Books - उज्ज्वल भविष्य की सार्थक दिशा
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Language: HINDI
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जीवन को सार्थक बनाने का सही सुयोग
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मानवीय मस्तिष्क जीवन भर अनेकानेक प्रकार के ताने-बाने बुनता रहता है। शरीर भी कुछ-न-कुछ उठा-पटक जैसी हलचलें करने में हर घड़ी लगा रहता है। उसके सामने बाह्य जगत् की अगणित समस्याएँ अड़ी-खड़ी रहती हैं और उन्हीं को सुलझाने में, इच्छानुरूप हल निकालने में समूचा समय गुजर जाता है। इतने पर भी यह देखा जाता है, कि कदाचित् ही मनोरथों में से किसी का यत्किंचित् अंश ही किसी के हाथ लगता है। अधिकांश तो खाली हाथ आते और खाली हाथ ही लौट जाते हैं। असंतोष, विक्षोभ और उन्माद ही अपने-अपने रंग चढ़ाते और मजे चखाते रहते हैं। सुर दुर्लभ मनुष्य जीवन प्रायः इसी प्रकार भ्रमते-भ्रमाते गुजर जाता है और भगवान् के दरबार में वापस लौटने पर अपराधी की तरह लज्जा से आँखें-सिर झुकाये पश्चात्ताप से जलते हुए ही जा खड़ा होना होता है।
बड़ी भूल यह होती रहती है कि संसार भर का ज्ञान समेटने के लिए लालायित व्यक्ति, ज्ञानवान्-विद्वान् होने का दावा तो करता रहता है, पर ज्ञान इतना भी नहीं पाता कि वह स्वयं क्या है? किसलिए आया है? क्या करना और कहाँ जाना है? इस आत्म-विस्मृति के कारण वह भुलावों में रहता, छलावों में उलझता, अभावों के लिए रूदन करता-कराता किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करता है।
स्वरूप समझें-लक्ष्य पहचानें
यदि अपने स्वरूप और लक्ष्य की जानकारी रही होती, तो जिन्दगी को दाँव पर लगाकर इस प्रकार न हारना पड़ता, जिस प्रकार कि आम लोग हारे जुआरी की तरह सब कुछ गँवाकर, भारी उद्विग्नता के बीच विकट दुर्भाग्य का अनुभव करते हैं। अपने को चतुर और समर्थ समझने वालों तक को जब ऐसी दुर्गति के बीच दिन गुजारने पड़ते हैं, तब उन नर-वानरों के संबंध में क्या कहा जाय, जो पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ सोच या कर ही नहीं पाते? जिन्हें कोल्हू की तरह पिलते और पिलाते रहना ही भाग्य समझकर किसी प्रकार जीवित रहना पड़ता है। आत्म बोध के अभाव में, दिशा ज्ञान से रहित उड़ने वाली पतंग की तरह कुछ देर उचकने-मचकने के उपरान्त धराशायी होना और पानी के बबूले की तरह अपने अस्तित्व का अंत करना पड़ता है।
समझा जाना चाहिये कि मनुष्य जीवन, ईश्वर की विभूति-वैभव में सबसे ऊँचे दर्जे की अनुकम्पा-सम्पदा है। इस कलाकृति को उसने बड़े अरमानों के साथ सँजोया है। उसे सृष्टि का मुकुटमणि और अपना राजकुमार घोषित किया है। इसी के अनुरूप उसे ऐसा शरीर, ऐसा मानस और इतना वैभव प्रदान किया है कि वह उसके सहारे विश्व उद्यान को सँभालने-सँजोने का पुण्य-परमार्थ करने की अतिरिक्त उत्कृष्टता का परिचय देते हुए, देव मानवों जैसा जीवन जी सके। उदात्त दृष्टिकोण अपनाकर स्वयं स्वर्गीय भाव-संवेदनाओं का रसास्वादन करता रहे। पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि वह पथ भूले बनजारे की तरह कँटीली झाड़ियों में उलझता, पग-पग पर ठोकरें खाता किसी प्रकार समय गुजारता है। भूल-भुलैयों में जिसे उलझना पड़ रहा है, उसे मृग-तृष्णा में भटकते, थकते, खोजते ही दम तोड़ना पड़ता है। कईयों को तो और भी निकृष्ट दुष्टता और भ्रष्टता को चरितार्थ करते देखा जाता है। जिस प्रयोजन के लिए देव-मानव स्तर का मनुष्य जीवन किसी महान् सौभाग्य की तरह उपलब्ध हुआ था, उसकी ऐसी बर्बादी पर ऐसा अनर्थ बन पड़ने पर, दाता और ग्रहीता दोनों को अपार कष्ट सहना पड़ता है।
प्राप्त का दुरुपयोग न होने दें
खजांची, उच्च अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र में बहुत कुछ सँजोए रहते हैं; पर वह सारा वैभव नियुक्तिकर्ता द्वारा निर्धारित किये प्रयोजनों के लिए ही होता है। यदि उनमें से कोई, हस्तगत वैभव को मन मर्जी से स्वार्थ प्रयोजन के लिए खर्च करने लगे, तो समझना चाहिए कि अब इसे भर्त्सना ही नहीं, प्रताड़ना भी सहनी पड़ेगी। पदच्युत होकर अप्रामाणिक लोगों की तरह तिरस्कृत होते हुए ही भटकना पड़ेगा। इतनी छोटी बात भी जो अपने संबंध में न सोच सके और दुनिया भर की जानकारी बटोरने का घमण्ड करते हुए बुद्धिमान होने का अहंकार जताता रहे, तो उसे मूढ़मति के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा?
