खाया कीजिए। नहीं साहब! पच्चीस रोटी हम कैसे खा सकते हैं? हम तो चार रोटी ही खायेंगे। इस तरह आपका कोटा मुकर्रर है। आपने पाँचवी रोटी खाई और पेट में दर्द शुरू हुआ और उल्टी होने लगी। पाँचवीं रोटी आप कैसे खा सकते हैं? कुदरत आपको एक सीमा तक ही खाने देगी। ज्यादा चीजें आपके पास हैं, तो चाहे वह आपको बेटा हो, चाहे आपका साली हो, चाहे आपका भतीजा हो, सब छीन ले जायेगा। आप इस्तेमाल नहीं कर सकते।
अपरिग्रह का सिद्धान्त जीवन में उतरे
मित्रो! आपका कुर्ता साढ़े तीन गज या तीन मीटर का बना हुआ है। आप में से ऐसा कोई है जो सौ मीटर का कुर्ता पहनता हो और सौ मीटर की कमीज पहनकर दिखाये। सब धूल- मिट्टी में लोटती फि रेगी और गंदी हो जायेगी। फिर उसे धोना मुश्किल पड़ जायेगा। उसे टाँगना और पहनना तो मुश्किल पड़ेगा ही। उसे पहन कर साइकिल चलाना मुश्किल पड़ जायेगा और सब धूल- मिट्टी में सन जायेगी। सौ गज की कमीज पहनना नामुमकिन है, आप नहीं पहन सकते। आपको तीन गज की ही पहननी पड़ेगी। छः हाथ की चारपाई पर आप सोते हैं। आप सौ हाथ की चारपाई पर सोइये? सौ हाथ की चारपाई पर सोयेंगे, तो फिर घर में न उठने की जगह, न फैलने की जगह और न कहीं ठहरने की जगह मिलेगी। सारे मकान में चारपाई ही चारपाई नजर आयेगी। फिर उसे कहाँ उठाये, कहाँ रखें? मुसीबत आ जायेगी आप इतनी बड़ी चारपाई को इस्तेमाल कर सकते हैं? नहीं कर सकते। हर चीज के इस्तेमाल की एक सीमा मुकर्रर है। मित्रो! सिकन्दर यही भूल गया। उसने कहा कि हम अपना पैसा साथ ले जायेंगे। मंत्रियों ने कहा कि आप नहीं ले जा सकते। जितना आपने खा लिया, उतना ही काफी है। जितना आपने पहन लिया, बस काफी है या आपने किसी अच्छे काम में लगा दिया, वह काफी है। बाकी सारी दौलत इस दुनिया की थी, है और रहेगी। इस दुनिया में यह बात अनादि काल से चली आ रही है और चलती रहेगी।
हर दिन का बेहतर उपयोग करें
आपने इसका भला- बुरा इस्तेमाल कर लिया, आपके लिये यही पर्याप्त था। यह बात सिकन्दर की समझ में आ गयी और जब वह मरने को हुआ, तो उसने बहुत अफसोस किया। उसने अपने मंत्रियों को बुलाकर कहा कि लोगों से कहना कि सिकन्दर बहुत बेवकूफ था। उसने कहा कि आप ऐसा करना कि मेरे दोनों हाथ ताबूत से बाहर निकाल देना, ताकि जब सड़कों पर मेरा जनाजा निकले, तो लोगों को यह मालूम पड़े कि सिकन्दर खाली हाथ आया था और खाली हाथ चला गया। मित्रो! हम खाली हाथ आये हैं और खाली हाथ ही हमें चले जाना है। केवल बुराई और भलाई का गट्ठर अपने सिर पर लादकर हम ले जा सकते हैं। अपने मुँह को सफेद और काला बनाकर ले जा सकते हैं। हम और कुछ नहीं कर सकते हैं। मजबूर हैं। अगर मौत याद है तो हमको यह ख्याल बना रहेगा कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। मौत को हम भूल जाते हैं। राजा परीक्षित का ऐसा ही किस्सा है। परीक्षित को साँप के काटने का शाप मिला था कि उन्हें सातवें दिन तक्षक नाग काट खायेगा। सात दिन बाद मौत की बात जब राजा परीक्षित ने सुनी तो न वह रोया, न चिल्लाया और न कुछ काम किया। बस उसने एक ही काम किया कि जीवन के शेष बचे सात दिनों का बेहतरीन इस्तेमाल क्या हो सकता है और इसका अच्छे से अच्छा उपयोग मैं
क्या कर सकता हूँ? यही सोचता रहा।
