Books - स्वयं को ऊँचा उठायें - व्यक्तित्ववान बनें
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स्वयं को ऊँचा उठायें - व्यक्तित्ववान बनें
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8- 4 को कुंभ के अवसर पर वानप्रस्थ सत्र में दिया गया प्रवचन
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ बोलिए-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मजबूत ठप्पे बनिए
देवियो, भाइयो! जो कार्य और उत्तरदायित्व आपके जिम्मे सौंपा गया है, वह यह है कि दीपक से दीपक को आप जलाएँ। बुझे हुए दीपक से दीपक नहीं जलाया जा सकता। एक दीपक से दूसरा दीपक जलाना हो, तो पहले हमको जलना पड़ेगा, इसके बाद में दूसरा दीपक जलाया जा सकेगा। आप स्वयं ज्वलंत दीपक के तरीके से अगर बनने में समर्थ हो सकें, तो हमारी वह सारी- की आकांक्षा और मनोकामना और महत्त्वाकाँक्षाएँ पूरी हो जाएँगी, जिसको लेकर के हम चले हैं और यह मिशन चलाया है और हमने आपको यह कष्ट दिया है और बुलाया है। आपका सारा ध्यान यहीं इकट्ठा होना चाहिए कि क्या हम अपने आपको एक मजबूत ठप्पे के रूप में बनाने में समर्थ हो गए? गीली मिट्टी को आप लाना। ठप्पे पर ठोंकना, तख्ते पर लगाना- वह वैसे ही बनता हुआ चला जाएगा, जैसे हमारे ये खिलौने बनते हुए चले जाते हैं। हमें खिलौने बनाने हैं। खिलौने बनाने के लिए हमने साँचे और ठप्पे मँगाए हुए हैं। साँचे में मिट्टी लगा देते हैं और एक नया खिलौना बन जाता है। एक नए शंकर जी बन जाते हैं। एक नए गणेश जी बन जाते हैं। ढेरों के ढेरों श्रीकृष्ण और शंकर जी बनते जा रहे हैं। कब? जब हमारे पास छापने के लिए ठप्पे हों और साँचा हों। साँचा अगर आपके पास सही न होता, तो न कोई खिलौना बन सकता था, न कोई और चीज बन सकती थी।
मित्रो! हमको जो सबसे महत्त्वपूर्ण काम मानकर चलना है, वह यह कि हमारा व्यक्तित्व किस प्रकार का हो? न केवल हमारे विचारों का वरन, हमारे क्रिया- कलापों का भी। आपके मन में कोई चीज है, आप मन से बहुत अच्छे आदमी हैं, मन से आप शरीफ आदमी हैं, मन से आप सज्जन आदमी हैं, मन से आप ईमानदार आदमी है, लेकिन आपका क्रिया- कलाप और आपका लोक- व्यवहार उस तरह का नहीं है, जिस तरह का शरीफों का और सज्जनों का होता है। तो बाहर वाले लोगों को कैसे मालूम पड़ेगा कि आप जिस मिशन को लेकर चले हैं, उस मिशन को पूरा करने में आप समर्थ होंगे कि नहीं? मिशन को आप समर्थ बना सकते हैं कि नहीं? आपके विचारों की झाँकी आपके व्यवहार से भी होनी चाहिए। व्यवहार आपका इस तरह का न होगा, तो मित्र लोगों को यह पता लगाने में, अंदाज लगाने में मुश्किल हो जाएगा कि आपके विचार क्या हैं और सिद्धान्त क्या हैं? जो विचार और सिद्धान्त आपको दिए गए थे, वो आपने अपने जीवन में धारण कर लिए हैं कि नहीं किए हैं। आपको ये बातें मालूम होनी चाहिए। जहाँ कहीं भी आप जाएँगे, आपको अपने नमूने का आदमी बनकर के जाना है।
नमूना बनिए
नमूने का उपदेशक कैसा होना चाहिए? नमूने का गुरु कैसा होना चाहिए? नमूने का साधु कैसा होना चाहिए? नमूने का ब्राह्मण कैसा होना चाहिए और गुरुजी का शिष्य कैसा होना चाहिए? ये सारी की सारी जिम्मेदारियाँ हमने अनायास ही नहीं लाद दी हैं- आप पर। आपको बोलना न आता हो, तो कोई शिकायत नहीं हमें आपसे। आपको बोलना न आए, लेक्चर देना न आए, जो प्वाइंट्स और जो नोट्स आपने यहाँ लिए हैं, उन्हीं को जरा ‘फेयर’ कर लेना और अपनी कापी को लेकर के चले जाना। कहना गुरुजी ने आपके लिए हमको पोस्टमैन के तरीके से भेजा है। जो उन्होंने कहलवाया है, हम उस बात को कह रहे हैं। चिट्ठी को पढ़कर के हम आपको सुनाए देते हैं। आप अपनी डायरी के पन्ने खोलकर के सुना देना। मजे में काम चल जाएगा।
हम जब अज्ञातवास चले गए थे, तो उससे पूर्व यहाँ लोगों ने आधा- आधा घंटे के लिए हमारे संदेश टेप कर लिए थे और जहाँ कहीं भी सम्मेलन हुआ करते थे, जहाँ कहीं भी सभाएँ होती थीं, लोग उन टेपों को सुना देते थे। कह देते थे कि गुरुजी तो नहीं हैं, पर गुरुजी जो कुछ भी कह गए हैं, संदेश दे गए हैं, शिक्षा दे गए हैं आपके लिए, उसको आप लोग ध्यान से सुन लीजिए और ध्यान से पढ़ लीजिए। लोगों ने सारे व्याख्यान सुने और उसी तरह मिशन का कार्य आगे बढ़ता चला गया।
व्यक्तित्व और चरित्र
देवियो और भाइयो, जो काम हम करने के लिए चले हैं, उसका सबसे बड़ा और पहला हथियार हमारे पास जो कुछ भी है, वह है- हमारा व्यक्तित्व और हमारा चरित्र। हमको जो कोई भी कार्य करना है, जो कोई भी सहायता प्राप्त करनी है, वह रामायण के माध्यम से नहीं, गीता के माध्यम से नहीं, व्याख्यानों के माध्यम से नहीं, प्रवचनों के माध्यम से नहीं, यज्ञों के माध्यम से नहीं पूरा होने वाला है। अगर किसी तरह से हमारे मिशन को सफलता मिलनी है और वह उद्देश्य पूरा होना है तो आपका चरित्र- आपका व्यक्तित्व ही एक मार्ग है, एक हथियार है हमारा। व्याख्यान के बारे में आपको ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए और बहुत ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिए। व्याख्यान अगर आपको न आए, तो आपने यहाँ इस शिविर में जो कुछ भी सुना हो, समझा हो उसे ही लोगों को सुना देना। हमने प्रायः यह प्रयत्न किया है कि अपने कार्यकर्ताओं के शिविर जहाँ कहीं भी आपको चलाने पड़ें, वहाँ सबेरे प्रातःकाल जाकर के प्रवचन किया करना, जो हमने कार्यकर्ताओं के लिए और आपके क्रिया- कलापों के लिए कहे हैं। यहाँ आपको दूसरे लोग समझा देंगे कि कार्यकर्ताओं में कहे जाने के लिए प्रवचन कौन- से हैं और जनता में कहे जाने वाले प्रवचन कौन से हैं। हमको जनता के विचारों का संशोधन और विचारों का संवर्द्धन करने के लिए व्याख्यान करने पड़ेंगे और लोकशिक्षण करना पड़ेगा, क्योंकि आज मनुष्य के विचार करने की शैली में सबसे ज्यादा गलती है। सबसे ज्यादा गलती कहाँ है? एक जगह है और वह यह कि आदमी के सोचने का तरीका बड़ा गलत और बड़ा भ्रष्ट हो गया है। बाकी जो मुसीबतें हैं, परेशानियाँ हैं, वे तो बर्दाश्त की जा सकती हैं, लेकिन आदमी के सोचने का तरीका अगर गलत बना रहा तो एक भी गुत्थी हल नहीं हो सकती और सारी गुत्थियाँ उलझती चली जाएँगी। इसलिए हमें करना क्या पड़ेगा? हमको जनसाधारण के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण सेवा जो है, वह यह करनी पड़ेगी कि उनके विचार करने की शैली, सोचने की शैली को बदल देना पड़ेगा। अगर हम सोचने के तरीके को बदल देंगे, तो उनकी कोई भी समस्या ऐसी नहीं है, जिसका समाधान न हो सके।
समाधान संभव है
सारी समस्याओं का निदान, समाधान जरूर हो जाएगा, यदि आदमी इस बात पर विश्वास कर ले कि आहार और विहार, खान और पान, संयम और नियम, ब्रह्मचर्य, इनका पालन कर लेना आवश्यक है तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि अस्पताल को खोले बिना, डाक्टरों को बुलाए बिना, इन्जेक्शन लगवाए बिना और अच्छी कीमती खुराक का इन्तजाम किए बिना हम सारे समाज को निरोग बना सकते हैं। आदमी की स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान हम जरूर कर सकते हैं। हमारी लड़कियाँ पढ़ी- लिखी न हों, गाना- बजाना न आता हो और हमारी स्त्रियाँ सुशिक्षित न हों, उन्होंने एम.ए. पास न किया हो, लेकिन हमने एक- दूसरे के प्रति प्रेम, निष्ठा और वफादारी की शिक्षा दे दी, तो फिर जंगली हों तो क्या, गँवार हों तो क्या, आदिवासी हों तो क्या, भील हों तो क्या, कमजोर हों तो क्या, गरीब हों तो क्या? उनके झोपड़ों में स्वर्ग स्थापित हो जाएगा। उनके बीच में मोहब्बत और प्रेम, निष्ठा और सदाचार हमने पैदा कर दी तब? तब हमारे घर स्वर्ग बन जाएँगे।
अगर ये सिद्धान्त हम पैदा करने में समर्थ न हो सके, तब फिर चाहे हम सबके घर में एक रेडियो लगवा दें, टेलीविजन लगवा दें। हर एक के घर में हम एक सोफासैट डलवा दें और बढ़िया से बढ़िया बेहतरीन खाने- पीने की चीज का इन्तजाम करवा दें, फिर हमारे घरों की और परिवारों की समस्या का कोई समाधान न हो सकेगा। परिवारों की समस्याओं का समाधान जब कभी भी होगा, तो प्यार से होगा, मोहब्बत से होगा, ईमानदारी से होगा, वफादारी से होगा। इसके बिना हमारे कुटुम्ब दो कौड़ी के हो जाएँगे और उनका सत्यानाश हो जाएगा। फिर आप हर एक को एम.ए. करा देना और हर एक के लिए बीस- बीस हजार रुपये छोड़कर मरना। इससे क्या हो जाएगा? कुछ भी नहीं होगा। सब चौपट हो जाएगा।
विचार परिवर्तन अनिवार्य
मित्रो! सामाजिक समस्याओं की गुत्थियों के हल, विचारों के परिवर्तन से होंगे। कौन मजबूर कर रहा है आपको कि नहीं साहब दहेज लेना ही पड़ेगा और दहेज देना ही पड़ेगा। अगर इन विचारों को और इन रीतियों को बदल डालें, ख्यालातों को बदल डालें, तो न जाने हम क्या से क्या कर सकते हैं और कहाँ से कहाँ ले जा सकते हैं। हमारे पास सबसे बड़ा काम मित्रो, जनता की सेवा करने का है। इसके लिए हम धर्मशाला नहीं बनवाते, हम चिकित्सालय नहीं खुलवाते, अस्पताल नहीं खुलवाते और हम प्रसूतिगृह नहीं खुलवाते। हम ये कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को परिश्रमशील होना चाहिए ताकि उसे किसी प्रसूतिगृह में जाने की और किसी नर्सिंग होम में जाने की आवश्यकता न पड़े। लुहार होते हैं, आपने देखे हैं कि नहीं, गाड़ी वाले लुहार, एक गाँव से दूसरे गाँव में रहा करते हैं उनकी औरतें घन चलाती रहती हैं। घन चलाने के बाद उन्हें यह नहीं पता रहता कि बच्चा कोख में से पैदा होता है या पेट में से पैदा होता है। आज बच्चा पैदा हो जाता है, कल- परसों फिर काम करने लगती हैं। पन्द्रह घंटे घन चलाती हैं। उनकी सेहत और कलाई कितनी मजबूत बनी रहती है। उनको नर्सिंग होम खुलवाने की और डिलिवरी होम खुलवाने की जरूरत नहीं है। हमको प्रत्येक स्त्री और पुरुष को यही सिखाने की जरूरत है कि हमको मेहनती और परिश्रमशील होना चाहिए। परिश्रमशील होने का माद्दा अगर लोगों के दिमागों में हम स्थापित कर सकें, तो मित्रो हमारे घरों की समस्याएँ, परिवारों की समस्याएँ, समाज की समस्याएँ और सारी समस्याएँ जैसे बेईमानी की समस्याएँ आदि कोई समस्या ऐसी नहीं है, जिसका हम समाधान न कर सकते हों।
इसलिए महत्त्वपूर्ण कदम हमको यह बढ़ाना पड़ेगा कि जनता का लोकशिक्षण करने के लिए आप जाएँ और जनता में लोकशिक्षण करें। लोकशिक्षण करने के लिए हमने जो विचारधारा आपको यहाँ दी है, उसे एक छोटी- सी पुस्तक के रूप में भी छपवा दिया है। ये व्याख्यान जो आपको यहाँ सुनने को मिले हैं, वे सारे के सारे प्वाइंट्स छपे हुए मिल जाएँगे। इनका आप अभ्यास कर लेना और इन्हीं प्वाइंट्स को आप कंठस्थ कर लेंगे और डेवलप कर लेंगे, तो क्या हो जाएगा कि सायंकाल के प्रवचनों में जो आपको जनता के समक्ष कहने पड़ेंगे, बड़ी आसानी से कहने में पूरे हो जाएँगे। कार्यकर्ताओं के समक्ष भी आप यही कहना। जहाँ कहीं भी आपको समझाने की, प्रवचन करने की जरूरत पड़े, आप यह कहना कि गुरुजी ने हमें डाकिये की तरह से भेजा है और एक चिट्ठी देकर आपके लिए एक संदेश लिखकर के भेजा है। लीजिए चिट्ठी को पढ़कर के सुना देते हैं। सबेरे वाले प्रवचन जो हमने दिए हुए हैं, अगर आप सुना देंगे, समझा देंगे, तो वे आपकी बात को मान जाएँगे। आपको व्याख्यान देना न आता हो और समझाने की बात न आती होगी, तो भी बात बन जाएगी। व्याख्यान देना और प्रवचन देना, चाहे आपको न आता हो, कोई हर्ज आपका होने वाला नहीं है। ये जो प्वाइंट्स हमने आपको दिए हैं, किसी भी स्थानीय वक्ता को, किसी भी स्थानीय व्याख्यानदाता को आप समझा देना और कहना कि जो प्रवचन गुरुजी ने दिए हैं, इन्हें आप अपने ढंग से, अपनी समझ से, अपनी शैली से, अपने तरीके से, आप इन्हीं प्वाइंटों को समझा दीजिये। कोई भी अच्छा वक्ता जिसे बोलना आता होगा, बोलने की तमीज होगी या बोलने का ज्ञान होगा, इन बातों को समझा देगा, जो सायंकाल को हैं। ये काम और कोई नहीं कर सकेगा, जो आपको करना है।
जो आपको करना है
वे कौन- से काम हैं, जो आपको करने पड़ेंगे? आपको यह करना पड़ेगा कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ, जिस शाखा में भी आप जाएँ, एक छाप इस तरह की छोड़कर आएँ कि गुरुजी के संदेश वाहक और गुरुजी के शिष्य जो होते हैं, वे किस तरह से और क्या कर सकते हैं और क्या करना चाहिए। आप यहाँ से जाना और वहाँ इस तरीके से अपना गुजारा करना, इस तरीके से निर्वाह करना जैसा कि संतों का गुजारा होता है और संतों का निर्वाह होता है। आप जहाँ कहीं भी जाएँ, अपने खानपान संबंधी व्यवस्था को कंट्रोल रखना। खानपान संबंधी व्यवस्था के लिए हुकूमत मत चलाना किसी के ऊपर। वहाँ जैसा भी कुछ हो, जैसा भी कुछ लोगों ने दिया हो उसी से काम चला लेना। आपको तरह- तरह की फरमाइशें पेश नहीं करनी चाहिए। जैसे कि बाराती लोग किया करते हैं। बारातियों का काम क्या है? बाराती लोग सारे दिन फरमाइशें पेश करते रहते हैं और नेताओं का क्या काम होता है? बजाजियों का क्या होता है? जहाँ कहीं भी वे जाते हैं, तो आर्डर करते रहते हैं और तरह- तरह की चीजों के लिए, अपने खाने- पीने की चीजें, अपनी सुविधा की चीजें, बीसों तरह की अपनी फरमाइशें करते रहते हैं। आपको किसी चीज की जरूरत पड़ती हो, चाहे आपको दिन भर भोजन न मिला हो, तो आप अपने झोले में सत्तू लेकर के जाना, थोड़ा नमक ले करके जाना। छुपकर के अपने कमरे में अपना सत्तू और अपना नमक घोल करके पी जाना, लेकिन जिन लोगों ने आपको बुलाया है, उन पर ये छाप छोड़ करके मत आना कि आप चटोरे आदमी हैं और आप इस तरह के आदमी हैं कि आप खाने के लिए और पीने के लिए और अमुक चीजों के लिए आप फरमाइश ले करके आते हैं। इसलिए हमने एक महीने तक आपको पूरा अभ्यास यहाँ कराया। हमने ये अभ्यास कराया कि जो कुछ भी हमारे पास है, साग, सत्तू आप घोलकर खाइए। साग- सत्तू आप खा करके रहिए और जबान को कंट्रोल करके रहिए। उन चीजों की लिस्ट को फाड़कर फेंक दीजिए कि अमुक चीज खाएँगे तो आप ताकतवर हो जाएँगे और अमुक चीज खाएँगे, तो आप पहलवान हो जाएँगे। अमुक चीज आप खाएँगे, तो आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। मित्रो हम यकीन दिलाते हैं कि खाने की चीजों से स्वास्थ्य का कोई ताल्लुक नहीं है और अगर आपको घी नहीं मिलता, तो कोई हर्ज नहीं, कुछ आपका बिगाड़ नहीं होने वाला है।
ताकत का केन्द्र कहाँ?