जन्मा, कुछ दिन खेला-कूदा, किशोरावस्था आने पर कल्पना की रंगीली उड़ानें भरना, युवा होते-होते विवाह बंधनों में बँधना, जो बोझ लादा उसे वहन करते रहने के लिए दिन-रात कमाने के लिए खटते रहना, बढ़ाए हुए परिवार की बढ़ती समस्याओं को जिस-तिस प्रकार किसी हद तक सुलझाना, ढलती आयु के साथ अशक्तता और रुग्णता का चढ़ दौड़ना, समर्थ सन्तानों द्वारा समस्त वैभव पर कब्जा जमा लेना, स्वयं को असहाय, अपमानित स्थिति में दिन गुजारने के लिए बाधित होना और रोते-कलपते मौत द्वारा दबोच लिया जाना, क्या यही है आम लोगों की नियति?
इस बीच सुखद सम्भावनाओं की आशा तो जब-तब बँधती रहती है, पर उसकी झलक-झाँकी तो क्षण भर के लिए सामने प्रकट, हस्तगत होने से पहले ही तिरोहित हो जाती है। तृष्णा अपनी जगह ज्यों की त्यों बनी रहती है। एक आकांक्षा पूरी होने से पहले ही दस और नयी उपज खड़ी होती हैं। इस प्रकार अभाव और असन्तोष की स्थिति ही बनी रहती है। बाहर के लोगों को सुखी और सम्पन्न दीखने वाला भी, भीतर कितना अशान्त और उद्विग्न है, इस वस्तु स्थिति को कोई क्या समझे? अपने आस-पास की ही वास्तविकता से कोसों दूर, भ्रान्तियों में उलझे रहकर, अधिकांश लोगों से तो आत्म समीक्षा तक नहीं बन पड़ती।
जिन्दगी का बोझ तो किसी प्रकार वहन कर लिया जाता है, पर उसके साथ अपने को, विशाल विश्व को और भारी अरमानों के साथ हमें निहाल करने वाले स्रष्टा को क्या मिला? इस प्रकार विचार करने पर एक ही उत्तर प्रतिध्वनित होता है, कि जो सुयोग-सौभाग्य उपलब्ध हुआ था, वह जलने-भुनने पर उठने वाले काले धुएँ की तरह कुछ बना तो सही; पर अदृश्य अन्तरिक्ष में एक विस्मृत तथ्य बनकर न जाने कहाँ तिरोहित हो गया?
बात बर्बादी तक ही होती, तो भी किसी प्रकार उसे सहा जा सकता था; पर पतन और पराभव की, अपयश-असन्तोष की बोझिल पाप-पिटारी भी सिर पर लदती है, और वही साथ जाती है। यह वस्तु स्थिति जब समझ में आती है, तभी अपने द्वारा ही अपना अनर्थ बन पड़ने पर, इस चौकाने वाली बात का अनुभव होता है कि भौतिक महत्त्वाकांक्षाएँ सीधे ढंग से पूरी नहीं हो सकतीं। इस संसार में मात्र इतनी साधन-सामग्री है कि सभी लोग मिल-बाँटकर खा सकें और समता एवं एकता अनुभव करते हुए, हँसते-हँसाते जी सकें। किन्तु जिन पर बड़प्पन बटोरने की हविस चढ़ी है, जो इन्द्र से कम शक्तिवान् और कुबेर से कम सम्पन्न नहीं रहना चाहते; उन अतिवादियों के लिए मात्र एक ही काम शेष रहता है- अनाचार के अवलम्बन का। दीवार ऊँची उठानी हो तो कहीं-न-कहीं से मिट्टी खोदनी पड़ेगी, गड्ढा बनेगा। अनेकों को अभाव के गर्त में धकेले बिना कोई सुसम्पन्न नहीं बन सकता। महत्त्वाकांक्षी तो सर्व साधारण की तुलना में बहुत बढ़ा रहना चाहता है। इस तृष्णा की सुरसा को तृप्त तो कोई नहीं कर पाया, पर इस विभ्रम में अपना और दूसरों का अहित इतना अधिक कर लेता है, कि उस असीम ललक-लिप्सा को मात्र धिक्कारा ही जा सकता है। भले ही कुछ चाटुकार-चापलूस उस अनर्थ संचय को सौभाग्य और पराक्रम कहकर बखानते रहें; भले ही कोई अपने को दूसरों से बढ़कर दिखाता अथवा स्वयं के गौरव का उपहासास्पद बखान करता रहे।
यही है वह समूचा भ्रम-जंजाल, जिसमें उलझकर जीवन-सम्पदा को फुलझड़ी जैसा कौतुक-कौतूहल मात्र बनकर रह जाना पड़ता हो। नशेबाजों जैसी अर्ध विक्षिप्तता जब तक सिर पर चढ़ी रहती है, तब तक तो कुछ पता ही नहीं चलता कि अपने ही हाथों अपने ऊपर कितना अनर्थ लादा जा रहा है; जब आँख खुलती है, तब बहुत देर हो चुकी होती है, न तो पीछे लौटना बन पड़ता है और न सुधार करके नये सिरे से गिनती गिनते ही बन पड़ती है।
मनुष्य जीवन की सम्पदा निरर्थक विडम्बनाओं में गँवा देने पर, भावी संभावनाएँ घोर संकट से भरी-पूरी ही सामने आ खड़ी होती है। चौरासी लाख योनियों में फिर से कष्ट-साध्य परिभ्रमण, पापों के दण्डों से भरी-पूरी लम्बे समय की नारकीय यातना, सताये-बहकाये गये लोगों की अभिशाप भरी हाय, अपयश की लम्बे समय तक चलने वाली भर्त्सना, बस इतना भर शेष रह जाता है। जीवन की पूर्णाहुति हो जाने पर, पीछे के लिए क्या बुद्धिमानी, पुरुषार्थ-परायणता और सफलता इसी समूचे जाल-जंजाल को कहते हैं? इतने पर भी, मूर्खों को लज्जित होना तक आवश्यक प्रतीत नहीं होता और मरते-मरते भी मूँछें मड़ोरते और शेखी बघारते रहते हैं।
विवेक का संबल लें
अच्छा होता, यदि सघन अंधकार में भटकते हुुए जीवन धर्म को कहीं से प्रकाश की एक किरण हस्तगत होने का सुयोग बनता और भ्रान्तियों की भयानकता से उबरने का सुयोग प्राप्त हो पाता। अपने सम्बन्ध में विचार करने और जो बचा है, उसका सही सदुपयोग करके कुछ तो बना लेने का परामर्श प्राप्त होता; पर वह भी कहाँ बन पाता है। कदाचित् कहीं से उपयोगी सुझाव उभरता है, तो उसे अनसुना कर दिया जाता है। प्रकाश की ओर से मुँह मोड़ लिया जाता है। इस दयनीय-दुर्गति और उसके साथ जुड़ी हुई दुर्गति का आँकलन करने वाला विवेक ‘‘हा-हन्त’’ कहकर, पेट में घूँसा मारकर, मुँह को हाथों में छिपाकर किसी कोने में जा बैठता है। जहाँ लाभ को हानि और हानि को लाभ समझाने की सनक ठण्डे उन्माद की तरह सिर पर सवार हो रही हो, वहाँ कोई करे भी क्या? कहे भी क्या?
