Books - तेजस्वी और मनस्वी सन्तति
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Language: HINDI
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तेजस्वी और मनस्वी संतति
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कल का नागरिक बनाना पड़ेगा—यह ठीक है कि मनुष्य सृष्टि का सर्वोत्कृष्ट प्राणी है। मनुष्य जैसी बौद्धिक क्षमता किसी भी जीव-जन्तु पशु-पक्षी और कीट-पतंगे ने नहीं पाई। अपनी बौद्धिक शक्ति के द्वारा वह भूतल ही नहीं अन्तरिक्ष का भी समुद्र-मंथन कर सकता है।
किन्तु वही मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसकी बौद्धिक स्थिति ठीक इस कथन से विपरीत होती है। गाय का बछड़ा जन्म लेने के बाद चार मिनट में ही चलने-फिरने लगता है और मां का दूध ढूंढ़कर पीने लगता है। किसी बंदरिया के बच्चे का न तो जात कर्म करना पड़ता है न विद्यारंभ संस्कार। प्राकृतिक प्रेरणा से वह पेड़ों पर चढ़ने, उछलने, कूदने और तैरने तक की सारी क्रिया और विद्यायें आप सीख लेता है। बिल्ली का बच्चा शिकार की खोज स्वयं करता है उसे निशानेबाजी का प्रशिक्षण नहीं करना पड़ता है। जंगल के रीछ, भालू, बाघ, शेर, हाथी और भेड़ियों में न तो वर की खोज करनी पड़ती है न दहेज और भांवरों के रीति-रिवाज, तो भी वे प्रगाढ़ दाम्पत्य-सूत्र में आप बंध जाते और उनका निष्ठापूर्वक पालन अन्त तक करते रहते हैं। यह सब प्रकृति की प्रेरणा से होता रहता है।
लेकिन इन्सान का बच्चा इस दृष्टि से कीट-पतंगों से भी गया गुजरा है। भ्रूण के विकसित होते ही जल की मछली अपना भोजन आप ढूंढ़ लेती है, कुत्ता अपना ठिकाना आप जमा लेते हैं किन्तु अभागे इन्सान के बच्चे में इतनी भी बुद्धि नहीं होती कि वह अपने पास लेटी हुई मां के स्तन को ढूंढ़ ले और कम से कम अपनी क्षुधा को तो तृप्त कर ले। आदमी का बच्चा केवल रोना जानता है। इसके अतिरिक्त न तो वह अपने आप उठ-बैठ सकता है, न चल-फिर सकता है। बोली भाषा तो दूर उसे सिखाया न जाय तो वह शरीर की प्रारम्भिक आवश्यकता आहार भी स्वयं नहीं ढूंढ़ सकता। उसे तो जैसा सिखाया समझाया और बताया जाता है वैसा ही बन जाता है। बच्चा उस गीली मिट्टी की तरह है जिसे चाहे जिस सांचे में ढालकर चाहे जैसी आकृति प्रदान करदी जाये।
कुछ दिन पूर्व लखनऊ के अस्पताल में 14 वर्षीय भेड़िया बालक रामू का निधन हुआ। लोगों ने देखा कि बाल्यावस्था में एक भेड़िये के संस्कारों में ढाल दिये जाने वाले बालक को डाक्टर और मनोवैज्ञानिक चिकित्सक केवल थोड़ा हंसना सिखा सके। दुनिया भर के विशेषज्ञ नाकामयाब रहे और रामू के उन संस्कारों को बदला नहीं जा सका, जो उसकी छोटी अवस्था में डाल दिये गये थे।
तात्पर्य यह है कि आज बच्चा जिस स्थिति में है उसमें थोड़ा बहुत हाथ भले ही पूर्व जन्मों के संस्कारों का हो अधिकांश इस जीवन में उस पर माता, पिता, परिवार और समाज द्वारा डाला गया प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव ही होता है। आज के बच्चे चाहे वह अपराधी मनोवृत्ति के हों, हीन मनोबल, आलसी, उद्विग्न, उच्छृंखल या उद्दंड जो कुछ भी है वह उनके माता-पिता की ही देन है। हमारी हर क्रिया की छाप बालक का निर्माण करती है यदि उन्हें प्रयत्न पूर्वक नहीं सिखाते और निर्मित करते तो अपनी अस्त-व्यस्त क्रियाएं ही उनका अस्त-व्यस्त निर्माण करती हैं इसके लिए बच्चों को दोष नहीं दिया जा सकता। बच्चे आज की स्थिति में अपने आप ही नहीं ढल गये होते या तो उन्हें प्रयत्नपूर्वक ढाला गया होता है अथवा अपनी कमजोरियों को पिलाकर उन्हें पाला गया होता है।