हम आपको कई बार कथा सुनाते रहे हैं। एक बार अपनी अफ्रीका यात्रा की मसाईयों का हमने किस्सा सुनाया था, जिन बेचारों को मक्का मुहैया होती है। जिन लोगों के लिए सफेद बीज की दाल मुहैया होती है। जिन लोगों के लिए केवल जंगली केला मुहैया होता है। चार चीज उनको मिलती हैं। न कभी उनको घी मिलता है, न कभी और कोई पौष्टिक चीजें मिलती हैं, लेकिन उनकी कलाइयाँ, उनके हाथ कितने मजबूत होते हैं। ओलंपिक खेलों में सोने के मैडल जीतकर लाते और शेरों का शिकार करते रहते हैं। ताकत अनाज में नहीं है, ताकत शक्कर में नहीं है, ताकत घी में नहीं है और ताकत मिठाई में नहीं है। मित्रो, ताकत का केन्द्र दूसरा है। ताकत की जगह वह है, जो गाँधी जी ने अपने भीतर पैदा की थी। घी खाकर के पैदा नहीं की थी उन्होंने। वह अलग चीज है, जिनसे ताकत आती है। इसलिए जहाँ कहीं भी आप जाएँ, हमारे संदेशवाहक के रूप में, वहाँ पर आपका खान- पान का व्यवहार ऐसा हो, जिससे कोई आदमी यह कहने न पाए कि ये लोग कोई बड़े आदमी आए हैं और कोई वी.आई.पी. आए हैं। यहाँ से जब आप जाएँ, तो प्यार और मोहब्बत को ले करके जाना। अगर आपके अन्दर कड़ुवापन रहा हो तो उसको यहीं पर छोड़कर जाना। कड़ुवापन मत ले करके जाना, अपना अहंकार ले करके मत जाना।
कड़ुवापन क्या है? कडुवापन आदमी का घमण्ड है, कड़ुवापन आदमी का अहंकार है। अपने अहंकार के अलावा कडुवापन कुछ है ही नहीं। आप जब ये कहते हैं कि हम तो सच बोलते हैं, इसलिए कड़वी बात कहते हैं। ये गलत कहते हैं। सच में बड़ा मिठास होता है। उसमें बड़ी मोहब्बत होती है। गाँधी जी सत्य बोलते थे, लेकिन उनके बोलने में बड़ी मिठास भरी होती थी। अँग्रेजों के खिलाफ उन्होंने लड़ाई खड़ी कर दी और ये कहा कि आपको हिन्दुस्तान से निकालकर पीछा छोड़ेंगे। आपके कदम हिन्दुस्तान में नहीं रहने देंगे। मारकर भगा देंगे और आपका सारा जो सामान है, वो यहीं पर जब्त कर लेंगे और नहीं देंगे। गाँधी जी की बात कितनी कड़वी थी और कितनी तीखी थी और कितनी कलेजे को चीरने वाली थी। लेकिन उन्होंने शब्दों की मिठास, व्यवहार की मिठास को कायम रखा, हमको और आपको व्यवहार की मिठास को कायम रखना चाहिए। अगर आपके भीतर मोहब्बत है और प्यार है, मित्रो! तो आपकी जबान में से कड़ुवापन नहीं निकलेगा। इसमें मिठास भरी हुई होनी चाहिए। प्यार भरा हुआ रहना चाहिए। प्यार अगर आपकी जबान में से निकलता नहीं और मिठास आपकी जबान में से निकलती नहीं है, आप निष्ठुर की तरह जबान की नोंक में से बिच्छू के डंक के तरीके से मरते रहते हैं, दूसरों को चोट पहुँचाते रहते हैं और दूसरों का अपमान करते रहते हैं और विचलित करते रहते हैं, तब आपको यह कहने का अधिकार नहीं है कि आप सच बोलते हैं।
वाणी में प्यार- शील
सच क्या है? जैसा आपने देखा है, सुना है, उसको ही कह देने का नाम सच नहीं है। सच उस चीज का भी नाम है, जिसके साथ में प्यार भरा हुआ रहता है और मोहब्बत जुड़ी हुई रहती है। प्यार और मोहब्बत का व्यवहार आपको यहीं से बोलना- सीखना चाहिए और जहाँ कहीं भी शाखा में आपको जाना है, और जनता के बीच में जाना है, उन लोगों के साथ में आपके बातचीत करने का ढंग, बातचीत करने का तरीका ऐसा होना चाहिए कि उसमें प्यार भरा हुआ हो, मोहब्बत जुड़ी हुई हो। उसमें आत्मीयता मिली हुई हो, दूसरों का दिल जीतने के लिए और दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए। यह अत्यधिक आवश्यक है कि आपके जवान में मिठास और दिल में मोहब्बत होनी चाहिए। आप जब यहाँ से जाएँ, तो इस प्रकार का आचरण ले करके जाएँ, ताकि लोगों को यह कहने का मौका न मिले कि गुरुजी के पसंदीदे यही हैं। अब आपकी इज्जत- आपकी इज्जत नहीं है, हमारी इज्जत है। जैसे हमारी इज्जत हमारी इज्जत नहीं है, हमारे मिशन की इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है। अपने वानप्रस्थ आश्रम की रखवाली करना आपका काम है।
हमने ये तीन- चार तरीके की जिम्मेदारी आपके कंधे पर डाली है। इन जिम्मेदारियों को लेकर के आप जाना। फूँक- फूँक करके पाँव रखना। आप वहाँ चले जाना, जहाँ कि आबोहवा का ज्ञान नहीं है। कहीं गर्म जगह हम भेज सकते हैं, कहीं ठंडी जगह हम भेज सकते हैं। कहीं का पानी अच्छा हो सकता है और कहीं का पानी खराब हो सकता है। आप वहाँ जाकर के क्या कर सकते हैं? आप बीमार नहीं पड़ सकते। बीमारी के लिए मैं दवा बता दूँगा, आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, आप बीमार नहीं पड़ेंगे और बीमारी आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैं ऐसी दवा दे दूँगा कि आप चाहे जहाँ कहीं भी जाना और जो चाहे कुछ खिला दे, वही खाते रहना। बेजिटेबिल की पूड़ियाँ खिलाता हो, तो पूरे महीने पूड़ियाँ खाना और बीमार होकर आये, तो आप मुझसे कहना। मैं ऐसी गोली देना चाहता हूँ, कि कोई भी चीज खिलाता हो, आप खाते रहना और आपके पेट में कब्ज की शिकायत हो जाए, तो आप मुझसे कहना, मेरी जिम्मेदारी है। आप मुझसे शिकायत करना कि गुरुजी आपकी गोली ने काम नहीं किया, हमको कब्ज की शिकायत हो गई।
खुराक से कम खायें
इसके लिए आप एक काम करना, अपनी खुराक से कम खाना। यहाँ चार रोटी की खुराक है, तो यहाँ से निकलते ही एक रोटी कम खाना। एक रोटी कम, तीन रोटी खाना शुरू कर दीजिए। आप जायके के माध्यम से जाएँगे, तो हर आदमी के मेहमान होंगे और मेहमान का तरीका हिन्दुस्तान में यह होता है कि जो कोई भी आता है किसी के घर, तो उस आदमी के लिए अगर हम मक्का की रोटी खाते हैं, तो उसे गेहूँ खिलाएँगे और हम गेहूँ की खाते हैं, तो आपको चावल खिलाएँगे। चावल खाते हैं, तो मिठाई खिलाएँगे। हम अगर छाछ पीते हैं, तो आपको दूध पिलाएँगे। हर हिन्दू यह जानता है कि सन्त- महात्मा का वेश पहन कर के आप जा रहे हैं, तो स्वभावतः आपको अपने घर की अपेक्षा अच्छा भोजन कराए, अच्छी- अच्छी चीजें खिलाएँ। यदि आपने अपनी जबान पर कंट्रोल रखा नहीं, तो आप जरूर बीमार पड़ जाएँगे। आप ध्यान रखिए आबोहवा तो बदलती ही है। यहाँ का पानी आज, वहाँ का कल, वहाँ का पानी परसों। समय का ज्ञान नहीं, कुसमय का ज्ञान नहीं। यहाँ पर आप ग्यारह बजे खाना खा लेते हैं, सम्भव है कि कोई आपको दो बजे खिलाए, आपका पेट खराब हो सकता है। आप बीमार हो सकते हैं, लेकिन ये खुराक जो मैंने आपको बताई है, अगर उसको कायम रखेंगे, तो आप कभी भी बीमार नहीं होंगे।
मित्रो! हमने लम्बे- लम्बे सफर किये हैं और तरह- तरह की चीजें और तरह तरह की खुराकें खाने का मौका मिला है। एक बार मैं मध्यप्रदेश गया, तो लाल मिर्च साबुत खाने की आदत उन लोगों की थी। रामपुरा में यज्ञ हुआ। यज्ञ हुआ तो वहाँ वो बड़ी- बड़ी पूड़ी परोस रहे थे और ऐसी सब्जी परोस रहे थे, जो मुझे टमाटर की सी मालूम पड़ी। लाल रंग का सारे का सारा टमाटर का साग परोस रहे थे। टमाटर मुझे अच्छा भी लगता है, माताजी मेरे लिए अक्सर बना लिया करती हैं। मँगा लेती हैं। मैंने भी मँगा लिया और रख लिया थाली में। जैसे ही मैंने पूड़ी का टुकड़ा मुँह में दिया कि मेरी आँखें लाल- लाल हो गईं। अरे यह क्या? गुरुजी यह टमाटर का साग नहीं है, यह तो लाल मिर्च है। जब हरी मिर्च पक जाती है और लाल हो जाती है, तो उनको ही पीस करके उसमें नमक और खटाई मिलाकर के ऐसा बना देते हैं- लुगदी जैसी, उसको आप चटनी कह लीजिए। ऐसी भी जगह मुझे जाना पड़ा है कि मैं क्या कहूँ आपसे।
एक बार मैं आगरा गया और वहाँ भोजन करना पड़ा। दाल- रोटी जो घर में खाते हैं, जहाँ कहीं भी जाता हूँ, वही खाता हूँ और कहता हूँ कि तुम्हारे घर में जो कुछ भी हो, वही खिलाना। नहीं हो, तो मेरे लिए बनाना मत, अलग चीज बनाओगे, तो मैं खाऊँगा नहीं। अगर तुम पूड़ी रोज खाते हो, तो पूड़ी बना दो मेरे लिए। मुझे एतराज नहीं, लेकिन तुम हमेशा कच्ची रोटी खाते हो तो मेरे लिए कच्ची रोटी ही बनाना, मक्का की रोटी खाते हो अपने घर में तो, वही खिलाना, क्योंकि मैं तुम्हारा मेहमान नहीं हूँ, तुम्हारा कुटुम्बी हूँ। आगरा में उन लोगों ने दाल बना दी और रोटियाँ धर दीं। दाल में जैसे ही मैंने कौर डुबोया, इतनी ज्यादा मिर्च कि मेरे तो बस आँखों में से पानी आ गया। मैं क्या कह सकता था। अगर मैं यह कहता कि साहब दाल बड़ी खराब है उठा ले जाइए। यह आपने क्या दे दिया और मेरे लिए तो दही लाइए और वह लाइए। मेरी आँख में से पानी तो आ गया और मैंने एक घूँट पानी पिया, पीने के बाद रोटी के टुकड़े खाता तो गया। रोटी के टुकड़े दाल तक ले तो गया, पर दाल में डुबोया नहीं। हाथ मैंने चालाकी से चलाया, जिससे मालूम पड़े कि मैं दाल खा रहा हूँ। दाल खाई नहीं और वैसे ही रूखी रोटी खाता और पानी पीता रहा। पानी पीने के बाद उतर कर आ गया। उसे पता भी नहीं चला, मुझे भी पता नहीं चला। न उसको शिकायत हुई कि आपने ये कैसे खाया।
हमारे यहाँ एक स्वामी परमानन्द जी और नत्थासिंह भी थे पहले। दोनों साथ थे। हम नत्थासिंह और परमानन्द जी को अक्सर बाहर भेज देते थे। दोनों का जोड़ा था। जब भोजन होता था, तब स्वामी परमान्द उससे कहते थे- नत्थासिंह हाँ! देख, मैं मर जाऊँ कभी और तुझे ये खबर मिले कि स्वामी परमानन्द मर गया, तो ये मत पूछना कि कौन- सी बीमारी से मर गया। पहले से लोगों से यह कह देना कि परमानन्द ज्यादा खा करके मर गया। सारा घी स्वामी जी खा जाएँ, तो भी पता न चले। जहाँ कहीं भी जाते, खाने की उनकी ऐसी ललक कि एक बार खिला दीजिये, खाने से पिण्ड छोड़ने वाले नहीं। टट्टियाँ हो जाएँ तो क्या? उल्टियाँ हो जाएँ तो क्या? पर खाने से बाज न आने वाले थे वे।
जबान के दो विषय
मित्रो हमारी जबान के दो विषय हैं, जबान हमारी बड़ी फूहड़ है। एक विषय इसका यह है कि यह स्वाद माँगती है और जायके माँगती है। आप स्वादों को नियंत्रण करना- जायके को नियंत्रित करना। सन्त जायके पर नियंत्रण किया करते हैं और स्वाद पर नियंत्रण किया करते हैं। जिस आदमी का जायके पर नियंत्रण नहीं है और स्वाद पर नियंत्रण नहीं है, वह आदमी सन्त नहीं कहला सकता। आपने- हमने ऐसे संत देखे हैं, जो भिक्षा माँग करके लाए और एक ही कटोरे में- एक ही जगह में दाल को मिला दिया और उसको मिला दिया और इसको मिला दिया और साग को मिला दिया और खीर को मिला दिया और सबको मिला दिया। एक ही जगह मिलाकर खाया। वे ऐसा किसलिए खाते हैं? इसलिए कि वे जबान के जायके पर काबू करके खाते हैं। जबान के जायके का अभ्यास आपको यहाँ नहीं हो सका, तो आप जहाँ कहीं भी कार्यकर्ताओं के बीच में जाएँ, आपको एक छाप छोड़ने की बात मन में लेकर के जानी चाहिए कि हम जबान के जायके को कंट्रोल में करके आए हैं। अब देखना आपके ऊपर छाप पड़ती है कि नहीं पड़ती है।
खान- पान का भी हमारे हिन्दुस्तान में ध्यान रखा जाता है। एक महात्मा ऐसे थे, जो हथेली के ऊपर रखकर के रोटी खाया करते थे। उनका नाम महागुरु श्रीराम था। अभी भी वे हथेली पर रोटी रखकर खाने वाले महात्मा के नाम से मशहूर हैं। मैं नाम तो नहीं लेना चाहूँगा, पर आप अन्दाज लगा सकते हैं कि मैं किसकी ओर इशारा कर रहा हूँ। इस समय तो वे नहीं करते, इस समय तो वे मोटरों में सफर करते हैं और अच्छे चाँदी और सोने के बर्तनों में भोजन करते हैं। पर कोई एक जमाना था, जब हथेली पर रख करके भोजन करते थे। एक ही विशेषता ऐसी हो गई कि सारे हिन्दुस्तान में विख्यात हो गए। इस बात के लिए प्रख्यात हो गए कि वे हथेली पर रखकर के रोटी खाया करते हैं। भला आप संत नहीं हैं तो क्या, महात्मा नहीं हैं तो क्या? आपकी खुराक सम्बन्धी आदत ऐसी बढ़िया होनी चाहिए कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ, वहाँ हर आदमी आपको बर्दाश्त कर सकता हो, ‘अफोर्ड’ कर सकता हो। गरीब आदमी भी ये हिम्मत कर सकता हो कि हमारे यहाँ पंडित जी का भोजन हो। गरीब आदमी को भी ये कहने की शिकायत न हो कि हमारे यहाँ ये नहीं होता, हमारे घर में दूध नहीं होता, हमारे घर में दही नहीं होता, हम तो गरीब आदमी हैं, फिर हम किस तरीके से उनको बुलाएँगे, किस तरीके से भोजन कराएँगे। आपकी हैसियत संत की होनी चाहिए और संत का व्यवहार जो होता है, हमेशा गरीबों में ज्यादा होता है। गरीबों जैसा होता है, अमीरों जैसा संत नहीं होता, संत अमीर नहीं हो सकता। संत कभी भी अमीर होकर नहीं चला है। जो आदमी हाथी पर सवार होकर जाता है, वह कैसे संत हो सकता है? संत को तो पैदल चलना पड़ता है। संत को तो मामूली कपड़े पहनकर चलना पड़ता है। संत चाँदी की गाड़ी पर कैसे सवारी कर सकता है? आपको यहाँ से जाने के बाद अपना पुराना बड़प्पन छोड़ देना चाहिए और पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए।
संतों जैसा जीवन व व्यवहार हो
बस, आपको यहाँ से जाने के बाद अपना पुराना बड़प्पन छोड़ देना चाहिए और पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए और जगह- जगह से नहीं कहना चाहिए कि हम तो रिटायर्ड पोस्टमास्टर थे या रिटायर्ड पुलिस इन्सपेक्टर थे या हमारे गाँव में जमींदारी होती थी। आप यह मानकर जाना कि हम नाचीज हो करके जा रहे हैं। संत नाचीज होता है। संत तिनका होता है और अपने अहंकार को त्याग देने वाला होता है। यदि आपने अपने अहंकार को त्यागा नहीं, तो फिर आप संत कहलाने के अधिकारी नहीं हुए। हमारी पुरानी परम्परा थी कि जो कोई भी संत वेष में आता था, उसको भिक्षायापन करना पड़ता था। क्यों? भिक्षायापन कौन करता है? भीख माँगने वाला गरीब होता है ना? कमजोर होता है ना? संत वेष धारण करने के पश्चात् हर आदमी को भिक्षा माँगने के लिए जाना पड़ता था, ताकि उसका अहंकार चूर- चूर हो जाए। हम अपने ब्रह्मचारियों को जनेऊ पहनाते थे। जनेऊ पहनाने के समय ऋषि अपने बच्चों को भिक्षा माँगने भेजते थे कि जाओ बच्चो भिक्षा माँगो, ताकि किसी बच्चे को यह कहने का मौका न मिले कि हम तो जमींदार साहब के बेटे हैं, ताल्लुकेदार के बेटे हैं और धनवान के बेटे हैं, गरीब के बेटे नहीं हैं, हर आदमी का आध्यात्मिकता का आत्मसम्मान अलग होता है और अपने धन का, अपनी विद्या का, अपनी बुद्धि का, अपने पुरानेपन का और अपनी जमींदारी का और अपने अमुक होने का गर्व होता है, वह अलग होता है। आप यहाँ से जाना, तो अहंकार छोड़ करके जाना।
मैं- मैं मत करिए
मित्रो, कई आदमियों को- चेलों को बार- बार यह कहने की आदत होती है कि जब तक वे अपनी महत्ता और अपना बड़प्पन, अपने अहंकार की बात को सौ बार जिकर नहीं कर लेते, तब तक उनको चैन नहीं मिलेगा। निरर्थक की बात- चीत करेंगे। निरर्थक की बातचीत करने का क्या उद्देश्य होगा? यह उद्देश्य होगा कि मैं ये था और मैंने ये किया था और मैं वहाँ गया था और मेरा ये हुआ था। मैं पहले ये था, मैं पहले ये कर रहा था- आधा घंटे तक भूमिका बनाएँगे। आधे घंटे भूमिका बनाने के बाद फिर किस्सा शुरू होगा- मैं मैं...मैं...मैं...मैं...मैं... को अनेक बार कहते हुए चले जाएँगे। लेकिन मित्रो, ये समझदारी की बात नहीं हैं, नासमझी की बात है। जो आदमी अपने मुँह से, अपनी जबान से, अपने बड़प्पन की जितनी बात बताता है, वह उतना ही कमजोर होता चला जाता है और उतनी ही उसकी महत्ता कम होती जाती है। हम आपको जिन लोगों के पास में भेजने वाले है, वे फूहड़ लोग नहीं हैं, बेअकल लोग नहीं हैं, बेवकूफ लोग नहीं हैं। हमने अखण्ड ज्योति पैंतीस वर्ष से निकाली है और पैंतीस वर्ष से जो आदमी अखण्ड ज्योति पत्रिका को पढ़ते हुए चले जा रहे हैं, वे काफी समझदार लोग हैं। हमारा हर आदमी समझदार आदमी है। इस बात की तमीज उसको है और हर बात की अकल उसको है कि क्या आपके स्तर का है और क्या आपके स्तर का नहीं है। अपने अहंकार के बारे में और अपने बड़प्पन के बारे में जितनी शेखी आप बघारेंगे, उतनी ही आपकी इज्जत कम होती जाएगी और लोग यह समझेंगे कि ये कितना घमण्डी आदमी है और लोलुप आदमी है। यह बहुत बड़ाई करना चाहता है और हमको अपने बड़प्पन की बात बताना चाहता है। यह मैं आपको विदा करते समय में उसी तरह की शिक्षा दे रहा हूँ जैसे कि माँ अपनी बेटी को विदा करने के समय जब ससुराल भेजती है, तो तरह- तरह की नसीहतें देती है और तरह- तरह की शिक्षाएँ देती है कि बेटी सास से व्यवहार ऐसे करना। बेटी ससुर से ऐसे व्यवहार करना। बेटी अपने पति से ऐसे व्यवहार करना। बेटी अपनी ननद से ऐसे व्यवहार करना। मैं आपको बेटियों की तरीके से नसीहत दे रहा हूँ, क्योंकि मैं आपको ससुराल भेज रहा हूँ।
ससुराल भेज रहे हैं
ससुराल कहाँ? ससुराल का मतलब जनता के समक्ष भेजने से है, जहाँ पर आपका इम्तिहान लिया जाने वाला है। आपके व्याख्यान का नहीं, मैं आपसे फिर कहता हूँ कि आपको व्याख्यान देना न आता हो, तो कोई डरना मत और कन्फ्यूज मत होना। व्याख्यान के बिना भी काम चल जाएगा। आप चुप बैठे रहना- महर्षि रमण के तरीके से, तो भी काम चल जाएगा। पांडिचेरी के अरविन्द घोष ने अपनी जबान पर काबू कर लिया था। कन्ट्रोल कर लिया था। उन्होंने लोगों से मिलने से इंकार कर दिया था और कह दिया था कि हम आप लोगों से बातचीत नहीं करना चाहते हैं। बातचीत न करने के बाद भी महर्षि रमण और पांडिचेरी के अरविन्द घोष इतने ज्यादा काम करने में समर्थ हो गए, आपको मालूम नहीं है क्या? बहुत काम करने में समर्थ हो सके। जहाँ कहीं भी आप जाएँ जरूरी नहीं है कि आपको स्वयं ही बोलना चाहिए। आप जो प्वाइंट ले करके गए हैं और जो प्वाइन्ट इस डायरी में भी लिखे हुए हैं और डायरी के अलावा हमने अलग किताब भी छपवा दी है, उससे आपका काम चल जाएगा। जहाँ कहीं भी आप जाएँगे, वहाँ भी आपको ढेरों के ढेरों व्याख्यान देने वाले वक्ता जरूर मिल जाएँगे। उनको आप बोलना और कहना कि देखो भाई, ये हमारे डायरी के पन्ने हैं और देखो ये पुस्तक के पन्ने हैं। आपको इन प्वाइंटों के ऊपर ऐसी- ऐसी बातें कहनी हैं। यहाँ हमको बोलकर सुना दो एक बार। आप इम्तिहान लेना और जब आपको लग जाएगा कि वह ठीक बोल रहा है, तो कहना बेटा कल तुम्हें यह संदेश गुरुजी का वहाँ पढ़ना है। हम तो सिखाने के लिए आए हैं, स्वयं बोलने के लिए थोड़े ही आए हैं। हमें थोड़े ही बोलना है। आपको बोलना पड़ेगा, आपको सम्मेलन करना पड़ेगा। हमको तो अपना काम करना है। हमको तो सिखाना है और तुमको बोलना है। तुमको बोलना चाहिए- हमारे सामने, तुम नहीं बोलोगे तो हम कैसे पहचानेंगे कि तुमने गुरुजी के संदेश को समझ लिया और अपना लिया, इसलिए रोज सबेरे के वक्त में ये बोलना है। बोलकर सिखा दो और बता दो कि पहले क्या कहोगे? ऐसा मत कहना कि हम कुछ और कहने आए हैं और तुम अपना नमक- मिर्च लगाकर कहने लगो। हम जो बात कहना चाहते हैं, वही बात कहना।
कोई भी आदमी जिसको बोलने की जानकारी हो और लेक्चर देने की कला आती हो, वह बोल देगा। यों तो व्याख्यान देने की कला तमाम स्कूलों में पढ़ाई जाती है। लैक्चरार एक पेशा बन गया है, धन्धा बन गया है। लेक्चरार तो ढेरों आदमी पैदा हो गया। लेक्चर देना और व्याख्यान देना कोई मुश्किल बात नहीं। आप उससे घबड़ाना मत। आपको न आता हो, तो दूसरे लोगों से कहलवा देना और सायंकाल के स्टेज के लिए भी आप तैयार होकर जाना। कोई न मिलता हो तो वकील को बुला लेना। वकील साहब, हाँ तुम्हारी- हमारी बहस है। बहस है तो अच्छा, शाम को आ जाना, हमार केस लड़ देना। क्या केस है? अरे गुरुजी का मुकदमा है। गुरुजी ने ये- ये प्वाइंट्स बताए हैं, जरा बैठकर जरा- सी बात कह दीजिए। इसके लिए आपको एक घंटा बोलना पड़ेगा। अरे साहब एक घंटे का तो हम दस रुपये ले लेते हैं, तो आप दस रुपये ले लीजिए या फिर आज फोकट में ही बोल दीजिए। हाँ फोकट में ही बोल देंगे, बताइये क्या बोलना है। बस वह आपके प्वाइंटों को लेकर के खड़ा हो जाएगा और ऐसे धड़ल्ले से बोलेगा कि आपको मजा आ जाएगा। किसी अध्यापक को बुला लेना, किसी को भी बुला लेना, कोई भी आदमी आ जाएगा। आपकी बात को कह देगा। इसलिए आप मत देना व्याख्यान।
व्याख्यान से ज्यादा जरूरी है शिक्षण
तो आपको क्या करना है? आपको तो लोगों को सिखाने के लिए जाना है। आपको तो तभी बोलना है, जब बहुत मुसीबत आ जाए, बहुत जरूरी हो जाए, आप वहाँ के लोगों को सिखाना- बोलने का काम तो उन्हीं को करना है, शाखा तो उन्हीं को चलानी है। आपके सामने बोल लेंगे, तो अच्छी बात है। आप भी कभी- कभी कह दिया करिए। गुरु तो पीछे बैठा रहता है और तीर- कमान तो लड़के चलाते रहते हैं। गुरु जो होता है, झट से बता देता है। आपने अखाड़े के उस्ताद को नहीं देखा। अखाड़े का उस्ताद कहीं लड़ता है क्या? पर यह बताता रहता है कि ये पकड़, यह क्या करता है, मालूम है क्या करता है? हाथ पकड़ता है- टाँग नहीं पकड़ता है गिराना है तो। पहलवानी करने चला है और टाँग पकड़ना नहीं आता, पहले टाँग पकड़ उसकी। अच्छा हाँ, उस्ताद अभी पकड़ता हूँ और कान पकड़ता है। टाँग पकड़ गिरा इसको। अभी गिराता हूँ। ऐसे करके आपको तो उस्ताद बनाकर भेजेंगे, कोई अखाड़े के पहलवान बनाकर थोड़े ही भेजेंगे। पहलवान तो ढेरों के ढेरों मिल जाएँगे। पहलवानी को रहने दीजिए। गुरुजी हमें तो यहाँ एक महीने रहते हुए होने को आया। अब आप परसों भेज देंगे, हमको लेक्चर झाड़ने पड़ेंगे, तो लेक्चर कैसे देंगे? अरे बाबा, लेक्चर की हम नहीं कह रहे हैं। लेक्चरार बनाकर नहीं भेज रहे हैं। हम तो आपको वह चीज दे करके भेज रहे हैं कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ, वहाँ आपके क्रिया- कलाप ऐसे होने चाहिए जैसा कि हमारे कार्यकर्ता का होना चाहिए, जिसे देखकर अन्य कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ता हुआ चला जाए। आपको हमने वहाँ मुआइना करने के लिए और कोई इंस्पेक्टर बना करके नहीं भेजा है और न ही हम आपको नेता बनाकर भेज रहे हैं। नेता पर लानत। नेता, हम नहीं बनाएँगे आपको। नेता से हमें कोई मोहब्बत नहीं है। जो आदमी स्टेज पर बैठ करके, मटक मटक करता है और फूलमाला पहन करके माइक पकड़ करके बैठ जाता है और किसी का नम्बर ही नहीं आने देता। प्रेसीडेंट कहता है- अरे बाबा बन्द कर! उसने तो माइक पकड़ लिया है, दूसरों को देता ही नहीं। ऐसा ही होता है। जब तक सारे लोग उसके नीचे नहीं होंगे, तब तक नहीं छोड़ेगा, ऐसा नेता मुबारक, माइक मुबारक, दोनों चीजें मुबारक।