इस भोंड़े संसार में ऊपर से नीचे गिराने का ही प्रचलन है, हर वस्तु ऊपर से नीचे गिरती है। आकाश में विचरने वाली उल्काएँ तक जमीन में आ गिरती हैं। ऊँचाई में उड़ने वाले बादल तक गुरुत्वाकर्षण से खिंचकर जमीन पर आ गिरते और धूल चाटते देखते जाते हैं। आदम-हव्वा तक ऊपर से नीचे कूद पड़े थे। हिमालय की बर्फ पिघलकर गहरे गड्ढों वाली नदी बनकर ही खारे समुद्र में जा मिलता है, जिसका पानी पशु-पक्षी तक नहीं पीते। यही है इस संसार का पतनोन्मुख प्रचलन, जिसका अनुसरण करके लोग अधोगामी चिन्तन और प्रयास अपनाते हैं। ऐसे ही लोग बड़ी संख्या में पाये और अपने इर्द-गिर्द मक्खी-मच्छरों की तरह विद्यमान दिखाई पड़ते हैं। इन बहुसंख्यकों का अनुकरण करके भला कोई अपना क्या हित साधन कर सकता है? उनके प्रश्न भी ऐसे ही अधोगामी ही होते हैं। तथाकथित स्वजन-संबन्धी भी ऐसे ही सुझाव देते और आग्रह करते देखे जाते हैं। उनका बुलावा अपने जैसी काक मण्डली में आ बैठने के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। अपने संचित कुसंस्कार भी उसी कीचड़ में लौट चलने के लिए प्रेरित करते हैं, जिनमें मुद्दतों रहना पड़ा। दूसरे अधिकांश लोग भी अन्धी भेड़ों की तरह उसी दिशा में बढ़ते चले जा रहे हैं।
सोचा अपने स्वयं में भी जाना चाहिए। अपने स्वयं के भूत, वर्तमान और भविष्य से भी ज्ञान उपलब्ध करना चाहिए। देखना अधोगामियों को ही नहीं चाहिए, वरन् वायु और अग्नि की तरह ऊपर की दिशा में ही बढ़ने वालों पर भी ध्यान देना चाहिये। नजर उठाकर उस ओर भी निहारना चाहिए, जिस दिशा-धारा को महामानवों ने अपनाया और उत्कृष्ट आदर्शवादिता पर चलते हुए पीछे वालों के लिए ऐसा मार्ग छोड़ा है, जिसका अनुकरण करने पर अपने को और साथी-सहचरों को भी धन्य बनाया जा सके। समझदारी यदि साथ दे सके, तो पहुँचा इस निष्कर्ष पर जाना चाहिए कि पतन से विमुख होकर उत्थान का मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर है।
नाविक अपने को, अपनी नाव को उसमें बैठे यात्रियों को खेकर इस पार से उस पार पहुँचाता है। क्या उस स्तर का मनोरथ अपने भीतर नहीं उठ सकता? क्या नर-पामरों जैसी दुर्गन्ध भरी जिन्दगी जीने की अपेक्षा ऊपरी लोक में रहने वाले देवताओं की स्थिति में जा पहुँचने के लिए अपने को उल्लसित-तरंगित नहीं किया जा सकता? क्या इस स्तर की साहसिकता और दूरदर्शिता अपना सकना अपने लिए संभव नहीं हो सकता?