उपेक्षा और उदासीनता के द्वारा जिस प्रकार बच्चों को क्रूर और निकम्मा किया जा सकता है उसी प्रकार प्रयत्न और भावनापूर्वक उन्हें तेजस्वी और मनस्वी भी बनाया जा सकता है। प्राचीन काल में माता, पिता, परिजन और बन्धुजन अपने आचरण और संकल्पों द्वारा बच्चों के मनोबल, चरित्र, स्वभाव और आत्म-बल को ऊंचा उठाया करते थे। उनसे आन्तरिक प्यार भी करते थे किन्तु तप, तितीक्षा, साधना और योगाभ्यास द्वारा उनके शरीर, मन और आत्मा को बलवान् भी बनाया करते थे। तब इस देश में मेधावी, सत्यनिष्ठ उद्दात्त चरित्र वाले नर रत्न पैदा करते थे और अपनी यश गाथाओं से सम्पूर्ण महि मण्डल को प्रभावित रखा करते थे।
दुर्भाग्य से अब देश में वह वातावरण नहीं रहा इसलिये आज हमारी संतति भी निस्तेज और खोखली होती चली जा रही है। आज जैसी ढीठ और उद्दंड सन्तानें पहले कभी रही होंगी तो वह असुरों के यहां भले ही रही हों, किसी कुलीन हिन्दू परिवार में वैसी आत्माएं देर तक अस्तित्व बनाये नहीं रह सकती थीं।
इतिहास पुनरावृत्ति चाहता है। भारतवर्ष अपने नागरिकों से अपना गौरव मांगता है तो फिर से हमें देश में दिव्यता और ज्ञान की तेजस्विता का विकास करना होगा और उसका प्रारम्भ भावी सन्तति से होगा। हम जैसे कुछ हैं बने रहें, पर भावी सन्तति के नव-निर्माण का कर्त्तव्य तो हमें पूरा करना ही होगा।
बच्चों को प्रयत्न पूर्वक बनाना पड़ता है—
हर बच्चा आगे चलकर अपने जीवन में बड़ी-से-बड़ी सफलता प्राप्त कर सकता है यदि उसके अभिभावक उसके समुचित विकास में पूरा-पूरा सहयोग देने का अपना दायित्व ठीक तरह से निर्वाह करें। कोई भी बच्चे न तो जन्मजात महापुरुष होते हैं और न असफल व्यक्तित्व। यह दोनों स्थितियां वे आगे चलकर उस जीवन नींव के आधार पर पाते हैं जो बाल्यकाल में उनके माता-पिता द्वारा रखी जाती हैं।
बच्चों के समुचित जीवन विकास में माता-पिता द्वारा उपेक्षा बरती जाने का एक कारण तो यह होता है कि बच्चों का विकास किस प्रकार किया जाये, इस ज्ञान से वे सर्वथा वंचित होते हैं। दूसरा कारण यह होता है कि माता-पिता अपने बालक को अत्यन्त प्यार करने के कारण उसे संसार का सबसे प्रवीण बालक समझते हैं और निराधार ही अपनी सद्भावना के कारण यह धारणा बना लेते हैं कि वह आगे चलकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा। उन्हें अपने मोह के कारण उसकी स्वाभाविक तथा साधारण बाल-लीलाओं में महा-पुरुषत्व के लक्षण दृष्टिगोचर होते रहते हैं। इस विषय में एक मोहमयी माता का बड़ा दिलचस्प उदाहरण है! जिसने अपना अनुभव बतलाते हुये स्वयं कहा है—
‘जब मैं पहली बार अपनी प्यारी पुत्री को पहली कक्षा में भरती कराने ले गई तो मेरे हृदय में यह विश्वास था कि वहां जब मेरी पांच वर्ष की लड़की अपनी चतुराई भरी बातें करेगी तो उसकी कुशाग्र बुद्धि पर सारी अध्यापिकाएं आश्चर्यचकित होकर उसकी प्रशंसा करने लगेंगी और ऐसी होनहार बेटी पाने पर मुझे बधाई देने लगेंगी। किन्तु वहां पहुंचकर मुझे अपने विश्वास के थोथेपन पर बड़ी लज्जा लगी। मुझे यह देखकर कुछ कम आश्चर्य भी नहीं हुआ कि वहां जितनी माताएं अपनी बच्चियों को भरती कराने आई थीं उस सबकी धारणा अपनी बेटियों के प्रति मेरी ही तरह थी।’
उस मां का यह अनुभव प्रकट करता है कि सभी माता-पिता अपने बच्चे की बाल-लीलाएं देखकर यही समझते हैं कि यह संसार का सबसे बुद्धिमान बालक है और आगे चलकर निश्चय ही बड़ा आदमी बनेगा अपनी इस अति धारणा के कारण ही वे भगवान् तथा नियति के भरोसे उसे अपने आप विकसित होने के लिये छोड़ देते हैं और किसी योजना अथवा मानचित्र के आधार पर उसे विकसित होने में सहायता नहीं करते। यह भूल है। न तो कोई बच्चा जन्म-जात असफल व्यक्तित्व होता है और न विशेष पुरुष। वह इतना सम्वेदनशील अवश्य होता है कि अपने अभिभावकों की हर क्रिया और चेष्टा को ध्यान पूर्वक देखता और स्वयं भी उनका अनुकरण करने का प्रयत्न करता है। वह आगे चलकर बिल्कुल वैसा ही बन जाता है जैसी कि उसके माता-पिता द्वारा उसके जीवन की नींव रखी जाती है। सावधान माता-पिता अपने बुद्धिहीन तथा बुद्धू दिखलाई देने वाले बच्चों को प्रयत्न