राजा परीक्षित ने भागवत् की कथा सुनना शुरू कर दिया। राम का नाम लेना शुरू कर दिया। पुण्य- परमार्थ करना शुरू कर दिया। अच्छे काम करना शुरू कर दिया। सात दिन उसने ऐसे ही कार्यों में व्यतीत कर दिये। सातवें दिन साँप ने राजा परीक्षित को काट खाया। मित्रो! राजा परीक्षित की भाँति आपको भी सात दिन के भीतर ही साँप काटेगा। सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पति, शुक्रवार, शनिवार और रविवार- इससे आगे और कोई दिन नहीं हैं। सात दिन के भीतर ही परीक्षित को शाप लगा हुआ था और सात दिन के भीतर ही हमको और आपको शाप लगा हुआ है। हम सबको सात दिन के भीतर ही साँप काटने वाला है, अगर यह ख्याल बना रहे, तो हम अच्छे आदमी की जिंदगी जी सकते हैं। शरीफ की और नेक आदमी की जिंदगी जी सकते हैं। परोपकारी की जिंदगी जी सकते हैं।
भस्म धारण का सिद्धान्त
मित्रो! अच्छे इंसान की जिंदगी जीना हमको कहाँ आता है? अगर हमको यह आता होता तो शंकर जी के भस्म धारण करने वाली बात हमारी समझ में आ गयी होती। हमारा यह दिमाग कैसा गंदा और फूहड़ है जो अपनी मौत को रोज भूलता चला जाता है। शंकर भगवान की पूजा करने के बाद हम हवन करते हैं और उसकी भस्म मस्तक पर धारण करते हैं। ‘भस्म धारणम्’ में यह भावना समाहित है कि यह शरीर खाक होने वाला है। मिट्टी और धूल में मिलकर हवा में उड़ने वाला है। जिस शरीर पर आज हमको अहंकार है, कल वही शरीर लोगों के पैरों तले कुचला जाने वाला है और हवा के झोंकों के साथ आसमान पर उड़ने वाला है- हमें यह ख्याल नहीं आता। हम यही सोचते रहते हैं कि हमको तो लाखों- करोड़ों वर्ष जीना है। सारी दौलत हमारी होने वाली है और सात पीढ़ियों तक रहनेवाली है। हम यही सोचते रहते हैं कि हम जो खा लेंगे, पहन लेंगे, बस वही हमारा है। हमें परलोक से क्या मतलब है? अच्छे काम से क्या मतलब है? जीवन उद्देश्य क्या होता है? भगवान के इशारे क्या होते हैं? हमें पता नहीं, हम तो भगवान को अपने इशारे पर चलाना चाहते हैं।
क्या भगवान हमारा नौकर है?
साथियो! भगवान के इशारे पर हम चलने के लिए तैयार नहीं हैं। हम तो ‘बॉस’ हैं और भगवान हमारा नौकर है। हम कहते हैं- ऐ भगवान। जल्दी आ जा। हमारे बाल- बच्चा नहीं होता, जल्दी पैदा करो। हाँ महाराज जी! अभी पैदा करता हूँ। हमने कहा कि तुम्हारी पूजा की, प्रसाद चढ़ाया। अहा! तो हमारा काम करोगे? हाँ हुजूर, बताइये, क्या काम करूँ? हमारा मुकदमा चल रहा है, हमको जितवा दो। अच्छा हुजूर, अभी आपका मुकदमा जितवाता हूँ। भगवान मालिक है या आप मालिक हैं? नहीं, आप मालिक हैं और भगवान नौकर है, क्योंकि आपने उसको मिठाई खिला दी है। अतः आपको उसकी कीमत भगवान से वसूल करनी चाहिए। भगवान से कहना कि यह फोकट की ऐसी मिठाई नहीं है। गला फाड़कर सब वसूल कर लिया जायेगा। भगवान कहता है कि अच्छी मिठाई खाई। बाबा! इससे तो अच्छा था कि प्रसाद नहीं खाता। आज हमारी यही परिस्थितियाँ हैं।
याद करें अपने शिक्षण को
हम इस बात को भूलते चले जाते हैं कि हमारे अध्यात्म का शिक्षण क्या था, जिसकी वजह से हम दुनिया में जगद्गुरु कहलाते थे, चक्रवर्ती शासक कहलाते थे। दैवी सम्पदाओं के स्वामी कहलाते थे। किसी जमाने में सातों द्वीपों पर सात ऋषियों का शासन था। क्यों? क्योंकि हमारे सोचने के तरीके ऊँचे थे। हमारे काम करने के ढंग ऊँचे थे। हमारी सलाह ऊँची थी। हमारे जीवन उच्चकोटि के थे। लेकिन अब हम अपने जीवन को गंदा और जलील बनाते चले जा रहे हैं और यह ख्याल करते रहते हैं कि पूजा- पाठ से हमारे जीवन के सारे उद्देश्य पूरे हो जायेंगे। यह हमारी भूल है।