नेता नहीं कार्यकर्ता बनें
मित्रो, हम आपको नेता बनाकर नहीं भेज रहे हैं। हम तो आपको कार्यकर्ता और ज्ञानी बनाकर भेज रहे हैं वालन्टियर की तरह। जहाँ कहीं भी जाएँ और जो कोई भी कार्य करें, वालन्टियर के रूप में करें। आप उस तरीके से करना, जिस तरीके से हाथ से काम करना सिखाया जाता है। सर्जन अपने मैटरनटरी कॉलेज के स्टूडेन्टों को अपने आप करके स्वयं दिखाता है और यह कहता है कि तुमको पेट का ऑपरेशन करना हो तो देख लो एक बार फिर, भूलना मत। तुम्हारा मुँह इधर होगा, तो ऑपरेशन करना नहीं आएगा। देखो हम पेट को चीरकर देखते हैं- ये देखो- ये निकाल दिया और ये सिल दिया और ये बाँध दिया। देखो फिर ध्यान रखना और ऐसे मत करना कि पेट का ऑपरेशन किसी का करना पड़े और कहीं का वाला कहीं कर दो और कहीं का वाला कहीं कर दो। आपको हर काम स्वयं करने के लिए स्वयंसेवी कार्यकर्ता के रूप में जाना है। आपको किसी का मार्गदर्शक होकर के या किसी का गुरु हो करके या किसी का नेता हो करके नहीं जाना है। दीवारों पर जब वाक्य लिखने की जरूरत पड़े, तो आप स्वयं डिब्बा लेना और कहना- चल भाई मोहन, अरे तूने इस बात के लिए मना किया, अब मैं लिखकर दिखाता हूँ कि किस तरह से अच्छे तरीके से वाक्य लिखा जाता है, चल तो सही मेरे साथ। अपने साथ आप ले करके चले जाएँगे। अरे वानप्रस्थी जी साहब! आप वहाँ से आए हैं, आप तो गुरुजी वहाँ बैठो, हम बच्चे लिख लेंगे- वाक्य बेटा, बच्चे लिख लेंगे, तो हम किसलिए आए हैं। चल जरा! हमारे साथ- साथ चल देख हम साफ- साफ लिखकर दिखाते हैं। जब आप आगे- आगे चलेंगे, तो ढेरों आदमी आपके साथ चलेंगे, आपकी लिखने वाली बात, अमुक बात और अमुक बात, आसानी से होती हुई चली जाएगी।
वालण्टियर बनाकर भेजा है
परन्तु जब आप पीछे जा बैठेंगे तब, तब लोग हमसे शिकायत करेंगे और कहेंगे कि गुरुजी ने ऐसे लोगों को हमारे पास भेज दिया। चलते तो हैं ही नहीं, सुनते तो हैं ही नहीं, कुछ करते तो हैं ही नहीं। हुकुम चलाना भर आता है। बेटे हमने उनके ऊपर हुकुम चलाने के लिए आपको नहीं भेजा है। हमने तो आपको मार्गदर्शन करने के लिए भेजा है। वालन्टियर के रूप में भेजा और सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में भेजा है। जो बात आपको नहीं आती है, वह काम आपको करने चाहिए। उनके कंधे से कंधा मिलाकर चलना, आगे- आगे बढ़ना चाहिए। जहाँ ये समस्या है लोगों के लिए कि जनता कहीं भी नहीं आती है, यह आप ध्यान रखना। जनता बहुत खीझी हुई है और बहुत झल्लाई हुई है। उसने ढेरों- के व्याख्यान सुने हैं और व्याख्यान सुनने के बाद में यह भी देखा है कि जो आदमी व्याख्यान दिया करते हैं, रामायण पढ़ा करते हैं, गीता पढ़ा करते हैं, कैसे- कैसे वाहियात आदमी हैं और कैसे बेअकल आदमी हैं।
व्याख्यान देने वालों की जिन्दगी, उनके स्वरूप और उनके क्रियाकलाप का फर्क, आवाज का फर्क लोगों ने जाना है। लोगों ने जाना है कि जब सन्त का बाना ओढ़ लेता है, तो क्या कहता है और जब रामायण पढ़ता है तो कैसे- कैसे उपदेश दिया करता है और जब मकान पर आ जाता है, घर पर आ जाता है, तो उसके क्रियाकलाप क्या होते हैं? लोगों ने जान लिया है और समझ लिया है कि लेक्चर झाड़ना एक धंधा बन गया है। उसमें कोई दम नहीं और कोई अकल नहीं।
जनता झल्लाई हुई है
मित्रो, क्या करना पड़ेगा? आपको वहाँ जाने के बाद में सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में, एक मार्गदर्शक के रूप में आपको रहना पड़ेगा। जनता अभी आपके पास नहीं आने वाली है। वह सहज रूप से नहीं आयेगी। जनता को निमंत्रण देने के लिए आपको स्वयं ही खड़ा होना पड़ेगा। जनता अब नहीं आयेगी, आप ध्यान रखना। जनता बहुत झल्लाई हुई है। जनता पर बहुत रोष छाया हुआ है। सन्तों के प्रति अविश्वास, नेताओं के प्रति अविश्वास, वक्ताओं के प्रति अविश्वास, सभा- संस्था वालों के प्रति अविश्वास, हरेक के प्रति अविश्वास हर आदमी को है। इस जमाने में जब हरेक के प्रति अविश्वास छाया हुआ है। बड़े- बड़े मिनिस्टर आते हैं, तो दो सौ आदमी भी नहीं आते। कान में जाकर के बी.डी.ओ. को कहना पड़ता है और बोर्ड का अध्यक्ष मास्टरों को बुला करके कहता है कि अच्छा भाई कल की छुट्टी है, कल के लिए लीजिए रेनी- डे लिख देते हैं- वर्षा का दिन और कल सब स्कूलों की छुट्टी है। सब बच्चों को और सब मास्टर लोगों को लेकर के वहाँ पर विक्टोरिया पार्क में सब जने ४ बजे तक इकट्ठा हो जाना, ताकि उनको ये मालूम पड़े कि जनता बहुत आई है।
उसमें से कौन होता है? किसमें? व्याख्यान करने वालों में। व्याख्यान करने वालों में तलाश करना कि जब कोई नेता आता है, तो सुनने वाले कौन होते हैं? आप एक- एक की पहचान करना कि जो व्याख्यान सुनने आये हैं, इसमें जनता वाले कितने थे और स्कूल वाले कितने थे। आपको ये मालूम पड़ेगा कि सफेद कुर्ता पहने हुए आगे वाले तो सिपाही बैठे हैं। जो वर्दी को तो उतार आए हैं और मामूली कपड़ा, मामूली पैण्ट कमीज पहने हुए हैं। आगे तो ये लोग बैठे हुए हैं। ताली बजाने वालों में कौन बैठे हुए हैं। मास्टर लोग बैठे हुए हैं, पुलिस के सिपाही बैठे हुए हैं। ताली बजाने वालों में और कौन बैठे हुए हैं? ये बैठे हैं और वो बैठे हैं। जनता को आप तलाश करेंगे, तो मुश्किल से पचास आदमी आपको नहीं मिलेंगे। क्यों नहीं मिलते हैं? गाँधी जी की सभा में लोग आते थे और नेहरू की सभा में जाते थे; लेकिन अब सभा में लोग क्यों नहीं आते, क्योंकि नफरत छा गई है? नफरत इसलिए छा गई है कि सिखाने वाले और कहने वाले में अब जमीन- आसमान का फर्क है। इसलिए इनकी बात नहीं सुनेंगे, जरूरी हुआ, तो अख़बार में क्यों नहीं पढ़ लेंगे। इन्हें सुनने में हम अपना टाइम क्यों खराब करेंगे? धक्के क्यों खाएँगे? इसलिए यह भी एक प्रश्न आपको हल करना पड़ेगा कि जिन बेचारों ने अपना आयोजन करके रखा है- पन्द्रह दिन का और दस दिन का, वहाँ किस तरह से जनता को बुलाया जाए, ताकि हमारे विचार और हमारी प्रेरणा, हमारे प्रकाश को फैलाने के लिए वे इतना महत्त्व दें, जिसके लिए मेहनत करने भेज रहे हैं आपको। जनता को बुलाने के लिए आपको ही आगे- आगे बढ़ना होगा।
पीले चावल से निमंत्रण
मित्रो, शुरू के ही दिन में मैंने आपको यह सब बता दिया था। जनता को अब हम व्यक्तिगत रूप से निमंत्रण दे सकते हैं। पीले चावल ले करके जाना। घर- घर में जाना निमंत्रण देने के लिए और कहना कि मथुरा वाले गुरुजी को आप जानते हैं क्या? गुरुजी को, हाँ जानते हैं, तो उन्होंने एक बात कह करके भेजी है, आपके लिए कुछ खास संदेश भेजा है, आपके लिए कुछ अलग शिक्षाएँ भेजी हैं; कुछ अलग से संदेश भेजा है; जिसे आपको सुनने के लिए जरूर आना पड़ेगा शाम को। इस तरह से एक घर में, दो घर में, तीन घर में आप स्वयं जाना और वहाँ के कार्यकर्ताओं को ले करके जाना। टोलियाँ बनाना और निमंत्रण देने के लिए जाना- निमंत्रण देने के लिए व्यक्तिगत सम्पर्क बनाने वाली बात करनी चाहिए।
एक बात और भी है कि इश्तहारों से आप किसी को नहीं बुला सकते और लाउडस्पीकर पर तो सिनेमा वाले और बीड़ी वाले चिल्लाते हैं। लाउडस्पीकर आप भी लेकर चले जाइए और कहिए- प्यारे भाइयो, शाम को साढ़े छह बजे आना, वानप्रस्थी लोग शान्तिकुञ्ज से आये हैं, प्रवचन करेंगे। तब आप में और बीड़ी वालों में कोई फर्क नहीं होगा। सभी बीड़ी वाले चिल्लाते हैं कि सत्ताईस नम्बर की बीड़ी भाइयो, पिया करो, सत्ताईस नम्बर पिया करो। फिल्मस्तानी भाई, बीड़ी वाले भाई और गुरुजी के वानप्रस्थियों में फिर क्या फर्क रह गया है? माइक, इसकी कोई कीमत नहीं, कहाँ कोई इसे सुनने को आते हैं, कान बन्द कर लेता है। बोल- बोलकर माँगकर चला जाएगा। इस माइक की बात कोई नहीं सुनता। इशारों की बात, इश्तहारों की भी बात नहीं सुनी लोगों ने, पर जब हमको जनता को बुलाना है, तो उसको बुलाने के लिए स्वयं ही आपको निकलना पड़ेगा, कार्यकर्ताओं को लेकर के अपने साथ- साथ कार्यकर्ता को साथ लेकर आपको चलना पड़ेगा।
शंख ध्वनि से आमंत्रण
हमारी जनता को निमंत्रित करने की शैली अलग है। कार्यकर्ता के रूप में जब आप जाएँगे, तो आपमें से हर आदमी के हाथ में एक शंख थमा दिया जाएगा। मान लीजिए, आप साठ आदमी हैं और उनमें से चालीस व्यक्ति ऐसे हैं, जिन्हें कहाँ जाना है? शाखाओं में जाना है, तो चालीसों के हाथ में शंख थमा दिया जाएगा और शंख बजाते हुए जब आप शहर के बाजार में निकलेंगे, तो देखना ताँगे वाले खड़े हो जाएँगे, रिक्शे वाले भी खड़े हो जाएँगे और कहेंगे कि अरे देखो तो सही, ये कौन आ गया? चालीस शंख बजाते हुए और पीले कपड़े पहने हुए, झंडा लिए हुए और एक नए बाबाजी के रूप में, एक नये क्रान्तिकारी के रूप में, एक नये व्याख्यानदाता के रूप में जब आप जाएँगे, तो क्रान्ति मच जाएगी। बैंडबाजे बजते हुए सबने देखे हैं, पर चालीस शंख एक साथ बजते हुए किसी ने नहीं देखे आज तक। चालीस शंख कैसे बजते हैं? आपको मालूम नहीं। चालीस शंखों की आवाज जब एक साथ बजती है, तो कान कैसे काँपते हैं, नवीनता कैसे मालूम पड़ती है? यह शैली आपको गायत्री तपोभूमि सिखाएगा। जब आप जहाँ कहीं भी जाएँ, तो स्थानीय कार्यकर्ता को ले करके चलना। छोटे- से गाँव में भी आपको सम्मेलन करना है, सभा करनी है, ये शैली तो आपको अख्तियार करनी ही पड़ेगी। यूँ मत कहना कि मैं बैठा हूँ और तू चला जा। सारी जनता को तो बुलाया नहीं, हमें क्यों बुला लिया। हमारे लिए क्यों सभा की। हम तो बेकार आ गए। अरे बेकार क्यों आ गए बाबा, तुम्हें तो काम सिखाने के लिए भेजा है, चलो हमारे साथ। आगे- आगे शंख ले करके चलना। आप गाँव के मंदिरों से, सब पंडितों के यहाँ से, सत्यनारायण कथा कहने वालों के यहाँ से, सभी संतों को जमा कर लेना और जितने भी कार्यकर्ता हैं, सबको लेकर के ही शंख बजाते हुए चलना। घंटियाँ बजाते हुए चलना।
शिविरों का क्रम
मित्रो, आपको ही चलना पड़ेगा, जनता को आमंत्रित करना पड़ेगा, यह सब आपको ही करना पड़ेगा। आप ही नाचे, आप ही गावे, मनवा ताल बजावे। तीन- चार लोग गा रहे थे, जब मैंने सुना, तो बहुत अच्छा लगा। आपको क्या करना पड़ेगा? स्टेज पर व्याख्यान भी आपको देना पड़ेगा और दीवारों पर वाक्य भी आपको लिखने पड़ेंगे। जनता को निमंत्रित करने से लेकर आपको आगे- आगे भी चलना पड़ेगा। निमंत्रण देने जाएँगे, तो भी आपको आगे- आगे चलना पड़ेगा। हमारे प्रातःकालीन शिविर बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें हमारे कार्यकर्ता, जिनकी कि लाखों की संख्या है, बना करके तैयार किये गये हैं। अब उनमें प्रेरणा भरना बाकी है, हवा भरना बाकी है। गुब्बारे बने हुए रखे हैं। हवा भरनी है, ये साइकिल के ट्यूब भी तो बने रखे हैं। ये अमुक के ट्यूब हैं। ये बढ़िया वाले ट्यूब हैं। खराबी कहीं भी नहीं आयेगी। हवा भरने वाला नहीं आया, जिसकी वजह से इनका उत्साह ठंडा पड़ गया और इनका जोश ठंडा पड़ गया। आपको इन लोगों में हवा भरनी पड़ेगी और जोश भरना पड़ेगा। शाम को तो वैसे भी तमाशबीन लोग रहते हैं, प्रातःकालीन शिविर वाले जो आपके हैं, उसमें संभव है कि प्राणवान लोग न आएँ। उसके लिए आपको स्वयं उनके पास तक जाना पड़ेगा।
जहाँ कहीं भी, जिस भी शाखा में आप जाएँगे, वहाँ पर आपको सौ- पचास आदमी जरूर ऐसे मिलेंगे, जिनके पास अखण्ड- ज्योति पत्रिका जाती होगी और युग- निर्माण पत्रिका जाती होगी। ध्यान रखना है कि ये शिविर और शाखा वहाँ हों, जहाँ पर कम- से सौ पाठक ऐसे हों, जो हमारी अखण्ड- ज्योति जरूर मँगाते हों। सौ पाठक वहाँ होंगे, जहाँ हमारी पत्रिका १०० की तादाद में भेजी जाती होगी। आप उन सौ आदमियों की लिस्ट माँगना कार्यकर्ताओं से या फिर आप गायत्री तपोभूमि चले जाना और पता करना कि कौन- कौन आदमी हैं, जो हमारी अखण्ड- ज्योति मँगाते हैं, युग निर्माण मँगाते हैं। आप उन सबके पास बजाय इसके कि तू जाना- तू जाना आप स्वयं ही जाना, वहाँ के आदमियों को लेकर के और लिस्ट पर निशान लगाते चले जाना।
जिस दिन से आपका आयोजन होगा, उससे तीन दिन पहले हम आपको भेजते हैं। पन्द्रह दिन के आयोजन रखते हैं। दस दिन के आयोजन हैं, पाँच दिन आपको फालतू के मिलते हैं। हमने आपको तैयारी के लिए भेजा है, जिससे आप दो दिन की व्यवस्था बनाकर तब आगे बढ़ें। पन्द्रह दिन का शिविर आपके लिए है। दस दिन का शिविर शाखा के लिए है। शाखा वालों को जो क्रिया- कलाप करना पड़ेगा, वह केवल १० दिन है। पन्द्रह दिन तो आपकी निभ जाए। जब भी पहुँचे, जिस दिन भी पहुँचें, वहाँ के स्थानीय कार्यकर्ताओं की लिस्ट ले करके आप निकल जाइए, पूछिए आपके पास आती है अखण्ड- ज्योति हाँ हमारे यहाँ तो आती है। आपको लेख पसन्द आते हैं? हाँ आते हैं। आप गुरुजी से सहमत हैं? हाँ साहब सहमत हैं। हम तो खुद पढ़ते हैं और दूसरों को पढ़ाते हैं। अच्छा तो यह हम गुरुजी का संदेश लेकर के आये हैं और उनसे प्रेरणा ले करके और शिक्षा लेकर आये हैं, खासतौर से आपके लिए ले करके आये हैं। इस तरह से आप इनसे कहना कि आपको हमारे प्रातःकालीन शिविरों में जरूर सम्मिलित होना चाहिए। गुरुजी ने हमें अपने सभी कार्यकर्ताओं को यह संदेश आपसे कहने भेजा है। आपको जरूर आना है। हाँ साहब, हम जरूर आयेंगे। कल हमको भी जरूर आना है। सबेरे याद रख लीजिए और देख लीजिए- इसमें से कौन- कौन आये और कौन- कौन नहीं आये। सायंकाल को आपको यदि फिर समय मिल जाए, तो जो लोग नहीं आये थे, उनके पास शाम को जा पहुँचे और कहें साहब, हम तो आपका इंतजार ही करते रहे। गुरुजी ने देखिए कहा था और हमने लाल रंग का टिकमार्क पहले ही लगा दिया था कि इनको जरूर बुलाना और देखिए आपके नाम पर टिकमार्क लगा हुआ है और आप ही नहीं आये, ये क्या हुआ? अच्छा तो कुछ काम लग गया होगा? हाँ साहब, आज तो बहुत काम लग गया था, संध्या से जुकाम हो गया था। कल तक तो जुकाम आपका अच्छा हो जाएगा, तो देखो कल जरूर आना। ये टिकमार्क- लाल स्याही का निशान हमें गुरुजी को दिखाना पड़ेगा। आप नहीं आये, तो खराब बात होगी। साहब, हम तो जरूर आयेंगे। गुरुजी से कहना कि उनके विचारों को सब सुनने को आयेंगे। कल सुबह फिर बुलाना। एक- एक आदमी आपको जरूर जमा करना पड़ेगा। यह जिम्मेदारी उठाने के लिए आप स्वयं तैयार होकर जाइये।
सभी कार्य करने हैं आपको
गुरुजी, यह कार्य तो वहाँ के कार्यकर्ता या अन्य लोग मिलकर सारी व्यवस्था कर लेंगे। यदि वे लोग कर लेते, तो मित्रो हम नहीं भेजते आपको। ये काम वो नहीं कर सकते। यह टैकनिक उनको नहीं मालूम है। यह आपको मालूम है, इसीलिए वहाँ जाकर के सबसे आगे वाली लाइन में आप खड़े हुए दिखाई पड़ेंगे। खाना बनाने से ले करके सफाई करने तक और शिविर की यज्ञशाला में पत्तियाँ लगाने से लेकर यज्ञशाला का स्वरूप बनाने तक, आपको आगे- आगे बढ़ना चाहिए। आपने यह कह दिया। अरे यार, यह कैसा कुंड बना, दिया ऐसे बनते हैं कहीं। तुम तो कैसे कह रहे थे- हम शाखा चलाते हैं। ये तुमने कुंड बना दिया और वेदी बना दी, ये भी कोई तरीका है। ऐसे भी कहीं कुंड बनते हैं क्या? कुंड ऐसे बनने चाहिए थे। तो आप कहाँ चले गये थे? हम तो साहब वहाँ बैठे थे, अख़बार पढ़ रहे थे। अखबार पढ़ने के लिए आये थे या सामाजिक सहायता करने के लिए आए थे। आपको हम विशुद्ध रूप से कार्यकर्ता बना करके भेजते हैं, नेता बनाकर नहीं। नेता हम आपको नहीं बना सकते। किसी को भी हम नेता बनाकर नहीं भेजेंगे। हर आदमी को कार्यकर्ता ‘सिन्सियर वालन्टियर’ बना करके भेजेंगे। उस आदमी को भेजेंगे, जो काम करने के लिए स्वयं आगे- आगे बढ़े और दूसरों को साथ लेकर चले। आपका व्यक्तित्व अलग नहीं होना चाहिए।
नियत दिनचर्या हो
आपकी सबेरे से लेकर सायंकाल तक की दिनचर्या जो होनी चाहिए, ऐसी होनी चाहिए, जिससे कि दूसरा आदमी अपनी दिनचर्या को सही कहे। आपके सोने का समय, उठने का समय और जगने का समय क्रमबद्ध होना चाहिए। प्रातःकाल आपको देर से नहीं उठना चाहिए। संध्या आप करते हैं कि नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन नहीं करते, तो भी आपको करना चाहिए। यहाँ आपने कितना भजन किया या नहीं किया, आप जानें, आपका काम जाने, पर वहाँ जहाँ कही भी हम भेजते हैं, हम इसलिए भेजते हैं कि हर आदमी को हम उपासक बनाएँगे और गायत्री की उपासना सिखाएँगे और निष्ठा करना सिखाएँगे। अगर आपकी देखा- देखी यही ढीलम- पोल कार्यकर्ताओं में भी चालू हो गई हो, तो फिर सब काम बिगड़ जाएगा। अतः आप उपासना निष्ठापूर्वक करना, चाहे आप आधा घंटा ही करना, पर नियमपूर्वक जरूर करना। भूलना मत कभी। अगर कभी आपने ऐसा करना शुरू कर दिया कि आप साढ़े आठ बजे उठे और बहाना बना दिया कि साहब आज तो रात को देर हो गयी थी और साहब आपके यहाँ तो जगह भी नहीं है। आपके यहाँ हवा अच्छी नहीं है, यहाँ तो कोई बैठने को स्थान मिला नहीं, हम तो एकान्त में भजन करते हैं, गुफा में करते हैं। आपके यहाँ तो गुफा भी नहीं, एकान्त भी नहीं, तो हम यहाँ कहाँ भजन करेंगे। यह गलती मत करना। गुफा मिलती है, तो मुबारक, एकान्त मिलता है, तो मुबारक और चौराहा मिलता है, तो मुबारक और छत मिलता है, तो मुबारक। जहाँ कहीं भी आपको ठहरा दिया गया- धर्मशाला में ठहरा दिया गया है, तो आपको निष्ठावान व्यक्ति की तरह रहना और उपासना करनी चाहिए।
स्वच्छता का रखें ध्यान
मित्रो, आपको इस बात का ध्यान रखकर चलना चाहिए कि आपको थैलों के थैलों और बक्सों के बक्सों कपड़े लेकर नहीं जाना चाहिए। आप ढेरों के ढेरों धोती- कुर्ता लेकर नहीं जा रहे हैं। आप जहाँ कहीं भी जाने वाले हैं, वहाँ आपको वही एक दो धोती लेकर जाना होगा और एक- दो कपड़े लेकर जाना होगा। अगर आप कहीं अपना तरीका- वह तरीका जो घर में बरतते थे, मैला कपड़ा है, तो मैला ही पहने हैं, फटा है, तो फटा ही पहने हैं। इसको आप भूलना मत, शरीर को भी स्नान कराना और कपड़े को भी स्नान कराना। कपड़ा कौन है? चुगलखोर। ये हर आदमी की हैसियत को, हर आदमी के स्वभाव को और आदमी के रहन- सहन को बता देता है। ये आदमी कौन है? आप गरीब हैं, सस्ता कपड़ा पहने हैं कोई हर्ज नहीं। आपका कपड़ा फट गया हो, तो भी कोई बात नहीं। साबुन आप साथ रखना और सुई- धागा अपने साथ रखना। बटन टूट गया हो तो, आप लगाकर रखना ठीक तरह से। करीने से कपड़े पहनना, आपका कपड़ा मैला नहीं होना चाहिए। मैला कपड़ा पहनकर आप अपने व्यक्तित्व को गँवा बैठेंगे। फिर आप रेशम का कपड़ा ही क्यों न पहने हों और टेरेलीन का कपड़ा क्यों न पहने हों, आपकी बेइज्जती हो जाएगी और आप बेकार के आदमी हो जायेंगे। आपका शरीर सफाई से रहे, आपके सब कपड़े सफाई से रहें। आप वहाँ- जहाँ कहीं भी जाएँ, आप भले ही अमीर आदमी न हों, बड़े आदमी न हों, लेकिन आपको मैले- कुचैले नहीं रहना चाहिये। मैला कुचैला वह आदमी नहीं रह सकता, जो शरीर को स्नान कराता है। कपड़ों को भी रोज स्नान कराइए और कपड़ों को रोज धोइए।
पीला कपड़ा शान से पहनें
आपको ये मैं छोटी बातें बता रहा हूँ, लेकिन हैं ये बड़ी कीमती और बड़ी वजनदार। सायंकाल को जब आप सोया करें, तो अपने कुर्ते को तह करके अपने तकिए के नीचे लगा लिया करिए और तब सोया कीजिए। सबेरे आपका कुर्ता प्रेस किया हुआ और आयरन किया हुआ ऐसा भकाभक मिलेगा कि आप कहेंगे वाह भाई वाह, कैसा बढ़िया वाला प्रेस हुआ। वानप्रस्थ की पोशाक हमने पहनाई है। इसको आप ऐसे मत करना, अपनी शर्म की बात मत बनाना। शर्म की बात नहीं, आप वानप्रस्थ के कपड़े को अपनी बेइज्जती मत समझना, हम पीला वाला कपड़ा पहनकर जाएँगे, तो लोग हमें भिखारी समझेंगे और हम बाबाजी समझे जाएँगे, जबकि हम तो नम्बरदार हैं, हम तो जमींदार हैं और देखो हम बाबाजी कहाँ हैं? ठीक है हम इस पीले कपड़े की इज्जत बनायेंगे। जैसे कि लोगों ने बिगाड़ी, हम बनाएँगे इज्जत। किसकी बनायेंगे? पीले कपड़े की बनायेंगे। इसलिए पीले कपड़े को आप छोड़ना मत। रेलगाड़ी में जाएँ, तो भी आप पीला कपड़ा पहनकर जाना। लोग- बाग आपसे कहना शुरू करेंगे कि ये बाबाजी लोगों ने सत्यानाश कर दिया। ये छप्पन लाख बाबाजी हराम की रोटी खा- खाकर कैसे मोटे हो गये हैं? ये फोकट का माँगते हैं रोज और नम्बर दो वाला पैसा, ब्लैक वाला पैसा खा- खाकर कैसे मुस्टन्डे हो गये हैं। याद रखिए, आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, जो देखेगा यही कहेगा कि ये देखो ये बाबाजी बैठे हैं। इन लोगों को शरम नहीं आती है। तब आप क्या करना? डरना मत उससे। उसकी गलती नहीं है? आप उसको समझाना कि हम बाबाजी कैसे हैं और हमारे बाबाजी का सम्प्रदाय कौन- सा है? और हमारा गुरु कैसा है? और हमको जो काम करना है- वह क्या है? और हम किस तरीके से हैं?