यह सब भी अपने ही हाथ की बात है। जिसे अपने भाग्य का निर्माता माना गया है, वह उत्थान-पतन में से किसी को भी चुन सकता है। स्वर्ग या नरक में से किसी भी दिशा में चल पड़ने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है। परिस्थितियों को दोष देना व्यर्थ है। वे तो मनःस्थिति के अनुरूप ही ठहरती और बदलती रहती हैं। दूसरों का न सही, अपना भविष्य निर्माण करने के सम्बन्ध में कोई भी बात अपनाना और किसी राह पर चल पड़ना, पूरी तरह अपनी आकांक्षा और निर्धारण पर अवलम्बित है।
जो हाथ में है, उसे सँभालें
जो बीत गया, वह यदि अनुपयुक्त रहा हो, तो भी इतनी गुंजाइश अभी भी है कि शेष का सदुपयोग करके, बन पड़े अनर्थ का परिमार्जन किया जा सके। सूर, तुलसी, अम्बपाली, अंगुलिमाल, अजामिल, अशोक आदि आरम्भ से ही वैसे न थे, जैसे कि विवेक का उदय होने पर पीछे हो गये। नये सिरे से अपनायी गयी श्रेष्ठता इतनी समर्थ होती है कि उसके दबाव से पिछले दिनों बरती गयी अवांछनीयता को दबाया-दबोचा जा सके। जो खाई पिछले दिनों खोदी गयी थी, उसे भरने का प्रयत्न नये सिरे से चल पड़े, तो ऐसा समतल क्षेत्र विनिर्मित हो सकता है, जिस पर कुछ भी उगाया या खड़ा किया जा सके।
ऊर्ध्वगमन का निश्चय बन पड़ने पर, देवता लम्बे हाथ पसारते और डूबते को उबारने में कोई कुछ भी कोर कसर नहीं रखते हैं। ऊर्ध्वगामियों को भगवान् ने सदा सहारा दिया है और असमर्थता को- असमंजस को समाप्त करने में पूरा-पूरा सहयोग दिया है। दिव्य जीवन जीने के लिए संकल्प उभारने, साहस करने और ऊँची छलाँग लगाने के लिए उद्धत समर्पित लोगों में से किसी को भी मँझधार में डूबना नहीं पड़ा है। देवमानवों के उदाहरण इस तथ्य की साक्षी देने के लिए अभी भी इतिहास के पृष्ठों पर यत्र-तत्र वर्तमान हैं। ईसा, बुद्ध, गान्धी, विवेकानन्द, दयानन्द आदि की आरम्भिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि इनसे कोई बड़ी आशा की जाती। पर जब वे उत्कृष्टता अपनाने के लिए तरंगित हो उठे, तो दिव्य सत्ता ने उनकी भरपूर सहायता की, कठिनाइयों को सरल बनाया, आवश्यक सुविधा-साधनों को जुटाया और उससे कहीं अधिक आगे पहुँचाया, जहाँ तक उनने पहुँचने की अभिलाषा रखी और योजना बनायी। भगीरथ का गंगावतरण संकल्प, आरम्भ में असंभव जैसा लगता था, पर दैवी सत्ता ने उसे सर्वथा सम्भव करके दिखा दिया, साथ ही प्रसिद्ध कर दिया कि भगीरथ जनक और भागीरथी उनकी पुत्री भर थी। कदाचित् आरम्भ में भगीरथ ने इस उपलब्धि की कल्पना तक न की होगी। ऐसे उच्च आदर्श के लिए समर्पित होने पर दधीचि, हरिश्चन्द्र जैसे कितने ही बड़भागी बन चुके हैं। हनुमान्, अर्जुन ने जो श्रेय प्राप्त किया, उसकी पृष्ठभूमि तभी बनी, जब उनने अपने आप को उत्कृष्टता के चरणों में समर्पित कर दिया। ऋषियों-तपस्वियों की ऋद्धि-सिद्धियों के पीछे यही तथ्य काम करते और चमत्कार दिखाते पाये जाते हैं।
ईश्वर को मनुहार करके या छुट-पुट उपहार देकर फुसलाया नहीं जा सकता। न उसे छुट-पुट कर्मकाण्डों के सहारे चंगुल में फँसाया जा सकता है। किन्हीं की बकवाद भी उस सर्वज्ञ को किसी के उद्देश्य के सम्बन्ध में बहका नहीं सकती। व्यक्ति के चिन्तन और कर्म की दिशाधारा ही उसे प्रभावित करने और सहयोगी बनाने में सफल हो सकते हैं। महामनीषियों ने इसी लक्ष्य को समझा और समझाया है।
वर्तमान सुयोग समझें
इन दिनों एक अद्भुत सुयोग-संयोग है, ईश्वर इस संसार की वर्तमान परिस्थितियों का काया-कल्प करना चाहता है। युग परिवर्तन की सुनिश्चित योजना उसने बना ली है। इक्कीसवीं सदी में उस नियोजन का अधिकांश भाग पूरा हो चुका होगा। यही समय है, जब भगवान् के सहचर होकर उसका हाथ बँटा सकते हैं, वह सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं, जो कभी केवट, शबरी, गीध, गिलहरी ने भौतिक दृष्टि से असमर्थ होते हुए भी अपनी भावनाओं को क्रिया रूप में परिणत करके पाया था। उनमें से कोई घाटे में नहीं रहा। सुग्रीव और विभीषण भगवान् के सहयोगी बनकर घाटे में नहीं रहे। सुदामा को अपनी बगल में दबी हुई चावल की पोटली तो सौंपनी पड़ी, पर बदले में उसने फूस-छप्पर वाली झोपड़ी को द्वारिका के रूप में परिवर्तित और सुसज्जित पाया। कल-परसों गुजरात वीरपुर के जलाराम बापा अक्षय अन्न भण्डार की झोली पा चुके हैं। उनने अपना समूचा साधन और वैभव भगवत् प्रयोजन के लिए समर्पित जो किया था।
