Books - संसार चक्र की गति प्रगति
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
जन्म मरण और विकास का सर्वव्यापी चक्र
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
प्रकृति की मधुर-कटुक—सुन्दर कुरूप—सुखद-दुःखद क्रिया प्रक्रिया की विचित्रता ऐसी है जिसे देखकर सहज ही समझ सकना कठिन पड़ता है। यह सब क्यों और किस उद्देश्य के लिए हो रहा है? छोटे बच्चे रेत से घर और बालू का महल बनाते हैं, टहनियां गाड़ कर बगीचा लगा और उचंग उठे पर बात की बात में उस संरचना को पैर से ठुकराते और तोड़-फोड़ कर बर्बाद करते देखे जाते हैं। इन परस्पर विरोधी सृजन और विनाश की गति-विधियों में समान रूप से उत्साह प्रकट करने वाले बाल-स्वभाव का क्या निष्कर्ष निकाला जाय? क्या विवेचन किया जाय? कारण ढूंढ़ न पाने पर भी तथ्य तो यथावत् ही बने रहते हैं। बाल-बुद्धि के साथ जुड़ी हुई यह विचित्र विसंगति बड़ों पर भी यदा-कदा अपना प्रभाव छोड़ती है। वे भी सृजन और तोड़-फोड़ की परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों का परिचय देते रहे हैं। आज कि मित्रता कल शत्रुता में परिणत होती देखी जाती है। किसान को एक समय पौधे उगाने और उन्हीं को दूसरे समय काट-कूट कर चूरा बना देने की चित्र-विचित्र क्रियाओं के बीच संगति कैसे मिले?
लगता है कि पुरातन को नवीन में बदलने के लिए एक गति-चक्र एक सुनिश्चित विधि-विधान के साथ चल रहा है। अभिवृद्धि एक सीमा तक ही प्रौढ़ता बनाये रह सकती है। परिपक्वता के साथ जीर्णता बढ़ती है ताकि आरम्भ और अन्त का—अन्त और आरम्भ का गतिचक्र अपनी गोलाई एवं धुरी पर अनवरत रूप से अग्रगामी बना रह सके। जन्म को न तो आदि समझा जाना चाहिए और न मरण को अन्त। चक्र में आदि अन्त कहां है इसकी कल्पना भर की जा सकती है। तथ्यतः गोलाई में आदि अन्त कहीं होता ही नहीं। जीवन का अन्त मरण समझा जाता है, परन्तु वह तो ऐसा विश्राम स्थल है जहां से जीव पुनः नया जीवन धारण करता है और कर्मक्षेत्र संसार में पुनः नये उत्साह के साथ प्रवेश करता है।
पृथ्वी पर प्रकृति की विकास व विनाश लीलाओं का क्रम अनवरत रूप से चलता रहता है। पृथ्वी अपने इर्द-गिर्द वायुमण्डल का एक कवच पहने हुए है। उसके तीन आवरण हैं। प्रत्येक से पृथ्वी को, इसके प्राणियों को तथा पदार्थों को बहुत कुछ मिलता है। किन्तु यह भी एक कटु सत्य है कि उसी के कारण अपनी दुनिया को विनाश का कष्ट भी कम नहीं भुगतना पड़ता।
हम सभी मनुष्य वातावरण के अदृश्य सागर के तले निवास करते हैं। प्रायः 99 प्रतिशत वातावरण का भार 5 अरब टन है और वह सिर्फ ऊपर के 30 मील के क्षेत्र में सिमटा है। इस सघनता का लाभ यह है कि वह अन्तरिक्षीय किरणों, उल्कापातों आदि घातक प्रभावों से पृथ्वी के जीवन की रक्षा करता है। साथ ही प्राणवायु जल रसायन आदि देता है। तापमान को नियन्त्रित रखता है। इस तरह यह घनीभूत वातावरण अपनी पृथ्वी के लिए—हम सब प्राणियों के लिए—एक रक्षा कवच का काम करता है। इस वातावरण में तनिक-सी भी उथल-पुथल पृथ्वी तल पर भयंकर चक्रवातों प्रलयंकर तूफानों और विक्षुब्ध विनाश लीला का कारण बनती है। सागर की विशाल जल राशि भी निरन्तर उफनती रहती है, धरती के ऊपर का वातावरण भी सदा धधकता रहता है। अभी तक ऐसा कोई यन्त्र नहीं बन पाया है जो वातावरण की गहराई नाप सके और तथ्यों का सही एवं समग्र पता लगा सके। धरती की छाती में तो विशाल ज्वालामुखियों का अविराम हाहाकार दबा ही रहता है।
भीतर चल रही उथल-पुथल कभी-कभी आकस्मिक विस्फोटों के रूप में अभिव्यक्त होती है। यद्यपि कोई भी विस्फोट वस्तुतः आकस्मिक नहीं होता। वह एक क्रमिक प्रक्रिया को ही अनिवार्य परिणति होता है।
सृष्टि के आरम्भ से ही प्राकृतिक परिवर्तन होते रहे हैं। मानव जाति के इतिहास में ऐसे तीव्र परिवर्तन से सदा नये मोड़ आते हैं।
इस परिवर्तन के स्वरूप बहुत तरह के होते हैं। सौर-मण्डल की गतिविधियों की एक दूसरे ग्रह पर भी पारस्परिक प्रतिक्रिया होती है व प्रभाव पड़ता है ज्वालामुखियों के विस्फोट, तूफान, भूकम्प, ऊपरी वातावरण, विषमता से उत्पन्न हलचलें अथवा सौर-मण्डल की कोई भी असामान्य गतिविधि ऐसे तीव्र परिवर्तनों का कारण बन जाती है। अन्तरिक्ष में आवारागर्दी करने वाली कुछ उल्काएं भी अपनी दुस्साहसिकता के कारण स्वयं को तो क्षति पहुंचाती ही हैं, पृथ्वी याकि अन्य ग्रहों को भी उथल-पुथल से भर देती हैं, इन उद्दण्ड उल्काओं की आवारागर्दी की गाथाएं दुनिया भर के पौराणिक साहित्य में रोचक ढंग से वर्णित हैं।
यूनान की पौराणिक गाथाओं में ‘इंकोरस’ नाम के एक युवक की कथा है। यह सूर्य से मिलने की महत्वाकांक्षा रख, नकली पंख लगाकर चल पड़ा। पंख उसने मोम से चिपका लिए थे।
अधिक ऊंचे जाने पर उसके पंख को जोड़ने वाली मोम गर्मी के कारण पिघल गई और पंख नीचे गिर पड़े, ‘इकोरस’ भी औंधे मुंह नीचे समुद्र में आ गिरा तथा मर गया। पिछले दिनों इसी युवक की तरह का एक दुस्साहसी उल्का पिंड भी देखा गया। इसका नाम भी ‘इकोरस’ ही रखा गया। यह ‘इकोरस’ उल्कापिंड कभी सूर्य के निकट जा पहुंचा है, इतना कि बस थोड़ा और पास जाए, तो भुर्ता ही बन जाए। कभी लगता है वह बुध से कभी मंगल और कभी शुक्र से अब टकराया, तब टकराया। सूर्य के अति निकट पहुंच कर वह आग का गोला ही बन जाता है। तो कभी सूर्य से इतनी दूर जा पहुंचता है कि शीत की अति ही हो जाती है। जून 1968 में इस उद्दण्ड क्षुद्र ग्रह की पृथ्वी के ध्रुव प्रदेश से टकराने की सम्भावना बढ़ गई थी। यदि खगोल शास्त्रियों की वह आशंका सत्य सिद्ध होती, तो पृथ्वी में भीषण हिमतूफान आते, समुद्र उफनकर दुनिया का थल-भाग अपनी चपेट में ले लेता, साथ ही लाखों वर्ग मील भूमि में गहरा गड्ढा हो जाने की सम्भावना थी, जहां यह उफनता समुद्री जल भर जाता तथा कुल मिलाकर करोड़ों मनुष्यों का सफाया हो जाता। सन् 1908 में मात्र हजार फुट व्यास की एक उल्का साइबेरिया के जंगल में गिरी थी, तो वहां अणु बम विस्फोट जैसे दृश्य उपस्थित हो गये थे। इकोरस तो उस उल्का से हजारों गुना बड़ा है, अतः परिणाम का अनुमान किया जा सकता है।
सौभाग्यवश इकोरस पृथ्वी के समीप होकर गुजर गया और एक भीषण दुर्घटना टल गई। सौर-मण्डल में ऐसे अनेक क्षुद्र ग्रह हिडालगो, इरोस, अलबर्ट, अलिण्डा एयोर, सहसा टकराकर कभी भी धरती के जीवन में उथल-पुथल मचा सकते हैं।
वैज्ञानिकों ने अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि सूर्य पर जो हर 11 वें वर्ष कुछ धब्बे से बन जाते हैं उनका कारण सौरमण्डल के ग्रहों की गतिविधियां ही हैं स्पष्ट है कि सौर-मण्डलीय ग्रहों की प्रत्येक गतिविधि का सूर्य पर प्रभाव पड़ता है, जिस तरह सूर्य की हर गतिविधि से सौर-मण्डलीय ग्रह प्रभावित होते हैं। सभी ग्रह पश्चिम से पूर्व की ओर—सूर्य की परिक्रमा करते हैं और पृथ्वी की ही भांति अपनी धुरी पर भी घूमते हैं। इस परिभ्रमण काल में जो अगणित प्रकार की उथल-पुथल होती है उनसे पृथ्वी सहित सभी ग्रह उपग्रह प्रभावित होते हैं।
ऐसी उथल-पुथल की स्मृतियां मानवीय इतिहास में सुरक्षित हैं। पुराण कथाओं में इनका रोचक वर्णन मिलता है। मात्र क्षुद्र नक्षत्रों के टकराने अथवा सूर्य या किसी बड़े नक्षत्र में व्यापक परिवर्तन होने उथल-पुथल मचने से ही धरती में जलप्लावन आदि की घटनाएं नहीं घटती, बल्कि धरती के भीतर की हलचलें और उसके सिकुड़ने-फैलने की विभिन्न प्रक्रियाएं भी जल प्रलय आदि के दृश्य उपस्थित करती है।
सभी जानते हैं कि कभी भू-मण्डल के सभी महाद्वीप एक दूसरे से जुड़े थे। ग्रहों की हलचलों और आकुंचन प्रसार की प्रक्रियाओं से वे एक दूसरों से दूर हटते गए। हिमालय अभी भी लगातार उत्तर की ओर खिसक रहा है और भू-वैज्ञानिकों का कथन है कि 5 करोड़ वर्ष बाद सम्पूर्ण उत्तरी भारत का अधिकांश इलाका हिमालय के पेट में समा जायेगा। इसी तरह सन् 1966 में मास्को में सम्पन्न द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलन में प्रो. डा. ब्रूस सी. हीजेन और डा. नील यू. डाइक ने घोषणा की थी कि आज से लगभग 2 हजार 32 वर्ष बाद पृथ्वी के चुम्बकीय बल क्षेत्र अपना स्थान बदल देंगे। साथ ही पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति घटेगी। इसमें मनुष्यों का आकार व जीवन भी प्रभावित होगा। वृक्ष-वनस्पति, कीट-पतंग आदि पर भी व्यापक प्रभाव पड़ेगा। प्रशांत महासागर की तलहटी से निकाली गई मिट्टी और रेडियो सक्रियता एवं ‘लारिया’ नामक एक कोशीय जीव में हो रहे क्रमिक परिवर्तन से पता चलता है कि सन् चार हजार तक चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन होगा, जिससे ध्रुवों का स्थान भी परिवर्तित होगा। परिणामस्वरूप धरती में खण्डप्रलय की स्थिति हो जायेगी। बर्फीले तूफान चारों ओर उठेंगे। धरती में बेहद गर्मी और बेहद ठंडक की स्थितियां पैदा हुआ करेंगी। समुद्रतल भी लगातार ऊपर उठ रहा है। इसका भी परिणाम अवश्यम्भावी है। ऐसी ही विशिष्ट प्राकृतिक उथल-पुथल अतीत में भी जल प्रलय जैसी घटनाओं का कारण बनती रही है। विश्व की अधिकांश प्राचीन सभ्यताओं के साहित्य में जलप्लावन तथा उसके बाद सृष्टि के नवीन क्रम का वर्णन मिलता है। इसे धार्मिक पुट दिया गया है। लेकिन भूगर्भ शास्त्रियों का भी अनुमान है कि समय-समय पर पृथ्वी के विशेष खण्ड टूट जाते थे और धरती पर जल ही जल हो जाता था।
भू गर्भ वेत्ता डा. ट्रिकलर के अनुसार हिमालय के आस-पास प्राप्त ध्वंसावशेषों से ज्ञात होता है कि जल प्रलय की घटना सत्य है।