पूर्वक ऐसी जीवन रेखा पर डाल देते हैं कि वे दिन-दिन उन्नति करते जाते हैं, और असावधान माता-पिता अपने प्रति विश्वास के कारण कुशाग्र बुद्धि तथा होनहार बच्चों को उपेक्षा करके कहीं का नहीं रहने देते। बच्चों के ऊंचा उठने अथवा यथास्थान पड़े पड़े सड़ा करने में माता-पिता के प्रयत्न तथा प्रमाद का बहुत बड़ा महत्त्व है। यह सत्य किन्हीं अभिभावकों को किसी दशा में भी नहीं भूलना चाहिए। बच्चों को जन्म दिया है तो अपना कर्त्तव्य-अपना उत्तरदायित्व तथा अपने महत्त्व का निर्वाह कीजिये। बच्चों को महापुरुष बनने में मदद करिये। आपका गौरव बढ़ेगा, कुल का नाम होगा और देश व समाज का हित होगा। हर बच्चा एक महापुरुष बन सकता है, उसके भीतर ऐसी शक्तियां छिपी रहती हैं। केवल उनका जागरण तथा नियोजन ठीक प्रकार से हो जाना चाहिये और यह दायित्व आप सब अभिभावकों का है। संसार में एक नहीं ऐसे हजारों महापुरुषों के उदाहरण मिलते हैं जो शुरू में बहुत ही बुद्धू लगते थे किन्तु प्रोत्साहन तथा वातावरण पाकर वे संसार के जाज्वल्यमान नक्षत्र बन गये।
डार्विन शुरू में बड़ा मन्द बुद्धि बालक था। उसका पढ़ने में जरा भी मन नहीं लगता था। स्कूल में न चल सकने के कारण उसे वहां से निकाल दिया गया था। उसने जब स्कूल छोड़ा था उस समय तक वह अपनी भाषा भी भली-भांति नहीं सीख सका था। लोग उसके पिता से शिकवा किया करते थे कि आपके घर में यह एक अच्छा बुद्धू पैदा हुआ है। आप उसे पढ़ाना चाहते हैं और इस बात की आकांक्षा करते हैं कि वह जीवन में योग्य व्यक्ति बने। किन्तु यह आपका सारा प्रयास व्यर्थ कर देगा। साथी डार्विन ने व्यंग करते हुए कहा करते थे कि तुम कहीं जंगल में जाकर या तो कुत्ते-बिल्ली पकड़ो और बेचो या किसी तालाब, झील अथवा समुद्र के किनारे जाकर मछली मारो। पढ़ाई-लिखाई तुम्हारे वश की बात नहीं है। इतिहास बतलाता है कि डार्विन शुरू में ऐसा ही मन्द बुद्धि बालक था। किन्तु उसके पिता ने प्रयास न छोड़ा, और न वे निराश ही हुये, वे बराबर उसको उपदेश करते और होनहार होने की शिक्षा दिया करते थे। वे दुर्ग बनकर अपने बच्चे को दुर्व्यसनों तथा दुर्गुणों से बचाये रहते थे और खुद अच्छे-अच्छे महापुरुषों की कहानियां सुनाया करते थे। वे अपने साथ उसे काम में लगाये रहते और सदा ऐसा व्यवहार करते मानो वह उनका बहुत होनहार सपूत हो। पिता का प्रयत्न फला, समय आया और डार्विन की गुप्त शक्तियां प्रबुद्ध हुई और वह पिता के दिये परिश्रम, आत्म विश्वास, उत्साह तथा एकाग्रता आदि के गुणों के आधार पर संसार का सर्वमान्य दार्शनिक, अन्वेषक तथा समाज शास्त्री बना। उसकी विकासवाद की थ्योरी संसार में आज भी मान्य है।
जहां बहुत से अभिभावक अपने बालक की चपलता तथा वाचालता देखकर उसे होनहार मानकर निश्चिन्त हो बैठते हैं और विश्वास बना लेते हैं कि उसे अपने आप बढ़े चलने देना चाहिए। यह नियति है कि वह आगे चलकर एक बड़ा आदमी बनेगा, वहां बहुत से अभिभावक अपने बच्चों की शरारत तथा नटखटपन देखकर निराश हो बैठते हैं। नेपोलियन अपने बचपन में बड़ा ही नटखट तथा शरारती बालक था। लड़ना, झगड़ना, मार-पीट करना, शिकार खेलना, पहाड़ों पर चढ़ना और शरारती लड़कों का नेतृत्व करना उसे बहुत पसन्द था। पढ़ने-लिखने का यह हाल कि बी.ए. की परीक्षा में अपने 41 साथियों के साथ बैठा। पास तो हो गया किन्तु रहा सबसे फिसड्डी, आखिरी नम्बर पर पास हुआ। किन्तु उसके उत्साही माता-पिता निराश न हुये। वे उसके नटखटपन अथवा शरारत को नियन्त्रित करने और उसे स्फूर्ति निर्माण की दिशा में लगाने का प्रयत्न करते रहे। उनके प्रयत्न से नेपोलियन ने अनुशासन का महत्त्व तथा शक्तियों को कार्य की ओर लगाना सीखा जिसका फल यह हुआ कि वह संसार का एक महानतम सेनापति तथा यूरोप का विश्वविख्यात विजेता बना।