यशोधरा के पुत्र राहुल और अशोक की पुत्री संघमित्रा ने तथागत के संकेतों पर अपने को निछावर करके वह श्रेय पाया, जिसे कदाचित् वे सामान्य जनों जैसा संकीर्ण स्वार्थ परक जीवन जीते हुए किसी प्रकार पा नहीं सकते थे। बुद्ध और गान्धी की सफलताओं के पीछे भी यही तथ्य काम करते हुए देखा जा सकता है। ईश्वरीय शक्ति तथा अनुकम्पा तो मनुष्य मात्र के लिए उपलब्ध रहती है। अर्जुन का रथ हाँकने वाला अभी भी खोजबीन में है कि कोई ऐसा और मिले, जिसका सारथी बनने का उसे सुयोग मिल सके। देवताओं के संयुक्त अनुदानों का संग्रह, महाकाली-दुर्गा के रूप में प्रकट हुआ था, उसने महिषासुर जैसे दुर्दान्तों को धूलि चटाने और देवताओं को अपने पद पर पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया था। उसी शक्ति को, सामयिक सुधार-परिवर्तन करने के लिए ऐसे देव मानवों की आवश्यकता पड़ रही है, जिन्हें समवेत करके पाण्डवों की तरह मोर्चे पर अड़ाया और महाभारत जीतने का श्रेय दिलाया जा सके। महाकाल की इस पुकार को सुनने, समझने और अपनाने में आज के दूरदर्शियों में से किसी को भी पीछे नहीं रहना चाहिए। सुर दुर्लभ मनुष्य जीवन को धन्य बनाने का सनातन राजमार्ग सभी के लिए सदा खुला रहा है, पर इस प्रकार की सफलता के लिए यह अधिक सरल और अधिक सुनिश्चित सुयोग आ उपस्थित हुआ है। भगवान् की योजना में सहयोगी होकर शान्तिकुञ्ज की कार्य पद्धति अपने को धन्य बना रही है। किसी के साथ जुड़कर तिनकों का सम्मिलित रूप मजबूत रस्सों के रूप में विनिर्मित हो सके, ऐसी ही श्रेय साधना का, जीवन को धन्य बनाने का ठीक यही पर्व-मुहूर्त है। इसे चूका न जाय, तो ही ठीक होगा।
बड़ी भूल यह होती रहती है कि संसार भर का ज्ञान समेटने के लिए लालायित व्यक्ति, ज्ञानवान्-विद्वान् होने का दावा तो करता रहता है, पर ज्ञान इतना भी नहीं पाता कि वह स्वयं क्या है? किसलिए आया है? क्या करना और कहाँ जाना है? इस आत्म-विस्मृति के कारण वह भुलावों में रहता, छलावों में उलझता, अभावों के लिए रूदन करता-कराता किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करता है।
स्वरूप समझें-लक्ष्य पहचानें
यदि अपने स्वरूप और लक्ष्य की जानकारी रही होती, तो जिन्दगी को दाँव पर लगाकर इस प्रकार न हारना पड़ता, जिस प्रकार कि आम लोग हारे जुआरी की तरह सब कुछ गँवाकर, भारी उद्विग्नता के बीच विकट दुर्भाग्य का अनुभव करते हैं। अपने को चतुर और समर्थ समझने वालों तक को जब ऐसी दुर्गति के बीच दिन गुजारने पड़ते हैं, तब उन नर-वानरों के संबंध में क्या कहा जाय, जो पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ सोच या कर ही नहीं पाते? जिन्हें कोल्हू की तरह पिलते और पिलाते रहना ही भाग्य समझकर किसी प्रकार जीवित रहना पड़ता है। आत्म बोध के अभाव में, दिशा ज्ञान से रहित उड़ने वाली पतंग की तरह कुछ देर उचकने-मचकने के उपरान्त धराशायी होना और पानी के बबूले की तरह अपने अस्तित्व का अंत करना पड़ता है।
समझा जाना चाहिये कि मनुष्य जीवन, ईश्वर की विभूति-वैभव में सबसे ऊँचे दर्जे की अनुकम्पा-सम्पदा है। इस कलाकृति को उसने बड़े अरमानों के साथ सँजोया है। उसे सृष्टि का मुकुटमणि और अपना राजकुमार घोषित किया है। इसी के अनुरूप उसे ऐसा शरीर, ऐसा मानस और इतना वैभव प्रदान किया है कि वह उसके सहारे विश्व उद्यान को सँभालने-सँजोने का पुण्य-परमार्थ करने की अतिरिक्त उत्कृष्टता का परिचय देते हुए, देव मानवों जैसा जीवन जी सके। उदात्त दृष्टिकोण अपनाकर स्वयं स्वर्गीय भाव-संवेदनाओं का रसास्वादन करता रहे। पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि वह पथ भूले बनजारे की तरह कँटीली झाड़ियों में उलझता, पग-पग पर ठोकरें खाता किसी प्रकार समय गुजारता है। भूल-भुलैयों में जिसे उलझना पड़ रहा है, उसे मृग-तृष्णा में भटकते, थकते, खोजते ही दम तोड़ना पड़ता है। कईयों को तो और भी निकृष्ट दुष्टता और भ्रष्टता को चरितार्थ करते देखा जाता है। जिस प्रयोजन के लिए देव-मानव स्तर का मनुष्य जीवन किसी महान् सौभाग्य की तरह उपलब्ध हुआ था, उसकी ऐसी बर्बादी पर ऐसा अनर्थ बन पड़ने पर, दाता और ग्रहीता दोनों को अपार कष्ट सहना पड़ता है।
प्राप्त का दुरुपयोग न होने दें
खजांची, उच्च अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र में बहुत कुछ सँजोए रहते हैं; पर वह सारा वैभव नियुक्तिकर्ता द्वारा निर्धारित किये प्रयोजनों के लिए ही होता है। यदि उनमें से कोई, हस्तगत वैभव को मन मर्जी से स्वार्थ प्रयोजन के लिए खर्च करने लगे, तो समझना चाहिए कि अब इसे भर्त्सना ही नहीं, प्रताड़ना भी सहनी पड़ेगी। पदच्युत होकर अप्रामाणिक लोगों की तरह तिरस्कृत होते हुए ही भटकना पड़ेगा। इतनी छोटी बात भी जो अपने संबंध में न सोच सके और दुनिया भर की जानकारी बटोरने का घमण्ड करते हुए बुद्धिमान होने का अहंकार जताता रहे, तो उसे मूढ़मति के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा?
जन्मा, कुछ दिन खेला-कूदा, किशोरावस्था आने पर कल्पना की रंगीली उड़ानें भरना, युवा होते-होते विवाह बंधनों में बँधना, जो बोझ लादा उसे वहन करते रहने के लिए दिन-रात कमाने के लिए खटते रहना, बढ़ाए हुए परिवार की बढ़ती समस्याओं को जिस-तिस प्रकार किसी हद तक सुलझाना, ढलती आयु के साथ अशक्तता और रुग्णता का चढ़ दौड़ना, समर्थ सन्तानों द्वारा समस्त वैभव पर कब्जा जमा लेना, स्वयं को असहाय, अपमानित स्थिति में दिन गुजारने के लिए बाधित होना और रोते-कलपते मौत द्वारा दबोच लिया जाना, क्या यही है आम लोगों की नियति?