यूनानी साहित्य में भी जलप्लावन की चर्चा है। एक कथा के अनुसार ‘अटिका’ जलमय हो गई थी। दूसरी कथा के अनुसार ‘जीयस’ ने अपने पिता की इच्छापूर्ति के लिए ‘ड्यूकालियन’ का विनाश करना चाहा। जब ड्यूकालियन अपनी पत्नी पैरहा के साथ जलयात्रा कर रहा था, जीयस ने भीषण जल-वृष्टि द्वारा पृथ्वी को डुबा दिया। नौ दिन तक ड्यूकालियन और पैरहा पानी में ही अपनी नाव द्वारा तैरते रहे। जब वे ‘पैरासस पहुंचे, तो जलप्लावन कुछ कम हुआ। तब उन दोनों ने अपने अंग रक्षक की देवताओं को बलि दे दी। इससे जीयस प्रसन्न हो गया और उनको सन्तान का वरदान दिया ड्यूकालियन और पैराह ने वरदान पाकर जीयस पर पत्थरों की वर्षा की। जो पत्थर ड्यूकालियन ने फेंके वे पुरुष हो गये और जो पैरहा ने फेंके वे नारी हो गए।
केबोलोनिया में भी ऐसी ही एक दन्त कथा है। तीन सौ ईस्वी पूर्व वहां वेरासस नामक पुरोहित था। उसने लिखा है—आरडेट्स की मृत्यु के बाद उसके पुत्र ने 18 ‘सर’ तक राज्य किया। एक सर 36 सौ वर्षों का होता है। इसी अवधि में एक बार भीषण बाढ़ आई। इसकी सूचना राजा को स्वप्न द्वारा पहले ही मिल चुकी थी। अतः उसने अपने लिए एक नाव बनवा ली थी। नाव में बैठकर वह जल-प्लावन देखता घूमता रहा। जब जल-प्लावन का वेग कम हो गया, तो उसने नाव में ही बैठे-बैठे तीन बार पक्षी उड़ाए। अन्तिम बार जब पक्षी लौट कर नहीं आये, तो उसने देवताओं को बलि दी। इससे देवता प्रसन्न हुए और शान्ति का वातावरण बना।
बाइबिल के अनुसार—जल-देवता ‘नूह’ को खबर मिली कि धरती पर जल-प्रलय होगी। फिर ऐसा ही हुआ। चराचर इस भीषण जल-प्रलय में समाहित हो गये। जल-देवता ‘नूह’ तथा उसके कुछ साथी नौका में बच निकले। नौका द्वारा आराकान पर्वत पहुंचे। वहां दशवें महीने के पहले दिन जल कम होना शुरू हुआ। धीरे-धीरे पर्वत श्रेणियां दीखने लगीं। फिर अन्य हिस्से भी। हजरत ‘नूर’ ने ही मानवता का विकास किया। सुमेरियन ग्रन्थों में भी जलप्लावन का संकेत है। चीनी पुराण-साहित्य में भी जल-प्लावन की कथाएं विद्यमान है।
भारत में तो शतपथ ब्राह्मण से लेकर महाभारत और विविध पुराणों तक जल-प्रलय का वर्णन मिलता है। महाभारत के वन-पर्व में मत्स्योपाख्यान के अन्तर्गत यह कथा है कि विवस्वान मनु ने दश हजार वर्ष हिमालय पर तपस्या की। उस समय एक मछली की प्रार्थना पर उन्होंने उसकी जीवन रक्षा की। तब मछली ने उनको आगामी भीषण जलप्लावन की अग्रिम जानकारी दी साथ ही यह कहा कि तुम सप्त ऋषियों के साथ नौका में मेरी प्रतीक्षा करना। अन्य पर्वों में भी इस जलप्लावन का सुविस्तृत वर्णन है। सम्पूर्ण प्राचीन विश्व-साहित्य में जल-प्रलय की ये कथाएं निश्चय ही किसी घटित घटना की ही स्मृतियां हैं। अभिव्यक्ति की शैली भिन्न भिन्न सभ्यताओं के परिवेश और सांस्कृतिक चेतना के अनुरूप अलग-अलग हैं। किन्तु उनमें एक आन्तरिक अविच्छिन्नता है। जल-प्रलय की बात बड़ी है, पर उसके छोटे-छोटे रूप अन्य प्रकार से भी दृष्टिगोचर होते रहते हैं। भूकम्प, विस्फोट, बाढ़ आना, वृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी आदि कारणों से कम विनाश नहीं होता है। आये दिन जहां-तहां होते रहने वाले युद्ध और महायुद्ध भी सम्पत्ति और प्राणियों की कम हानि नहीं करते।
एक ओर यह विनाशकारी घटनाएं होती हैं दूसरी ओर उत्पादन और अभिवृद्धि का उपक्रम देख कर भी आश्चर्यचकित रहना पड़ता है। वनस्पति के सहारे ही जीव धारियों का आहार निर्वाह होता है उसका खर्च जितना है उसे देखते हुये उत्पादन की मात्रा कम नहीं वरन् बढ़ी-चढ़ी ही रहती है। खाने वाले प्राणी और ग्रीष्म जैसी नष्ट कर करने वाली परिस्थितियों का सामना करते रहने पर भी वन-सम्पदा और वनस्पति की सुषमा पृथ्वी पर छाई ही रहती है। हरितमा के लिये प्रस्तुत सभी चुनौतियां अन्ततः निरस्त ही होती रहती हैं और अपनी धरती की हरियाली में घट बढ़ होती है, पर अन्त उसका कभी भी नहीं होता।
तनिक-सी दीखने वाली एक भिनभिनाती मक्खी एक ही ग्रीष्म ऋतु में 40 हजार सन्तानें पैदा कर सकती है, यदि उसकी आकस्मिक मृत्यु न हो जाए। इन 40 हजार मक्खियों की तीन पीढ़ी में उत्पन्न सन्तानों को एक कतार में रखा जाय, तो पृथ्वी से सूरज तक की दूरी से कई गुनी लम्बी कतार बन जाए।
एक परिपक्व पोस्त में 3 हजार बीज होते हैं। यदि हर बीज से एक पौधा उगने दिया जाय और फिर उनमें से हर पौधे में कम से कम एक पोस्त लगने पर फिर उनमें से हर एक के तीन हजार बीजों का उपयोग भी पौधे ही पैदा करने के लिये किया जाय, तो इस क्रम से 50 वर्षों में एक ही वृक्ष के वंश विकास द्वारा पूरी पृथ्वी ढक सकती है। प्रकृति की गतिविधियों का जितना ही अधिक निरीक्षण—विश्लेषण किया जाए, यही ज्ञात होता चलेगा कि वह अत्यन्त दयामयी व कुशल है। किन्तु इस दया में आवश्यक उग्रता व रौद्ररूप भी सम्मिलित है। वस्तुतः सन्तुलन ही प्रकृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व सार्वभौम अन्तःसूत्र है। सन्तुलन की यह प्रकृति-प्रवृत्ति हमें विभिन्न पशु-पक्षियों की प्राकृतिक संरचना में भी दिखाई पड़ती है।
दक्षिणी अमेरिका का ‘स्लाथ’ पक्षी सम्पूर्ण जीवन पेड़ पर औंधे मुंह लटके-लटके काट लेता है। उसका आहार हरे पत्ते टहनियां आदि हैं। प्रकृति ने उसे ऐसे बाल दिये हैं, जिनके कारण वर्षा ऋतु में भी उल्टे लटके रहने पर भी बरसात का पानी नीचे टपक जाता है, यानी उसके बाल भी उल्टे होते हैं, उसके औंधे लटकने पर वे नीचे झूलते रहते हैं। यदि ऐसा न होता, तो बरसात का पानी निरन्तर ऊपर टपकते रहने के कारण अपना वंश चलाते रहने के लिये व बच न पाता।
सूर्य भी मरने की तैयारी में
अपने सौर मण्डल के ग्रह उपग्रहों की विविध गति-विधियों का स्रोत सूर्य है। उससे जो ऊर्जा निसृत होती है उसी के बलबूते सौर परिवार अपना निर्वाह करता है। गर्मी के बिना न चूल्हा ही जलता है और न रेल, मोटर दौड़ती हैं शरीर की गर्मी चुक जाय तो निस्तब्धता छा जायगी और मौत आ दबोचेगी। तेल, पैट्रोल न हों तो गाड़ी कैसे चलेगी? बिजली न हो तो उसके सहारे चलने वाले कारखाने ठप्प पड़ जायेंगे। सूर्य का ऊर्जा उत्पादन बन्द हो जाय तो सौरमण्डल के ग्रह स्वतः ठण्डे हो जायेंगे और इस परिवार के पारस्परिक सम्बन्ध क्षीण होने से विगठन चल पड़ेगा। तब ठंडे ग्रह किसी अन्य गरम सूर्य का आश्रय पाने के लिए अपना देश छोड़कर किसी लम्बी यात्रा पर चल पड़ने की तैयारी करेंगे। जलाशय सूख जाने पर पक्षी भी तो उड़कर अन्यत्र चले जाते हैं।
जन्म के उपरान्त हर वस्तु मरण की दिशा में चलती है। विकास और यौवन के पड़ाव इसी बीच में आ जाते हैं। अपने सूर्य का बचपन चला गया। किशोर काल व्यतीत हो गया। प्रौढ़ावस्था भी व्यतीत हो गई। यह उसकी ढलती उम्र है जो उसे क्रमशः मरण की दिशा में घसीटे लिये जा रही है। जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं वह शतपथ ब्राह्मण के अनुसार सूर्य की पतिव्रता पत्नी है वह उसी की कमाई खाती है। सुरक्षा के लिए उसी पर आश्रित है और पति के मरण पर साथ सती होने के लिए समुद्यत है। अस्तु सूर्य के मरण का सीधा सम्बन्ध अपनी पृथ्वी के साथ होने और उसके अंचल में पलने वाले हम सब मनुष्यों का भाग्य भी इन अभिभावकों की स्थिति पर अवलंबित है। सूर्य और पृथ्वी की स्थिति से हम मानव प्राणी अप्रभावित नहीं रह सकते। अस्तु अपना भविष्य चिन्तन करते समय हमें सूर्य और पृथ्वी के भविष्य का विचार करना पड़े तो उसे अनावश्यक नहीं माना जाना चाहिए।
सूर्य ठण्डा हो रहा है। उसके फलस्वरूप पृथ्वी भी ठण्डी हो रही है। साथ ही उसकी सक्रियता भी घट रही है। अब से एक करोड़ वर्ष पहले दिन-रात 22 घण्टे के होते थे और वर्ष 400 दिन का था। अब वर्ष में प्रायः 40 दिन की कमी और दिनमान में 2 घण्टे की बढ़ी हो गई है। वह अपनी धुरी पर भी अपेक्षाकृत मन्द गति से घूमने लगी है और सूर्य की परिक्रमा करने वाली यात्रा में भी धीमापन आ गया है।
खगोलवेत्ताओं की गणना है कि कोई पांच अरब वर्ष बाद अपनी पृथ्वी की स्थिति बड़ी विचित्र हो जायगी। एक दिन 720 घण्टे का अर्थात् आज के दिन की तुलना में 30 गुना बड़ा होने लगेगा। रात्रि अब के 15 दिनों की बराबर होगी और दिन भी इतना ही बड़ा होगा। तब रात्रि में कई कई बार जाग कर काम करने की और दिन में कई-कई बार पूरी नींद सोने की आवश्यकता पड़ा करेगी।
पृथ्वी की उदासी देखकर चन्द्रमा का जी उससे खट्टा होता जा रहा है। इन दिनों चन्द्रमा हर 30 वर्ष में पृथ्वी से एक फुट दूर हट जाता हैं। जब पृथ्वी के दिन 720 घण्टे के होंगे तो चन्द्रमा अब जितनी दूर ढाई लाख मील है उससे प्रायः ड्यौढ़ी दूरी पर चला जायगा। किन्तु यह स्थिति देर तक वैसी न रहेगी। कई अन्तर्ग्रहीय दबावों के कारण चन्द्रमा फिर वापिस लौटेगा और धरती से मात्र 9 हजार मील दूर रह जायगा। आकार में अब से 10 गुना बड़ा दिखाई पड़ने लगेगा। वह समय चन्द्रमा के जीवन मरण का होगा यदि वह कुछ कदम और आगे बढ़ा तो पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के दबाव से वह ईंधन के ढेर की तरह जलता दिखाई पड़ सकता है तब उसकी राख का कचरा पृथ्वी के इर्द-गिर्द वैसे ही घूमने लगेगा जैसा कि शनि ग्रह के इर्द-गिर्द ग्रह-उपग्रह का चूरा एक सघन छल्ले के रूप में घूमता रहता है।
