Books - समझें देववाद का मर्म एवं लें उनसे शिक्षण
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समझें देववाद का मर्म एवं लें उनसे शिक्षण
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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
निराकार की कोई शक्ल नहीं
देवियो, भाइयो! सृष्टि की सारी शक्तियाँ निराकार होती हैं। इन शक्तियों की कोई शक्ल नहीं हो सकती है। गर्मी की कोई शक्ल हो सकती है? नहीं, गर्मी की कोई शक्ल नहीं हो सकती। लकड़ी में जब गर्मी पैदा हो जाती है, तो वह आग के रूप में जल तो सकती है, पर गर्मी की अपनी कोई शक्ल नहीं होती। सर्दी की कोई शक्ल हो सकती है? नहीं, सर्दी की कोई शक्ल नहीं हो सकती। प्यार की कोई शक्ल हो सकती है? कोई शक्ल नहीं हो सकती। क्रोध जब आता है, तो उसकी कोई शक्ल होती है? नहीं होती है। हाँ, क्रोध की वजह से आँखों में असर आ सकता है और आँखें लाल हो सकती हैं, पर क्रोध की अपनी कोई शक्ल नहीं होती। बिजली की कोई शक्ल है? नहीं, बेटे, बिजली की कोई शक्ल नहीं है। बिजली जब पंखे में चलती है, तो पंखा घूमता है। बल्ब में चलती है, तो बल्ब चमकता है, लेकिन बिजली की अपनी कोई शक्ल नहीं है। जो- जो चीजें व्यापक हैं, उनकी कोई शक्ल नहीं हो सकती। जो चीजें स्थानीय हैं, उनकी ही शक्ल बन सकती है। जो सब जगह समाया होगा, उसकी शक्ल कैसे बन जायेगी? उसकी शक्ल नहीं बन सकती।
मित्रो! फिर यह सवाल पैदा हो सकता है कि देवताओं की शक्ल कैसे बनीं? देवता या तो मनुष्य होने चाहिए- व्यक्ति होने चाहिए। और यदि वह व्यक्ति है, तो हम और आप जैसे आदमी होने चाहिए। देवता अगर सीमाबद्ध है, एक जगह रहते हैं, तो उसको मनुष्य होना चाहिए या अन्य प्राणी होना चाहिए। लेकिन अगर वह सर्वत्र संव्याप्त है, तो फिर उनकी शक्ल नहीं बन सकती। फिर क्या बात है कि हिन्दू धर्म में देवताओं की शक्ल कैसे बना दी गयी? दूसरे धर्मों में देवताओं की शक्ल क्यों नहीं है? मुसलमान धर्म में भगवान की कोई शक्ल नहीं बन सकती। देवता की शक्ल नहीं बन सकती। इस बात से वे नाराज होते हैं कि आपने कैसी शक्ल बना दी? ईसा को मनुष्य मानते हैं और मरियम को मनुष्य मानते हैं, इसलिए उनकी शक्ल बना देते हैं। ‘गॉड’ की शक्ल नहीं बन सकती। ईसाई कहते हैं कि गॉड की शक्ल क्यों बना देते हैं? नहीं बनाना चाहिए।
फिर साकार क्यों?
मित्रो! कई बार तो अचंभा होता है और मालूम पड़ता है कि फिलॉसफी की दृष्टि से कहीं हिन्दू धर्म पिछड़ा हुआ तो नहीं है? मन में ऐसा विचार कई बार आता है कि व्यापक शक्तियों की शक्ल क्यों कर बनाई गयी? शक्लें बनाने के बारे में जब प्रश्न सामने आता है, तो उसका एक ही उत्तर आता है कि हिन्दू धर्म कलाकारों का धर्म है। कवियों का धर्म है। कवियों ने और कलाकारों ने किसी उद्देश्य विशेष की, आदर्श विशेष की शक्लें बना दीं। उन शक्लों के पीछे उद्देश्य यह रहा कि आदर्शों, सिद्धान्तों, कर्तव्यों, उद्देश्यों के बारे में आदमी को याद बनी रहे। जिस तरह से हरी झण्डी दिखा करके या फिर हरी बत्ती जला करके गार्ड और ड्राइवर को यह इशारा किया जाता है कि अब आप गाड़ी चला सकते हैं या आप अब गाड़ी लेकर जाइये। गाड़ी लेकर जाने का- गाड़ी चला देने का इशारा है- हरी झंडी। तो क्या हरी झंडी में गाड़ी चलाने की ताकत है? नहीं बेटे, इसमें ताकत नहीं है। वह तो केवल इशारा है। क्या इशारा है? यही कि अब आप गाड़ी को चला सकते हैं। यदि यही बात जबान से कहते, तो फिर कौन सुनने वाला है? चाहे जितनी जोर से चिल्ला- चिल्लाकर कहिए कि गाड़ी चलाइये या गाड़ी रोकिए, पर कोई सुनने वाला नहीं है। लेकिन जब लाल झंडी दिखा दिया, तो इसका मतलब है कि गाड़ी रोक दीजिये। यह है- दृश्य के माध्यम से भावनाओं का नचाना। अदृश्य शक्तियों को हृदयंगम करने के पीछे यही तथ्य लागू होता है। यही है निराकार को साकार बनाने की चेष्टा। आदर्शों का, सिद्धान्तों का समन्वय हमें मूर्तियों, छवियों के माध्यम से कराया जाता है। आपको क्या बनना है? आपको किस ढाँचे में ढलना है? आपका जीवन लक्ष्य क्या है? जो भी आपका लक्ष्य है, जो कुछ भी आपको बनना है, उसके लिए एक- एक शक्लें बना दी गयीं हैं। आपको पराक्रमी, शूरवीर, योद्धा और पुरुषार्थी बनना है, तो आप हनुमानजी के पास में रह सकते हैं। हनुमान क्या हैं? बेटे, वह एक मॉडल हैं, एक उद्देश्य हैं, एक लक्ष्य हैं और एक इष्ट हैं। इष्ट माने लक्ष्य, लक्ष्य माने इष्ट।
आपका इष्ट क्या है? लक्ष्य क्या है?
आपका इष्टदेव कौन है? हमारे इष्टदेव तो हनुमानजी हैं। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि हमारा लक्ष्य है- ऐसे आदमी बनना, जो सामर्थ्यवान हो, बलवान हो, पुरुषार्थी हो। हम ऐसे आदमी बनना चाहते हैं। हमारा यही लक्ष्य है, यही उद्देश्य है कि हम ऐसे आदमी बनेंगे। इसलिए हमारे इष्ट हनुमान हैं। आपका इष्ट क्या है? हमारे इष्ट शंकर भगवान हैं। आप क्या बनना चाहते हैं? इष्ट के माध्यम से आप अपने जीवन का यह लक्ष्य निर्धारित करते हैं कि हमको कहाँ पहुँचना है और हमको क्या बनना है? लक्ष्य उस स्थल को कहते हैं, जहाँ पहुँचना है। ‘इष्टमिदं वासुदेवः’- वासुदेव से मतलब यह है कि हमको श्रीकृष्ण जैसा बनना है। आपको कहाँ पहुँचना है? हमारे इष्टदेव तो भगवान शंकर हैं। आपके इष्टदेव कौन हैं? हमारे इष्टदेव राम हैं- ‘इष्टदेव मम बालक रामा।’ इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ केवल एक है कि हम एक ऐसे ढाँचे में ढलना चाहते हैं जो मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जा सके। अपने जीवन में आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, कभी न कभी हम यह बनना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हमको मर्यादा पुरुषोत्तम के स्थान तक जा पहुँचना चाहिए। इसीलिए हमने राम को अपना लक्ष्य और अपना इष्ट तय किया हुआ है।
उद्देश्य विशेष के लिए आकृति
मित्रो! किसी का इष्ट राम है तो किसी का कृष्ण। कृष्ण से क्या मतलब है? यही कि हम पूर्ण पुरुष बनना चाहते हैं, इसलिए हमने अपना इष्ट कृष्ण को बना लिया। अपना लक्ष्य कृष्ण को क्यों बना लिया? हमको कृष्ण बनना है, इसलिए हमने अपना इष्ट उन्हें बनाया हुआ है। तो फिर ये मनुष्य नहीं होते? बेटे, भगवान यदि मनुष्य होते होंगे, तो उनका देहान्त हो गया होगा। देहावसान होने के बाद में अब उनकी कोई जरूरत, कोई आवश्यकता, सहकारिता हमारे जीवन में रह नहीं जाती है। और अगर भगवान हैं तो वे साकार नहीं हो सकते। उनकी कोई आकृति नहीं हो सकती। ब्रह्म की कोई आकृति नहीं हो सकती। फिर ये आकृतियाँ क्यों बना दी गयीं? बेटे, इनका एक मकसद है। मकसद के लिए आकृतियाँ बनाई गयी हैं। यों तो भगवान की कोई आकृति नहीं हो सकती, परन्तु उद्देश्य विशेष के लिए इनकी आकृति बना दी गयी। भगवान शंकर को गोल- मटोल पिण्ड इसलिए बना दिया गया है कि अगर भगवान का साकार रूप देखना हो तो इस ग्लोब को और सारे विश्व को भगवान माना जाय। ग्लोब क्या है? ग्लोब एक रंगीन नक्शे का बना होता है, जो स्कूल में बच्चों की मेज पर रखा रहता है। शंकर भगवान का गोल- मटोल पिंड इसलिए बनाया गया है ताकि हम यह समझ सकें कि यह सारे का सारा विश्व- ब्रह्माण्ड जो गोल- मटोल है, यह पृथ्वी जो गोल- मटोल है, यह जगत जो गोल- मटोल है, यह क्या है? शंकर है, शिव है। और शालिग्राम क्या हैं? शालिग्राम भी वही हैं। शालिग्राम की मान्यता अगर हमारे जीवन में हृदयंगम हो सके, तो उसका जो प्रभाव हमारे जीवन में आयेगा, उससे हमारा जीवन धन्य हो जायेगा।
मित्रो! अगर आपने यह मान्यता बना ली कि शालिग्राम या शंकर भगवान की मूर्ति पर हम पानी चढ़ाएँगे, बेलपत्र चढ़ाएँगे, फूल चढ़ाएँगे, तो महादेव जी ऐसे औघड़दानी है जो तुरंत प्रसन्न हो जायेंगे और हमारे बेटा पैदा कर देंगे तो बेटे, कहाँ से कर देंगे? अगर इनको बेटा पैदा करने की शक्ति होती, तो इनके एक- एक पत्थर ने एक- एक बेटा पैदा नहीं कर लिया होता? नहीं महाराज जी! यह पत्थर तो बहुत अच्छे हैं, तुरंत फल देते हैं। बेटे, ऐसी बेकार की बातें मत कर, इससे हिन्दू धर्म कलंकित होता है और हमारी फिलॉसफी अस्त−व्यस्त होती है। इससे अज्ञान फैलता है, भ्रम फैलता है और इससे एक नासमझी फैलती है। इस नासमझी से कोई फायदा नहीं होता। अतः इससे बाज आना चाहिए।
इंसान बने भगवान
मित्रो! हमारे ऋषियों का यह मकसद कभी नहीं रहा कि भगवान को इंसान बना दिया जाय। इंसान को भगवान बनाना तो हमारा उद्देश्य है। इंसान को भगवान बनाने की पूरी संभावना है, लेकिन भगवान को इंसान बनने की संभावना नहीं है। भगवान जब कभी अवतार लेते हैं, तो इंसानों के रूप में जन्म लेते हैं। अच्छे वाले इंसान, बढ़िया वाले इंसान, जिनको हम भगवान कहते हैं। भगवान किसे कहते हैं? बेटे, उच्चस्तरीय मनुष्यों का नाम भगवान है। एक- एक कला के अवतार हम और आप सब हैं, परन्तु भगवान के अवतारों की कला अलग- अलग होती है। रामचन्द्र जी? बारह कला के थे। कृष्ण भगवान सोलह कला के थे। मत्स्य और कच्छप एक- एक कला के अवतार थे। कलायें क्या हैं? ‘हार्सपावर’ हैं। इसका मतलब है कि अमुक अवतार कितने ‘हार्सपावर’ के थे। नहीं साहब! ‘हार्सपावर’ की तो मोटर होती है। हाँ बेटे, होती है। लेकिन ‘‘ईश्वर जीव अंश अविनाशी’’ के अनुसार आप में से हर आदमी एक- एक हार्सपावर की मोटर है। और जब अवतार होते हैं, तब उनकी मोटरें ज्यादा ताकत की होती है। जैसे परशुराम जी भी अवतार थे। भगवान के चौबीस अवतारों में वे भी आते हैं। वे कितने कला के थे? तीन कला के थे। रामचंद्र जी की कितनी कलायें थीं? बारह थीं। कलायें कितनी होती हैं। बेटे, पहले जमाने में एक रुपये के चौंसठ पैसे होते थे, तो चौंसठ कलायें होती थीं। अब कितनी हो गयी हैं? अब रुपये का फरक पड़ गया है, तो कलायें अब सौ हो गयी हैं।
अवतारों की कलाएँ एवं लीलाएँ
महाराज जी! तो क्या परशुराम जी अवतार थे? हाँ बेटे, कह तो रहा हूँ कि परशुराम जी अवतार थे। तो उनकी क्या कीमत थी? तीन पैसे। और रामचन्द्र जी की? बारह पैसे। कृष्ण चन्द्र जी की सोलह पैसे। बेटे, वे सब मनुष्य थे। नहीं साहब! वे मनुष्य नहीं, भगवान थे। अच्छा भगवान थे, तो मैं पूछता हूँ कि भगवान से भगवान की लड़ाइयाँ क्यों हुईं? एक भगवान को यह पता क्यों नहीं था कि ये भी भगवान हैं? परशुराम जी को यह पता होता कि हम भी भगवान हैं और रामचन्द्र जी भी भगवान हैं, तो भगवान भगवान से लड़ाई क्यों करते? भगवान को भगवान के बारे में जानकारी क्यों नहीं थी कि परशुराम जी भी अवतार लेकर आये हैं और रामचन्द्र जी भी भगवान हैं। भगवान ने भगवान का धनुष तोड़ डाला, तो एक भगवान को दूसरे भगवान से लड़ना नहीं चाहिए।
मित्रो! शंकर भगवान का धनुष रामचन्द्र जी भगवान ने तोड़ा और ‘दाल- भात में मूसलचंद’ बनकर एक और भगवान आ घुसे। उसका नाम क्या है? परशुराम। अरे भाई! तुम कौन हो? भगवान। अरे बाबा! यह कया ऊधम मचाते हो? भगवान का धनुष भगवान ने तोड़ा और दूसरा भगवान लड़ाई लड़ता है। यह क्या बात है? बेटे, इस संबंध में आप अपना दिमाग साफ कीजिए। अगर आप अपना दिमाग साफ नहीं करेंगे, तो गायत्री मंत्र का वह लाभ, जो चमत्कारी कहा जाता है, प्राप्त नहीं कर सकेंगे। और आप अज्ञान के जंजाल में इस कदर फँसते हुए चले जायेंगे कि अपना समय खराब करते रहेंगे और झक मारते रहेंगे। इससे कोई फायदा होगा? नहीं होगा। चमत्कार मिलेगा? नहीं, चमत्कार नहीं मिलेगा। तो क्या मिलेगा? खालिस अज्ञान आपके पल्ले पड़ेगा और अज्ञान से आपको- आदमी को सिवाय नुकसान उठाने के कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा।
गायत्री की शक्ल के पीछे प्रेरणा है
मित्रो! गायत्री मंत्र के बारे में आपका क्या ख्याल है? गायत्री माता की जो शक्ल बना दी गयी है, उस शक्ल के पीछे शिक्षण है, शिक्षण के पीछे उद्देश्य है, प्रेरणा है। उद्देश्य को समझाने के लिए, बताने के लिए हमने गायत्री की शक्ल बना दी है। तो क्या भगवान की कोई शक्ल नहीं है? बेटे, भगवान की शक्ल नहीं हो सकती। वे शक्तियाँ हैं। दुनिया में दो तरह की शक्तियाँ हैं- एक भौतिक और एक आध्यात्मिक। भौतिक शक्तियों में बिजली आती है, भाप आती है, धूप आती है, चुम्बकीय शक्ति आती है, आदि अनेक तरह की चीजें आती हैं। ये भौतिक शक्तियाँ हैं। इनमें ताकत है। और आध्यात्मिक शक्तियाँ क्या हैं? आध्यात्मिक शक्ति उसे कहते हैं जिसमें भाव संवेदनाएँ मिली हुई हैं। विचारणाओं, भाव- संवेदनाओं में क्या कोई ताकत होती है? हाँ विचारणा में ताकत होती है। विचारणा में ताकत होती है, इसका इतिहास आपने पढ़ा नहीं? विचारणा में, भावना में ताकत का उदाहरण कल मैं सुना चुका हूँ, पर अभी और सुना देता हूँ। हाँ साहब! सुना दीजिए भावनाशीलों के नाम।
भावनाओं का खेल
बेटे, उन भावनाशीलों के नाम हैं- जार्ज वाशिंगटन, जो एक लकड़हारे के घर में पैदा हुआ था। दूसरा नाम है- अब्राहम लिंकन, जो एक गरीब घर में पैदा हुए थे। गरीब ऐसे कि जिनके घर में पेट भरने के लिए रोटी तक की गुंजाइश नहीं थी। लेकिन ये महापुरुष कैसे हो गये? ये थी उनकी भावनायें और उद्देश्य। भावनायें छोटे से छोटे आदमी को उछालती हुई जाने कहाँ से कहाँ ले पहुँची। बिनोवा ने अपने जीवन वृतान्त में लिखा है कि हमारी माँ जब आटा पीसती थी, तो उनके बगल में मैं बैठा रहता था और जो चने उछल- उछलकर जमीन पर गिर पड़ते थे, उनको बीन- बीन कर खाता रहता था। उन दिनों हमारी आर्थिक स्थिति बड़ी कमजोर थी, यहाँ तक कि कभी- कभी नाश्ते तक के लिए कोई चीज नहीं मिलती थी। यह मैं किस आदमी की बात कर रहा हूँ? इसका नाम है- विनोबा। यह कौन बन गया? बेटे, यह संत बन गया। यह वामन भगवान बन गया, जिसने अपने चरणों से पृथ्वी को नाम लिया। पृथ्वी को नापने वाला क्या कोई मनुष्य वामन हो सकता है? हाँ हो सकता है। कौन कर सकता है? भावनायें कर सकती हैं। भावनायें यदि निम्नकोटि की हों तो ये आदमी को घिनौना और कमीना बना करके रख देती हैं, दुखी और दरिद्र बना करके रख देती हैं। पतित और पापी बना करके रख देती हैं। नरक में धकेल देती हैं। कौन धकेलता है? दुनिया में एक चीज है और उसका नाम है- भावनायें। तुच्छ भावनायें आदमी को घिनौना, कमीना, नारकीय, दुष्ट और पतित बना देती हैं, लेकिन यदि भावनायें उच्चस्तरीय हों, तो वे मनुष्य को उछालती भी हैं। वे आदमी को संत, महापुरुष, ऋषि और देव मानव बना देती हैं और न जाने क्या- क्या बना देती हैं।
देवत्व भावनाओं से
मित्रो! भावना एक शक्ति है। भावना के बराबर और कोई शक्ति हो सकती है क्या? बेटे, कोई नहीं हो सकती। बिजली? बिजली भी नहीं हो सकती। ऐटम? एटम भी नहीं हो सकता। मनोभावना को तू समझता नहीं है, चेतना को समझता नहीं है। विचारणा को समझता नहीं है। नहीं साहब! विचारणा को नहीं समझता हूँ। मैं तो पैसे को समझता हूँ। बेटे को समझता हूँ। मर अभागे। तू कुछ भी नहीं समझता है। जानवर है और जानवर की वृत्तियों को समझता है। तू तो यह समझता ही नहीं है कि भावना किस चीज का नाम है। बेटे, भावना आदमी का प्राण है। भावनायें आदमी के भविष्य का निर्माण करती हैं। भावनायें आदमी में मुस्कान बिखेरती हैं। भावनायें आदमी के भीतर से देवत्व प्रकट करती हैं। भावनायें मनुष्य को शान्ति के, शक्ति के ऊँचे स्तर पर ले जाती हैं। भावनायें ही आदमी को कलह और नरक की आग में धकेल देती हैं। बेटे, तू भावनाओं की कीमत नहीं समझता। भावनाओं की कीमत समझ।
मान्यताएँ बदलें
मित्रो! श्रुतियों में भावनाओं को ही दैवी शक्तियाँ कहा गया है। दैवी शक्तियाँ इन्हीं का नाम है। आपकी तो मान्यता है कि दैवी शक्तियाँ कोई स्त्री होती है, कोई औरत होती है, जिन्हें हम कपड़ा पहना देते हैं, मिठाई खिला देते हैं, चाँदी का छत्र चढ़ा देते हैं और नारियल खिला देते हैं। तो वे प्रसन्न हो जाती हैं और हमारे लिए माल- असबाव का थैला भरकर, पोटली भरकर रुपया भेज देती हैं। पगले चुप हो जा, बेकार की बातें बकता है जैसे कि पागल बकते हैं। नहीं गुरुजी। कोई औरत है जो यह सब दे जाती है। कौन सी औरत है? गुरुजी! संतोषी माता भी औरत है, गायत्री माता भी औरत है और अमुक भी औरत है। चुप रह। बकवास करता है कि औरत द्रव्य दे जायेगी। अरे वह अपने बाल- बच्चों के दे जायेगी कि तुझे दे जायेगी? नहीं साहब! वह हमारा नारियल खा जाती है और पैसा दे जाती है। बेटे, वह न तो कोई नारियल खा जाती है और न पैसे दे जाती है। फिर क्या बात है? वास्तविकता क्या है?
देववाद का रहस्य समझिए
मित्रो! वास्तविकता वह है जो देववाद के पीछे रहस्य छिपा हुआ है। देववाद के पीछे छिपे हुए उस उद्देश्य को समझिये। उसे आप समझ लेंगे, तो गायत्री उपासना को, जिसका मैं शिक्षण करता हूँ, आप समझने में समर्थ होंगे और उसका लाभ उठाने में समर्थ होंगे और लाभ दिलाने में समर्थ होंगे। अगर इतनी सी मोटी बात आपके समझ में नहीं आई, तो आप झक मारेंगे। समय खराब करेंगे और ठगे जायेंगे, अगर आपकी समझ में यह वास्तविकता नहीं आई तो। वास्तविकता क्या है? बेटे, समस्त देवता, जो भी बनाये गये हैं, उनके पीछे कोई न कोई शिक्षण दिया गया है। उसके पीछे कोई न कोई दिशा निर्धारित की गयी है। कोई न कोई लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
महादेव के पीछे प्रेरणाएँ
उदाहरण के लिए मैं एक देवता का हवाला देता हूँ- शंकर भगवान का। शंकर भगवान क्या हैं? शंकर भगवान की जो शक्ल बनाई गयी है, उसके पीछे कुछ उद्देश्य नियत कर दिये गये हैं। उसके माध्यम से आदमी को सिखाया गया है कि अगर आपको शंकर भगवान की भक्ति करनी है, तो आपको इन उद्देश्यों को पकड़ कर चलना पड़ेगा और इन उद्देश्यों को हृदयंगम करना पड़ेगा। वे कौन- कौन से उद्देश्य हैं? शंकर भगवान की शक्ल आपने देखी होगी। उस शक्ल के हर हिस्से के पीछे आपको कुछ उद्देश्य दिखाई पड़ेंगे। कुछ प्रेरणाएँ दिखाई पड़ेंगी। कुछ शिक्षायें दिखाई पड़ेंगी। जैसे कि अभी हम आपको बताते हैं कि शंकर भगवान के सिर से पानी निकलता है, गंगा जी निकलती हैं। क्यों साहब! सिर में से गंगाजी निकल सकती हैं? बेटे, मेरे ख्याल से तो नहीं निकल सकती, क्योंकि किसी के सिर में से गंगा जी निकलेंगी, पानी बहेगा, तो उस आदमी को जब तक बैठा रहेगा तब तक तो शायद काम भी चल जाय, लेकिन जब वह करवट लेगा और लेटने की कोशिश करेगा तो पानी उसकी नाक में घुस जायेगा। कान में घुस जायेगा और उस आदमी का दिवाला निकल जायेगा। शंकर भगवान बैठे रहें, तो कोई बात नहीं है। सिर में से पानी बहता रहेगा, लेकिन कहीं शंकर भगवान ने यह गलती की कि उनको आ गयी नींद और उन्होंने सोने की कोशिश की, तो सारा गंगाजी का पानी कान में घुस जायेगा और नाक में घुस जायेगा और शंकर भगवान का दिवाला निकल जायेगा।
शिवजी की गंगा?
तो महाराज जी! फिर क्या विशेषता है शंकर जी में? बेटे, कुछ भी नहीं है। वह ज्ञान की गंगा है जो शंकर जी की जटाओं से निकलती है, मस्तिष्क से निकलती है। यह ज्ञानगंगा जहाँ से निकलती है, वही हमारा लक्ष्य है। हमारे मस्तिष्क से भी ज्ञान की यह गंगा निकलनी चाहिए। क्यों साहब! मस्तिष्क से भी गंगा निकलती है? पानी की गंगा निकलती है? हाँ बेटे, ज्ञान की गंगा निकलती है? इसी ज्ञान की गंगा को प्रतीक रूप में पानी की गंगा के रूप में बना दिया गया है। अगर हमको शिवजी को प्राप्त करना है, शिव का शिष्य बनना है, तो हमें अपने मस्तिष्क की संरचना ऐसी करनी पड़ेगी, जिसमें जब विचारों की तरंगें, विचारों के प्रवाह, विचारों की धारायें निकलें, तो ऐसी निकलें जिनको गंगा के अनुरूप कहा जा सके। यह अलंकार है। तो क्या शंकर भगवान की जटाओं से गंगा नहीं निकलती है? नहीं बेटे, जटाओं में से कोई गंगा नहीं निकलती और न कोई ऐसे शंकर भगवान होंगे, जिनकी जटाओं में से पानी निकलता होगा, जिनके सिर में से पानी निकलता होगा।
शिवजी का चन्द्रमा
अच्छा और क्या है शंकर जी के सिर पर? चन्द्रमा है, जो शंकर भगवान के सिर पर टँगा हुआ है। चन्द्रमा के बारे में आपका क्या ख्याल है? चन्द्रमा क्या है? क्या चन्द्रमा कोई पत्ती का बना है? नहीं गुरुजी। पत्ती का तो नहीं बना है। गोल- मटोल बना है, जैसे गेंद होती है, फुटबाल होती है। यदि फुटबॉल की तरह चन्द्रमा है, तो सिर पर कैसे लगेगा, पहले हमें समझाइए। फुटबॉल का चन्द्रमा सिर पर या तो कील ठोक कर या रस्सी से बाँधकर या फिर क्रेन की मदद से लगाया या फिट किया जा सकता है, अन्यथा फुटबॉल की तरह से ठहर नहीं सकता। नहीं साहब! चन्द्रमा शंकर जी के सिर पर टँगा हुआ है। अच्छा तो यह कैसे टँगा हुआ है, इसका रहस्य समझाइए। नहीं महाराज जी! हम नहीं समझा सकते। अच्छा आप ही बतायें कि आपका क्या ख्याल है? बेटे, हमारा ख्याल है कि चन्द्रमा शीतलता का प्रतीक है। हमारा मस्तिष्क जो बार- बार गरम हो जाता है, हम बार- बार आवेश में आ जाते हैं, गुस्से में आ जाते हैं और असंतुलित हो जाते हैं। बात- बात में अपना आपा खो बैठते हैं, अपना बैलेन्स गंवा देते हैं, अपना टेम्पर लूज कर बैठते हैं, तो इससे छुटकारा पाने के लिए क्या होना चाहिए?