इस बार का कुम्भ
मित्रो! लोगों की निष्ठाएँ ब्राह्मण के प्रति कम हो गई हैं और जो रही बची हैं, वह और खत्म हो जाएँगी। लोगों की निष्ठाएँ साधु पर से भी खत्म हो गई हैं और जो रही- सही बची हैं, तो और खत्म हो जाएँगी। अबकी बार मुझे कुंभ के मेले में इतनी खुशी हुई कि मेरे बराबर कोई भी नहीं। कुंभ के मेले को देखकर मैं भाव विभोर हो गया। एक बार मैं इलाहाबाद गया था, तो मैंने क्या देखा था? उसी साल ऐसा हुआ था कि रेलों के नीचे- पाँव के नीचे छह- सात सौ आदमी कुचलकर मर गये थे। उस साल मैं कुंभ में था। उसके बाद मैं गया नहीं। अबकी बार मैं यहाँ हूँ। अबकी बार तो मुझे बड़ी भारी प्रसन्नता है कि लोगों ने आने से इनकार कर दिया और यह सही काम किया। इस तरीके से जहाँ लोग इकट्ठे होते थे, सन्त और महात्मा इकट्ठे होते थे, सन्त और महात्मा इकट्ठे होने के बाद सम्मेलन करते थे और सम्मेलन के पश्चात् वाजपेय यज्ञ करते थे, इन मौकों के द्वारा यह किया करते थे कि किस तरह से हमको देश का निर्माण करना चाहिए। समाज की गुत्थियों को हल कैसे करना है और व्यक्ति की नैतिक कठिनाइयों का समाधान कैसे करना है? वे सारी- की शिक्षाओं को देने के लिए कुंभ में चले आते थे।
परंतु अब देखा ना आपने, क्या- क्या हो रहा है? कहीं रास हो रहा है, कहीं क्या हो रहा है? जनता को आकर्षित करने के लिए, जैसे कठपुतली वाले तमाशा करने के लिए जो ढोंग किया करते हैं, वे इस तरीके से किया करते हैं। न कोई सम्मेलन की बात है, इनके पास न कोई ज्ञान है, न कोई दिशा है, न विचार है। लोगों को घृणा होगी और होनी चाहिए। मुझे बहुत प्रसन्नता है कि लोगों में नफरत होती चली जा रही है और घृणा उत्पन्न होती चली जा रही है और बाबाजी के दर्शन करने से इनकार करता हुआ आदमी चला जाता है। वे लोग अपने घर में कम्बल पहनकर सोते हैं और लिहाफ ओढ़कर सोते हैं और जब बाजार में होकर स्नान करने के लिए निकलते हैं, तो लंगोटी खोलकर निकलते हैं। मुझे बहुत शरम आती है। मुझे बहुत दुःख होता है। ठीक है, आप कपड़ों को उतारने वाले महात्मा हैं, तो आप जंगल में जाइये और वहाँ रहिए। वहाँ आप झोपड़ी डालिए और गंगाजी में स्नान कीजिए। गाँव से आप बाहर रहिये। जहाँ हमारी लड़कियाँ घूमती हैं, जहाँ हमारी बेटियाँ घूमती हैं, जहाँ हमारी बहुएँ घूमती हैं, जहाँ हमारे बच्चे घूमते हैं, वहाँ आप मत जाइए। यदि आप नागा बाबाजी हैं, तो आप दुनिया को क्या संदेश देने चले हैं?
हरिद्वार में गंगा विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई है, परंतु नहीं साहब, हम तो हर की पौड़ी में ही स्नान करेंगे। अरे बाबा, हरिद्वार की हर की पौड़ी भी तो किसी काम की नहीं है। यह तो हमारे लिए किसी ने खोदकर नहर निकाल दी है। यह तो एक नहर है। आप मालूम कर लीजिए हर की पौड़ी एक नहर है। यह क्या? हर की पौड़ी तो गंगाजी है। गंगाजी तो है, पर खोदकर लाई गई है। गंगाजी में आपको नहाना है, तो आप वहाँ जाइये- नीलधारा पर नहाइये। यह गंगाजी नहीं है। यह मनुष्यों की बनाई हुई नहर है। नहीं साहब, हम तो ब्रह्मकुण्ड में नहाएँगे, हम तो यहीं नहाएँगे। हम तो ये करेंगे और हम तो नंगे होकर नहाएँगे। इस तरह के लोगों के दर्शन करने को अब आदमी नहीं जाता है। मुझे बहुत खुशी है कि लोगों ने इस साल कुंभ में आने से इनकार कर दिया और मैं भगवान् से प्रार्थना करूँगा कि अगले वर्ष भी वे यहाँ न आयें। इसमें सफाई कर्मचारियों के अलावा, पुलिस वालों के अलावा और बाबाजियों के अलावा, तीसरा कोई जनता न आवे। तीन आदमी आ जाएँ। बस, काम बन जाएगा। लोग क्यों आने चाहिए? और क्यों पैसा खराब करना चाहिए? इनको किस काम के लिए पैसा खराब करना चाहिए? छह तारीख को आप नहाएँगे, तो बैकुंठ को जाएँगे। हर की पौड़ी के ब्रह्मकुंड में नहाकर के आप बैकुंठ को जाएँगे? यह बहम जिनके दिल के ऊपर सवार है, उनकी तादाद खत्म होनी चाहिए। जिनको यह बहम हो गया है कि छह तारीख को न नहाने से बैकुंठ नहीं जाएँगे और हर की पौड़ी के कुंड पर नहा लेंगे, तो सीधे बैकुंठ को जाएँगे और वहाँ सड़कों पर नहा लेंगे तो नरक को जाएँगे। इस तरह की मनोवृत्ति जितनी लोगों में कम होती चली जाएगी, धर्म की उतनी ही सेवा होती जाएगी।
गाली खाने के लिए तैयार रहें
इसलिए मित्रो क्या हो गया? लोगों में पंडितों के प्रति, संतों के प्रति, साधुओं के प्रति, हरेक के प्रति अवज्ञा का भाव उत्पन्न हो गया है और वे भाव हमने पैदा किये हैं। हम पुनः आस्था की स्थापना करेंगे। साधु के गौरव को हम फिर जिन्दा करेंगे, ब्राह्मण के गौरव को हम फिर जिन्दा करेंगे कि साधु और ब्राह्मण अपनी जिन्दगी किस तरीके से खपा देते थे। समाज के लिए, समाज को ऊँचा उठाने के लिए और धर्म की ऊँचा उठाने के लिए। ऋषियों की निष्ठा को ऊँचा उठाने के लिए किस तरह से वे अपने आपके लिए तबाही मोल लेते थे और किस तरीके से गरीबी मोल लेते थे? कि तरीके से कष्ट उठाते थे? इसे हमको जिन्दा करना है। इसलिए आप पीला कपड़ा जरूर पहनना, जिससे कि लोगों को बहस करने का मौका मिले और आपको गालियाँ खाने का मौका मिले। गालियाँ आपको खानी चाहिए, मैं तो कहता हूँ कि जिस आदमी को गालियाँ नहीं मिलीं, वह हमारा चेला नहीं हो सकता। गाँधीजी के शिष्य जितने भी थे उनको गालियाँ खानी पड़ी और आचार्य जी के चेलों को गालियाँ खानी चाहिए। गोलियाँ खाने को तैयार हो जाइये। नहीं साहब, गोली तो हम नहीं खाएँगे। ठीक है, आप गोली मत खाइये। तो क्या गाली खाएँ। गाली खाने से क्या एतराज है आपको? गाली तो खाइए ही।
आप पीले कपड़े पहन लेना और रेलगाड़ी के थर्ड क्लास के डिब्बे में बैठ जाना। हर आदमी गाली देगा आपको और कहेगा कि देखो बाबाजी बैठा हुआ है। यह देखो फोकट का माल खाने वाला बाबाजी बैठा हुआ है। यह हरामखोर बाबाजी बैठा हुआ है। चालाक बाबाजी बैठा हुआ है, यह ढोंगी बाबाजी बैठा हुआ है। उन सबकी गाली आपको नहीं पड़नी चाहिए क्या? गाली आपको पड़नी चाहिए; क्योंकि लोगों ने इस तरीके से हमारे धर्म को, अध्यात्म को और भगवान को, ईश्वर को और सन्तवाद को बदनाम किया है। उसका प्रायश्चित हमें तो करना पड़ेगा ही। आखिर उनके वंश के तो हमीं लोग हैं ना? उनकी परम्परा के अनुयायी हमीं लोग तो हैं ना? उनकी औलाद तो हमीं लोग हैं ना? उनकी जिम्मेदारी हमीं लोग तो उठाने वाले हैं। ऋषियों के गौरव, ऋषियों के यश का लाभ हमीं लोग तो उठा सकते हैं। तो फिर हमारे जो मध्यकाल में ऋषि हुए हैं, उनके बदले की गाली कौन उठाएगा? गाली हमको खानी चाहिए। इसलिए पीला कपड़ा, आप उतारना मत। जहाँ कहीं भी जाएँ, वहाँ रंग का डिब्बा साथ लेकर जाएँ। यह मत कहना यहाँ तो रंग मिलता नहीं। यह हमारी शान है, यह हमारी इज्जत है। यह हमारी हर तरह की साधु और ब्राह्मण की परम्परा- का उस समय की निशानी है, कुल की निशानी है। पीले कपड़े पहन करके जहाँ कहीं भी जाएँगे लोगों को मालूम पड़ेगा कि ये कौन हैं? ये उस मिशन के आदमी हैं, युग निर्माण योजना के आदमी हैं, गायत्री परिवार के आदमी हैं। युग निर्माण के आदमी कौन? जो संतों की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर बाँधकर खड़े हो गये, जो ब्राह्मण की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर कसकर खड़े हो गये हैं। जिन्होंने जीवन का यह व्रत लिया है कि हम श्रेष्ठ व्यक्तियों के तरीके से भले मनुष्यों के तरीके से- शरीफ आदमियों के तरीके से और अध्यात्मवादियों के तरीके से जिन्दगी यापन करेंगे। आपके बोलने की शैली, चलने की शैली और काम करने की शैली जब लोग देखेंगे, तो समझेंगे कि साधु घृणा करने का पात्र नहीं है। साधु नफरत करने की निशानी नहीं है। साधु हरामखोर का नाम नहीं है। साधु फोकट में मुक्ति माँगने वाले का नाम नहीं है, बल्कि परिश्रम करके और कीमत चुकाकर जीवनयापन करने वाले का नाम है। स्वयं मुक्ति पाने के लिए नहीं, बल्कि बंधनों से सारे समाज को मुक्ति दिलाने वाले का नाम ही साधु है। ये बातें जब लोगों को मालूम पड़ेंगी, तो परिभाषाएँ बदल जाएँगी, सोचने का तरीका बदल जाएगा। लोगों की आँखों में जो खून खौल रहा है, लोगों की आँखों में जो गुस्सा छाया हुआ है, वह खून खोलने वाली बात, गुस्सा छाने वाली बात से राहत मिलेगी।
मित्रो, अब ये जड़ें खत्म होने जा रही हैं और अध्यात्म बढ़ता हुआ चला जा रहा है। उसकी नींव मजबूत होने का फायदा फिर आपको मिल सकता है। आपको अपने इन्स्टीट्यूशन को मजबूत करने के लिए और मिशन की जानकारी अधिक से अधिक लोगों को कराने के लिए इन पीले वस्त्रों को प्यार करना होगा। जब तक आपको मिशन में जाना है, क्षेत्रों में जाना है, तब तक इन पीले कपड़ों को उतारना मत।
अच्छे काम में शरम कैसी
अच्छे काम के लिए, अच्छा काम करने के लिए शरम की जरूरत नहीं है। आपको खराब काम, बुरे काम करने की जरूरत हो, तो बात अलग है। अच्छा काम गाँधीजी ने शुरु किया था। तब चरखा को बुरा समझा जाता था। चरखा विधवाओं की निशानी समझा जाता था, लेकिन गाँधीजी ने जब से चरखा चलाना शुरू कर दिया, देशभक्तों की निशानी बन गई और वह काँग्रेस वालों की निशानी बन गई। हमें इस पीले कपड़े को चरखे की तरह समझना चाहिए। हम इसका गौरव बढ़ाएँगे और हम संत और महात्माओं की निष्ठा- आस्था को फिर मजबूत करेंगे, जो घटती चली जा रही है और हवा में गायब होती चली जा रही है। हमारे क्रिया- कलाप और हमारे वस्त्र- दोनों का तालमेल मिला करके जब हम कार्यक्षेत्र में चलने के लिए तैयार होंगे, तो फिर क्यों हम उन परम्पराओं को जाग्रत करने में- जीवित करने में समर्थ न होंगे? जिसको ऋषियों ने हजारों और लाखों के खून से सींचकर के बनाया था, उसको जिन्दा रखा था।
पैसे की पारदर्शिता
आपको वहाँ जहाँ- कहीं भी जाना है, एक आदर्श व्यक्ति की तरह से जाना है। आपको कन्याओं में भी काम करना पड़ेगा, आपको लड़कियों में भी काम करना पड़ेगा। और महिलाओं में काम करना पड़ेगा। आप जहाँ कहीं भी जाएँ— दो बातों का ख्याल रखना। एक बात तो पैसे के बारे में है। उससे अपने हाथ बिलकुल साफ रखना। जहाँ कहीं भी आपको पैसे चढ़ाने का मौका आए, आरती का मौका आए, पूजा का मौका आए, कोई भी पैसा आता हो, वहाँ आप लेना मत। आप चाहें कि इकट्ठा दस हजार जेब में भरते जाएँ और कहें कि अरे साहब! ये पूजा की आरती में पैसे आये थे। ऐसा मत करना आप। यद्यपि यह सब करने का मौका मिलेगा। आप वहीं के लोगों को बुलाना और देखना कोई पैसे आते हैं, चढ़ावे में आते हैं, सामने रखे जाते हैं। कोई चवन्नी चढ़ा जाती है लड़की, कोई अठन्नी चढ़ा जाती है। इस तरह पैसे का हिसाब बढ़ता चला जाएगा। इनको आप उसमें रखना, जमा करना। आप पैसे के बारे में हाथ साफ रखना। आपको शाखा जो कुछ भी दे वह किराये- भाड़े के रूप में कहीं भी जमा रखना। किराया आपको जो कुछ भी लेना हो, अपना खर्च वहीं से लेना। बाहर के लोगों से आप ये शिकायत न करना कि हमें साबुन की जरूरत है, कपड़े की जरूरत है और हमको वो वाली चीज चाहिए, हमको फलानी चीज चाहिए। कोई लाकर दे दे साबुन तो बात अलग है, लेकिन अगर आपको न दे तो आप अपने पैसे से ले लेना। नहीं तो वहाँ के आदमी से माँग लेना, लेकिन वहाँ के लोगों का कोई दान- दक्षिणा का पैसा आप मंजूर मत करना।
दान व्यक्तिगत नहीं है
आपको हमने संत बनाया है, लेकिन दान- दक्षिणा का पैसा वसूल करने का अधिकारी नहीं बनाया है। व्यक्तिगत रूप से दान- दक्षिणा लेने का अधिकार बहुत थोड़े आदमियों को होता है। उन्हीं को होता है, जिनके पास अपनी कोई सम्पत्ति, अपना कोई धन नहीं होता। उस आदमी को भी दान- दक्षिणा लेने का अधिकार है, जिसने सारा जीवन समाज के लिए समर्पित कर दिया है और अपने घर की सम्पदा को पहले खत्म कर दिया है और अपने घर की सम्पदा के नाम पर उसके पास कोई पैसा जमा नहीं है। तब उस आदमी को हक हो जाता है कि लोगों से अपने शरीर निर्वाह करने के लिए पैसा ले। शरीर के निर्वाह करने के लिए रोटी ले। आपको मालूम होगा- अखण्ड ज्योति कार्यालय से गायत्री तपोभूमि प्रतिदिन दो बार आना- जाना होता था। भोजन अखण्ड ज्योति जाकर ही करते थे। यदि कभी तपोभूमि में देर तक रुकना पड़ता था, तो भोजन अखण्ड ज्योति संस्थान से मँगा लेते थे और वहाँ बैठकर खाते थे। आपको मालूम है कि नहीं, हमें ज्ञान नहीं। हमारे पास जमीन थी उस वक्त तक। इसीलिए जमीन जब तक हमारी थी, हमें क्या हक था कि हम अस्सी बीघे जमीन से अपना गुजारा न करें और गायत्री तपोभूमि के पैसे से हम कपड़े पहनें और रोटी लें। लोगों ने हमको धोतियाँ दीं, कपड़े हमको दिए और कहा कि गुरुजी के लिए लाए हैं। गुरु- दक्षिणा में लाए हैं। आपके लाने के लिए बहुत धन्यवाद, बहुत एहसान। सारे के सारे बक्से में बन्द करते चले गये। सारे कपड़ों को तपोभूमि में भिजवा दिया। जहाँ कार्यकर्ता रहते थे, दूसरे लोग रहते थे, हरेक को हमने दे दिया। अच्छा भाई लो, किसकी धोती फट गई। हमारी फट गई धोती, इनको देना। इसके पास नहीं है। उनके पास नहीं है। अच्छा खोल दो बक्सा मेरा; क्योंकि वे अपना घर छोड़ करके आ गये थे। उनके पास जीविका नहीं थी। इसलिए उन्हें खाने का अधिकार था। हमको नहीं था अधिकार, हमने नहीं खाया। जब तक हम गायत्री तपोभूमि में रहे हमने रोटी नहीं खाई, लेकिन जब हम अपनी अस्सी बीघे जमीन दे करके और भी हमारे पास जो कुछ था, दे करके खाली हाथ हो करके आ गये, हम अपना केवल शरीर और वजन ले करके आ गये, तो हमने यह मंजूर कर लिया है और हम यहाँ शान्तिकुञ्ज के चौके में रोटी खाते हैं और कपड़े पहनते हैं।
मित्रो! दान- दक्षिणा की, रोटी खाने का और कपड़े पहनने का अधिकार सिर्फ उस आदमी को है, जिसने अपनी व्यक्तिगत सम्पदा को समाप्त कर दिया है। जब तक आदमी अपनी व्यक्तिगत सम्पदा को समाप्त नहीं कर देता। कहीं गया है ठीक है, मेहनत की तरह से रोटी खा ले बस। आपके पास पैसा आता है, तो आप संस्था में जमा करना। पैसे के मामले में कहीं आप यह करके मत आना कि लोग आपके बारे में ये कहने लगें कि गुरुजी के चेले पैसे के बारे में चोरी का भाव लेकर के आते हैं, भिक्षा माँगने का भाव लेकर आते हैं। यह ख्याल ले करके मत आना। यह बदनामी है आपकी, हमारी और हमारे मिशन की।
जनसम्पर्क संबंधी अनुशासन
एक और बात आप करना मत। क्या मत करना? आपको हमने महिलाओं में, लड़कियों में मिला दिया है। हमने हवन- कुण्डों पर हवन करने के लिए लड़कियों को, स्त्रियों को शामिल करने की जिम्मेदारी उठा ली है। हमने एक बड़ा काम कर डाला। बड़ा दुस्साहस का काम कर डाला। आप समझते नहीं कितनी बड़ी जिम्मेदारी हमने उठा ली है। उस जिम्मेदारी की शरम रखना आपके जिम्मे है। लड़कियाँ आई हैं। सम्मान के साथ काम करेंगी। अमुक काम करेंगी। लड़कियाँ आई हैं- अपने कंधों पर सिर पर कलश के घड़े ले करके चलेंगी। आपके पास आएँगी और परिक्रमा लगाएँगी और जय बोलेंगी। कोई आपके लिए क्या कहेंगी और कोई हवन करने के लिए कहेंगी। आप हमेशा दो बातों का ध्यान रखना कि अकेले किसी लड़की से बात मत करना। जब कभी कोई अकेली लड़की, अकेली महिला आती हो, तो चुप हो जाना और आवाज देकर दूसरों को बुला लेना। किसी मर्द को बुला लेना या किसी महिला को बुला लेना। अकेले बात मत करना कभी। कभी कोई अकेली स्त्री आये और आपसे कोई बात करना चाहती हो या अकेली बात करती हो, तो आप कहना बहिन जी आप अपने बाप को, बहिन को लिवा लाइये और अपने भाई को लिवा लाइये। वह यहाँ आ करके बैठ जाएँ या फिर हम अपने बाबाजी को बुला लेते हैं। अकेली स्त्री से कभी भी बात मत करना। आप पर मैं यह प्रतिबन्ध लगाता हूँ। अकेले मत बात करना। किसी मर्द के बिना बात मत करना। यह प्रतिबन्ध नम्बर एक हुआ।
बन्धन नम्बर दो। कन्याओं से और लड़कियों से बात करते हुए आपको ईसाई मिशन वाली बात याद रखनी चाहिए। ‘नन’ जो होती हैं, ईसाई मिशन का काम करती हैं। उनको ऐसी शिक्षा दे दी जाती है कि वे महिला में, महिला समाज में काम करती हैं। उनको आपने देखा होगा। नर्सों के रूप में जो काम करती हैं, महिलाओं में काम करती हैं, उनको नर्स कहते हैं। जो पादरी होती हैं, उनको नन कहते हैं। ननें टोपा- सा पहने रहती हैं। शायद कभी आपने देखा हो। ननों को एक खास शिक्षा दी जाती है कि कभी भी मर्दों से आँख- से मिलाकर बात नहीं करनी चाहिए। मर्दों के सामने बात करें, तो काम की बात करें। समझाइए ये बात कीजिए, वो बात कीजिए, पर आँख से आँख मत मिलाइये। आँखें नीची रख करके महिलाओं से आप भी बातें करें। आपको भी यही शिक्षा दी जाती है। आपको भी ये शिक्षा दी जाती है कि महिला समाज में जहाँ कहीं भी आपको रहना पड़े, आँख से आँख मिलाइए मत, आँखें नीची करके बात कीजिए। नीचे आँख करके बात करेंगे, तो आपका गौरव, आपका सम्मान, आपकी इज्जत बराबर बनी रहेगी। गंभीर हो करके आप कीजिए बात। जोरों से कीजिए बात। दोस्तों से विशिष्ट बात मत कीजिए। जो भी कह रहे हैं, उसे जोर से कहिए। ऐसे कहिए मानो दूसरों को कम सुनाई पड़ता है। कम सुनने वाला आदमी कैसे बोलता है? सोचता है इन सबको कम सुनाई पड़ता है। धोती मँगा दीजिए। अरे हमारे तो कान अच्छे हैं। आप ये समझ रहे हैं, महिला समाज में जब आपको काम करना पड़े, तो आप क्या कहेंगे। आप यह समझना कि हमारे कान बहरे हो गये हैं। जोर से कह लड़की, क्या कहती है। जो कहना हो वह भी जोर- जोर से कहना। आप इन बातों को ध्यान रखना। ये बातें काम की हैं। हैं तो राई की नोक की बराबर, लेकिन आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, शालीन आदमी हो करके जाएँगे, श्रेष्ठ आदमी हो करके जाएँगे। आप अपनी संस्था के गौरव को अक्षुण्ण रखने में समर्थ हो सकेंगे।