बुझते हुए दीपक की लौ जिस प्रकार बार-बार उछलती चमकती है—मरणासन्न रोगी जिस तरह लम्बी सांसें लेता है उसी तरह सूर्य के हाइड्रोजन का एक बड़ा भाग हीलियम में बदल जाने के कारण कई तरह की नाभिकीय प्रतिक्रियायें होंगी। उसका आकार अब से 20 गुना अधिक हो जायगा और रंग अंगारे जैसा लाल। तब पृथ्वी के भी प्राण संकट में फंस जायेंगे। वह सूर्य के अति निकट जाकर परिक्रमा करेगी फलतः उसके ठोस पदार्थ पिघल कर द्रव बन जाने, पानी का भाप बनकर अन्तरिक्ष में उड़ जाने जैसे संकट खड़े हो जायेंगे। ऐसी दशा में उस पर किसी प्राणी या वनस्पति जैसा कोई जीवन चिन्ह भी शेष नहीं रह जायगा। किन्तु यह सब रहेगा तभी तक जब तक कि सूर्य गरम है और पृथ्वी के निकट होने के कारण उसे अधिक गरम करता है जब वह स्वतः ठण्डा होता जायगा तो स्वभावतः पृथ्वी भी ठण्डी होगी। तब पृथ्वी के प्रभाव क्षेत्र में भरी हुई गैसें पुनः बादल बनकर बरस सकती हैं और जीवन का श्रीगणेश नये सिरे से हो सकता है। उस समय के जीवधारी आज जैसे होंगे या अन्य किसी आकृति प्रकृति के यह अभी कहा जा सकना कठिन है। निश्चित रूप से वह शीतजीवी होंगे। पर उन विचारों को भी अधिक समय स्थिर रहने का अवसर कहां मिलेगा। पिछली सृष्टि गर्मी से जलकर नष्ट हुई थी तो यह अल्पजीवी नई सृष्टि शीत से ठिठुरकर थोड़े से समय में अपना दम तोड़ देगी। तब पृथ्वी बर्फ से ढकी एक बड़ी गोली मात्र दृष्टिगोचर होगी। सूर्य बुझते-बुझते एक टिमटिमाते दीपक की तरह रह जायगा गर्मी समाप्त हो जाने के कारण सौरमण्डल के सभी ग्रह-उपग्रह ठण्डे हो जायेंगे, सघन अन्धकार उन्हें ढक लेगा। इतने पर भी बिखराव रोकने का एक कारण तब भी बहुत दिन बना रहेगा। सूर्य में भरा हुआ पदार्थ बहुत विस्तृत है। वह अपने विस्तार के कारण ही आकर्षण शक्ति बनाये रहेगा और उसमें बंधे हुए ठण्डा अंधेरा सौरमण्डल किसी प्रकार अपनी कक्षा एवं धुरी पर परिभ्रमण करता रहेगा। यह नहीं कहा जा सकता कि उस नीरस स्थिति को प्रकृति कब तक सहन करेगी, हो सकता है कि इस शून्य को भरने के लिये ब्रह्माण्ड के कोई समर्थ सूर्य कहीं से टूट पड़े और इन अनाथ बालकों की साज संभाल नये सिरे से करने लगें। एक सम्भावना और भी है कि यह अनाथालय जैसा सौरमण्डल अपनी पृथ्वी समेत नव जीवन पाने के लिए अन्तरिक्ष की लम्बी यात्रा पर निकल पड़े। उस महायात्रा के भटकाव से त्राण पाकर स्थिरता का संरक्षण मिलने में किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा इसका अनुमान लगाने में अभी तो मनुष्य की वर्तमान बुद्धि ने असमर्थता ही घोषित कर दी है।
पृथ्वी की परिधि भूमध्यरेखा पर 4076 कि.मी. ओर ध्रुवों पर 40000 कि.मी. है। उसका व्यास भूमध्य रेखा पर 12753 कि.मी. है। धरातल क्षेत्रफल 51 करोड़ 2 लाख वर्ग कि.मी. है। सूर्य की परिक्रमा करते हुए उसकी गति 100191 कि.मी. प्रति घण्टा है।
पृथ्वी के आकार से सूर्य का आकार 13 लाख गुना बड़ा है। जिस ध्रुवतारे की अपना सूर्य अपने ग्रह परिवार समेत परिक्रमा करता है वह उसकी तुलना में 3 लख गुना बड़ा है। ध्रुव के परिवार में अनेकों सौरमण्डल सम्मिलित हैं। वह उन सब को समेटे हुए महाध्रुव की परिक्रमा के लिए दौड़ रहा है। महा ध्रुव का आकार प्रकाश और चुम्बकत्व अपने ध्रुव से अत्यधिक वृहत है।
इतने वजन से लदे हुए इतनी तीव्र गति से चल रहे इस परिभ्रमण में शक्ति खर्च होती है और वह कहीं न कहीं से आनी ही चाहिए। स्पष्ट है कि सूर्य की उत्तेजना से पृथ्वी का अन्तराल उफनता है। दोनों के समन्वय से वह क्षमता उत्पन्न होती है जो इस भूमण्डल की असंख्य गतिविधियों को संचालित करती है। साधन सामग्री सीमित है असीम नहीं। उत्पादन की तुलना में जब खर्च बढ़ जाता है तो जीवनी शक्ति घटती है और शरीर जराजीर्ण होते-होते मृत्यु के मुख में प्रवेश कर जाता है। यही अन्त गृह-नक्षत्रों का भी होता है। अपने सूर्य का और उसकी आश्रिता धरती का भी इसी प्रकार अन्त होता है। देर या सवेर में मरणधर्मा मनुष्यों की भांति यह विशालकाय सूरज भी अपनी सहेली धरती समेत मरने की तैयारी कर रहा है। हमें भी इस तथ्य को समझना है और अपने मरण को ध्यान में रखना है।
यह नहीं सोचना चाहिये कि सूर्य पृथ्वी या अन्य और किसी ग्रह नक्षत्र को ही मरना पड़ता है या मरना पड़ेगा। जन्म के साथ ही विकास का भी अनवरत क्रम चल रहा है। ब्रह्माण्ड फैल रहा है
फ्रीडमैन से लेकर आइन्स्टीन तक आ संसार के सभी प्रमुख अन्तरिक्ष विज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि ब्रह्माण्ड निरन्तर फैल रहा है। सभी खगोलीय पिण्ड एक दूसरे से दूर हटते जा रहे हैं। यह बिलगाव जिस गति से बढ़ता जाता है उसी अनुपात से उनकी धावन क्रिया में तीव्रता आती जाती है आकाश गंगाएं पहले की अपेक्षा अब एक दूसरे से बहुत दूर चली गईं हैं और यह फासला निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। आखिर यह फैलाव कब तक बढ़ता चलेगा? क्या कभी रुकेगा नहीं? क्या ब्रह्माण्ड पोल का कोई अन्त नहीं है? क्या नक्षत्रों की वर्तमान बिलगाव प्रतिस्पर्धा अनन्त काल तक ऐसे ही चलती रहेगी?
इन प्रश्नों के उत्तर खोजते-खोजते खगोलवेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि ग्रह नक्षत्रों की तरह यह शून्य भी गोल है। जिस तरह पृथ्वी पर सीधी रेखा बनाकर लगातार चलते ही रहा जाय तो चलने वाला अन्ततः वहीं जा पहुंचेगा जहां से उसने यात्रा आरम्भ की थी। ठीक इसी तरह सभी आकाशीय पिण्ड जहां से चले हैं—वहां से आगे चल बढ़ तो रहे हैं, पर घूमते-घामते अन्ततः वहीं जा पहुंचेंगे जहां से उनकी यात्रा आरम्भ हुई थी।
बच्चे धीरे ठुमकते हैं—वे उंगली पकड़ने पर चलते हैं जवानों की चाल तेज होती है और बूढ़े होने पर गति फिर मन्द हो जाती है और लाठी के सहारे किसी तरह थोड़ा बहुत चला जाता है। यही हाल इन ग्रह पिण्डों का भी होना है। वे आरम्भ में मन्द गति से नाचते, दौड़ते थे पीछे अब उनकी प्रौढ़ावस्था में चाल बढ़ गई है। वे एक दूसरे से दूर हटने में अपनी तीव्र गति को भी प्रतिष्ठा एवं प्रतिस्पर्धा का प्रश्न बनाते जा रहे हैं। पर सब देर तक चलने वाला नहीं। मात्र कुछ अरब-खरब वर्ष लगेगा कि उनकी कमर झुक जायगी और गरदन हिलने लगेगी तब वे लड़खड़ाते हुए गिरते-पड़ते किसी प्रकार चलने की लकीर पीटेंगे और फिर थक कर बैठ जायेंगे। हो सकता है कि बैठने के साथ-साथ ही उनकी मृत्यु क्रिया भी सम्पन्न हो जाय।
अन्तरिक्ष में फैली हुई आकाश गंगाएं अब एक दूसरे से हजारों प्रकाश वर्ष की दूरी पर हैं। पर प्रारम्भ में ऐसा न था। ब्रह्माण्ड का सारा पदार्थ एक ही जगह केन्द्रित था। तब एक ठोस सिल्ली जैसा था। फ्रीडमैन के अनुसार अब से कोई दस अरब वर्ष पहले आदिम संसार का पदार्थ घनत्व की चरम सीमा पर था। पीछे उनमें विघटन प्रारम्भ हुआ और पानी के बबूलों की तरह—टूटे हुये कांच के टुकड़ों की तरह वह बंटता चला गया। उनकी रेंगने जैसी हलचल ने बीच में पोल पैदा की और पोल में प्रति पदार्थ—शैतान—घुस बैठा, उसने हर टुकड़े को बहकाया और अलग रहने, दूर जाने और अलग घर-परिवार बसाने के लिए रजामन्द कर लिया। सब यहीं से ब्रह्माण्डीय हलचलें आरम्भ हो गईं। तब से वह सिलसिला कभी घटना नहीं वरन् क्रमशः तेजी ही पकड़ता गया है। आरम्भ में घनीभूत ‘वन्द ब्रह्माण्ड’ था। अब वह विरल और खुला ब्रह्माण्ड कहे जा सकने की स्थिति में है।
ब्रह्मा अनादि और अनन्त हो सकता है, पर ब्रह्माण्ड के बारे में वैसा नहीं कहा जा सकता। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि पदार्थ-प्रकृति अनादि अनन्त है। वह ब्रह्म की तरह ही शाश्वत है। ब्रह्माण्ड का अर्थ यदि आकाशीय पिण्डों का समूह कहा जाय तो उसका आरम्भ भी भूतकाल में कभी अवश्य ही हुआ था और एक दिन उसका अन्त भी होगा। यद्यपि जन्म मरण की ठीक जन्म-पत्री नहीं बन सकती तो भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि वह अपने गणना साधनों को चुनौती देता हुआ किसी न किसी दिन जन्मा जरूर था और भले ही हम उसकी ठीक तिथि और घड़ी न बता सकें तो भी उसका मरण निश्चित है।
सोवियत विज्ञान एकादमी के दो मूर्धन्य वैज्ञानिक येवगेची लिफशित्स और इजाक खलातनिकोव ने अमेरिकी वैज्ञानिकों की उस मान्यता का खण्डन किया है कि पदार्थ अपनी आदिम स्थिति में बहुत गरम था और केवल न्यूट्रोनों का बना था। सोवियत वैज्ञानिकों ने अपने पक्ष समर्थन में अनेकों तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करते हुए कहा है—आदिम पदार्थ ठण्डा था और प्रोटानों, इलेक्ट्रानों से बना था। किसी पदार्थ का ठोस रहना तभी सम्भव है जब वह ठण्डा हो। गर्मी स्वभावतः विरलता उत्पन्न करती है। ब्रह्माण्ड में हाइड्रोजन तत्व का बाहुल्य है। वह प्रारम्भ में जमे बादल की तरह था पीछे वह ओलों की तरह बरसने लगा और आकाशीय पिण्डों के रूप में विरल हो गया।
इन पिण्डों का मन दुटप्पा है। वे दुहरी चाल चल रहे हैं और दुरंगी नीति अपना रहे हैं। एक ओर तो उनका अहंकार अलग अस्तित्व सिद्ध करने और पृथकता में वर्चस्व सिद्ध करने में लगा हुआ है दूसरी ओर विवेक कहता है—इस मूर्खता से क्या लाभ? संयुक्त रहने और मिल-जुलकर रहने का अपना आनन्द है। अब अपना शैशव एक घर में हंसी-खुशी से बीत रहा था तो जब फिर उसी तरह रहने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए? महत्वाकांक्षाएं प्रगति—प्रगति—प्रगति की रट लगाये हुए हैं और लम्बी कुलांचे भरने के लिए विवश करती हैं। दूसरी ओर शान्ति, स्नेह और सहयोग की ओर भी मन ललचाता है। सो दोनों प्रवृत्तियां अपना-अपना काम करती हैं। एक ओर तारक भाग रहे हैं साथ ही एक दूसरे को अपने प्रभाव में पकड़े जकड़े भी हैं। पृथकतावाद का बोलबाला है फिर भी हर आकाश गंगा ने—हर महासूर्य ने अपना अच्छा खासा परिवार बसा रखा है और ढेरों पोते, परपोतों को लेकर एक-एक गांव, मुहल्ला बसा लिया है।
यह कहना कठिन है कि आकाशीय पिण्ड दूर जा रहे हैं या वापिस लौट रहे हैं। अधिक यही कहा जा सकता है कि उनकी आधी दौड़ की दिशा में और आधी वापसी की दिशा में निर्धारित है। डर्वी के घोड़े एक गोल चक्कर में दौड़ते हैं और अन्त में वे वहीं आ खड़े होते हैं जहां से चले थे। लगते हैं आकाशीय पिण्ड पहले से ही डर्बी के घोड़ों की तरह एक गोल चक्कर में दौड़ दिखाने और हम दर्शकों का कौतूहल बढ़ाने के लिए धमाचौकड़ी लगाये हुए हैं। वे एक दिन अपने पुराने अस्तबल में जा बंधेंगे।