शिक्षण समझें
मित्रो! शिव के भक्त को अपना टेम्पर लूज नहीं करना चाहिए। आदमी के जीवन में दोनों तरह की परिस्थितियाँ आती हैं। अच्छी भी आयेंगी, तो अच्छी परिस्थितियों में भी पागल नहीं होना चाहिए। और बुरी भी आयेंगी तो बुरी परिस्थितियों में भी पागल नहीं होना चाहिए। किसी के घर बेटा पैदा होगा तो किसी का बाप मरेगा। किसी का बेटा मरेगा तो किसी के घर में पोता पैदा होगा। अगर आप जुए में जीतेंगे तो हम जुए में हारेंगे। अगर हम जीतेंगे तो आप हारेंगे। यह क्या बात है? बेटे, समझता नहीं, यह सारी दुनिया ऐसे ही ताने- बाने से बनी हुई है, जिसमें हर आदमी को मुसीबत भी आनी है और सुविधा भी मिलनी है। इस दुनिया में हर आदमी को नमक का जायका भी चखना है और मिर्च का जायका भी एवं मिठाई का जायका भी चखना है।
तो क्यों साहब! अच्छी परिस्थितियाँ नहीं आयेंगी? बेटे, अच्छी परिस्थितियाँ तो राम को भी नहीं मिली। कृष्ण को भी नहीं मिली। नहीं साहब! हमारा जीवन तो चैन से रहना चाहिए। हमें तो चैन से बैठना चाहिए। बेटे, तू चैन से नहीं बैठ सकता। जीवन की बनावट ही ऐसी नहीं है। हमारा जीवन रूपी कपड़ा जिस ताने- बाने से बुना हुआ है, उसमें एक धागा इधर को है, तो एक धागा उधर को है। दोनों प्रकार के धागों से यह जीवन बुना हुआ है। दिन और रात के ताने- बाने से दुनिया बनी हुई है। सुख और दुःख से, हानि और लाभ से हर आदमी का जीवन बुना हुआ है। अतः हर आदमी को इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि मुझ पर भी मुसीबतें आयेंगी और जरूर आयेंगी। अगर कोई यह कहे कि गुरू जी ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि हमारे जीवन में कोई मुसीबत न आवे, तो गलत बात है। बेटे, श्री रामचन्द्रजी के जीवन में मुसीबतें आईं थी, श्रीकृष्णचन्द्र जी के जीवन में भी आई थीं, पाण्डवों के जीवन में आईं थी और आपके जीवन में भी जरूर आयेंगी।
संतुलन का चंद्रमा एवं पवित्रता की गंगा
मित्रो! तो फिर क्या करना चाहिए? इन मुसीबतों से कैसे बचना चाहिए? बचाव का एक ही तरीका है और वह है कि हम अपना दिमागी संतुलन कायम रखें। यदि दिमागी संतुलन कायम रखेंगे, तो हम अच्छे दिनों को भी हँस- हँस कर गुजार सकते हैं और बुरे दिनों को भी हँस कर गुजार सकते हैं। यह क्या है? शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा का यही मकसद है और यही प्रशिक्षण है। शंकर जी के मस्तिष्क पर संतुलन का चन्द्रमा तान दिया गया है और यह बता दिया गया है कि अगर आपको शिवत्व को प्राप्त करना है, तो आपको ऐसा करना चाहिए और आपका मस्तिष्क ऐसा होना चाहिए कि उसकी स्थिति स्थिर एवं संतुलित होनी चाहिए। संतुलन कायम रखना चाहिए। उसमें से ज्ञान की गंगा प्रवाहित होनी चाहिए। जब भी विचार निकलें, उच्चस्तरीय विचार निकलें। गंगा की तरीके से पवित्रता भरे हुए विचार निकलें। उच्चस्तरीय विचारों के बाइब्रेशन जब आपके मस्तिष्क से निकलते हों, तो उनका स्वरूप भी सामने आना चाहिए। यह क्या हो गया? यह हो गया शंकर जी के सिर पर स्थित चन्द्रमा और गंगा की प्रेरणा और शिक्षा।
तीसरा नेत्र
अच्छा साहब! अभी और नीचे की ओर उतर कर चलिए। शंकर भगवान की तीन आँखें हैं। हाँ महाराज जी! तीन आँखें हैं। बेटे, हमने तो किसी के भी तीन आँखें नहीं देखी हैं, तो शंकर भगवान की तीन आँखें कैसे आ गयीं? नहीं महाराज जी! शंकर भगवान की तो जीन आँखें हैं। अच्छा तो तीसरी आँख काम आती है? आपको मालूम नहीं है? बेटे, हमको तो मालूम नहीं है, तू ही बतादे। देखिये महाराज जी! रामायण में लिखा है। क्या लिखा है? ‘‘तब शिव तीसर नयन उघारा। चितवत काम भयउ जरि छारा॥’’ शंकर भगवान ने जब तीसरी आँख खोली, तो किसको देखा? कामदेव को देखा और कामदेव जलकर खाक हो गये। अरे राम- राम, ऐसी आँख होती है? हाँ बेटे, तीसरी आँख जिस किसी को देख लेती है, जलाकर खाक कर देती है। गुरुजी! आप जो हमको रात को सिखाते हैं, प्रातः को सिखाते हैं, वह क्या है? बेटे, हम आपको तीसरा नेत्र खोलने के लिए, दिव्यदृष्टि जगाने के लिए सिखाते हैं। तो महाराज जी! आप जो हमारा तीसरा नेत्र खुलवाएँगे, तो क्या वह ऐसा ही खुलेगा? और जैसे ही खुला और हमने आपको देखा, तब क्या होगा? बेटे जब तू हमारी तरफ देखेगा, तो हमारा सफाया हो जायेगा। अगर अपनी औरत की ओर देखा तो वह खतम हो जायेगी। अगर अपनी गाड़ी की तरफ देखा, साइकिल की तरफ देखा तो वह खतम हो जायेगी। तो महाराज जी! ऐसा नाटक बंद करा दीजिए। ऐसी आँख हमको नहीं चाहिए। बेटे, मैं तो मजाक कर रहा था।
विवेक की आँख
तो महाराज जी! क्या बात है? कोई बात नहीं है। बेटे यह विवेक की आँखें हैं, दूरदर्शिता की आँखें हैं। हमारे मस्तिष्क में एक टेलिस्कोप फिट किया हुआ है, जो दूर की बातें देखता है। हमारी जो दो सामान्य आँखें हैं, उनमें से कोई ‘शार्ट साइट’ की मरीज है, जिससे पास की चीजें नहीं दिखाई पड़ती हैं। बिल्कुल पास की भी चीजें नहीं दिखाई पड़ती हैं। इसमें आँखों का चश्मा बहुत बड़े नम्बरों का हो जाता है। अगर चश्मा न मिले या खो जाय, तो कोई चिट्ठी- पत्री तक नहीं पढ़ सकता कि इसमें क्या लिखा है। यह क्या है? ‘शार्ट साइट’ की बीमारी है। बेटे, हमारे समाज में लोगों को ऐसी ही बीमारी है। क्या बीमारी है? हमको आज की बात दिखाई पड़ती है। लेकिन कल की बात? कल का तो पता नहीं नहीं। बुढ़ापे में क्या होगा? क्या हमें कुछ पता है? मरने के बाद क्या होगा? पता ही नहीं। अभी क्या होगा? यह तक तो हमें मालूम नहीं है, फिर भविष्य का क्या पता? कुछ पता नहीं। आज- कल तनिक- तनिक से सुख के लिए लोग अपना भविष्य किस बुरी तरीके से बरबाद करते जा रहे हैं, इसको अगर कोई देख सके और विचार कर सके, तो आदमी को अपने ऊपर रहम आये, अपने ऊपर शरम आये कि हम अपना भविष्य किस तरीके से बिगाड़ रहे हैं।
मित्रो! हम आज की सुख- सुविधाओं के लिए, आज की ऐय्याशी के लिए हम अपने भविष्य को, अपने बुढ़ापे को कैसे कमजोर बना रहे हैं? इससे आगे का रास्ता हमें सूझ ही नहीं पड़ता, मौत दिखाई नहीं पड़ती, परलोक दिखाई नहीं पड़ता। भविष्य दिखाई नहीं पड़ता, कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। आपको तो केवल अभी की बात दिखाई पड़ती है। यह क्या है? बेटे, यह तीसरा नेत्र है। यह एक ऐसा टेलिस्कोप है, जिससे हमको बहुत दूर तक दिखाई पड़ता है, बहुत दूर तक की चीज दिखाई पड़ती है। शंकर भगवान ने इसी का इस्तेमाल किया था, जब कामदेव ने उन पर हमला किया था और तरह- तरह की चीजें दिखाई थी कि इससे यह फायदा है, यह मौज है। शंकर भगवान ने जब कामदेव की यह चालाकी देखी, तो उनने अपनी तीसरी आँख खोली और उसका सफाया हो गया।
दिव्य दृष्टि है यह तीसरी आँख क्या है?
दिव्यदृष्टि है। यह वह आँख है जो भीतर तक गहराई में प्रवेश कर यह देख सकती है कि वास्तविकता क्या है। उदाहरण के लिए ऊपर से चिकना- चुपड़ा दिखाई देने वाला यह शरीर क्या है? पाखाने के घड़े के ऊपर चमकदार पन्नी चिपका दी गयी है। पन्नी को उखाड़कर देख, भीतर क्या रखा है? नहीं साहब! वह बड़ी खूबसूरत महिला है। बड़ा सौन्दर्य है। सुंदर रूप है तो जरा पन्नी को उघाड़। पन्नी से मतलब है- चमड़ी से। चमड़ी को उघाड़ और फिर देख, इसके भीतर क्या भरा हुआ है? बेटे, पाखाने के अलावा, पेशाब के अलावा, थूक के अलावा, हड्डियों के अलावा, माँस के अलावा क्या है इसमें? कुछ भी तो नहीं है। यह क्या चीज है? बेटे, यही है वह मूल बात, जिसे गहराई से तीसरी आँख से देखा जा सकता है। हमारी इस आँख में माइक्रोस्कोप लगा हुआ है, जो हमें गहराई तक दिखाता है, दूर की बात दिखाता है। इसका नाम क्या है? इसका नाम है- तीसरा नेत्र।
मित्रो! अगर हमारा तीसरा नेत्र खुल जाय तब? तब हमको आज की बात चाहे दिखाई पड़े, चाहे न दिखाई पड़े, लेकिन भविष्य हमको दिखाई पड़ेगा। फिर उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने के लिए हमें अपनी गतिविधियाँ ठीक करनी पड़ेंगी। बेटे, यही तीसरा नेत्र है तो यहीं से सब कुछ चमकता है? बेटे, यहाँ तो केवल दो गाँठें हैं। एक का नाम है- पिट्यूटरी ग्लैण्ड और दूसरी का नाम है- पीनियल ग्लैण्ड। ये दो चीजें हैं, जिनका आपस में एक सर्किल बनता है, जिसको ‘आज्ञाचक्र’ कहते हैं। यह क्या है? यह बहुत कुछ फिजिकल साइंस का विषय है। इसके फायदे क्या हैं, यह हम बाद में बता देंगे। अभी तो हम अध्यात्म बता रहे हैं कि शंकर भगवान का तीसरा नेत्र केवल यही है और अगर आपको शिवत्व प्राप्त करना हो, अथवा शिव का भक्त बनना चाहते हों, तो आपको तीसरा नेत्र खोलना चाहिए।
मरघट- मुण्डों की माला
अच्छा महाराज जी! शंकर जी में और क्या खास बात है? बेटे, बीसियों बातें हैं। शंकरजी मरघट में निवास करते हैं। अच्छा, और क्या करते हैं? मरघट की भस्म शरीर पर लगाते हैं। अच्छा, और क्या करते हैं? गले में मुण्डों की माला पहना करते हैं। गुरुजी! ऐसा मालूम पड़ता है कि इनको मौत से कोई बड़ा भारी प्यार है, तभी तो वे मुण्डों की माला पहनते है और मरघट भस्म सारे के सारे शरीर में लगाते हैं। हाँ बेटे, तू ठीक कहता है। इनको सबसे प्यारा मरघट है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है मौत, जिसको आपने भुला दिया। आपने सारी बातें याद रखीं, पर एक बात भुला दी। क्या भुला दिया? मौत को आपने भुला दिया। यह इतनी बड़ी भूल है कि मैं नहीं जानता कि इससे भी बड़ी भूल और कोई हो सकती है? आपने जीवन को याद रखा और मौत को भुला दिया। हमारी प्रगति की गाड़ी जीवन और मौत के दोनों पहियों पर चलती है, आप इसे याद रखिये। जीवन बहुत अच्छी चीज है, पर याद रखिये मौत और भी अच्छी चीज है। मौत का आपको सामना करना पड़ेगा, अतः मौत की तैयारी करिये।
करें मौत की तैयारी
मित्रो! अगर आप मौत की तैयारी नहीं कर रहे हैं, तो मैं समझता हूँ कि जीवन की जो आप तैयारी कर रहे हैं, वह अपूर्ण है। अधूरी है और वह समग्र नहीं हो सकती, संतुलित नहीं हो सकती और आप लगातार भूल करते चले जायेंगे, आपकी भूल पर अंकुश कभी नहीं लग सकता। अतः मौत को याद करिए। ‘‘ॐ ततोस्मर,..........शरीरम्।’’ अरे मूर्ख। इस जलने वाले शरीर को याद कर। अरे मूर्ख! चिता को याद कर। जन्मदिन तेरा हो गया, खुशी की बात है, पर अब मौत के दिन की तैयारी कर। नहीं साहब! जन्मदिन की खुशियाँ मनाऊँगा। अच्छा जन्मदिन की खुशियाँ मनाएगा, तो फिर मौत के दिन की भी तो तैयारी कर। महाराज जी! मैं मौत के दिन की तैयारी नहीं करता हूँ। तो फिर तू शिव का उपासक कैसे होगा? मौत के तो वह देवता हैं और आप कहते हैं कि हम मौत को याद नहीं करते। अगर मौत को याद करना आपको आता होगा, तो आपने सिकन्दर की तरीके से विचार किया होता।
सिकंदर से सीखें
मित्रो! जब सिकन्दर मरने लगा तो उसने अपना सारा सामान मँगाया और कहा कि हम अपना सामान लेकर जाना चाहते हैं। जिन्दगी भर में जितना पैसा हमने जमा कर लिया है, उसे हम साथ ले जाना चाहते हैं। जब उसने कहा कि हम साथ ले जाना चाहते हैं, तो लोगों ने कहा कि साहब! आप इन्हें अपने साथ कैसे ले जा पायेंगे? यह तो यहीं पर रखा रहेगा। यहीं पर रखा रहेगा? हमने जीवन भर में करोड़ों रुपये कमाये, वह सब यहीं रह जायेगा? हाँ साहब! बिल्कुल यहीं रखा रहेगा। सिकन्दर फूट- फूट कर खूब रोया। लोगों ने पूछा कि क्या बात है? उसने कहा कि अगर यह समझ मरने से पहले आ गयी होती, तो हमने अपनी जिंदगी का तरीका बदल दिया होता। फिर हमने ऐसी घिनौनी और ऐसी कमीनी जिंदगी नहीं जी होती। तब हम किसी दूसरे किस्म की जिंदगी जी रहे होते। फिर हमने भगवान बुद्ध की जिंदगी जी होती। फिर हमने सुकरात की जिंदगी जी होती। फिर हमने ईसा की जिंदगी जी होती और तब हमने सिकन्दर की जिंदगी नहीं जी होती। हमारे मन ने कानों से तो सुना था कि आदमी जो कमाता है, यही कहता था कि यह दौलत हमारी है। इसे कौन छीन सकता है? अब हमको मालूम पड़ता है कि यह दौलत हमारी नहीं थी और यह हमें छल रही थी। अगर यह विचार हमें जीवन में पहले आ गया होता, तो हम अपनी जिंदगी का, अपने व्यक्तित्व का जो इस तरीके से अपव्यय करते रहे, वह न कर सके होते।
हर पल मृत्यु का शिक्षण
मित्रो! राजा परीक्षित को मौत याद आ गयी थी और सात दिनों में उन्होंने मौत के लिए बेहतरीन इंतजाम कर लिया था। आपको तो मौत कभी याद आती ही नहीं। परीक्षित की तरीके से भी नहीं और सिकन्दर की तरीके से भी नहीं याद आती। मौत को यदि आप स्मरण नहीं रखेंगे, तो आप जिंदगी में कभी कोई अच्छा काम नहीं कर सकेंगे और आपके जीवन की कोई अच्छी योजना नजर नहीं आ सकेगी। जीवन की अच्छी योजना को सफल बनाने के लिए आपको मौत दिखाई पड़नी चाहिए। आपको अपनी चिता जलती हुई दिखाई पड़नी चाहिए और आपको अपने थैले में हड्डियाँ ले जाकर के हरिद्वार के ब्रह्मघाट में बहाई जानी- स्मरण रहनी चाहिए। आपका यह चेहरा, जिसको रोजाना आप रंग- बिरंगे पाउडरों से पोतते रहते हैं, आपको याद रहना चाहिए कि इसकी मुट्ठी भर खाक बनने वाली है और यह मुट्ठी भर खाक लातों तले रौंदी जाने वाली है। भविष्य को याद नहीं करेंगे, मौत को याद नहीं करेंगे, मौत की तैयारी नहीं करेंगे? नहीं साहब! बेटी के लिए तैयारी करनी चाहिए, बेटे के लिए तैयारी करनी चाहिए, लेकिन मौत के लिए क्या तैयारी करनी चाहिए? नहीं बेटे, मौत के लिए सब कुछ करना चाहिए।
मित्रो! हमको यह शिक्षण भगवान शंकर के पूजन से मिलता है। हाँ साहब! भगवान शंकर जी से मिलने वाली इतनी बातें आपने बता दी। हाँ बेटे, यह चेहरा मुण्डों की माला ही है। अपने चेहरे को शीशे में देख, समझ में आ जायेगा कि यह भी भस्म में बदलने वाला है। इसको शरीर से लगा। अभी तो अच्छा- खासा शरीर है, लेकिन कल परसों यह भस्म होने वाला है। आप अपनी जिंदगी को खाक में- राख में बदलते हुए देखिये। अगर आप खाक और राख को नहीं देखेंगे, तो आप न तरक्की कर सकेंगे और न कोई अच्छा काम कर सकेंगे। अब तक आपने जैसा घिनौना और कमीना जीवन जिया है, इससे आगे और भी बुरा जीवन जियेंगे। अगर आपके दिमाग में मौत की बात नहीं आयेगी, खाक की बात नहीं आयेगी, और मरघट की बात समझ में नहीं आयेगी, तो समझ लेना कि शंकर भगवान की आपकी उपासना अधूरी और अपंग है।
चलें शिवत्व की ओर
महाराज जी! शंकर भगवान की अभी और बातें बताइये। बेटे, भूत- पलीत तो शंकर भगवान के संग में रहते थे, अतः हमको तो विशेष पिशाच होना चाहिए। महाराज जी! और बताइये? बेटे, और भी सैकड़ों बातें हैं, मैं उन्हें कहाँ तक बता सकता हूँ? प्रत्येक देवता के पीछे शिक्षण है। क्यों साहब? प्रत्येक देवता क्या ऐसी ही शक्ल का होता है? हाँ बेटे, अच्छी शक्ल के देवता होते हैं। आपके शंकर अलग हैं और हमारे शंकर अलग हैं जिनकी अभी हमने व्याख्या की। वह शिवत्व है। शिवत्व की ओर चलने के लिए, शिव की भक्ति करने के लिए आपको शिवत्व की ओर चलना चाहिए और अपने जीवन में शिवत्व को समाविष्ट करना चाहिए। अभी तो जैसे आप हैं वैसे ही आपके शंकर हैं। कैसे हैं आपके शंकर भगवान? आपके शंकर भगवान ऐसे हैं कि सावन का महीना आया और तीन तिपाई पर तीन घड़े में छेद करके पानी भरकर उनके सिर पर रख दिया। सावन भर पानी टप- टप करके टपकता रहा। अब देखिए शंकर भगवान की हजामत बनानी है। अब वे हमारे शेयर में भी लाभ दिलायेंगे और आपके शेयर में भी लाभ दिलायेंगे। अब शंकर भगवान चौबीस घंटे नहाएँगे। अब वे हमारे शिकंजे में आ गये। अब देखिए उन्हें क्या- क्या मजा चखाते हैं।
अभिषेक क्यों?
मित्रो! सावन भर पानी बरसता रहा और शंकर भगवान के ऊपर हम पानी टपकाते रहे। शंकर जी को जुकाम हो गया, खाँसी हो गयी। शंकर भगवान ने कहा- चेला जी! भगत जी! हाँ भगवन्। कुछ दवा- दारू का इंतजाम कर। हाँ महाराज जी! आपके लिए दवा- दारू का इंतजाम करना तो है, पर क्या दवा करूँ? समझ में नहीं आ रहा। ऐसा कर किसी डॉक्टर के यहाँ से कोडोपायरिन ला करके दे। नहीं महाराज जी! वह तो विलायती दवा है, आप मत खाइये। आप तो आक के फूल खाइये और धतूरे के फल खाइये। वह विशुद्ध हिन्दुस्तानी दवाई है, आयुर्वेद की दवाई है। यह ऋषियों की दवाई है। आप इसे खा लीजिए, तो ठीक हो जायेंगे। अच्छा बेटे, तू यही ले आ। चेले ने- भगत ने शंकर भगवान को आक के फूल और धतूरे के फल खिला दिए। अब तो शंकर भगवान को चक्कर आने लगा। अरे भाई! कुछ खाने- पीने का इंतजाम है कि नहीं? एक महीने तूने पानी से स्नान तो करा दिया, परन्तु खाने का कोई इंतजाम नहीं किया। हाँ महाराज जी। खाने का भी इंतजाम करेंगे? क्या इंतजाम करेगा? ले आ कुछ डबल रोटी, बिस्कुट ले आ, बोर्नवीटा ले आ, कुछ हॉर्लिक्स ले आ, कुछ दूध ले आ। महाराज जी। आप तो मजाक कर रहे हैं। आप इन्हें मत खाइये। तो क्या खायें? महाराज जी! मैं तो आपके लिए ऐसी खुराक लाऊँगा जो आपके भी काम आ सके और आपके बैल के भी काम आ सके। इससे दोनों का गुजारा हो जायेगा।
क्या लायेगा? बेल का पत्ता लाऊँगा। अच्छा, तू बेल का पत्ता लायेगा? पूड़ी, कचौड़ी, लड्डू, रोटी, दाल, चावल आदि कुछ नहीं? नहीं महाराज जी! यह सब तो होटल में बनते हैं और आप तो जानते हैं कि आजकल के होटलों का कोई भरोसा नहीं है। आप तो वह चीज खाइए जो प्राकृतिक है। प्राकृतिक क्या है? बेल का पत्ता। बेल का पत्ता आप भी खाइये और आपका बैल भी गायेगा। दवाई के लिए आक का फूल खायें और धतूरे का फल खाइये। फिर क्या हुआ? शंकर भगवान ने आक के फूल खाये और धतूरे का फल खाया। इससे गले में छाले पड़ गये और उन्हें खूब नशा आने लगा, चक्कर आने लगे। शंकर भगवान ने कहा कि यह घपला करता है भगत, हमको तू मारकर ही रहेगा क्या? या जिंदा छोड़ेगा? महाराज जी! आपको जिंदा कैसे छोड़ दूँगा। जिंदा छोड़ देने के लिए मैंने क्या यह भक्ति की है? अब तो आपकी ईंट से ईंट बजाकर जाऊँगा। शंकर भगवान ने कहा- ठीक है बेटे, जो कुछ होगा देखा जायेगा। शंकर भगवान ने आक के फूल और धतूरे के फल खा लिए। जैसे ही शंकर जी को बेहोशी आने लगी, भगत जी ने चुपके से पीछे से झोली में हाथ डाला। झोले में क्या निकला था? झोले में निकली थी डायरी। डायरी में क्या था? उसमें थे लाटरी के नम्बर। इसमें से गुजरात लॉटरी के दो लाख तीन हजार छः सौ उन्नीस रुपये, यू.पी. लॉटरी के तीन हजार एक सौ इक्यासी रुपये थे। डायरी लेकर भगत जी गायब हो गये और सारी की सारी लॉटरियाँ खरीद लीं। लाइये साहब! इन नम्बरों की लॉटरी की रकम मुझे दे दीजिए। जब शंकर भगवान होश−हवास में आये तब उन्होंने कहा कि अरे भाई। हमारा थैला कहाँ गया? इसमें से डायरी कौन ले गया? अच्छा भगत जी ले गये। यह कौन से भगत हैं? यह भगत हैं आप, शंकर भगवान की हजामत बनाने वाले, जालसाज।
भक्ति का मखौल न बने
मित्रो! क्या करना चाहिए? यह भी कोई भक्ति हो सकती है? भक्ति का मखौल मत बनाइये। भक्ति के साथ दिल्लगीबाजी मत कीजिए। भगवान के साथ दिल्लगीबाजी करना मुनासिब नहीं है। दिल्लगीबाजी औरों से मुनासिब है- अपने पड़ोसी से कीजिए, अपने साले से कीजिए, अपने बहनोई से कीजिए, पर शंकर भगवान से मखौल मत कीजिए। ये मखौल बनाने के लिए नहीं बनाये गये हैं। आप जैसी भक्ति करते हैं, मखौल बनाते हैं। बड़े आये भक्ति करने वाले। भक्ति कैसे हो सकती है? भक्ति का एक ही तरीका है कि हम भगवान के साथ पीछे- पीछे चलने की कोशिश करें। और भगवान का अनुसरण करने की कोशिश करें। भगवान को अपनी मर्जी पर चलाने की अपेक्षा भगवान की मर्जी पर चलने की कोशिश करें। बेटे, भगवान को अपनी मर्जी पर नहीं चलाया जाता, वरन् भगवान की मर्जी पर चला जाता है। नहीं साहब! भगवान को हमारी मनोकामनाएँ पूरी करनी चाहिए। नहीं बेटे, भगवान को आपकी मनोकामनाएँ पूरी नहीं करनी चाहिए। आपको भगवान की मनोकामना पूरी करनी चाहिए। नहीं साहब! भगवान को हमारी शरण में आना चाहिए? नहीं बेटे, भगवान को आपकी शरण में नहीं आना चाहिए, वरन् आपको भगवान की शरण में जाना चाहिए।
आप मानिए भगवान का कहना
क्या मतलब है इसका? इसका अर्थ है कि भगवान के संकेत और भगवान के इशारे और भगवान के निर्देश आपके लिए मान्य होने चाहिए और आपको उस राह में चलना चाहिए। नहीं साहब! हमारा कहना भगवान को मानना चाहिए। आपका कहना? आप हैं कौन? जरा शीशे में मुँह देख करके आना। अजी साहब। ये तो वही चेहरा है जो देवी को नारियल खिलाते हैं और हम वही हैं जो हनुमान जी को सवा रुपये का लड्डू खिलाते हैं। आप वही हैं? हाँ साहब! हमारा कहना मानना चाहिए। क्यों मानना चाहिए? क्योंकि हमने सवा रुपये का लड्डू खिलाया था। किसको? हनुमान जी को। अच्छा तो आपने हमें लड्डू इसीलिए खिलाया था? हाँ साहब! इसीलिए आपको लड्डू खिलाया था कि आपको हमारा हुकुम मानना पड़ेगा और हमारी मर्जी पूरी करनी पड़ेगी। चुप धूर्त कहीं का, मेरी मनोकामना पूरी करनी पड़ेगी?
मित्रो! क्या करना चाहिए, इस वास्तविकता को समझिये। अगर वास्तविकता को नहीं समझेंगे, तो यह घोर अज्ञान है। यही घोर अज्ञान हर जगह छाया हुआ है। देवी- देवताओं की हजामत बनाने के लिए माहिर लोग हर जगह सफाया करते चले जाते हैं। और आप? आप देववाद का भी सफाया कर देंगे। भक्ति के सिद्धान्तों का भी सफाया कर देंगे और भक्ति के आधार पर किसी को जो मिलना चाहिए, वह सारे के सारे सिद्धान्तों का सफाया कर देंगे। क्या करना पड़ेगा? बेटे, हम वही आपको समझा रहे हैं।
समझें कि आखिर गायत्री है क्या?
मित्रो! आपको हम गायत्री उपासना का महत्त्व बता रहे थे और यह कह रहे थे कि गायत्री उपासना आपको करनी चाहिए और विश्व को इसकी उपासना करने के लिए समर्थन देना चाहिए। उसका प्रचार करना चाहिए। गायत्री कैसी है और उसकी कौन सी भक्ति करनी चाहिए? बेटे, आप यहाँ से चलें। यह हमने पहले ही आपको बता दिया था कि गायत्री की पूजा करें, गायत्री का जप करें, गायत्री का अनुष्ठान करें, लेकिन सबसे अहम् सवाल यह है कि सबसे पहला वाला सवाल हमसे यह पूछना चाहिए कि आखिर गायत्री है क्या? यह बात जब आपकी समझ में आ जाय, तब चाहे आप भजन करना, चाहे पूजा करना, चाहे अनुष्ठान करना, चाहे जप करना, ध्यान करना, चाहे हमको मिठाई खिलाना, चाहे आप लड्डू बाँटना, आपको जो मन आवे, सो करना, पर पहले जान लें कि आखिर गायत्री है क्या?
