Books - समयदान ही युग धर्म
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्राणवान प्रतिभाएँ यह करेंगी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इक्कीसवीं सदी में परिष्कृत प्रतिभाओं की बढ़ी-चढ़ी भूमिका होगी। उसी को दूसरे शब्दों में ईश्वरेच्छा-दैवी प्रेरणा या समर्थ चेतना द्वारा संपन्न की या कराई गई तपश्चर्या कह सकते हैं। इस आधार पर महाकाल ने इन दिनों परिष्कृत प्रतिभाओं का उत्पादन अभिवर्धन करने का निश्चय किया है, साथ ही उनको समर्थ, सशक्त और आदर्शों के लिए बढ़-चढ़ कर साहस प्रदर्शित कर सकने की क्षमता संपन्न बनाने का भी निर्णय लिया है।
अगले दिनों वर्तमान चिंतन को नयी दिशाधारा देनी होगी, ताकि उसे विवेक की कसौटी पर कसने के बाद जो उचित हो उसी को अंगीकार करने का साहस उभरे, साथ ही ऐसा पराक्रम भी जगे जो अनौचित्य से जूझने को न सही, कम से कम अस्वीकार करने के लिए तो कटिबद्ध हो सके। इस प्रयोजन के लिए, अनेक प्रचलनों और मान्यताओं का परिशोधन करने के लिए प्रचार माध्यमों में युग चेतना का समावेश करने के निमित्त बड़े प्रयास करने होंगे। इसका प्रथम प्रयास तो युग साहित्य का सृजन ही है, पर वह बीज बोने-जैसा श्री गणेश भर है। वस्तुत: उसका विकसित रूप तभी बन सकेगा, जब हर भाषा में उसके प्रकाशन की ही नहीं विक्रय की भी व्यापक व्यवस्था बन पड़े। सृजन के साथ ही उसके परिवर्धन और प्रचलन की आवश्यकता पड़ती है, अन्यथा उगे अंकुर सूखकर रह जाते हैं।
विचारक्रांति के लिए साहित्य-सृजन एक कार्य है, पर उतने भर से प्रयोजन की पूर्णता कहाँ बनती हैं? तीन चौथाई अशिक्षित जनता के लिए विचार-परिवर्तन का आधार तभी बन पड़ेगा जब दृश्य और श्रव्य के सशक्त आधार विनिर्मित और प्रचलित किए जाएँ। इसके लिए यांत्रिक माध्यम भी अपनाने पड़ेंगे। लेखनी अब पर्याप्त नहीं रही, उसके लिए प्रेस माध्यम का अपनाया जाना अनिवार्य हो गया है। यह विज्ञान युग जो है-पत्रिका ,पुस्तकें प्रचार, पत्र, स्टीकर, पोस्टर जैसे अनेक आधार अब अपेक्षित है। प्रकाश चित्रों -(स्लाइड प्रोजेक्टरों) का प्रदर्शन भी इसी उद्देश्य की पूर्ति का एक भाग बन गया है। चित्र विभाग में ही फिल्में भी आती हैं। कभी कथा, प्रवचन व संकीर्तन आदि की सत्संग प्रक्रिया ही वाणी के माध्यम से सद्विचार-संवर्धन का काम पूरा कर लिया करती थी। पर अब तो अलख जगाने, प्रभात फेरियाँ निकालने जैसे वे उपचार काम में लेने होंगे, जिनके लिए लोगों के एकत्रित होने की प्रतीक्षा न करनी पड़े। जन-जन से संपर्क साधना और घर-घर अलख जगाने का प्रयोजन जिस प्रकार भी पूरा हो सके , उन उपकरणों को काम में लिया जाए। संगीत और अभिनय का अपना महत्त्व है। उन्हें किस प्रकार व्यापक प्रचार का सर्वसुलभ साधन बनाया जा सकता है, इसके लिए भी गंभीरतापूर्वक विचार करना और मार्ग ढूँढ़ना होगा। इस प्रयास को इतना व्यापक बनाना होगा कि सभी भाषा-भाषी इस प्रकाश-प्रसारण का लाभ बिना किसी अवरोध के प्राप्त कर सकें।