इसके विपरीत उसके वे साथी जो बी.ए. में पहले और दूसरे नम्बर पर पास हुए थे कौन थे यह कोई नहीं जानता। निश्चय ही ये नेपोलियन से अधिक मेधावी तथा परिश्रमी रहे होंगे। किन्तु वे विस्मृति के गहन अन्धकार में विलीन हो गये। सन्देह किया जा सकता है कि उनके माता-पिता ने उन्हें सहज मेधावी तथा होनहार समझकर उनके निर्माण में सहयोग नहीं किया होगा और वे जिन्हें न्याय तो यह कहता है कि नेपोलियन से अधिक यशस्वी होना चाहिये था संसार के किसी अज्ञात कोने में साधारण मौत मर कर चले गए।
सर आइजक-न्यूटन जो गृह-नक्षत्रों की गति तथा पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण का आदि आविष्कर्ता माना जाता है और जिसकी देन आज तक वैज्ञानिकों तथा नक्षत्रविदों के लिए प्रकाश-स्तंभ बनी हुई है। बाल्यकाल में बड़ा मन्द बुद्धि बालक समझा जाता था। पढ़ने-लिखने में इतना कमजोर कि असाध्य समझ कर सबसे पीछे बिठलाया जाता था। उसे खिलौने बनाने का बड़ा शौक था। वह खिलौने बनाकर स्कूल ले जाता और वहां भी उनमें कुछ संभार-सुधार करता रहता था। साथी उसकी कृतियों पर हंसते थे और अध्यापक नाराज होते थे। किन्तु उसके माता-पिता ने उसकी इस वृत्ति को कभी नहीं टोका और न हतोत्साह ही किया। वह घर पर तन्मयता से जिस निर्माण में लगता था उसमें लगा रहने दिया जाता था। ध्यान केवल यह रखा जाता था कि वह अपनी कला में विकास करता है अथवा योंही समय नष्ट किया करता है। माता-पिता की इस बुद्धिमानी का फल यह हुआ कि उसी खिलौने बनाने वाले बालक न्यूटन ने हवा चक्की और पानी की घड़ी का आविष्कार किया जिनका विकसित रूप हम आज बड़े-बड़े फलोरमिल और तरह-तरह की सुन्दर घड़ियों के रूप में देख रहे हैं। वही रोगी और मन्द बुद्धि बालक न्यूटन माता-पिता की सावधानी के कारण महान गणितज्ञ तथा यथार्थ विज्ञान-वेत्ता हुआ।
महात्मा गांधी, दुनिया जानती है, बहुत ही साधारण बुद्धि के व्यक्ति रहे थे। उन्होंने खुद लिखा है कि वे स्कूल, कॉलेज में ज्यादा कुछ कभी भी न कर सके। किन्तु माता-पिता की शिक्षा, नियन्त्रण तथा संस्कारों के साथ उनकी दी हुई सेवाओं ने उन्हें जगत वंद्य बापू बना दिया जिनकी गणना संसार के महानतम महापुरुषों में पहले नम्बर पर होती है। बाल्यकाल के कुशाग्र बुद्धि तथा मेधावी बालक महापुरुष बन ही जायेंगे और साधारण प्रतिभा वाले बुद्धू समझे जाने वाले बालक शून्य ही रह जायेंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता। जिनको माता-पिता का उचित सहयोग और घर-बाहर का वातावरण उपयुक्त नहीं मिलता वे प्रखर प्रतिभा के धनी बालक पीछे पड़े रह जाते हैं और जिनको इस प्रकार का सहयोग मिल जाता है वे प्रतिभा रहित बच्चे आगे निकल जाते हैं। इतना ही क्यों प्रतिभावान बालक जिन्हें समुचित शिक्षा दीक्षा अथवा देखभाल नहीं मिलती बहुधा गलत रास्तों पर चले जाते हैं और तब उनकी प्रतिभा समाज के लिये बड़ी भयानक सिद्ध होती है। संसार के सारे बर्बर विजेता, क्रूर शासक तथा नामी डाकू ऐसे ही प्रतिभाशाली बालक रहे होंगे जो अपने अभिभावकों की उपेक्षा तथा असावधानी के कारण गलत मार्ग पर चलकर समाज के शत्रु सिद्ध हुये हैं। बालकों के उचित अनुचित निर्माण में माता-पिता के उत्तरदायित्व का बहुत महत्त्व है। वे चाहे तो अपनी सावधानी से उन्हें शिखरस्थ कर सकते हैं और चाहें तो उपेक्षा तथा अनुत्तरदायित्व से उन्हें पाताल में गिरा सकते हैं। माता-पिता अपने बच्चे के विधाता माने गये हैं। उन्हें अपने यह उत्तरदायित्व कदापि विस्मरण नहीं करना चाहिए।
यदि महापुरुषत्व की बातों को छोड़ भी दिया जाये तो भी किसी मनुष्य का सभ्य, सुशील, शालीन, सज्जन तथा सद्सामाजिक होना ही क्या कम है। यदि ऐसा होकर वह बहुत यशस्वी न भी हो पायेगा तो भी वह जीवन में जिस शोभा शान्ति तथा सन्तोष का अनुभव करेगा वह क्या किसी यश से कम है। बच्चे का एक सभ्य नागरिक बनना अथवा एक असामाजिक जीवन बनकर जीना भी माता-पिता के प्रयत्न पर निर्भर करता है। अभिभावक यदि बच्चों को बाल्यकाल से ही उनकी सहज सामाजिक प्रवृत्ति को परिमार्जित करते हुए थोड़ा-थोड़ा प्रशिक्षित करते रहें तो कोई कारण नहीं कि वे यदि इतिहासस्थ महापुरुष न भी बन सके तो भी उनकी तरह पूर्ण नागरिक तो बन ही सकते हैं।