यह एक ताकत है, संवेदना है
मित्रो! गायत्री क्या है? एक भाव संवेदना है। संसार में दो शक्तियाँ हैं। एक शक्ति वह है, जो ताकत के रूप में है, जो एटम में से उदय होती है और जो फोर्स कहलाती है। यह सारे विश्व में ताकत के रूप में, बिजली के रूप में फैली हुई है और जो हमारे शरीर को चलाती है। एटम को चलाती है, रेलगाड़ी को चलाती है। यह ताकत है जो तरह- तरह के काम करती है। यह पदार्थ की शक्ति है। एक और दूसरी शक्ति है- आध्यात्मिक शक्ति, जिसको हमने गायत्री महाशक्ति के रूप में चित्रित कर दिया है और उसका एक स्वरूप बना दिया है।
नारी में शालीनता का दर्शन
मित्रो! स्वरूप से क्या मतलब है? स्वरूप से हमारा मतलब है- भावशक्ति। वह भावशक्ति, जिसकी आपको पूजा करनी है, उपासना करनी है, जिसका समर्थन करना है। जिसको आपको अपने जीवन में हृदयंगम करना है। उसका स्वरूप क्या हो सकता है? बताइये? बेटे हम बताते हैं कि स्वरूप क्या हो सकता है? गायत्री एक महिला है। कैसी महिला है? ऐसी महिला है जिसकी हुकूमत कितनी हो सकती है, आप जानते हैं? बेटे मेरा ऐसा ख्याल है कि गायत्री माता की आज तक हमने जो भी फोटो बनायी है, या जो मूर्तियाँ स्थापित करायी हैं, उसमें से प्रत्येक गायत्री माता की कितनी उम्र होनी चाहिए। मेरे ख्याल से उसकी उम्र बीस के करीब होनी चाहिए। महाराज जी! आपने छोटी बच्ची क्यों छाप दी? नहीं बेटे, हम छोटी बच्ची नहीं छापना चाहते। तो महाराज जी! आपने बुड्ढी गायत्री माता क्यों नहीं छाप दी, जिसके दाँत उखड़े हुए होते और बाल सफेद होते। नहीं बेटे, उसकी भी नहीं छापी।
क्यों? जवान की ही क्यों छापी? जवान की हमने इसलिए छापी कि आपकी आँखों में हम शालीनता उत्पन्न करना चाहते थे और यह कहना चाहते थे कि जवान महिला को आप ‘माँ’ कहें। नहीं साहब! यह तो बीबी है, तरुणी है और कामिनी है। नहीं बेटे, यह देवी है। तू इसे देवी समझ। देवी समझने से क्या हो जायेगा? तुम्हारी आँखों में शालीनता आयेगी। किस तरह से आयेगी? शिवाजी की तरह से आयेगी। यही देवी तुझे तलवार दे सकती है और अर्जुन की तरीके से गाण्डीव दे सकती है। अर्जुन को जब अप्सराओं के यहाँ भेजा गया, तो उसने उन अप्सराओं के चरणों की धूल मस्तक पर लगाकर यह कहा कि आप कुंती के तरीके से हमारी माँ हैं। उसे गाण्डीव मिला था। गाण्डीव कैसा था? बड़ा जबरदस्त था? गान्धारी ने आँखों में पट्टी बाँध ली थी। क्यों बाँध ली थी? बुड्ढे आदमी के साथ हमारा ब्याह हुआ है और हमारी उम्र और अक्ल बहुत खूबसूरत है। हमारा ईमान डाँवाडोल हो सकता है या फिर हम किसी और इन्सान का ईमान डाँवाडोल कर सकते हैं, इसलिए हम आँखों में पट्टी बाँधेंगे। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि सामान्य में असामान्य दर्शन, नारी में शालीनता का दर्शन, नारी में पवित्रता का दर्शन, नारी में मातृशक्ति का दर्शन। यह सारे के सारे दर्शन सेवा का दर्शन, स्नेह का दर्शन हमें युवा गायत्री में करना है।
मित्रो! नारी अपने आप में सारे के सारे उच्चस्तरीय दर्शनों का केन्द्र है। उस नारी को समझना। इसको रमणी मत समझना, इसको भोग्या मत समझना। यदि इसे रमणी और भोग्या समझना शुरू किया तो वह तुमको खा जायेगी, चबा जायेगी। कुछ ऋषियों ने नारी की बड़ी निन्दा की। क्या- क्या कहा? किसी ने उसे डाकिन बताया है। नागिन बताया है। सर्पिणी बताया है, चुड़ैल बताया है और न जाने क्या- क्या कहा है और यह कहा है कि नारी से दूर रहना। तो महाराज जी! अभी तो आप कह रहे थे कि गायत्री माता की पूजा करना। बेटे, मैं तो नारी की बात कह रहा था और यह कह रहा था कि जिस दृष्टि से तू नारी को देखता है, उसका नाम कामिनी है, रमणी है और डाकिन है। डाकिन की नारी को बदल दें और इसमें देवत्व का दर्शन करें और अपनी आँखों से इसमें पवित्रता के दर्शन करें, जो कि सूरदास ने किया था। सूरदास ने अपनी आँखें फोड़ डाली थीं और फिर नयी आँखें बनायी थीं, जिसमें से श्रीकृष्ण भगवान दिखाई पड़ते थे। पहले कौन सी थी, जिसे उन्होंने फोड़ डाली थीं? बेटे, पहले बिल्वमंगल की आँखें थीं, जिसे उन्होंने फोड़ डाली थीं। नहीं साहब! नहीं फोड़ना चाहिए था। बेटे, मेरा मतलब आँख फोड़ने से नहीं है, वरन यह है कि आप अपनी आँखों की उस घृणित दृष्टि को बदल दें जो बिल्वमंगल के पास थीं। हम कौन सी दृष्टि का विकास करें? उस दृष्टि का विकास करें जो बिल्वमंगल ने सूरदास बनकर नयी दृष्टि का विकास किया था। जब नयी दृष्टि का उनने विकास किया था, तब भगवान उनके पास आये थे और साथ- साथ चलते थे।
उपासना अर्थात् व्यक्तित्व का परिष्कार
मित्रो! यह क्या है? यह गायत्री माता का स्वरूप है। मानवता की देवी, उत्कृष्टता की देवी, मनुष्यता की देवी, आदर्शवादिता की देवी, शालीनता की देवी, सिद्धान्तों की देवी- इसका नाम है गायत्री माता। यह क्या लिए हुए है? यह भावना, आदर्श, उत्कृष्टता, पवित्रता, प्रखरता आदि लिए हुए है। गायत्री माता में क्या है? आदर्श है। नहीं साहब! गायत्री माता के पाँच मुख हैं, तीन मुख हैं। एक हाथ में वह गदा लिए हुए है और एक हाथ में चाबुक लिए हुए है और एक हाथ में तलवार है। बेटे बके मत कि एक हाथ में तलवार लिए है, एक में चाबुक है और एक में गदा है। कहाँ लिए है और कहाँ बैठी है? साहब! वहाँ बैठी है- पीपल के पेड़ पर। नीम के पेड़ पर बैठी है, पहाड़ पर बैठी है। बेटे, बेकार की बातें मत कर, बात को समझ जरा। अच्छा तो, महाराज जी! क्या बात है? भाव संवेदना है यह। अगर आपके भीतर भाव संवेदना जागृत हो सकी, तब आप निहाल हो जायेंगे। और जो हमने आपको गायत्री उपासना के लाभ बताये थे, वह सब अपने आप आपको मिलते चले जायेंगे। फिर एक भी लाभ ऐसा नहीं बचेगा, जिसके बारे में आपको शिकायत करनी पड़े कि हमने गायत्री की उपासना की थी, पर कोई लाभ नहीं मिला।
मित्रो! गायत्री की उपासना करने के लिए आपको क्या करना पड़ेगा? इसमें एक ही काम करना पड़ता है और वह है अपने व्यक्तित्व का विकास। नहीं साहब! देवी को प्रसन्न करने के लिए भेंट देना, पाठ करना और उसकी प्रशंसा करनी पड़ती है। बेटे, ऐसा नहीं है। उपासना का मतलब एक ही है कि हम देवताओं के पास बैठ जाएँ और अपने व्यक्तित्व को उनके ढाँचे में ढालते हुए चले जाएँ। बस इतना ही मकसद है। नहीं महाराज जी! यह देवता को रिश्वत देना नहीं है, चापलूसी करना नहीं है और देवता की जेब काटना भी नहीं है। देवता के ऊपर जाल फैलाना भी नहीं है। जबान से उसकी लम्बी- चौड़ी प्रशंसाएँ गाते रहना भी इसका अर्थ नहीं है। उपासना का एक ही अर्थ है कि जिस इष्ट की हम उपासना करते हैं, जिसके निकट बैठते हैं, उसके अनुरूप बनते हुए चले जाते हैं। गायत्री का जो स्वरूप हमने आपको बताया है, उस सद्भावना की देवी के अनुरूप आप बनते हुए चले जायें। आप अपने जीवन को उस स्तर का बनायें।
मित्रो! हमें किस स्तर का अपना जीवन बनाना चाहिए, ताकि गायत्री माता की कृपा पा सकें। यह रहस्य भी गायत्री माता के चित्र में बता दिया गया है। गायत्री माता के चित्र में हमने उनका एक वाहन बना दिया है, जिसका नाम है- हंस। यह हंस क्या है? हंस बेटे एक छोटा सा पक्षी होता है और गायत्री माता उस पर सवारी करती हैं और सवारी करके चाबुक ले के के बैठ जाती हैं और उस पर चाबुक चलाती हैं कि चल जल्दी- जल्दी चल। हंस कितना बड़ा होता है? छोटा सा होता है। और गायत्री माता कितनी बड़ी होती हैं? गायत्री माता बेटे बीस साल की हैं। गुरुजी! बीस साल की गायत्री माता छोटे से हंस पर सवार हो जायेंगी, तो उसका क्या होगा? बेटे वह पिचक जायेगा, उसका कचूमर निकल जायेगा। बेटे अगर तेरे पुट्ठे के नीचे हम एक हंस लगा दें तो? चल हंस नहीं मिलेगा, तो एक कौआ लगा देंगे, कबूतर लगा देंगे, बत्तख लगा देंगे। और कहेंगे कि आ बेटे, बैठ तो सही इसके ऊपर। वह चलेगा कि उसका चिप्पा हो जायेगा? तेरे वजन से बिल्कुल चिप्पा हो जायेगा। अच्छा महाराज जी! गायत्री माता का वजन कितना है? बेटे जितना तू भारी है, उससे कम से कम ढाई गुना ज्यादा वजन गायत्री माता का तो जरूर होगा। और ज्यादा भी हो सकता है। फिर हंस का क्या होगा?
झीनी झीनी रे चदरिया
बेटे, गायत्री माता हंस की सवारी पर ही जाती हैं। वह बहुत जोर से भागता है। फिर तो हम भी हंस पर ही चढ़ेंगे। नहीं भाई साहब! यह तो गलत बात है। फिर क्या चक्कर है? चक्कर कुछ भी नहीं है। हंस क्या होता है? बेटे हंस एक पखेरू होता है। और मनुष्य कौन होता है? मनुष्य राजहंस होता है, परमहंस होता है। परमहंस उसे कहते हैं, जो महामानव होते हैं और राजहंस उसे कहते हैं जो सामान्य जीवन में रहते हुए आदर्शवादी, सिद्धान्तवादी, नेक, शरीफ और उच्चस्तरीय नागरिक होते हैं। उनका नाम है- राजहंस। और उनका नाम है- परमहंस, जिनकी पहचान यह है कि ये रंग से सफेद होते हैं। इनके कपड़े धुले हुए होते हैं। ये धुले हुए कपड़े पहनते हैं। ये कभी भी मैले कपड़े नहीं पहनते। कबीरदास जी के शब्दों में- ‘‘दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया। झीनी झीनी- झीनी रे चदरिया॥’’ उनका जीवन कलंकों से रहित, दोष- अवगुणों से रहित, पापों से रहित होता है। इनकी झीनी- झीनी चादर साफ होती है और वे नीर और क्षीर का विवेक रखते हैं। वे क्षीर अर्थात दूध पीते हैं और पानी को निकाल देते हैं।
अच्छा महाराज जी! राजहंस खाते क्या हैं? बेटे वे मोती खाते हैं, कीड़े नहीं खाते। क्यों साहब! यह राज हंस की खासियत है? हाँ बेटे, यह राजहंस की खासियत है। परन्तु महाराज जी। सामान्य हंस तो कीड़े खाते हैं, पर वह कौन सा हंस है जिसके बारे में आप यह कह रहे थे कि वह पानी नहीं पीता और दूध पीता है। बेटे वे परमहंस और राजहंस होते हैं। वे सामान्य हंस नहीं होते। परमहंस वह इंसान होता है जो नेक होता है। पवित्र इंसान को परमहंस कहते हैं, सज्जन इंसान को, शरीफ इंसान को परमहंस कहते हैं। गायत्री माता ऐसे सज्जनों पर, शरीफों पर, पवित्र लोगों पर सवारी करेंगी। जो लोग मोती खाते हैं, गायत्री माता उन पर सवारी करती हैं। क्या संसार में लोग मोती भी खाते हैं? हाँ बेटे- ‘‘कै हंसा मोती चुगै, कै लंघन मर जाय।’’ भूखों मर जायेंगे, पर हम मोती चुगेंगे। हम पर तंगी आ जायेगी, तो हम बर्दाश्त कर लेंगे। मरने से ज्यादा तो और कोई बात नहीं हो सकती। मरना तो इस तरह भी है और उस तरह भी। नहीं साहब! हम बेईमानी नहीं करेंगे, तो हम पर मुसीबत आ जायेगी। नहीं बेटे, मरना तो पड़ेगा। बेईमानी से भी आप जियेंगे नहीं, मरेंगे ही।
ये कौन हैं? ये सिद्धान्तवादी हंस हैं, जो एक- एक पाई के ऊपर ईमान बनाकर रखते हैं। एक- एक पैसे के ऊपर मरते- फिरते हैं। जहाँ कहीं भी चिकनी मिट्टी देखते हैं, वहीं उनके पैर फिसल जाते हैं। वे वो हंस हैं, जिनको उचित- अनुचित का ज्ञान नहीं है। क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, उचित भी वही, अनुचित भी वही, सही भी वही और गलत भी वही। पाप भी वही और पुण्य भी वही। किसको छोड़ना चाहिए और किसको नहीं छोड़ना चाहिए, यह इन्हें पता ही नहीं चलता। विद्वेष की कोई सीमा नहीं है। इनके लिए कोई मर्यादा भी नहीं है कि हमको क्या करना है और क्या नहीं करना। जो भी होगा, जिससे भी हमारा मतलब सिद्ध होगा, हम तो वही करेंगे। फिर आप हंस नहीं हो सकते। फिर आप कौन हो सकते हैं? फिर आप कौए हो सकते हैं। तो फिर क्या गुरुजी! गायत्री माता हमारे ऊपर सवार होंगी? नहीं आपके ऊपर गायत्री माता सवार नहीं होंगी। एक कौआ आया और बोला- गायत्री माता हम आपको सामान खिलायेंगे। क्या खिलायेंगे? हम आपको प्रसाद खिलायेंगे, लड्डू खिलायेंगे, पेड़ा खिलायेंगे। आप हमारे ऊपर सवार हो जाइये। चल भाग यहाँ से। और गायत्री माता ने उसे भगा दिया और हंस पर सवारी कर ली। कौए तू गायत्री माता के पास जाना भी मत, नहीं तो मारे डंडे के तेरा कचूमर निकाल देंगी।
नहीं साहब! मैं तो अनुष्ठान करूँगा। अनुष्ठान कर ले बेटे, अनुष्ठान करने में कोई हर्ज की बात नहीं है, पर यह हिम्मत करने या जुर्रत करने से पहले गायत्री माता का प्यार, गायत्री माता का अनुग्रह, गायत्री माता का प्रेम, गायत्री माता का वरदान, गायत्री माता का आशीर्वाद जो मिलना चाहिए, उसे लें। पहली आवश्यकता इस बात की है कि आदमी को हंस बनना चाहिए। जब आप हंस बनेंगे, तब गायत्री माता आयेंगी। अगर आप हंस नहीं बनेंगे तो गायत्री माता नहीं आयेंगी। यह क्या है? यह सिद्धान्त है कि हमको भगवान की साधना, गायत्री माता की साधना, गायत्री के चमत्कार की सिद्धि व शक्ति प्राप्त करने के लिए हमको वहीं से शुरू नहीं करनी चाहिए कि गायत्री माता का इतने हजार जप करेंगे और इतनी मिठाई खिलायेंगे। बेटे, यह तो आरती नहीं है, साधना नहीं है, जप नहीं है और आपके इस आरती का, जप का गायत्री माता पर कोई असर नहीं पड़ सकता है। आपके हवन का गायत्री माता क्या करेंगी? नहीं साहब! मेरे हवन से निहाल हो जायेंगी और उनका पेट भर जायेगा। अरे चालाक। गायत्री माता तेरी नीयत को जानती हैं। नहीं साहब! इतना उच्चारण करेंगे, इतना जप करेंगे मंत्र बोलेंगे और हम गायत्री माता को बहका लेंगे। बेटे, आपकी नीयत को गायत्री माता जानती हैं। क्या वह आपकी जीभ को नहीं देखती कि जीभ की नोंक से आपने क्या कहा, कितने पाठ किये? जीभ की नोक से गायत्री माता का ताल्लुक नहीं है। ताल्लुक इस बात का है कि आपकी नीयत में क्या है? आपके ईमान में क्या है? ईमान और नीयत के अलावा गायत्री माता और कुछ नहीं देखतीं।
गायत्री ही कामधेनु है
इसलिए मित्रो! क्या करना पड़ेगा? अपने जीवन का परिष्कार करना पड़ेगा। आपको शायद मालूम नहीं है। मैंने सबसे पहले जो पुस्तक लिखी थी, वह ‘‘गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है’’ के नाम से निकली थी। यह कौन सी पुस्तक थी? बेटे, यह सबसे पहली पुस्तक थी, जो मैंने छापी थी। छापने के तीन महीने बाद उसका छापना बंद हो गया। क्या मतलब था उसका? यह था कि गायत्री कामधेनु है और हर आदमी की हर कामना पूरी कर सकती है। लेकिन यह किसकी करती है? यह ब्राह्मण की मनोकामना पूरी करती है। मैंने यह छापा था, लेकिन जब मैं लोगों से यह कहने लगा कि इसमें ब्राह्मण, बनिये का कोई फर्क नहीं है, कोई भी उपासना कर सकता है, तो लोगों ने मेरी ही किताब का पन्ना फाड़कर मेरे ही पास भेज दिया। कहा कि आपने तो कहा था कि ‘गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है।’ यह ब्राह्मण के लिए योग्य है, फिर बाकी लोग कैसे कर सकते हैं? ठाकुर कैसे करेंगे? कायस्थ कैसे करेंगे? धत्त तेरे की- मैंने कहा कि मेरा किया मेरे लिए ही उल्टा पड़ गया। मैंने किताब का नाम छापना बंद कर दिया। जब दूसरा संस्करण छपाया तो उस पर ‘‘गायत्री ही कामधेनु है’’- यह नाम रख दिया। ब्राह्मण शब्द काट दिया, क्योंकि उससे भ्रम फैलता था। लोग यह समझते थे कि यह ब्राह्मण के लिए है। ब्राह्मण माने बामन। बामन कौन होता है? बामन होता है- पचास एक एक्यावन, पचास दो बामन, पचास तीन तिरपन, पचास चार चौवन। ये बामन अलग होते हैं जो वंश के हिसाब से पैदा होते हैं। ‘बामन’ एक वंश है और ब्राह्मण एक वर्ग है। वंश और वर्ग का फर्क समझना चाहिए।
मित्रो! मेरा मकसद था कि यह गायत्री कामधेनु तो है, लेकिन ब्राह्मण वर्ग के लिए है। लेकिन लोगों ने इसका अर्थ निकाल लिया कि गायत्री ब्राह्मण वंश के लिए है। बेटे यह वंश के लिए नहीं है, वर्ग के लिए है। इसीलिए हमने इस पुस्तक को बहुत दिनों तक छापना बंद कर दिया और लोगों से यह कहता रहा कि यह सबकी है। कल भी मैं यही कह रहा था कि इसमें मनुष्य मात्र का अधिकार है। इसमें वामन, बनिये का कोई चक्कर नहीं पड़ता है। हिन्दू, मुसलमान का भी कोई चक्कर नहीं पड़ेगा। संसार सबके लिए बनाया गया है। गायत्री सबके लिए बनायी गयी है और यह सबके लिए फायदेमन्द है। कल भी मैं यही कह रहा था और आज भी यही बात कह रहा हूँ।
मित्रो! क्या कह रहा हूँ? यही कि इसका अधिकार सबको है। अगर आपको इसका चमत्कार प्राप्त करना हो, गायत्री की सिद्धि प्राप्त करनी हो, गायत्री का अनुग्रह प्राप्त करना हो, तो आप एक बात का ध्यान रखना। क्या बात ध्यान रखें? आपको ब्राह्मण बनना पड़ेगा। यह ब्राह्मण की कामधेनु है? बिल्कुल बेटे, यह ब्राह्मण की है। ब्राह्मण के अलावा? ब्राह्मण के अलावा किसी की भी नहीं है। ब्राह्मण के अलावा इस पर अधिकार तो सबको है, पर इसका अनुग्रह नहीं पा सकता है। कोई नहीं पा सकता है। गायत्री का अनुग्रह कौन पायेगा? अनुग्रह पायेगा- ब्राह्मण। कल मैं एक श्लोक बोल रहा था, जिसमें सात बातें बता रहा था। क्या बता रहा था? यही कि- ‘‘आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् मह्यम् दत्वा ब्रजत ब्रह्मलोकम्।’’ इसका मतलब क्या है? यह जिह्वा को पवित्र करती है। इसका वर्णन ब्राह्मणत्व के लिए आया है। सावित्री और सत्यवान की कथा में जिस तरह बताया गया है कि सावित्री अर्थात् गायत्री ने सत्यवान को वरण किया था। सत्यवान के गले में माला पहनाई थी। गायत्री माता की जयमाला, गायत्री माता की वरमाला अभी भी सुरक्षित है और आप उसको पहन सकते हैं। शर्त यही है कि आपको
सत्यवान होना चाहिए।
गायत्री या सावित्री झूठवान को माला पहनाएँगी? नहीं भाई साहब। आप झूठवान हैं, हम आपको माला नहीं पहनाएँगे। आप हमारे साथ चलिए और हमारी सहायता कीजिए। गायत्री आपकी सहायता नहीं करेगी, क्योंकि आप झूठवान हैं। अगर आप सत्यवान होंगे, तो एक बार क्या, प्रत्येक बार माला पहनाएँगे। सावित्री और सत्यवान की कथा तो आपने पढ़ी ही है कि उन्होंने मरे हुए को जिंदा कर दिया था। गायत्री माता, मरे हुए को जिंदा कर सकती हैं? हाँ बेटे, मरे हुए को जिंदा कर सकती हैं। मरे हुए कैसे होते हैं? जैसे हम और आप हैं। नहीं साहब! गुरुजी आप मरे हुए हो सकते हैं, हम तो जिंदा में से हैं। हम कैसे मानें कि आप जिंदा हैं, सबूत बताइये। महाराज जी! सबूत तो यह है कि नाक में से हवा चलती है। हाँ ठीक है। हम रोटी खाते हैं और टट्टी कर देते हैं। बेटे, जिंदा होने का बस यही सबूत है, तो मैं पूछता हूँ कि लोहार की जो धौंकनी होती है उसमें से हवा निकलती है। नाक में से भी हवा बाहर निकलती रहती है। लोहार की धौंकनी जिंदा है कि मरी हुई है। महाराज जी। मरी हुई है और आपके नाक में से हवा निकलती है, तो आप जिंदा हैं कि मरे हुए हैं? साहब हम तो जिंदा हैं। रोटी खाते हैं और टट्टी करते हैं।
अच्छा देख, आटा पीसने की चक्की होती है। उसमें ऊपर से गेहूँ डालते हैं और नीचे से वह पाखाना करती है। बता, चक्की मरी हुई है या जिंदा है? महाराज जी! चक्की तो मरी हुई है। और तू मरा हुआ है कि जिन्दा है? नहीं महाराज जी! अभी तो हम जिंदा हैं। नहीं बेटे, तू मरा हुआ है और मरे हुए इंसान सड़े हुए इंसान होते हैं। मूर्च्छित इंसान होते हैं। परावलम्बी इंसान होते हैं। मुर्दा पड़ा हुआ है। क्यों साहब! मुर्दे जी! चलिए, जरा टहल- टहलाकर आयें। अभी हम नहीं चल सकते। क्यों? आप अपने आप भी चलें और हमें भी अपने कंधे पर बिठाकर चलें। नहीं साहब! हम यह नहीं कर सकते हैं, क्योंकि अब हम मरे हुए हैं। परावलम्बी हैं, दूसरों पर आश्रित हैं। दूसरों से अपेक्षा करने वाले हैं। दूसरों से सहायता कराने वाले हैं। जीवित आदमी अपनी समस्याओं का आप ही हल निकालता है और दूसरों को अपने कंधों पर बिठा कर ले चलता है। वे जीवित आदमी हैं।
गायत्री का वास्तविक स्वरूप
मित्रो! मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप जीवन देने वाली जीवित गायत्री माता से ताल्लुक रखिए, मरी हुई से नहीं। जीवंत गायत्री माता की शक्ल मैंने आपको बतायी और यह बताया कि गायत्री का वास्तविक स्वरूप क्या है? मैं समझता हूँ कि यह स्वरूप आपकी समझ में आ गया होगा। अगर आप गायत्री का वास्तविक लाभ उठाना चाहते हैं, तो इससे कम में भी नहीं मिल सकता और इससे ज्यादा भी करने की कुछ आवश्यकता नहीं। पहले आप गायत्री का वास्तविक स्वरूप समझिए और स्वरूप समझने के पश्चात् ऐसी भक्ति करना शुरू करें जैसी अपेक्षित है। अपेक्षित क्या है? बाजीगर अपना तमाशा तब दिखा पाता है, जब कठपुतली अपने धागे को बाजीगर के हाथ में बाँध देती है। गायत्री माता भी आपको चमत्कार तब दिखा सकेंगी, जब आप अपने जीवन के धागे को उनके हाथ में बाँध देंगे। अर्थात् उनकी प्रेरणा, उनकी शिक्षायें, उनका मार्गदर्शन ग्रहण करने और स्वीकार करने के लिए आप तैयार हो जाइये। भक्त उसी का नाम है जो सरेण्डर करता है। भक्त उसका नाम है, जो कहना मानता है। भक्त उसका नाम है, जो पीछे- पीछे चलता है। उसका नाम भक्त नहीं है जो आगे- आगे चलता है और अपने भगवान को अपने पीछे चलाना चाहता है। उसका नाम भी भक्त नहीं है, उसका नाम है- बॉस। आपका नाम है- बॉस और हनुमान का नाम है- भक्त।
नहीं महाराज जी! हनुमान तो देवता हैं और हम उनके भक्त हैं। नहीं बेटे, आप भगत नहीं हैं। हनुमान आपके भगत हैं और आप मालिक हैं। आप उनके देवता हैं। नहीं साहब! ऐसा कैसे हो सकता है? बेटे, ऐसा ही है। आपने जो सलूक बना रखा है कि हनुमान को हमारी मर्जी पर चलना चाहिए और हमारा कहना मानना चाहिए, हमारी इच्छाओं को पूरा करना चाहिए और हमारी आवश्यकताओं के लिए अपने पुण्य तक को छोड़ देना चाहिए। इसका मतलब सौ फीसदी यही है कि आप बॉस हैं और हनुमान हैं आपके वेटर। वेटर कौन होता है? वेटर उसे कहते हैं जो होटलों में चाय लाता रहता है। ऐ वेटर! हाँ साहब! क्या लाना है? कॉफी लाओ। अच्छा जी! अभी लाया। आमलेट और ला? अभी लाया। जल्दी- जल्दी लाने का उसे क्या मिलेगा? आपने एक रुपये का जो सामान खरीदा है, उसमें से जो बीस पैसे बचे, जब बैरा बिल लावे तो उस बीस पैसे को उसे दे दीजिए। यह क्या कहलायेगा? यह कहलायेगा- टिप। तो आप हनुमान जी को क्या देना चाहते हैं? टिप। टिप में क्या देंगे? लड्डू। चल, धूर्त कहीं का, हनुमान जी को हनुमान जी को लड्डू देना चाहता है। हनुमान जी को लड्डू खिलायेगा और उन्हें उल्लू बनायेगा। हाँ साहब। मैं तो लड्डू खिलाकर उल्लू बनाना चाहता था। बेवकूफ कहीं का, देवताओं के साथ मखौल बंद कर। देवताओं को बदनाम करना बंद कर। देवताओं की इज्जत गिराना बंद कर। अपनी इज्जत गिरा, पर देवताओं की मत गिरा। देवताओं की इज्जत का ख्याल रख। भक्ति न करना हो तो मत कर, पर देवताओं की इज्जत तो मत गिरा।
मित्रो! इसके लिए आपको क्या करना पड़ेगा? आपको अपने चिंतन को दूसरे रूप में बदल देना पड़ेगा। तब क्या करना पड़ेगा? गायत्री की प्रेरणाओं, गायत्री की शिक्षाओं का अनुकरण करना पड़ेगा, अनुसरण करना पड़ेगा। अनुकरण और अनुसरण करने के लिए गायत्री के चौबीस अक्षर जो हैं। इन्हीं अक्षरों में सारी की सारी प्रेरणाओं एवं शिक्षायें भर दी गयी हैं। आपको क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? भक्ति के लिए आपको अपने जीवन में किन सिद्धान्तों का समावेश करना चाहिए? गायत्री के अक्षरों में- उनकी स्वयं की संरचना में ये सारी की सारी शिक्षायें भरी हुई हैं। इनका आप अपने जीवन में अनुकरण करना चाहते हों, तो आपको सिद्धियाँ मिल सकती हैं और आप गायत्री के असली भक्त बन सकते हैं। गायत्री के असली भक्तों में से जिन- जिनने जो लाभ उठाये हैं, उनका जिक्र मैंने पहले भी किया था, आज फिर से आपसे कहता हूँ कि वह लाभ आपके लिए भी सुरक्षित हैं। गायत्री की सिद्धियाँ सुरक्षित हैं। गायत्री के लाभ सुरक्षित हैं। गायत्री का अनुष्ठान सुरक्षित है। कल जैसे मैंने आपको बताया था, वह आपके लिए सुरक्षित है। शर्त यही है कि गायत्री माता जो चाहती हैं, जो कहना चाहती हैं, उसको आप सुनें और समझें।
गायत्री मंत्र का निहितार्थ
मित्रो! गायत्री माता क्या कहना चाहती हैं? गायत्री के चौबीस अक्षरों की व्याख्या तो मैं नहीं करना चाहता, क्योंकि गायत्री के चौबीस अक्षरों में से एक- एक अक्षर की व्याख्या करने के लिए चौबीस दिन चाहिए। इसमें मनुष्य की बौद्धिक, नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक- प्रत्येक समस्याओं का समाधान है। गायत्री एक बीजमंत्र है, जिसमें मनुष्य के मार्गदर्शन व उसके जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान है। महाराज जी! आप और क्या कहना चाहते थे? बेटे, मैं यह कहना चाहता था कि गायत्री के जो अक्षर हैं, उनके इतने छोटे से अर्थों को समझ लें, तो आपका भी काम चल सकता है। चलिए गायत्री का सबसे स्थूल अर्थ, मोटे से मोटा अर्थ आपको मैं बताता हूँ। गायत्री का यह अर्थ है- गायत्री में एक ‘ओऽम’, तीन व्याहृतियाँ और छोटे- छोटे नौ शब्द हैं। नौ शब्दों में क्या है? चार शब्दों में भगवान के चार नाम हैं। भगवान के चार नाम ही ऐसे हैं जिनको हम अपने जीवन में धारण कर लें तो पर्याप्त है। क्या- क्या हैं- जरा बताइये? अच्छा लीजिए, गायत्री का संक्षिप्त अर्थ बताता हूँ।
मित्रो! लम्बे अर्थ जानना हो तो ‘‘गायत्री मंत्रार्थ’’ नाम की हमारी पुस्तक पढ़िए, लेकिन अभी तो मैं आपको गायत्री का संक्षिप्त अर्थ बताता हूँ। ‘‘ॐ भूर्भुवः स्वः’’ का अर्थ है- हे भगवान! आप सबमें समाये हुए हैं। ईश्वर सबमें समाया हुआ है। सबमें समाया हुआ है, तो हम क्या करें? बेटे, आपका काम यह है कि उसके बारे में आस्तिकता के जो सिद्धान्त हैं, उनको आप स्वीकार कर लें। क्या स्वीकार कर लें? दुनिया में कोई जगह ऐसी नहीं है, जहाँ छिप करके आप बुरा काम कर सकते हैं। छिपकर बुरा काम करने के लिए कोई जगह नहीं है।
‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ में- ॐ माने भगवान, ‘भूर्भुवः स्वः’ माने सारे के सारे तीनों लोकों में- भूलोक में, द्यौ लोक में, स्वर्ग लोक में- तीनों लोकों में समाया हुआ है। भगवान सर्वव्यापी है। और क्या है? भगवान न्यायकारी है। भगवान को क्या पसंद है? उसके सारे के सारे कायदे- कानून एक बात पर टिके हुए हैं और उसका नाम है- न्याय। खुशामद पर टिके हुए नहीं हैं, वरन् न्याय पर टिके हुए हैं। बिजली खुशामद पर टिकी हुई नहीं है। नहीं साहब! इसकी प्रार्थना करेंगे, तो पंखा चला देगी। नहीं बेटे, पंखा नहीं चलाएगी। कैसे चलाएगी? स्विच ऑन करना पड़ेगा, तब आपका पंखा चलेगा। गलत इस्तेमाल करेंगे, तो यह आपको मार डालेगी। क्यों साहब! यह क्या बात है? बात यह है कि यह कहती है कि जो उचित तरीका है, उससे आप हमको इस्तेमाल कीजिए।
आस्तिकता का सिद्धान्त
मित्रो! भगवान के अपने कायदे- कानून हैं। उनका आप ठीक से इस्तेमाल कीजिए, तो भगवान आपकी मदद करेंगे। तब आपको भगवान की कृपा मिलेगी। अगर आप भगवान की मर्यादाओं का उल्लंघन करेंगे, तो भगवान आपको मार डालेगा। नहीं साहब! भगवान दीनबन्धु हैं, दयालु हैं। नहीं बेटे, उसका एक नाम दीनबन्धु है, तो एक नाम रुद्र भी है। रुद्र किसे कहते हैं? भयंकर को रुद्र कहते हैं। भयंकर किसे कहते हैं? जल्लाद को। जल्लाद किसे कहते हैं? जल्लाद उसे कहते हैं जो मारे हंटरों के चमड़ी उघाड़ डालता है। ऐसा भी है भगवान? हाँ बेटे, ऐसा भी भगवान है। गुरुजी! मैं तो सोच रहा था कि भगवान दयालु है। बेटे, आपका दयालु भी समझना सही है, परन्तु हमारा यह कहना भी सही है क भगवान के बराबर मार लगाने वाला, हंटर बजाने वाला भी कोई नहीं है। मरघटों में जाइये, अस्पतालों में जाइये, पागलखाने में जाइये और देख करके आइए कि भगवान के हंटर कितने जबरदस्त होते हैं। वह कैसे खाल- चमड़ी उखाड़ देता है। भगवान ऐसा है? हाँ भगवान ऐसा है।