इस बीच सुखद सम्भावनाओं की आशा तो जब-तब बँधती रहती है, पर उसकी झलक-झाँकी तो क्षण भर के लिए सामने प्रकट, हस्तगत होने से पहले ही तिरोहित हो जाती है। तृष्णा अपनी जगह ज्यों की त्यों बनी रहती है। एक आकांक्षा पूरी होने से पहले ही दस और नयी उपज खड़ी होती हैं। इस प्रकार अभाव और असन्तोष की स्थिति ही बनी रहती है। बाहर के लोगों को सुखी और सम्पन्न दीखने वाला भी, भीतर कितना अशान्त और उद्विग्न है, इस वस्तु स्थिति को कोई क्या समझे? अपने आस-पास की ही वास्तविकता से कोसों दूर, भ्रान्तियों में उलझे रहकर, अधिकांश लोगों से तो आत्म समीक्षा तक नहीं बन पड़ती।
जिन्दगी का बोझ तो किसी प्रकार वहन कर लिया जाता है, पर उसके साथ अपने को, विशाल विश्व को और भारी अरमानों के साथ हमें निहाल करने वाले स्रष्टा को क्या मिला? इस प्रकार विचार करने पर एक ही उत्तर प्रतिध्वनित होता है, कि जो सुयोग-सौभाग्य उपलब्ध हुआ था, वह जलने-भुनने पर उठने वाले काले धुएँ की तरह कुछ बना तो सही; पर अदृश्य अन्तरिक्ष में एक विस्मृत तथ्य बनकर न जाने कहाँ तिरोहित हो गया?
बात बर्बादी तक ही होती, तो भी किसी प्रकार उसे सहा जा सकता था; पर पतन और पराभव की, अपयश-असन्तोष की बोझिल पाप-पिटारी भी सिर पर लदती है, और वही साथ जाती है। यह वस्तु स्थिति जब समझ में आती है, तभी अपने द्वारा ही अपना अनर्थ बन पड़ने पर, इस चौकाने वाली बात का अनुभव होता है कि भौतिक महत्त्वाकांक्षाएँ सीधे ढंग से पूरी नहीं हो सकतीं। इस संसार में मात्र इतनी साधन-सामग्री है कि सभी लोग मिल-बाँटकर खा सकें और समता एवं एकता अनुभव करते हुए, हँसते-हँसाते जी सकें। किन्तु जिन पर बड़प्पन बटोरने की हविस चढ़ी है, जो इन्द्र से कम शक्तिवान् और कुबेर से कम सम्पन्न नहीं रहना चाहते; उन अतिवादियों के लिए मात्र एक ही काम शेष रहता है- अनाचार के अवलम्बन का। दीवार ऊँची उठानी हो तो कहीं-न-कहीं से मिट्टी खोदनी पड़ेगी, गड्ढा बनेगा। अनेकों को अभाव के गर्त में धकेले बिना कोई सुसम्पन्न नहीं बन सकता। महत्त्वाकांक्षी तो सर्व साधारण की तुलना में बहुत बढ़ा रहना चाहता है। इस तृष्णा की सुरसा को तृप्त तो कोई नहीं कर पाया, पर इस विभ्रम में अपना और दूसरों का अहित इतना अधिक कर लेता है, कि उस असीम ललक-लिप्सा को मात्र धिक्कारा ही जा सकता है। भले ही कुछ चाटुकार-चापलूस उस अनर्थ संचय को सौभाग्य और पराक्रम कहकर बखानते रहें; भले ही कोई अपने को दूसरों से बढ़कर दिखाता अथवा स्वयं के गौरव का उपहासास्पद बखान करता रहे।
यही है वह समूचा भ्रम-जंजाल, जिसमें उलझकर जीवन-सम्पदा को फुलझड़ी जैसा कौतुक-कौतूहल मात्र बनकर रह जाना पड़ता हो। नशेबाजों जैसी अर्ध विक्षिप्तता जब तक सिर पर चढ़ी रहती है, तब तक तो कुछ पता ही नहीं चलता कि अपने ही हाथों अपने ऊपर कितना अनर्थ लादा जा रहा है; जब आँख खुलती है, तब बहुत देर हो चुकी होती है, न तो पीछे लौटना बन पड़ता है और न सुधार करके नये सिरे से गिनती गिनते ही बन पड़ती है।
मनुष्य जीवन की सम्पदा निरर्थक विडम्बनाओं में गँवा देने पर, भावी संभावनाएँ घोर संकट से भरी-पूरी ही सामने आ खड़ी होती है। चौरासी लाख योनियों में फिर से कष्ट-साध्य परिभ्रमण, पापों के दण्डों से भरी-पूरी लम्बे समय की नारकीय यातना, सताये-बहकाये गये लोगों की अभिशाप भरी हाय, अपयश की लम्बे समय तक चलने वाली भर्त्सना, बस इतना भर शेष रह जाता है। जीवन की पूर्णाहुति हो जाने पर, पीछे के लिए क्या बुद्धिमानी, पुरुषार्थ-परायणता और सफलता इसी समूचे जाल-जंजाल को कहते हैं? इतने पर भी, मूर्खों को लज्जित होना तक आवश्यक प्रतीत नहीं होता और मरते-मरते भी मूँछें मड़ोरते और शेखी बघारते रहते हैं।
विवेक का संबल लें
अच्छा होता, यदि सघन अंधकार में भटकते हुुए जीवन धर्म को कहीं से प्रकाश की एक किरण हस्तगत होने का सुयोग बनता और भ्रान्तियों की भयानकता से उबरने का सुयोग प्राप्त हो पाता। अपने सम्बन्ध में विचार करने और जो बचा है, उसका सही सदुपयोग करके कुछ तो बना लेने का परामर्श प्राप्त होता; पर वह भी कहाँ बन पाता है। कदाचित् कहीं से उपयोगी सुझाव उभरता है, तो उसे अनसुना कर दिया जाता है। प्रकाश की ओर से मुँह मोड़ लिया जाता है। इस दयनीय-दुर्गति और उसके साथ जुड़ी हुई दुर्गति का आँकलन करने वाला विवेक ‘‘हा-हन्त’’ कहकर, पेट में घूँसा मारकर, मुँह को हाथों में छिपाकर किसी कोने में जा बैठता है। जहाँ लाभ को हानि और हानि को लाभ समझाने की सनक ठण्डे उन्माद की तरह सिर पर सवार हो रही हो, वहाँ कोई करे भी क्या? कहे भी क्या?