नौजवानी का जोश आखिर ठण्डा तो होना ही है। खून की गर्मी सदा एक सी तो नहीं बनी रहती। महत्वाकांक्षाओं का आवेश शराब के नशे की तरह सदा तो नहीं बना रहता। खुमारी उतरती है तो नये ढंग से सोचना पड़ता है तब शान्ति के साथ रहने और चैन की सांस लेने को जी करता है। मनुष्यों की तरह इन ग्रहपिण्डों का भी यही हस्र होना है। जब वे आधी मंजिल पार कर लेंगे और प्रौढ़ावस्था की ढलती उम्र आ जायगी तो वे अपनी घुड़दौड़ हलकी करेंगे, लंगड़ाते-लड़खड़ाते चलेंगे। ठण्डे होते जायेंगे और वह ठंडक जहां शीतल, शान्तिदायक होगी वहां नीरस भी। अकड़े-जकड़े अंग सुस्ताने को विवश कर देंगे तो यह बूढ़ा ब्रह्माण्ड थक कर बैठ जायगा और लम्बी चादर ओढ़कर चिर निद्रा की गोद में चला जायगा।
भगवान् कितना विशाल है। विशाल ब्रह्माण्ड जैसा। भगवान् कितना लघु है। अणु-परमाणु जैसा। मनुष्य भी यदि अपनी आत्म सत्ता को समझे और विस्तार की भूमिका में उतरे तो वह भी विभु है—महान् है, पर यदि संकीर्ण स्वार्थपरता की—व्यक्तिवादी अहंता की तुच्छता में सीमाबद्ध होकर रह जाय तो वह वस्तुतः इतना क्षुद्र है जिसे महत्वहीन नगण्य एवं उपहासास्पद ही कहा जा सकता है।
अपने सूर्य को ही लें। उसका व्यास 865380 मील है। उसकी कुल परिधि 2700000 मील है। अनुमानित भार 19 करोड़ 98 लाख महाशंख टन। वह अपनी धुरी पर 25 दिन 7 घण्टे 48 मिनट में एक चक्कर लगाता है। उसकी सतह पर 600 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान है और मध्य गर्भ में 1500000 डिग्री सेन्टीग्रेड। वह दो सौ मील प्रति सेकिण्ड की उड़ान उड़ता हुआ महा ध्रुव की परिक्रमा में निरत है यह परिक्रमा 25 करोड़ वर्ष में पूरी होती है। इस परिक्रमा में उसके साथी और भी कई सूर्य होते हैं जिनके अपने-अपने सौरमण्डल भी हैं।
पृथ्वी से सूर्य 109 गुना बड़ा है। दोनों के बीच की दूरी 92000000 मील है। यदि हम 600 मील प्रति घण्टे की गति से उड़ने वाले अपने तीव्रतम वायुयानों में बैठकर लगातार उड़ें तो उस दूरी को पार करने में 18 वर्ष लगेंगे।
सूर्य से पृथ्वी पर जो शक्ति बरसती है वह इतनी है कि एक वर्ग इंच की शक्ति से 60 हार्स पावर का इंजन चल सके। पूरी पृथ्वी पर सूर्य जो ताप फेंकता है वह प्रति सेकिंड इतना होता है जितना 12 हजार अरब टन कोयला जलाने पर ही पैदा किया जा सकता है। सूर्य का प्रकाश पृथ्वी पर प्रति वर्ग इंच इतना होता है जितना तीन लाख मोमबत्तियां जलाने से पैदा किया जा सके। सूर्य की शक्ति का 220 करोड़ वां भाग ही पृथ्वी पर पहुंच पाता है।
वैज्ञानिकों की नवीनतम गणना के अनुसार ब्रह्माण्ड में लगभग 10 करोड़ सौरमण्डल और 10 अरब तारे हैं। इन तारों में कोई-कोई कल्पनातीत विस्तार के हैं। अकेला चेष्टा ही इतना बड़ा है कि उसके पेट में अपने तीन करोड़ सूर्य घुस कर बैठ सके। प्रख्यात ‘एन्ड्रोमीडा’ नीहारिका हमसे 8 लाख प्रकाश वर्ष दूर है। जबकि एक प्रकाश वर्ष को 58 खरब 80 अरब मील माना जाता है।
अपनी धरती का व्यास 12700 किलो मीटर और वजन 6,600,000,000,000 अरब टन है। वह 30 किलो मीटर प्रति सेकिण्ड की उड़ान भरती हुई 364 दिन में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है। सूर्य और पृथ्वी के बीच की औसत दूरी 9 करोड़ 30 लाख मील रहती है। धरती का जन्म अब से 5 अरब वर्ष पूर्व हुआ। 3 अरब वर्ष पूर्व उस पर जीवन प्रारम्भ हुआ। इनसे मनुष्य का अस्तित्व 10 लाख वर्ष पहले ही हुआ है। इससे पूर्व अन्य जलचर, थलचर, नभचर प्राणी उत्पन्न हो चुके थे। इनमें से 20 लाख जातियों के प्राणी अभी भी पाये जाते हैं। पुराणों में बताई गई 84 लाख योनियों में से अब सिर्फ 4 लाख जीव जातियां ढूंढ़नी शेष रह गई हैं।
यह अपना सौर मण्डल भी कितना विचित्र है। उपग्रहों की सदस्यता के बारे में हममें से बहुतों को यह भी नहीं मालूम है कि मंगल पर 2, बृहस्पति पर 12, शनि पर 9, यूरेनस पर 5 और नेपच्यून पर 2 चन्द्रमा भ्रमण करते हैं। मात्र हमारा एक चन्द्रमा ही सौरमण्डल का एक उपग्रह नहीं है। कुल मिलाकर उनकी संख्या 31 है। हमारा वर्ष 65 दिन का और दिन 24 घण्टे का होता है। किन्तु अन्य ग्रहों की स्थिति भिन्न है। धरती पर जितना बड़ा दिन होता है उसके हिसाब से लेखा-जोखा लिया जाय तो सूर्य का एक दिन हमारे 176 दिनों के बराबर और वर्ष 88 दिनों के बराबर होता है।
बुध का दिन 243 दिन का वर्ष 225 दिन का है। मंगल का दिन पृथ्वी के लगभग बराबर है। उसका दिन 24.6 घण्टे का और वर्ष 1.6 वर्ष का है। बृहस्पति का दिन 10 घण्टे का और वर्ष 12 वर्ष का—शनि का दिन 10 घण्टे और वर्ष 29 वर्ष का—यूरेनस का दिन 11 घण्टे और वर्ष 84 वर्षों का नेपच्यून का दिन 16 घण्टे का और वर्ष 365 वर्षों का, प्लूटो का एक दिन हमारे 6 दिन 9 घण्टों की बराबर और उसका एक वर्ष हमारे 248 वर्षों की बराबर है। उनके आकार में भी भारी भिन्नता है। अपने मीलों के हिसाब से सौरमण्डल का व्यास नापा जाय तो सूर्य का व्यास 8,64000 बुध का 3100 शुक्र का 7500, पृथ्वी का 7920 मंगल का 4150, बृहस्पति का 87,000, शनि का 71500, यूरेनस का 3200 नेपच्यून का 31000, प्लूटो का 4500 मील है। सूर्य से किस ग्रह की दूरी कितनी है इसका हिसाब लगाने के लिये अपने मील बहुत झंझट भरा विस्तार करेंगे इसलिये अपने 10 लाख मील का एक सौरमण्डलीय मील मानकर चला जाय यह ठीक रहेगा। तब उस अन्तरिक्ष मील के अनुसार सूर्य से उसके सौर परिवार की दूरी इस प्रकार नापी जा सकती है। बुध की 36,2 शुक्र की 66,9 पृथ्वी की 92,9 मंगल की 141,2 बृहस्पति की 483 शनि की 882,6 यूरेनस की 178307 नेपच्यून की 2787 प्लूटो की 3621,1। अपने सौरमण्डल का एक आनुमानिक नक्शा धरती पर बनाना हो तो पृथ्वी को एक इंच की गोली जितनी बनाना चाहिए। तब सूर्य उसके 322 गज दूर 9 फुट व्यास का बड़ा गोला होगा। सूर्य के 124 गज दूर बुध—232 गज दूर शुक्र होंगे तब 322 गज पृथ्वी बनानी पड़ेगी। इसके बाद मंगल 488 बृहस्पति 1672 शनि 3067 अरुण 5159 वरुण 9656 और यम 13300 गज दूर अंकित करने पड़ेंगे। बेचारा अपना चन्द्रमा तो पृथ्वी से 30 इंच दूर एक चने के दाने जितना होगा।
प्रो. फ्रेड होयल डा. फूडील्फ मिन्केवस्की आदि खगोल विद्या के मूर्धन्य विशेषज्ञों का कथन है कि अपने ब्रह्माण्ड की आयु लगभग 10 अरब वर्ष है। आरम्भ में ग्रह नक्षत्र उत्पन्न होने की गति धीमी थी पर अब ज्यों-ज्यों ब्रह्माण्ड बूढ़ा होता जाता है त्यों-त्यों उसकी सिकुड़न बढ़ रही है। गर्मी के कारण फैली हुई गैसों का तापमान घट रहा है। फलतः सिकुड़न उत्पन्न होने से ग्रह नक्षत्र उत्पन्न होने की चाल तेज हो गई है। हमारी अपनी आकाश गंगा ही लगभग एक नये सूर्य को हर वर्ष जन्म दे देती है। यह गति आरम्भिक काल की अपेक्षा आठ गुनी अधिक तेज है। ब्रह्माण्ड में सबसे अधिक मात्रा में हाइड्रोजन गैस से बना हुआ पदार्थ भरा पड़ा है।
वाशिंगटन की नौ सेना अनुसंधान प्रयोगशाला ने आकाशीय पिण्डों में सबसे रहस्यमय तारे ‘क्वासर’ बताये हैं। वे बहुत बूढ़े और बहुत दूर होते हुए भी बहुत चमकीले हैं और सबसे खतरनाक एक्स-किरणें प्रचण्ड मात्रा में समस्त ब्रह्माण्ड में बखेरते हैं। वही अनुदान पृथ्वी को भी विपुल मात्रा में मिलता है। राकेट विज्ञानी डा. हर्वर्ट फ्रीडमेन का कथन है कि इन क्वासरे ने समस्त ब्रह्माण्ड को एक्स किरणों का एक प्रकार से महासागर ही बनाया हुआ है। क्वासरों में से एक निकटवर्ती ‘3 सी 14’ को 600 करोड़ प्रकाश वर्ष दूर माना गया है एक प्रकाश वर्ष अर्थात् 1000000 करोड़ किलोमीटर दूरी। किलो मीटरों के हिसाब से इन क्वासरों की दूरी कितनी अकल्पनीय है।
अपनी नीहारिका बीस हजार प्रकाश वर्ष मोटी और एक लाख प्रकाश वर्ष लम्बी है। यह गोल आकार की होने से चौड़ाई भी लगभग इतनी ही है। उसके परिवार में लगभग सौ अरब ग्रह नक्षत्र हैं।
अपनी मंदाकिनी नीहारिका जैसी इस ब्रह्माण्ड में करोड़ों हैं। उनमें से हमें अधिक समीप एन्ड्रोमेडा (देवयानी) है हमें उसी के बारे में कुछ अधिक जानकारी है। इसकी दूरी सबसे निकट होते हुये भी अपनी आकाश गंगा से बीस लाख प्रकाश वर्ष दूर है। उसे हम मृगसिर नक्षत्र में खुली आंखों से भी देख सकते हैं। पर वह प्रकाश जो दिखाई देगा बीस लाख प्रकाश वर्ष पुराना होगा, जबकि हमारी पृथ्वी का जन्म अथवा विकास का आरम्भ भी नहीं हुआ था। आज वहां क्या स्थिति है इसे जानना हो तो इतने ही समय प्रतीक्षा करनी पड़ेगी समस्त ब्रह्माण्ड कितना विस्तृत है, उसका ठीक विवरण प्राप्त नहीं पर संसार की सबसे बड़ी रेडियो, दूरबीन जो अमेरिका के पालोमर पर्वत पर लगी है उससे पांच अरब प्रकाश वर्ष दूरी की नीहारिकाओं को देख लिया गया है।
यह नीहारिकाएं अपने स्थान पर विद्यमान नहीं हैं वे एक दूसरे से उसी तरह दूर भागती जा रही हैं जैसे दागने के बाद बन्दूक से उसकी गोली दूर भागती है। इस भगदड़ की चाल साठ हजार किलो मीटर प्रति सेकिण्ड है। समस्त विश्व ब्रह्माण्ड का फुलाव विस्तार कितना गुना हो चुका होगा इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दो वर्ष में ही उसका पेट दूना फूल चुका है यह माप करली गई है। प्रगति के पथ पर सभी ग्रह नक्षत्र तेजी से भाग रहे हैं जिस दिन यह विकास स्पर्धा बन्द होगी उसी दिन ब्रह्माण्ड के सामने महाप्रलय आ उपस्थित होगी।
विश्व ब्रह्माण्ड की विशालता और अपनी क्षुद्रता की जब तुलना करते हैं तो अपना अहम् सहज ही जल जाता है हम क्या हैं? वे संपदायें क्या हैं जिस पर इतराते हैं और यह जीवन क्या है जिसे हम अमर समझते हैं, इसे ठीक तरह समझने के लिये उस ब्रह्माण्ड का स्वरूप भी जानना पड़ेगा, जिसके हम एक नगण्य से अंग अवश्य हैं।