किन्तु वही मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसकी बौद्धिक स्थिति ठीक इस कथन से विपरीत होती है। गाय का बछड़ा जन्म लेने के बाद चार मिनट में ही चलने-फिरने लगता है और मां का दूध ढूंढ़कर पीने लगता है। किसी बंदरिया के बच्चे का न तो जात कर्म करना पड़ता है न विद्यारंभ संस्कार। प्राकृतिक प्रेरणा से वह पेड़ों पर चढ़ने, उछलने, कूदने और तैरने तक की सारी क्रिया और विद्यायें आप सीख लेता है। बिल्ली का बच्चा शिकार की खोज स्वयं करता है उसे निशानेबाजी का प्रशिक्षण नहीं करना पड़ता है। जंगल के रीछ, भालू, बाघ, शेर, हाथी और भेड़ियों में न तो वर की खोज करनी पड़ती है न दहेज और भांवरों के रीति-रिवाज, तो भी वे प्रगाढ़ दाम्पत्य-सूत्र में आप बंध जाते और उनका निष्ठापूर्वक पालन अन्त तक करते रहते हैं। यह सब प्रकृति की प्रेरणा से होता रहता है।
लेकिन इन्सान का बच्चा इस दृष्टि से कीट-पतंगों से भी गया गुजरा है। भ्रूण के विकसित होते ही जल की मछली अपना भोजन आप ढूंढ़ लेती है, कुत्ता अपना ठिकाना आप जमा लेते हैं किन्तु अभागे इन्सान के बच्चे में इतनी भी बुद्धि नहीं होती कि वह अपने पास लेटी हुई मां के स्तन को ढूंढ़ ले और कम से कम अपनी क्षुधा को तो तृप्त कर ले। आदमी का बच्चा केवल रोना जानता है। इसके अतिरिक्त न तो वह अपने आप उठ-बैठ सकता है, न चल-फिर सकता है। बोली भाषा तो दूर उसे सिखाया न जाय तो वह शरीर की प्रारम्भिक आवश्यकता आहार भी स्वयं नहीं ढूंढ़ सकता। उसे तो जैसा सिखाया समझाया और बताया जाता है वैसा ही बन जाता है। बच्चा उस गीली मिट्टी की तरह है जिसे चाहे जिस सांचे में ढालकर चाहे जैसी आकृति प्रदान करदी जाये।
कुछ दिन पूर्व लखनऊ के अस्पताल में 14 वर्षीय भेड़िया बालक रामू का निधन हुआ। लोगों ने देखा कि बाल्यावस्था में एक भेड़िये के संस्कारों में ढाल दिये जाने वाले बालक को डाक्टर और मनोवैज्ञानिक चिकित्सक केवल थोड़ा हंसना सिखा सके। दुनिया भर के विशेषज्ञ नाकामयाब रहे और रामू के उन संस्कारों को बदला नहीं जा सका, जो उसकी छोटी अवस्था में डाल दिये गये थे।
तात्पर्य यह है कि आज बच्चा जिस स्थिति में है उसमें थोड़ा बहुत हाथ भले ही पूर्व जन्मों के संस्कारों का हो अधिकांश इस जीवन में उस पर माता, पिता, परिवार और समाज द्वारा डाला गया प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव ही होता है। आज के बच्चे चाहे वह अपराधी मनोवृत्ति के हों, हीन मनोबल, आलसी, उद्विग्न, उच्छृंखल या उद्दंड जो कुछ भी है वह उनके माता-पिता की ही देन है। हमारी हर क्रिया की छाप बालक का निर्माण करती है यदि उन्हें प्रयत्न पूर्वक नहीं सिखाते और निर्मित करते तो अपनी अस्त-व्यस्त क्रियाएं ही उनका अस्त-व्यस्त निर्माण करती हैं इसके लिए बच्चों को दोष नहीं दिया जा सकता। बच्चे आज की स्थिति में अपने आप ही नहीं ढल गये होते या तो उन्हें प्रयत्नपूर्वक ढाला गया होता है अथवा अपनी कमजोरियों को पिलाकर उन्हें पाला गया होता है।
उपेक्षा और उदासीनता के द्वारा जिस प्रकार बच्चों को क्रूर और निकम्मा किया जा सकता है उसी प्रकार प्रयत्न और भावनापूर्वक उन्हें तेजस्वी और मनस्वी भी बनाया जा सकता है। प्राचीन काल में माता, पिता, परिजन और बन्धुजन अपने आचरण और संकल्पों द्वारा बच्चों के मनोबल, चरित्र, स्वभाव और आत्म-बल को ऊंचा उठाया करते थे। उनसे आन्तरिक प्यार भी करते थे किन्तु तप, तितीक्षा, साधना और योगाभ्यास द्वारा उनके शरीर, मन और आत्मा को बलवान् भी बनाया करते थे। तब इस देश में मेधावी, सत्यनिष्ठ उद्दात्त चरित्र वाले नर रत्न पैदा करते थे और अपनी यश गाथाओं से सम्पूर्ण महि मण्डल को प्रभावित रखा करते थे।