इसलिए अगर दो बातें आपके ध्यान में बनी रहें कि भगवान हर एक के भीतर जमा हुआ है, इसलिए हर एक के साथ में आपको सद्व्यवहार करना चाहिए। वह कहीं छिपा हुआ है और हम उससे बच सकते हैं, यह बात हमें अपने मन से निकाल देना चाहिए और भगवान के न्याय पर विश्वास रखना चाहिए। यह विश्वास रखना चाहिए कि भगवान को प्रसन्न करने का दुनिया में एक ही तरीका है कि भगवान की आज्ञा को अपने जीवन में धारण करें। और भगवान ने जिन बातों के लिए निषेध किया है, उन बातों से बचें। यह क्या है? यह आस्तिकता का पूरा सिद्धान्त है। इसमें कर्मफल की छवि पूरी तरीके से आ रही है।
‘‘ॐ भूर्भुवः स्वः’’- इन शब्दों को आप समझ लें, तो क्या होगा? तो आपको ब्रह्मज्ञान हो जायेगा। यह क्या है? यह ब्रह्मविद्या है। ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ ब्रह्मविद्या है। नहीं गुरुजी! उपनिषद् बताइये। बेटे, बस इतनी ही है ब्रह्मविद्या। यही उपनिषद् में है कि भगवान सर्वव्यापी है। उससे छिप करके आप कोई काम नहीं कर सकते। वह सबमें समाया हुआ है, इसलिए आपको सबके साथ में शराफत और सज्जनता का व्यवहार करना चाहिए और आपकी दृष्टि में यह बात बनी रहनी चाहिए कि हम उसकी मार से बच नहीं सकते। उसके कायदे को मान लेंगे तो उसकी दया के अधिकारी बनेंगे। बेकायदे चलेंगे, तो उसकी पिटाई से बच नहीं सकते। चाहे आप ग्यारह माला जप करें या ढाई माला जप करें। चाहे आप न करें, चाहे गालियाँ दें, लेकिन उसके इंसाफ से आप बच नहीं सकते।
मित्रो! यह क्या है? यह हमारा पूरे का पूरा आस्तिकता का सिद्धान्त है। अगर गायत्री मंत्र का यह पहला वाला पाठ आप सीख पायें, जिसको हम ‘ब्रह्मशीर्ष’ कहते हैं, तो मैं यह कहता हूँ कि आपने गायत्री की ब्रह्मविद्या को जान लिया। बस इतनी ही ब्रह्मविद्या है कि ईश्वर सर्वव्यापी है, अतः आप सबके साथ समानता का व्यवहार कीजिए। छिप करके अपनी जान बचाने की कोशिश मत कीजिए। उसके आज्ञानुसार चलिए और उसकी कृपा पाइये। उसकी आज्ञा का उल्लंघन मत कीजिए। उसके दंड से बचिए। इससे आप ब्रह्मविद्या के अधिकारी बन जाते हैं और आप गायत्री माता के भक्त कहलाने के अधिकारी हो जाते हैं।
भगवान के चार चरण
चलिए, इससे आगे चलिए। इससे आगे पहला वाला चरण है- ‘तत्’। यह क्या बात है? बेटे, यह मैं वही बात कह रहा था, जो कि तीसरी आँख का जिक्र आता है। तीसरी आँख वह है, जिसे ‘‘तत्’’ कहते हैं। ‘तत्’ माने वह। ‘वह’ से क्या मतलब है? ‘यह’ और ‘वह’ दो शब्द हैं। ‘यह’ जो है- प्रत्यक्ष है और ‘वह’ जो है- परोक्ष है। परोक्ष माने मरणोत्तर जीवन, मौत का जीवन, बुढ़ापे का जीवन, भावी जीवन, जो हमको दिखाई नहीं पड़ता। जो आपको दिखाई पड़ता है, उसका नाम है- ‘यह’। और जो दिखाई नहीं पड़ता है, उसका नाम है- ‘तत्’। ‘तत्’ माने दूर की चीज। ‘तत्’ शब्द से मतलब यह है कि आप प्रत्यक्ष समस्या को मत देखिए, दूर वाली समस्या को देखिए। परोक्ष को भी समझिए। मनुष्य को भी समझिए, जीवन के उद्देश्य को भी समझिए। गायत्री मंत्र के इस शब्द का यही इशारा है कि ‘तत्’- वह देखिए, वह देखिए। यह पहला वाला चरण है।
गायत्री मंत्र का अगला क्रम पंचाक्षरी के बाद ‘तत्’ के बाद शुरू होता है। इसमें फिर चार शब्द आते हैं। भगवान के चार चरण हैं, जिसमें चार वेदों का सार है। गायत्री के चार बेटे हैं, जिनको हम चार वेद कहते हैं और चार वेदों को चार शब्दों में, भगवान को चार शब्दों में सारे का सारा बता दिया गया है कि भगवान इतना ही है। भगवान के इन चार नामों में सब बातें आ जाती हैं। कौन- कौन सी?- ‘सवितु’, ‘वरेण्यं’- दो, ‘भर्गो’- तीन, ‘देवस्य’- चार। चार वेदों के चार सार हैं। यही वेदों के चार बेटे हैं। ‘सविता’ कहते हैं- सूर्य को। सूर्य से क्या मतलब है? सूर्य से दो मतलब है। क्या? रोशनी- एक, गर्मी- दो। भगवान का यह वह नाम है जो हमको रोशनी वाला बनने के लिए और गर्मी वाला बनने के लिए प्रेरणा देता है। सूरज गरम रहता है। सूरज प्रकाश देता है। यह दो गुण उसके अंदर हैं। सविता सूर्य को कहते हैं और हमारे भीतर उसकी यह दो विशेषताएँ होनी चाहिए। हमें गरम रहना चाहिए। गरम माने सक्रिय, क्रियाशील, कर्मठ होना चाहिए। गर्मी का अर्थ यहाँ क्रियाशीलता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और सक्रियता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। हमको हर समय क्रियाशील रहना चाहिए। हमको आलसी नहीं होना चाहिए। हमको गरम रहना चाहिए। सविता का अर्थ यह हुआ।
मित्रो! सविता का एक अर्थ और होता है- तेजस्वी। तेजस्वी माने प्रकाशवान। हमारा जीवन प्रकाशवान होना चाहिए, चमकपूर्ण होना चाहिए। अन्धकारमय जीवन नहीं होना चाहिए। दीपक जैसा होना चाहिए, ताकि हम अपने आप भी प्रकाशवान रह सकें और हम जहाँ कहीं भी रहें, उस सारे के सारे इलाके में प्रकाश पैदा कर सकें। रात के अंधियारे में रहें, तो भी हम सूर्य के तरीके से सूर्य न बन सकें, चाँद की तरह से चाँदनी न बन सकें, तो कम से कम छोटे से सितारे की तरह से रहें। ऐसे सितारे की तरह से रहें, जिससे हमारी जिंदगी से दूसरे लोग नसीहत ग्रहण कर सकें। और हम अपनी जिंदगी भर टिमटिमाते रहें छोटे से तारे की तरह। और हमारे स्कूलों के छोटे बच्चे जब हमको देखें तो यही कहें- ‘‘थैंक यू फॉर योर टाइनी स्पार्क, अप एबोव द वर्ल्ड सो हाई, लाइक ए डायमण्ड इन द स्काई, हाउ आई वंडर ह्वाट यू आर.........।’’ जब छोटे- छोटे से सितारे सारे अम्बर पर छा जाते हैं और अंधेरे में कोई भी रास्ता दिखाने वाला नहीं होता, तो आपको छोटी सी चिनगारी राह दिखायेगी।
मित्रो! छोटा सा दीपक हमको रास्ता दिखा सकता है। हम छोटे हों तो क्या? छोटी सी चिन्गारी हैं तो क्या? छोटे से सितारे के समान हैं तो क्या? हमारा यह प्रकाश विश्व को रास्ता दिखाने के लिए काफी है। लोग हमारे पास आकर कहें कि हमारा बाप ऐसे जिया था, तो हम भी ऐसे ही जियेंगे। और हमारे भाई ऐसे जिये थे, तो हम भी ऐसे ही जिंदगी जियेंगे। यह क्या है? यह है सक्रियता, क्रियाशीलता, कर्मठता। अस्सी वर्ष का हो गया तो क्या हुआ? गाँधी जी अस्सी वर्ष के थे। जवाहर लाल नेहरू मरे थे, तब वह अस्सी वर्ष के थे और सक्रिय थे। बुड्ढा कहलाना आदमी के लिए शर्म की बात है और सक्रिय रहते हुए मर जाना आदमी के लिए इज्जत की बात है। बुड्ढे से क्या मतलब है? बुड्ढे से मतलब है- जिसकी भुजा आयु के साथ बुड्ढी हो गयी है, शरीर कमजोर हो गया है। अब हम जो काम करेंगे दूसरे ढंग से करेंगे और अगर शरीर जवान है तो हम शरीर के अनुसार काम करेंगे। बुड्ढे हो गये तो क्या हुआ, हम दूसरे ढंग से काम करेंगे और जरूर करेंगे।
करें श्रेष्ठता का वरण
मित्रो! जो आदमी निष्क्रिय है, मानना चाहिए कि उसने गायत्री माता के रहस्य और सविता शब्द का अर्थ समझना बंद कर दिया है। ‘सवितुः’ पहला शब्द है और ‘वरेण्यं’ दूसरा है। ‘वरेण्यं’ किसे कहते हैं? ‘वरेण्यं’ कहते हैं चुनाव को, वरण करने को। दो में से एक को चुन लिया। इस दुनिया में सब चीजें मिली- जुली हुई हैं। सत्य और असत्य मिला हुआ है। झूठ और सच मिला हुआ है। ईमानदारी और बेईमानी मिली हुई है। जहाँ कहीं भी आप जायें, सब जगह घपला किया हुआ है, घपला फैला हुआ है। दुनिया में जो ‘वरेण्यं’ है, श्रेष्ठ है, उसको आप चुन लीजिए। ‘वरेण्यं’ शब्द दो अर्थों में आता है। एक तो आता है- श्रेष्ठ के अर्थ में और दूसरा आता है- चुनने के अर्थ में। आप श्रेष्ठ को चुन लीजिए, क्योंकि इस समाज में सब मिले हुए हैं। इसमें हमारे जान- पहचान वाले भी सम्मिलित हैं। बुरे से बुरे आदमी मिले हुए हैं और अच्छे से अच्छे आदमी भी मिले हुए हैं। तो क्या करें। सभी से दोस्ती निभायें? नहीं, सबसे दोस्ती नहीं निभायें। इसमें जो वरेण्य हैं, उनको हम अपना बना लेंगे और जो वरेण्य नहीं है, उसको हम भगा देंगे। खाने- पीन की चीजें सामने आती है, तो थाली में से जो वरेण्य है, उसको हम स्वीकार कर लेंगे और जो वरेण्य नहीं है, उसको भगा देंगे।
मित्रो! जीवन के प्रत्येक चरण पर जब हम कसौटी लगा कर रहेंगे, तो हम उसको स्वीकार करेंगे जो चीज खरी है और जो खोटी है उसको फेंक देंगे। नहीं साहब! सबको मिलाइये। नहीं बेटे, सबको नहीं मिला सकते। जो खरी हैं उनको स्वीकार करेंगे और जो खोटी हैं उनको हटा देंगे। खरी और खोटी की पहचान, क्या उचित है और क्या अनुचित की पहचान, ग्रहण करने और ग्रहण न करने की पहचान यदि हमारे भीतर आ जाती है, तो समझना चाहिए कि हमने ‘वरेण्यं’ का अर्थ समझ लिया। जो श्रेष्ठ है, उसी को हम स्वीकार करेंगे और खराब को नहीं करेंगे। अनिष्टकारक वस्तु को स्वीकार नहीं करेंगे, यदि यह हिम्मत हमारे भीतर पैदा हो जाती है, तो समझिए कि आपने ‘वरेण्यं’ का मर्म समझ लिया।
इस तरह गायत्री माता का, भगवान का, ऋग्वेद का दूसरा वाला चरण- ‘वरेण्यं’ का रहस्य समझ लिया। अब अगला चरण आता है- ‘भर्गो’ का। ‘भर्गो’ क्या है? संस्कृत के हिसाब से ‘भर्गो’ शब्द के बहुत से अर्थ होते हैं, पर मैं आपको एक छोटा सा अर्थ बता सकता हूँ। वह क्या है? ‘भर्गो’ कहते हैं- भून डालने को। भाड़ में जब चने भुनते हैं, तो भर्र- भर्र की आवाज होती है न? हाँ साहब! होती है। बस समझ लीजिए कि ‘भर्गो’ का अर्थ यही है। अरे महाराज जी! इसका तो संस्कृत में अर्थ नहीं हुआ। बेटे संस्कृत में अर्थ समझाना मुश्किल है। यह समझाने में मुझे बहुत देर लग जायेगी। इसलिए ‘भर्गो’ का संस्कृत अर्थ मत समझिये। बस इतना जान लीजिए कि ‘भर्ग’ का अर्थ है- भून डालना। यह क्या बात हुई? बेटे, जीवन का एक पहलू यह भी है। यह क्या है? यह वह पहलू है कि सारे के सारे जीवन में जहाँ सद्वांछनीयता एक ओर है, वहाँ अवांछनीयता दूसरी ओर है। हमारे ऊपर अवांछनीयता का भी हमला होता है। सदाशयता का हमको पालन करना चाहिए, संवर्धन करना चाहिए, वहीं दुराचरण को उखाड़ फेंकना चाहिए। सबसे साथ में हम प्यार नहीं कर सकते। अगर सबके साथ प्यार करेंगे तो डॉक्टर जैसा प्यार करेंगे।
सत् का संवर्धन एवं असत् का निराकरण
डॉक्टर मरीज को प्यार करता है, प्रेम करता है। कैसे प्यार करता है? भाई साहब! हम आपको बहुत प्यार करते हैं। तो कल क्या करेंगे? कल हम आपका मेजर ऑपरेशन करेंगे। क्या ऑपरेशन करेंगे? आपके पेट को फाड़ेंगे और देखेंगे कि इसमें जो गोला है उसे कैसे बाहर निकालें। डॉक्टर साहब! यह आप क्या करते हैं? देखिये आप सवाल लेकर आ गये। हाँ भाई साहब! हम आपको बहुत प्यार करते हैं। हम आपकी बीबी- बच्चों की रक्षा करना चाहते हैं, आपको स्वस्थ देखना चाहते हैं, इसलिए आपका ऑपरेशन करेंगे।
मित्रो! इस दुनिया में जो दो बातें हैं, उनमें से एक का संवर्धन करना चाहिए और एक का समापन करना चाहिए। उससे संघर्ष करना चाहिए। भगवान के जब अवतार होते हैं, तो दो उद्देश्यों को लेकर के होते हैं- ‘‘धर्मसंस्थापनार्थाय, विनाशाय च दुष्कृताम्।’’ वे अच्छों का संवर्धन करते हैं और बुरों को लातों से मारते हैं। नहीं साहब! बुरों का भी संवर्धन कीजिए, पालन- पोषण कीजिए और अच्छों का भी कीजिए। नहीं साहब! ऐसा नहीं हो सकता। बुरों का पालन नहीं हो सकता। बुरों से लोहा ही लेना पड़ेगा। उनसे लड़ना ही पड़ेगा। अब बताइये- शास्त्र भी कहता है कि आगे- आगे वेद, ज्ञान, शराफत और पीछे- पीछे जूता। नहीं, सबके साथ में शराफत दिखाइये, मित्रता दिखाइये। नहीं, बेटे, जानवर के साथ में मित्रता नहीं दिखा सकते। जानवर को वेद नहीं सिखा सकते। जानवर- जानवर होता है। जानवर को रास्ते पर लाने के लिए एक ही रास्ता है और उसका नाम है- जूता। और कोई शिक्षा मानता है वह? नहीं, और कोई चीज उसकी समझ में नहीं आती।
फिर क्या करना पड़ेगा? मित्रो! आध्यात्मिकता में दोनों ही नीतियों का पूरा- पूरा समन्वय है। यह नहीं कि सबके साथ सहायता कीजिए, सबको दान दीजिए। ऐसा नहीं हो सकता। दुराचारी और अनाचारी के लिए क्या अस्त्र है। एक आँख सुधार की और एक आँख प्यार की। अगर आप यह नहीं रखेंगे तो आपके बच्चों का सत्यानाश हो जायेगा। नहीं साहब! हम सब बच्चों से प्यार करेंगे। नहीं, सब बच्चों से प्यार नहीं हो सकता। अगर आपने सुधार की आँख नहीं रखी, तो आपके बच्चे आपकी शान पर दाग लगाकर जायेंगे और उन बच्चों का सत्यानाश हो जायेगा। नहीं साहब! हम सबको प्यार करते हैं और हमेशा प्यार ही जानते हैं। नहीं बेटे, तुझे प्यार करना नहीं आता। तू प्यार भी कर, दुलार भी कर और टेढ़ी आँख भी रख। दबाव भी डालना सीख। नहीं साहब! दबाव नहीं डालूँगा और मैं तो सहायता ही करूँगा। तो बेटे, फिर तू मरेगा, फिर हमसे क्यों कहता है कि बच्चा बिगड़ रहा है। बेटे, यह दूसरा वेद है। इसको हम अथर्ववेद कहते हैं।
मित्रो! अभी हमने आपको ऋग्वेद बताया, यजुर्वेद बताया और यह अथर्ववेद बता चुके हैं। चौथा है- सामवेद, जिसका नाम है- ‘देवस्य’। ‘देवस्य’ आपको दिव्य बनाता है, देवत्व से सम्पन्न बनाता है। दैवी सम्पदाओं से सम्पन्न बनाता है। गीता में दिव्य विभूतियों एवं दैवी संपदाओं का वर्णन किया गया है। आपकी भक्ति और देवत्व के गुण में वह सब कुछ है, जो आप हर एक को दे सकते हैं। आपके पास पैसे नहीं हैं, तो न सही, हम प्यार देंगे। सलाह देंगे, सहयोग देंगे, प्रोत्साहन देंगे। हमारे पास में हजारों चीजें हैं। हमारे पास वाणी है। वाणी भी क्या नहीं कर सकती है? यह पैसे से भी ज्यादा लाभदायक होती है। ऋषियों के पास वाणी थी। ज्ञान भी हो सकता है, तप भी हो सकता है, सहयोग भी हो सकता है। प्रोत्साहन भी हो सकता है, मार्गदर्शन भी हो सकता है। पैसा ही एक मात्र चीज नहीं है। यह देवत्व के लिए आवश्यक नहीं है कि आप संपन्न आदमी हों। बिना सम्पन्नता के भी अपने स्वेद की- पसीने की बूँदें भी सेवा कार्य के लिए दे सकते हैं। आपकी पसीने की बूँदें भी हीरे- मोती के बराबर हो सकती हैं। पैसा नहीं है तो न सही, दान के लिए पैसा नहीं है, तो न सही, गरीब व्यक्ति भी दानी हो सकता है।
इसलिए मित्रो! मनुष्य को ‘देवस्य’, दिव्य, देने वाला होना चाहिए। चार वेदों की शिक्षा में हम सामवेदी बनें। चारों के चारों वेद भगवान के नाम हैं। इनसे हम सीख लें कि गायत्री माता क्या कहना चाहती हैं? गायत्री माता का क्या शिक्षण है? गायत्री माता क्या चाहती हैं? गायत्री का हंस कैसा होना चाहिए? ये चारों सिद्धान्त मिले हुए हैं। गायत्री माता में और क्या रह गया? बेटे थोड़े से शब्द और रह गये हैं। इसमें क्या रह गया है? ‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि’ में एक शब्द ‘धीमहि’ माने धारण करने को कहते हैं। अभी जो आपसे कहा गया है, वह कहने और सुनने के लिए नहीं कहा गया है। कहने और सुनने की जरूरत तो वहाँ होती है, जहाँ भागवत् कथा कही और सुनी जाती है। क्या हो रहा है? अरे साहब। भागवत् कही जा रही है। पंडित जी कह रहे हैं और चेला जी सुन रहे हैं। पंडित जी कह रहे हैं कि क्यों साहब! यही तो अर्थ होता है न इस कथा का? हाँ साहब! यही है। उन्होंने कह दी और हमने सुन ली। बस जीभ ने कही और कान ने सुन ली। सत्यनारायण की कथा जीभ से कही और कान से सुनी। बस हो गया सत्संग। नहीं बेटे ऐसे नहीं हो सकता।
ब्रह्म को हृदय में उतारें
महाराज जी! फिर कैसे हो सकता है? बेटे, आध्यात्मिकता का लाभ प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि उसको हम भीतर धारण करें, हृदयंगम करें। हृदयंगम करने से क्या मतलब है? हृदयंगम करने का जो अर्थ होता है वह है कि ब्रह्म को चर जाओ। चर जाओ? हाँ बेटे, जो ब्रह्म को चर जाता है, उस आदमी का नाम होता है- ब्रह्मचारी। चरने से क्या मतलब है? चरने से मतलब है- जैसे गाय होती है, बकरी होती है और घास को चर जाती है। इसी तरह ब्रह्म को चर जाओ। महाराज जी! आपकी यह कैसी बात रही? बेटे ऐसे रही कि ब्रह्म को खा लो। खा करके हजम कर लो। जुगाली कर लो और जुगाली करके इसे अपने रक्त का और दूध का अंग बना लो। बकरी घास चरती है, उसे हजम करती है और हजम करके अपने शरीर में घास को समाविष्ट कर लेती है। फिर दूध बना देती है। इसी प्रकार से आपको भी ब्रह्म को चरना होगा। आप उसे हृदय में धारण करें। बक- बक मत करें। बकें मत। सारे दिन रामायण पाठ, गीता पाठ, भागवत् पाठ, सत्संग पाठ, ये पाठ, वो पाठ करेंगे? नहीं बेटे, यह सब बंद करें। जो कुछ करना है, उसे धारण करें, ध्यान करें। हृदयंगम करें। व्यवहार में उतारें।
नहीं साहब! व्यवहार से तो मैं हजारों मील दूर हूँ। व्यवहार में इसे नहीं ला सकते। व्यवहार जैसा था, वैसा ही रहेगा। सुन सकता हूँ। सुनने से क्या मिलेगा? धारण करें। धारण करने से मतलब है- हृदयंगम करें, व्यवहार में उतारें। अध्यात्म के जितने भी सिद्धान्त हैं, बेटे ये जीवन में उतारने के लिए हैं। सुनने और सुनाने के लिए नहीं हैं। न जाने लोगों की समझ में यह वाहियात बात कैसे आ गयी कि इसको कहा जाय, सुना जाय। भागवत् को कहा जाय और सुना जाय, लेकिन इस कहने- सुनने से क्या मिलेगा? बेटे- कहने सुनने से कोई बैकुण्ठ को नहीं जाता। इसे जीवन में उतारना पड़ता है। बक- बक, कहना, सुनना, बस यही याद रहा और कुछ नहीं। यह अध्यात्म नहीं है।
तो क्या है? बेटे, आपसे मैं यह निवेदन कर रहा था कि गायत्री मंत्र का उद्देश्य, गायत्री मंत्र का शिक्षण यही है कि चारों धारायें जो अब तक हमने निवेदित की हैं, वे हमारे हृदय में होनी चाहिए और हमारे जीवन के महत अंग बनने चाहिए। इसके बाद इसमें दो शब्द रह जाते हैं- ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्’’ इसमें ‘नः’ शब्द के माने है- हम सब। जो भी आप विचार करें, हम सबके लिए विचार करें। व्यक्तिवाद नहीं समूहवाद, संघवाद का विचार करें। मेरे लिए, मेरा पैसा, मेरा बेटा, मेरा धन, मेरी मिट्टी, मेरा स्वर्ग- यह मेरा- मेरा कहना बंद करें। फिर क्या कहें? हमारा धन, हमारा परिवार, हमारा यश, हमारा वर्चस्- इस तरह व्यक्तिवाद नहीं, समूहवाद को लेकर चलें। मिलजुलकर रहना, साथ- साथ रहना, मिल बाँटकर खाना, सबके सुख में अपने को सुखी अनुभव करना, यही ‘नः’ की प्रेरणा और शिक्षा है। आपकी जो महत्वाकांक्षायें हैं, जो कामनायें हैं, आपके प्रयत्न और आपकी चेष्टाएँ- सभी हम सबके लिए होनी चाहिए। गायत्री की शिक्षा समूहवाद की शिक्षा है।
मां से करें सद्बुद्धि की प्रार्थना
मित्रो! गायत्री में और क्या है? ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्।’’ इसमें बस एक ही प्रार्थना की गयी है। क्या प्रार्थना की गयी है? ‘हे भगवान! आप हमारी अक्ल को ठिकाने पर रखें। यह अक्ल बड़ी बदमाश है। अक्ल ने हमारे साथ में जितनी गद्दारी की है। अक्ल ने जितना हमको तंग किया है, हैरान किया है कि इस अक्ल से ज्यादा हमारा दुश्मन और कोई नहीं है। अक्ल ने पैसा भी दिया है। अक्ल से ही हमने जाने क्या- क्या किया है। अक्ल से जाने हमने क्या- क्या कमा लिया है। अक्ल ने जहाँ हमारे भौतिक जीवन में बहुत सी सुविधाएँ दी हैं, वहीं इसने हमारे जीवन में अधःपतन का रास्ता भी खोला है। हाय रे अक्ल। हे भगवान! यह हमारे काबू में नहीं आती। और सब काबू में आ जाता है। पड़ोसी काबू में आ जाता है, मोहल्ले वाले काबू में आ जाते हैं, पर एक ही चीज है जो काबू में नहीं आती। और यह है हमारी अक्ल। हे भगवान आप एक काम कर दीजिए कि- ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्।’’ यह हमारी जो अक्ल है, उसमें ऐसे डंडे मारिये, उसकी ऐसी पिटाई कीजिए और उसे उल्टे टाँग घसीटते हुए सुअर की तरीके से ले जाइये। यह मानती ही नहीं है। और सब मानते हैं, पर यह है कि हमारा कहना मानती ही नहीं। हमारी अक्ल इतनी तंग करती है, इतना जलील करती है और हमको गड्ढे में धकेले जा रही है।
मित्रो! गायत्री मंत्र में भगवान से एक ही प्रार्थना की गयी है कि आप हमारी अक्ल को ठीक कर दें, तो बाकी समस्याएँ हम अपने आप हल कर लेंगे। बाकी के लिए हम आपसे खुशामद नहीं करेंगे। आपसे हम मिन्नतें नहीं करेंगे। आपसे हम प्रार्थना नहीं करेंगे। आपके आगे हम पल्ला नहीं फैलाएँगे। आपने हमें इतनी बड़ी अक्ल दी है, ताकि हम अपनी भौतिक समस्याओं को अपने तरीके से पूरी तरह हल करने में समर्थ हो सकें। लेकिन हमसे एक काम नहीं हो पाता और वह है- कि हमसे अपनी अक्ल काबू में नहीं हो पाती। वह हमें बहुत हैरान करती है। अगर आप भगवान हैं और दया कर सकते हों, तो हमारी अक्ल को ठीक कर दीजिए बस, बाकी हम कर लेंगे।
यह क्या है? बेटे रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसी ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्’’ के लिए बंगला भाषा में बहुत सुन्दर कविता की है। वह मुझे बहुत प्यारी है। इसका सारे का सारा सारांश यही है कि- हे भगवान! आप हमें कभी सुख न दें। क्यों? क्योंकि सुखों के मिलने से हमारे अन्दर जो सामर्थ्य उत्पन्न होनी चाहिए, वह कुंठित हो जायेगी और हम निकम्मे हो जायेंगे। और हम ठप्प हो जायेंगे। इसीलिए यदि आप सुख दिया करते हैं, तो वह हमको न दें। और किसी को दे दें। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता का दूसरा वाला भाग है- हे भगवान! भविष्य में आप दूसरों को दुखी किया करते हैं, अगर यह बात सही है, तो आप कृपा करके हमारे दुखों को न देखें। क्योंकि हमारा साहस, हमारा शौर्य, हमारा पुरुषार्थ और हमारा पराक्रम बिना दुखों के दुखों की चट्टान पर पिसेगा। संसार में जितने भी महामानव हुए हैं, महापुरुष हुए हैं, सबको अग्नि परीक्षा देनी पड़ी है और कठिनाइयों के साथ लड़ना पड़ा है। इसके बिना न कोई आदमी भौतिक जीवन में और न कोई आध्यात्मिक जीवन में विकसित हो सका है। सुख में समृद्धि नहीं हो सकती। सुखों में कोई पराक्रमी नहीं हो सकता, पुरुषार्थी नहीं हो सकता, साहसी नहीं बन सकता। इसलिए हे भगवान। आप इन दुखों को हमारे साथ लगे रहने देना। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता का यह छंद नम्बर दो है।
और उनका अगला छन्द है- सुखों का साथ हमें मत देना अगर आप दिया करते हों, तो आप हमारे दुखों को मिटाना मत, अगर आप मिटाया करते हों तो? रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता की अंतिम पंक्ति में कहा गया है- अगर आप वास्तव में ही दिया करते हैं, क्योंकि आप दानी हैं, दयालु हैं। बिना दिये आपसे रहा ही नहीं जाता। अतः अगर आप दिया ही करते हैं, तो आप हमको एक चीज देना। क्या देना? जब हम पाप की ओर बढ़ें, तो अपने लम्बे वाले हाथ हमारी तरफ बढ़ाना और हमको उस पाप पंक में गिरने से खींच लेना। जब पाप के पंक में हम गिरें, तो हमारे हाथ पकड़ना और घसीट करके किनारे पर फेंक देना। यह क्या है? बस एक ही प्रार्थना है कि अगर आप देते हों तो? इस तरह ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्’’ का अर्थ हो गया? यही कि आप हमारी कतई रक्षा न करना। आप हमें अपने बलबूते पर चलने देना। अपने पुरुषार्थ से हमको सँभलने देना। अपने जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए आप इन बातों में दखल मत देना। यह हमारा और हमारी दुनिया का मामला है। आपका मामला एक ही है कि आप हमारी अक्ल को ठीक कर दें।
मित्रो! ये है गायत्री मंत्र और उसका प्रशिक्षण। अगर हम इसको जान पायें, तो हम निहाल हो जायें। गायत्री मंत्र की यह शिक्षा हमारे जीवन में आ जाये, तो गायत्री के भक्तों को जैसा होना चाहिए, हम भी वैसा ही बन जायेंगे। और अगर हम यह प्रेरणा और यह शिक्षा देने में समर्थ हो सकें, तो हम व्यक्ति के उत्थान में और समाज के उत्थान में- दोनों उद्देश्यों को पूरा कर सकते हैं। दुनिया में सुख ला सकते हैं, शांति ला सकते हैं और मनुष्य में देवत्व का उदय कर सकते हैं और इसी जमीन के ऊपर स्वर्ग का अवतरण करने में समर्थ हो सकते हैं। इस तरह गायत्री महामंत्र एक ऐसी कामधेनु है, जिसकी महिमा ऐसी है, जिससे व्यक्ति और समाज की समस्त भावनायें एवं संभावनाएँ जुड़ी हुई हैं। आप इसका स्वरूप समझें, इसकी इच्छाओं को समझें, इसकी प्रेरणाओं को समझें और इसकी दिशाओं को समझें। समझने के पश्चात् उसको हृदयंगम करें और उसको फैलाने का प्रयत्न करें, तो मेरा उद्देश्य पूरा हो जायेगा और गायत्री संस्था की स्थापना, गायत्री का विस्तार करने का हमारा उद्देश्य पूरा हो जायेगा। इन विचारणाओं को, इन भावनाओं को समूचे संसार में फैलाने में और अपने अंदर धारण करने में आप समर्थ हो सकें, तब हमारा जीवन धन्य हो जायेगा।
आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शान्तिः॥
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
निराकार की कोई शक्ल नहीं
देवियो, भाइयो! सृष्टि की सारी शक्तियाँ निराकार होती हैं। इन शक्तियों की कोई शक्ल नहीं हो सकती है। गर्मी की कोई शक्ल हो सकती है? नहीं, गर्मी की कोई शक्ल नहीं हो सकती। लकड़ी में जब गर्मी पैदा हो जाती है, तो वह आग के रूप में जल तो सकती है, पर गर्मी की अपनी कोई शक्ल नहीं होती। सर्दी की कोई शक्ल हो सकती है? नहीं, सर्दी की कोई शक्ल नहीं हो सकती। प्यार की कोई शक्ल हो सकती है? कोई शक्ल नहीं हो सकती। क्रोध जब आता है, तो उसकी कोई शक्ल होती है? नहीं होती है। हाँ, क्रोध की वजह से आँखों में असर आ सकता है और आँखें लाल हो सकती हैं, पर क्रोध की अपनी कोई शक्ल नहीं होती। बिजली की कोई शक्ल है? नहीं, बेटे, बिजली की कोई शक्ल नहीं है। बिजली जब पंखे में चलती है, तो पंखा घूमता है। बल्ब में चलती है, तो बल्ब चमकता है, लेकिन बिजली की अपनी कोई शक्ल नहीं है। जो- जो चीजें व्यापक हैं, उनकी कोई शक्ल नहीं हो सकती। जो चीजें स्थानीय हैं, उनकी ही शक्ल बन सकती है। जो सब जगह समाया होगा, उसकी शक्ल कैसे बन जायेगी? उसकी शक्ल नहीं बन सकती।
मित्रो! फिर यह सवाल पैदा हो सकता है कि देवताओं की शक्ल कैसे बनीं? देवता या तो मनुष्य होने चाहिए- व्यक्ति होने चाहिए। और यदि वह व्यक्ति है, तो हम और आप जैसे आदमी होने चाहिए। देवता अगर सीमाबद्ध है, एक जगह रहते हैं, तो उसको मनुष्य होना चाहिए या अन्य प्राणी होना चाहिए। लेकिन अगर वह सर्वत्र संव्याप्त है, तो फिर उनकी शक्ल नहीं बन सकती। फिर क्या बात है कि हिन्दू धर्म में देवताओं की शक्ल कैसे बना दी गयी? दूसरे धर्मों में देवताओं की शक्ल क्यों नहीं है? मुसलमान धर्म में भगवान की कोई शक्ल नहीं बन सकती। देवता की शक्ल नहीं बन सकती। इस बात से वे नाराज होते हैं कि आपने कैसी शक्ल बना दी? ईसा को मनुष्य मानते हैं और मरियम को मनुष्य मानते हैं, इसलिए उनकी शक्ल बना देते हैं। ‘गॉड’ की शक्ल नहीं बन सकती। ईसाई कहते हैं कि गॉड की शक्ल क्यों बना देते हैं? नहीं बनाना चाहिए।
फिर साकार क्यों?