ब्रह्माण्ड कितना विशाल और उसकी तुलना में अपनी पृथ्वी कितनी क्षुद्र। अपनी पृथ्वी पर रहने वाले कोटि प्राणियों के बीच मनुष्य का एक नगण्य सा अस्तित्व और चार सौ करोड़ मनुष्यों के बीच हमारी नगण्य सी एक सत्ता। इन सबको तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो प्रतीत होगा कि शरीर में रहने वाली खरबों कोशिकाओं में से एक की सत्ता जितनी स्वल्प है उससे भी असंख्य गुनी न्यून अपनी सत्ता है। ब्रह्माण्ड की तुलना में पिंड और पिंड की तुलना में अणु कितना क्षुद्र है। विशाल की तुलना में हम कितने तुच्छ हैं, इस पर एक क्षण के लिये भी विचार कर सकें तो प्रतीत होगा कि अपने उपहासास्पद कलेवर में इतराने जैसी—अहंकार में इठने जैसी कोई बात नहीं है।
लगता है कि पुरातन को नवीन में बदलने के लिए एक गति-चक्र एक सुनिश्चित विधि-विधान के साथ चल रहा है। अभिवृद्धि एक सीमा तक ही प्रौढ़ता बनाये रह सकती है। परिपक्वता के साथ जीर्णता बढ़ती है ताकि आरम्भ और अन्त का—अन्त और आरम्भ का गतिचक्र अपनी गोलाई एवं धुरी पर अनवरत रूप से अग्रगामी बना रह सके। जन्म को न तो आदि समझा जाना चाहिए और न मरण को अन्त। चक्र में आदि अन्त कहां है इसकी कल्पना भर की जा सकती है। तथ्यतः गोलाई में आदि अन्त कहीं होता ही नहीं। जीवन का अन्त मरण समझा जाता है, परन्तु वह तो ऐसा विश्राम स्थल है जहां से जीव पुनः नया जीवन धारण करता है और कर्मक्षेत्र संसार में पुनः नये उत्साह के साथ प्रवेश करता है।
पृथ्वी पर प्रकृति की विकास व विनाश लीलाओं का क्रम अनवरत रूप से चलता रहता है। पृथ्वी अपने इर्द-गिर्द वायुमण्डल का एक कवच पहने हुए है। उसके तीन आवरण हैं। प्रत्येक से पृथ्वी को, इसके प्राणियों को तथा पदार्थों को बहुत कुछ मिलता है। किन्तु यह भी एक कटु सत्य है कि उसी के कारण अपनी दुनिया को विनाश का कष्ट भी कम नहीं भुगतना पड़ता।
हम सभी मनुष्य वातावरण के अदृश्य सागर के तले निवास करते हैं। प्रायः 99 प्रतिशत वातावरण का भार 5 अरब टन है और वह सिर्फ ऊपर के 30 मील के क्षेत्र में सिमटा है। इस सघनता का लाभ यह है कि वह अन्तरिक्षीय किरणों, उल्कापातों आदि घातक प्रभावों से पृथ्वी के जीवन की रक्षा करता है। साथ ही प्राणवायु जल रसायन आदि देता है। तापमान को नियन्त्रित रखता है। इस तरह यह घनीभूत वातावरण अपनी पृथ्वी के लिए—हम सब प्राणियों के लिए—एक रक्षा कवच का काम करता है। इस वातावरण में तनिक-सी भी उथल-पुथल पृथ्वी तल पर भयंकर चक्रवातों प्रलयंकर तूफानों और विक्षुब्ध विनाश लीला का कारण बनती है। सागर की विशाल जल राशि भी निरन्तर उफनती रहती है, धरती के ऊपर का वातावरण भी सदा धधकता रहता है। अभी तक ऐसा कोई यन्त्र नहीं बन पाया है जो वातावरण की गहराई नाप सके और तथ्यों का सही एवं समग्र पता लगा सके। धरती की छाती में तो विशाल ज्वालामुखियों का अविराम हाहाकार दबा ही रहता है।
भीतर चल रही उथल-पुथल कभी-कभी आकस्मिक विस्फोटों के रूप में अभिव्यक्त होती है। यद्यपि कोई भी विस्फोट वस्तुतः आकस्मिक नहीं होता। वह एक क्रमिक प्रक्रिया को ही अनिवार्य परिणति होता है।
सृष्टि के आरम्भ से ही प्राकृतिक परिवर्तन होते रहे हैं। मानव जाति के इतिहास में ऐसे तीव्र परिवर्तन से सदा नये मोड़ आते हैं।
इस परिवर्तन के स्वरूप बहुत तरह के होते हैं। सौर-मण्डल की गतिविधियों की एक दूसरे ग्रह पर भी पारस्परिक प्रतिक्रिया होती है व प्रभाव पड़ता है ज्वालामुखियों के विस्फोट, तूफान, भूकम्प, ऊपरी वातावरण, विषमता से उत्पन्न हलचलें अथवा सौर-मण्डल की कोई भी असामान्य गतिविधि ऐसे तीव्र परिवर्तनों का कारण बन जाती है। अन्तरिक्ष में आवारागर्दी करने वाली कुछ उल्काएं भी अपनी दुस्साहसिकता के कारण स्वयं को तो क्षति पहुंचाती ही हैं, पृथ्वी याकि अन्य ग्रहों को भी उथल-पुथल से भर देती हैं, इन उद्दण्ड उल्काओं की आवारागर्दी की गाथाएं दुनिया भर के पौराणिक साहित्य में रोचक ढंग से वर्णित हैं।
यूनान की पौराणिक गाथाओं में ‘इंकोरस’ नाम के एक युवक की कथा है। यह सूर्य से मिलने की महत्वाकांक्षा रख, नकली पंख लगाकर चल पड़ा। पंख उसने मोम से चिपका लिए थे।
अधिक ऊंचे जाने पर उसके पंख को जोड़ने वाली मोम गर्मी के कारण पिघल गई और पंख नीचे गिर पड़े, ‘इकोरस’ भी औंधे मुंह नीचे समुद्र में आ गिरा तथा मर गया। पिछले दिनों इसी युवक की तरह का एक दुस्साहसी उल्का पिंड भी देखा गया। इसका नाम भी ‘इकोरस’ ही रखा गया। यह ‘इकोरस’ उल्कापिंड कभी सूर्य के निकट जा पहुंचा है, इतना कि बस थोड़ा और पास जाए, तो भुर्ता ही बन जाए। कभी लगता है वह बुध से कभी मंगल और कभी शुक्र से अब टकराया, तब टकराया। सूर्य के अति निकट पहुंच कर वह आग का गोला ही बन जाता है। तो कभी सूर्य से इतनी दूर जा पहुंचता है कि शीत की अति ही हो जाती है। जून 1968 में इस उद्दण्ड क्षुद्र ग्रह की पृथ्वी के ध्रुव प्रदेश से टकराने की सम्भावना बढ़ गई थी। यदि खगोल शास्त्रियों की वह आशंका सत्य सिद्ध होती, तो पृथ्वी में भीषण हिमतूफान आते, समुद्र उफनकर दुनिया का थल-भाग अपनी चपेट में ले लेता, साथ ही लाखों वर्ग मील भूमि में गहरा गड्ढा हो जाने की सम्भावना थी, जहां यह उफनता समुद्री जल भर जाता तथा कुल मिलाकर करोड़ों मनुष्यों का सफाया हो जाता। सन् 1908 में मात्र हजार फुट व्यास की एक उल्का साइबेरिया के जंगल में गिरी थी, तो वहां अणु बम विस्फोट जैसे दृश्य उपस्थित हो गये थे। इकोरस तो उस उल्का से हजारों गुना बड़ा है, अतः परिणाम का अनुमान किया जा सकता है।
सौभाग्यवश इकोरस पृथ्वी के समीप होकर गुजर गया और एक भीषण दुर्घटना टल गई। सौर-मण्डल में ऐसे अनेक क्षुद्र ग्रह हिडालगो, इरोस, अलबर्ट, अलिण्डा एयोर, सहसा टकराकर कभी भी धरती के जीवन में उथल-पुथल मचा सकते हैं।
वैज्ञानिकों ने अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि सूर्य पर जो हर 11 वें वर्ष कुछ धब्बे से बन जाते हैं उनका कारण सौरमण्डल के ग्रहों की गतिविधियां ही हैं स्पष्ट है कि सौर-मण्डलीय ग्रहों की प्रत्येक गतिविधि का सूर्य पर प्रभाव पड़ता है, जिस तरह सूर्य की हर गतिविधि से सौर-मण्डलीय ग्रह प्रभावित होते हैं। सभी ग्रह पश्चिम से पूर्व की ओर—सूर्य की परिक्रमा करते हैं और पृथ्वी की ही भांति अपनी धुरी पर भी घूमते हैं। इस परिभ्रमण काल में जो अगणित प्रकार की उथल-पुथल होती है उनसे पृथ्वी सहित सभी ग्रह उपग्रह प्रभावित होते हैं।
ऐसी उथल-पुथल की स्मृतियां मानवीय इतिहास में सुरक्षित हैं। पुराण कथाओं में इनका रोचक वर्णन मिलता है। मात्र क्षुद्र नक्षत्रों के टकराने अथवा सूर्य या किसी बड़े नक्षत्र में व्यापक परिवर्तन होने उथल-पुथल मचने से ही धरती में जलप्लावन आदि की घटनाएं नहीं घटती, बल्कि धरती के भीतर की हलचलें और उसके सिकुड़ने-फैलने की विभिन्न प्रक्रियाएं भी जल प्रलय आदि के दृश्य उपस्थित करती है।
सभी जानते हैं कि कभी भू-मण्डल के सभी महाद्वीप एक दूसरे से जुड़े थे। ग्रहों की हलचलों और आकुंचन प्रसार की प्रक्रियाओं से वे एक दूसरों से दूर हटते गए। हिमालय अभी भी लगातार उत्तर की ओर खिसक रहा है और भू-वैज्ञानिकों का कथन है कि 5 करोड़ वर्ष बाद सम्पूर्ण उत्तरी भारत का अधिकांश इलाका हिमालय के पेट में समा जायेगा। इसी तरह सन् 1966 में मास्को में सम्पन्न द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलन में प्रो. डा. ब्रूस सी. हीजेन और डा. नील यू. डाइक ने घोषणा की थी कि आज से लगभग 2 हजार 32 वर्ष बाद पृथ्वी के चुम्बकीय बल क्षेत्र अपना स्थान बदल देंगे। साथ ही पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति घटेगी। इसमें मनुष्यों का आकार व जीवन भी प्रभावित होगा। वृक्ष-वनस्पति, कीट-पतंग आदि पर भी व्यापक प्रभाव पड़ेगा। प्रशांत महासागर की तलहटी से निकाली गई मिट्टी और रेडियो सक्रियता एवं ‘लारिया’ नामक एक कोशीय जीव में हो रहे क्रमिक परिवर्तन से पता चलता है कि सन् चार हजार तक चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन होगा, जिससे ध्रुवों का स्थान भी परिवर्तित होगा। परिणामस्वरूप धरती में खण्डप्रलय की स्थिति हो जायेगी। बर्फीले तूफान चारों ओर उठेंगे। धरती में बेहद गर्मी और बेहद ठंडक की स्थितियां पैदा हुआ करेंगी। समुद्रतल भी लगातार ऊपर उठ रहा है। इसका भी परिणाम अवश्यम्भावी है। ऐसी ही विशिष्ट प्राकृतिक उथल-पुथल अतीत में भी जल प्रलय जैसी घटनाओं का कारण बनती रही है। विश्व की अधिकांश प्राचीन सभ्यताओं के साहित्य में जलप्लावन तथा उसके बाद सृष्टि के नवीन क्रम का वर्णन मिलता है। इसे धार्मिक पुट दिया गया है। लेकिन भूगर्भ शास्त्रियों का भी अनुमान है कि समय-समय पर पृथ्वी के विशेष खण्ड टूट जाते थे और धरती पर जल ही जल हो जाता था।
भू गर्भ वेत्ता डा. ट्रिकलर के अनुसार हिमालय के आस-पास प्राप्त ध्वंसावशेषों से ज्ञात होता है कि जल प्रलय की घटना सत्य है।
यूनानी साहित्य में भी जलप्लावन की चर्चा है। एक कथा के अनुसार ‘अटिका’ जलमय हो गई थी। दूसरी कथा के अनुसार ‘जीयस’ ने अपने पिता की इच्छापूर्ति के लिए ‘ड्यूकालियन’ का विनाश करना चाहा। जब ड्यूकालियन अपनी पत्नी पैरहा के साथ जलयात्रा कर रहा था, जीयस ने भीषण जल-वृष्टि द्वारा पृथ्वी को डुबा दिया। नौ दिन तक ड्यूकालियन और पैरहा पानी में ही अपनी नाव द्वारा तैरते रहे। जब वे ‘पैरासस पहुंचे, तो जलप्लावन कुछ कम हुआ। तब उन दोनों ने अपने अंग रक्षक की देवताओं को बलि दे दी। इससे जीयस प्रसन्न हो गया और उनको सन्तान का वरदान दिया ड्यूकालियन और पैराह ने वरदान पाकर जीयस पर पत्थरों की वर्षा की। जो पत्थर ड्यूकालियन ने फेंके वे पुरुष हो गये और जो पैरहा ने फेंके वे नारी हो गए।
