Books - सुभाषचंद्र बोस
Language: HINDI
विदेश- यात्रा और राष्ट्रीय आंदोलन में योगदान
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तीर्थ- भ्रमण से लौटकर घर वालों की इच्छानुसार सुभाष बाबू ने फिर पढ़ना आरंभ कर दिया औरइंटरमीडिएट की परीक्षा पास करके प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ने लगे। कॉलेज में पढ़ते उनको थोडा़ ही समय हुआ था कि वहाँ के एक अंग्रेज अध्यापक ने किसी भारतीय छात्र को गालियाँ दीं। जातीयता के अभिमानी सुभाष को यह सहन नहीं हुआ और उन्होंने समस्त विद्यार्थियों को संगठित करके कॉलेज में हड़ताल कर दी। इससे कॉलेज के अधिकारी, जो अधिकांशतः अंग्रेज ही थे, इनसे बहुत असंतुष्ट हुए। इन पर गाली देने वाले प्रोफेसर को पीटने का दोषारोपण किया गया और कॉलेज से निकाल दिया गया। इस पर सुभाष अपने पिता के पास कटक चले गये और वहीं दो वर्ष तक निवास करते रहे। अंत में श्री आशुतोष मुखर्जी के प्रयत्न से, जो उस समय कलकत्ता यूनीवर्सिटी के वाइस चांसलर थे, उनको फिर स्काटिश चर्च कॉलेज में पढ़ने की अनुमति मिली और सन् १९१८ में बी॰ ए॰ पास करके एम॰ ए॰ में दाखिल हो गये। घर वालों और पिता की ईच्छा थी कि वे विलायत जाकर आई॰ सी॰ एस॰ (इंडियन सिविल सर्विस अर्थात् उच्च सरकारी अधिकारी की परीक्षा) पास करें। सुभाषचंद्र सरकारी नौकरी के लिए बिल्कुल तैयार न थे, पर घर वालों के बहुत दबाव देने से विलायत चले गये ।। इसमें उनका एक उद्देश्य यह भी था कि विदेश यात्रा करके अपने ज्ञान और अनुभव को परिपक्व करें। वे अच्छी तरह जानते थे कि जब हम संसार की दशा का निरीक्षण करके विदेशियों की शक्ति और अपनी निर्बलता का कारण न समझ लेंगे, तब तक देशोद्धार का कोई प्रभावशाली उपाय किया जा सकना संभव नहीं है। इस विषय में उनके मनोभाव क्या थे, यह उनके अपने मित्र को लिखे एक पत्र से प्रकट होता है-
"मैं एक विषम समस्या में पड़ गया हूँ। कल ही घर से संवाद आया है कि मैं विलायत जाकर अध्ययन करूँ। मुझे इसी समय वहाँ की यात्रा करनी पडे़गी, पर इस समय जाने से वहाँ की किसी नामी यूनीवर्सिटी में दाखिल हो सकने की आशा नहीं है। घर वालों की इच्छा तो यह है कि कुछ महीने पढ़कर आई॰ सी॰ एस॰(सिविल सर्विस) की परीक्षा में बैठ जाऊँ। मेरी अपनी इच्छा यह है कि विलायत जाकर किसी अच्छी यूनीवर्सिटी की उपाधि प्राप्त करूँ, जिससे आगे चलकर मैं अपने देश के शिक्षा संबंधी क्षेत्र में काम कर सकूँ, पर यदि मैं इस समय घर वालों से यह कह दूँ कि मैं 'सिविल- सर्विस' की परीक्षा नहीं दूँगा, तो फिर मेरी विदेश- यात्रा का प्रस्ताव सदा के लिए समाप्त हो जायेगा। इस अवस्था में मैं इस अवसर को छोड़ दूँ या किसी प्रकार उसे स्वीकार कर लूँ, यह निश्चय नहीं कर पाता। फिर एक कठिनाई यह है कि यदि मैं 'सिविल सर्विस' की परीक्षा में पास हो गया, तो क्या होगा? सरकारी नौकरी कर लेने पर तो मेरा उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा।"
इस प्रकार घर वालों के आग्रह और विदेशों का अनुभव प्राप्त करने के उद्देश्य से श्री सुभाष विलायत- यात्रा के लिए सहमत हो गये और इंगलैंड पहुँचकर कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में अध्ययन करने लगे, पर वहाँ भी आपका ध्यान 'सिविल सर्विस' की परीक्षा पास करने के बजाय भारतीय समस्याओं की ओर ही अधिक था। इस संबंध में अपने एक पत्र में बतलाया था। "यहाँ पर 'इंडियन मजलिस' नाम की भारतवासियों की एक संस्था है, जिसका प्रति सप्ताह एक अधिवेशन होता है और बीच- बीच में बाहर के प्रसिद्ध वक्ताओं को भी बुलाया जाता है।
