Books - ऋषि युग्म का उद्बोधन
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Language: HINDI
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जीवन के बुझते दीपों में
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(शलभ)
जीवन के बुझते दीपों में, हम फिर नव ज्योति जगायेंगे।
जिन नयनों के खारे आंसू, प्रतिपल भू पर झर जाते हैं।
जिन प्राणों के अरमान सदा, निष्फल होकर मर जाते हैं।।
जिनके स्वप्नों में सत्य नहीं, जिनके भावों में नश्वरता।
हम ऐसे दग्ध विकल हृदयों को, नव सन्देश सुनायेंगे।।
जीवन के बुझते0
जो जगती के विस्तृत पथ पर, दो पग भी आगे बढ़ न सके।
जो मन में चिर उल्लास लिये, दुर्गम पर्वत पर चढ़ न सके।।
जो बैठ गये थोड़ा चलकर, जिनमें उठने की शक्ति नहीं—
हम उन मृतप्राय मानवों में, नव-बल संचार करायेंगे।।
जीवन के बुझते0
जिनके अन्तस्तल में दारुण, दुख का सागर लहराता है।
जिनके सम्मुख आशाओं का, मरुथल सा बनता जाता है।।
जिनकी मन-वीणा टूट गयी, जिनके गीतों में नीरसता—
हम उनके बिखरे तारों को, स्वर-क्रम से आज सजायेंगे।
जीवन के बुझते0
रे उठो आज? रे सजो आज, संघर्षों का युग आया है।
बढ़ चलो वीर लेकर मशाल, जन-जन ने तुम्हें बुलाया है।।
तोड़ो बन्दी कारा अपनी, तोड़ो बन्धन की जंजीरें—
हम आग लगाकर इस जग में, फिर दुनियां नयी बसायेंगे।
जीवन के बुझते दीपों में, हम फिर नव ज्योति जलायेंगे।।
जीवन के बुझते दीपों में, हम फिर नव ज्योति जगायेंगे।
जिन नयनों के खारे आंसू, प्रतिपल भू पर झर जाते हैं।
जिन प्राणों के अरमान सदा, निष्फल होकर मर जाते हैं।।
जिनके स्वप्नों में सत्य नहीं, जिनके भावों में नश्वरता।
हम ऐसे दग्ध विकल हृदयों को, नव सन्देश सुनायेंगे।।
जीवन के बुझते0
जो जगती के विस्तृत पथ पर, दो पग भी आगे बढ़ न सके।
जो मन में चिर उल्लास लिये, दुर्गम पर्वत पर चढ़ न सके।।
जो बैठ गये थोड़ा चलकर, जिनमें उठने की शक्ति नहीं—
हम उन मृतप्राय मानवों में, नव-बल संचार करायेंगे।।
जीवन के बुझते0
जिनके अन्तस्तल में दारुण, दुख का सागर लहराता है।
जिनके सम्मुख आशाओं का, मरुथल सा बनता जाता है।।
जिनकी मन-वीणा टूट गयी, जिनके गीतों में नीरसता—
हम उनके बिखरे तारों को, स्वर-क्रम से आज सजायेंगे।
जीवन के बुझते0
रे उठो आज? रे सजो आज, संघर्षों का युग आया है।
बढ़ चलो वीर लेकर मशाल, जन-जन ने तुम्हें बुलाया है।।
तोड़ो बन्दी कारा अपनी, तोड़ो बन्धन की जंजीरें—
हम आग लगाकर इस जग में, फिर दुनियां नयी बसायेंगे।
जीवन के बुझते दीपों में, हम फिर नव ज्योति जलायेंगे।।