प्रचार की परिधि में आवश्यक है और प्रथम चरण की पूर्ति करने में समर्थ भी है, पर उतने को ही पर्याप्त नहीं मान लेना चाहिए। दूसरा चरण है-प्रशिक्षण वर्तमान मान्यताओं-प्रचलनों मेें से अधिकांश को बदलना होगा। इसे यों भी कहा जा सकता है कि जन रुचि जिस रूप में इन दिनों विद्यमान है, उसे भट्टी में गलाना और नये ढाँचे में ढाला जाना है। यह बड़ा काम इसलिए है कि प्रस्तुत मान्यताएँ, आदतें और परंपराएँ इतनी आसानी से इतना बड़ा परिवर्तन अंगीकार करने के लिए सहज सहमत नहीं हो सकतीं। इस समूची प्रक्रिया को ‘‘ब्रेनवाशिंग’’ भर न कहकर कायाकल्प स्तर पर निरूपित करना होगा। यह कार्य ऐसी शिक्षण परिपाटी ही कर सकती है, जिससे बौद्धिकता को समझाने और नए प्रयोगों के अनुरूप मानस बनाने की ही नहीं, व्यवहार में उलट-पुलट कर सकने तक की समर्थता विद्यमान हो।
व्यवस्था और मान्यता के क्षेत्र में एकता-समता यथार्थवादी एकरूपता लाने के लिए जिस शिक्षा की आवश्यकता है, वह शिक्षितों और अशिक्षितों को बिना किसी भेदभाव के उपलब्ध कराने की आवश्यकता पड़ेगी। इसे संप्रदायों, भाषाओं, आदतों और रीति-रिवाजों के वर्तमान ढाँचे से ऊपर उठकर उस मार्ग को अपनाना होगा, जो नए युग के नए मनुष्य की जिज्ञासा और आवश्यकता की भली भाँति पूर्ति कर सके ।
शिक्षा का ढर्रा भी बदलना होगा। नई शिक्षा प्रणाली के लिए अवकाश के घंटे भी सीमित करने होंगे और उस उपक्रम को इतने लंबे समय तक चलाना होगा; जब तक कि मूढ़ मान्यताओं से पूरी तरह पीछा न छूट जाए और मानवी चलन अपनी गरिमा के अनुरूप व्यवहार करने का आदी न हो जाए। जीवन अनेकों क्षेत्रों में बँटा हुआ है। शरीर, मन व्यवहार, प्रचलन उपार्जन उपयोग आदि अनेक उसके पक्ष हैं। इन सभी में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता है। भावी शिक्षा पद्धति इसी आधार पर जन सहयोग से विनिर्मित करनी होगी। सरकारी शिक्षा अपने ढर्रे के अनुरूप रहे तो इससे कुछ बात बिगड़ती नहीं है।
युग सृजन के लिए प्रत्येक भावनाशील से समयदान और अंशदान की अपेक्षा की गई है। आमतौर से हर आदमी के चार घंटे, सुरक्षित रहते हैं। इसमें से कोई भी युगधर्म के प्रति निष्ठावान् दो घंटे तो लगा ही सकता है। विशिष्ट व्यक्तियों से आशा की गई है कि निर्वाह के लिए उपलब्ध साधनों के सहारे अथवा जनता से ब्राह्मणोचित आजीविका जुटाकर, इसी एक कार्य के लिए अपने को समर्पित करें। परिवार विस्तार और उसके लिए प्रचुर संपदा सँजोने की ललक घटाई या मिटाई जा सके, तो लोकसेवी की समूची क्षमता उस प्रयोजन के लिए समर्पित हो सकती है, जिसकी महाकाल ने जीवंतों, प्राणवानों और युग सृजेताओं से आशा अपेक्षा की है। वानप्रस्थ परंपरा पुनर्जीवित हो सकें तो सतयुग की वापसी के लिए समर्थ अनुभवी प्रतिभाएँ कार्य क्षेत्र में उतरती और अति महत्त्वपूर्ण मोर्चा सम्हालती देखी जा सकती हैं।