मरघट मुण्डों की माला
शंकर भगवान अपना निवास मरघट में रखते थे। वे कहते थे कि जिंदगी और मौत मिली हुई है। आज हम जिन्दा हैं, तो कल हमको करना ही पड़ेगा। आज हम मरे हैं, तो कल जिंदा रहना ही पड़ेगा। मरघट और घर दोनों एक ही होने चाहिए। दोनों को एक ही समझना चाहिए। आज का घर कल मरघट होने वाला है। हमारी आज की जिंदगी कल मौत में बदलने वाली है। कल की हमारी मौत नयी जिंदगी में बदलने वाली है। मौत और जिंदगी दिन और रात की तरीके से एक खेल है। मौत से डरने से क्या फायदा? हमें मौत की तैयारी क्यों नहीं करनी चाहिए? शंकर भगवान के मरघट में रहने और अपने शरीर पर भस्म लगाने की नसीहतें हमको यही सिखाती हैं।
शंकर भगवान के गले पर मुण्डों की माला क्या सिखाती है? अभी हम जिस चेहरे को शीशे में बीस बार देखते हैं। इधर से निकलते हैं तब शीशा, उधर से निकलते हैं तब शीशा। इधर कंघी, उधर कंघी- हेयर शैम्पू, क्रीम, पाउडर, इधर लाल रंग, उधर पीला रंग, ओठों पर लाल रंग, चेहरे पर काला रंग, आँखों पर नीला रंग- यह सब पैसे ही बनाते हैं, माना रंग- बिरंगी तस्वीर बनने के लिए जा रही है। यह ख्याल नहीं है कि यह काया मुण्डों की हड्डियों का टुकड़ा है। इसके बाहर के चेहरे को खोल करके देखें। हमारी आँखें खराब होती रहती हैं। लड़कियों की आँखें लड़कों की तरफ और लड़कों की आँखें लड़कियों की तरफ देखकर खराब होती रहती हैं और हम उस बात को भूलते चले जा रहे हैं, जो भारतीय संस्कृति का मूल है। जब शिवाजी के सामने एक नौजवान महिला को सामने लाया गया, तो उन्होंने कहा कि अगर ऐसी खूबसूरत मेरी माँ होती, तो मैं भी ऐसा ही सुन्दर बालक पैदा होता। यह मेरे माँ के बराबर है। इसे सम्मान वहीं पहुँचा दिया जाय, जहाँ से इसे लाया गया है।
अर्जुन जैसा जीवन हो
कहा जाता है कि अर्जुन जब स्वर्गलोक में गये थे, तो स्वर्ग की अप्सराएँ उनके सामने आयीं। उन्होंने कहा कि हम तुम्हारे जैसा एक बेटा पैदा करना चाहते हैं। उनका मतलब अर्जुन के साथ में संपर्क बनाने का था। अर्जुन ने कहा कि माँ! मुझसे जो लड़का या लड़की पैदा हुई और वह मेरे जैसी न हुई या फूहड़ पैदा हुई तब? और फिर वह कितने साल का हो जायेगा, तब मेरे बराबर होगा? मैं तो बत्तीस साल का हूँ। आपको बत्तीस साल तक इंतजार करना पड़ेगा, तब मेरे बराबर बेटा होगा। मैं तो आज से ही तुम्हारा बेटा हो जाता हूँ। तुम मेरी माँ और मैं तुम्हारा बेटा। बेटा चाहती हो न? बस मैं तो बना- बनाया बेटा तैयार हूँ, जिसने तुम्हारे पेट में भी तकलीफ नहीं दी। तुम्हारा दूध भी नहीं पिया, तुम्हारी जवानी भी खराब नहीं की। लो मैं तुरंत ही तुम्हारा बेटा बन जाता हूँ। उच्चकोटि के यह सिद्धान्त, उच्चकोटि के यह दृष्टिकोण जब हमारे थे, तब हम चेहरों को हड्डियों का टुकड़ा मानते थे। तब हम ब्रह्मचारी थे, तब हम सदाचारी थे। तब आपकी बेटी हमारी बेटी थी। तब आपकी बहन हमारी बहन थी और आपकी माँ हमारी माँ थी।
देह का आकर्षण