मित्रो! कई बार तो अचंभा होता है और मालूम पड़ता है कि फिलॉसफी की दृष्टि से कहीं हिन्दू धर्म पिछड़ा हुआ तो नहीं है? मन में ऐसा विचार कई बार आता है कि व्यापक शक्तियों की शक्ल क्यों कर बनाई गयी? शक्लें बनाने के बारे में जब प्रश्न सामने आता है, तो उसका एक ही उत्तर आता है कि हिन्दू धर्म कलाकारों का धर्म है। कवियों का धर्म है। कवियों ने और कलाकारों ने किसी उद्देश्य विशेष की, आदर्श विशेष की शक्लें बना दीं। उन शक्लों के पीछे उद्देश्य यह रहा कि आदर्शों, सिद्धान्तों, कर्तव्यों, उद्देश्यों के बारे में आदमी को याद बनी रहे। जिस तरह से हरी झण्डी दिखा करके या फिर हरी बत्ती जला करके गार्ड और ड्राइवर को यह इशारा किया जाता है कि अब आप गाड़ी चला सकते हैं या आप अब गाड़ी लेकर जाइये। गाड़ी लेकर जाने का- गाड़ी चला देने का इशारा है- हरी झंडी। तो क्या हरी झंडी में गाड़ी चलाने की ताकत है? नहीं बेटे, इसमें ताकत नहीं है। वह तो केवल इशारा है। क्या इशारा है? यही कि अब आप गाड़ी को चला सकते हैं। यदि यही बात जबान से कहते, तो फिर कौन सुनने वाला है? चाहे जितनी जोर से चिल्ला- चिल्लाकर कहिए कि गाड़ी चलाइये या गाड़ी रोकिए, पर कोई सुनने वाला नहीं है। लेकिन जब लाल झंडी दिखा दिया, तो इसका मतलब है कि गाड़ी रोक दीजिये। यह है- दृश्य के माध्यम से भावनाओं का नचाना। अदृश्य शक्तियों को हृदयंगम करने के पीछे यही तथ्य लागू होता है। यही है निराकार को साकार बनाने की चेष्टा। आदर्शों का, सिद्धान्तों का समन्वय हमें मूर्तियों, छवियों के माध्यम से कराया जाता है। आपको क्या बनना है? आपको किस ढाँचे में ढलना है? आपका जीवन लक्ष्य क्या है? जो भी आपका लक्ष्य है, जो कुछ भी आपको बनना है, उसके लिए एक- एक शक्लें बना दी गयीं हैं। आपको पराक्रमी, शूरवीर, योद्धा और पुरुषार्थी बनना है, तो आप हनुमानजी के पास में रह सकते हैं। हनुमान क्या हैं? बेटे, वह एक मॉडल हैं, एक उद्देश्य हैं, एक लक्ष्य हैं और एक इष्ट हैं। इष्ट माने लक्ष्य, लक्ष्य माने इष्ट।
आपका इष्ट क्या है? लक्ष्य क्या है?
आपका इष्टदेव कौन है? हमारे इष्टदेव तो हनुमानजी हैं। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि हमारा लक्ष्य है- ऐसे आदमी बनना, जो सामर्थ्यवान हो, बलवान हो, पुरुषार्थी हो। हम ऐसे आदमी बनना चाहते हैं। हमारा यही लक्ष्य है, यही उद्देश्य है कि हम ऐसे आदमी बनेंगे। इसलिए हमारे इष्ट हनुमान हैं। आपका इष्ट क्या है? हमारे इष्ट शंकर भगवान हैं। आप क्या बनना चाहते हैं? इष्ट के माध्यम से आप अपने जीवन का यह लक्ष्य निर्धारित करते हैं कि हमको कहाँ पहुँचना है और हमको क्या बनना है? लक्ष्य उस स्थल को कहते हैं, जहाँ पहुँचना है। ‘इष्टमिदं वासुदेवः’- वासुदेव से मतलब यह है कि हमको श्रीकृष्ण जैसा बनना है। आपको कहाँ पहुँचना है? हमारे इष्टदेव तो भगवान शंकर हैं। आपके इष्टदेव कौन हैं? हमारे इष्टदेव राम हैं- ‘इष्टदेव मम बालक रामा।’ इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ केवल एक है कि हम एक ऐसे ढाँचे में ढलना चाहते हैं जो मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जा सके। अपने जीवन में आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, कभी न कभी हम यह बनना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हमको मर्यादा पुरुषोत्तम के स्थान तक जा पहुँचना चाहिए। इसीलिए हमने राम को अपना लक्ष्य और अपना इष्ट तय किया हुआ है।
उद्देश्य विशेष के लिए आकृति
मित्रो! किसी का इष्ट राम है तो किसी का कृष्ण। कृष्ण से क्या मतलब है? यही कि हम पूर्ण पुरुष बनना चाहते हैं, इसलिए हमने अपना इष्ट कृष्ण को बना लिया। अपना लक्ष्य कृष्ण को क्यों बना लिया? हमको कृष्ण बनना है, इसलिए हमने अपना इष्ट उन्हें बनाया हुआ है। तो फिर ये मनुष्य नहीं होते? बेटे, भगवान यदि मनुष्य होते होंगे, तो उनका देहान्त हो गया होगा। देहावसान होने के बाद में अब उनकी कोई जरूरत, कोई आवश्यकता, सहकारिता हमारे जीवन में रह नहीं जाती है। और अगर भगवान हैं तो वे साकार नहीं हो सकते। उनकी कोई आकृति नहीं हो सकती। ब्रह्म की कोई आकृति नहीं हो सकती। फिर ये आकृतियाँ क्यों बना दी गयीं? बेटे, इनका एक मकसद है। मकसद के लिए आकृतियाँ बनाई गयी हैं। यों तो भगवान की कोई आकृति नहीं हो सकती, परन्तु उद्देश्य विशेष के लिए इनकी आकृति बना दी गयी। भगवान शंकर को गोल- मटोल पिण्ड इसलिए बना दिया गया है कि अगर भगवान का साकार रूप देखना हो तो इस ग्लोब को और सारे विश्व को भगवान माना जाय। ग्लोब क्या है? ग्लोब एक रंगीन नक्शे का बना होता है, जो स्कूल में बच्चों की मेज पर रखा रहता है। शंकर भगवान का गोल- मटोल पिंड इसलिए बनाया गया है ताकि हम यह समझ सकें कि यह सारे का सारा विश्व- ब्रह्माण्ड जो गोल- मटोल है, यह पृथ्वी जो गोल- मटोल है, यह जगत जो गोल- मटोल है, यह क्या है? शंकर है, शिव है। और शालिग्राम क्या हैं? शालिग्राम भी वही हैं। शालिग्राम की मान्यता अगर हमारे जीवन में हृदयंगम हो सके, तो उसका जो प्रभाव हमारे जीवन में आयेगा, उससे हमारा जीवन धन्य हो जायेगा।
मित्रो! अगर आपने यह मान्यता बना ली कि शालिग्राम या शंकर भगवान की मूर्ति पर हम पानी चढ़ाएँगे, बेलपत्र चढ़ाएँगे, फूल चढ़ाएँगे, तो महादेव जी ऐसे औघड़दानी है जो तुरंत प्रसन्न हो जायेंगे और हमारे बेटा पैदा कर देंगे तो बेटे, कहाँ से कर देंगे? अगर इनको बेटा पैदा करने की शक्ति होती, तो इनके एक- एक पत्थर ने एक- एक बेटा पैदा नहीं कर लिया होता? नहीं महाराज जी! यह पत्थर तो बहुत अच्छे हैं, तुरंत फल देते हैं। बेटे, ऐसी बेकार की बातें मत कर, इससे हिन्दू धर्म कलंकित होता है और हमारी फिलॉसफी अस्त−व्यस्त होती है। इससे अज्ञान फैलता है, भ्रम फैलता है और इससे एक नासमझी फैलती है। इस नासमझी से कोई फायदा नहीं होता। अतः इससे बाज आना चाहिए।
इंसान बने भगवान
मित्रो! हमारे ऋषियों का यह मकसद कभी नहीं रहा कि भगवान को इंसान बना दिया जाय। इंसान को भगवान बनाना तो हमारा उद्देश्य है। इंसान को भगवान बनाने की पूरी संभावना है, लेकिन भगवान को इंसान बनने की संभावना नहीं है। भगवान जब कभी अवतार लेते हैं, तो इंसानों के रूप में जन्म लेते हैं। अच्छे वाले इंसान, बढ़िया वाले इंसान, जिनको हम भगवान कहते हैं। भगवान किसे कहते हैं? बेटे, उच्चस्तरीय मनुष्यों का नाम भगवान है। एक- एक कला के अवतार हम और आप सब हैं, परन्तु भगवान के अवतारों की कला अलग- अलग होती है। रामचन्द्र जी? बारह कला के थे। कृष्ण भगवान सोलह कला के थे। मत्स्य और कच्छप एक- एक कला के अवतार थे। कलायें क्या हैं? ‘हार्सपावर’ हैं। इसका मतलब है कि अमुक अवतार कितने ‘हार्सपावर’ के थे। नहीं साहब! ‘हार्सपावर’ की तो मोटर होती है। हाँ बेटे, होती है। लेकिन ‘‘ईश्वर जीव अंश अविनाशी’’ के अनुसार आप में से हर आदमी एक- एक हार्सपावर की मोटर है। और जब अवतार होते हैं, तब उनकी मोटरें ज्यादा ताकत की होती है। जैसे परशुराम जी भी अवतार थे। भगवान के चौबीस अवतारों में वे भी आते हैं। वे कितने कला के थे? तीन कला के थे। रामचंद्र जी की कितनी कलायें थीं? बारह थीं। कलायें कितनी होती हैं। बेटे, पहले जमाने में एक रुपये के चौंसठ पैसे होते थे, तो चौंसठ कलायें होती थीं। अब कितनी हो गयी हैं? अब रुपये का फरक पड़ गया है, तो कलायें अब सौ हो गयी हैं।
अवतारों की कलाएँ एवं लीलाएँ
महाराज जी! तो क्या परशुराम जी अवतार थे? हाँ बेटे, कह तो रहा हूँ कि परशुराम जी अवतार थे। तो उनकी क्या कीमत थी? तीन पैसे। और रामचन्द्र जी की? बारह पैसे। कृष्ण चन्द्र जी की सोलह पैसे। बेटे, वे सब मनुष्य थे। नहीं साहब! वे मनुष्य नहीं, भगवान थे। अच्छा भगवान थे, तो मैं पूछता हूँ कि भगवान से भगवान की लड़ाइयाँ क्यों हुईं? एक भगवान को यह पता क्यों नहीं था कि ये भी भगवान हैं? परशुराम जी को यह पता होता कि हम भी भगवान हैं और रामचन्द्र जी भी भगवान हैं, तो भगवान भगवान से लड़ाई क्यों करते? भगवान को भगवान के बारे में जानकारी क्यों नहीं थी कि परशुराम जी भी अवतार लेकर आये हैं और रामचन्द्र जी भी भगवान हैं। भगवान ने भगवान का धनुष तोड़ डाला, तो एक भगवान को दूसरे भगवान से लड़ना नहीं चाहिए।
मित्रो! शंकर भगवान का धनुष रामचन्द्र जी भगवान ने तोड़ा और ‘दाल- भात में मूसलचंद’ बनकर एक और भगवान आ घुसे। उसका नाम क्या है? परशुराम। अरे भाई! तुम कौन हो? भगवान। अरे बाबा! यह कया ऊधम मचाते हो? भगवान का धनुष भगवान ने तोड़ा और दूसरा भगवान लड़ाई लड़ता है। यह क्या बात है? बेटे, इस संबंध में आप अपना दिमाग साफ कीजिए। अगर आप अपना दिमाग साफ नहीं करेंगे, तो गायत्री मंत्र का वह लाभ, जो चमत्कारी कहा जाता है, प्राप्त नहीं कर सकेंगे। और आप अज्ञान के जंजाल में इस कदर फँसते हुए चले जायेंगे कि अपना समय खराब करते रहेंगे और झक मारते रहेंगे। इससे कोई फायदा होगा? नहीं होगा। चमत्कार मिलेगा? नहीं, चमत्कार नहीं मिलेगा। तो क्या मिलेगा? खालिस अज्ञान आपके पल्ले पड़ेगा और अज्ञान से आपको- आदमी को सिवाय नुकसान उठाने के कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा।
गायत्री की शक्ल के पीछे प्रेरणा है
मित्रो! गायत्री मंत्र के बारे में आपका क्या ख्याल है? गायत्री माता की जो शक्ल बना दी गयी है, उस शक्ल के पीछे शिक्षण है, शिक्षण के पीछे उद्देश्य है, प्रेरणा है। उद्देश्य को समझाने के लिए, बताने के लिए हमने गायत्री की शक्ल बना दी है। तो क्या भगवान की कोई शक्ल नहीं है? बेटे, भगवान की शक्ल नहीं हो सकती। वे शक्तियाँ हैं। दुनिया में दो तरह की शक्तियाँ हैं- एक भौतिक और एक आध्यात्मिक। भौतिक शक्तियों में बिजली आती है, भाप आती है, धूप आती है, चुम्बकीय शक्ति आती है, आदि अनेक तरह की चीजें आती हैं। ये भौतिक शक्तियाँ हैं। इनमें ताकत है। और आध्यात्मिक शक्तियाँ क्या हैं? आध्यात्मिक शक्ति उसे कहते हैं जिसमें भाव संवेदनाएँ मिली हुई हैं। विचारणाओं, भाव- संवेदनाओं में क्या कोई ताकत होती है? हाँ विचारणा में ताकत होती है। विचारणा में ताकत होती है, इसका इतिहास आपने पढ़ा नहीं? विचारणा में, भावना में ताकत का उदाहरण कल मैं सुना चुका हूँ, पर अभी और सुना देता हूँ। हाँ साहब! सुना दीजिए भावनाशीलों के नाम।
भावनाओं का खेल
बेटे, उन भावनाशीलों के नाम हैं- जार्ज वाशिंगटन, जो एक लकड़हारे के घर में पैदा हुआ था। दूसरा नाम है- अब्राहम लिंकन, जो एक गरीब घर में पैदा हुए थे। गरीब ऐसे कि जिनके घर में पेट भरने के लिए रोटी तक की गुंजाइश नहीं थी। लेकिन ये महापुरुष कैसे हो गये? ये थी उनकी भावनायें और उद्देश्य। भावनायें छोटे से छोटे आदमी को उछालती हुई जाने कहाँ से कहाँ ले पहुँची। बिनोवा ने अपने जीवन वृतान्त में लिखा है कि हमारी माँ जब आटा पीसती थी, तो उनके बगल में मैं बैठा रहता था और जो चने उछल- उछलकर जमीन पर गिर पड़ते थे, उनको बीन- बीन कर खाता रहता था। उन दिनों हमारी आर्थिक स्थिति बड़ी कमजोर थी, यहाँ तक कि कभी- कभी नाश्ते तक के लिए कोई चीज नहीं मिलती थी। यह मैं किस आदमी की बात कर रहा हूँ? इसका नाम है- विनोबा। यह कौन बन गया? बेटे, यह संत बन गया। यह वामन भगवान बन गया, जिसने अपने चरणों से पृथ्वी को नाम लिया। पृथ्वी को नापने वाला क्या कोई मनुष्य वामन हो सकता है? हाँ हो सकता है। कौन कर सकता है? भावनायें कर सकती हैं। भावनायें यदि निम्नकोटि की हों तो ये आदमी को घिनौना और कमीना बना करके रख देती हैं, दुखी और दरिद्र बना करके रख देती हैं। पतित और पापी बना करके रख देती हैं। नरक में धकेल देती हैं। कौन धकेलता है? दुनिया में एक चीज है और उसका नाम है- भावनायें। तुच्छ भावनायें आदमी को घिनौना, कमीना, नारकीय, दुष्ट और पतित बना देती हैं, लेकिन यदि भावनायें उच्चस्तरीय हों, तो वे मनुष्य को उछालती भी हैं। वे आदमी को संत, महापुरुष, ऋषि और देव मानव बना देती हैं और न जाने क्या- क्या बना देती हैं।
देवत्व भावनाओं से
मित्रो! भावना एक शक्ति है। भावना के बराबर और कोई शक्ति हो सकती है क्या? बेटे, कोई नहीं हो सकती। बिजली? बिजली भी नहीं हो सकती। ऐटम? एटम भी नहीं हो सकता। मनोभावना को तू समझता नहीं है, चेतना को समझता नहीं है। विचारणा को समझता नहीं है। नहीं साहब! विचारणा को नहीं समझता हूँ। मैं तो पैसे को समझता हूँ। बेटे को समझता हूँ। मर अभागे। तू कुछ भी नहीं समझता है। जानवर है और जानवर की वृत्तियों को समझता है। तू तो यह समझता ही नहीं है कि भावना किस चीज का नाम है। बेटे, भावना आदमी का प्राण है। भावनायें आदमी के भविष्य का निर्माण करती हैं। भावनायें आदमी में मुस्कान बिखेरती हैं। भावनायें आदमी के भीतर से देवत्व प्रकट करती हैं। भावनायें मनुष्य को शान्ति के, शक्ति के ऊँचे स्तर पर ले जाती हैं। भावनायें ही आदमी को कलह और नरक की आग में धकेल देती हैं। बेटे, तू भावनाओं की कीमत नहीं समझता। भावनाओं की कीमत समझ।
मान्यताएँ बदलें
मित्रो! श्रुतियों में भावनाओं को ही दैवी शक्तियाँ कहा गया है। दैवी शक्तियाँ इन्हीं का नाम है। आपकी तो मान्यता है कि दैवी शक्तियाँ कोई स्त्री होती है, कोई औरत होती है, जिन्हें हम कपड़ा पहना देते हैं, मिठाई खिला देते हैं, चाँदी का छत्र चढ़ा देते हैं और नारियल खिला देते हैं। तो वे प्रसन्न हो जाती हैं और हमारे लिए माल- असबाव का थैला भरकर, पोटली भरकर रुपया भेज देती हैं। पगले चुप हो जा, बेकार की बातें बकता है जैसे कि पागल बकते हैं। नहीं गुरुजी। कोई औरत है जो यह सब दे जाती है। कौन सी औरत है? गुरुजी! संतोषी माता भी औरत है, गायत्री माता भी औरत है और अमुक भी औरत है। चुप रह। बकवास करता है कि औरत द्रव्य दे जायेगी। अरे वह अपने बाल- बच्चों के दे जायेगी कि तुझे दे जायेगी? नहीं साहब! वह हमारा नारियल खा जाती है और पैसा दे जाती है। बेटे, वह न तो कोई नारियल खा जाती है और न पैसे दे जाती है। फिर क्या बात है? वास्तविकता क्या है?
देववाद का रहस्य समझिए
मित्रो! वास्तविकता वह है जो देववाद के पीछे रहस्य छिपा हुआ है। देववाद के पीछे छिपे हुए उस उद्देश्य को समझिये। उसे आप समझ लेंगे, तो गायत्री उपासना को, जिसका मैं शिक्षण करता हूँ, आप समझने में समर्थ होंगे और उसका लाभ उठाने में समर्थ होंगे और लाभ दिलाने में समर्थ होंगे। अगर इतनी सी मोटी बात आपके समझ में नहीं आई, तो आप झक मारेंगे। समय खराब करेंगे और ठगे जायेंगे, अगर आपकी समझ में यह वास्तविकता नहीं आई तो। वास्तविकता क्या है? बेटे, समस्त देवता, जो भी बनाये गये हैं, उनके पीछे कोई न कोई शिक्षण दिया गया है। उसके पीछे कोई न कोई दिशा निर्धारित की गयी है। कोई न कोई लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
महादेव के पीछे प्रेरणाएँ
उदाहरण के लिए मैं एक देवता का हवाला देता हूँ- शंकर भगवान का। शंकर भगवान क्या हैं? शंकर भगवान की जो शक्ल बनाई गयी है, उसके पीछे कुछ उद्देश्य नियत कर दिये गये हैं। उसके माध्यम से आदमी को सिखाया गया है कि अगर आपको शंकर भगवान की भक्ति करनी है, तो आपको इन उद्देश्यों को पकड़ कर चलना पड़ेगा और इन उद्देश्यों को हृदयंगम करना पड़ेगा। वे कौन- कौन से उद्देश्य हैं? शंकर भगवान की शक्ल आपने देखी होगी। उस शक्ल के हर हिस्से के पीछे आपको कुछ उद्देश्य दिखाई पड़ेंगे। कुछ प्रेरणाएँ दिखाई पड़ेंगी। कुछ शिक्षायें दिखाई पड़ेंगी। जैसे कि अभी हम आपको बताते हैं कि शंकर भगवान के सिर से पानी निकलता है, गंगा जी निकलती हैं। क्यों साहब! सिर में से गंगाजी निकल सकती हैं? बेटे, मेरे ख्याल से तो नहीं निकल सकती, क्योंकि किसी के सिर में से गंगा जी निकलेंगी, पानी बहेगा, तो उस आदमी को जब तक बैठा रहेगा तब तक तो शायद काम भी चल जाय, लेकिन जब वह करवट लेगा और लेटने की कोशिश करेगा तो पानी उसकी नाक में घुस जायेगा। कान में घुस जायेगा और उस आदमी का दिवाला निकल जायेगा। शंकर भगवान बैठे रहें, तो कोई बात नहीं है। सिर में से पानी बहता रहेगा, लेकिन कहीं शंकर भगवान ने यह गलती की कि उनको आ गयी नींद और उन्होंने सोने की कोशिश की, तो सारा गंगाजी का पानी कान में घुस जायेगा और नाक में घुस जायेगा और शंकर भगवान का दिवाला निकल जायेगा।
शिवजी की गंगा?
तो महाराज जी! फिर क्या विशेषता है शंकर जी में? बेटे, कुछ भी नहीं है। वह ज्ञान की गंगा है जो शंकर जी की जटाओं से निकलती है, मस्तिष्क से निकलती है। यह ज्ञानगंगा जहाँ से निकलती है, वही हमारा लक्ष्य है। हमारे मस्तिष्क से भी ज्ञान की यह गंगा निकलनी चाहिए। क्यों साहब! मस्तिष्क से भी गंगा निकलती है? पानी की गंगा निकलती है? हाँ बेटे, ज्ञान की गंगा निकलती है? इसी ज्ञान की गंगा को प्रतीक रूप में पानी की गंगा के रूप में बना दिया गया है। अगर हमको शिवजी को प्राप्त करना है, शिव का शिष्य बनना है, तो हमें अपने मस्तिष्क की संरचना ऐसी करनी पड़ेगी, जिसमें जब विचारों की तरंगें, विचारों के प्रवाह, विचारों की धारायें निकलें, तो ऐसी निकलें जिनको गंगा के अनुरूप कहा जा सके। यह अलंकार है। तो क्या शंकर भगवान की जटाओं से गंगा नहीं निकलती है? नहीं बेटे, जटाओं में से कोई गंगा नहीं निकलती और न कोई ऐसे शंकर भगवान होंगे, जिनकी जटाओं में से पानी निकलता होगा, जिनके सिर में से पानी निकलता होगा।
शिवजी का चन्द्रमा
अच्छा और क्या है शंकर जी के सिर पर? चन्द्रमा है, जो शंकर भगवान के सिर पर टँगा हुआ है। चन्द्रमा के बारे में आपका क्या ख्याल है? चन्द्रमा क्या है? क्या चन्द्रमा कोई पत्ती का बना है? नहीं गुरुजी। पत्ती का तो नहीं बना है। गोल- मटोल बना है, जैसे गेंद होती है, फुटबाल होती है। यदि फुटबॉल की तरह चन्द्रमा है, तो सिर पर कैसे लगेगा, पहले हमें समझाइए। फुटबॉल का चन्द्रमा सिर पर या तो कील ठोक कर या रस्सी से बाँधकर या फिर क्रेन की मदद से लगाया या फिट किया जा सकता है, अन्यथा फुटबॉल की तरह से ठहर नहीं सकता। नहीं साहब! चन्द्रमा शंकर जी के सिर पर टँगा हुआ है। अच्छा तो यह कैसे टँगा हुआ है, इसका रहस्य समझाइए। नहीं महाराज जी! हम नहीं समझा सकते। अच्छा आप ही बतायें कि आपका क्या ख्याल है? बेटे, हमारा ख्याल है कि चन्द्रमा शीतलता का प्रतीक है। हमारा मस्तिष्क जो बार- बार गरम हो जाता है, हम बार- बार आवेश में आ जाते हैं, गुस्से में आ जाते हैं और असंतुलित हो जाते हैं। बात- बात में अपना आपा खो बैठते हैं, अपना बैलेन्स गंवा देते हैं, अपना टेम्पर लूज कर बैठते हैं, तो इससे छुटकारा पाने के लिए क्या होना चाहिए?
