Books - प्रेम ही परमेश्वर है
Media: TEXT
Language: EN
Language: EN
दो शब्द
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
'प्रेम' एक बहुत व्यापक शब्द है । इसका अर्थ ईश्वरप्रेम और विश्व प्रेम से लेकर निकृष्ट वासनाओं तक लगाया जाता है । निम्रकोटि के मनुष्यों ने तो इसका मतलब केवल कामुकता जन कृत्यों से मान लिया है । उससे कुछ ऊँचे सामान्य श्रेणी वाले अपने स्त्री-पुत्र, सगे-सम्बन्धियों से लगाव, हित चिन्तन को ही प्रेम मानते हैं । कुछ बुद्धिमान व्यक्ति कला, साहित्य, संगीत, ज्ञान विज्ञान आदि की साधना को भी प्रेम की संज्ञा देते हैं । पर इनमें से वास्तव में कोई 'प्रेम' कहे जाने लायक नहीं है । ये सब स्वार्थ की सीमा में ही आते हैं जबकि सच्चा प्रेम परमार्थ का प्रमुख अंग है ।
यदि हम सृष्टि और विश्व के गढ़ रहस्य पर विचार करें तो प्रतीत होता है कि प्रेम का सच्चा पात्र परमेश्वर ही है, जिसने हमको देव दुर्लभ तन, मन, विवेक और सब प्रकार की कार्य क्षमता प्रदान की और जन्म से मरण तक हमारी सुख सुविधा की व्यवस्था करता रहता है, हमें कुमार्ग पर जाने से रोककर सुमार्ग पर चलने को बाध्य करता है । हमारी आँखें नहीं खुलतीं तो दण्ड विधान द्वारा भी हमको पतन के खड्ड में गिरने से बचाने का प्रयत्न करता है, वही भगवान् हमारे प्रेम भक्ति श्रद्धा का पात्र हो सकता है। पर भगवान से हम कैसे प्रेम करें यह एक गूढ़ समस्या है। आजकल हमारे अधिकांश भाई ईश्वर के भजन पूजा, प्रार्थना, स्तुति कीर्तन आदि को ही भगवान से प्रेम करना मान बैठे हैं । ये बातें भी अच्छी हैं, इनसे मनुष्य का आत्मोत्कर्ष हो सकता है, पर परमेश्वर से प्रेम करने का वास्तविक आशय उसकी बनाई सृष्टि से प्रेम करना और उसकी उचित प्रगति में सहायता करना ही है । यदि हम भगवान के बनाये प्राणियों के दुःख, अभाव, कष्टों में भाग लेकर उनकी विषम परिस्थितियों का कुछ समाधान करने में समर्थ हो सकें तो यही परमात्मा की सच्ची सेवा मानी जा सकती है और इसी प्रकार उसके प्रति प्रेम प्रकट किया जा सकता है।
लेखक
यदि हम सृष्टि और विश्व के गढ़ रहस्य पर विचार करें तो प्रतीत होता है कि प्रेम का सच्चा पात्र परमेश्वर ही है, जिसने हमको देव दुर्लभ तन, मन, विवेक और सब प्रकार की कार्य क्षमता प्रदान की और जन्म से मरण तक हमारी सुख सुविधा की व्यवस्था करता रहता है, हमें कुमार्ग पर जाने से रोककर सुमार्ग पर चलने को बाध्य करता है । हमारी आँखें नहीं खुलतीं तो दण्ड विधान द्वारा भी हमको पतन के खड्ड में गिरने से बचाने का प्रयत्न करता है, वही भगवान् हमारे प्रेम भक्ति श्रद्धा का पात्र हो सकता है। पर भगवान से हम कैसे प्रेम करें यह एक गूढ़ समस्या है। आजकल हमारे अधिकांश भाई ईश्वर के भजन पूजा, प्रार्थना, स्तुति कीर्तन आदि को ही भगवान से प्रेम करना मान बैठे हैं । ये बातें भी अच्छी हैं, इनसे मनुष्य का आत्मोत्कर्ष हो सकता है, पर परमेश्वर से प्रेम करने का वास्तविक आशय उसकी बनाई सृष्टि से प्रेम करना और उसकी उचित प्रगति में सहायता करना ही है । यदि हम भगवान के बनाये प्राणियों के दुःख, अभाव, कष्टों में भाग लेकर उनकी विषम परिस्थितियों का कुछ समाधान करने में समर्थ हो सकें तो यही परमात्मा की सच्ची सेवा मानी जा सकती है और इसी प्रकार उसके प्रति प्रेम प्रकट किया जा सकता है।
लेखक