केबोलोनिया में भी ऐसी ही एक दन्त कथा है। तीन सौ ईस्वी पूर्व वहां वेरासस नामक पुरोहित था। उसने लिखा है—आरडेट्स की मृत्यु के बाद उसके पुत्र ने 18 ‘सर’ तक राज्य किया। एक सर 36 सौ वर्षों का होता है। इसी अवधि में एक बार भीषण बाढ़ आई। इसकी सूचना राजा को स्वप्न द्वारा पहले ही मिल चुकी थी। अतः उसने अपने लिए एक नाव बनवा ली थी। नाव में बैठकर वह जल-प्लावन देखता घूमता रहा। जब जल-प्लावन का वेग कम हो गया, तो उसने नाव में ही बैठे-बैठे तीन बार पक्षी उड़ाए। अन्तिम बार जब पक्षी लौट कर नहीं आये, तो उसने देवताओं को बलि दी। इससे देवता प्रसन्न हुए और शान्ति का वातावरण बना।
बाइबिल के अनुसार—जल-देवता ‘नूह’ को खबर मिली कि धरती पर जल-प्रलय होगी। फिर ऐसा ही हुआ। चराचर इस भीषण जल-प्रलय में समाहित हो गये। जल-देवता ‘नूह’ तथा उसके कुछ साथी नौका में बच निकले। नौका द्वारा आराकान पर्वत पहुंचे। वहां दशवें महीने के पहले दिन जल कम होना शुरू हुआ। धीरे-धीरे पर्वत श्रेणियां दीखने लगीं। फिर अन्य हिस्से भी। हजरत ‘नूर’ ने ही मानवता का विकास किया। सुमेरियन ग्रन्थों में भी जलप्लावन का संकेत है। चीनी पुराण-साहित्य में भी जल-प्लावन की कथाएं विद्यमान है।
भारत में तो शतपथ ब्राह्मण से लेकर महाभारत और विविध पुराणों तक जल-प्रलय का वर्णन मिलता है। महाभारत के वन-पर्व में मत्स्योपाख्यान के अन्तर्गत यह कथा है कि विवस्वान मनु ने दश हजार वर्ष हिमालय पर तपस्या की। उस समय एक मछली की प्रार्थना पर उन्होंने उसकी जीवन रक्षा की। तब मछली ने उनको आगामी भीषण जलप्लावन की अग्रिम जानकारी दी साथ ही यह कहा कि तुम सप्त ऋषियों के साथ नौका में मेरी प्रतीक्षा करना। अन्य पर्वों में भी इस जलप्लावन का सुविस्तृत वर्णन है। सम्पूर्ण प्राचीन विश्व-साहित्य में जल-प्रलय की ये कथाएं निश्चय ही किसी घटित घटना की ही स्मृतियां हैं। अभिव्यक्ति की शैली भिन्न भिन्न सभ्यताओं के परिवेश और सांस्कृतिक चेतना के अनुरूप अलग-अलग हैं। किन्तु उनमें एक आन्तरिक अविच्छिन्नता है। जल-प्रलय की बात बड़ी है, पर उसके छोटे-छोटे रूप अन्य प्रकार से भी दृष्टिगोचर होते रहते हैं। भूकम्प, विस्फोट, बाढ़ आना, वृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी आदि कारणों से कम विनाश नहीं होता है। आये दिन जहां-तहां होते रहने वाले युद्ध और महायुद्ध भी सम्पत्ति और प्राणियों की कम हानि नहीं करते।
एक ओर यह विनाशकारी घटनाएं होती हैं दूसरी ओर उत्पादन और अभिवृद्धि का उपक्रम देख कर भी आश्चर्यचकित रहना पड़ता है। वनस्पति के सहारे ही जीव धारियों का आहार निर्वाह होता है उसका खर्च जितना है उसे देखते हुये उत्पादन की मात्रा कम नहीं वरन् बढ़ी-चढ़ी ही रहती है। खाने वाले प्राणी और ग्रीष्म जैसी नष्ट कर करने वाली परिस्थितियों का सामना करते रहने पर भी वन-सम्पदा और वनस्पति की सुषमा पृथ्वी पर छाई ही रहती है। हरितमा के लिये प्रस्तुत सभी चुनौतियां अन्ततः निरस्त ही होती रहती हैं और अपनी धरती की हरियाली में घट बढ़ होती है, पर अन्त उसका कभी भी नहीं होता।
तनिक-सी दीखने वाली एक भिनभिनाती मक्खी एक ही ग्रीष्म ऋतु में 40 हजार सन्तानें पैदा कर सकती है, यदि उसकी आकस्मिक मृत्यु न हो जाए। इन 40 हजार मक्खियों की तीन पीढ़ी में उत्पन्न सन्तानों को एक कतार में रखा जाय, तो पृथ्वी से सूरज तक की दूरी से कई गुनी लम्बी कतार बन जाए।
एक परिपक्व पोस्त में 3 हजार बीज होते हैं। यदि हर बीज से एक पौधा उगने दिया जाय और फिर उनमें से हर पौधे में कम से कम एक पोस्त लगने पर फिर उनमें से हर एक के तीन हजार बीजों का उपयोग भी पौधे ही पैदा करने के लिये किया जाय, तो इस क्रम से 50 वर्षों में एक ही वृक्ष के वंश विकास द्वारा पूरी पृथ्वी ढक सकती है। प्रकृति की गतिविधियों का जितना ही अधिक निरीक्षण—विश्लेषण किया जाए, यही ज्ञात होता चलेगा कि वह अत्यन्त दयामयी व कुशल है। किन्तु इस दया में आवश्यक उग्रता व रौद्ररूप भी सम्मिलित है। वस्तुतः सन्तुलन ही प्रकृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व सार्वभौम अन्तःसूत्र है। सन्तुलन की यह प्रकृति-प्रवृत्ति हमें विभिन्न पशु-पक्षियों की प्राकृतिक संरचना में भी दिखाई पड़ती है।
दक्षिणी अमेरिका का ‘स्लाथ’ पक्षी सम्पूर्ण जीवन पेड़ पर औंधे मुंह लटके-लटके काट लेता है। उसका आहार हरे पत्ते टहनियां आदि हैं। प्रकृति ने उसे ऐसे बाल दिये हैं, जिनके कारण वर्षा ऋतु में भी उल्टे लटके रहने पर भी बरसात का पानी नीचे टपक जाता है, यानी उसके बाल भी उल्टे होते हैं, उसके औंधे लटकने पर वे नीचे झूलते रहते हैं। यदि ऐसा न होता, तो बरसात का पानी निरन्तर ऊपर टपकते रहने के कारण अपना वंश चलाते रहने के लिये व बच न पाता।
सूर्य भी मरने की तैयारी में
अपने सौर मण्डल के ग्रह उपग्रहों की विविध गति-विधियों का स्रोत सूर्य है। उससे जो ऊर्जा निसृत होती है उसी के बलबूते सौर परिवार अपना निर्वाह करता है। गर्मी के बिना न चूल्हा ही जलता है और न रेल, मोटर दौड़ती हैं शरीर की गर्मी चुक जाय तो निस्तब्धता छा जायगी और मौत आ दबोचेगी। तेल, पैट्रोल न हों तो गाड़ी कैसे चलेगी? बिजली न हो तो उसके सहारे चलने वाले कारखाने ठप्प पड़ जायेंगे। सूर्य का ऊर्जा उत्पादन बन्द हो जाय तो सौरमण्डल के ग्रह स्वतः ठण्डे हो जायेंगे और इस परिवार के पारस्परिक सम्बन्ध क्षीण होने से विगठन चल पड़ेगा। तब ठंडे ग्रह किसी अन्य गरम सूर्य का आश्रय पाने के लिए अपना देश छोड़कर किसी लम्बी यात्रा पर चल पड़ने की तैयारी करेंगे। जलाशय सूख जाने पर पक्षी भी तो उड़कर अन्यत्र चले जाते हैं।
जन्म के उपरान्त हर वस्तु मरण की दिशा में चलती है। विकास और यौवन के पड़ाव इसी बीच में आ जाते हैं। अपने सूर्य का बचपन चला गया। किशोर काल व्यतीत हो गया। प्रौढ़ावस्था भी व्यतीत हो गई। यह उसकी ढलती उम्र है जो उसे क्रमशः मरण की दिशा में घसीटे लिये जा रही है। जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं वह शतपथ ब्राह्मण के अनुसार सूर्य की पतिव्रता पत्नी है वह उसी की कमाई खाती है। सुरक्षा के लिए उसी पर आश्रित है और पति के मरण पर साथ सती होने के लिए समुद्यत है। अस्तु सूर्य के मरण का सीधा सम्बन्ध अपनी पृथ्वी के साथ होने और उसके अंचल में पलने वाले हम सब मनुष्यों का भाग्य भी इन अभिभावकों की स्थिति पर अवलंबित है। सूर्य और पृथ्वी की स्थिति से हम मानव प्राणी अप्रभावित नहीं रह सकते। अस्तु अपना भविष्य चिन्तन करते समय हमें सूर्य और पृथ्वी के भविष्य का विचार करना पड़े तो उसे अनावश्यक नहीं माना जाना चाहिए।
सूर्य ठण्डा हो रहा है। उसके फलस्वरूप पृथ्वी भी ठण्डी हो रही है। साथ ही उसकी सक्रियता भी घट रही है। अब से एक करोड़ वर्ष पहले दिन-रात 22 घण्टे के होते थे और वर्ष 400 दिन का था। अब वर्ष में प्रायः 40 दिन की कमी और दिनमान में 2 घण्टे की बढ़ी हो गई है। वह अपनी धुरी पर भी अपेक्षाकृत मन्द गति से घूमने लगी है और सूर्य की परिक्रमा करने वाली यात्रा में भी धीमापन आ गया है।
खगोलवेत्ताओं की गणना है कि कोई पांच अरब वर्ष बाद अपनी पृथ्वी की स्थिति बड़ी विचित्र हो जायगी। एक दिन 720 घण्टे का अर्थात् आज के दिन की तुलना में 30 गुना बड़ा होने लगेगा। रात्रि अब के 15 दिनों की बराबर होगी और दिन भी इतना ही बड़ा होगा। तब रात्रि में कई कई बार जाग कर काम करने की और दिन में कई-कई बार पूरी नींद सोने की आवश्यकता पड़ा करेगी।
पृथ्वी की उदासी देखकर चन्द्रमा का जी उससे खट्टा होता जा रहा है। इन दिनों चन्द्रमा हर 30 वर्ष में पृथ्वी से एक फुट दूर हट जाता हैं। जब पृथ्वी के दिन 720 घण्टे के होंगे तो चन्द्रमा अब जितनी दूर ढाई लाख मील है उससे प्रायः ड्यौढ़ी दूरी पर चला जायगा। किन्तु यह स्थिति देर तक वैसी न रहेगी। कई अन्तर्ग्रहीय दबावों के कारण चन्द्रमा फिर वापिस लौटेगा और धरती से मात्र 9 हजार मील दूर रह जायगा। आकार में अब से 10 गुना बड़ा दिखाई पड़ने लगेगा। वह समय चन्द्रमा के जीवन मरण का होगा यदि वह कुछ कदम और आगे बढ़ा तो पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के दबाव से वह ईंधन के ढेर की तरह जलता दिखाई पड़ सकता है तब उसकी राख का कचरा पृथ्वी के इर्द-गिर्द वैसे ही घूमने लगेगा जैसा कि शनि ग्रह के इर्द-गिर्द ग्रह-उपग्रह का चूरा एक सघन छल्ले के रूप में घूमता रहता है।
बुझते हुए दीपक की लौ जिस प्रकार बार-बार उछलती चमकती है—मरणासन्न रोगी जिस तरह लम्बी सांसें लेता है उसी तरह सूर्य के हाइड्रोजन का एक बड़ा भाग हीलियम में बदल जाने के कारण कई तरह की नाभिकीय प्रतिक्रियायें होंगी। उसका आकार अब से 20 गुना अधिक हो जायगा और रंग अंगारे जैसा लाल। तब पृथ्वी के भी प्राण संकट में फंस जायेंगे। वह सूर्य के अति निकट जाकर परिक्रमा करेगी फलतः उसके ठोस पदार्थ पिघल कर द्रव बन जाने, पानी का भाप बनकर अन्तरिक्ष में उड़ जाने जैसे संकट खड़े हो जायेंगे। ऐसी दशा में उस पर किसी प्राणी या वनस्पति जैसा कोई जीवन चिन्ह भी शेष नहीं रह जायगा। किन्तु यह सब रहेगा तभी तक जब तक कि सूर्य गरम है और पृथ्वी के निकट होने के कारण उसे अधिक गरम करता है जब वह स्वतः ठण्डा होता जायगा तो स्वभावतः पृथ्वी भी ठण्डी होगी। तब पृथ्वी के प्रभाव क्षेत्र में भरी हुई गैसें पुनः बादल बनकर बरस सकती हैं और जीवन का श्रीगणेश नये सिरे से हो सकता है। उस समय के जीवधारी आज जैसे होंगे या अन्य किसी आकृति प्रकृति के यह अभी कहा जा सकना कठिन है। निश्चित रूप से वह शीतजीवी होंगे। पर उन विचारों को भी अधिक समय स्थिर रहने का अवसर कहां मिलेगा। पिछली सृष्टि गर्मी से जलकर नष्ट हुई थी तो यह अल्पजीवी नई सृष्टि शीत से ठिठुरकर थोड़े से समय में अपना दम तोड़ देगी। तब पृथ्वी बर्फ से ढकी एक बड़ी गोली मात्र दृष्टिगोचर होगी। सूर्य बुझते-बुझते एक टिमटिमाते दीपक की तरह रह जायगा गर्मी समाप्त हो जाने के कारण सौरमण्डल के सभी ग्रह-उपग्रह ठण्डे हो जायेंगे, सघन अन्धकार उन्हें ढक लेगा। इतने पर भी बिखराव रोकने का एक कारण तब भी बहुत दिन बना रहेगा। सूर्य में भरा हुआ पदार्थ बहुत विस्तृत है। वह अपने विस्तार के कारण ही आकर्षण शक्ति बनाये रहेगा और उसमें बंधे हुए ठण्डा अंधेरा सौरमण्डल किसी प्रकार अपनी कक्षा एवं धुरी पर परिभ्रमण करता रहेगा। यह नहीं कहा जा सकता कि उस नीरस स्थिति को प्रकृति कब तक सहन करेगी, हो सकता है कि इस शून्य को भरने के लिये ब्रह्माण्ड के कोई समर्थ सूर्य कहीं से टूट पड़े और इन अनाथ बालकों की साज संभाल नये सिरे से करने लगें। एक सम्भावना और भी है कि यह अनाथालय जैसा सौरमण्डल अपनी पृथ्वी समेत नव जीवन पाने के लिए अन्तरिक्ष की लम्बी यात्रा पर निकल पड़े। उस महायात्रा के भटकाव से त्राण पाकर स्थिरता का संरक्षण मिलने में किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा इसका अनुमान लगाने में अभी तो मनुष्य की वर्तमान बुद्धि ने असमर्थता ही घोषित कर दी है।