एक बार श्रीमती सरोजिनी नायडू ने 'युवकों' का 'साम्राज्य' विषय पर भाषण दिया था। पिछली बार श्रीपियरसन का व्याख्यान सुनने को मिला। मेरे आने से कुछ समय पहले ही तिलक महाराज भी इसमें पधारे थे। सरकार के इंडिया ऑफिस ने उसमें बाधा डालने की चेष्टा की थी, पर सफलता न मिल सकी। यहाँ रहने वाले भारतवासियों के विचार बडे़ उग्र हैं। तिलक महाराज ने जब अपने विचार नर्मी के साथ प्रकट किये तो सबने उसका प्रतिवाद किया।"
"यहाँ के लोग बडे़ उद्यमशील हैं। सबको समय की कीमत का ज्ञान है और काम करने का एक नियत ढंग है। ये लोग सब काम घडी़ की तरह नियत घंटा- मिनट पर करते हैं ये लोग पक्के आशावादी भी हैं, जबकि हम जीवन में दुःखों के विषय में ही अधिक विचार करते हैं। ये लोग अधिकतर जीवन के सुख और प्रकाश के विषय में ही सोचते हैं। इनका सामान्य व्यावहारिक ज्ञान बडा़ प्रशंसनीय है और अपने जातीय हित को ये खूब समझते हैं। हम लोग अपने शरीर और स्वास्थ्य की तरफ भी बहुत कम ध्यान देते हैं। हमारे यहाँ विद्वान समझे जाने वालों के मुख से भी प्रायः ऐसे उद्गार सुनने में आते हैं- "शरीर की ज्यादा चिंता करने से क्या लाभ, यह तो दो दिन के बाद मिट्टी में ही मिलेगा।" इस प्रकार की उदासीनता का भाव देशसेवकों के लिए तो कदापि उचित नहीं कहा जा सकता है। इस संबंध में हमारा आदर्श होना चाहिए- 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्' अर्थात शरीर ही समस्त धर्म साधन का आधार है।"
शरीर की तरफ से लापरवाह रहना एक अपराध है। यह केवल अपने ही प्रति नहीं होता, वरन् देश के प्रति होता है। हमारे देश के युवकों की शारीरिक सामर्थ्य यदि छोटी उम्र में ही नष्ट हो जाये, तो हमको समझना चाहिए कि उनके भीतर कोई गलती या संकीर्णता रह गई है। हममें से प्रत्येक को मन मे यह भाव रखना चाहिए कि यह शरीर हमारा नहीं है, वरन् हम इसके एक ट्रस्टी (संरक्षक) के समान हैं।
एक सच्चा समाज हितैषी और मानव- सेवा का व्रतधारी ही संसार के अग्रणी और महान् माने जाने वाले देश में पहुँचकर, वहाँ की चमक- दमक और पचासों तरह के नये- नये आकर्षणों से बचकर अपने देश और छोटे- बडे़ स्वदेश- बांधवों की इस प्रकार चिंता कर सकता है। सुभाष बाबू ने इंगलैंड में अंग्रेज जाति की उन्नति के कारणों पर ध्यान दिया और उनमें जो बातें उनको लाभदायक जान पडी़, उनके विषय में तुरंत अपने भारतीय मित्रों को सूचित किया, ताकि कम से कम वे तो उनसे कुछ शिक्षा ग्रहण करके अपने को देश सेवा के अधिक उपयुक्त बनावें।
उन्होंने स्वास्थ्य- रक्षा के संबंध में जो कुछ लिखा, वह वास्तव में बहुत आवश्यक और उपयोगी है। देश- सेवा या समाज- सेवा केवल बातों से नहीं हो सकती और न मन में संकल्प या अभिलाषा करने से हो सकती है। जब तक हममें इस प्रकार की सेवा करने लायक योग्यता और शक्ति न होगी तब तक हम इस संबंध में कितनी ही चर्चा, परामर्श करें अथवा उत्साह दिखलायें, पर उसका कोई परिणाम नहीं निकल सकता, अगर मनुष्य का स्वास्थ्य ही ठीक नहीं है वह रोगी बनकर चारपाई पर पडा़ रहता है या कोई परिश्रम का काम नहीं कर सकता, तो वह हार्दिक इच्छा रखने पर भी सेवा और परोपकार के मार्ग में कोई उल्लेखनीय कार्य कर नहीं दिखला सकता। शरीर यद्यपि एक भौतिक चीज है, पर वह आत्मा का आवास है और हमारी आत्मा और मन, बुद्धि भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए उसी के आश्रित हैं। इसीलिए भारतीय ऋषियों ने 'धर्म- साधन' का एक प्रमुख उपकरण अथवा सहायक शरीर को भी बतलाया है। सुभाष बाबू के हृदय में देशभक्ति का जो सागर हिलोरें मार रहा था वह तब तक अपना कुछ प्रभाव नहीं दिखला सकता था, तब तक कि वे उसके लिए आवश्यक परिश्रम और कष्ट सहन करने की शक्ति न रखते हों। इसलिए वे निरंतर इस तरफ दृष्टि रखते थे और अपने साथियों को भी सदा इसकी प्रेरणा देते रहते थे।