उपरोक्त ही प्रयास समय साध्य नहीं, साधन साध्य भी हैं। इसके लिए आरंभिक दिनों में दस पैसा नित्य निकालने में ज्ञानघट योजना से भी श्री गणेश कराया गया था। अब कार्य विस्तार के साथ-साथ अंशदान बढ़ाने की आवश्यकता भी पड़ेगी। इसके लिए अग्रगामियों से आशा की गई है कि वे महीने में उन्तीस दिन की कमाई से गुजारा करें और एक-एक दिन की आजीविका नियमित रूप से निकालते रहें, जिससे नवनिर्माण की गगनचुंबी योजनाओं में उचित सीमा तक योगदान मिल सके एवं उनका विस्तार हो सके, जिन्होंने अधिक संचय कर रखा है, वे उसे प्रायश्चित स्वरूप विसर्जित कर दें तो ही ठीक है। प्राचीन काल में वरिष्ठजन अपनी संचित संपदा को ऐसे ही पुण्य प्रयोजनों के लिए सर्वमेध यज्ञ के रूप में, युग समस्याओं के समाधान में नियोजित कर देते थे। भामाशाह, अशोक, हर्षवर्धन, वाजिश्रवा आदि के असंख्यों उदाहरण ऐसे हैं। इसी पुण्य परंपरा में स्वेच्छापूर्वक समर्पित यह अनुदान; दाता के निज के लिए और समूची विश्व-मानवता के लिए श्रेयस्कर ही होगा। प्रस्तुत समयदान या अंशदान उस लोक शिक्षण में ही नियोजित होना चाहिए, जिस पर नवयुग का अवतरण अवलंबित है। यह दो ब्रह्मकर्म है और इन्हीं की अनुकंपा से कभी सतयुग की कालावधि में सर्वत्र आनंद मंगल बिखर रहा था। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण हेतु इन्हीं दो चरणों को उठाते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचाया जा सकता है।
अभी तक गंतव्य का दिशा निर्धारण मात्र ही हो सका है। करने को तो इतना पड़ा है हर स्थिति का व्यक्ति अपने अनुरूप नवसृजन के लिए सरलतापूर्वक काम पा सके। इसके लिए आवश्यक मार्गदर्शन वह दिव्य सत्ता देती रह सकती है, जिसने कि इतनी बड़ी महाक्रांति की योजना बनाई और उसके लिए आवश्यक साधन जुटाने की पुरानी प्रतिज्ञा नए सिरे से दुहराई है।
इस संदर्भ में शान्तिकुञ्ज में ऐसे साधना-प्रशिक्षण सत्र चलाए जा रहे हैं, जिनमें युगशक्ति के भागीदार बनते हुए सुनिश्चित दिशा में कुछ कर सकने का क्रम अपनाया जा सके , उसके लिए उपयुक्त प्रेरणा एवं शक्ति संग्रहीत की जा सके। यह सत्र ९ दिन के जीवन साधना सत्रों से रूप में लगातार वर्ष भर होते रहते हैं। प्रतिमाह ता, १ से ९, ११ से १९, २१ से २९, इनकी तिथियाँ निर्धारित हैं। इन सत्रों में आत्मबल संवर्धन के लिए सर्व सुलभ किंतु विशेष प्रभावशाली आध्यात्मिक साधनाएँ कराई जाती हैं। इनमें सामान्य मार्गदर्शन के साथ-साथ व्यक्ति की भावना, क्षमता, योग्यता, परिस्थितियों आदि के अनुरूप सुझाव-परामर्श देने की भी व्यवस्था रहती है। हर स्थिति, हर क्षमता तथा हर स्तर का व्यक्ति अपने लिए उपयुक्त धारा चुन सकता है।