परीक्षा की घड़ी
जब मैं आपको यहाँ से भेजता हूँ। कहाँ भेजता हूँ? आपने अपनी कन्या के हाथ पीले कर दिए। मैंने किसके पीले हाथ कर दिए? आप लोगों के पीले हाथ किये हैं। कपड़े मैंने पहना दिये हैं, पीले हाथ कर दिये हैं, अब आपकी जिम्मेदारी है। अब आपका इम्तिहान लिया जाने वाला है और आपकी यह परख होने वाली है कि ये जो बहू आई है, कैसी है और बहू को क्या- क्या बनाना आता है। रोटी बनानी आती है बहू को, नहीं। बहू को पकौड़ी बनानी आती है कि नहीं। उसके सास, ससुर बैठे हैं। अरे ये बहू आई है, बहू के हाथ से पूड़ी तो बनवाकर खिलवाओ, बहू के हाथ से कचौड़ी, तो बनवाकर खिलवाओ। सब बैठे हुए हैं, सारा घर बैठा हुआ है और देखिए बहू आती है और कैसे पकौड़ी बनाती है, कैसे पकौड़ी बनाकर खिलाती है? आप पीले कपड़े पहन करके और अपने पीले हाथ करा करके अपनी ससुराल चले जाना। वहाँ इस तरह से काम करके आना, इस तरह का व्यवहार करके आना कि आपका समधी कहे, आपकी जिठानी कहे, देवरानी भी कहे, सारा गाँव ये कहे कि ये लड़की क्या है! बड़े खानदान की इज्जत को रखना और बहू को असली इज्जत को रखना आप अपनी ससुराल में।
याद रखिए आप वह नाम कमा करके आना कि लोग हमसे बार- बार यही कहें कि पिछली बार जिन मोहनलाल जी को आपने भेजा था, इस बार भी आप उन्हीं को भेजना गुरुजी। अबकी बार फिर हमने सम्मेलन किया है और हमारे लिए तो मोहनलाल जी को ही भेज दीजिए। बेटा, मोहनलाल जी को नहीं अबकी बार तो मक्खनलाल जी को भेजेंगे, पिछली बार मोहनलाल जी को भेजा था। मोहनलाल जी से इक्कीस ही भेज रहे हैं उन्नीस नहीं हैं। अरे गुरुजी, उन्हीं को भेज देते तो अच्छा रहता। लोग याद करें आपको, ऐसी आप निशानियाँ छोड़ करके आना- अपने स्वभाव की, अपने कर्म की, अपने गौरव की और अपनी विशेषताओं की। गौरव की बात छोड़ करके आये, तो मित्रो, धन्य हो जाएगा आपका वानप्रस्थ, धन्य हो जाएगा हमारा यह शिविर। धन्य हो जाएँगे आपके वे क्रियाकलाप, जिनके लिए सारे भारतवर्ष में भ्रमण करने के लिए, लोगों में जागृति लाने के लिए, लोगों में भावना पैदा करने के लिए, लोगों में भगवान् के प्रति निष्ठा जगाने के लिए, अध्यात्मवाद की स्थापना करने के लिए, आत्मा का विकास करने के लिए और धार्मिकता की स्थापना करने के लिए आपको भेजते हैं। आपको इन्हीं तीन उद्देश्यों के लिए भेजते हैं। आप साधना करके आना और हमारी लाज रखके आना।
आज की बात समाप्त हुई।
॥ॐ शान्ति॥
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ बोलिए-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मजबूत ठप्पे बनिए
देवियो, भाइयो! जो कार्य और उत्तरदायित्व आपके जिम्मे सौंपा गया है, वह यह है कि दीपक से दीपक को आप जलाएँ। बुझे हुए दीपक से दीपक नहीं जलाया जा सकता। एक दीपक से दूसरा दीपक जलाना हो, तो पहले हमको जलना पड़ेगा, इसके बाद में दूसरा दीपक जलाया जा सकेगा। आप स्वयं ज्वलंत दीपक के तरीके से अगर बनने में समर्थ हो सकें, तो हमारी वह सारी- की आकांक्षा और मनोकामना और महत्त्वाकाँक्षाएँ पूरी हो जाएँगी, जिसको लेकर के हम चले हैं और यह मिशन चलाया है और हमने आपको यह कष्ट दिया है और बुलाया है। आपका सारा ध्यान यहीं इकट्ठा होना चाहिए कि क्या हम अपने आपको एक मजबूत ठप्पे के रूप में बनाने में समर्थ हो गए? गीली मिट्टी को आप लाना। ठप्पे पर ठोंकना, तख्ते पर लगाना- वह वैसे ही बनता हुआ चला जाएगा, जैसे हमारे ये खिलौने बनते हुए चले जाते हैं। हमें खिलौने बनाने हैं। खिलौने बनाने के लिए हमने साँचे और ठप्पे मँगाए हुए हैं। साँचे में मिट्टी लगा देते हैं और एक नया खिलौना बन जाता है। एक नए शंकर जी बन जाते हैं। एक नए गणेश जी बन जाते हैं। ढेरों के ढेरों श्रीकृष्ण और शंकर जी बनते जा रहे हैं। कब? जब हमारे पास छापने के लिए ठप्पे हों और साँचा हों। साँचा अगर आपके पास सही न होता, तो न कोई खिलौना बन सकता था, न कोई और चीज बन सकती थी।
मित्रो! हमको जो सबसे महत्त्वपूर्ण काम मानकर चलना है, वह यह कि हमारा व्यक्तित्व किस प्रकार का हो? न केवल हमारे विचारों का वरन, हमारे क्रिया- कलापों का भी। आपके मन में कोई चीज है, आप मन से बहुत अच्छे आदमी हैं, मन से आप शरीफ आदमी हैं, मन से आप सज्जन आदमी हैं, मन से आप ईमानदार आदमी है, लेकिन आपका क्रिया- कलाप और आपका लोक- व्यवहार उस तरह का नहीं है, जिस तरह का शरीफों का और सज्जनों का होता है। तो बाहर वाले लोगों को कैसे मालूम पड़ेगा कि आप जिस मिशन को लेकर चले हैं, उस मिशन को पूरा करने में आप समर्थ होंगे कि नहीं? मिशन को आप समर्थ बना सकते हैं कि नहीं? आपके विचारों की झाँकी आपके व्यवहार से भी होनी चाहिए। व्यवहार आपका इस तरह का न होगा, तो मित्र लोगों को यह पता लगाने में, अंदाज लगाने में मुश्किल हो जाएगा कि आपके विचार क्या हैं और सिद्धान्त क्या हैं? जो विचार और सिद्धान्त आपको दिए गए थे, वो आपने अपने जीवन में धारण कर लिए हैं कि नहीं किए हैं। आपको ये बातें मालूम होनी चाहिए। जहाँ कहीं भी आप जाएँगे, आपको अपने नमूने का आदमी बनकर के जाना है।
नमूना बनिए
नमूने का उपदेशक कैसा होना चाहिए? नमूने का गुरु कैसा होना चाहिए? नमूने का साधु कैसा होना चाहिए? नमूने का ब्राह्मण कैसा होना चाहिए और गुरुजी का शिष्य कैसा होना चाहिए? ये सारी की सारी जिम्मेदारियाँ हमने अनायास ही नहीं लाद दी हैं- आप पर। आपको बोलना न आता हो, तो कोई शिकायत नहीं हमें आपसे। आपको बोलना न आए, लेक्चर देना न आए, जो प्वाइंट्स और जो नोट्स आपने यहाँ लिए हैं, उन्हीं को जरा ‘फेयर’ कर लेना और अपनी कापी को लेकर के चले जाना। कहना गुरुजी ने आपके लिए हमको पोस्टमैन के तरीके से भेजा है। जो उन्होंने कहलवाया है, हम उस बात को कह रहे हैं। चिट्ठी को पढ़कर के हम आपको सुनाए देते हैं। आप अपनी डायरी के पन्ने खोलकर के सुना देना। मजे में काम चल जाएगा।
हम जब अज्ञातवास चले गए थे, तो उससे पूर्व यहाँ लोगों ने आधा- आधा घंटे के लिए हमारे संदेश टेप कर लिए थे और जहाँ कहीं भी सम्मेलन हुआ करते थे, जहाँ कहीं भी सभाएँ होती थीं, लोग उन टेपों को सुना देते थे। कह देते थे कि गुरुजी तो नहीं हैं, पर गुरुजी जो कुछ भी कह गए हैं, संदेश दे गए हैं, शिक्षा दे गए हैं आपके लिए, उसको आप लोग ध्यान से सुन लीजिए और ध्यान से पढ़ लीजिए। लोगों ने सारे व्याख्यान सुने और उसी तरह मिशन का कार्य आगे बढ़ता चला गया।
व्यक्तित्व और चरित्र
देवियो और भाइयो, जो काम हम करने के लिए चले हैं, उसका सबसे बड़ा और पहला हथियार हमारे पास जो कुछ भी है, वह है- हमारा व्यक्तित्व और हमारा चरित्र। हमको जो कोई भी कार्य करना है, जो कोई भी सहायता प्राप्त करनी है, वह रामायण के माध्यम से नहीं, गीता के माध्यम से नहीं, व्याख्यानों के माध्यम से नहीं, प्रवचनों के माध्यम से नहीं, यज्ञों के माध्यम से नहीं पूरा होने वाला है। अगर किसी तरह से हमारे मिशन को सफलता मिलनी है और वह उद्देश्य पूरा होना है तो आपका चरित्र- आपका व्यक्तित्व ही एक मार्ग है, एक हथियार है हमारा। व्याख्यान के बारे में आपको ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए और बहुत ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिए। व्याख्यान अगर आपको न आए, तो आपने यहाँ इस शिविर में जो कुछ भी सुना हो, समझा हो उसे ही लोगों को सुना देना। हमने प्रायः यह प्रयत्न किया है कि अपने कार्यकर्ताओं के शिविर जहाँ कहीं भी आपको चलाने पड़ें, वहाँ सबेरे प्रातःकाल जाकर के प्रवचन किया करना, जो हमने कार्यकर्ताओं के लिए और आपके क्रिया- कलापों के लिए कहे हैं। यहाँ आपको दूसरे लोग समझा देंगे कि कार्यकर्ताओं में कहे जाने के लिए प्रवचन कौन- से हैं और जनता में कहे जाने वाले प्रवचन कौन से हैं। हमको जनता के विचारों का संशोधन और विचारों का संवर्द्धन करने के लिए व्याख्यान करने पड़ेंगे और लोकशिक्षण करना पड़ेगा, क्योंकि आज मनुष्य के विचार करने की शैली में सबसे ज्यादा गलती है। सबसे ज्यादा गलती कहाँ है? एक जगह है और वह यह कि आदमी के सोचने का तरीका बड़ा गलत और बड़ा भ्रष्ट हो गया है। बाकी जो मुसीबतें हैं, परेशानियाँ हैं, वे तो बर्दाश्त की जा सकती हैं, लेकिन आदमी के सोचने का तरीका अगर गलत बना रहा तो एक भी गुत्थी हल नहीं हो सकती और सारी गुत्थियाँ उलझती चली जाएँगी। इसलिए हमें करना क्या पड़ेगा? हमको जनसाधारण के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण सेवा जो है, वह यह करनी पड़ेगी कि उनके विचार करने की शैली, सोचने की शैली को बदल देना पड़ेगा। अगर हम सोचने के तरीके को बदल देंगे, तो उनकी कोई भी समस्या ऐसी नहीं है, जिसका समाधान न हो सके।
समाधान संभव है
सारी समस्याओं का निदान, समाधान जरूर हो जाएगा, यदि आदमी इस बात पर विश्वास कर ले कि आहार और विहार, खान और पान, संयम और नियम, ब्रह्मचर्य, इनका पालन कर लेना आवश्यक है तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि अस्पताल को खोले बिना, डाक्टरों को बुलाए बिना, इन्जेक्शन लगवाए बिना और अच्छी कीमती खुराक का इन्तजाम किए बिना हम सारे समाज को निरोग बना सकते हैं। आदमी की स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान हम जरूर कर सकते हैं। हमारी लड़कियाँ पढ़ी- लिखी न हों, गाना- बजाना न आता हो और हमारी स्त्रियाँ सुशिक्षित न हों, उन्होंने एम.ए. पास न किया हो, लेकिन हमने एक- दूसरे के प्रति प्रेम, निष्ठा और वफादारी की शिक्षा दे दी, तो फिर जंगली हों तो क्या, गँवार हों तो क्या, आदिवासी हों तो क्या, भील हों तो क्या, कमजोर हों तो क्या, गरीब हों तो क्या? उनके झोपड़ों में स्वर्ग स्थापित हो जाएगा। उनके बीच में मोहब्बत और प्रेम, निष्ठा और सदाचार हमने पैदा कर दी तब? तब हमारे घर स्वर्ग बन जाएँगे।
अगर ये सिद्धान्त हम पैदा करने में समर्थ न हो सके, तब फिर चाहे हम सबके घर में एक रेडियो लगवा दें, टेलीविजन लगवा दें। हर एक के घर में हम एक सोफासैट डलवा दें और बढ़िया से बढ़िया बेहतरीन खाने- पीने की चीज का इन्तजाम करवा दें, फिर हमारे घरों की और परिवारों की समस्या का कोई समाधान न हो सकेगा। परिवारों की समस्याओं का समाधान जब कभी भी होगा, तो प्यार से होगा, मोहब्बत से होगा, ईमानदारी से होगा, वफादारी से होगा। इसके बिना हमारे कुटुम्ब दो कौड़ी के हो जाएँगे और उनका सत्यानाश हो जाएगा। फिर आप हर एक को एम.ए. करा देना और हर एक के लिए बीस- बीस हजार रुपये छोड़कर मरना। इससे क्या हो जाएगा? कुछ भी नहीं होगा। सब चौपट हो जाएगा।
विचार परिवर्तन अनिवार्य
मित्रो! सामाजिक समस्याओं की गुत्थियों के हल, विचारों के परिवर्तन से होंगे। कौन मजबूर कर रहा है आपको कि नहीं साहब दहेज लेना ही पड़ेगा और दहेज देना ही पड़ेगा। अगर इन विचारों को और इन रीतियों को बदल डालें, ख्यालातों को बदल डालें, तो न जाने हम क्या से क्या कर सकते हैं और कहाँ से कहाँ ले जा सकते हैं। हमारे पास सबसे बड़ा काम मित्रो, जनता की सेवा करने का है। इसके लिए हम धर्मशाला नहीं बनवाते, हम चिकित्सालय नहीं खुलवाते, अस्पताल नहीं खुलवाते और हम प्रसूतिगृह नहीं खुलवाते। हम ये कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को परिश्रमशील होना चाहिए ताकि उसे किसी प्रसूतिगृह में जाने की और किसी नर्सिंग होम में जाने की आवश्यकता न पड़े। लुहार होते हैं, आपने देखे हैं कि नहीं, गाड़ी वाले लुहार, एक गाँव से दूसरे गाँव में रहा करते हैं उनकी औरतें घन चलाती रहती हैं। घन चलाने के बाद उन्हें यह नहीं पता रहता कि बच्चा कोख में से पैदा होता है या पेट में से पैदा होता है। आज बच्चा पैदा हो जाता है, कल- परसों फिर काम करने लगती हैं। पन्द्रह घंटे घन चलाती हैं। उनकी सेहत और कलाई कितनी मजबूत बनी रहती है। उनको नर्सिंग होम खुलवाने की और डिलिवरी होम खुलवाने की जरूरत नहीं है। हमको प्रत्येक स्त्री और पुरुष को यही सिखाने की जरूरत है कि हमको मेहनती और परिश्रमशील होना चाहिए। परिश्रमशील होने का माद्दा अगर लोगों के दिमागों में हम स्थापित कर सकें, तो मित्रो हमारे घरों की समस्याएँ, परिवारों की समस्याएँ, समाज की समस्याएँ और सारी समस्याएँ जैसे बेईमानी की समस्याएँ आदि कोई समस्या ऐसी नहीं है, जिसका हम समाधान न कर सकते हों।
इसलिए महत्त्वपूर्ण कदम हमको यह बढ़ाना पड़ेगा कि जनता का लोकशिक्षण करने के लिए आप जाएँ और जनता में लोकशिक्षण करें। लोकशिक्षण करने के लिए हमने जो विचारधारा आपको यहाँ दी है, उसे एक छोटी- सी पुस्तक के रूप में भी छपवा दिया है। ये व्याख्यान जो आपको यहाँ सुनने को मिले हैं, वे सारे के सारे प्वाइंट्स छपे हुए मिल जाएँगे। इनका आप अभ्यास कर लेना और इन्हीं प्वाइंट्स को आप कंठस्थ कर लेंगे और डेवलप कर लेंगे, तो क्या हो जाएगा कि सायंकाल के प्रवचनों में जो आपको जनता के समक्ष कहने पड़ेंगे, बड़ी आसानी से कहने में पूरे हो जाएँगे। कार्यकर्ताओं के समक्ष भी आप यही कहना। जहाँ कहीं भी आपको समझाने की, प्रवचन करने की जरूरत पड़े, आप यह कहना कि गुरुजी ने हमें डाकिये की तरह से भेजा है और एक चिट्ठी देकर आपके लिए एक संदेश लिखकर के भेजा है। लीजिए चिट्ठी को पढ़कर के सुना देते हैं। सबेरे वाले प्रवचन जो हमने दिए हुए हैं, अगर आप सुना देंगे, समझा देंगे, तो वे आपकी बात को मान जाएँगे। आपको व्याख्यान देना न आता हो और समझाने की बात न आती होगी, तो भी बात बन जाएगी। व्याख्यान देना और प्रवचन देना, चाहे आपको न आता हो, कोई हर्ज आपका होने वाला नहीं है। ये जो प्वाइंट्स हमने आपको दिए हैं, किसी भी स्थानीय वक्ता को, किसी भी स्थानीय व्याख्यानदाता को आप समझा देना और कहना कि जो प्रवचन गुरुजी ने दिए हैं, इन्हें आप अपने ढंग से, अपनी समझ से, अपनी शैली से, अपने तरीके से, आप इन्हीं प्वाइंटों को समझा दीजिये। कोई भी अच्छा वक्ता जिसे बोलना आता होगा, बोलने की तमीज होगी या बोलने का ज्ञान होगा, इन बातों को समझा देगा, जो सायंकाल को हैं। ये काम और कोई नहीं कर सकेगा, जो आपको करना है।
जो आपको करना है
वे कौन- से काम हैं, जो आपको करने पड़ेंगे? आपको यह करना पड़ेगा कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ, जिस शाखा में भी आप जाएँ, एक छाप इस तरह की छोड़कर आएँ कि गुरुजी के संदेश वाहक और गुरुजी के शिष्य जो होते हैं, वे किस तरह से और क्या कर सकते हैं और क्या करना चाहिए। आप यहाँ से जाना और वहाँ इस तरीके से अपना गुजारा करना, इस तरीके से निर्वाह करना जैसा कि संतों का गुजारा होता है और संतों का निर्वाह होता है। आप जहाँ कहीं भी जाएँ, अपने खानपान संबंधी व्यवस्था को कंट्रोल रखना। खानपान संबंधी व्यवस्था के लिए हुकूमत मत चलाना किसी के ऊपर। वहाँ जैसा भी कुछ हो, जैसा भी कुछ लोगों ने दिया हो उसी से काम चला लेना। आपको तरह- तरह की फरमाइशें पेश नहीं करनी चाहिए। जैसे कि बाराती लोग किया करते हैं। बारातियों का काम क्या है? बाराती लोग सारे दिन फरमाइशें पेश करते रहते हैं और नेताओं का क्या काम होता है? बजाजियों का क्या होता है? जहाँ कहीं भी वे जाते हैं, तो आर्डर करते रहते हैं और तरह- तरह की चीजों के लिए, अपने खाने- पीने की चीजें, अपनी सुविधा की चीजें, बीसों तरह की अपनी फरमाइशें करते रहते हैं। आपको किसी चीज की जरूरत पड़ती हो, चाहे आपको दिन भर भोजन न मिला हो, तो आप अपने झोले में सत्तू लेकर के जाना, थोड़ा नमक ले करके जाना। छुपकर के अपने कमरे में अपना सत्तू और अपना नमक घोल करके पी जाना, लेकिन जिन लोगों ने आपको बुलाया है, उन पर ये छाप छोड़ करके मत आना कि आप चटोरे आदमी हैं और आप इस तरह के आदमी हैं कि आप खाने के लिए और पीने के लिए और अमुक चीजों के लिए आप फरमाइश ले करके आते हैं। इसलिए हमने एक महीने तक आपको पूरा अभ्यास यहाँ कराया। हमने ये अभ्यास कराया कि जो कुछ भी हमारे पास है, साग, सत्तू आप घोलकर खाइए। साग- सत्तू आप खा करके रहिए और जबान को कंट्रोल करके रहिए। उन चीजों की लिस्ट को फाड़कर फेंक दीजिए कि अमुक चीज खाएँगे तो आप ताकतवर हो जाएँगे और अमुक चीज खाएँगे, तो आप पहलवान हो जाएँगे। अमुक चीज आप खाएँगे, तो आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। मित्रो हम यकीन दिलाते हैं कि खाने की चीजों से स्वास्थ्य का कोई ताल्लुक नहीं है और अगर आपको घी नहीं मिलता, तो कोई हर्ज नहीं, कुछ आपका बिगाड़ नहीं होने वाला है।
ताकत का केन्द्र कहाँ?