शिक्षण समझें
मित्रो! शिव के भक्त को अपना टेम्पर लूज नहीं करना चाहिए। आदमी के जीवन में दोनों तरह की परिस्थितियाँ आती हैं। अच्छी भी आयेंगी, तो अच्छी परिस्थितियों में भी पागल नहीं होना चाहिए। और बुरी भी आयेंगी तो बुरी परिस्थितियों में भी पागल नहीं होना चाहिए। किसी के घर बेटा पैदा होगा तो किसी का बाप मरेगा। किसी का बेटा मरेगा तो किसी के घर में पोता पैदा होगा। अगर आप जुए में जीतेंगे तो हम जुए में हारेंगे। अगर हम जीतेंगे तो आप हारेंगे। यह क्या बात है? बेटे, समझता नहीं, यह सारी दुनिया ऐसे ही ताने- बाने से बनी हुई है, जिसमें हर आदमी को मुसीबत भी आनी है और सुविधा भी मिलनी है। इस दुनिया में हर आदमी को नमक का जायका भी चखना है और मिर्च का जायका भी एवं मिठाई का जायका भी चखना है।
तो क्यों साहब! अच्छी परिस्थितियाँ नहीं आयेंगी? बेटे, अच्छी परिस्थितियाँ तो राम को भी नहीं मिली। कृष्ण को भी नहीं मिली। नहीं साहब! हमारा जीवन तो चैन से रहना चाहिए। हमें तो चैन से बैठना चाहिए। बेटे, तू चैन से नहीं बैठ सकता। जीवन की बनावट ही ऐसी नहीं है। हमारा जीवन रूपी कपड़ा जिस ताने- बाने से बुना हुआ है, उसमें एक धागा इधर को है, तो एक धागा उधर को है। दोनों प्रकार के धागों से यह जीवन बुना हुआ है। दिन और रात के ताने- बाने से दुनिया बनी हुई है। सुख और दुःख से, हानि और लाभ से हर आदमी का जीवन बुना हुआ है। अतः हर आदमी को इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि मुझ पर भी मुसीबतें आयेंगी और जरूर आयेंगी। अगर कोई यह कहे कि गुरू जी ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि हमारे जीवन में कोई मुसीबत न आवे, तो गलत बात है। बेटे, श्री रामचन्द्रजी के जीवन में मुसीबतें आईं थी, श्रीकृष्णचन्द्र जी के जीवन में भी आई थीं, पाण्डवों के जीवन में आईं थी और आपके जीवन में भी जरूर आयेंगी।
संतुलन का चंद्रमा एवं पवित्रता की गंगा
मित्रो! तो फिर क्या करना चाहिए? इन मुसीबतों से कैसे बचना चाहिए? बचाव का एक ही तरीका है और वह है कि हम अपना दिमागी संतुलन कायम रखें। यदि दिमागी संतुलन कायम रखेंगे, तो हम अच्छे दिनों को भी हँस- हँस कर गुजार सकते हैं और बुरे दिनों को भी हँस कर गुजार सकते हैं। यह क्या है? शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा का यही मकसद है और यही प्रशिक्षण है। शंकर जी के मस्तिष्क पर संतुलन का चन्द्रमा तान दिया गया है और यह बता दिया गया है कि अगर आपको शिवत्व को प्राप्त करना है, तो आपको ऐसा करना चाहिए और आपका मस्तिष्क ऐसा होना चाहिए कि उसकी स्थिति स्थिर एवं संतुलित होनी चाहिए। संतुलन कायम रखना चाहिए। उसमें से ज्ञान की गंगा प्रवाहित होनी चाहिए। जब भी विचार निकलें, उच्चस्तरीय विचार निकलें। गंगा की तरीके से पवित्रता भरे हुए विचार निकलें। उच्चस्तरीय विचारों के बाइब्रेशन जब आपके मस्तिष्क से निकलते हों, तो उनका स्वरूप भी सामने आना चाहिए। यह क्या हो गया? यह हो गया शंकर जी के सिर पर स्थित चन्द्रमा और गंगा की प्रेरणा और शिक्षा।
तीसरा नेत्र
अच्छा साहब! अभी और नीचे की ओर उतर कर चलिए। शंकर भगवान की तीन आँखें हैं। हाँ महाराज जी! तीन आँखें हैं। बेटे, हमने तो किसी के भी तीन आँखें नहीं देखी हैं, तो शंकर भगवान की तीन आँखें कैसे आ गयीं? नहीं महाराज जी! शंकर भगवान की तो जीन आँखें हैं। अच्छा तो तीसरी आँख काम आती है? आपको मालूम नहीं है? बेटे, हमको तो मालूम नहीं है, तू ही बतादे। देखिये महाराज जी! रामायण में लिखा है। क्या लिखा है? ‘‘तब शिव तीसर नयन उघारा। चितवत काम भयउ जरि छारा॥’’ शंकर भगवान ने जब तीसरी आँख खोली, तो किसको देखा? कामदेव को देखा और कामदेव जलकर खाक हो गये। अरे राम- राम, ऐसी आँख होती है? हाँ बेटे, तीसरी आँख जिस किसी को देख लेती है, जलाकर खाक कर देती है। गुरुजी! आप जो हमको रात को सिखाते हैं, प्रातः को सिखाते हैं, वह क्या है? बेटे, हम आपको तीसरा नेत्र खोलने के लिए, दिव्यदृष्टि जगाने के लिए सिखाते हैं। तो महाराज जी! आप जो हमारा तीसरा नेत्र खुलवाएँगे, तो क्या वह ऐसा ही खुलेगा? और जैसे ही खुला और हमने आपको देखा, तब क्या होगा? बेटे जब तू हमारी तरफ देखेगा, तो हमारा सफाया हो जायेगा। अगर अपनी औरत की ओर देखा तो वह खतम हो जायेगी। अगर अपनी गाड़ी की तरफ देखा, साइकिल की तरफ देखा तो वह खतम हो जायेगी। तो महाराज जी! ऐसा नाटक बंद करा दीजिए। ऐसी आँख हमको नहीं चाहिए। बेटे, मैं तो मजाक कर रहा था।
विवेक की आँख
तो महाराज जी! क्या बात है? कोई बात नहीं है। बेटे यह विवेक की आँखें हैं, दूरदर्शिता की आँखें हैं। हमारे मस्तिष्क में एक टेलिस्कोप फिट किया हुआ है, जो दूर की बातें देखता है। हमारी जो दो सामान्य आँखें हैं, उनमें से कोई ‘शार्ट साइट’ की मरीज है, जिससे पास की चीजें नहीं दिखाई पड़ती हैं। बिल्कुल पास की भी चीजें नहीं दिखाई पड़ती हैं। इसमें आँखों का चश्मा बहुत बड़े नम्बरों का हो जाता है। अगर चश्मा न मिले या खो जाय, तो कोई चिट्ठी- पत्री तक नहीं पढ़ सकता कि इसमें क्या लिखा है। यह क्या है? ‘शार्ट साइट’ की बीमारी है। बेटे, हमारे समाज में लोगों को ऐसी ही बीमारी है। क्या बीमारी है? हमको आज की बात दिखाई पड़ती है। लेकिन कल की बात? कल का तो पता नहीं नहीं। बुढ़ापे में क्या होगा? क्या हमें कुछ पता है? मरने के बाद क्या होगा? पता ही नहीं। अभी क्या होगा? यह तक तो हमें मालूम नहीं है, फिर भविष्य का क्या पता? कुछ पता नहीं। आज- कल तनिक- तनिक से सुख के लिए लोग अपना भविष्य किस बुरी तरीके से बरबाद करते जा रहे हैं, इसको अगर कोई देख सके और विचार कर सके, तो आदमी को अपने ऊपर रहम आये, अपने ऊपर शरम आये कि हम अपना भविष्य किस तरीके से बिगाड़ रहे हैं।
मित्रो! हम आज की सुख- सुविधाओं के लिए, आज की ऐय्याशी के लिए हम अपने भविष्य को, अपने बुढ़ापे को कैसे कमजोर बना रहे हैं? इससे आगे का रास्ता हमें सूझ ही नहीं पड़ता, मौत दिखाई नहीं पड़ती, परलोक दिखाई नहीं पड़ता। भविष्य दिखाई नहीं पड़ता, कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। आपको तो केवल अभी की बात दिखाई पड़ती है। यह क्या है? बेटे, यह तीसरा नेत्र है। यह एक ऐसा टेलिस्कोप है, जिससे हमको बहुत दूर तक दिखाई पड़ता है, बहुत दूर तक की चीज दिखाई पड़ती है। शंकर भगवान ने इसी का इस्तेमाल किया था, जब कामदेव ने उन पर हमला किया था और तरह- तरह की चीजें दिखाई थी कि इससे यह फायदा है, यह मौज है। शंकर भगवान ने जब कामदेव की यह चालाकी देखी, तो उनने अपनी तीसरी आँख खोली और उसका सफाया हो गया।
दिव्य दृष्टि है यह तीसरी आँख क्या है?
दिव्यदृष्टि है। यह वह आँख है जो भीतर तक गहराई में प्रवेश कर यह देख सकती है कि वास्तविकता क्या है। उदाहरण के लिए ऊपर से चिकना- चुपड़ा दिखाई देने वाला यह शरीर क्या है? पाखाने के घड़े के ऊपर चमकदार पन्नी चिपका दी गयी है। पन्नी को उखाड़कर देख, भीतर क्या रखा है? नहीं साहब! वह बड़ी खूबसूरत महिला है। बड़ा सौन्दर्य है। सुंदर रूप है तो जरा पन्नी को उघाड़। पन्नी से मतलब है- चमड़ी से। चमड़ी को उघाड़ और फिर देख, इसके भीतर क्या भरा हुआ है? बेटे, पाखाने के अलावा, पेशाब के अलावा, थूक के अलावा, हड्डियों के अलावा, माँस के अलावा क्या है इसमें? कुछ भी तो नहीं है। यह क्या चीज है? बेटे, यही है वह मूल बात, जिसे गहराई से तीसरी आँख से देखा जा सकता है। हमारी इस आँख में माइक्रोस्कोप लगा हुआ है, जो हमें गहराई तक दिखाता है, दूर की बात दिखाता है। इसका नाम क्या है? इसका नाम है- तीसरा नेत्र।
मित्रो! अगर हमारा तीसरा नेत्र खुल जाय तब? तब हमको आज की बात चाहे दिखाई पड़े, चाहे न दिखाई पड़े, लेकिन भविष्य हमको दिखाई पड़ेगा। फिर उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने के लिए हमें अपनी गतिविधियाँ ठीक करनी पड़ेंगी। बेटे, यही तीसरा नेत्र है तो यहीं से सब कुछ चमकता है? बेटे, यहाँ तो केवल दो गाँठें हैं। एक का नाम है- पिट्यूटरी ग्लैण्ड और दूसरी का नाम है- पीनियल ग्लैण्ड। ये दो चीजें हैं, जिनका आपस में एक सर्किल बनता है, जिसको ‘आज्ञाचक्र’ कहते हैं। यह क्या है? यह बहुत कुछ फिजिकल साइंस का विषय है। इसके फायदे क्या हैं, यह हम बाद में बता देंगे। अभी तो हम अध्यात्म बता रहे हैं कि शंकर भगवान का तीसरा नेत्र केवल यही है और अगर आपको शिवत्व प्राप्त करना हो, अथवा शिव का भक्त बनना चाहते हों, तो आपको तीसरा नेत्र खोलना चाहिए।
मरघट- मुण्डों की माला
अच्छा महाराज जी! शंकर जी में और क्या खास बात है? बेटे, बीसियों बातें हैं। शंकरजी मरघट में निवास करते हैं। अच्छा, और क्या करते हैं? मरघट की भस्म शरीर पर लगाते हैं। अच्छा, और क्या करते हैं? गले में मुण्डों की माला पहना करते हैं। गुरुजी! ऐसा मालूम पड़ता है कि इनको मौत से कोई बड़ा भारी प्यार है, तभी तो वे मुण्डों की माला पहनते है और मरघट भस्म सारे के सारे शरीर में लगाते हैं। हाँ बेटे, तू ठीक कहता है। इनको सबसे प्यारा मरघट है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है मौत, जिसको आपने भुला दिया। आपने सारी बातें याद रखीं, पर एक बात भुला दी। क्या भुला दिया? मौत को आपने भुला दिया। यह इतनी बड़ी भूल है कि मैं नहीं जानता कि इससे भी बड़ी भूल और कोई हो सकती है? आपने जीवन को याद रखा और मौत को भुला दिया। हमारी प्रगति की गाड़ी जीवन और मौत के दोनों पहियों पर चलती है, आप इसे याद रखिये। जीवन बहुत अच्छी चीज है, पर याद रखिये मौत और भी अच्छी चीज है। मौत का आपको सामना करना पड़ेगा, अतः मौत की तैयारी करिये।
करें मौत की तैयारी
मित्रो! अगर आप मौत की तैयारी नहीं कर रहे हैं, तो मैं समझता हूँ कि जीवन की जो आप तैयारी कर रहे हैं, वह अपूर्ण है। अधूरी है और वह समग्र नहीं हो सकती, संतुलित नहीं हो सकती और आप लगातार भूल करते चले जायेंगे, आपकी भूल पर अंकुश कभी नहीं लग सकता। अतः मौत को याद करिए। ‘‘ॐ ततोस्मर,..........शरीरम्।’’ अरे मूर्ख। इस जलने वाले शरीर को याद कर। अरे मूर्ख! चिता को याद कर। जन्मदिन तेरा हो गया, खुशी की बात है, पर अब मौत के दिन की तैयारी कर। नहीं साहब! जन्मदिन की खुशियाँ मनाऊँगा। अच्छा जन्मदिन की खुशियाँ मनाएगा, तो फिर मौत के दिन की भी तो तैयारी कर। महाराज जी! मैं मौत के दिन की तैयारी नहीं करता हूँ। तो फिर तू शिव का उपासक कैसे होगा? मौत के तो वह देवता हैं और आप कहते हैं कि हम मौत को याद नहीं करते। अगर मौत को याद करना आपको आता होगा, तो आपने सिकन्दर की तरीके से विचार किया होता।
सिकंदर से सीखें
मित्रो! जब सिकन्दर मरने लगा तो उसने अपना सारा सामान मँगाया और कहा कि हम अपना सामान लेकर जाना चाहते हैं। जिन्दगी भर में जितना पैसा हमने जमा कर लिया है, उसे हम साथ ले जाना चाहते हैं। जब उसने कहा कि हम साथ ले जाना चाहते हैं, तो लोगों ने कहा कि साहब! आप इन्हें अपने साथ कैसे ले जा पायेंगे? यह तो यहीं पर रखा रहेगा। यहीं पर रखा रहेगा? हमने जीवन भर में करोड़ों रुपये कमाये, वह सब यहीं रह जायेगा? हाँ साहब! बिल्कुल यहीं रखा रहेगा। सिकन्दर फूट- फूट कर खूब रोया। लोगों ने पूछा कि क्या बात है? उसने कहा कि अगर यह समझ मरने से पहले आ गयी होती, तो हमने अपनी जिंदगी का तरीका बदल दिया होता। फिर हमने ऐसी घिनौनी और ऐसी कमीनी जिंदगी नहीं जी होती। तब हम किसी दूसरे किस्म की जिंदगी जी रहे होते। फिर हमने भगवान बुद्ध की जिंदगी जी होती। फिर हमने सुकरात की जिंदगी जी होती। फिर हमने ईसा की जिंदगी जी होती और तब हमने सिकन्दर की जिंदगी नहीं जी होती। हमारे मन ने कानों से तो सुना था कि आदमी जो कमाता है, यही कहता था कि यह दौलत हमारी है। इसे कौन छीन सकता है? अब हमको मालूम पड़ता है कि यह दौलत हमारी नहीं थी और यह हमें छल रही थी। अगर यह विचार हमें जीवन में पहले आ गया होता, तो हम अपनी जिंदगी का, अपने व्यक्तित्व का जो इस तरीके से अपव्यय करते रहे, वह न कर सके होते।
हर पल मृत्यु का शिक्षण
मित्रो! राजा परीक्षित को मौत याद आ गयी थी और सात दिनों में उन्होंने मौत के लिए बेहतरीन इंतजाम कर लिया था। आपको तो मौत कभी याद आती ही नहीं। परीक्षित की तरीके से भी नहीं और सिकन्दर की तरीके से भी नहीं याद आती। मौत को यदि आप स्मरण नहीं रखेंगे, तो आप जिंदगी में कभी कोई अच्छा काम नहीं कर सकेंगे और आपके जीवन की कोई अच्छी योजना नजर नहीं आ सकेगी। जीवन की अच्छी योजना को सफल बनाने के लिए आपको मौत दिखाई पड़नी चाहिए। आपको अपनी चिता जलती हुई दिखाई पड़नी चाहिए और आपको अपने थैले में हड्डियाँ ले जाकर के हरिद्वार के ब्रह्मघाट में बहाई जानी- स्मरण रहनी चाहिए। आपका यह चेहरा, जिसको रोजाना आप रंग- बिरंगे पाउडरों से पोतते रहते हैं, आपको याद रहना चाहिए कि इसकी मुट्ठी भर खाक बनने वाली है और यह मुट्ठी भर खाक लातों तले रौंदी जाने वाली है। भविष्य को याद नहीं करेंगे, मौत को याद नहीं करेंगे, मौत की तैयारी नहीं करेंगे? नहीं साहब! बेटी के लिए तैयारी करनी चाहिए, बेटे के लिए तैयारी करनी चाहिए, लेकिन मौत के लिए क्या तैयारी करनी चाहिए? नहीं बेटे, मौत के लिए सब कुछ करना चाहिए।
मित्रो! हमको यह शिक्षण भगवान शंकर के पूजन से मिलता है। हाँ साहब! भगवान शंकर जी से मिलने वाली इतनी बातें आपने बता दी। हाँ बेटे, यह चेहरा मुण्डों की माला ही है। अपने चेहरे को शीशे में देख, समझ में आ जायेगा कि यह भी भस्म में बदलने वाला है। इसको शरीर से लगा। अभी तो अच्छा- खासा शरीर है, लेकिन कल परसों यह भस्म होने वाला है। आप अपनी जिंदगी को खाक में- राख में बदलते हुए देखिये। अगर आप खाक और राख को नहीं देखेंगे, तो आप न तरक्की कर सकेंगे और न कोई अच्छा काम कर सकेंगे। अब तक आपने जैसा घिनौना और कमीना जीवन जिया है, इससे आगे और भी बुरा जीवन जियेंगे। अगर आपके दिमाग में मौत की बात नहीं आयेगी, खाक की बात नहीं आयेगी, और मरघट की बात समझ में नहीं आयेगी, तो समझ लेना कि शंकर भगवान की आपकी उपासना अधूरी और अपंग है।
चलें शिवत्व की ओर
महाराज जी! शंकर भगवान की अभी और बातें बताइये। बेटे, भूत- पलीत तो शंकर भगवान के संग में रहते थे, अतः हमको तो विशेष पिशाच होना चाहिए। महाराज जी! और बताइये? बेटे, और भी सैकड़ों बातें हैं, मैं उन्हें कहाँ तक बता सकता हूँ? प्रत्येक देवता के पीछे शिक्षण है। क्यों साहब? प्रत्येक देवता क्या ऐसी ही शक्ल का होता है? हाँ बेटे, अच्छी शक्ल के देवता होते हैं। आपके शंकर अलग हैं और हमारे शंकर अलग हैं जिनकी अभी हमने व्याख्या की। वह शिवत्व है। शिवत्व की ओर चलने के लिए, शिव की भक्ति करने के लिए आपको शिवत्व की ओर चलना चाहिए और अपने जीवन में शिवत्व को समाविष्ट करना चाहिए। अभी तो जैसे आप हैं वैसे ही आपके शंकर हैं। कैसे हैं आपके शंकर भगवान? आपके शंकर भगवान ऐसे हैं कि सावन का महीना आया और तीन तिपाई पर तीन घड़े में छेद करके पानी भरकर उनके सिर पर रख दिया। सावन भर पानी टप- टप करके टपकता रहा। अब देखिए शंकर भगवान की हजामत बनानी है। अब वे हमारे शेयर में भी लाभ दिलायेंगे और आपके शेयर में भी लाभ दिलायेंगे। अब शंकर भगवान चौबीस घंटे नहाएँगे। अब वे हमारे शिकंजे में आ गये। अब देखिए उन्हें क्या- क्या मजा चखाते हैं।
अभिषेक क्यों?
मित्रो! सावन भर पानी बरसता रहा और शंकर भगवान के ऊपर हम पानी टपकाते रहे। शंकर जी को जुकाम हो गया, खाँसी हो गयी। शंकर भगवान ने कहा- चेला जी! भगत जी! हाँ भगवन्। कुछ दवा- दारू का इंतजाम कर। हाँ महाराज जी! आपके लिए दवा- दारू का इंतजाम करना तो है, पर क्या दवा करूँ? समझ में नहीं आ रहा। ऐसा कर किसी डॉक्टर के यहाँ से कोडोपायरिन ला करके दे। नहीं महाराज जी! वह तो विलायती दवा है, आप मत खाइये। आप तो आक के फूल खाइये और धतूरे के फल खाइये। वह विशुद्ध हिन्दुस्तानी दवाई है, आयुर्वेद की दवाई है। यह ऋषियों की दवाई है। आप इसे खा लीजिए, तो ठीक हो जायेंगे। अच्छा बेटे, तू यही ले आ। चेले ने- भगत ने शंकर भगवान को आक के फूल और धतूरे के फल खिला दिए। अब तो शंकर भगवान को चक्कर आने लगा। अरे भाई! कुछ खाने- पीने का इंतजाम है कि नहीं? एक महीने तूने पानी से स्नान तो करा दिया, परन्तु खाने का कोई इंतजाम नहीं किया। हाँ महाराज जी। खाने का भी इंतजाम करेंगे? क्या इंतजाम करेगा? ले आ कुछ डबल रोटी, बिस्कुट ले आ, बोर्नवीटा ले आ, कुछ हॉर्लिक्स ले आ, कुछ दूध ले आ। महाराज जी। आप तो मजाक कर रहे हैं। आप इन्हें मत खाइये। तो क्या खायें? महाराज जी! मैं तो आपके लिए ऐसी खुराक लाऊँगा जो आपके भी काम आ सके और आपके बैल के भी काम आ सके। इससे दोनों का गुजारा हो जायेगा।
क्या लायेगा? बेल का पत्ता लाऊँगा। अच्छा, तू बेल का पत्ता लायेगा? पूड़ी, कचौड़ी, लड्डू, रोटी, दाल, चावल आदि कुछ नहीं? नहीं महाराज जी! यह सब तो होटल में बनते हैं और आप तो जानते हैं कि आजकल के होटलों का कोई भरोसा नहीं है। आप तो वह चीज खाइए जो प्राकृतिक है। प्राकृतिक क्या है? बेल का पत्ता। बेल का पत्ता आप भी खाइये और आपका बैल भी गायेगा। दवाई के लिए आक का फूल खायें और धतूरे का फल खाइये। फिर क्या हुआ? शंकर भगवान ने आक के फूल खाये और धतूरे का फल खाया। इससे गले में छाले पड़ गये और उन्हें खूब नशा आने लगा, चक्कर आने लगे। शंकर भगवान ने कहा कि यह घपला करता है भगत, हमको तू मारकर ही रहेगा क्या? या जिंदा छोड़ेगा? महाराज जी! आपको जिंदा कैसे छोड़ दूँगा। जिंदा छोड़ देने के लिए मैंने क्या यह भक्ति की है? अब तो आपकी ईंट से ईंट बजाकर जाऊँगा। शंकर भगवान ने कहा- ठीक है बेटे, जो कुछ होगा देखा जायेगा। शंकर भगवान ने आक के फूल और धतूरे के फल खा लिए। जैसे ही शंकर जी को बेहोशी आने लगी, भगत जी ने चुपके से पीछे से झोली में हाथ डाला। झोले में क्या निकला था? झोले में निकली थी डायरी। डायरी में क्या था? उसमें थे लाटरी के नम्बर। इसमें से गुजरात लॉटरी के दो लाख तीन हजार छः सौ उन्नीस रुपये, यू.पी. लॉटरी के तीन हजार एक सौ इक्यासी रुपये थे। डायरी लेकर भगत जी गायब हो गये और सारी की सारी लॉटरियाँ खरीद लीं। लाइये साहब! इन नम्बरों की लॉटरी की रकम मुझे दे दीजिए। जब शंकर भगवान होश−हवास में आये तब उन्होंने कहा कि अरे भाई। हमारा थैला कहाँ गया? इसमें से डायरी कौन ले गया? अच्छा भगत जी ले गये। यह कौन से भगत हैं? यह भगत हैं आप, शंकर भगवान की हजामत बनाने वाले, जालसाज।
भक्ति का मखौल न बने
मित्रो! क्या करना चाहिए? यह भी कोई भक्ति हो सकती है? भक्ति का मखौल मत बनाइये। भक्ति के साथ दिल्लगीबाजी मत कीजिए। भगवान के साथ दिल्लगीबाजी करना मुनासिब नहीं है। दिल्लगीबाजी औरों से मुनासिब है- अपने पड़ोसी से कीजिए, अपने साले से कीजिए, अपने बहनोई से कीजिए, पर शंकर भगवान से मखौल मत कीजिए। ये मखौल बनाने के लिए नहीं बनाये गये हैं। आप जैसी भक्ति करते हैं, मखौल बनाते हैं। बड़े आये भक्ति करने वाले। भक्ति कैसे हो सकती है? भक्ति का एक ही तरीका है कि हम भगवान के साथ पीछे- पीछे चलने की कोशिश करें। और भगवान का अनुसरण करने की कोशिश करें। भगवान को अपनी मर्जी पर चलाने की अपेक्षा भगवान की मर्जी पर चलने की कोशिश करें। बेटे, भगवान को अपनी मर्जी पर नहीं चलाया जाता, वरन् भगवान की मर्जी पर चला जाता है। नहीं साहब! भगवान को हमारी मनोकामनाएँ पूरी करनी चाहिए। नहीं बेटे, भगवान को आपकी मनोकामनाएँ पूरी नहीं करनी चाहिए। आपको भगवान की मनोकामना पूरी करनी चाहिए। नहीं साहब! भगवान को हमारी शरण में आना चाहिए? नहीं बेटे, भगवान को आपकी शरण में नहीं आना चाहिए, वरन् आपको भगवान की शरण में जाना चाहिए।
आप मानिए भगवान का कहना
क्या मतलब है इसका? इसका अर्थ है कि भगवान के संकेत और भगवान के इशारे और भगवान के निर्देश आपके लिए मान्य होने चाहिए और आपको उस राह में चलना चाहिए। नहीं साहब! हमारा कहना भगवान को मानना चाहिए। आपका कहना? आप हैं कौन? जरा शीशे में मुँह देख करके आना। अजी साहब। ये तो वही चेहरा है जो देवी को नारियल खिलाते हैं और हम वही हैं जो हनुमान जी को सवा रुपये का लड्डू खिलाते हैं। आप वही हैं? हाँ साहब! हमारा कहना मानना चाहिए। क्यों मानना चाहिए? क्योंकि हमने सवा रुपये का लड्डू खिलाया था। किसको? हनुमान जी को। अच्छा तो आपने हमें लड्डू इसीलिए खिलाया था? हाँ साहब! इसीलिए आपको लड्डू खिलाया था कि आपको हमारा हुकुम मानना पड़ेगा और हमारी मर्जी पूरी करनी पड़ेगी। चुप धूर्त कहीं का, मेरी मनोकामना पूरी करनी पड़ेगी?
मित्रो! क्या करना चाहिए, इस वास्तविकता को समझिये। अगर वास्तविकता को नहीं समझेंगे, तो यह घोर अज्ञान है। यही घोर अज्ञान हर जगह छाया हुआ है। देवी- देवताओं की हजामत बनाने के लिए माहिर लोग हर जगह सफाया करते चले जाते हैं। और आप? आप देववाद का भी सफाया कर देंगे। भक्ति के सिद्धान्तों का भी सफाया कर देंगे और भक्ति के आधार पर किसी को जो मिलना चाहिए, वह सारे के सारे सिद्धान्तों का सफाया कर देंगे। क्या करना पड़ेगा? बेटे, हम वही आपको समझा रहे हैं।
समझें कि आखिर गायत्री है क्या?
मित्रो! आपको हम गायत्री उपासना का महत्त्व बता रहे थे और यह कह रहे थे कि गायत्री उपासना आपको करनी चाहिए और विश्व को इसकी उपासना करने के लिए समर्थन देना चाहिए। उसका प्रचार करना चाहिए। गायत्री कैसी है और उसकी कौन सी भक्ति करनी चाहिए? बेटे, आप यहाँ से चलें। यह हमने पहले ही आपको बता दिया था कि गायत्री की पूजा करें, गायत्री का जप करें, गायत्री का अनुष्ठान करें, लेकिन सबसे अहम् सवाल यह है कि सबसे पहला वाला सवाल हमसे यह पूछना चाहिए कि आखिर गायत्री है क्या? यह बात जब आपकी समझ में आ जाय, तब चाहे आप भजन करना, चाहे पूजा करना, चाहे अनुष्ठान करना, चाहे जप करना, ध्यान करना, चाहे हमको मिठाई खिलाना, चाहे आप लड्डू बाँटना, आपको जो मन आवे, सो करना, पर पहले जान लें कि आखिर गायत्री है क्या?