जिनके पास समय अधिक है, लोक सेवा के लिए कुछ अधिक करना एवं उसके लिए योग्यता बढ़ाना चाहते हैं, उनके लिए एक-एक माह के सत्र प्रति माह ता. १ से २९ तक चलते रहते हैं। किसी भी सत्र में प्रवेश के लिए अपना पूरा नाम, पता, परिचय तथा अनुकूल समय की जानकारी के साथ आवेदन भेजने पर स्वीकृति दी जाती है।
अगले दिनों वर्तमान चिंतन को नयी दिशाधारा देनी होगी, ताकि उसे विवेक की कसौटी पर कसने के बाद जो उचित हो उसी को अंगीकार करने का साहस उभरे, साथ ही ऐसा पराक्रम भी जगे जो अनौचित्य से जूझने को न सही, कम से कम अस्वीकार करने के लिए तो कटिबद्ध हो सके। इस प्रयोजन के लिए, अनेक प्रचलनों और मान्यताओं का परिशोधन करने के लिए प्रचार माध्यमों में युग चेतना का समावेश करने के निमित्त बड़े प्रयास करने होंगे। इसका प्रथम प्रयास तो युग साहित्य का सृजन ही है, पर वह बीज बोने-जैसा श्री गणेश भर है। वस्तुत: उसका विकसित रूप तभी बन सकेगा, जब हर भाषा में उसके प्रकाशन की ही नहीं विक्रय की भी व्यापक व्यवस्था बन पड़े। सृजन के साथ ही उसके परिवर्धन और प्रचलन की आवश्यकता पड़ती है, अन्यथा उगे अंकुर सूखकर रह जाते हैं।
विचारक्रांति के लिए साहित्य-सृजन एक कार्य है, पर उतने भर से प्रयोजन की पूर्णता कहाँ बनती हैं? तीन चौथाई अशिक्षित जनता के लिए विचार-परिवर्तन का आधार तभी बन पड़ेगा जब दृश्य और श्रव्य के सशक्त आधार विनिर्मित और प्रचलित किए जाएँ। इसके लिए यांत्रिक माध्यम भी अपनाने पड़ेंगे। लेखनी अब पर्याप्त नहीं रही, उसके लिए प्रेस माध्यम का अपनाया जाना अनिवार्य हो गया है। यह विज्ञान युग जो है-पत्रिका ,पुस्तकें प्रचार, पत्र, स्टीकर, पोस्टर जैसे अनेक आधार अब अपेक्षित है। प्रकाश चित्रों -(स्लाइड प्रोजेक्टरों) का प्रदर्शन भी इसी उद्देश्य की पूर्ति का एक भाग बन गया है। चित्र विभाग में ही फिल्में भी आती हैं। कभी कथा, प्रवचन व संकीर्तन आदि की सत्संग प्रक्रिया ही वाणी के माध्यम से सद्विचार-संवर्धन का काम पूरा कर लिया करती थी। पर अब तो अलख जगाने, प्रभात फेरियाँ निकालने जैसे वे उपचार काम में लेने होंगे, जिनके लिए लोगों के एकत्रित होने की प्रतीक्षा न करनी पड़े। जन-जन से संपर्क साधना और घर-घर अलख जगाने का प्रयोजन जिस प्रकार भी पूरा हो सके , उन उपकरणों को काम में लिया जाए। संगीत और अभिनय का अपना महत्त्व है। उन्हें किस प्रकार व्यापक प्रचार का सर्वसुलभ साधन बनाया जा सकता है, इसके लिए भी गंभीरतापूर्वक विचार करना और मार्ग ढूँढ़ना होगा। इस प्रयास को इतना व्यापक बनाना होगा कि सभी भाषा-भाषी इस प्रकाश-प्रसारण का लाभ बिना किसी अवरोध के प्राप्त कर सकें।