दुर्भाग्य से अब देश में वह वातावरण नहीं रहा इसलिये आज हमारी संतति भी निस्तेज और खोखली होती चली जा रही है। आज जैसी ढीठ और उद्दंड सन्तानें पहले कभी रही होंगी तो वह असुरों के यहां भले ही रही हों, किसी कुलीन हिन्दू परिवार में वैसी आत्माएं देर तक अस्तित्व बनाये नहीं रह सकती थीं।
इतिहास पुनरावृत्ति चाहता है। भारतवर्ष अपने नागरिकों से अपना गौरव मांगता है तो फिर से हमें देश में दिव्यता और ज्ञान की तेजस्विता का विकास करना होगा और उसका प्रारम्भ भावी सन्तति से होगा। हम जैसे कुछ हैं बने रहें, पर भावी सन्तति के नव-निर्माण का कर्त्तव्य तो हमें पूरा करना ही होगा।
बच्चों को प्रयत्न पूर्वक बनाना पड़ता है—
हर बच्चा आगे चलकर अपने जीवन में बड़ी-से-बड़ी सफलता प्राप्त कर सकता है यदि उसके अभिभावक उसके समुचित विकास में पूरा-पूरा सहयोग देने का अपना दायित्व ठीक तरह से निर्वाह करें। कोई भी बच्चे न तो जन्मजात महापुरुष होते हैं और न असफल व्यक्तित्व। यह दोनों स्थितियां वे आगे चलकर उस जीवन नींव के आधार पर पाते हैं जो बाल्यकाल में उनके माता-पिता द्वारा रखी जाती हैं।
बच्चों के समुचित जीवन विकास में माता-पिता द्वारा उपेक्षा बरती जाने का एक कारण तो यह होता है कि बच्चों का विकास किस प्रकार किया जाये, इस ज्ञान से वे सर्वथा वंचित होते हैं। दूसरा कारण यह होता है कि माता-पिता अपने बालक को अत्यन्त प्यार करने के कारण उसे संसार का सबसे प्रवीण बालक समझते हैं और निराधार ही अपनी सद्भावना के कारण यह धारणा बना लेते हैं कि वह आगे चलकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा। उन्हें अपने मोह के कारण उसकी स्वाभाविक तथा साधारण बाल-लीलाओं में महा-पुरुषत्व के लक्षण दृष्टिगोचर होते रहते हैं। इस विषय में एक मोहमयी माता का बड़ा दिलचस्प उदाहरण है! जिसने अपना अनुभव बतलाते हुये स्वयं कहा है—
‘जब मैं पहली बार अपनी प्यारी पुत्री को पहली कक्षा में भरती कराने ले गई तो मेरे हृदय में यह विश्वास था कि वहां जब मेरी पांच वर्ष की लड़की अपनी चतुराई भरी बातें करेगी तो उसकी कुशाग्र बुद्धि पर सारी अध्यापिकाएं आश्चर्यचकित होकर उसकी प्रशंसा करने लगेंगी और ऐसी होनहार बेटी पाने पर मुझे बधाई देने लगेंगी। किन्तु वहां पहुंचकर मुझे अपने विश्वास के थोथेपन पर बड़ी लज्जा लगी। मुझे यह देखकर कुछ कम आश्चर्य भी नहीं हुआ कि वहां जितनी माताएं अपनी बच्चियों को भरती कराने आई थीं उस सबकी धारणा अपनी बेटियों के प्रति मेरी ही तरह थी।’
उस मां का यह अनुभव प्रकट करता है कि सभी माता-पिता अपने बच्चे की बाल-लीलाएं देखकर यही समझते हैं कि यह संसार का सबसे बुद्धिमान बालक है और आगे चलकर निश्चय ही बड़ा आदमी बनेगा अपनी इस अति धारणा के कारण ही वे भगवान् तथा नियति के भरोसे उसे अपने आप विकसित होने के लिये छोड़ देते हैं और किसी योजना अथवा मानचित्र के आधार पर उसे विकसित होने में सहायता नहीं करते। यह भूल है। न तो कोई बच्चा जन्म-जात असफल व्यक्तित्व होता है और न विशेष पुरुष। वह इतना सम्वेदनशील अवश्य होता है कि अपने अभिभावकों की हर क्रिया और चेष्टा को ध्यान पूर्वक देखता और स्वयं भी उनका अनुकरण करने का प्रयत्न करता है। वह आगे चलकर बिल्कुल वैसा ही बन जाता है जैसी कि उसके माता-पिता द्वारा उसके जीवन की नींव रखी जाती है। सावधान माता-पिता अपने बुद्धिहीन तथा बुद्धू दिखलाई देने वाले बच्चों को प्रयत्न पूर्वक ऐसी जीवन रेखा पर डाल देते हैं कि वे दिन-दिन उन्नति करते जाते हैं, और असावधान माता-पिता अपने प्रति विश्वास के कारण कुशाग्र बुद्धि तथा होनहार बच्चों को उपेक्षा करके कहीं का नहीं रहने देते। बच्चों के ऊंचा उठने अथवा यथास्थान पड़े पड़े सड़ा