यह एक ताकत है, संवेदना है
मित्रो! गायत्री क्या है? एक भाव संवेदना है। संसार में दो शक्तियाँ हैं। एक शक्ति वह है, जो ताकत के रूप में है, जो एटम में से उदय होती है और जो फोर्स कहलाती है। यह सारे विश्व में ताकत के रूप में, बिजली के रूप में फैली हुई है और जो हमारे शरीर को चलाती है। एटम को चलाती है, रेलगाड़ी को चलाती है। यह ताकत है जो तरह- तरह के काम करती है। यह पदार्थ की शक्ति है। एक और दूसरी शक्ति है- आध्यात्मिक शक्ति, जिसको हमने गायत्री महाशक्ति के रूप में चित्रित कर दिया है और उसका एक स्वरूप बना दिया है।
नारी में शालीनता का दर्शन
मित्रो! स्वरूप से क्या मतलब है? स्वरूप से हमारा मतलब है- भावशक्ति। वह भावशक्ति, जिसकी आपको पूजा करनी है, उपासना करनी है, जिसका समर्थन करना है। जिसको आपको अपने जीवन में हृदयंगम करना है। उसका स्वरूप क्या हो सकता है? बताइये? बेटे हम बताते हैं कि स्वरूप क्या हो सकता है? गायत्री एक महिला है। कैसी महिला है? ऐसी महिला है जिसकी हुकूमत कितनी हो सकती है, आप जानते हैं? बेटे मेरा ऐसा ख्याल है कि गायत्री माता की आज तक हमने जो भी फोटो बनायी है, या जो मूर्तियाँ स्थापित करायी हैं, उसमें से प्रत्येक गायत्री माता की कितनी उम्र होनी चाहिए। मेरे ख्याल से उसकी उम्र बीस के करीब होनी चाहिए। महाराज जी! आपने छोटी बच्ची क्यों छाप दी? नहीं बेटे, हम छोटी बच्ची नहीं छापना चाहते। तो महाराज जी! आपने बुड्ढी गायत्री माता क्यों नहीं छाप दी, जिसके दाँत उखड़े हुए होते और बाल सफेद होते। नहीं बेटे, उसकी भी नहीं छापी।
क्यों? जवान की ही क्यों छापी? जवान की हमने इसलिए छापी कि आपकी आँखों में हम शालीनता उत्पन्न करना चाहते थे और यह कहना चाहते थे कि जवान महिला को आप ‘माँ’ कहें। नहीं साहब! यह तो बीबी है, तरुणी है और कामिनी है। नहीं बेटे, यह देवी है। तू इसे देवी समझ। देवी समझने से क्या हो जायेगा? तुम्हारी आँखों में शालीनता आयेगी। किस तरह से आयेगी? शिवाजी की तरह से आयेगी। यही देवी तुझे तलवार दे सकती है और अर्जुन की तरीके से गाण्डीव दे सकती है। अर्जुन को जब अप्सराओं के यहाँ भेजा गया, तो उसने उन अप्सराओं के चरणों की धूल मस्तक पर लगाकर यह कहा कि आप कुंती के तरीके से हमारी माँ हैं। उसे गाण्डीव मिला था। गाण्डीव कैसा था? बड़ा जबरदस्त था? गान्धारी ने आँखों में पट्टी बाँध ली थी। क्यों बाँध ली थी? बुड्ढे आदमी के साथ हमारा ब्याह हुआ है और हमारी उम्र और अक्ल बहुत खूबसूरत है। हमारा ईमान डाँवाडोल हो सकता है या फिर हम किसी और इन्सान का ईमान डाँवाडोल कर सकते हैं, इसलिए हम आँखों में पट्टी बाँधेंगे। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि सामान्य में असामान्य दर्शन, नारी में शालीनता का दर्शन, नारी में पवित्रता का दर्शन, नारी में मातृशक्ति का दर्शन। यह सारे के सारे दर्शन सेवा का दर्शन, स्नेह का दर्शन हमें युवा गायत्री में करना है।
मित्रो! नारी अपने आप में सारे के सारे उच्चस्तरीय दर्शनों का केन्द्र है। उस नारी को समझना। इसको रमणी मत समझना, इसको भोग्या मत समझना। यदि इसे रमणी और भोग्या समझना शुरू किया तो वह तुमको खा जायेगी, चबा जायेगी। कुछ ऋषियों ने नारी की बड़ी निन्दा की। क्या- क्या कहा? किसी ने उसे डाकिन बताया है। नागिन बताया है। सर्पिणी बताया है, चुड़ैल बताया है और न जाने क्या- क्या कहा है और यह कहा है कि नारी से दूर रहना। तो महाराज जी! अभी तो आप कह रहे थे कि गायत्री माता की पूजा करना। बेटे, मैं तो नारी की बात कह रहा था और यह कह रहा था कि जिस दृष्टि से तू नारी को देखता है, उसका नाम कामिनी है, रमणी है और डाकिन है। डाकिन की नारी को बदल दें और इसमें देवत्व का दर्शन करें और अपनी आँखों से इसमें पवित्रता के दर्शन करें, जो कि सूरदास ने किया था। सूरदास ने अपनी आँखें फोड़ डाली थीं और फिर नयी आँखें बनायी थीं, जिसमें से श्रीकृष्ण भगवान दिखाई पड़ते थे। पहले कौन सी थी, जिसे उन्होंने फोड़ डाली थीं? बेटे, पहले बिल्वमंगल की आँखें थीं, जिसे उन्होंने फोड़ डाली थीं। नहीं साहब! नहीं फोड़ना चाहिए था। बेटे, मेरा मतलब आँख फोड़ने से नहीं है, वरन यह है कि आप अपनी आँखों की उस घृणित दृष्टि को बदल दें जो बिल्वमंगल के पास थीं। हम कौन सी दृष्टि का विकास करें? उस दृष्टि का विकास करें जो बिल्वमंगल ने सूरदास बनकर नयी दृष्टि का विकास किया था। जब नयी दृष्टि का उनने विकास किया था, तब भगवान उनके पास आये थे और साथ- साथ चलते थे।
उपासना अर्थात् व्यक्तित्व का परिष्कार
मित्रो! यह क्या है? यह गायत्री माता का स्वरूप है। मानवता की देवी, उत्कृष्टता की देवी, मनुष्यता की देवी, आदर्शवादिता की देवी, शालीनता की देवी, सिद्धान्तों की देवी- इसका नाम है गायत्री माता। यह क्या लिए हुए है? यह भावना, आदर्श, उत्कृष्टता, पवित्रता, प्रखरता आदि लिए हुए है। गायत्री माता में क्या है? आदर्श है। नहीं साहब! गायत्री माता के पाँच मुख हैं, तीन मुख हैं। एक हाथ में वह गदा लिए हुए है और एक हाथ में चाबुक लिए हुए है और एक हाथ में तलवार है। बेटे बके मत कि एक हाथ में तलवार लिए है, एक में चाबुक है और एक में गदा है। कहाँ लिए है और कहाँ बैठी है? साहब! वहाँ बैठी है- पीपल के पेड़ पर। नीम के पेड़ पर बैठी है, पहाड़ पर बैठी है। बेटे, बेकार की बातें मत कर, बात को समझ जरा। अच्छा तो, महाराज जी! क्या बात है? भाव संवेदना है यह। अगर आपके भीतर भाव संवेदना जागृत हो सकी, तब आप निहाल हो जायेंगे। और जो हमने आपको गायत्री उपासना के लाभ बताये थे, वह सब अपने आप आपको मिलते चले जायेंगे। फिर एक भी लाभ ऐसा नहीं बचेगा, जिसके बारे में आपको शिकायत करनी पड़े कि हमने गायत्री की उपासना की थी, पर कोई लाभ नहीं मिला।
मित्रो! गायत्री की उपासना करने के लिए आपको क्या करना पड़ेगा? इसमें एक ही काम करना पड़ता है और वह है अपने व्यक्तित्व का विकास। नहीं साहब! देवी को प्रसन्न करने के लिए भेंट देना, पाठ करना और उसकी प्रशंसा करनी पड़ती है। बेटे, ऐसा नहीं है। उपासना का मतलब एक ही है कि हम देवताओं के पास बैठ जाएँ और अपने व्यक्तित्व को उनके ढाँचे में ढालते हुए चले जाएँ। बस इतना ही मकसद है। नहीं महाराज जी! यह देवता को रिश्वत देना नहीं है, चापलूसी करना नहीं है और देवता की जेब काटना भी नहीं है। देवता के ऊपर जाल फैलाना भी नहीं है। जबान से उसकी लम्बी- चौड़ी प्रशंसाएँ गाते रहना भी इसका अर्थ नहीं है। उपासना का एक ही अर्थ है कि जिस इष्ट की हम उपासना करते हैं, जिसके निकट बैठते हैं, उसके अनुरूप बनते हुए चले जाते हैं। गायत्री का जो स्वरूप हमने आपको बताया है, उस सद्भावना की देवी के अनुरूप आप बनते हुए चले जायें। आप अपने जीवन को उस स्तर का बनायें।
मित्रो! हमें किस स्तर का अपना जीवन बनाना चाहिए, ताकि गायत्री माता की कृपा पा सकें। यह रहस्य भी गायत्री माता के चित्र में बता दिया गया है। गायत्री माता के चित्र में हमने उनका एक वाहन बना दिया है, जिसका नाम है- हंस। यह हंस क्या है? हंस बेटे एक छोटा सा पक्षी होता है और गायत्री माता उस पर सवारी करती हैं और सवारी करके चाबुक ले के के बैठ जाती हैं और उस पर चाबुक चलाती हैं कि चल जल्दी- जल्दी चल। हंस कितना बड़ा होता है? छोटा सा होता है। और गायत्री माता कितनी बड़ी होती हैं? गायत्री माता बेटे बीस साल की हैं। गुरुजी! बीस साल की गायत्री माता छोटे से हंस पर सवार हो जायेंगी, तो उसका क्या होगा? बेटे वह पिचक जायेगा, उसका कचूमर निकल जायेगा। बेटे अगर तेरे पुट्ठे के नीचे हम एक हंस लगा दें तो? चल हंस नहीं मिलेगा, तो एक कौआ लगा देंगे, कबूतर लगा देंगे, बत्तख लगा देंगे। और कहेंगे कि आ बेटे, बैठ तो सही इसके ऊपर। वह चलेगा कि उसका चिप्पा हो जायेगा? तेरे वजन से बिल्कुल चिप्पा हो जायेगा। अच्छा महाराज जी! गायत्री माता का वजन कितना है? बेटे जितना तू भारी है, उससे कम से कम ढाई गुना ज्यादा वजन गायत्री माता का तो जरूर होगा। और ज्यादा भी हो सकता है। फिर हंस का क्या होगा?
झीनी झीनी रे चदरिया
बेटे, गायत्री माता हंस की सवारी पर ही जाती हैं। वह बहुत जोर से भागता है। फिर तो हम भी हंस पर ही चढ़ेंगे। नहीं भाई साहब! यह तो गलत बात है। फिर क्या चक्कर है? चक्कर कुछ भी नहीं है। हंस क्या होता है? बेटे हंस एक पखेरू होता है। और मनुष्य कौन होता है? मनुष्य राजहंस होता है, परमहंस होता है। परमहंस उसे कहते हैं, जो महामानव होते हैं और राजहंस उसे कहते हैं जो सामान्य जीवन में रहते हुए आदर्शवादी, सिद्धान्तवादी, नेक, शरीफ और उच्चस्तरीय नागरिक होते हैं। उनका नाम है- राजहंस। और उनका नाम है- परमहंस, जिनकी पहचान यह है कि ये रंग से सफेद होते हैं। इनके कपड़े धुले हुए होते हैं। ये धुले हुए कपड़े पहनते हैं। ये कभी भी मैले कपड़े नहीं पहनते। कबीरदास जी के शब्दों में- ‘‘दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया। झीनी झीनी- झीनी रे चदरिया॥’’ उनका जीवन कलंकों से रहित, दोष- अवगुणों से रहित, पापों से रहित होता है। इनकी झीनी- झीनी चादर साफ होती है और वे नीर और क्षीर का विवेक रखते हैं। वे क्षीर अर्थात दूध पीते हैं और पानी को निकाल देते हैं।
अच्छा महाराज जी! राजहंस खाते क्या हैं? बेटे वे मोती खाते हैं, कीड़े नहीं खाते। क्यों साहब! यह राज हंस की खासियत है? हाँ बेटे, यह राजहंस की खासियत है। परन्तु महाराज जी। सामान्य हंस तो कीड़े खाते हैं, पर वह कौन सा हंस है जिसके बारे में आप यह कह रहे थे कि वह पानी नहीं पीता और दूध पीता है। बेटे वे परमहंस और राजहंस होते हैं। वे सामान्य हंस नहीं होते। परमहंस वह इंसान होता है जो नेक होता है। पवित्र इंसान को परमहंस कहते हैं, सज्जन इंसान को, शरीफ इंसान को परमहंस कहते हैं। गायत्री माता ऐसे सज्जनों पर, शरीफों पर, पवित्र लोगों पर सवारी करेंगी। जो लोग मोती खाते हैं, गायत्री माता उन पर सवारी करती हैं। क्या संसार में लोग मोती भी खाते हैं? हाँ बेटे- ‘‘कै हंसा मोती चुगै, कै लंघन मर जाय।’’ भूखों मर जायेंगे, पर हम मोती चुगेंगे। हम पर तंगी आ जायेगी, तो हम बर्दाश्त कर लेंगे। मरने से ज्यादा तो और कोई बात नहीं हो सकती। मरना तो इस तरह भी है और उस तरह भी। नहीं साहब! हम बेईमानी नहीं करेंगे, तो हम पर मुसीबत आ जायेगी। नहीं बेटे, मरना तो पड़ेगा। बेईमानी से भी आप जियेंगे नहीं, मरेंगे ही।
ये कौन हैं? ये सिद्धान्तवादी हंस हैं, जो एक- एक पाई के ऊपर ईमान बनाकर रखते हैं। एक- एक पैसे के ऊपर मरते- फिरते हैं। जहाँ कहीं भी चिकनी मिट्टी देखते हैं, वहीं उनके पैर फिसल जाते हैं। वे वो हंस हैं, जिनको उचित- अनुचित का ज्ञान नहीं है। क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, उचित भी वही, अनुचित भी वही, सही भी वही और गलत भी वही। पाप भी वही और पुण्य भी वही। किसको छोड़ना चाहिए और किसको नहीं छोड़ना चाहिए, यह इन्हें पता ही नहीं चलता। विद्वेष की कोई सीमा नहीं है। इनके लिए कोई मर्यादा भी नहीं है कि हमको क्या करना है और क्या नहीं करना। जो भी होगा, जिससे भी हमारा मतलब सिद्ध होगा, हम तो वही करेंगे। फिर आप हंस नहीं हो सकते। फिर आप कौन हो सकते हैं? फिर आप कौए हो सकते हैं। तो फिर क्या गुरुजी! गायत्री माता हमारे ऊपर सवार होंगी? नहीं आपके ऊपर गायत्री माता सवार नहीं होंगी। एक कौआ आया और बोला- गायत्री माता हम आपको सामान खिलायेंगे। क्या खिलायेंगे? हम आपको प्रसाद खिलायेंगे, लड्डू खिलायेंगे, पेड़ा खिलायेंगे। आप हमारे ऊपर सवार हो जाइये। चल भाग यहाँ से। और गायत्री माता ने उसे भगा दिया और हंस पर सवारी कर ली। कौए तू गायत्री माता के पास जाना भी मत, नहीं तो मारे डंडे के तेरा कचूमर निकाल देंगी।
नहीं साहब! मैं तो अनुष्ठान करूँगा। अनुष्ठान कर ले बेटे, अनुष्ठान करने में कोई हर्ज की बात नहीं है, पर यह हिम्मत करने या जुर्रत करने से पहले गायत्री माता का प्यार, गायत्री माता का अनुग्रह, गायत्री माता का प्रेम, गायत्री माता का वरदान, गायत्री माता का आशीर्वाद जो मिलना चाहिए, उसे लें। पहली आवश्यकता इस बात की है कि आदमी को हंस बनना चाहिए। जब आप हंस बनेंगे, तब गायत्री माता आयेंगी। अगर आप हंस नहीं बनेंगे तो गायत्री माता नहीं आयेंगी। यह क्या है? यह सिद्धान्त है कि हमको भगवान की साधना, गायत्री माता की साधना, गायत्री के चमत्कार की सिद्धि व शक्ति प्राप्त करने के लिए हमको वहीं से शुरू नहीं करनी चाहिए कि गायत्री माता का इतने हजार जप करेंगे और इतनी मिठाई खिलायेंगे। बेटे, यह तो आरती नहीं है, साधना नहीं है, जप नहीं है और आपके इस आरती का, जप का गायत्री माता पर कोई असर नहीं पड़ सकता है। आपके हवन का गायत्री माता क्या करेंगी? नहीं साहब! मेरे हवन से निहाल हो जायेंगी और उनका पेट भर जायेगा। अरे चालाक। गायत्री माता तेरी नीयत को जानती हैं। नहीं साहब! इतना उच्चारण करेंगे, इतना जप करेंगे मंत्र बोलेंगे और हम गायत्री माता को बहका लेंगे। बेटे, आपकी नीयत को गायत्री माता जानती हैं। क्या वह आपकी जीभ को नहीं देखती कि जीभ की नोंक से आपने क्या कहा, कितने पाठ किये? जीभ की नोक से गायत्री माता का ताल्लुक नहीं है। ताल्लुक इस बात का है कि आपकी नीयत में क्या है? आपके ईमान में क्या है? ईमान और नीयत के अलावा गायत्री माता और कुछ नहीं देखतीं।
गायत्री ही कामधेनु है
इसलिए मित्रो! क्या करना पड़ेगा? अपने जीवन का परिष्कार करना पड़ेगा। आपको शायद मालूम नहीं है। मैंने सबसे पहले जो पुस्तक लिखी थी, वह ‘‘गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है’’ के नाम से निकली थी। यह कौन सी पुस्तक थी? बेटे, यह सबसे पहली पुस्तक थी, जो मैंने छापी थी। छापने के तीन महीने बाद उसका छापना बंद हो गया। क्या मतलब था उसका? यह था कि गायत्री कामधेनु है और हर आदमी की हर कामना पूरी कर सकती है। लेकिन यह किसकी करती है? यह ब्राह्मण की मनोकामना पूरी करती है। मैंने यह छापा था, लेकिन जब मैं लोगों से यह कहने लगा कि इसमें ब्राह्मण, बनिये का कोई फर्क नहीं है, कोई भी उपासना कर सकता है, तो लोगों ने मेरी ही किताब का पन्ना फाड़कर मेरे ही पास भेज दिया। कहा कि आपने तो कहा था कि ‘गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है।’ यह ब्राह्मण के लिए योग्य है, फिर बाकी लोग कैसे कर सकते हैं? ठाकुर कैसे करेंगे? कायस्थ कैसे करेंगे? धत्त तेरे की- मैंने कहा कि मेरा किया मेरे लिए ही उल्टा पड़ गया। मैंने किताब का नाम छापना बंद कर दिया। जब दूसरा संस्करण छपाया तो उस पर ‘‘गायत्री ही कामधेनु है’’- यह नाम रख दिया। ब्राह्मण शब्द काट दिया, क्योंकि उससे भ्रम फैलता था। लोग यह समझते थे कि यह ब्राह्मण के लिए है। ब्राह्मण माने बामन। बामन कौन होता है? बामन होता है- पचास एक एक्यावन, पचास दो बामन, पचास तीन तिरपन, पचास चार चौवन। ये बामन अलग होते हैं जो वंश के हिसाब से पैदा होते हैं। ‘बामन’ एक वंश है और ब्राह्मण एक वर्ग है। वंश और वर्ग का फर्क समझना चाहिए।
मित्रो! मेरा मकसद था कि यह गायत्री कामधेनु तो है, लेकिन ब्राह्मण वर्ग के लिए है। लेकिन लोगों ने इसका अर्थ निकाल लिया कि गायत्री ब्राह्मण वंश के लिए है। बेटे यह वंश के लिए नहीं है, वर्ग के लिए है। इसीलिए हमने इस पुस्तक को बहुत दिनों तक छापना बंद कर दिया और लोगों से यह कहता रहा कि यह सबकी है। कल भी मैं यही कह रहा था कि इसमें मनुष्य मात्र का अधिकार है। इसमें वामन, बनिये का कोई चक्कर नहीं पड़ता है। हिन्दू, मुसलमान का भी कोई चक्कर नहीं पड़ेगा। संसार सबके लिए बनाया गया है। गायत्री सबके लिए बनायी गयी है और यह सबके लिए फायदेमन्द है। कल भी मैं यही कह रहा था और आज भी यही बात कह रहा हूँ।
मित्रो! क्या कह रहा हूँ? यही कि इसका अधिकार सबको है। अगर आपको इसका चमत्कार प्राप्त करना हो, गायत्री की सिद्धि प्राप्त करनी हो, गायत्री का अनुग्रह प्राप्त करना हो, तो आप एक बात का ध्यान रखना। क्या बात ध्यान रखें? आपको ब्राह्मण बनना पड़ेगा। यह ब्राह्मण की कामधेनु है? बिल्कुल बेटे, यह ब्राह्मण की है। ब्राह्मण के अलावा? ब्राह्मण के अलावा किसी की भी नहीं है। ब्राह्मण के अलावा इस पर अधिकार तो सबको है, पर इसका अनुग्रह नहीं पा सकता है। कोई नहीं पा सकता है। गायत्री का अनुग्रह कौन पायेगा? अनुग्रह पायेगा- ब्राह्मण। कल मैं एक श्लोक बोल रहा था, जिसमें सात बातें बता रहा था। क्या बता रहा था? यही कि- ‘‘आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् मह्यम् दत्वा ब्रजत ब्रह्मलोकम्।’’ इसका मतलब क्या है? यह जिह्वा को पवित्र करती है। इसका वर्णन ब्राह्मणत्व के लिए आया है। सावित्री और सत्यवान की कथा में जिस तरह बताया गया है कि सावित्री अर्थात् गायत्री ने सत्यवान को वरण किया था। सत्यवान के गले में माला पहनाई थी। गायत्री माता की जयमाला, गायत्री माता की वरमाला अभी भी सुरक्षित है और आप उसको पहन सकते हैं। शर्त यही है कि आपको
सत्यवान होना चाहिए।
गायत्री या सावित्री झूठवान को माला पहनाएँगी? नहीं भाई साहब। आप झूठवान हैं, हम आपको माला नहीं पहनाएँगे। आप हमारे साथ चलिए और हमारी सहायता कीजिए। गायत्री आपकी सहायता नहीं करेगी, क्योंकि आप झूठवान हैं। अगर आप सत्यवान होंगे, तो एक बार क्या, प्रत्येक बार माला पहनाएँगे। सावित्री और सत्यवान की कथा तो आपने पढ़ी ही है कि उन्होंने मरे हुए को जिंदा कर दिया था। गायत्री माता, मरे हुए को जिंदा कर सकती हैं? हाँ बेटे, मरे हुए को जिंदा कर सकती हैं। मरे हुए कैसे होते हैं? जैसे हम और आप हैं। नहीं साहब! गुरुजी आप मरे हुए हो सकते हैं, हम तो जिंदा में से हैं। हम कैसे मानें कि आप जिंदा हैं, सबूत बताइये। महाराज जी! सबूत तो यह है कि नाक में से हवा चलती है। हाँ ठीक है। हम रोटी खाते हैं और टट्टी कर देते हैं। बेटे, जिंदा होने का बस यही सबूत है, तो मैं पूछता हूँ कि लोहार की जो धौंकनी होती है उसमें से हवा निकलती है। नाक में से भी हवा बाहर निकलती रहती है। लोहार की धौंकनी जिंदा है कि मरी हुई है। महाराज जी। मरी हुई है और आपके नाक में से हवा निकलती है, तो आप जिंदा हैं कि मरे हुए हैं? साहब हम तो जिंदा हैं। रोटी खाते हैं और टट्टी करते हैं।
अच्छा देख, आटा पीसने की चक्की होती है। उसमें ऊपर से गेहूँ डालते हैं और नीचे से वह पाखाना करती है। बता, चक्की मरी हुई है या जिंदा है? महाराज जी! चक्की तो मरी हुई है। और तू मरा हुआ है कि जिन्दा है? नहीं महाराज जी! अभी तो हम जिंदा हैं। नहीं बेटे, तू मरा हुआ है और मरे हुए इंसान सड़े हुए इंसान होते हैं। मूर्च्छित इंसान होते हैं। परावलम्बी इंसान होते हैं। मुर्दा पड़ा हुआ है। क्यों साहब! मुर्दे जी! चलिए, जरा टहल- टहलाकर आयें। अभी हम नहीं चल सकते। क्यों? आप अपने आप भी चलें और हमें भी अपने कंधे पर बिठाकर चलें। नहीं साहब! हम यह नहीं कर सकते हैं, क्योंकि अब हम मरे हुए हैं। परावलम्बी हैं, दूसरों पर आश्रित हैं। दूसरों से अपेक्षा करने वाले हैं। दूसरों से सहायता कराने वाले हैं। जीवित आदमी अपनी समस्याओं का आप ही हल निकालता है और दूसरों को अपने कंधों पर बिठा कर ले चलता है। वे जीवित आदमी हैं।
गायत्री का वास्तविक स्वरूप
मित्रो! मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप जीवन देने वाली जीवित गायत्री माता से ताल्लुक रखिए, मरी हुई से नहीं। जीवंत गायत्री माता की शक्ल मैंने आपको बतायी और यह बताया कि गायत्री का वास्तविक स्वरूप क्या है? मैं समझता हूँ कि यह स्वरूप आपकी समझ में आ गया होगा। अगर आप गायत्री का वास्तविक लाभ उठाना चाहते हैं, तो इससे कम में भी नहीं मिल सकता और इससे ज्यादा भी करने की कुछ आवश्यकता नहीं। पहले आप गायत्री का वास्तविक स्वरूप समझिए और स्वरूप समझने के पश्चात् ऐसी भक्ति करना शुरू करें जैसी अपेक्षित है। अपेक्षित क्या है? बाजीगर अपना तमाशा तब दिखा पाता है, जब कठपुतली अपने धागे को बाजीगर के हाथ में बाँध देती है। गायत्री माता भी आपको चमत्कार तब दिखा सकेंगी, जब आप अपने जीवन के धागे को उनके हाथ में बाँध देंगे। अर्थात् उनकी प्रेरणा, उनकी शिक्षायें, उनका मार्गदर्शन ग्रहण करने और स्वीकार करने के लिए आप तैयार हो जाइये। भक्त उसी का नाम है जो सरेण्डर करता है। भक्त उसका नाम है, जो कहना मानता है। भक्त उसका नाम है, जो पीछे- पीछे चलता है। उसका नाम भक्त नहीं है जो आगे- आगे चलता है और अपने भगवान को अपने पीछे चलाना चाहता है। उसका नाम भी भक्त नहीं है, उसका नाम है- बॉस। आपका नाम है- बॉस और हनुमान का नाम है- भक्त।
नहीं महाराज जी! हनुमान तो देवता हैं और हम उनके भक्त हैं। नहीं बेटे, आप भगत नहीं हैं। हनुमान आपके भगत हैं और आप मालिक हैं। आप उनके देवता हैं। नहीं साहब! ऐसा कैसे हो सकता है? बेटे, ऐसा ही है। आपने जो सलूक बना रखा है कि हनुमान को हमारी मर्जी पर चलना चाहिए और हमारा कहना मानना चाहिए, हमारी इच्छाओं को पूरा करना चाहिए और हमारी आवश्यकताओं के लिए अपने पुण्य तक को छोड़ देना चाहिए। इसका मतलब सौ फीसदी यही है कि आप बॉस हैं और हनुमान हैं आपके वेटर। वेटर कौन होता है? वेटर उसे कहते हैं जो होटलों में चाय लाता रहता है। ऐ वेटर! हाँ साहब! क्या लाना है? कॉफी लाओ। अच्छा जी! अभी लाया। आमलेट और ला? अभी लाया। जल्दी- जल्दी लाने का उसे क्या मिलेगा? आपने एक रुपये का जो सामान खरीदा है, उसमें से जो बीस पैसे बचे, जब बैरा बिल लावे तो उस बीस पैसे को उसे दे दीजिए। यह क्या कहलायेगा? यह कहलायेगा- टिप। तो आप हनुमान जी को क्या देना चाहते हैं? टिप। टिप में क्या देंगे? लड्डू। चल, धूर्त कहीं का, हनुमान जी को हनुमान जी को लड्डू देना चाहता है। हनुमान जी को लड्डू खिलायेगा और उन्हें उल्लू बनायेगा। हाँ साहब। मैं तो लड्डू खिलाकर उल्लू बनाना चाहता था। बेवकूफ कहीं का, देवताओं के साथ मखौल बंद कर। देवताओं को बदनाम करना बंद कर। देवताओं की इज्जत गिराना बंद कर। अपनी इज्जत गिरा, पर देवताओं की मत गिरा। देवताओं की इज्जत का ख्याल रख। भक्ति न करना हो तो मत कर, पर देवताओं की इज्जत तो मत गिरा।
मित्रो! इसके लिए आपको क्या करना पड़ेगा? आपको अपने चिंतन को दूसरे रूप में बदल देना पड़ेगा। तब क्या करना पड़ेगा? गायत्री की प्रेरणाओं, गायत्री की शिक्षाओं का अनुकरण करना पड़ेगा, अनुसरण करना पड़ेगा। अनुकरण और अनुसरण करने के लिए गायत्री के चौबीस अक्षर जो हैं। इन्हीं अक्षरों में सारी की सारी प्रेरणाओं एवं शिक्षायें भर दी गयी हैं। आपको क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? भक्ति के लिए आपको अपने जीवन में किन सिद्धान्तों का समावेश करना चाहिए? गायत्री के अक्षरों में- उनकी स्वयं की संरचना में ये सारी की सारी शिक्षायें भरी हुई हैं। इनका आप अपने जीवन में अनुकरण करना चाहते हों, तो आपको सिद्धियाँ मिल सकती हैं और आप गायत्री के असली भक्त बन सकते हैं। गायत्री के असली भक्तों में से जिन- जिनने जो लाभ उठाये हैं, उनका जिक्र मैंने पहले भी किया था, आज फिर से आपसे कहता हूँ कि वह लाभ आपके लिए भी सुरक्षित हैं। गायत्री की सिद्धियाँ सुरक्षित हैं। गायत्री के लाभ सुरक्षित हैं। गायत्री का अनुष्ठान सुरक्षित है। कल जैसे मैंने आपको बताया था, वह आपके लिए सुरक्षित है। शर्त यही है कि गायत्री माता जो चाहती हैं, जो कहना चाहती हैं, उसको आप सुनें और समझें।
गायत्री मंत्र का निहितार्थ
मित्रो! गायत्री माता क्या कहना चाहती हैं? गायत्री के चौबीस अक्षरों की व्याख्या तो मैं नहीं करना चाहता, क्योंकि गायत्री के चौबीस अक्षरों में से एक- एक अक्षर की व्याख्या करने के लिए चौबीस दिन चाहिए। इसमें मनुष्य की बौद्धिक, नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक- प्रत्येक समस्याओं का समाधान है। गायत्री एक बीजमंत्र है, जिसमें मनुष्य के मार्गदर्शन व उसके जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान है। महाराज जी! आप और क्या कहना चाहते थे? बेटे, मैं यह कहना चाहता था कि गायत्री के जो अक्षर हैं, उनके इतने छोटे से अर्थों को समझ लें, तो आपका भी काम चल सकता है। चलिए गायत्री का सबसे स्थूल अर्थ, मोटे से मोटा अर्थ आपको मैं बताता हूँ। गायत्री का यह अर्थ है- गायत्री में एक ‘ओऽम’, तीन व्याहृतियाँ और छोटे- छोटे नौ शब्द हैं। नौ शब्दों में क्या है? चार शब्दों में भगवान के चार नाम हैं। भगवान के चार नाम ही ऐसे हैं जिनको हम अपने जीवन में धारण कर लें तो पर्याप्त है। क्या- क्या हैं- जरा बताइये? अच्छा लीजिए, गायत्री का संक्षिप्त अर्थ बताता हूँ।
मित्रो! लम्बे अर्थ जानना हो तो ‘‘गायत्री मंत्रार्थ’’ नाम की हमारी पुस्तक पढ़िए, लेकिन अभी तो मैं आपको गायत्री का संक्षिप्त अर्थ बताता हूँ। ‘‘ॐ भूर्भुवः स्वः’’ का अर्थ है- हे भगवान! आप सबमें समाये हुए हैं। ईश्वर सबमें समाया हुआ है। सबमें समाया हुआ है, तो हम क्या करें? बेटे, आपका काम यह है कि उसके बारे में आस्तिकता के जो सिद्धान्त हैं, उनको आप स्वीकार कर लें। क्या स्वीकार कर लें? दुनिया में कोई जगह ऐसी नहीं है, जहाँ छिप करके आप बुरा काम कर सकते हैं। छिपकर बुरा काम करने के लिए कोई जगह नहीं है।
‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ में- ॐ माने भगवान, ‘भूर्भुवः स्वः’ माने सारे के सारे तीनों लोकों में- भूलोक में, द्यौ लोक में, स्वर्ग लोक में- तीनों लोकों में समाया हुआ है। भगवान सर्वव्यापी है। और क्या है? भगवान न्यायकारी है। भगवान को क्या पसंद है? उसके सारे के सारे कायदे- कानून एक बात पर टिके हुए हैं और उसका नाम है- न्याय। खुशामद पर टिके हुए नहीं हैं, वरन् न्याय पर टिके हुए हैं। बिजली खुशामद पर टिकी हुई नहीं है। नहीं साहब! इसकी प्रार्थना करेंगे, तो पंखा चला देगी। नहीं बेटे, पंखा नहीं चलाएगी। कैसे चलाएगी? स्विच ऑन करना पड़ेगा, तब आपका पंखा चलेगा। गलत इस्तेमाल करेंगे, तो यह आपको मार डालेगी। क्यों साहब! यह क्या बात है? बात यह है कि यह कहती है कि जो उचित तरीका है, उससे आप हमको इस्तेमाल कीजिए।