प्रचार की परिधि में आवश्यक है और प्रथम चरण की पूर्ति करने में समर्थ भी है, पर उतने को ही पर्याप्त नहीं मान लेना चाहिए। दूसरा चरण है-प्रशिक्षण वर्तमान मान्यताओं-प्रचलनों मेें से अधिकांश को बदलना होगा। इसे यों भी कहा जा सकता है कि जन रुचि जिस रूप में इन दिनों विद्यमान है, उसे भट्टी में गलाना और नये ढाँचे में ढाला जाना है। यह बड़ा काम इसलिए है कि प्रस्तुत मान्यताएँ, आदतें और परंपराएँ इतनी आसानी से इतना बड़ा परिवर्तन अंगीकार करने के लिए सहज सहमत नहीं हो सकतीं। इस समूची प्रक्रिया को ‘‘ब्रेनवाशिंग’’ भर न कहकर कायाकल्प स्तर पर निरूपित करना होगा। यह कार्य ऐसी शिक्षण परिपाटी ही कर सकती है, जिससे बौद्धिकता को समझाने और नए प्रयोगों के अनुरूप मानस बनाने की ही नहीं, व्यवहार में उलट-पुलट कर सकने तक की समर्थता विद्यमान हो।
व्यवस्था और मान्यता के क्षेत्र में एकता-समता यथार्थवादी एकरूपता लाने के लिए जिस शिक्षा की आवश्यकता है, वह शिक्षितों और अशिक्षितों को बिना किसी भेदभाव के उपलब्ध कराने की आवश्यकता पड़ेगी। इसे संप्रदायों, भाषाओं, आदतों और रीति-रिवाजों के वर्तमान ढाँचे से ऊपर उठकर उस मार्ग को अपनाना होगा, जो नए युग के नए मनुष्य की जिज्ञासा और आवश्यकता की भली भाँति पूर्ति कर सके ।
शिक्षा का ढर्रा भी बदलना होगा। नई शिक्षा प्रणाली के लिए अवकाश के घंटे भी सीमित करने होंगे और उस उपक्रम को इतने लंबे समय तक चलाना होगा; जब तक कि मूढ़ मान्यताओं से पूरी तरह पीछा न छूट जाए और मानवी चलन अपनी गरिमा के अनुरूप व्यवहार करने का आदी न हो जाए। जीवन अनेकों क्षेत्रों में बँटा हुआ है। शरीर, मन व्यवहार, प्रचलन उपार्जन उपयोग आदि अनेक उसके पक्ष हैं। इन सभी में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता है। भावी शिक्षा पद्धति इसी आधार पर जन सहयोग से विनिर्मित करनी होगी। सरकारी शिक्षा अपने ढर्रे के अनुरूप रहे तो इससे कुछ बात बिगड़ती नहीं है।
युग सृजन के लिए प्रत्येक भावनाशील से समयदान और अंशदान की अपेक्षा की गई है। आमतौर से हर आदमी के चार घंटे, सुरक्षित रहते हैं। इसमें से कोई भी युगधर्म के प्रति निष्ठावान् दो घंटे तो लगा ही सकता है। विशिष्ट व्यक्तियों से आशा की गई है कि निर्वाह के लिए उपलब्ध साधनों के सहारे अथवा जनता से ब्राह्मणोचित आजीविका जुटाकर, इसी एक कार्य के लिए अपने को समर्पित करें। परिवार विस्तार और उसके लिए प्रचुर संपदा सँजोने की ललक घटाई या मिटाई जा सके, तो लोकसेवी की समूची क्षमता उस प्रयोजन के लिए समर्पित हो सकती है, जिसकी महाकाल ने जीवंतों, प्राणवानों और युग सृजेताओं से आशा अपेक्षा की है। वानप्रस्थ परंपरा पुनर्जीवित हो सकें तो सतयुग की वापसी के लिए समर्थ अनुभवी प्रतिभाएँ कार्य क्षेत्र में उतरती और अति महत्त्वपूर्ण मोर्चा सम्हालती देखी जा सकती हैं।