पृथ्वी की परिधि भूमध्यरेखा पर 4076 कि.मी. ओर ध्रुवों पर 40000 कि.मी. है। उसका व्यास भूमध्य रेखा पर 12753 कि.मी. है। धरातल क्षेत्रफल 51 करोड़ 2 लाख वर्ग कि.मी. है। सूर्य की परिक्रमा करते हुए उसकी गति 100191 कि.मी. प्रति घण्टा है।
पृथ्वी के आकार से सूर्य का आकार 13 लाख गुना बड़ा है। जिस ध्रुवतारे की अपना सूर्य अपने ग्रह परिवार समेत परिक्रमा करता है वह उसकी तुलना में 3 लख गुना बड़ा है। ध्रुव के परिवार में अनेकों सौरमण्डल सम्मिलित हैं। वह उन सब को समेटे हुए महाध्रुव की परिक्रमा के लिए दौड़ रहा है। महा ध्रुव का आकार प्रकाश और चुम्बकत्व अपने ध्रुव से अत्यधिक वृहत है।
इतने वजन से लदे हुए इतनी तीव्र गति से चल रहे इस परिभ्रमण में शक्ति खर्च होती है और वह कहीं न कहीं से आनी ही चाहिए। स्पष्ट है कि सूर्य की उत्तेजना से पृथ्वी का अन्तराल उफनता है। दोनों के समन्वय से वह क्षमता उत्पन्न होती है जो इस भूमण्डल की असंख्य गतिविधियों को संचालित करती है। साधन सामग्री सीमित है असीम नहीं। उत्पादन की तुलना में जब खर्च बढ़ जाता है तो जीवनी शक्ति घटती है और शरीर जराजीर्ण होते-होते मृत्यु के मुख में प्रवेश कर जाता है। यही अन्त गृह-नक्षत्रों का भी होता है। अपने सूर्य का और उसकी आश्रिता धरती का भी इसी प्रकार अन्त होता है। देर या सवेर में मरणधर्मा मनुष्यों की भांति यह विशालकाय सूरज भी अपनी सहेली धरती समेत मरने की तैयारी कर रहा है। हमें भी इस तथ्य को समझना है और अपने मरण को ध्यान में रखना है।
यह नहीं सोचना चाहिये कि सूर्य पृथ्वी या अन्य और किसी ग्रह नक्षत्र को ही मरना पड़ता है या मरना पड़ेगा। जन्म के साथ ही विकास का भी अनवरत क्रम चल रहा है। ब्रह्माण्ड फैल रहा है
फ्रीडमैन से लेकर आइन्स्टीन तक आ संसार के सभी प्रमुख अन्तरिक्ष विज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि ब्रह्माण्ड निरन्तर फैल रहा है। सभी खगोलीय पिण्ड एक दूसरे से दूर हटते जा रहे हैं। यह बिलगाव जिस गति से बढ़ता जाता है उसी अनुपात से उनकी धावन क्रिया में तीव्रता आती जाती है आकाश गंगाएं पहले की अपेक्षा अब एक दूसरे से बहुत दूर चली गईं हैं और यह फासला निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। आखिर यह फैलाव कब तक बढ़ता चलेगा? क्या कभी रुकेगा नहीं? क्या ब्रह्माण्ड पोल का कोई अन्त नहीं है? क्या नक्षत्रों की वर्तमान बिलगाव प्रतिस्पर्धा अनन्त काल तक ऐसे ही चलती रहेगी?
इन प्रश्नों के उत्तर खोजते-खोजते खगोलवेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि ग्रह नक्षत्रों की तरह यह शून्य भी गोल है। जिस तरह पृथ्वी पर सीधी रेखा बनाकर लगातार चलते ही रहा जाय तो चलने वाला अन्ततः वहीं जा पहुंचेगा जहां से उसने यात्रा आरम्भ की थी। ठीक इसी तरह सभी आकाशीय पिण्ड जहां से चले हैं—वहां से आगे चल बढ़ तो रहे हैं, पर घूमते-घामते अन्ततः वहीं जा पहुंचेंगे जहां से उनकी यात्रा आरम्भ हुई थी।
बच्चे धीरे ठुमकते हैं—वे उंगली पकड़ने पर चलते हैं जवानों की चाल तेज होती है और बूढ़े होने पर गति फिर मन्द हो जाती है और लाठी के सहारे किसी तरह थोड़ा बहुत चला जाता है। यही हाल इन ग्रह पिण्डों का भी होना है। वे आरम्भ में मन्द गति से नाचते, दौड़ते थे पीछे अब उनकी प्रौढ़ावस्था में चाल बढ़ गई है। वे एक दूसरे से दूर हटने में अपनी तीव्र गति को भी प्रतिष्ठा एवं प्रतिस्पर्धा का प्रश्न बनाते जा रहे हैं। पर सब देर तक चलने वाला नहीं। मात्र कुछ अरब-खरब वर्ष लगेगा कि उनकी कमर झुक जायगी और गरदन हिलने लगेगी तब वे लड़खड़ाते हुए गिरते-पड़ते किसी प्रकार चलने की लकीर पीटेंगे और फिर थक कर बैठ जायेंगे। हो सकता है कि बैठने के साथ-साथ ही उनकी मृत्यु क्रिया भी सम्पन्न हो जाय।
अन्तरिक्ष में फैली हुई आकाश गंगाएं अब एक दूसरे से हजारों प्रकाश वर्ष की दूरी पर हैं। पर प्रारम्भ में ऐसा न था। ब्रह्माण्ड का सारा पदार्थ एक ही जगह केन्द्रित था। तब एक ठोस सिल्ली जैसा था। फ्रीडमैन के अनुसार अब से कोई दस अरब वर्ष पहले आदिम संसार का पदार्थ घनत्व की चरम सीमा पर था। पीछे उनमें विघटन प्रारम्भ हुआ और पानी के बबूलों की तरह—टूटे हुये कांच के टुकड़ों की तरह वह बंटता चला गया। उनकी रेंगने जैसी हलचल ने बीच में पोल पैदा की और पोल में प्रति पदार्थ—शैतान—घुस बैठा, उसने हर टुकड़े को बहकाया और अलग रहने, दूर जाने और अलग घर-परिवार बसाने के लिए रजामन्द कर लिया। सब यहीं से ब्रह्माण्डीय हलचलें आरम्भ हो गईं। तब से वह सिलसिला कभी घटना नहीं वरन् क्रमशः तेजी ही पकड़ता गया है। आरम्भ में घनीभूत ‘वन्द ब्रह्माण्ड’ था। अब वह विरल और खुला ब्रह्माण्ड कहे जा सकने की स्थिति में है।
ब्रह्मा अनादि और अनन्त हो सकता है, पर ब्रह्माण्ड के बारे में वैसा नहीं कहा जा सकता। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि पदार्थ-प्रकृति अनादि अनन्त है। वह ब्रह्म की तरह ही शाश्वत है। ब्रह्माण्ड का अर्थ यदि आकाशीय पिण्डों का समूह कहा जाय तो उसका आरम्भ भी भूतकाल में कभी अवश्य ही हुआ था और एक दिन उसका अन्त भी होगा। यद्यपि जन्म मरण की ठीक जन्म-पत्री नहीं बन सकती तो भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि वह अपने गणना साधनों को चुनौती देता हुआ किसी न किसी दिन जन्मा जरूर था और भले ही हम उसकी ठीक तिथि और घड़ी न बता सकें तो भी उसका मरण निश्चित है।
सोवियत विज्ञान एकादमी के दो मूर्धन्य वैज्ञानिक येवगेची लिफशित्स और इजाक खलातनिकोव ने अमेरिकी वैज्ञानिकों की उस मान्यता का खण्डन किया है कि पदार्थ अपनी आदिम स्थिति में बहुत गरम था और केवल न्यूट्रोनों का बना था। सोवियत वैज्ञानिकों ने अपने पक्ष समर्थन में अनेकों तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करते हुए कहा है—आदिम पदार्थ ठण्डा था और प्रोटानों, इलेक्ट्रानों से बना था। किसी पदार्थ का ठोस रहना तभी सम्भव है जब वह ठण्डा हो। गर्मी स्वभावतः विरलता उत्पन्न करती है। ब्रह्माण्ड में हाइड्रोजन तत्व का बाहुल्य है। वह प्रारम्भ में जमे बादल की तरह था पीछे वह ओलों की तरह बरसने लगा और आकाशीय पिण्डों के रूप में विरल हो गया।
इन पिण्डों का मन दुटप्पा है। वे दुहरी चाल चल रहे हैं और दुरंगी नीति अपना रहे हैं। एक ओर तो उनका अहंकार अलग अस्तित्व सिद्ध करने और पृथकता में वर्चस्व सिद्ध करने में लगा हुआ है दूसरी ओर विवेक कहता है—इस मूर्खता से क्या लाभ? संयुक्त रहने और मिल-जुलकर रहने का अपना आनन्द है। अब अपना शैशव एक घर में हंसी-खुशी से बीत रहा था तो जब फिर उसी तरह रहने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए? महत्वाकांक्षाएं प्रगति—प्रगति—प्रगति की रट लगाये हुए हैं और लम्बी कुलांचे भरने के लिए विवश करती हैं। दूसरी ओर शान्ति, स्नेह और सहयोग की ओर भी मन ललचाता है। सो दोनों प्रवृत्तियां अपना-अपना काम करती हैं। एक ओर तारक भाग रहे हैं साथ ही एक दूसरे को अपने प्रभाव में पकड़े जकड़े भी हैं। पृथकतावाद का बोलबाला है फिर भी हर आकाश गंगा ने—हर महासूर्य ने अपना अच्छा खासा परिवार बसा रखा है और ढेरों पोते, परपोतों को लेकर एक-एक गांव, मुहल्ला बसा लिया है।
यह कहना कठिन है कि आकाशीय पिण्ड दूर जा रहे हैं या वापिस लौट रहे हैं। अधिक यही कहा जा सकता है कि उनकी आधी दौड़ की दिशा में और आधी वापसी की दिशा में निर्धारित है। डर्वी के घोड़े एक गोल चक्कर में दौड़ते हैं और अन्त में वे वहीं आ खड़े होते हैं जहां से चले थे। लगते हैं आकाशीय पिण्ड पहले से ही डर्बी के घोड़ों की तरह एक गोल चक्कर में दौड़ दिखाने और हम दर्शकों का कौतूहल बढ़ाने के लिए धमाचौकड़ी लगाये हुए हैं। वे एक दिन अपने पुराने अस्तबल में जा बंधेंगे।
नौजवानी का जोश आखिर ठण्डा तो होना ही है। खून की गर्मी सदा एक सी तो नहीं बनी रहती। महत्वाकांक्षाओं का आवेश शराब के नशे की तरह सदा तो नहीं बना रहता। खुमारी उतरती है तो नये ढंग से सोचना पड़ता है तब शान्ति के साथ रहने और चैन की सांस लेने को जी करता है। मनुष्यों की तरह इन ग्रहपिण्डों का भी यही हस्र होना है। जब वे आधी मंजिल पार कर लेंगे और प्रौढ़ावस्था की ढलती उम्र आ जायगी तो वे अपनी घुड़दौड़ हलकी करेंगे, लंगड़ाते-लड़खड़ाते चलेंगे। ठण्डे होते जायेंगे और वह ठंडक जहां शीतल, शान्तिदायक होगी वहां नीरस भी। अकड़े-जकड़े अंग सुस्ताने को विवश कर देंगे तो यह बूढ़ा ब्रह्माण्ड थक कर बैठ जायगा और लम्बी चादर ओढ़कर चिर निद्रा की गोद में चला जायगा।