करने में माता-पिता के प्रयत्न तथा प्रमाद का बहुत बड़ा महत्त्व है। यह सत्य किन्हीं अभिभावकों को किसी दशा में भी नहीं भूलना चाहिए। बच्चों को जन्म दिया है तो अपना कर्त्तव्य-अपना उत्तरदायित्व तथा अपने महत्त्व का निर्वाह कीजिये। बच्चों को महापुरुष बनने में मदद करिये। आपका गौरव बढ़ेगा, कुल का नाम होगा और देश व समाज का हित होगा। हर बच्चा एक महापुरुष बन सकता है, उसके भीतर ऐसी शक्तियां छिपी रहती हैं। केवल उनका जागरण तथा नियोजन ठीक प्रकार से हो जाना चाहिये और यह दायित्व आप सब अभिभावकों का है। संसार में एक नहीं ऐसे हजारों महापुरुषों के उदाहरण मिलते हैं जो शुरू में बहुत ही बुद्धू लगते थे किन्तु प्रोत्साहन तथा वातावरण पाकर वे संसार के जाज्वल्यमान नक्षत्र बन गये।
डार्विन शुरू में बड़ा मन्द बुद्धि बालक था। उसका पढ़ने में जरा भी मन नहीं लगता था। स्कूल में न चल सकने के कारण उसे वहां से निकाल दिया गया था। उसने जब स्कूल छोड़ा था उस समय तक वह अपनी भाषा भी भली-भांति नहीं सीख सका था। लोग उसके पिता से शिकवा किया करते थे कि आपके घर में यह एक अच्छा बुद्धू पैदा हुआ है। आप उसे पढ़ाना चाहते हैं और इस बात की आकांक्षा करते हैं कि वह जीवन में योग्य व्यक्ति बने। किन्तु यह आपका सारा प्रयास व्यर्थ कर देगा। साथी डार्विन ने व्यंग करते हुए कहा करते थे कि तुम कहीं जंगल में जाकर या तो कुत्ते-बिल्ली पकड़ो और बेचो या किसी तालाब, झील अथवा समुद्र के किनारे जाकर मछली मारो। पढ़ाई-लिखाई तुम्हारे वश की बात नहीं है। इतिहास बतलाता है कि डार्विन शुरू में ऐसा ही मन्द बुद्धि बालक था। किन्तु उसके पिता ने प्रयास न छोड़ा, और न वे निराश ही हुये, वे बराबर उसको उपदेश करते और होनहार होने की शिक्षा दिया करते थे। वे दुर्ग बनकर अपने बच्चे को दुर्व्यसनों तथा दुर्गुणों से बचाये रहते थे और खुद अच्छे-अच्छे महापुरुषों की कहानियां सुनाया करते थे। वे अपने साथ उसे काम में लगाये रहते और सदा ऐसा व्यवहार करते मानो वह उनका बहुत होनहार सपूत हो। पिता का प्रयत्न फला, समय आया और डार्विन की गुप्त शक्तियां प्रबुद्ध हुई और वह पिता के दिये परिश्रम, आत्म विश्वास, उत्साह तथा एकाग्रता आदि के गुणों के आधार पर संसार का सर्वमान्य दार्शनिक, अन्वेषक तथा समाज शास्त्री बना। उसकी विकासवाद की थ्योरी संसार में आज भी मान्य है।
जहां बहुत से अभिभावक अपने बालक की चपलता तथा वाचालता देखकर उसे होनहार मानकर निश्चिन्त हो बैठते हैं और विश्वास बना लेते हैं कि उसे अपने आप बढ़े चलने देना चाहिए। यह नियति है कि वह आगे चलकर एक बड़ा आदमी बनेगा, वहां बहुत से अभिभावक अपने बच्चों की शरारत तथा नटखटपन देखकर निराश हो बैठते हैं। नेपोलियन अपने बचपन में बड़ा ही नटखट तथा शरारती बालक था। लड़ना, झगड़ना, मार-पीट करना, शिकार खेलना, पहाड़ों पर चढ़ना और शरारती लड़कों का नेतृत्व करना उसे बहुत पसन्द था। पढ़ने-लिखने का यह हाल कि बी.ए. की परीक्षा में अपने 41 साथियों के साथ बैठा। पास तो हो गया किन्तु रहा सबसे फिसड्डी, आखिरी नम्बर पर पास हुआ। किन्तु उसके उत्साही माता-पिता निराश न हुये। वे उसके नटखटपन अथवा शरारत को नियन्त्रित करने और उसे स्फूर्ति निर्माण की दिशा में लगाने का प्रयत्न करते रहे। उनके प्रयत्न से नेपोलियन ने अनुशासन का महत्त्व तथा शक्तियों को कार्य की ओर लगाना सीखा जिसका फल यह हुआ कि वह संसार का एक महानतम सेनापति तथा यूरोप का विश्वविख्यात विजेता बना।
इसके विपरीत उसके वे साथी जो बी.ए. में पहले और दूसरे नम्बर पर पास हुए थे कौन थे यह कोई नहीं जानता। निश्चय ही ये नेपोलियन से अधिक मेधावी तथा परिश्रमी रहे होंगे। किन्तु वे विस्मृति के गहन अन्धकार में विलीन हो गये। सन्देह किया जा सकता है कि उनके माता-पिता ने उन्हें सहज मेधावी तथा होनहार समझकर उनके निर्माण में सहयोग नहीं किया होगा और वे जिन्हें न्याय तो यह कहता है कि नेपोलियन से अधिक यशस्वी होना चाहिये था संसार के किसी अज्ञात कोने में साधारण मौत मर कर चले गए।