लेकिन मित्रो! आज हमारी आँखों में कैसा रंग सवार हो रहा है। हड्डी के टुकड़े के ऊपर चढ़े हुए चमड़े के ऊपर जो सुनहरा रंग दिया गया है, उस बाहर वाले टुकड़े को तो हम देखते हैं, लेकिन भीतर वाले को नहीं देखते। अभी हड्डियों के टुकड़े वाले जिस खूबसूरत शरीर को, शक्ल को हम बार- बार शीशे में देखने है और जिनके फोटो लिए हम इधर- उधर फिरते हैं और जिनकी फोटो हमने बाजार में से खरीदकर अपने कमरों में सजा रखी हैं। यह किसका फोटो है? यह अमुक सिने कलाकार का फोटो है। यह आपकी कौन लगती है? बुआ, चाची, मौसी? कौन है ये? नहीं साहब! यह सिनेमा की एक्टर है। तो आपने इसे किसके लिए लगा रखा है? इससे आपका क्या ताल्लुक है? अजी साहब! यह बहुत खूबसूरत है और देखने में हमें बहुत अच्छा लगता है। अच्छा, तो इसका यह हड्डी का चेहरा क्यों नहीं देखता। इसकी चमड़ी को उखाड़ करके देख, इसके नीचे सिर्फ हड्डी का टुकड़ा जमा पड़ा है। शंकर भगवान के गले में पड़ी हुई हड्डियों के मुण्डों की माला हमें यही नसीहत देती है, यही शिक्षण देती है।
शिक्षण प्रमुख है, उसे याद रखें
मित्रो! न केवल शंकर भगवान के चरणों में बैठकर, वरन् हर देवी देवता तथा भगवान के जितने भी रूप बनाये हुए हैं, सब में उसी तरह की शिक्षायें भरी पड़ी हैं। प्राचीनकाल में हम भगवान के चरणों में जाते थे। देवताओं का पूजन करते थे। देवताओं को नमस्कार करते थे। देवताओं की आरती उतारते थे, परिक्रमा करते थे। लेकिन देवताओं के साथ- साथ मनुष्य को देवता बनाने वाली जो शिक्षाएँ उनमें भरी पड़ी हैं, उनको भी हम सीखते थे। उसकी फिलॉसफी को भी हम समझते थे। कथाओं में यही उपदेश था। कीर्तनों का यही उद्देश्य था और प्रवचनों में यही बात सिखाई जाती थी। लेकिन हाय रे! हमारा अज्ञान और हाय रे! हम, केवल प्रतीक हमारे हाथ में रह गया और उसके भीतर के कलेवर को हम भूल गये। केवल कपड़ा हाथ में रह गया। जो कपड़ा पहनता था, उस कपड़ा पहनने वाले की बात को हम भूल गये। हमको केवल प्रतीक पूजा याद है और उनकी शिक्षाओं को हम भूल गये। हमें प्रतीकों की, विग्रहों की शिक्षाओं को फिर से याद करना पड़ेगा, फिर से समझना पड़ेगा, जैसे कि मैंने शंकर भगवान के सम्बन्ध में निवेदन किया।
देवभूमि भारत के वासियों से अपेक्षाएँ
मित्रो! इसी तरीके से सारी पौराणिक कथाओं और सारे पौराणिक देवी- देवताओं में विशेष संदेश और शिक्षायें भरी पड़ी हैं। काश! हमने उनको समझने की कोशिश की होती, तो हम प्राचीनकाल के उसी तरीके से रत्नों में से एक रहे होते, जिनको कि दुनिया वाले तैंतीस कोटि देवता कहते थे। उस समय हिन्दुस्तान में तैंतीस करोड़ आदमी रहते थे। दुनिया वाले कहते थे कि ये इंसान नहीं, देवता हैं, क्योंकि उनके विचार और कर्म ऊँचे हैं। जिन लोगों के ऊँचे कर्म और ऊँचे विचार हैं, उन्हें देवता नहीं तो और क्या कहेंगे? वह भारत भूमि जहाँ से कि आप पधारे हैं, वह देवताओं की भूमि थी और उसे देवताओं की भूमि रहनी चाहिए। आपको यहाँ देवताओं की तरीके से आना चाहिए। देवता जहाँ कहीं भी जाते हैं, वहाँ शान्ति और सौंदर्य तथा प्रेम और संपत्ति पैदा करते हैं। आप लोग जहाँ कहीं भी जायँ, वहाँ आपको ऐसा ही करना चाहिए। आप लोगों ने मेरी बात सुनी, आप लोगों का बहुत- बहुत आभार।