उपरोक्त ही प्रयास समय साध्य नहीं, साधन साध्य भी हैं। इसके लिए आरंभिक दिनों में दस पैसा नित्य निकालने में ज्ञानघट योजना से भी श्री गणेश कराया गया था। अब कार्य विस्तार के साथ-साथ अंशदान बढ़ाने की आवश्यकता भी पड़ेगी। इसके लिए अग्रगामियों से आशा की गई है कि वे महीने में उन्तीस दिन की कमाई से गुजारा करें और एक-एक दिन की आजीविका नियमित रूप से निकालते रहें, जिससे नवनिर्माण की गगनचुंबी योजनाओं में उचित सीमा तक योगदान मिल सके एवं उनका विस्तार हो सके, जिन्होंने अधिक संचय कर रखा है, वे उसे प्रायश्चित स्वरूप विसर्जित कर दें तो ही ठीक है। प्राचीन काल में वरिष्ठजन अपनी संचित संपदा को ऐसे ही पुण्य प्रयोजनों के लिए सर्वमेध यज्ञ के रूप में, युग समस्याओं के समाधान में नियोजित कर देते थे। भामाशाह, अशोक, हर्षवर्धन, वाजिश्रवा आदि के असंख्यों उदाहरण ऐसे हैं। इसी पुण्य परंपरा में स्वेच्छापूर्वक समर्पित यह अनुदान; दाता के निज के लिए और समूची विश्व-मानवता के लिए श्रेयस्कर ही होगा। प्रस्तुत समयदान या अंशदान उस लोक शिक्षण में ही नियोजित होना चाहिए, जिस पर नवयुग का अवतरण अवलंबित है। यह दो ब्रह्मकर्म है और इन्हीं की अनुकंपा से कभी सतयुग की कालावधि में सर्वत्र आनंद मंगल बिखर रहा था। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण हेतु इन्हीं दो चरणों को उठाते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचाया जा सकता है।
अभी तक गंतव्य का दिशा निर्धारण मात्र ही हो सका है। करने को तो इतना पड़ा है हर स्थिति का व्यक्ति अपने अनुरूप नवसृजन के लिए सरलतापूर्वक काम पा सके। इसके लिए आवश्यक मार्गदर्शन वह दिव्य सत्ता देती रह सकती है, जिसने कि इतनी बड़ी महाक्रांति की योजना बनाई और उसके लिए आवश्यक साधन जुटाने की पुरानी प्रतिज्ञा नए सिरे से दुहराई है।
इस संदर्भ में शान्तिकुञ्ज में ऐसे साधना-प्रशिक्षण सत्र चलाए जा रहे हैं, जिनमें युगशक्ति के भागीदार बनते हुए सुनिश्चित दिशा में कुछ कर सकने का क्रम अपनाया जा सके , उसके लिए उपयुक्त प्रेरणा एवं शक्ति संग्रहीत की जा सके। यह सत्र ९ दिन के जीवन साधना सत्रों से रूप में लगातार वर्ष भर होते रहते हैं। प्रतिमाह ता, १ से ९, ११ से १९, २१ से २९, इनकी तिथियाँ निर्धारित हैं। इन सत्रों में आत्मबल संवर्धन के लिए सर्व सुलभ किंतु विशेष प्रभावशाली आध्यात्मिक साधनाएँ कराई जाती हैं। इनमें सामान्य मार्गदर्शन के साथ-साथ व्यक्ति की भावना, क्षमता, योग्यता, परिस्थितियों आदि के अनुरूप सुझाव-परामर्श देने की भी व्यवस्था रहती है। हर स्थिति, हर क्षमता तथा हर स्तर का व्यक्ति अपने लिए उपयुक्त धारा चुन सकता है।
जिनके पास समय अधिक है, लोक सेवा के लिए कुछ अधिक करना एवं उसके लिए योग्यता बढ़ाना चाहते हैं, उनके लिए एक-एक माह के सत्र प्रति माह ता. १ से २९ तक चलते रहते हैं। किसी भी सत्र में प्रवेश के लिए अपना पूरा नाम, पता, परिचय तथा अनुकूल समय की जानकारी के साथ आवेदन भेजने पर स्वीकृति दी जाती है।