भगवान् कितना विशाल है। विशाल ब्रह्माण्ड जैसा। भगवान् कितना लघु है। अणु-परमाणु जैसा। मनुष्य भी यदि अपनी आत्म सत्ता को समझे और विस्तार की भूमिका में उतरे तो वह भी विभु है—महान् है, पर यदि संकीर्ण स्वार्थपरता की—व्यक्तिवादी अहंता की तुच्छता में सीमाबद्ध होकर रह जाय तो वह वस्तुतः इतना क्षुद्र है जिसे महत्वहीन नगण्य एवं उपहासास्पद ही कहा जा सकता है।
अपने सूर्य को ही लें। उसका व्यास 865380 मील है। उसकी कुल परिधि 2700000 मील है। अनुमानित भार 19 करोड़ 98 लाख महाशंख टन। वह अपनी धुरी पर 25 दिन 7 घण्टे 48 मिनट में एक चक्कर लगाता है। उसकी सतह पर 600 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान है और मध्य गर्भ में 1500000 डिग्री सेन्टीग्रेड। वह दो सौ मील प्रति सेकिण्ड की उड़ान उड़ता हुआ महा ध्रुव की परिक्रमा में निरत है यह परिक्रमा 25 करोड़ वर्ष में पूरी होती है। इस परिक्रमा में उसके साथी और भी कई सूर्य होते हैं जिनके अपने-अपने सौरमण्डल भी हैं।
पृथ्वी से सूर्य 109 गुना बड़ा है। दोनों के बीच की दूरी 92000000 मील है। यदि हम 600 मील प्रति घण्टे की गति से उड़ने वाले अपने तीव्रतम वायुयानों में बैठकर लगातार उड़ें तो उस दूरी को पार करने में 18 वर्ष लगेंगे।
सूर्य से पृथ्वी पर जो शक्ति बरसती है वह इतनी है कि एक वर्ग इंच की शक्ति से 60 हार्स पावर का इंजन चल सके। पूरी पृथ्वी पर सूर्य जो ताप फेंकता है वह प्रति सेकिंड इतना होता है जितना 12 हजार अरब टन कोयला जलाने पर ही पैदा किया जा सकता है। सूर्य का प्रकाश पृथ्वी पर प्रति वर्ग इंच इतना होता है जितना तीन लाख मोमबत्तियां जलाने से पैदा किया जा सके। सूर्य की शक्ति का 220 करोड़ वां भाग ही पृथ्वी पर पहुंच पाता है।
वैज्ञानिकों की नवीनतम गणना के अनुसार ब्रह्माण्ड में लगभग 10 करोड़ सौरमण्डल और 10 अरब तारे हैं। इन तारों में कोई-कोई कल्पनातीत विस्तार के हैं। अकेला चेष्टा ही इतना बड़ा है कि उसके पेट में अपने तीन करोड़ सूर्य घुस कर बैठ सके। प्रख्यात ‘एन्ड्रोमीडा’ नीहारिका हमसे 8 लाख प्रकाश वर्ष दूर है। जबकि एक प्रकाश वर्ष को 58 खरब 80 अरब मील माना जाता है।
अपनी धरती का व्यास 12700 किलो मीटर और वजन 6,600,000,000,000 अरब टन है। वह 30 किलो मीटर प्रति सेकिण्ड की उड़ान भरती हुई 364 दिन में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है। सूर्य और पृथ्वी के बीच की औसत दूरी 9 करोड़ 30 लाख मील रहती है। धरती का जन्म अब से 5 अरब वर्ष पूर्व हुआ। 3 अरब वर्ष पूर्व उस पर जीवन प्रारम्भ हुआ। इनसे मनुष्य का अस्तित्व 10 लाख वर्ष पहले ही हुआ है। इससे पूर्व अन्य जलचर, थलचर, नभचर प्राणी उत्पन्न हो चुके थे। इनमें से 20 लाख जातियों के प्राणी अभी भी पाये जाते हैं। पुराणों में बताई गई 84 लाख योनियों में से अब सिर्फ 4 लाख जीव जातियां ढूंढ़नी शेष रह गई हैं।
यह अपना सौर मण्डल भी कितना विचित्र है। उपग्रहों की सदस्यता के बारे में हममें से बहुतों को यह भी नहीं मालूम है कि मंगल पर 2, बृहस्पति पर 12, शनि पर 9, यूरेनस पर 5 और नेपच्यून पर 2 चन्द्रमा भ्रमण करते हैं। मात्र हमारा एक चन्द्रमा ही सौरमण्डल का एक उपग्रह नहीं है। कुल मिलाकर उनकी संख्या 31 है। हमारा वर्ष 65 दिन का और दिन 24 घण्टे का होता है। किन्तु अन्य ग्रहों की स्थिति भिन्न है। धरती पर जितना बड़ा दिन होता है उसके हिसाब से लेखा-जोखा लिया जाय तो सूर्य का एक दिन हमारे 176 दिनों के बराबर और वर्ष 88 दिनों के बराबर होता है।
बुध का दिन 243 दिन का वर्ष 225 दिन का है। मंगल का दिन पृथ्वी के लगभग बराबर है। उसका दिन 24.6 घण्टे का और वर्ष 1.6 वर्ष का है। बृहस्पति का दिन 10 घण्टे का और वर्ष 12 वर्ष का—शनि का दिन 10 घण्टे और वर्ष 29 वर्ष का—यूरेनस का दिन 11 घण्टे और वर्ष 84 वर्षों का नेपच्यून का दिन 16 घण्टे का और वर्ष 365 वर्षों का, प्लूटो का एक दिन हमारे 6 दिन 9 घण्टों की बराबर और उसका एक वर्ष हमारे 248 वर्षों की बराबर है। उनके आकार में भी भारी भिन्नता है। अपने मीलों के हिसाब से सौरमण्डल का व्यास नापा जाय तो सूर्य का व्यास 8,64000 बुध का 3100 शुक्र का 7500, पृथ्वी का 7920 मंगल का 4150, बृहस्पति का 87,000, शनि का 71500, यूरेनस का 3200 नेपच्यून का 31000, प्लूटो का 4500 मील है। सूर्य से किस ग्रह की दूरी कितनी है इसका हिसाब लगाने के लिये अपने मील बहुत झंझट भरा विस्तार करेंगे इसलिये अपने 10 लाख मील का एक सौरमण्डलीय मील मानकर चला जाय यह ठीक रहेगा। तब उस अन्तरिक्ष मील के अनुसार सूर्य से उसके सौर परिवार की दूरी इस प्रकार नापी जा सकती है। बुध की 36,2 शुक्र की 66,9 पृथ्वी की 92,9 मंगल की 141,2 बृहस्पति की 483 शनि की 882,6 यूरेनस की 178307 नेपच्यून की 2787 प्लूटो की 3621,1। अपने सौरमण्डल का एक आनुमानिक नक्शा धरती पर बनाना हो तो पृथ्वी को एक इंच की गोली जितनी बनाना चाहिए। तब सूर्य उसके 322 गज दूर 9 फुट व्यास का बड़ा गोला होगा। सूर्य के 124 गज दूर बुध—232 गज दूर शुक्र होंगे तब 322 गज पृथ्वी बनानी पड़ेगी। इसके बाद मंगल 488 बृहस्पति 1672 शनि 3067 अरुण 5159 वरुण 9656 और यम 13300 गज दूर अंकित करने पड़ेंगे। बेचारा अपना चन्द्रमा तो पृथ्वी से 30 इंच दूर एक चने के दाने जितना होगा।
प्रो. फ्रेड होयल डा. फूडील्फ मिन्केवस्की आदि खगोल विद्या के मूर्धन्य विशेषज्ञों का कथन है कि अपने ब्रह्माण्ड की आयु लगभग 10 अरब वर्ष है। आरम्भ में ग्रह नक्षत्र उत्पन्न होने की गति धीमी थी पर अब ज्यों-ज्यों ब्रह्माण्ड बूढ़ा होता जाता है त्यों-त्यों उसकी सिकुड़न बढ़ रही है। गर्मी के कारण फैली हुई गैसों का तापमान घट रहा है। फलतः सिकुड़न उत्पन्न होने से ग्रह नक्षत्र उत्पन्न होने की चाल तेज हो गई है। हमारी अपनी आकाश गंगा ही लगभग एक नये सूर्य को हर वर्ष जन्म दे देती है। यह गति आरम्भिक काल की अपेक्षा आठ गुनी अधिक तेज है। ब्रह्माण्ड में सबसे अधिक मात्रा में हाइड्रोजन गैस से बना हुआ पदार्थ भरा पड़ा है।
वाशिंगटन की नौ सेना अनुसंधान प्रयोगशाला ने आकाशीय पिण्डों में सबसे रहस्यमय तारे ‘क्वासर’ बताये हैं। वे बहुत बूढ़े और बहुत दूर होते हुए भी बहुत चमकीले हैं और सबसे खतरनाक एक्स-किरणें प्रचण्ड मात्रा में समस्त ब्रह्माण्ड में बखेरते हैं। वही अनुदान पृथ्वी को भी विपुल मात्रा में मिलता है। राकेट विज्ञानी डा. हर्वर्ट फ्रीडमेन का कथन है कि इन क्वासरे ने समस्त ब्रह्माण्ड को एक्स किरणों का एक प्रकार से महासागर ही बनाया हुआ है। क्वासरों में से एक निकटवर्ती ‘3 सी 14’ को 600 करोड़ प्रकाश वर्ष दूर माना गया है एक प्रकाश वर्ष अर्थात् 1000000 करोड़ किलोमीटर दूरी। किलो मीटरों के हिसाब से इन क्वासरों की दूरी कितनी अकल्पनीय है।
अपनी नीहारिका बीस हजार प्रकाश वर्ष मोटी और एक लाख प्रकाश वर्ष लम्बी है। यह गोल आकार की होने से चौड़ाई भी लगभग इतनी ही है। उसके परिवार में लगभग सौ अरब ग्रह नक्षत्र हैं।
अपनी मंदाकिनी नीहारिका जैसी इस ब्रह्माण्ड में करोड़ों हैं। उनमें से हमें अधिक समीप एन्ड्रोमेडा (देवयानी) है हमें उसी के बारे में कुछ अधिक जानकारी है। इसकी दूरी सबसे निकट होते हुये भी अपनी आकाश गंगा से बीस लाख प्रकाश वर्ष दूर है। उसे हम मृगसिर नक्षत्र में खुली आंखों से भी देख सकते हैं। पर वह प्रकाश जो दिखाई देगा बीस लाख प्रकाश वर्ष पुराना होगा, जबकि हमारी पृथ्वी का जन्म अथवा विकास का आरम्भ भी नहीं हुआ था। आज वहां क्या स्थिति है इसे जानना हो तो इतने ही समय प्रतीक्षा करनी पड़ेगी समस्त ब्रह्माण्ड कितना विस्तृत है, उसका ठीक विवरण प्राप्त नहीं पर संसार की सबसे बड़ी रेडियो, दूरबीन जो अमेरिका के पालोमर पर्वत पर लगी है उससे पांच अरब प्रकाश वर्ष दूरी की नीहारिकाओं को देख लिया गया है।
यह नीहारिकाएं अपने स्थान पर विद्यमान नहीं हैं वे एक दूसरे से उसी तरह दूर भागती जा रही हैं जैसे दागने के बाद बन्दूक से उसकी गोली दूर भागती है। इस भगदड़ की चाल साठ हजार किलो मीटर प्रति सेकिण्ड है। समस्त विश्व ब्रह्माण्ड का फुलाव विस्तार कितना गुना हो चुका होगा इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दो वर्ष में ही उसका पेट दूना फूल चुका है यह माप करली गई है। प्रगति के पथ पर सभी ग्रह नक्षत्र तेजी से भाग रहे हैं जिस दिन यह विकास स्पर्धा बन्द होगी उसी दिन ब्रह्माण्ड के सामने महाप्रलय आ उपस्थित होगी।
विश्व ब्रह्माण्ड की विशालता और अपनी क्षुद्रता की जब तुलना करते हैं तो अपना अहम् सहज ही जल जाता है हम क्या हैं? वे संपदायें क्या हैं जिस पर इतराते हैं और यह जीवन क्या है जिसे हम अमर समझते हैं, इसे ठीक तरह समझने के लिये उस ब्रह्माण्ड का स्वरूप भी जानना पड़ेगा, जिसके हम एक नगण्य से अंग अवश्य हैं।
ब्रह्माण्ड कितना विशाल और उसकी तुलना में अपनी पृथ्वी कितनी क्षुद्र। अपनी पृथ्वी पर रहने वाले कोटि प्राणियों के बीच मनुष्य का एक नगण्य सा अस्तित्व और चार सौ करोड़ मनुष्यों के बीच हमारी नगण्य सी एक सत्ता। इन सबको तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो प्रतीत होगा कि शरीर में रहने वाली खरबों कोशिकाओं में से एक की सत्ता जितनी स्वल्प है उससे भी असंख्य गुनी न्यून अपनी सत्ता है। ब्रह्माण्ड की तुलना में पिंड और पिंड की तुलना में अणु कितना क्षुद्र है। विशाल की तुलना में हम कितने तुच्छ हैं, इस पर एक क्षण के लिये भी विचार कर सकें तो प्रतीत होगा कि अपने उपहासास्पद कलेवर में इतराने जैसी—अहंकार में इठने जैसी कोई बात नहीं है।