आस्तिकता का सिद्धान्त
मित्रो! भगवान के अपने कायदे- कानून हैं। उनका आप ठीक से इस्तेमाल कीजिए, तो भगवान आपकी मदद करेंगे। तब आपको भगवान की कृपा मिलेगी। अगर आप भगवान की मर्यादाओं का उल्लंघन करेंगे, तो भगवान आपको मार डालेगा। नहीं साहब! भगवान दीनबन्धु हैं, दयालु हैं। नहीं बेटे, उसका एक नाम दीनबन्धु है, तो एक नाम रुद्र भी है। रुद्र किसे कहते हैं? भयंकर को रुद्र कहते हैं। भयंकर किसे कहते हैं? जल्लाद को। जल्लाद किसे कहते हैं? जल्लाद उसे कहते हैं जो मारे हंटरों के चमड़ी उघाड़ डालता है। ऐसा भी है भगवान? हाँ बेटे, ऐसा भी भगवान है। गुरुजी! मैं तो सोच रहा था कि भगवान दयालु है। बेटे, आपका दयालु भी समझना सही है, परन्तु हमारा यह कहना भी सही है क भगवान के बराबर मार लगाने वाला, हंटर बजाने वाला भी कोई नहीं है। मरघटों में जाइये, अस्पतालों में जाइये, पागलखाने में जाइये और देख करके आइए कि भगवान के हंटर कितने जबरदस्त होते हैं। वह कैसे खाल- चमड़ी उखाड़ देता है। भगवान ऐसा है? हाँ भगवान ऐसा है।
इसलिए अगर दो बातें आपके ध्यान में बनी रहें कि भगवान हर एक के भीतर जमा हुआ है, इसलिए हर एक के साथ में आपको सद्व्यवहार करना चाहिए। वह कहीं छिपा हुआ है और हम उससे बच सकते हैं, यह बात हमें अपने मन से निकाल देना चाहिए और भगवान के न्याय पर विश्वास रखना चाहिए। यह विश्वास रखना चाहिए कि भगवान को प्रसन्न करने का दुनिया में एक ही तरीका है कि भगवान की आज्ञा को अपने जीवन में धारण करें। और भगवान ने जिन बातों के लिए निषेध किया है, उन बातों से बचें। यह क्या है? यह आस्तिकता का पूरा सिद्धान्त है। इसमें कर्मफल की छवि पूरी तरीके से आ रही है।
‘‘ॐ भूर्भुवः स्वः’’- इन शब्दों को आप समझ लें, तो क्या होगा? तो आपको ब्रह्मज्ञान हो जायेगा। यह क्या है? यह ब्रह्मविद्या है। ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ ब्रह्मविद्या है। नहीं गुरुजी! उपनिषद् बताइये। बेटे, बस इतनी ही है ब्रह्मविद्या। यही उपनिषद् में है कि भगवान सर्वव्यापी है। उससे छिप करके आप कोई काम नहीं कर सकते। वह सबमें समाया हुआ है, इसलिए आपको सबके साथ में शराफत और सज्जनता का व्यवहार करना चाहिए और आपकी दृष्टि में यह बात बनी रहनी चाहिए कि हम उसकी मार से बच नहीं सकते। उसके कायदे को मान लेंगे तो उसकी दया के अधिकारी बनेंगे। बेकायदे चलेंगे, तो उसकी पिटाई से बच नहीं सकते। चाहे आप ग्यारह माला जप करें या ढाई माला जप करें। चाहे आप न करें, चाहे गालियाँ दें, लेकिन उसके इंसाफ से आप बच नहीं सकते।
मित्रो! यह क्या है? यह हमारा पूरे का पूरा आस्तिकता का सिद्धान्त है। अगर गायत्री मंत्र का यह पहला वाला पाठ आप सीख पायें, जिसको हम ‘ब्रह्मशीर्ष’ कहते हैं, तो मैं यह कहता हूँ कि आपने गायत्री की ब्रह्मविद्या को जान लिया। बस इतनी ही ब्रह्मविद्या है कि ईश्वर सर्वव्यापी है, अतः आप सबके साथ समानता का व्यवहार कीजिए। छिप करके अपनी जान बचाने की कोशिश मत कीजिए। उसके आज्ञानुसार चलिए और उसकी कृपा पाइये। उसकी आज्ञा का उल्लंघन मत कीजिए। उसके दंड से बचिए। इससे आप ब्रह्मविद्या के अधिकारी बन जाते हैं और आप गायत्री माता के भक्त कहलाने के अधिकारी हो जाते हैं।
भगवान के चार चरण
चलिए, इससे आगे चलिए। इससे आगे पहला वाला चरण है- ‘तत्’। यह क्या बात है? बेटे, यह मैं वही बात कह रहा था, जो कि तीसरी आँख का जिक्र आता है। तीसरी आँख वह है, जिसे ‘‘तत्’’ कहते हैं। ‘तत्’ माने वह। ‘वह’ से क्या मतलब है? ‘यह’ और ‘वह’ दो शब्द हैं। ‘यह’ जो है- प्रत्यक्ष है और ‘वह’ जो है- परोक्ष है। परोक्ष माने मरणोत्तर जीवन, मौत का जीवन, बुढ़ापे का जीवन, भावी जीवन, जो हमको दिखाई नहीं पड़ता। जो आपको दिखाई पड़ता है, उसका नाम है- ‘यह’। और जो दिखाई नहीं पड़ता है, उसका नाम है- ‘तत्’। ‘तत्’ माने दूर की चीज। ‘तत्’ शब्द से मतलब यह है कि आप प्रत्यक्ष समस्या को मत देखिए, दूर वाली समस्या को देखिए। परोक्ष को भी समझिए। मनुष्य को भी समझिए, जीवन के उद्देश्य को भी समझिए। गायत्री मंत्र के इस शब्द का यही इशारा है कि ‘तत्’- वह देखिए, वह देखिए। यह पहला वाला चरण है।
गायत्री मंत्र का अगला क्रम पंचाक्षरी के बाद ‘तत्’ के बाद शुरू होता है। इसमें फिर चार शब्द आते हैं। भगवान के चार चरण हैं, जिसमें चार वेदों का सार है। गायत्री के चार बेटे हैं, जिनको हम चार वेद कहते हैं और चार वेदों को चार शब्दों में, भगवान को चार शब्दों में सारे का सारा बता दिया गया है कि भगवान इतना ही है। भगवान के इन चार नामों में सब बातें आ जाती हैं। कौन- कौन सी?- ‘सवितु’, ‘वरेण्यं’- दो, ‘भर्गो’- तीन, ‘देवस्य’- चार। चार वेदों के चार सार हैं। यही वेदों के चार बेटे हैं। ‘सविता’ कहते हैं- सूर्य को। सूर्य से क्या मतलब है? सूर्य से दो मतलब है। क्या? रोशनी- एक, गर्मी- दो। भगवान का यह वह नाम है जो हमको रोशनी वाला बनने के लिए और गर्मी वाला बनने के लिए प्रेरणा देता है। सूरज गरम रहता है। सूरज प्रकाश देता है। यह दो गुण उसके अंदर हैं। सविता सूर्य को कहते हैं और हमारे भीतर उसकी यह दो विशेषताएँ होनी चाहिए। हमें गरम रहना चाहिए। गरम माने सक्रिय, क्रियाशील, कर्मठ होना चाहिए। गर्मी का अर्थ यहाँ क्रियाशीलता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और सक्रियता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। हमको हर समय क्रियाशील रहना चाहिए। हमको आलसी नहीं होना चाहिए। हमको गरम रहना चाहिए। सविता का अर्थ यह हुआ।
मित्रो! सविता का एक अर्थ और होता है- तेजस्वी। तेजस्वी माने प्रकाशवान। हमारा जीवन प्रकाशवान होना चाहिए, चमकपूर्ण होना चाहिए। अन्धकारमय जीवन नहीं होना चाहिए। दीपक जैसा होना चाहिए, ताकि हम अपने आप भी प्रकाशवान रह सकें और हम जहाँ कहीं भी रहें, उस सारे के सारे इलाके में प्रकाश पैदा कर सकें। रात के अंधियारे में रहें, तो भी हम सूर्य के तरीके से सूर्य न बन सकें, चाँद की तरह से चाँदनी न बन सकें, तो कम से कम छोटे से सितारे की तरह से रहें। ऐसे सितारे की तरह से रहें, जिससे हमारी जिंदगी से दूसरे लोग नसीहत ग्रहण कर सकें। और हम अपनी जिंदगी भर टिमटिमाते रहें छोटे से तारे की तरह। और हमारे स्कूलों के छोटे बच्चे जब हमको देखें तो यही कहें- ‘‘थैंक यू फॉर योर टाइनी स्पार्क, अप एबोव द वर्ल्ड सो हाई, लाइक ए डायमण्ड इन द स्काई, हाउ आई वंडर ह्वाट यू आर.........।’’ जब छोटे- छोटे से सितारे सारे अम्बर पर छा जाते हैं और अंधेरे में कोई भी रास्ता दिखाने वाला नहीं होता, तो आपको छोटी सी चिनगारी राह दिखायेगी।
मित्रो! छोटा सा दीपक हमको रास्ता दिखा सकता है। हम छोटे हों तो क्या? छोटी सी चिन्गारी हैं तो क्या? छोटे से सितारे के समान हैं तो क्या? हमारा यह प्रकाश विश्व को रास्ता दिखाने के लिए काफी है। लोग हमारे पास आकर कहें कि हमारा बाप ऐसे जिया था, तो हम भी ऐसे ही जियेंगे। और हमारे भाई ऐसे जिये थे, तो हम भी ऐसे ही जिंदगी जियेंगे। यह क्या है? यह है सक्रियता, क्रियाशीलता, कर्मठता। अस्सी वर्ष का हो गया तो क्या हुआ? गाँधी जी अस्सी वर्ष के थे। जवाहर लाल नेहरू मरे थे, तब वह अस्सी वर्ष के थे और सक्रिय थे। बुड्ढा कहलाना आदमी के लिए शर्म की बात है और सक्रिय रहते हुए मर जाना आदमी के लिए इज्जत की बात है। बुड्ढे से क्या मतलब है? बुड्ढे से मतलब है- जिसकी भुजा आयु के साथ बुड्ढी हो गयी है, शरीर कमजोर हो गया है। अब हम जो काम करेंगे दूसरे ढंग से करेंगे और अगर शरीर जवान है तो हम शरीर के अनुसार काम करेंगे। बुड्ढे हो गये तो क्या हुआ, हम दूसरे ढंग से काम करेंगे और जरूर करेंगे।
करें श्रेष्ठता का वरण
मित्रो! जो आदमी निष्क्रिय है, मानना चाहिए कि उसने गायत्री माता के रहस्य और सविता शब्द का अर्थ समझना बंद कर दिया है। ‘सवितुः’ पहला शब्द है और ‘वरेण्यं’ दूसरा है। ‘वरेण्यं’ किसे कहते हैं? ‘वरेण्यं’ कहते हैं चुनाव को, वरण करने को। दो में से एक को चुन लिया। इस दुनिया में सब चीजें मिली- जुली हुई हैं। सत्य और असत्य मिला हुआ है। झूठ और सच मिला हुआ है। ईमानदारी और बेईमानी मिली हुई है। जहाँ कहीं भी आप जायें, सब जगह घपला किया हुआ है, घपला फैला हुआ है। दुनिया में जो ‘वरेण्यं’ है, श्रेष्ठ है, उसको आप चुन लीजिए। ‘वरेण्यं’ शब्द दो अर्थों में आता है। एक तो आता है- श्रेष्ठ के अर्थ में और दूसरा आता है- चुनने के अर्थ में। आप श्रेष्ठ को चुन लीजिए, क्योंकि इस समाज में सब मिले हुए हैं। इसमें हमारे जान- पहचान वाले भी सम्मिलित हैं। बुरे से बुरे आदमी मिले हुए हैं और अच्छे से अच्छे आदमी भी मिले हुए हैं। तो क्या करें। सभी से दोस्ती निभायें? नहीं, सबसे दोस्ती नहीं निभायें। इसमें जो वरेण्य हैं, उनको हम अपना बना लेंगे और जो वरेण्य नहीं है, उसको हम भगा देंगे। खाने- पीन की चीजें सामने आती है, तो थाली में से जो वरेण्य है, उसको हम स्वीकार कर लेंगे और जो वरेण्य नहीं है, उसको भगा देंगे।
मित्रो! जीवन के प्रत्येक चरण पर जब हम कसौटी लगा कर रहेंगे, तो हम उसको स्वीकार करेंगे जो चीज खरी है और जो खोटी है उसको फेंक देंगे। नहीं साहब! सबको मिलाइये। नहीं बेटे, सबको नहीं मिला सकते। जो खरी हैं उनको स्वीकार करेंगे और जो खोटी हैं उनको हटा देंगे। खरी और खोटी की पहचान, क्या उचित है और क्या अनुचित की पहचान, ग्रहण करने और ग्रहण न करने की पहचान यदि हमारे भीतर आ जाती है, तो समझना चाहिए कि हमने ‘वरेण्यं’ का अर्थ समझ लिया। जो श्रेष्ठ है, उसी को हम स्वीकार करेंगे और खराब को नहीं करेंगे। अनिष्टकारक वस्तु को स्वीकार नहीं करेंगे, यदि यह हिम्मत हमारे भीतर पैदा हो जाती है, तो समझिए कि आपने ‘वरेण्यं’ का मर्म समझ लिया।
इस तरह गायत्री माता का, भगवान का, ऋग्वेद का दूसरा वाला चरण- ‘वरेण्यं’ का रहस्य समझ लिया। अब अगला चरण आता है- ‘भर्गो’ का। ‘भर्गो’ क्या है? संस्कृत के हिसाब से ‘भर्गो’ शब्द के बहुत से अर्थ होते हैं, पर मैं आपको एक छोटा सा अर्थ बता सकता हूँ। वह क्या है? ‘भर्गो’ कहते हैं- भून डालने को। भाड़ में जब चने भुनते हैं, तो भर्र- भर्र की आवाज होती है न? हाँ साहब! होती है। बस समझ लीजिए कि ‘भर्गो’ का अर्थ यही है। अरे महाराज जी! इसका तो संस्कृत में अर्थ नहीं हुआ। बेटे संस्कृत में अर्थ समझाना मुश्किल है। यह समझाने में मुझे बहुत देर लग जायेगी। इसलिए ‘भर्गो’ का संस्कृत अर्थ मत समझिये। बस इतना जान लीजिए कि ‘भर्ग’ का अर्थ है- भून डालना। यह क्या बात हुई? बेटे, जीवन का एक पहलू यह भी है। यह क्या है? यह वह पहलू है कि सारे के सारे जीवन में जहाँ सद्वांछनीयता एक ओर है, वहाँ अवांछनीयता दूसरी ओर है। हमारे ऊपर अवांछनीयता का भी हमला होता है। सदाशयता का हमको पालन करना चाहिए, संवर्धन करना चाहिए, वहीं दुराचरण को उखाड़ फेंकना चाहिए। सबसे साथ में हम प्यार नहीं कर सकते। अगर सबके साथ प्यार करेंगे तो डॉक्टर जैसा प्यार करेंगे।
सत् का संवर्धन एवं असत् का निराकरण
डॉक्टर मरीज को प्यार करता है, प्रेम करता है। कैसे प्यार करता है? भाई साहब! हम आपको बहुत प्यार करते हैं। तो कल क्या करेंगे? कल हम आपका मेजर ऑपरेशन करेंगे। क्या ऑपरेशन करेंगे? आपके पेट को फाड़ेंगे और देखेंगे कि इसमें जो गोला है उसे कैसे बाहर निकालें। डॉक्टर साहब! यह आप क्या करते हैं? देखिये आप सवाल लेकर आ गये। हाँ भाई साहब! हम आपको बहुत प्यार करते हैं। हम आपकी बीबी- बच्चों की रक्षा करना चाहते हैं, आपको स्वस्थ देखना चाहते हैं, इसलिए आपका ऑपरेशन करेंगे।
मित्रो! इस दुनिया में जो दो बातें हैं, उनमें से एक का संवर्धन करना चाहिए और एक का समापन करना चाहिए। उससे संघर्ष करना चाहिए। भगवान के जब अवतार होते हैं, तो दो उद्देश्यों को लेकर के होते हैं- ‘‘धर्मसंस्थापनार्थाय, विनाशाय च दुष्कृताम्।’’ वे अच्छों का संवर्धन करते हैं और बुरों को लातों से मारते हैं। नहीं साहब! बुरों का भी संवर्धन कीजिए, पालन- पोषण कीजिए और अच्छों का भी कीजिए। नहीं साहब! ऐसा नहीं हो सकता। बुरों का पालन नहीं हो सकता। बुरों से लोहा ही लेना पड़ेगा। उनसे लड़ना ही पड़ेगा। अब बताइये- शास्त्र भी कहता है कि आगे- आगे वेद, ज्ञान, शराफत और पीछे- पीछे जूता। नहीं, सबके साथ में शराफत दिखाइये, मित्रता दिखाइये। नहीं, बेटे, जानवर के साथ में मित्रता नहीं दिखा सकते। जानवर को वेद नहीं सिखा सकते। जानवर- जानवर होता है। जानवर को रास्ते पर लाने के लिए एक ही रास्ता है और उसका नाम है- जूता। और कोई शिक्षा मानता है वह? नहीं, और कोई चीज उसकी समझ में नहीं आती।
फिर क्या करना पड़ेगा? मित्रो! आध्यात्मिकता में दोनों ही नीतियों का पूरा- पूरा समन्वय है। यह नहीं कि सबके साथ सहायता कीजिए, सबको दान दीजिए। ऐसा नहीं हो सकता। दुराचारी और अनाचारी के लिए क्या अस्त्र है। एक आँख सुधार की और एक आँख प्यार की। अगर आप यह नहीं रखेंगे तो आपके बच्चों का सत्यानाश हो जायेगा। नहीं साहब! हम सब बच्चों से प्यार करेंगे। नहीं, सब बच्चों से प्यार नहीं हो सकता। अगर आपने सुधार की आँख नहीं रखी, तो आपके बच्चे आपकी शान पर दाग लगाकर जायेंगे और उन बच्चों का सत्यानाश हो जायेगा। नहीं साहब! हम सबको प्यार करते हैं और हमेशा प्यार ही जानते हैं। नहीं बेटे, तुझे प्यार करना नहीं आता। तू प्यार भी कर, दुलार भी कर और टेढ़ी आँख भी रख। दबाव भी डालना सीख। नहीं साहब! दबाव नहीं डालूँगा और मैं तो सहायता ही करूँगा। तो बेटे, फिर तू मरेगा, फिर हमसे क्यों कहता है कि बच्चा बिगड़ रहा है। बेटे, यह दूसरा वेद है। इसको हम अथर्ववेद कहते हैं।
मित्रो! अभी हमने आपको ऋग्वेद बताया, यजुर्वेद बताया और यह अथर्ववेद बता चुके हैं। चौथा है- सामवेद, जिसका नाम है- ‘देवस्य’। ‘देवस्य’ आपको दिव्य बनाता है, देवत्व से सम्पन्न बनाता है। दैवी सम्पदाओं से सम्पन्न बनाता है। गीता में दिव्य विभूतियों एवं दैवी संपदाओं का वर्णन किया गया है। आपकी भक्ति और देवत्व के गुण में वह सब कुछ है, जो आप हर एक को दे सकते हैं। आपके पास पैसे नहीं हैं, तो न सही, हम प्यार देंगे। सलाह देंगे, सहयोग देंगे, प्रोत्साहन देंगे। हमारे पास में हजारों चीजें हैं। हमारे पास वाणी है। वाणी भी क्या नहीं कर सकती है? यह पैसे से भी ज्यादा लाभदायक होती है। ऋषियों के पास वाणी थी। ज्ञान भी हो सकता है, तप भी हो सकता है, सहयोग भी हो सकता है। प्रोत्साहन भी हो सकता है, मार्गदर्शन भी हो सकता है। पैसा ही एक मात्र चीज नहीं है। यह देवत्व के लिए आवश्यक नहीं है कि आप संपन्न आदमी हों। बिना सम्पन्नता के भी अपने स्वेद की- पसीने की बूँदें भी सेवा कार्य के लिए दे सकते हैं। आपकी पसीने की बूँदें भी हीरे- मोती के बराबर हो सकती हैं। पैसा नहीं है तो न सही, दान के लिए पैसा नहीं है, तो न सही, गरीब व्यक्ति भी दानी हो सकता है।
इसलिए मित्रो! मनुष्य को ‘देवस्य’, दिव्य, देने वाला होना चाहिए। चार वेदों की शिक्षा में हम सामवेदी बनें। चारों के चारों वेद भगवान के नाम हैं। इनसे हम सीख लें कि गायत्री माता क्या कहना चाहती हैं? गायत्री माता का क्या शिक्षण है? गायत्री माता क्या चाहती हैं? गायत्री का हंस कैसा होना चाहिए? ये चारों सिद्धान्त मिले हुए हैं। गायत्री माता में और क्या रह गया? बेटे थोड़े से शब्द और रह गये हैं। इसमें क्या रह गया है? ‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि’ में एक शब्द ‘धीमहि’ माने धारण करने को कहते हैं। अभी जो आपसे कहा गया है, वह कहने और सुनने के लिए नहीं कहा गया है। कहने और सुनने की जरूरत तो वहाँ होती है, जहाँ भागवत् कथा कही और सुनी जाती है। क्या हो रहा है? अरे साहब। भागवत् कही जा रही है। पंडित जी कह रहे हैं और चेला जी सुन रहे हैं। पंडित जी कह रहे हैं कि क्यों साहब! यही तो अर्थ होता है न इस कथा का? हाँ साहब! यही है। उन्होंने कह दी और हमने सुन ली। बस जीभ ने कही और कान ने सुन ली। सत्यनारायण की कथा जीभ से कही और कान से सुनी। बस हो गया सत्संग। नहीं बेटे ऐसे नहीं हो सकता।
ब्रह्म को हृदय में उतारें
महाराज जी! फिर कैसे हो सकता है? बेटे, आध्यात्मिकता का लाभ प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि उसको हम भीतर धारण करें, हृदयंगम करें। हृदयंगम करने से क्या मतलब है? हृदयंगम करने का जो अर्थ होता है वह है कि ब्रह्म को चर जाओ। चर जाओ? हाँ बेटे, जो ब्रह्म को चर जाता है, उस आदमी का नाम होता है- ब्रह्मचारी। चरने से क्या मतलब है? चरने से मतलब है- जैसे गाय होती है, बकरी होती है और घास को चर जाती है। इसी तरह ब्रह्म को चर जाओ। महाराज जी! आपकी यह कैसी बात रही? बेटे ऐसे रही कि ब्रह्म को खा लो। खा करके हजम कर लो। जुगाली कर लो और जुगाली करके इसे अपने रक्त का और दूध का अंग बना लो। बकरी घास चरती है, उसे हजम करती है और हजम करके अपने शरीर में घास को समाविष्ट कर लेती है। फिर दूध बना देती है। इसी प्रकार से आपको भी ब्रह्म को चरना होगा। आप उसे हृदय में धारण करें। बक- बक मत करें। बकें मत। सारे दिन रामायण पाठ, गीता पाठ, भागवत् पाठ, सत्संग पाठ, ये पाठ, वो पाठ करेंगे? नहीं बेटे, यह सब बंद करें। जो कुछ करना है, उसे धारण करें, ध्यान करें। हृदयंगम करें। व्यवहार में उतारें।
नहीं साहब! व्यवहार से तो मैं हजारों मील दूर हूँ। व्यवहार में इसे नहीं ला सकते। व्यवहार जैसा था, वैसा ही रहेगा। सुन सकता हूँ। सुनने से क्या मिलेगा? धारण करें। धारण करने से मतलब है- हृदयंगम करें, व्यवहार में उतारें। अध्यात्म के जितने भी सिद्धान्त हैं, बेटे ये जीवन में उतारने के लिए हैं। सुनने और सुनाने के लिए नहीं हैं। न जाने लोगों की समझ में यह वाहियात बात कैसे आ गयी कि इसको कहा जाय, सुना जाय। भागवत् को कहा जाय और सुना जाय, लेकिन इस कहने- सुनने से क्या मिलेगा? बेटे- कहने सुनने से कोई बैकुण्ठ को नहीं जाता। इसे जीवन में उतारना पड़ता है। बक- बक, कहना, सुनना, बस यही याद रहा और कुछ नहीं। यह अध्यात्म नहीं है।
तो क्या है? बेटे, आपसे मैं यह निवेदन कर रहा था कि गायत्री मंत्र का उद्देश्य, गायत्री मंत्र का शिक्षण यही है कि चारों धारायें जो अब तक हमने निवेदित की हैं, वे हमारे हृदय में होनी चाहिए और हमारे जीवन के महत अंग बनने चाहिए। इसके बाद इसमें दो शब्द रह जाते हैं- ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्’’ इसमें ‘नः’ शब्द के माने है- हम सब। जो भी आप विचार करें, हम सबके लिए विचार करें। व्यक्तिवाद नहीं समूहवाद, संघवाद का विचार करें। मेरे लिए, मेरा पैसा, मेरा बेटा, मेरा धन, मेरी मिट्टी, मेरा स्वर्ग- यह मेरा- मेरा कहना बंद करें। फिर क्या कहें? हमारा धन, हमारा परिवार, हमारा यश, हमारा वर्चस्- इस तरह व्यक्तिवाद नहीं, समूहवाद को लेकर चलें। मिलजुलकर रहना, साथ- साथ रहना, मिल बाँटकर खाना, सबके सुख में अपने को सुखी अनुभव करना, यही ‘नः’ की प्रेरणा और शिक्षा है। आपकी जो महत्वाकांक्षायें हैं, जो कामनायें हैं, आपके प्रयत्न और आपकी चेष्टाएँ- सभी हम सबके लिए होनी चाहिए। गायत्री की शिक्षा समूहवाद की शिक्षा है।
मां से करें सद्बुद्धि की प्रार्थना
मित्रो! गायत्री में और क्या है? ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्।’’ इसमें बस एक ही प्रार्थना की गयी है। क्या प्रार्थना की गयी है? ‘हे भगवान! आप हमारी अक्ल को ठिकाने पर रखें। यह अक्ल बड़ी बदमाश है। अक्ल ने हमारे साथ में जितनी गद्दारी की है। अक्ल ने जितना हमको तंग किया है, हैरान किया है कि इस अक्ल से ज्यादा हमारा दुश्मन और कोई नहीं है। अक्ल ने पैसा भी दिया है। अक्ल से ही हमने जाने क्या- क्या किया है। अक्ल से जाने हमने क्या- क्या कमा लिया है। अक्ल ने जहाँ हमारे भौतिक जीवन में बहुत सी सुविधाएँ दी हैं, वहीं इसने हमारे जीवन में अधःपतन का रास्ता भी खोला है। हाय रे अक्ल। हे भगवान! यह हमारे काबू में नहीं आती। और सब काबू में आ जाता है। पड़ोसी काबू में आ जाता है, मोहल्ले वाले काबू में आ जाते हैं, पर एक ही चीज है जो काबू में नहीं आती। और यह है हमारी अक्ल। हे भगवान आप एक काम कर दीजिए कि- ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्।’’ यह हमारी जो अक्ल है, उसमें ऐसे डंडे मारिये, उसकी ऐसी पिटाई कीजिए और उसे उल्टे टाँग घसीटते हुए सुअर की तरीके से ले जाइये। यह मानती ही नहीं है। और सब मानते हैं, पर यह है कि हमारा कहना मानती ही नहीं। हमारी अक्ल इतनी तंग करती है, इतना जलील करती है और हमको गड्ढे में धकेले जा रही है।
मित्रो! गायत्री मंत्र में भगवान से एक ही प्रार्थना की गयी है कि आप हमारी अक्ल को ठीक कर दें, तो बाकी समस्याएँ हम अपने आप हल कर लेंगे। बाकी के लिए हम आपसे खुशामद नहीं करेंगे। आपसे हम मिन्नतें नहीं करेंगे। आपसे हम प्रार्थना नहीं करेंगे। आपके आगे हम पल्ला नहीं फैलाएँगे। आपने हमें इतनी बड़ी अक्ल दी है, ताकि हम अपनी भौतिक समस्याओं को अपने तरीके से पूरी तरह हल करने में समर्थ हो सकें। लेकिन हमसे एक काम नहीं हो पाता और वह है- कि हमसे अपनी अक्ल काबू में नहीं हो पाती। वह हमें बहुत हैरान करती है। अगर आप भगवान हैं और दया कर सकते हों, तो हमारी अक्ल को ठीक कर दीजिए बस, बाकी हम कर लेंगे।
यह क्या है? बेटे रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसी ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्’’ के लिए बंगला भाषा में बहुत सुन्दर कविता की है। वह मुझे बहुत प्यारी है। इसका सारे का सारा सारांश यही है कि- हे भगवान! आप हमें कभी सुख न दें। क्यों? क्योंकि सुखों के मिलने से हमारे अन्दर जो सामर्थ्य उत्पन्न होनी चाहिए, वह कुंठित हो जायेगी और हम निकम्मे हो जायेंगे। और हम ठप्प हो जायेंगे। इसीलिए यदि आप सुख दिया करते हैं, तो वह हमको न दें। और किसी को दे दें। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता का दूसरा वाला भाग है- हे भगवान! भविष्य में आप दूसरों को दुखी किया करते हैं, अगर यह बात सही है, तो आप कृपा करके हमारे दुखों को न देखें। क्योंकि हमारा साहस, हमारा शौर्य, हमारा पुरुषार्थ और हमारा पराक्रम बिना दुखों के दुखों की चट्टान पर पिसेगा। संसार में जितने भी महामानव हुए हैं, महापुरुष हुए हैं, सबको अग्नि परीक्षा देनी पड़ी है और कठिनाइयों के साथ लड़ना पड़ा है। इसके बिना न कोई आदमी भौतिक जीवन में और न कोई आध्यात्मिक जीवन में विकसित हो सका है। सुख में समृद्धि नहीं हो सकती। सुखों में कोई पराक्रमी नहीं हो सकता, पुरुषार्थी नहीं हो सकता, साहसी नहीं बन सकता। इसलिए हे भगवान। आप इन दुखों को हमारे साथ लगे रहने देना। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता का यह छंद नम्बर दो है।
और उनका अगला छन्द है- सुखों का साथ हमें मत देना अगर आप दिया करते हों, तो आप हमारे दुखों को मिटाना मत, अगर आप मिटाया करते हों तो? रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता की अंतिम पंक्ति में कहा गया है- अगर आप वास्तव में ही दिया करते हैं, क्योंकि आप दानी हैं, दयालु हैं। बिना दिये आपसे रहा ही नहीं जाता। अतः अगर आप दिया ही करते हैं, तो आप हमको एक चीज देना। क्या देना? जब हम पाप की ओर बढ़ें, तो अपने लम्बे वाले हाथ हमारी तरफ बढ़ाना और हमको उस पाप पंक में गिरने से खींच लेना। जब पाप के पंक में हम गिरें, तो हमारे हाथ पकड़ना और घसीट करके किनारे पर फेंक देना। यह क्या है? बस एक ही प्रार्थना है कि अगर आप देते हों तो? इस तरह ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्’’ का अर्थ हो गया? यही कि आप हमारी कतई रक्षा न करना। आप हमें अपने बलबूते पर चलने देना। अपने पुरुषार्थ से हमको सँभलने देना। अपने जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए आप इन बातों में दखल मत देना। यह हमारा और हमारी दुनिया का मामला है। आपका मामला एक ही है कि आप हमारी अक्ल को ठीक कर दें।
मित्रो! ये है गायत्री मंत्र और उसका प्रशिक्षण। अगर हम इसको जान पायें, तो हम निहाल हो जायें। गायत्री मंत्र की यह शिक्षा हमारे जीवन में आ जाये, तो गायत्री के भक्तों को जैसा होना चाहिए, हम भी वैसा ही बन जायेंगे। और अगर हम यह प्रेरणा और यह शिक्षा देने में समर्थ हो सकें, तो हम व्यक्ति के उत्थान में और समाज के उत्थान में- दोनों उद्देश्यों को पूरा कर सकते हैं। दुनिया में सुख ला सकते हैं, शांति ला सकते हैं और मनुष्य में देवत्व का उदय कर सकते हैं और इसी जमीन के ऊपर स्वर्ग का अवतरण करने में समर्थ हो सकते हैं। इस तरह गायत्री महामंत्र एक ऐसी कामधेनु है, जिसकी महिमा ऐसी है, जिससे व्यक्ति और समाज की समस्त भावनायें एवं संभावनाएँ जुड़ी हुई हैं। आप इसका स्वरूप समझें, इसकी इच्छाओं को समझें, इसकी प्रेरणाओं को समझें और इसकी दिशाओं को समझें। समझने के पश्चात् उसको हृदयंगम करें और उसको फैलाने का प्रयत्न करें, तो मेरा उद्देश्य पूरा हो जायेगा और गायत्री संस्था की स्थापना, गायत्री का विस्तार करने का हमारा उद्देश्य पूरा हो जायेगा। इन विचारणाओं को, इन भावनाओं को समूचे संसार में फैलाने में और अपने अंदर धारण करने में आप समर्थ हो सकें, तब हमारा जीवन धन्य हो जायेगा।
आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शान्तिः॥