हम आपको कई बार कथा सुनाते रहे हैं। एक बार अपनी अफ्रीका यात्रा की मसाईयों का हमने किस्सा सुनाया था, जिन बेचारों को मक्का मुहैया होती है। जिन लोगों के लिए सफेद बीज की दाल मुहैया होती है। जिन लोगों के लिए केवल जंगली केला मुहैया होता है। चार चीज उनको मिलती हैं। न कभी उनको घी मिलता है, न कभी और कोई पौष्टिक चीजें मिलती हैं, लेकिन उनकी कलाइयाँ, उनके हाथ कितने मजबूत होते हैं। ओलंपिक खेलों में सोने के मैडल जीतकर लाते और शेरों का शिकार करते रहते हैं। ताकत अनाज में नहीं है, ताकत शक्कर में नहीं है, ताकत घी में नहीं है और ताकत मिठाई में नहीं है। मित्रो, ताकत का केन्द्र दूसरा है। ताकत की जगह वह है, जो गाँधी जी ने अपने भीतर पैदा की थी। घी खाकर के पैदा नहीं की थी उन्होंने। वह अलग चीज है, जिनसे ताकत आती है। इसलिए जहाँ कहीं भी आप जाएँ, हमारे संदेशवाहक के रूप में, वहाँ पर आपका खान- पान का व्यवहार ऐसा हो, जिससे कोई आदमी यह कहने न पाए कि ये लोग कोई बड़े आदमी आए हैं और कोई वी.आई.पी. आए हैं। यहाँ से जब आप जाएँ, तो प्यार और मोहब्बत को ले करके जाना। अगर आपके अन्दर कड़ुवापन रहा हो तो उसको यहीं पर छोड़कर जाना। कड़ुवापन मत ले करके जाना, अपना अहंकार ले करके मत जाना।
कड़ुवापन क्या है? कडुवापन आदमी का घमण्ड है, कड़ुवापन आदमी का अहंकार है। अपने अहंकार के अलावा कडुवापन कुछ है ही नहीं। आप जब ये कहते हैं कि हम तो सच बोलते हैं, इसलिए कड़वी बात कहते हैं। ये गलत कहते हैं। सच में बड़ा मिठास होता है। उसमें बड़ी मोहब्बत होती है। गाँधी जी सत्य बोलते थे, लेकिन उनके बोलने में बड़ी मिठास भरी होती थी। अँग्रेजों के खिलाफ उन्होंने लड़ाई खड़ी कर दी और ये कहा कि आपको हिन्दुस्तान से निकालकर पीछा छोड़ेंगे। आपके कदम हिन्दुस्तान में नहीं रहने देंगे। मारकर भगा देंगे और आपका सारा जो सामान है, वो यहीं पर जब्त कर लेंगे और नहीं देंगे। गाँधी जी की बात कितनी कड़वी थी और कितनी तीखी थी और कितनी कलेजे को चीरने वाली थी। लेकिन उन्होंने शब्दों की मिठास, व्यवहार की मिठास को कायम रखा, हमको और आपको व्यवहार की मिठास को कायम रखना चाहिए। अगर आपके भीतर मोहब्बत है और प्यार है, मित्रो! तो आपकी जबान में से कड़ुवापन नहीं निकलेगा। इसमें मिठास भरी हुई होनी चाहिए। प्यार भरा हुआ रहना चाहिए। प्यार अगर आपकी जबान में से निकलता नहीं और मिठास आपकी जबान में से निकलती नहीं है, आप निष्ठुर की तरह जबान की नोंक में से बिच्छू के डंक के तरीके से मरते रहते हैं, दूसरों को चोट पहुँचाते रहते हैं और दूसरों का अपमान करते रहते हैं और विचलित करते रहते हैं, तब आपको यह कहने का अधिकार नहीं है कि आप सच बोलते हैं।
वाणी में प्यार- शील
सच क्या है? जैसा आपने देखा है, सुना है, उसको ही कह देने का नाम सच नहीं है। सच उस चीज का भी नाम है, जिसके साथ में प्यार भरा हुआ रहता है और मोहब्बत जुड़ी हुई रहती है। प्यार और मोहब्बत का व्यवहार आपको यहीं से बोलना- सीखना चाहिए और जहाँ कहीं भी शाखा में आपको जाना है, और जनता के बीच में जाना है, उन लोगों के साथ में आपके बातचीत करने का ढंग, बातचीत करने का तरीका ऐसा होना चाहिए कि उसमें प्यार भरा हुआ हो, मोहब्बत जुड़ी हुई हो। उसमें आत्मीयता मिली हुई हो, दूसरों का दिल जीतने के लिए और दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए। यह अत्यधिक आवश्यक है कि आपके जवान में मिठास और दिल में मोहब्बत होनी चाहिए। आप जब यहाँ से जाएँ, तो इस प्रकार का आचरण ले करके जाएँ, ताकि लोगों को यह कहने का मौका न मिले कि गुरुजी के पसंदीदे यही हैं। अब आपकी इज्जत- आपकी इज्जत नहीं है, हमारी इज्जत है। जैसे हमारी इज्जत हमारी इज्जत नहीं है, हमारे मिशन की इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है। अपने वानप्रस्थ आश्रम की रखवाली करना आपका काम है।
हमने ये तीन- चार तरीके की जिम्मेदारी आपके कंधे पर डाली है। इन जिम्मेदारियों को लेकर के आप जाना। फूँक- फूँक करके पाँव रखना। आप वहाँ चले जाना, जहाँ कि आबोहवा का ज्ञान नहीं है। कहीं गर्म जगह हम भेज सकते हैं, कहीं ठंडी जगह हम भेज सकते हैं। कहीं का पानी अच्छा हो सकता है और कहीं का पानी खराब हो सकता है। आप वहाँ जाकर के क्या कर सकते हैं? आप बीमार नहीं पड़ सकते। बीमारी के लिए मैं दवा बता दूँगा, आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, आप बीमार नहीं पड़ेंगे और बीमारी आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैं ऐसी दवा दे दूँगा कि आप चाहे जहाँ कहीं भी जाना और जो चाहे कुछ खिला दे, वही खाते रहना। बेजिटेबिल की पूड़ियाँ खिलाता हो, तो पूरे महीने पूड़ियाँ खाना और बीमार होकर आये, तो आप मुझसे कहना। मैं ऐसी गोली देना चाहता हूँ, कि कोई भी चीज खिलाता हो, आप खाते रहना और आपके पेट में कब्ज की शिकायत हो जाए, तो आप मुझसे कहना, मेरी जिम्मेदारी है। आप मुझसे शिकायत करना कि गुरुजी आपकी गोली ने काम नहीं किया, हमको कब्ज की शिकायत हो गई।
खुराक से कम खायें
इसके लिए आप एक काम करना, अपनी खुराक से कम खाना। यहाँ चार रोटी की खुराक है, तो यहाँ से निकलते ही एक रोटी कम खाना। एक रोटी कम, तीन रोटी खाना शुरू कर दीजिए। आप जायके के माध्यम से जाएँगे, तो हर आदमी के मेहमान होंगे और मेहमान का तरीका हिन्दुस्तान में यह होता है कि जो कोई भी आता है किसी के घर, तो उस आदमी के लिए अगर हम मक्का की रोटी खाते हैं, तो उसे गेहूँ खिलाएँगे और हम गेहूँ की खाते हैं, तो आपको चावल खिलाएँगे। चावल खाते हैं, तो मिठाई खिलाएँगे। हम अगर छाछ पीते हैं, तो आपको दूध पिलाएँगे। हर हिन्दू यह जानता है कि सन्त- महात्मा का वेश पहन कर के आप जा रहे हैं, तो स्वभावतः आपको अपने घर की अपेक्षा अच्छा भोजन कराए, अच्छी- अच्छी चीजें खिलाएँ। यदि आपने अपनी जबान पर कंट्रोल रखा नहीं, तो आप जरूर बीमार पड़ जाएँगे। आप ध्यान रखिए आबोहवा तो बदलती ही है। यहाँ का पानी आज, वहाँ का कल, वहाँ का पानी परसों। समय का ज्ञान नहीं, कुसमय का ज्ञान नहीं। यहाँ पर आप ग्यारह बजे खाना खा लेते हैं, सम्भव है कि कोई आपको दो बजे खिलाए, आपका पेट खराब हो सकता है। आप बीमार हो सकते हैं, लेकिन ये खुराक जो मैंने आपको बताई है, अगर उसको कायम रखेंगे, तो आप कभी भी बीमार नहीं होंगे।
मित्रो! हमने लम्बे- लम्बे सफर किये हैं और तरह- तरह की चीजें और तरह तरह की खुराकें खाने का मौका मिला है। एक बार मैं मध्यप्रदेश गया, तो लाल मिर्च साबुत खाने की आदत उन लोगों की थी। रामपुरा में यज्ञ हुआ। यज्ञ हुआ तो वहाँ वो बड़ी- बड़ी पूड़ी परोस रहे थे और ऐसी सब्जी परोस रहे थे, जो मुझे टमाटर की सी मालूम पड़ी। लाल रंग का सारे का सारा टमाटर का साग परोस रहे थे। टमाटर मुझे अच्छा भी लगता है, माताजी मेरे लिए अक्सर बना लिया करती हैं। मँगा लेती हैं। मैंने भी मँगा लिया और रख लिया थाली में। जैसे ही मैंने पूड़ी का टुकड़ा मुँह में दिया कि मेरी आँखें लाल- लाल हो गईं। अरे यह क्या? गुरुजी यह टमाटर का साग नहीं है, यह तो लाल मिर्च है। जब हरी मिर्च पक जाती है और लाल हो जाती है, तो उनको ही पीस करके उसमें नमक और खटाई मिलाकर के ऐसा बना देते हैं- लुगदी जैसी, उसको आप चटनी कह लीजिए। ऐसी भी जगह मुझे जाना पड़ा है कि मैं क्या कहूँ आपसे।
एक बार मैं आगरा गया और वहाँ भोजन करना पड़ा। दाल- रोटी जो घर में खाते हैं, जहाँ कहीं भी जाता हूँ, वही खाता हूँ और कहता हूँ कि तुम्हारे घर में जो कुछ भी हो, वही खिलाना। नहीं हो, तो मेरे लिए बनाना मत, अलग चीज बनाओगे, तो मैं खाऊँगा नहीं। अगर तुम पूड़ी रोज खाते हो, तो पूड़ी बना दो मेरे लिए। मुझे एतराज नहीं, लेकिन तुम हमेशा कच्ची रोटी खाते हो तो मेरे लिए कच्ची रोटी ही बनाना, मक्का की रोटी खाते हो अपने घर में तो, वही खिलाना, क्योंकि मैं तुम्हारा मेहमान नहीं हूँ, तुम्हारा कुटुम्बी हूँ। आगरा में उन लोगों ने दाल बना दी और रोटियाँ धर दीं। दाल में जैसे ही मैंने कौर डुबोया, इतनी ज्यादा मिर्च कि मेरे तो बस आँखों में से पानी आ गया। मैं क्या कह सकता था। अगर मैं यह कहता कि साहब दाल बड़ी खराब है उठा ले जाइए। यह आपने क्या दे दिया और मेरे लिए तो दही लाइए और वह लाइए। मेरी आँख में से पानी तो आ गया और मैंने एक घूँट पानी पिया, पीने के बाद रोटी के टुकड़े खाता तो गया। रोटी के टुकड़े दाल तक ले तो गया, पर दाल में डुबोया नहीं। हाथ मैंने चालाकी से चलाया, जिससे मालूम पड़े कि मैं दाल खा रहा हूँ। दाल खाई नहीं और वैसे ही रूखी रोटी खाता और पानी पीता रहा। पानी पीने के बाद उतर कर आ गया। उसे पता भी नहीं चला, मुझे भी पता नहीं चला। न उसको शिकायत हुई कि आपने ये कैसे खाया।
हमारे यहाँ एक स्वामी परमानन्द जी और नत्थासिंह भी थे पहले। दोनों साथ थे। हम नत्थासिंह और परमानन्द जी को अक्सर बाहर भेज देते थे। दोनों का जोड़ा था। जब भोजन होता था, तब स्वामी परमान्द उससे कहते थे- नत्थासिंह हाँ! देख, मैं मर जाऊँ कभी और तुझे ये खबर मिले कि स्वामी परमानन्द मर गया, तो ये मत पूछना कि कौन- सी बीमारी से मर गया। पहले से लोगों से यह कह देना कि परमानन्द ज्यादा खा करके मर गया। सारा घी स्वामी जी खा जाएँ, तो भी पता न चले। जहाँ कहीं भी जाते, खाने की उनकी ऐसी ललक कि एक बार खिला दीजिये, खाने से पिण्ड छोड़ने वाले नहीं। टट्टियाँ हो जाएँ तो क्या? उल्टियाँ हो जाएँ तो क्या? पर खाने से बाज न आने वाले थे वे।
जबान के दो विषय
मित्रो हमारी जबान के दो विषय हैं, जबान हमारी बड़ी फूहड़ है। एक विषय इसका यह है कि यह स्वाद माँगती है और जायके माँगती है। आप स्वादों को नियंत्रण करना- जायके को नियंत्रित करना। सन्त जायके पर नियंत्रण किया करते हैं और स्वाद पर नियंत्रण किया करते हैं। जिस आदमी का जायके पर नियंत्रण नहीं है और स्वाद पर नियंत्रण नहीं है, वह आदमी सन्त नहीं कहला सकता। आपने- हमने ऐसे संत देखे हैं, जो भिक्षा माँग करके लाए और एक ही कटोरे में- एक ही जगह में दाल को मिला दिया और उसको मिला दिया और इसको मिला दिया और साग को मिला दिया और खीर को मिला दिया और सबको मिला दिया। एक ही जगह मिलाकर खाया। वे ऐसा किसलिए खाते हैं? इसलिए कि वे जबान के जायके पर काबू करके खाते हैं। जबान के जायके का अभ्यास आपको यहाँ नहीं हो सका, तो आप जहाँ कहीं भी कार्यकर्ताओं के बीच में जाएँ, आपको एक छाप छोड़ने की बात मन में लेकर के जानी चाहिए कि हम जबान के जायके को कंट्रोल में करके आए हैं। अब देखना आपके ऊपर छाप पड़ती है कि नहीं पड़ती है।
खान- पान का भी हमारे हिन्दुस्तान में ध्यान रखा जाता है। एक महात्मा ऐसे थे, जो हथेली के ऊपर रखकर के रोटी खाया करते थे। उनका नाम महागुरु श्रीराम था। अभी भी वे हथेली पर रोटी रखकर खाने वाले महात्मा के नाम से मशहूर हैं। मैं नाम तो नहीं लेना चाहूँगा, पर आप अन्दाज लगा सकते हैं कि मैं किसकी ओर इशारा कर रहा हूँ। इस समय तो वे नहीं करते, इस समय तो वे मोटरों में सफर करते हैं और अच्छे चाँदी और सोने के बर्तनों में भोजन करते हैं। पर कोई एक जमाना था, जब हथेली पर रख करके भोजन करते थे। एक ही विशेषता ऐसी हो गई कि सारे हिन्दुस्तान में विख्यात हो गए। इस बात के लिए प्रख्यात हो गए कि वे हथेली पर रखकर के रोटी खाया करते हैं। भला आप संत नहीं हैं तो क्या, महात्मा नहीं हैं तो क्या? आपकी खुराक सम्बन्धी आदत ऐसी बढ़िया होनी चाहिए कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ, वहाँ हर आदमी आपको बर्दाश्त कर सकता हो, ‘अफोर्ड’ कर सकता हो। गरीब आदमी भी ये हिम्मत कर सकता हो कि हमारे यहाँ पंडित जी का भोजन हो। गरीब आदमी को भी ये कहने की शिकायत न हो कि हमारे यहाँ ये नहीं होता, हमारे घर में दूध नहीं होता, हमारे घर में दही नहीं होता, हम तो गरीब आदमी हैं, फिर हम किस तरीके से उनको बुलाएँगे, किस तरीके से भोजन कराएँगे। आपकी हैसियत संत की होनी चाहिए और संत का व्यवहार जो होता है, हमेशा गरीबों में ज्यादा होता है। गरीबों जैसा होता है, अमीरों जैसा संत नहीं होता, संत अमीर नहीं हो सकता। संत कभी भी अमीर होकर नहीं चला है। जो आदमी हाथी पर सवार होकर जाता है, वह कैसे संत हो सकता है? संत को तो पैदल चलना पड़ता है। संत को तो मामूली कपड़े पहनकर चलना पड़ता है। संत चाँदी की गाड़ी पर कैसे सवारी कर सकता है? आपको यहाँ से जाने के बाद अपना पुराना बड़प्पन छोड़ देना चाहिए और पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए।
संतों जैसा जीवन व व्यवहार हो
बस, आपको यहाँ से जाने के बाद अपना पुराना बड़प्पन छोड़ देना चाहिए और पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए और जगह- जगह से नहीं कहना चाहिए कि हम तो रिटायर्ड पोस्टमास्टर थे या रिटायर्ड पुलिस इन्सपेक्टर थे या हमारे गाँव में जमींदारी होती थी। आप यह मानकर जाना कि हम नाचीज हो करके जा रहे हैं। संत नाचीज होता है। संत तिनका होता है और अपने अहंकार को त्याग देने वाला होता है। यदि आपने अपने अहंकार को त्यागा नहीं, तो फिर आप संत कहलाने के अधिकारी नहीं हुए। हमारी पुरानी परम्परा थी कि जो कोई भी संत वेष में आता था, उसको भिक्षायापन करना पड़ता था। क्यों? भिक्षायापन कौन करता है? भीख माँगने वाला गरीब होता है ना? कमजोर होता है ना? संत वेष धारण करने के पश्चात् हर आदमी को भिक्षा माँगने के लिए जाना पड़ता था, ताकि उसका अहंकार चूर- चूर हो जाए। हम अपने ब्रह्मचारियों को जनेऊ पहनाते थे। जनेऊ पहनाने के समय ऋषि अपने बच्चों को भिक्षा माँगने भेजते थे कि जाओ बच्चो भिक्षा माँगो, ताकि किसी बच्चे को यह कहने का मौका न मिले कि हम तो जमींदार साहब के बेटे हैं, ताल्लुकेदार के बेटे हैं और धनवान के बेटे हैं, गरीब के बेटे नहीं हैं, हर आदमी का आध्यात्मिकता का आत्मसम्मान अलग होता है और अपने धन का, अपनी विद्या का, अपनी बुद्धि का, अपने पुरानेपन का और अपनी जमींदारी का और अपने अमुक होने का गर्व होता है, वह अलग होता है। आप यहाँ से जाना, तो अहंकार छोड़ करके जाना।
मैं- मैं मत करिए
मित्रो, कई आदमियों को- चेलों को बार- बार यह कहने की आदत होती है कि जब तक वे अपनी महत्ता और अपना बड़प्पन, अपने अहंकार की बात को सौ बार जिकर नहीं कर लेते, तब तक उनको चैन नहीं मिलेगा। निरर्थक की बात- चीत करेंगे। निरर्थक की बातचीत करने का क्या उद्देश्य होगा? यह उद्देश्य होगा कि मैं ये था और मैंने ये किया था और मैं वहाँ गया था और मेरा ये हुआ था। मैं पहले ये था, मैं पहले ये कर रहा था- आधा घंटे तक भूमिका बनाएँगे। आधे घंटे भूमिका बनाने के बाद फिर किस्सा शुरू होगा- मैं मैं...मैं...मैं...मैं...मैं... को अनेक बार कहते हुए चले जाएँगे। लेकिन मित्रो, ये समझदारी की बात नहीं हैं, नासमझी की बात है। जो आदमी अपने मुँह से, अपनी जबान से, अपने बड़प्पन की जितनी बात बताता है, वह उतना ही कमजोर होता चला जाता है और उतनी ही उसकी महत्ता कम होती जाती है। हम आपको जिन लोगों के पास में भेजने वाले है, वे फूहड़ लोग नहीं हैं, बेअकल लोग नहीं हैं, बेवकूफ लोग नहीं हैं। हमने अखण्ड ज्योति पैंतीस वर्ष से निकाली है और पैंतीस वर्ष से जो आदमी अखण्ड ज्योति पत्रिका को पढ़ते हुए चले जा रहे हैं, वे काफी समझदार लोग हैं। हमारा हर आदमी समझदार आदमी है। इस बात की तमीज उसको है और हर बात की अकल उसको है कि क्या आपके स्तर का है और क्या आपके स्तर का नहीं है। अपने अहंकार के बारे में और अपने बड़प्पन के बारे में जितनी शेखी आप बघारेंगे, उतनी ही आपकी इज्जत कम होती जाएगी और लोग यह समझेंगे कि ये कितना घमण्डी आदमी है और लोलुप आदमी है। यह बहुत बड़ाई करना चाहता है और हमको अपने बड़प्पन की बात बताना चाहता है। यह मैं आपको विदा करते समय में उसी तरह की शिक्षा दे रहा हूँ जैसे कि माँ अपनी बेटी को विदा करने के समय जब ससुराल भेजती है, तो तरह- तरह की नसीहतें देती है और तरह- तरह की शिक्षाएँ देती है कि बेटी सास से व्यवहार ऐसे करना। बेटी ससुर से ऐसे व्यवहार करना। बेटी अपने पति से ऐसे व्यवहार करना। बेटी अपनी ननद से ऐसे व्यवहार करना। मैं आपको बेटियों की तरीके से नसीहत दे रहा हूँ, क्योंकि मैं आपको ससुराल भेज रहा हूँ।
ससुराल भेज रहे हैं
ससुराल कहाँ? ससुराल का मतलब जनता के समक्ष भेजने से है, जहाँ पर आपका इम्तिहान लिया जाने वाला है। आपके व्याख्यान का नहीं, मैं आपसे फिर कहता हूँ कि आपको व्याख्यान देना न आता हो, तो कोई डरना मत और कन्फ्यूज मत होना। व्याख्यान के बिना भी काम चल जाएगा। आप चुप बैठे रहना- महर्षि रमण के तरीके से, तो भी काम चल जाएगा। पांडिचेरी के अरविन्द घोष ने अपनी जबान पर काबू कर लिया था। कन्ट्रोल कर लिया था। उन्होंने लोगों से मिलने से इंकार कर दिया था और कह दिया था कि हम आप लोगों से बातचीत नहीं करना चाहते हैं। बातचीत न करने के बाद भी महर्षि रमण और पांडिचेरी के अरविन्द घोष इतने ज्यादा काम करने में समर्थ हो गए, आपको मालूम नहीं है क्या? बहुत काम करने में समर्थ हो सके। जहाँ कहीं भी आप जाएँ जरूरी नहीं है कि आपको स्वयं ही बोलना चाहिए। आप जो प्वाइंट ले करके गए हैं और जो प्वाइन्ट इस डायरी में भी लिखे हुए हैं और डायरी के अलावा हमने अलग किताब भी छपवा दी है, उससे आपका काम चल जाएगा। जहाँ कहीं भी आप जाएँगे, वहाँ भी आपको ढेरों के ढेरों व्याख्यान देने वाले वक्ता जरूर मिल जाएँगे। उनको आप बोलना और कहना कि देखो भाई, ये हमारे डायरी के पन्ने हैं और देखो ये पुस्तक के पन्ने हैं। आपको इन प्वाइंटों के ऊपर ऐसी- ऐसी बातें कहनी हैं। यहाँ हमको बोलकर सुना दो एक बार। आप इम्तिहान लेना और जब आपको लग जाएगा कि वह ठीक बोल रहा है, तो कहना बेटा कल तुम्हें यह संदेश गुरुजी का वहाँ पढ़ना है। हम तो सिखाने के लिए आए हैं, स्वयं बोलने के लिए थोड़े ही आए हैं। हमें थोड़े ही बोलना है। आपको बोलना पड़ेगा, आपको सम्मेलन करना पड़ेगा। हमको तो अपना काम करना है। हमको तो सिखाना है और तुमको बोलना है। तुमको बोलना चाहिए- हमारे सामने, तुम नहीं बोलोगे तो हम कैसे पहचानेंगे कि तुमने गुरुजी के संदेश को समझ लिया और अपना लिया, इसलिए रोज सबेरे के वक्त में ये बोलना है। बोलकर सिखा दो और बता दो कि पहले क्या कहोगे? ऐसा मत कहना कि हम कुछ और कहने आए हैं और तुम अपना नमक- मिर्च लगाकर कहने लगो। हम जो बात कहना चाहते हैं, वही बात कहना।
कोई भी आदमी जिसको बोलने की जानकारी हो और लेक्चर देने की कला आती हो, वह बोल देगा। यों तो व्याख्यान देने की कला तमाम स्कूलों में पढ़ाई जाती है। लैक्चरार एक पेशा बन गया है, धन्धा बन गया है। लेक्चरार तो ढेरों आदमी पैदा हो गया। लेक्चर देना और व्याख्यान देना कोई मुश्किल बात नहीं। आप उससे घबड़ाना मत। आपको न आता हो, तो दूसरे लोगों से कहलवा देना और सायंकाल के स्टेज के लिए भी आप तैयार होकर जाना। कोई न मिलता हो तो वकील को बुला लेना। वकील साहब, हाँ तुम्हारी- हमारी बहस है। बहस है तो अच्छा, शाम को आ जाना, हमार केस लड़ देना। क्या केस है? अरे गुरुजी का मुकदमा है। गुरुजी ने ये- ये प्वाइंट्स बताए हैं, जरा बैठकर जरा- सी बात कह दीजिए। इसके लिए आपको एक घंटा बोलना पड़ेगा। अरे साहब एक घंटे का तो हम दस रुपये ले लेते हैं, तो आप दस रुपये ले लीजिए या फिर आज फोकट में ही बोल दीजिए। हाँ फोकट में ही बोल देंगे, बताइये क्या बोलना है। बस वह आपके प्वाइंटों को लेकर के खड़ा हो जाएगा और ऐसे धड़ल्ले से बोलेगा कि आपको मजा आ जाएगा। किसी अध्यापक को बुला लेना, किसी को भी बुला लेना, कोई भी आदमी आ जाएगा। आपकी बात को कह देगा। इसलिए आप मत देना व्याख्यान।
व्याख्यान से ज्यादा जरूरी है शिक्षण
तो आपको क्या करना है? आपको तो लोगों को सिखाने के लिए जाना है। आपको तो तभी बोलना है, जब बहुत मुसीबत आ जाए, बहुत जरूरी हो जाए, आप वहाँ के लोगों को सिखाना- बोलने का काम तो उन्हीं को करना है, शाखा तो उन्हीं को चलानी है। आपके सामने बोल लेंगे, तो अच्छी बात है। आप भी कभी- कभी कह दिया करिए। गुरु तो पीछे बैठा रहता है और तीर- कमान तो लड़के चलाते रहते हैं। गुरु जो होता है, झट से बता देता है। आपने अखाड़े के उस्ताद को नहीं देखा। अखाड़े का उस्ताद कहीं लड़ता है क्या? पर यह बताता रहता है कि ये पकड़, यह क्या करता है, मालूम है क्या करता है? हाथ पकड़ता है- टाँग नहीं पकड़ता है गिराना है तो। पहलवानी करने चला है और टाँग पकड़ना नहीं आता, पहले टाँग पकड़ उसकी। अच्छा हाँ, उस्ताद अभी पकड़ता हूँ और कान पकड़ता है। टाँग पकड़ गिरा इसको। अभी गिराता हूँ। ऐसे करके आपको तो उस्ताद बनाकर भेजेंगे, कोई अखाड़े के पहलवान बनाकर थोड़े ही भेजेंगे। पहलवान तो ढेरों के ढेरों मिल जाएँगे। पहलवानी को रहने दीजिए। गुरुजी हमें तो यहाँ एक महीने रहते हुए होने को आया। अब आप परसों भेज देंगे, हमको लेक्चर झाड़ने पड़ेंगे, तो लेक्चर कैसे देंगे? अरे बाबा, लेक्चर की हम नहीं कह रहे हैं। लेक्चरार बनाकर नहीं भेज रहे हैं। हम तो आपको वह चीज दे करके भेज रहे हैं कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ, वहाँ आपके क्रिया- कलाप ऐसे होने चाहिए जैसा कि हमारे कार्यकर्ता का होना चाहिए, जिसे देखकर अन्य कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ता हुआ चला जाए। आपको हमने वहाँ मुआइना करने के लिए और कोई इंस्पेक्टर बना करके नहीं भेजा है और न ही हम आपको नेता बनाकर भेज रहे हैं। नेता पर लानत। नेता, हम नहीं बनाएँगे आपको। नेता से हमें कोई मोहब्बत नहीं है। जो आदमी स्टेज पर बैठ करके, मटक मटक करता है और फूलमाला पहन करके माइक पकड़ करके बैठ जाता है और किसी का नम्बर ही नहीं आने देता। प्रेसीडेंट कहता है- अरे बाबा बन्द कर! उसने तो माइक पकड़ लिया है, दूसरों को देता ही नहीं। ऐसा ही होता है। जब तक सारे लोग उसके नीचे नहीं होंगे, तब तक नहीं छोड़ेगा, ऐसा नेता मुबारक, माइक मुबारक, दोनों चीजें मुबारक।