इस भोंड़े संसार में ऊपर से नीचे गिराने का ही प्रचलन है, हर वस्तु ऊपर से नीचे गिरती है। आकाश में विचरने वाली उल्काएँ तक जमीन में आ गिरती हैं। ऊँचाई में उड़ने वाले बादल तक गुरुत्वाकर्षण से खिंचकर जमीन पर आ गिरते और धूल चाटते देखते जाते हैं। आदम-हव्वा तक ऊपर से नीचे कूद पड़े थे। हिमालय की बर्फ पिघलकर गहरे गड्ढों वाली नदी बनकर ही खारे समुद्र में जा मिलता है, जिसका पानी पशु-पक्षी तक नहीं पीते। यही है इस संसार का पतनोन्मुख प्रचलन, जिसका अनुसरण करके लोग अधोगामी चिन्तन और प्रयास अपनाते हैं। ऐसे ही लोग बड़ी संख्या में पाये और अपने इर्द-गिर्द मक्खी-मच्छरों की तरह विद्यमान दिखाई पड़ते हैं। इन बहुसंख्यकों का अनुकरण करके भला कोई अपना क्या हित साधन कर सकता है? उनके प्रश्न भी ऐसे ही अधोगामी ही होते हैं। तथाकथित स्वजन-संबन्धी भी ऐसे ही सुझाव देते और आग्रह करते देखे जाते हैं। उनका बुलावा अपने जैसी काक मण्डली में आ बैठने के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। अपने संचित कुसंस्कार भी उसी कीचड़ में लौट चलने के लिए प्रेरित करते हैं, जिनमें मुद्दतों रहना पड़ा। दूसरे अधिकांश लोग भी अन्धी भेड़ों की तरह उसी दिशा में बढ़ते चले जा रहे हैं।
सोचा अपने स्वयं में भी जाना चाहिए। अपने स्वयं के भूत, वर्तमान और भविष्य से भी ज्ञान उपलब्ध करना चाहिए। देखना अधोगामियों को ही नहीं चाहिए, वरन् वायु और अग्नि की तरह ऊपर की दिशा में ही बढ़ने वालों पर भी ध्यान देना चाहिये। नजर उठाकर उस ओर भी निहारना चाहिए, जिस दिशा-धारा को महामानवों ने अपनाया और उत्कृष्ट आदर्शवादिता पर चलते हुए पीछे वालों के लिए ऐसा मार्ग छोड़ा है, जिसका अनुकरण करने पर अपने को और साथी-सहचरों को भी धन्य बनाया जा सके। समझदारी यदि साथ दे सके, तो पहुँचा इस निष्कर्ष पर जाना चाहिए कि पतन से विमुख होकर उत्थान का मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर है।
नाविक अपने को, अपनी नाव को उसमें बैठे यात्रियों को खेकर इस पार से उस पार पहुँचाता है। क्या उस स्तर का मनोरथ अपने भीतर नहीं उठ सकता? क्या नर-पामरों जैसी दुर्गन्ध भरी जिन्दगी जीने की अपेक्षा ऊपरी लोक में रहने वाले देवताओं की स्थिति में जा पहुँचने के लिए अपने को उल्लसित-तरंगित नहीं किया जा सकता? क्या इस स्तर की साहसिकता और दूरदर्शिता अपना सकना अपने लिए संभव नहीं हो सकता?
यह सब भी अपने ही हाथ की बात है। जिसे अपने भाग्य का निर्माता माना गया है, वह उत्थान-पतन में से किसी को भी चुन सकता है। स्वर्ग या नरक में से किसी भी दिशा में चल पड़ने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है। परिस्थितियों को दोष देना व्यर्थ है। वे तो मनःस्थिति के अनुरूप ही ठहरती और बदलती रहती हैं। दूसरों का न सही, अपना भविष्य निर्माण करने के सम्बन्ध में कोई भी बात अपनाना और किसी राह पर चल पड़ना, पूरी तरह अपनी आकांक्षा और निर्धारण पर अवलम्बित है।
जो हाथ में है, उसे सँभालें
जो बीत गया, वह यदि अनुपयुक्त रहा हो, तो भी इतनी गुंजाइश अभी भी है कि शेष का सदुपयोग करके, बन पड़े अनर्थ का परिमार्जन किया जा सके। सूर, तुलसी, अम्बपाली, अंगुलिमाल, अजामिल, अशोक आदि आरम्भ से ही वैसे न थे, जैसे कि विवेक का उदय होने पर पीछे हो गये। नये सिरे से अपनायी गयी श्रेष्ठता इतनी समर्थ होती है कि उसके दबाव से पिछले दिनों बरती गयी अवांछनीयता को दबाया-दबोचा जा सके। जो खाई पिछले दिनों खोदी गयी थी, उसे भरने का प्रयत्न नये सिरे से चल पड़े, तो ऐसा समतल क्षेत्र विनिर्मित हो सकता है, जिस पर कुछ भी उगाया या खड़ा किया जा सके।