सर आइजक-न्यूटन जो गृह-नक्षत्रों की गति तथा पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण का आदि आविष्कर्ता माना जाता है और जिसकी देन आज तक वैज्ञानिकों तथा नक्षत्रविदों के लिए प्रकाश-स्तंभ बनी हुई है। बाल्यकाल में बड़ा मन्द बुद्धि बालक समझा जाता था। पढ़ने-लिखने में इतना कमजोर कि असाध्य समझ कर सबसे पीछे बिठलाया जाता था। उसे खिलौने बनाने का बड़ा शौक था। वह खिलौने बनाकर स्कूल ले जाता और वहां भी उनमें कुछ संभार-सुधार करता रहता था। साथी उसकी कृतियों पर हंसते थे और अध्यापक नाराज होते थे। किन्तु उसके माता-पिता ने उसकी इस वृत्ति को कभी नहीं टोका और न हतोत्साह ही किया। वह घर पर तन्मयता से जिस निर्माण में लगता था उसमें लगा रहने दिया जाता था। ध्यान केवल यह रखा जाता था कि वह अपनी कला में विकास करता है अथवा योंही समय नष्ट किया करता है। माता-पिता की इस बुद्धिमानी का फल यह हुआ कि उसी खिलौने बनाने वाले बालक न्यूटन ने हवा चक्की और पानी की घड़ी का आविष्कार किया जिनका विकसित रूप हम आज बड़े-बड़े फलोरमिल और तरह-तरह की सुन्दर घड़ियों के रूप में देख रहे हैं। वही रोगी और मन्द बुद्धि बालक न्यूटन माता-पिता की सावधानी के कारण महान गणितज्ञ तथा यथार्थ विज्ञान-वेत्ता हुआ।
महात्मा गांधी, दुनिया जानती है, बहुत ही साधारण बुद्धि के व्यक्ति रहे थे। उन्होंने खुद लिखा है कि वे स्कूल, कॉलेज में ज्यादा कुछ कभी भी न कर सके। किन्तु माता-पिता की शिक्षा, नियन्त्रण तथा संस्कारों के साथ उनकी दी हुई सेवाओं ने उन्हें जगत वंद्य बापू बना दिया जिनकी गणना संसार के महानतम महापुरुषों में पहले नम्बर पर होती है। बाल्यकाल के कुशाग्र बुद्धि तथा मेधावी बालक महापुरुष बन ही जायेंगे और साधारण प्रतिभा वाले बुद्धू समझे जाने वाले बालक शून्य ही रह जायेंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता। जिनको माता-पिता का उचित सहयोग और घर-बाहर का वातावरण उपयुक्त नहीं मिलता वे प्रखर प्रतिभा के धनी बालक पीछे पड़े रह जाते हैं और जिनको इस प्रकार का सहयोग मिल जाता है वे प्रतिभा रहित बच्चे आगे निकल जाते हैं। इतना ही क्यों प्रतिभावान बालक जिन्हें समुचित शिक्षा दीक्षा अथवा देखभाल नहीं मिलती बहुधा गलत रास्तों पर चले जाते हैं और तब उनकी प्रतिभा समाज के लिये बड़ी भयानक सिद्ध होती है। संसार के सारे बर्बर विजेता, क्रूर शासक तथा नामी डाकू ऐसे ही प्रतिभाशाली बालक रहे होंगे जो अपने अभिभावकों की उपेक्षा तथा असावधानी के कारण गलत मार्ग पर चलकर समाज के शत्रु सिद्ध हुये हैं। बालकों के उचित अनुचित निर्माण में माता-पिता के उत्तरदायित्व का बहुत महत्त्व है। वे चाहे तो अपनी सावधानी से उन्हें शिखरस्थ कर सकते हैं और चाहें तो उपेक्षा तथा अनुत्तरदायित्व से उन्हें पाताल में गिरा सकते हैं। माता-पिता अपने बच्चे के विधाता माने गये हैं। उन्हें अपने यह उत्तरदायित्व कदापि विस्मरण नहीं करना चाहिए।
यदि महापुरुषत्व की बातों को छोड़ भी दिया जाये तो भी किसी मनुष्य का सभ्य, सुशील, शालीन, सज्जन तथा सद्सामाजिक होना ही क्या कम है। यदि ऐसा होकर वह बहुत यशस्वी न भी हो पायेगा तो भी वह जीवन में जिस शोभा शान्ति तथा सन्तोष का अनुभव करेगा वह क्या किसी यश से कम है। बच्चे का एक सभ्य नागरिक बनना अथवा एक असामाजिक जीवन बनकर जीना भी माता-पिता के प्रयत्न पर निर्भर करता है। अभिभावक यदि बच्चों को बाल्यकाल से ही उनकी सहज सामाजिक प्रवृत्ति को परिमार्जित करते हुए थोड़ा-थोड़ा प्रशिक्षित करते रहें तो कोई कारण नहीं कि वे यदि इतिहासस्थ महापुरुष न भी बन सके तो भी उनकी तरह पूर्ण नागरिक तो बन ही सकते हैं।