नेता नहीं कार्यकर्ता बनें
मित्रो, हम आपको नेता बनाकर नहीं भेज रहे हैं। हम तो आपको कार्यकर्ता और ज्ञानी बनाकर भेज रहे हैं वालन्टियर की तरह। जहाँ कहीं भी जाएँ और जो कोई भी कार्य करें, वालन्टियर के रूप में करें। आप उस तरीके से करना, जिस तरीके से हाथ से काम करना सिखाया जाता है। सर्जन अपने मैटरनटरी कॉलेज के स्टूडेन्टों को अपने आप करके स्वयं दिखाता है और यह कहता है कि तुमको पेट का ऑपरेशन करना हो तो देख लो एक बार फिर, भूलना मत। तुम्हारा मुँह इधर होगा, तो ऑपरेशन करना नहीं आएगा। देखो हम पेट को चीरकर देखते हैं- ये देखो- ये निकाल दिया और ये सिल दिया और ये बाँध दिया। देखो फिर ध्यान रखना और ऐसे मत करना कि पेट का ऑपरेशन किसी का करना पड़े और कहीं का वाला कहीं कर दो और कहीं का वाला कहीं कर दो। आपको हर काम स्वयं करने के लिए स्वयंसेवी कार्यकर्ता के रूप में जाना है। आपको किसी का मार्गदर्शक होकर के या किसी का गुरु हो करके या किसी का नेता हो करके नहीं जाना है। दीवारों पर जब वाक्य लिखने की जरूरत पड़े, तो आप स्वयं डिब्बा लेना और कहना- चल भाई मोहन, अरे तूने इस बात के लिए मना किया, अब मैं लिखकर दिखाता हूँ कि किस तरह से अच्छे तरीके से वाक्य लिखा जाता है, चल तो सही मेरे साथ। अपने साथ आप ले करके चले जाएँगे। अरे वानप्रस्थी जी साहब! आप वहाँ से आए हैं, आप तो गुरुजी वहाँ बैठो, हम बच्चे लिख लेंगे- वाक्य बेटा, बच्चे लिख लेंगे, तो हम किसलिए आए हैं। चल जरा! हमारे साथ- साथ चल देख हम साफ- साफ लिखकर दिखाते हैं। जब आप आगे- आगे चलेंगे, तो ढेरों आदमी आपके साथ चलेंगे, आपकी लिखने वाली बात, अमुक बात और अमुक बात, आसानी से होती हुई चली जाएगी।
वालण्टियर बनाकर भेजा है
परन्तु जब आप पीछे जा बैठेंगे तब, तब लोग हमसे शिकायत करेंगे और कहेंगे कि गुरुजी ने ऐसे लोगों को हमारे पास भेज दिया। चलते तो हैं ही नहीं, सुनते तो हैं ही नहीं, कुछ करते तो हैं ही नहीं। हुकुम चलाना भर आता है। बेटे हमने उनके ऊपर हुकुम चलाने के लिए आपको नहीं भेजा है। हमने तो आपको मार्गदर्शन करने के लिए भेजा है। वालन्टियर के रूप में भेजा और सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में भेजा है। जो बात आपको नहीं आती है, वह काम आपको करने चाहिए। उनके कंधे से कंधा मिलाकर चलना, आगे- आगे बढ़ना चाहिए। जहाँ ये समस्या है लोगों के लिए कि जनता कहीं भी नहीं आती है, यह आप ध्यान रखना। जनता बहुत खीझी हुई है और बहुत झल्लाई हुई है। उसने ढेरों- के व्याख्यान सुने हैं और व्याख्यान सुनने के बाद में यह भी देखा है कि जो आदमी व्याख्यान दिया करते हैं, रामायण पढ़ा करते हैं, गीता पढ़ा करते हैं, कैसे- कैसे वाहियात आदमी हैं और कैसे बेअकल आदमी हैं।
व्याख्यान देने वालों की जिन्दगी, उनके स्वरूप और उनके क्रियाकलाप का फर्क, आवाज का फर्क लोगों ने जाना है। लोगों ने जाना है कि जब सन्त का बाना ओढ़ लेता है, तो क्या कहता है और जब रामायण पढ़ता है तो कैसे- कैसे उपदेश दिया करता है और जब मकान पर आ जाता है, घर पर आ जाता है, तो उसके क्रियाकलाप क्या होते हैं? लोगों ने जान लिया है और समझ लिया है कि लेक्चर झाड़ना एक धंधा बन गया है। उसमें कोई दम नहीं और कोई अकल नहीं।
जनता झल्लाई हुई है
मित्रो, क्या करना पड़ेगा? आपको वहाँ जाने के बाद में सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में, एक मार्गदर्शक के रूप में आपको रहना पड़ेगा। जनता अभी आपके पास नहीं आने वाली है। वह सहज रूप से नहीं आयेगी। जनता को निमंत्रण देने के लिए आपको स्वयं ही खड़ा होना पड़ेगा। जनता अब नहीं आयेगी, आप ध्यान रखना। जनता बहुत झल्लाई हुई है। जनता पर बहुत रोष छाया हुआ है। सन्तों के प्रति अविश्वास, नेताओं के प्रति अविश्वास, वक्ताओं के प्रति अविश्वास, सभा- संस्था वालों के प्रति अविश्वास, हरेक के प्रति अविश्वास हर आदमी को है। इस जमाने में जब हरेक के प्रति अविश्वास छाया हुआ है। बड़े- बड़े मिनिस्टर आते हैं, तो दो सौ आदमी भी नहीं आते। कान में जाकर के बी.डी.ओ. को कहना पड़ता है और बोर्ड का अध्यक्ष मास्टरों को बुला करके कहता है कि अच्छा भाई कल की छुट्टी है, कल के लिए लीजिए रेनी- डे लिख देते हैं- वर्षा का दिन और कल सब स्कूलों की छुट्टी है। सब बच्चों को और सब मास्टर लोगों को लेकर के वहाँ पर विक्टोरिया पार्क में सब जने ४ बजे तक इकट्ठा हो जाना, ताकि उनको ये मालूम पड़े कि जनता बहुत आई है।
उसमें से कौन होता है? किसमें? व्याख्यान करने वालों में। व्याख्यान करने वालों में तलाश करना कि जब कोई नेता आता है, तो सुनने वाले कौन होते हैं? आप एक- एक की पहचान करना कि जो व्याख्यान सुनने आये हैं, इसमें जनता वाले कितने थे और स्कूल वाले कितने थे। आपको ये मालूम पड़ेगा कि सफेद कुर्ता पहने हुए आगे वाले तो सिपाही बैठे हैं। जो वर्दी को तो उतार आए हैं और मामूली कपड़ा, मामूली पैण्ट कमीज पहने हुए हैं। आगे तो ये लोग बैठे हुए हैं। ताली बजाने वालों में कौन बैठे हुए हैं। मास्टर लोग बैठे हुए हैं, पुलिस के सिपाही बैठे हुए हैं। ताली बजाने वालों में और कौन बैठे हुए हैं? ये बैठे हैं और वो बैठे हैं। जनता को आप तलाश करेंगे, तो मुश्किल से पचास आदमी आपको नहीं मिलेंगे। क्यों नहीं मिलते हैं? गाँधी जी की सभा में लोग आते थे और नेहरू की सभा में जाते थे; लेकिन अब सभा में लोग क्यों नहीं आते, क्योंकि नफरत छा गई है? नफरत इसलिए छा गई है कि सिखाने वाले और कहने वाले में अब जमीन- आसमान का फर्क है। इसलिए इनकी बात नहीं सुनेंगे, जरूरी हुआ, तो अख़बार में क्यों नहीं पढ़ लेंगे। इन्हें सुनने में हम अपना टाइम क्यों खराब करेंगे? धक्के क्यों खाएँगे? इसलिए यह भी एक प्रश्न आपको हल करना पड़ेगा कि जिन बेचारों ने अपना आयोजन करके रखा है- पन्द्रह दिन का और दस दिन का, वहाँ किस तरह से जनता को बुलाया जाए, ताकि हमारे विचार और हमारी प्रेरणा, हमारे प्रकाश को फैलाने के लिए वे इतना महत्त्व दें, जिसके लिए मेहनत करने भेज रहे हैं आपको। जनता को बुलाने के लिए आपको ही आगे- आगे बढ़ना होगा।
पीले चावल से निमंत्रण
मित्रो, शुरू के ही दिन में मैंने आपको यह सब बता दिया था। जनता को अब हम व्यक्तिगत रूप से निमंत्रण दे सकते हैं। पीले चावल ले करके जाना। घर- घर में जाना निमंत्रण देने के लिए और कहना कि मथुरा वाले गुरुजी को आप जानते हैं क्या? गुरुजी को, हाँ जानते हैं, तो उन्होंने एक बात कह करके भेजी है, आपके लिए कुछ खास संदेश भेजा है, आपके लिए कुछ अलग शिक्षाएँ भेजी हैं; कुछ अलग से संदेश भेजा है; जिसे आपको सुनने के लिए जरूर आना पड़ेगा शाम को। इस तरह से एक घर में, दो घर में, तीन घर में आप स्वयं जाना और वहाँ के कार्यकर्ताओं को ले करके जाना। टोलियाँ बनाना और निमंत्रण देने के लिए जाना- निमंत्रण देने के लिए व्यक्तिगत सम्पर्क बनाने वाली बात करनी चाहिए।
एक बात और भी है कि इश्तहारों से आप किसी को नहीं बुला सकते और लाउडस्पीकर पर तो सिनेमा वाले और बीड़ी वाले चिल्लाते हैं। लाउडस्पीकर आप भी लेकर चले जाइए और कहिए- प्यारे भाइयो, शाम को साढ़े छह बजे आना, वानप्रस्थी लोग शान्तिकुञ्ज से आये हैं, प्रवचन करेंगे। तब आप में और बीड़ी वालों में कोई फर्क नहीं होगा। सभी बीड़ी वाले चिल्लाते हैं कि सत्ताईस नम्बर की बीड़ी भाइयो, पिया करो, सत्ताईस नम्बर पिया करो। फिल्मस्तानी भाई, बीड़ी वाले भाई और गुरुजी के वानप्रस्थियों में फिर क्या फर्क रह गया है? माइक, इसकी कोई कीमत नहीं, कहाँ कोई इसे सुनने को आते हैं, कान बन्द कर लेता है। बोल- बोलकर माँगकर चला जाएगा। इस माइक की बात कोई नहीं सुनता। इशारों की बात, इश्तहारों की भी बात नहीं सुनी लोगों ने, पर जब हमको जनता को बुलाना है, तो उसको बुलाने के लिए स्वयं ही आपको निकलना पड़ेगा, कार्यकर्ताओं को लेकर के अपने साथ- साथ कार्यकर्ता को साथ लेकर आपको चलना पड़ेगा।
शंख ध्वनि से आमंत्रण
हमारी जनता को निमंत्रित करने की शैली अलग है। कार्यकर्ता के रूप में जब आप जाएँगे, तो आपमें से हर आदमी के हाथ में एक शंख थमा दिया जाएगा। मान लीजिए, आप साठ आदमी हैं और उनमें से चालीस व्यक्ति ऐसे हैं, जिन्हें कहाँ जाना है? शाखाओं में जाना है, तो चालीसों के हाथ में शंख थमा दिया जाएगा और शंख बजाते हुए जब आप शहर के बाजार में निकलेंगे, तो देखना ताँगे वाले खड़े हो जाएँगे, रिक्शे वाले भी खड़े हो जाएँगे और कहेंगे कि अरे देखो तो सही, ये कौन आ गया? चालीस शंख बजाते हुए और पीले कपड़े पहने हुए, झंडा लिए हुए और एक नए बाबाजी के रूप में, एक नये क्रान्तिकारी के रूप में, एक नये व्याख्यानदाता के रूप में जब आप जाएँगे, तो क्रान्ति मच जाएगी। बैंडबाजे बजते हुए सबने देखे हैं, पर चालीस शंख एक साथ बजते हुए किसी ने नहीं देखे आज तक। चालीस शंख कैसे बजते हैं? आपको मालूम नहीं। चालीस शंखों की आवाज जब एक साथ बजती है, तो कान कैसे काँपते हैं, नवीनता कैसे मालूम पड़ती है? यह शैली आपको गायत्री तपोभूमि सिखाएगा। जब आप जहाँ कहीं भी जाएँ, तो स्थानीय कार्यकर्ता को ले करके चलना। छोटे- से गाँव में भी आपको सम्मेलन करना है, सभा करनी है, ये शैली तो आपको अख्तियार करनी ही पड़ेगी। यूँ मत कहना कि मैं बैठा हूँ और तू चला जा। सारी जनता को तो बुलाया नहीं, हमें क्यों बुला लिया। हमारे लिए क्यों सभा की। हम तो बेकार आ गए। अरे बेकार क्यों आ गए बाबा, तुम्हें तो काम सिखाने के लिए भेजा है, चलो हमारे साथ। आगे- आगे शंख ले करके चलना। आप गाँव के मंदिरों से, सब पंडितों के यहाँ से, सत्यनारायण कथा कहने वालों के यहाँ से, सभी संतों को जमा कर लेना और जितने भी कार्यकर्ता हैं, सबको लेकर के ही शंख बजाते हुए चलना। घंटियाँ बजाते हुए चलना।
शिविरों का क्रम
मित्रो, आपको ही चलना पड़ेगा, जनता को आमंत्रित करना पड़ेगा, यह सब आपको ही करना पड़ेगा। आप ही नाचे, आप ही गावे, मनवा ताल बजावे। तीन- चार लोग गा रहे थे, जब मैंने सुना, तो बहुत अच्छा लगा। आपको क्या करना पड़ेगा? स्टेज पर व्याख्यान भी आपको देना पड़ेगा और दीवारों पर वाक्य भी आपको लिखने पड़ेंगे। जनता को निमंत्रित करने से लेकर आपको आगे- आगे भी चलना पड़ेगा। निमंत्रण देने जाएँगे, तो भी आपको आगे- आगे चलना पड़ेगा। हमारे प्रातःकालीन शिविर बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें हमारे कार्यकर्ता, जिनकी कि लाखों की संख्या है, बना करके तैयार किये गये हैं। अब उनमें प्रेरणा भरना बाकी है, हवा भरना बाकी है। गुब्बारे बने हुए रखे हैं। हवा भरनी है, ये साइकिल के ट्यूब भी तो बने रखे हैं। ये अमुक के ट्यूब हैं। ये बढ़िया वाले ट्यूब हैं। खराबी कहीं भी नहीं आयेगी। हवा भरने वाला नहीं आया, जिसकी वजह से इनका उत्साह ठंडा पड़ गया और इनका जोश ठंडा पड़ गया। आपको इन लोगों में हवा भरनी पड़ेगी और जोश भरना पड़ेगा। शाम को तो वैसे भी तमाशबीन लोग रहते हैं, प्रातःकालीन शिविर वाले जो आपके हैं, उसमें संभव है कि प्राणवान लोग न आएँ। उसके लिए आपको स्वयं उनके पास तक जाना पड़ेगा।
जहाँ कहीं भी, जिस भी शाखा में आप जाएँगे, वहाँ पर आपको सौ- पचास आदमी जरूर ऐसे मिलेंगे, जिनके पास अखण्ड- ज्योति पत्रिका जाती होगी और युग- निर्माण पत्रिका जाती होगी। ध्यान रखना है कि ये शिविर और शाखा वहाँ हों, जहाँ पर कम- से सौ पाठक ऐसे हों, जो हमारी अखण्ड- ज्योति जरूर मँगाते हों। सौ पाठक वहाँ होंगे, जहाँ हमारी पत्रिका १०० की तादाद में भेजी जाती होगी। आप उन सौ आदमियों की लिस्ट माँगना कार्यकर्ताओं से या फिर आप गायत्री तपोभूमि चले जाना और पता करना कि कौन- कौन आदमी हैं, जो हमारी अखण्ड- ज्योति मँगाते हैं, युग निर्माण मँगाते हैं। आप उन सबके पास बजाय इसके कि तू जाना- तू जाना आप स्वयं ही जाना, वहाँ के आदमियों को लेकर के और लिस्ट पर निशान लगाते चले जाना।
जिस दिन से आपका आयोजन होगा, उससे तीन दिन पहले हम आपको भेजते हैं। पन्द्रह दिन के आयोजन रखते हैं। दस दिन के आयोजन हैं, पाँच दिन आपको फालतू के मिलते हैं। हमने आपको तैयारी के लिए भेजा है, जिससे आप दो दिन की व्यवस्था बनाकर तब आगे बढ़ें। पन्द्रह दिन का शिविर आपके लिए है। दस दिन का शिविर शाखा के लिए है। शाखा वालों को जो क्रिया- कलाप करना पड़ेगा, वह केवल १० दिन है। पन्द्रह दिन तो आपकी निभ जाए। जब भी पहुँचे, जिस दिन भी पहुँचें, वहाँ के स्थानीय कार्यकर्ताओं की लिस्ट ले करके आप निकल जाइए, पूछिए आपके पास आती है अखण्ड- ज्योति हाँ हमारे यहाँ तो आती है। आपको लेख पसन्द आते हैं? हाँ आते हैं। आप गुरुजी से सहमत हैं? हाँ साहब सहमत हैं। हम तो खुद पढ़ते हैं और दूसरों को पढ़ाते हैं। अच्छा तो यह हम गुरुजी का संदेश लेकर के आये हैं और उनसे प्रेरणा ले करके और शिक्षा लेकर आये हैं, खासतौर से आपके लिए ले करके आये हैं। इस तरह से आप इनसे कहना कि आपको हमारे प्रातःकालीन शिविरों में जरूर सम्मिलित होना चाहिए। गुरुजी ने हमें अपने सभी कार्यकर्ताओं को यह संदेश आपसे कहने भेजा है। आपको जरूर आना है। हाँ साहब, हम जरूर आयेंगे। कल हमको भी जरूर आना है। सबेरे याद रख लीजिए और देख लीजिए- इसमें से कौन- कौन आये और कौन- कौन नहीं आये। सायंकाल को आपको यदि फिर समय मिल जाए, तो जो लोग नहीं आये थे, उनके पास शाम को जा पहुँचे और कहें साहब, हम तो आपका इंतजार ही करते रहे। गुरुजी ने देखिए कहा था और हमने लाल रंग का टिकमार्क पहले ही लगा दिया था कि इनको जरूर बुलाना और देखिए आपके नाम पर टिकमार्क लगा हुआ है और आप ही नहीं आये, ये क्या हुआ? अच्छा तो कुछ काम लग गया होगा? हाँ साहब, आज तो बहुत काम लग गया था, संध्या से जुकाम हो गया था। कल तक तो जुकाम आपका अच्छा हो जाएगा, तो देखो कल जरूर आना। ये टिकमार्क- लाल स्याही का निशान हमें गुरुजी को दिखाना पड़ेगा। आप नहीं आये, तो खराब बात होगी। साहब, हम तो जरूर आयेंगे। गुरुजी से कहना कि उनके विचारों को सब सुनने को आयेंगे। कल सुबह फिर बुलाना। एक- एक आदमी आपको जरूर जमा करना पड़ेगा। यह जिम्मेदारी उठाने के लिए आप स्वयं तैयार होकर जाइये।
सभी कार्य करने हैं आपको
गुरुजी, यह कार्य तो वहाँ के कार्यकर्ता या अन्य लोग मिलकर सारी व्यवस्था कर लेंगे। यदि वे लोग कर लेते, तो मित्रो हम नहीं भेजते आपको। ये काम वो नहीं कर सकते। यह टैकनिक उनको नहीं मालूम है। यह आपको मालूम है, इसीलिए वहाँ जाकर के सबसे आगे वाली लाइन में आप खड़े हुए दिखाई पड़ेंगे। खाना बनाने से ले करके सफाई करने तक और शिविर की यज्ञशाला में पत्तियाँ लगाने से लेकर यज्ञशाला का स्वरूप बनाने तक, आपको आगे- आगे बढ़ना चाहिए। आपने यह कह दिया। अरे यार, यह कैसा कुंड बना, दिया ऐसे बनते हैं कहीं। तुम तो कैसे कह रहे थे- हम शाखा चलाते हैं। ये तुमने कुंड बना दिया और वेदी बना दी, ये भी कोई तरीका है। ऐसे भी कहीं कुंड बनते हैं क्या? कुंड ऐसे बनने चाहिए थे। तो आप कहाँ चले गये थे? हम तो साहब वहाँ बैठे थे, अख़बार पढ़ रहे थे। अखबार पढ़ने के लिए आये थे या सामाजिक सहायता करने के लिए आए थे। आपको हम विशुद्ध रूप से कार्यकर्ता बना करके भेजते हैं, नेता बनाकर नहीं। नेता हम आपको नहीं बना सकते। किसी को भी हम नेता बनाकर नहीं भेजेंगे। हर आदमी को कार्यकर्ता ‘सिन्सियर वालन्टियर’ बना करके भेजेंगे। उस आदमी को भेजेंगे, जो काम करने के लिए स्वयं आगे- आगे बढ़े और दूसरों को साथ लेकर चले। आपका व्यक्तित्व अलग नहीं होना चाहिए।
नियत दिनचर्या हो
आपकी सबेरे से लेकर सायंकाल तक की दिनचर्या जो होनी चाहिए, ऐसी होनी चाहिए, जिससे कि दूसरा आदमी अपनी दिनचर्या को सही कहे। आपके सोने का समय, उठने का समय और जगने का समय क्रमबद्ध होना चाहिए। प्रातःकाल आपको देर से नहीं उठना चाहिए। संध्या आप करते हैं कि नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन नहीं करते, तो भी आपको करना चाहिए। यहाँ आपने कितना भजन किया या नहीं किया, आप जानें, आपका काम जाने, पर वहाँ जहाँ कही भी हम भेजते हैं, हम इसलिए भेजते हैं कि हर आदमी को हम उपासक बनाएँगे और गायत्री की उपासना सिखाएँगे और निष्ठा करना सिखाएँगे। अगर आपकी देखा- देखी यही ढीलम- पोल कार्यकर्ताओं में भी चालू हो गई हो, तो फिर सब काम बिगड़ जाएगा। अतः आप उपासना निष्ठापूर्वक करना, चाहे आप आधा घंटा ही करना, पर नियमपूर्वक जरूर करना। भूलना मत कभी। अगर कभी आपने ऐसा करना शुरू कर दिया कि आप साढ़े आठ बजे उठे और बहाना बना दिया कि साहब आज तो रात को देर हो गयी थी और साहब आपके यहाँ तो जगह भी नहीं है। आपके यहाँ हवा अच्छी नहीं है, यहाँ तो कोई बैठने को स्थान मिला नहीं, हम तो एकान्त में भजन करते हैं, गुफा में करते हैं। आपके यहाँ तो गुफा भी नहीं, एकान्त भी नहीं, तो हम यहाँ कहाँ भजन करेंगे। यह गलती मत करना। गुफा मिलती है, तो मुबारक, एकान्त मिलता है, तो मुबारक और चौराहा मिलता है, तो मुबारक और छत मिलता है, तो मुबारक। जहाँ कहीं भी आपको ठहरा दिया गया- धर्मशाला में ठहरा दिया गया है, तो आपको निष्ठावान व्यक्ति की तरह रहना और उपासना करनी चाहिए।
स्वच्छता का रखें ध्यान
मित्रो, आपको इस बात का ध्यान रखकर चलना चाहिए कि आपको थैलों के थैलों और बक्सों के बक्सों कपड़े लेकर नहीं जाना चाहिए। आप ढेरों के ढेरों धोती- कुर्ता लेकर नहीं जा रहे हैं। आप जहाँ कहीं भी जाने वाले हैं, वहाँ आपको वही एक दो धोती लेकर जाना होगा और एक- दो कपड़े लेकर जाना होगा। अगर आप कहीं अपना तरीका- वह तरीका जो घर में बरतते थे, मैला कपड़ा है, तो मैला ही पहने हैं, फटा है, तो फटा ही पहने हैं। इसको आप भूलना मत, शरीर को भी स्नान कराना और कपड़े को भी स्नान कराना। कपड़ा कौन है? चुगलखोर। ये हर आदमी की हैसियत को, हर आदमी के स्वभाव को और आदमी के रहन- सहन को बता देता है। ये आदमी कौन है? आप गरीब हैं, सस्ता कपड़ा पहने हैं कोई हर्ज नहीं। आपका कपड़ा फट गया हो, तो भी कोई बात नहीं। साबुन आप साथ रखना और सुई- धागा अपने साथ रखना। बटन टूट गया हो तो, आप लगाकर रखना ठीक तरह से। करीने से कपड़े पहनना, आपका कपड़ा मैला नहीं होना चाहिए। मैला कपड़ा पहनकर आप अपने व्यक्तित्व को गँवा बैठेंगे। फिर आप रेशम का कपड़ा ही क्यों न पहने हों और टेरेलीन का कपड़ा क्यों न पहने हों, आपकी बेइज्जती हो जाएगी और आप बेकार के आदमी हो जायेंगे। आपका शरीर सफाई से रहे, आपके सब कपड़े सफाई से रहें। आप वहाँ- जहाँ कहीं भी जाएँ, आप भले ही अमीर आदमी न हों, बड़े आदमी न हों, लेकिन आपको मैले- कुचैले नहीं रहना चाहिये। मैला कुचैला वह आदमी नहीं रह सकता, जो शरीर को स्नान कराता है। कपड़ों को भी रोज स्नान कराइए और कपड़ों को रोज धोइए।
पीला कपड़ा शान से पहनें
आपको ये मैं छोटी बातें बता रहा हूँ, लेकिन हैं ये बड़ी कीमती और बड़ी वजनदार। सायंकाल को जब आप सोया करें, तो अपने कुर्ते को तह करके अपने तकिए के नीचे लगा लिया करिए और तब सोया कीजिए। सबेरे आपका कुर्ता प्रेस किया हुआ और आयरन किया हुआ ऐसा भकाभक मिलेगा कि आप कहेंगे वाह भाई वाह, कैसा बढ़िया वाला प्रेस हुआ। वानप्रस्थ की पोशाक हमने पहनाई है। इसको आप ऐसे मत करना, अपनी शर्म की बात मत बनाना। शर्म की बात नहीं, आप वानप्रस्थ के कपड़े को अपनी बेइज्जती मत समझना, हम पीला वाला कपड़ा पहनकर जाएँगे, तो लोग हमें भिखारी समझेंगे और हम बाबाजी समझे जाएँगे, जबकि हम तो नम्बरदार हैं, हम तो जमींदार हैं और देखो हम बाबाजी कहाँ हैं? ठीक है हम इस पीले कपड़े की इज्जत बनायेंगे। जैसे कि लोगों ने बिगाड़ी, हम बनाएँगे इज्जत। किसकी बनायेंगे? पीले कपड़े की बनायेंगे। इसलिए पीले कपड़े को आप छोड़ना मत। रेलगाड़ी में जाएँ, तो भी आप पीला कपड़ा पहनकर जाना। लोग- बाग आपसे कहना शुरू करेंगे कि ये बाबाजी लोगों ने सत्यानाश कर दिया। ये छप्पन लाख बाबाजी हराम की रोटी खा- खाकर कैसे मोटे हो गये हैं? ये फोकट का माँगते हैं रोज और नम्बर दो वाला पैसा, ब्लैक वाला पैसा खा- खाकर कैसे मुस्टन्डे हो गये हैं। याद रखिए, आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, जो देखेगा यही कहेगा कि ये देखो ये बाबाजी बैठे हैं। इन लोगों को शरम नहीं आती है। तब आप क्या करना? डरना मत उससे। उसकी गलती नहीं है? आप उसको समझाना कि हम बाबाजी कैसे हैं और हमारे बाबाजी का सम्प्रदाय कौन- सा है? और हमारा गुरु कैसा है? और हमको जो काम करना है- वह क्या है? और हम किस तरीके से हैं?