ऊर्ध्वगमन का निश्चय बन पड़ने पर, देवता लम्बे हाथ पसारते और डूबते को उबारने में कोई कुछ भी कोर कसर नहीं रखते हैं। ऊर्ध्वगामियों को भगवान् ने सदा सहारा दिया है और असमर्थता को- असमंजस को समाप्त करने में पूरा-पूरा सहयोग दिया है। दिव्य जीवन जीने के लिए संकल्प उभारने, साहस करने और ऊँची छलाँग लगाने के लिए उद्धत समर्पित लोगों में से किसी को भी मँझधार में डूबना नहीं पड़ा है। देवमानवों के उदाहरण इस तथ्य की साक्षी देने के लिए अभी भी इतिहास के पृष्ठों पर यत्र-तत्र वर्तमान हैं। ईसा, बुद्ध, गान्धी, विवेकानन्द, दयानन्द आदि की आरम्भिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि इनसे कोई बड़ी आशा की जाती। पर जब वे उत्कृष्टता अपनाने के लिए तरंगित हो उठे, तो दिव्य सत्ता ने उनकी भरपूर सहायता की, कठिनाइयों को सरल बनाया, आवश्यक सुविधा-साधनों को जुटाया और उससे कहीं अधिक आगे पहुँचाया, जहाँ तक उनने पहुँचने की अभिलाषा रखी और योजना बनायी। भगीरथ का गंगावतरण संकल्प, आरम्भ में असंभव जैसा लगता था, पर दैवी सत्ता ने उसे सर्वथा सम्भव करके दिखा दिया, साथ ही प्रसिद्ध कर दिया कि भगीरथ जनक और भागीरथी उनकी पुत्री भर थी। कदाचित् आरम्भ में भगीरथ ने इस उपलब्धि की कल्पना तक न की होगी। ऐसे उच्च आदर्श के लिए समर्पित होने पर दधीचि, हरिश्चन्द्र जैसे कितने ही बड़भागी बन चुके हैं। हनुमान्, अर्जुन ने जो श्रेय प्राप्त किया, उसकी पृष्ठभूमि तभी बनी, जब उनने अपने आप को उत्कृष्टता के चरणों में समर्पित कर दिया। ऋषियों-तपस्वियों की ऋद्धि-सिद्धियों के पीछे यही तथ्य काम करते और चमत्कार दिखाते पाये जाते हैं।
ईश्वर को मनुहार करके या छुट-पुट उपहार देकर फुसलाया नहीं जा सकता। न उसे छुट-पुट कर्मकाण्डों के सहारे चंगुल में फँसाया जा सकता है। किन्हीं की बकवाद भी उस सर्वज्ञ को किसी के उद्देश्य के सम्बन्ध में बहका नहीं सकती। व्यक्ति के चिन्तन और कर्म की दिशाधारा ही उसे प्रभावित करने और सहयोगी बनाने में सफल हो सकते हैं। महामनीषियों ने इसी लक्ष्य को समझा और समझाया है।
वर्तमान सुयोग समझें
इन दिनों एक अद्भुत सुयोग-संयोग है, ईश्वर इस संसार की वर्तमान परिस्थितियों का काया-कल्प करना चाहता है। युग परिवर्तन की सुनिश्चित योजना उसने बना ली है। इक्कीसवीं सदी में उस नियोजन का अधिकांश भाग पूरा हो चुका होगा। यही समय है, जब भगवान् के सहचर होकर उसका हाथ बँटा सकते हैं, वह सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं, जो कभी केवट, शबरी, गीध, गिलहरी ने भौतिक दृष्टि से असमर्थ होते हुए भी अपनी भावनाओं को क्रिया रूप में परिणत करके पाया था। उनमें से कोई घाटे में नहीं रहा। सुग्रीव और विभीषण भगवान् के सहयोगी बनकर घाटे में नहीं रहे। सुदामा को अपनी बगल में दबी हुई चावल की पोटली तो सौंपनी पड़ी, पर बदले में उसने फूस-छप्पर वाली झोपड़ी को द्वारिका के रूप में परिवर्तित और सुसज्जित पाया। कल-परसों गुजरात वीरपुर के जलाराम बापा अक्षय अन्न भण्डार की झोली पा चुके हैं। उनने अपना समूचा साधन और वैभव भगवत् प्रयोजन के लिए समर्पित जो किया था।
यशोधरा के पुत्र राहुल और अशोक की पुत्री संघमित्रा ने तथागत के संकेतों पर अपने को निछावर करके वह श्रेय पाया, जिसे कदाचित् वे सामान्य जनों जैसा संकीर्ण स्वार्थ परक जीवन जीते हुए किसी प्रकार पा नहीं सकते थे। बुद्ध और गान्धी की सफलताओं के पीछे भी यही तथ्य काम करते हुए देखा जा सकता है। ईश्वरीय शक्ति तथा अनुकम्पा तो मनुष्य मात्र के लिए उपलब्ध रहती है। अर्जुन का रथ हाँकने वाला अभी भी खोजबीन में है कि कोई ऐसा और मिले, जिसका सारथी बनने का उसे सुयोग मिल सके। देवताओं के संयुक्त अनुदानों का संग्रह, महाकाली-दुर्गा के रूप में प्रकट हुआ था, उसने महिषासुर जैसे दुर्दान्तों को धूलि चटाने और देवताओं को अपने पद पर पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया था। उसी शक्ति को, सामयिक सुधार-परिवर्तन करने के लिए ऐसे देव मानवों की आवश्यकता पड़ रही है, जिन्हें समवेत करके पाण्डवों की तरह मोर्चे पर अड़ाया और महाभारत जीतने का श्रेय दिलाया जा सके। महाकाल की इस पुकार को सुनने, समझने और अपनाने में आज के दूरदर्शियों में से किसी को भी पीछे नहीं रहना चाहिए। सुर दुर्लभ मनुष्य जीवन को धन्य बनाने का सनातन राजमार्ग सभी के लिए सदा खुला रहा है, पर इस प्रकार की सफलता के लिए यह अधिक सरल और अधिक सुनिश्चित सुयोग आ उपस्थित हुआ है। भगवान् की योजना में सहयोगी होकर शान्तिकुञ्ज की कार्य पद्धति अपने को धन्य बना रही है। किसी के साथ जुड़कर तिनकों का सम्मिलित रूप मजबूत रस्सों के रूप में विनिर्मित हो सके, ऐसी ही श्रेय साधना का, जीवन को धन्य बनाने का ठीक यही पर्व-मुहूर्त है। इसे चूका न जाय, तो ही ठीक होगा।