इस बार का कुम्भ
मित्रो! लोगों की निष्ठाएँ ब्राह्मण के प्रति कम हो गई हैं और जो रही बची हैं, वह और खत्म हो जाएँगी। लोगों की निष्ठाएँ साधु पर से भी खत्म हो गई हैं और जो रही- सही बची हैं, तो और खत्म हो जाएँगी। अबकी बार मुझे कुंभ के मेले में इतनी खुशी हुई कि मेरे बराबर कोई भी नहीं। कुंभ के मेले को देखकर मैं भाव विभोर हो गया। एक बार मैं इलाहाबाद गया था, तो मैंने क्या देखा था? उसी साल ऐसा हुआ था कि रेलों के नीचे- पाँव के नीचे छह- सात सौ आदमी कुचलकर मर गये थे। उस साल मैं कुंभ में था। उसके बाद मैं गया नहीं। अबकी बार मैं यहाँ हूँ। अबकी बार तो मुझे बड़ी भारी प्रसन्नता है कि लोगों ने आने से इनकार कर दिया और यह सही काम किया। इस तरीके से जहाँ लोग इकट्ठे होते थे, सन्त और महात्मा इकट्ठे होते थे, सन्त और महात्मा इकट्ठे होने के बाद सम्मेलन करते थे और सम्मेलन के पश्चात् वाजपेय यज्ञ करते थे, इन मौकों के द्वारा यह किया करते थे कि किस तरह से हमको देश का निर्माण करना चाहिए। समाज की गुत्थियों को हल कैसे करना है और व्यक्ति की नैतिक कठिनाइयों का समाधान कैसे करना है? वे सारी- की शिक्षाओं को देने के लिए कुंभ में चले आते थे।
परंतु अब देखा ना आपने, क्या- क्या हो रहा है? कहीं रास हो रहा है, कहीं क्या हो रहा है? जनता को आकर्षित करने के लिए, जैसे कठपुतली वाले तमाशा करने के लिए जो ढोंग किया करते हैं, वे इस तरीके से किया करते हैं। न कोई सम्मेलन की बात है, इनके पास न कोई ज्ञान है, न कोई दिशा है, न विचार है। लोगों को घृणा होगी और होनी चाहिए। मुझे बहुत प्रसन्नता है कि लोगों में नफरत होती चली जा रही है और घृणा उत्पन्न होती चली जा रही है और बाबाजी के दर्शन करने से इनकार करता हुआ आदमी चला जाता है। वे लोग अपने घर में कम्बल पहनकर सोते हैं और लिहाफ ओढ़कर सोते हैं और जब बाजार में होकर स्नान करने के लिए निकलते हैं, तो लंगोटी खोलकर निकलते हैं। मुझे बहुत शरम आती है। मुझे बहुत दुःख होता है। ठीक है, आप कपड़ों को उतारने वाले महात्मा हैं, तो आप जंगल में जाइये और वहाँ रहिए। वहाँ आप झोपड़ी डालिए और गंगाजी में स्नान कीजिए। गाँव से आप बाहर रहिये। जहाँ हमारी लड़कियाँ घूमती हैं, जहाँ हमारी बेटियाँ घूमती हैं, जहाँ हमारी बहुएँ घूमती हैं, जहाँ हमारे बच्चे घूमते हैं, वहाँ आप मत जाइए। यदि आप नागा बाबाजी हैं, तो आप दुनिया को क्या संदेश देने चले हैं?
हरिद्वार में गंगा विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई है, परंतु नहीं साहब, हम तो हर की पौड़ी में ही स्नान करेंगे। अरे बाबा, हरिद्वार की हर की पौड़ी भी तो किसी काम की नहीं है। यह तो हमारे लिए किसी ने खोदकर नहर निकाल दी है। यह तो एक नहर है। आप मालूम कर लीजिए हर की पौड़ी एक नहर है। यह क्या? हर की पौड़ी तो गंगाजी है। गंगाजी तो है, पर खोदकर लाई गई है। गंगाजी में आपको नहाना है, तो आप वहाँ जाइये- नीलधारा पर नहाइये। यह गंगाजी नहीं है। यह मनुष्यों की बनाई हुई नहर है। नहीं साहब, हम तो ब्रह्मकुण्ड में नहाएँगे, हम तो यहीं नहाएँगे। हम तो ये करेंगे और हम तो नंगे होकर नहाएँगे। इस तरह के लोगों के दर्शन करने को अब आदमी नहीं जाता है। मुझे बहुत खुशी है कि लोगों ने इस साल कुंभ में आने से इनकार कर दिया और मैं भगवान् से प्रार्थना करूँगा कि अगले वर्ष भी वे यहाँ न आयें। इसमें सफाई कर्मचारियों के अलावा, पुलिस वालों के अलावा और बाबाजियों के अलावा, तीसरा कोई जनता न आवे। तीन आदमी आ जाएँ। बस, काम बन जाएगा। लोग क्यों आने चाहिए? और क्यों पैसा खराब करना चाहिए? इनको किस काम के लिए पैसा खराब करना चाहिए? छह तारीख को आप नहाएँगे, तो बैकुंठ को जाएँगे। हर की पौड़ी के ब्रह्मकुंड में नहाकर के आप बैकुंठ को जाएँगे? यह बहम जिनके दिल के ऊपर सवार है, उनकी तादाद खत्म होनी चाहिए। जिनको यह बहम हो गया है कि छह तारीख को न नहाने से बैकुंठ नहीं जाएँगे और हर की पौड़ी के कुंड पर नहा लेंगे, तो सीधे बैकुंठ को जाएँगे और वहाँ सड़कों पर नहा लेंगे तो नरक को जाएँगे। इस तरह की मनोवृत्ति जितनी लोगों में कम होती चली जाएगी, धर्म की उतनी ही सेवा होती जाएगी।
गाली खाने के लिए तैयार रहें
इसलिए मित्रो क्या हो गया? लोगों में पंडितों के प्रति, संतों के प्रति, साधुओं के प्रति, हरेक के प्रति अवज्ञा का भाव उत्पन्न हो गया है और वे भाव हमने पैदा किये हैं। हम पुनः आस्था की स्थापना करेंगे। साधु के गौरव को हम फिर जिन्दा करेंगे, ब्राह्मण के गौरव को हम फिर जिन्दा करेंगे कि साधु और ब्राह्मण अपनी जिन्दगी किस तरीके से खपा देते थे। समाज के लिए, समाज को ऊँचा उठाने के लिए और धर्म की ऊँचा उठाने के लिए। ऋषियों की निष्ठा को ऊँचा उठाने के लिए किस तरह से वे अपने आपके लिए तबाही मोल लेते थे और किस तरीके से गरीबी मोल लेते थे? कि तरीके से कष्ट उठाते थे? इसे हमको जिन्दा करना है। इसलिए आप पीला कपड़ा जरूर पहनना, जिससे कि लोगों को बहस करने का मौका मिले और आपको गालियाँ खाने का मौका मिले। गालियाँ आपको खानी चाहिए, मैं तो कहता हूँ कि जिस आदमी को गालियाँ नहीं मिलीं, वह हमारा चेला नहीं हो सकता। गाँधीजी के शिष्य जितने भी थे उनको गालियाँ खानी पड़ी और आचार्य जी के चेलों को गालियाँ खानी चाहिए। गोलियाँ खाने को तैयार हो जाइये। नहीं साहब, गोली तो हम नहीं खाएँगे। ठीक है, आप गोली मत खाइये। तो क्या गाली खाएँ। गाली खाने से क्या एतराज है आपको? गाली तो खाइए ही।
आप पीले कपड़े पहन लेना और रेलगाड़ी के थर्ड क्लास के डिब्बे में बैठ जाना। हर आदमी गाली देगा आपको और कहेगा कि देखो बाबाजी बैठा हुआ है। यह देखो फोकट का माल खाने वाला बाबाजी बैठा हुआ है। यह हरामखोर बाबाजी बैठा हुआ है। चालाक बाबाजी बैठा हुआ है, यह ढोंगी बाबाजी बैठा हुआ है। उन सबकी गाली आपको नहीं पड़नी चाहिए क्या? गाली आपको पड़नी चाहिए; क्योंकि लोगों ने इस तरीके से हमारे धर्म को, अध्यात्म को और भगवान को, ईश्वर को और सन्तवाद को बदनाम किया है। उसका प्रायश्चित हमें तो करना पड़ेगा ही। आखिर उनके वंश के तो हमीं लोग हैं ना? उनकी परम्परा के अनुयायी हमीं लोग तो हैं ना? उनकी औलाद तो हमीं लोग हैं ना? उनकी जिम्मेदारी हमीं लोग तो उठाने वाले हैं। ऋषियों के गौरव, ऋषियों के यश का लाभ हमीं लोग तो उठा सकते हैं। तो फिर हमारे जो मध्यकाल में ऋषि हुए हैं, उनके बदले की गाली कौन उठाएगा? गाली हमको खानी चाहिए। इसलिए पीला कपड़ा, आप उतारना मत। जहाँ कहीं भी जाएँ, वहाँ रंग का डिब्बा साथ लेकर जाएँ। यह मत कहना यहाँ तो रंग मिलता नहीं। यह हमारी शान है, यह हमारी इज्जत है। यह हमारी हर तरह की साधु और ब्राह्मण की परम्परा- का उस समय की निशानी है, कुल की निशानी है। पीले कपड़े पहन करके जहाँ कहीं भी जाएँगे लोगों को मालूम पड़ेगा कि ये कौन हैं? ये उस मिशन के आदमी हैं, युग निर्माण योजना के आदमी हैं, गायत्री परिवार के आदमी हैं। युग निर्माण के आदमी कौन? जो संतों की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर बाँधकर खड़े हो गये, जो ब्राह्मण की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर कसकर खड़े हो गये हैं। जिन्होंने जीवन का यह व्रत लिया है कि हम श्रेष्ठ व्यक्तियों के तरीके से भले मनुष्यों के तरीके से- शरीफ आदमियों के तरीके से और अध्यात्मवादियों के तरीके से जिन्दगी यापन करेंगे। आपके बोलने की शैली, चलने की शैली और काम करने की शैली जब लोग देखेंगे, तो समझेंगे कि साधु घृणा करने का पात्र नहीं है। साधु नफरत करने की निशानी नहीं है। साधु हरामखोर का नाम नहीं है। साधु फोकट में मुक्ति माँगने वाले का नाम नहीं है, बल्कि परिश्रम करके और कीमत चुकाकर जीवनयापन करने वाले का नाम है। स्वयं मुक्ति पाने के लिए नहीं, बल्कि बंधनों से सारे समाज को मुक्ति दिलाने वाले का नाम ही साधु है। ये बातें जब लोगों को मालूम पड़ेंगी, तो परिभाषाएँ बदल जाएँगी, सोचने का तरीका बदल जाएगा। लोगों की आँखों में जो खून खौल रहा है, लोगों की आँखों में जो गुस्सा छाया हुआ है, वह खून खोलने वाली बात, गुस्सा छाने वाली बात से राहत मिलेगी।
मित्रो, अब ये जड़ें खत्म होने जा रही हैं और अध्यात्म बढ़ता हुआ चला जा रहा है। उसकी नींव मजबूत होने का फायदा फिर आपको मिल सकता है। आपको अपने इन्स्टीट्यूशन को मजबूत करने के लिए और मिशन की जानकारी अधिक से अधिक लोगों को कराने के लिए इन पीले वस्त्रों को प्यार करना होगा। जब तक आपको मिशन में जाना है, क्षेत्रों में जाना है, तब तक इन पीले कपड़ों को उतारना मत।
अच्छे काम में शरम कैसी
अच्छे काम के लिए, अच्छा काम करने के लिए शरम की जरूरत नहीं है। आपको खराब काम, बुरे काम करने की जरूरत हो, तो बात अलग है। अच्छा काम गाँधीजी ने शुरु किया था। तब चरखा को बुरा समझा जाता था। चरखा विधवाओं की निशानी समझा जाता था, लेकिन गाँधीजी ने जब से चरखा चलाना शुरू कर दिया, देशभक्तों की निशानी बन गई और वह काँग्रेस वालों की निशानी बन गई। हमें इस पीले कपड़े को चरखे की तरह समझना चाहिए। हम इसका गौरव बढ़ाएँगे और हम संत और महात्माओं की निष्ठा- आस्था को फिर मजबूत करेंगे, जो घटती चली जा रही है और हवा में गायब होती चली जा रही है। हमारे क्रिया- कलाप और हमारे वस्त्र- दोनों का तालमेल मिला करके जब हम कार्यक्षेत्र में चलने के लिए तैयार होंगे, तो फिर क्यों हम उन परम्पराओं को जाग्रत करने में- जीवित करने में समर्थ न होंगे? जिसको ऋषियों ने हजारों और लाखों के खून से सींचकर के बनाया था, उसको जिन्दा रखा था।
पैसे की पारदर्शिता
आपको वहाँ जहाँ- कहीं भी जाना है, एक आदर्श व्यक्ति की तरह से जाना है। आपको कन्याओं में भी काम करना पड़ेगा, आपको लड़कियों में भी काम करना पड़ेगा। और महिलाओं में काम करना पड़ेगा। आप जहाँ कहीं भी जाएँ— दो बातों का ख्याल रखना। एक बात तो पैसे के बारे में है। उससे अपने हाथ बिलकुल साफ रखना। जहाँ कहीं भी आपको पैसे चढ़ाने का मौका आए, आरती का मौका आए, पूजा का मौका आए, कोई भी पैसा आता हो, वहाँ आप लेना मत। आप चाहें कि इकट्ठा दस हजार जेब में भरते जाएँ और कहें कि अरे साहब! ये पूजा की आरती में पैसे आये थे। ऐसा मत करना आप। यद्यपि यह सब करने का मौका मिलेगा। आप वहीं के लोगों को बुलाना और देखना कोई पैसे आते हैं, चढ़ावे में आते हैं, सामने रखे जाते हैं। कोई चवन्नी चढ़ा जाती है लड़की, कोई अठन्नी चढ़ा जाती है। इस तरह पैसे का हिसाब बढ़ता चला जाएगा। इनको आप उसमें रखना, जमा करना। आप पैसे के बारे में हाथ साफ रखना। आपको शाखा जो कुछ भी दे वह किराये- भाड़े के रूप में कहीं भी जमा रखना। किराया आपको जो कुछ भी लेना हो, अपना खर्च वहीं से लेना। बाहर के लोगों से आप ये शिकायत न करना कि हमें साबुन की जरूरत है, कपड़े की जरूरत है और हमको वो वाली चीज चाहिए, हमको फलानी चीज चाहिए। कोई लाकर दे दे साबुन तो बात अलग है, लेकिन अगर आपको न दे तो आप अपने पैसे से ले लेना। नहीं तो वहाँ के आदमी से माँग लेना, लेकिन वहाँ के लोगों का कोई दान- दक्षिणा का पैसा आप मंजूर मत करना।
दान व्यक्तिगत नहीं है
आपको हमने संत बनाया है, लेकिन दान- दक्षिणा का पैसा वसूल करने का अधिकारी नहीं बनाया है। व्यक्तिगत रूप से दान- दक्षिणा लेने का अधिकार बहुत थोड़े आदमियों को होता है। उन्हीं को होता है, जिनके पास अपनी कोई सम्पत्ति, अपना कोई धन नहीं होता। उस आदमी को भी दान- दक्षिणा लेने का अधिकार है, जिसने सारा जीवन समाज के लिए समर्पित कर दिया है और अपने घर की सम्पदा को पहले खत्म कर दिया है और अपने घर की सम्पदा के नाम पर उसके पास कोई पैसा जमा नहीं है। तब उस आदमी को हक हो जाता है कि लोगों से अपने शरीर निर्वाह करने के लिए पैसा ले। शरीर के निर्वाह करने के लिए रोटी ले। आपको मालूम होगा- अखण्ड ज्योति कार्यालय से गायत्री तपोभूमि प्रतिदिन दो बार आना- जाना होता था। भोजन अखण्ड ज्योति जाकर ही करते थे। यदि कभी तपोभूमि में देर तक रुकना पड़ता था, तो भोजन अखण्ड ज्योति संस्थान से मँगा लेते थे और वहाँ बैठकर खाते थे। आपको मालूम है कि नहीं, हमें ज्ञान नहीं। हमारे पास जमीन थी उस वक्त तक। इसीलिए जमीन जब तक हमारी थी, हमें क्या हक था कि हम अस्सी बीघे जमीन से अपना गुजारा न करें और गायत्री तपोभूमि के पैसे से हम कपड़े पहनें और रोटी लें। लोगों ने हमको धोतियाँ दीं, कपड़े हमको दिए और कहा कि गुरुजी के लिए लाए हैं। गुरु- दक्षिणा में लाए हैं। आपके लाने के लिए बहुत धन्यवाद, बहुत एहसान। सारे के सारे बक्से में बन्द करते चले गये। सारे कपड़ों को तपोभूमि में भिजवा दिया। जहाँ कार्यकर्ता रहते थे, दूसरे लोग रहते थे, हरेक को हमने दे दिया। अच्छा भाई लो, किसकी धोती फट गई। हमारी फट गई धोती, इनको देना। इसके पास नहीं है। उनके पास नहीं है। अच्छा खोल दो बक्सा मेरा; क्योंकि वे अपना घर छोड़ करके आ गये थे। उनके पास जीविका नहीं थी। इसलिए उन्हें खाने का अधिकार था। हमको नहीं था अधिकार, हमने नहीं खाया। जब तक हम गायत्री तपोभूमि में रहे हमने रोटी नहीं खाई, लेकिन जब हम अपनी अस्सी बीघे जमीन दे करके और भी हमारे पास जो कुछ था, दे करके खाली हाथ हो करके आ गये, हम अपना केवल शरीर और वजन ले करके आ गये, तो हमने यह मंजूर कर लिया है और हम यहाँ शान्तिकुञ्ज के चौके में रोटी खाते हैं और कपड़े पहनते हैं।
मित्रो! दान- दक्षिणा की, रोटी खाने का और कपड़े पहनने का अधिकार सिर्फ उस आदमी को है, जिसने अपनी व्यक्तिगत सम्पदा को समाप्त कर दिया है। जब तक आदमी अपनी व्यक्तिगत सम्पदा को समाप्त नहीं कर देता। कहीं गया है ठीक है, मेहनत की तरह से रोटी खा ले बस। आपके पास पैसा आता है, तो आप संस्था में जमा करना। पैसे के मामले में कहीं आप यह करके मत आना कि लोग आपके बारे में ये कहने लगें कि गुरुजी के चेले पैसे के बारे में चोरी का भाव लेकर के आते हैं, भिक्षा माँगने का भाव लेकर आते हैं। यह ख्याल ले करके मत आना। यह बदनामी है आपकी, हमारी और हमारे मिशन की।
जनसम्पर्क संबंधी अनुशासन
एक और बात आप करना मत। क्या मत करना? आपको हमने महिलाओं में, लड़कियों में मिला दिया है। हमने हवन- कुण्डों पर हवन करने के लिए लड़कियों को, स्त्रियों को शामिल करने की जिम्मेदारी उठा ली है। हमने एक बड़ा काम कर डाला। बड़ा दुस्साहस का काम कर डाला। आप समझते नहीं कितनी बड़ी जिम्मेदारी हमने उठा ली है। उस जिम्मेदारी की शरम रखना आपके जिम्मे है। लड़कियाँ आई हैं। सम्मान के साथ काम करेंगी। अमुक काम करेंगी। लड़कियाँ आई हैं- अपने कंधों पर सिर पर कलश के घड़े ले करके चलेंगी। आपके पास आएँगी और परिक्रमा लगाएँगी और जय बोलेंगी। कोई आपके लिए क्या कहेंगी और कोई हवन करने के लिए कहेंगी। आप हमेशा दो बातों का ध्यान रखना कि अकेले किसी लड़की से बात मत करना। जब कभी कोई अकेली लड़की, अकेली महिला आती हो, तो चुप हो जाना और आवाज देकर दूसरों को बुला लेना। किसी मर्द को बुला लेना या किसी महिला को बुला लेना। अकेले बात मत करना कभी। कभी कोई अकेली स्त्री आये और आपसे कोई बात करना चाहती हो या अकेली बात करती हो, तो आप कहना बहिन जी आप अपने बाप को, बहिन को लिवा लाइये और अपने भाई को लिवा लाइये। वह यहाँ आ करके बैठ जाएँ या फिर हम अपने बाबाजी को बुला लेते हैं। अकेली स्त्री से कभी भी बात मत करना। आप पर मैं यह प्रतिबन्ध लगाता हूँ। अकेले मत बात करना। किसी मर्द के बिना बात मत करना। यह प्रतिबन्ध नम्बर एक हुआ।
बन्धन नम्बर दो। कन्याओं से और लड़कियों से बात करते हुए आपको ईसाई मिशन वाली बात याद रखनी चाहिए। ‘नन’ जो होती हैं, ईसाई मिशन का काम करती हैं। उनको ऐसी शिक्षा दे दी जाती है कि वे महिला में, महिला समाज में काम करती हैं। उनको आपने देखा होगा। नर्सों के रूप में जो काम करती हैं, महिलाओं में काम करती हैं, उनको नर्स कहते हैं। जो पादरी होती हैं, उनको नन कहते हैं। ननें टोपा- सा पहने रहती हैं। शायद कभी आपने देखा हो। ननों को एक खास शिक्षा दी जाती है कि कभी भी मर्दों से आँख- से मिलाकर बात नहीं करनी चाहिए। मर्दों के सामने बात करें, तो काम की बात करें। समझाइए ये बात कीजिए, वो बात कीजिए, पर आँख से आँख मत मिलाइये। आँखें नीची रख करके महिलाओं से आप भी बातें करें। आपको भी यही शिक्षा दी जाती है। आपको भी ये शिक्षा दी जाती है कि महिला समाज में जहाँ कहीं भी आपको रहना पड़े, आँख से आँख मिलाइए मत, आँखें नीची करके बात कीजिए। नीचे आँख करके बात करेंगे, तो आपका गौरव, आपका सम्मान, आपकी इज्जत बराबर बनी रहेगी। गंभीर हो करके आप कीजिए बात। जोरों से कीजिए बात। दोस्तों से विशिष्ट बात मत कीजिए। जो भी कह रहे हैं, उसे जोर से कहिए। ऐसे कहिए मानो दूसरों को कम सुनाई पड़ता है। कम सुनने वाला आदमी कैसे बोलता है? सोचता है इन सबको कम सुनाई पड़ता है। धोती मँगा दीजिए। अरे हमारे तो कान अच्छे हैं। आप ये समझ रहे हैं, महिला समाज में जब आपको काम करना पड़े, तो आप क्या कहेंगे। आप यह समझना कि हमारे कान बहरे हो गये हैं। जोर से कह लड़की, क्या कहती है। जो कहना हो वह भी जोर- जोर से कहना। आप इन बातों को ध्यान रखना। ये बातें काम की हैं। हैं तो राई की नोक की बराबर, लेकिन आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, शालीन आदमी हो करके जाएँगे, श्रेष्ठ आदमी हो करके जाएँगे। आप अपनी संस्था के गौरव को अक्षुण्ण रखने में समर्थ हो सकेंगे।
परीक्षा की घड़ी
जब मैं आपको यहाँ से भेजता हूँ। कहाँ भेजता हूँ? आपने अपनी कन्या के हाथ पीले कर दिए। मैंने किसके पीले हाथ कर दिए? आप लोगों के पीले हाथ किये हैं। कपड़े मैंने पहना दिये हैं, पीले हाथ कर दिये हैं, अब आपकी जिम्मेदारी है। अब आपका इम्तिहान लिया जाने वाला है और आपकी यह परख होने वाली है कि ये जो बहू आई है, कैसी है और बहू को क्या- क्या बनाना आता है। रोटी बनानी आती है बहू को, नहीं। बहू को पकौड़ी बनानी आती है कि नहीं। उसके सास, ससुर बैठे हैं। अरे ये बहू आई है, बहू के हाथ से पूड़ी तो बनवाकर खिलवाओ, बहू के हाथ से कचौड़ी, तो बनवाकर खिलवाओ। सब बैठे हुए हैं, सारा घर बैठा हुआ है और देखिए बहू आती है और कैसे पकौड़ी बनाती है, कैसे पकौड़ी बनाकर खिलाती है? आप पीले कपड़े पहन करके और अपने पीले हाथ करा करके अपनी ससुराल चले जाना। वहाँ इस तरह से काम करके आना, इस तरह का व्यवहार करके आना कि आपका समधी कहे, आपकी जिठानी कहे, देवरानी भी कहे, सारा गाँव ये कहे कि ये लड़की क्या है! बड़े खानदान की इज्जत को रखना और बहू को असली इज्जत को रखना आप अपनी ससुराल में।
याद रखिए आप वह नाम कमा करके आना कि लोग हमसे बार- बार यही कहें कि पिछली बार जिन मोहनलाल जी को आपने भेजा था, इस बार भी आप उन्हीं को भेजना गुरुजी। अबकी बार फिर हमने सम्मेलन किया है और हमारे लिए तो मोहनलाल जी को ही भेज दीजिए। बेटा, मोहनलाल जी को नहीं अबकी बार तो मक्खनलाल जी को भेजेंगे, पिछली बार मोहनलाल जी को भेजा था। मोहनलाल जी से इक्कीस ही भेज रहे हैं उन्नीस नहीं हैं। अरे गुरुजी, उन्हीं को भेज देते तो अच्छा रहता। लोग याद करें आपको, ऐसी आप निशानियाँ छोड़ करके आना- अपने स्वभाव की, अपने कर्म की, अपने गौरव की और अपनी विशेषताओं की। गौरव की बात छोड़ करके आये, तो मित्रो, धन्य हो जाएगा आपका वानप्रस्थ, धन्य हो जाएगा हमारा यह शिविर। धन्य हो जाएँगे आपके वे क्रियाकलाप, जिनके लिए सारे भारतवर्ष में भ्रमण करने के लिए, लोगों में जागृति लाने के लिए, लोगों में भावना पैदा करने के लिए, लोगों में भगवान् के प्रति निष्ठा जगाने के लिए, अध्यात्मवाद की स्थापना करने के लिए, आत्मा का विकास करने के लिए और धार्मिकता की स्थापना करने के लिए आपको भेजते हैं। आपको इन्हीं तीन उद्देश्यों के लिए भेजते हैं। आप साधना करके आना और हमारी लाज रखके आना।
आज की बात समाप्त हुई।
॥ॐ शान्ति॥