Books - उज्ज्वल भविष्य की सार्थक दिशा
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Language: HINDI
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उच्चस्तरीय परमार्थ समयदान
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क्रिया की प्रतिक्रिया का अनिवार्य क्रम
क्रिया की प्रतिक्रिया सृष्टि का शाश्वत नियम है। उसे हर कहीं और कभी भी चरितार्थ होते देखा जा सकता है। किसान जो बोता है, वही काटता है। सौभाग्य और दुर्भाग्य के अवसर यों अनायास ही आ उपस्थित हो जाते हैं; पर उनके पीछे भी मनुष्य के अपने कर्म ही झाँकते रहते हैं। भले ही वे अब नहीं, भूतकाल में कभी किये गये हों। यहाँ अकस्मात् कुछ नहीं होता। जो होता है, उसकी पृष्ठभूमि बहुत दिन पहले से ही बन रही होती है। बच्चे का जन्म प्रसव के उपरान्त प्रत्यक्ष आँखों से दीख पड़ता है; पर उसकी आधारशिला बहुत पहले गर्भाधान काल में ही रख गयी होती है। चर्म-चक्षुओं से प्रभात काल ही सूर्योदय का समय समझा जाता है; किन्तु वस्तुतः उसे अन्धकार के समापन की वेला के साथ जुड़ा हुआ भी समझा जा सकता है।
सुयोग के पीछे भी वही परम्परा अपने चमत्कार दिखा रही होती है। कर्मफल ही यहाँ सब कुछ है। संसार के हाट-बाजार में सब कुछ सज-धज के साथ रखा-सँजोया गया होता है। पर उसमें से मुफ्त किसी को कुछ नहीं मिलता। यहाँ क्रय-विक्रय का उपक्रम ही चलता रहता है। आदान-प्रदान का शाश्वत सत्य, निरन्तर अपनी सुनिश्चित विधि-व्यवस्था का परिचय देता रहता है। मुफ्त में तो जमीन पर बिखरी रेत-मिट्टी भी टोकरी में नहीं आ बैठती, इसके लिए भी खोदने-समेटने-उठाने का श्रम किसी-न-किसी को करना ही पड़ता है। संस्कृत की यह उक्ति ठीक ही है कि सोते सिंह के मुख में मृग नहीं घुस जाते।
मुफ्त में अनुदान-वरदान पाने की अपेक्षा, किसी को भी, किसी से भी नहीं करनी चाहिए। देवताओं से वरदान और धन-कुबेरों से अनुदान प्राप्त करने के लिए अपनी पात्रता का परिचय देना पड़ता है। मुफ्त-खोरों के लिए तो वे भी गूँगे-बहरे बनकर बैठे रहते हैं। सौभाग्य अनायास ही कहीं से आ नहीं टपकते। उस उपलब्धि के लिए बहुत पहले से ही अपनी धारण कर सकने की क्षमता अर्जित करनी पड़ती है। अक्षमों, दुर्बलों के तो हाथ में आयी सम्पदा भी चोर-उचक्कों द्वारा ठग ली या झपट ली जाती है। उपलब्ध भविष्य, यों बनता तो स्रष्टा की इच्छा, निर्धारण और व्यवस्था के अनुरूप ही है, पर उससे लाभान्वित होने के लिए इच्छुकों और उत्सुकों को भी कुछ असाधारण बनना पड़ता है।
सांसारिक उपलब्धियों के साथ भी यही क्रम जुड़ा है। अफसरों के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियाँ तो आयोग ही करता है; पर उस अनुग्रह को प्राप्त करने के लिए प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा परीक्षा में सम्मिलित ही नहीं होना पड़ता; वरन् उन कसौटियों पर खरा भी सिद्ध होना पड़ता है। अनुनय-विनय से तो उपेक्षापूर्वक यदा-कदा कुछ छोटी-मोटी वस्तु भर हाथ लगती है। शासन सत्ता में महत्त्वपूर्ण स्थान पाने के लिए चुनाव जीतना पड़ता है। वह सफलता भी तब मिलती है, जब मतदाताओं की दृष्टि में अपनी वरिष्ठता प्रमाणित करने के लिए, समय से पहले ही अपने को सही व्यक्ति सिद्ध होने के लिए, बहुत कुछ साधना कर चुकने का प्रमाण एकत्र कर लिया जाता है। कन्या के सयानी होने पर उसके लिए उपयुक्त वर तलाश करने के लिए अभिभावक बहुत दौड़-धूप करते हैं। साथ ही खुशामद करने और प्रयत्न करने वाले उपहार भी सँजोए रहते हैं। पर कोई कुपात्र, रोगी, दरिद्री, व्यसनी उसके लिए अपनी ओर से अनुरोध करें, प्रस्ताव करें, गिड़गिड़ाएँ तो भी उसे दुत्कार सहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। क्या लोक, क्या परलोक, क्या मनुष्य, क्या देवता, सर्वत्र सत्पात्रों को ही उपहार-वरदानों से निहाल करने की प्रथा-परम्परा काम आती देखी जाती है। एक अलभ्य अवसर - जो सामने है
इक्कीसवीं सदी अगणित, श्रेय-सौभाग्य की वर्षा करने के लिए घनघोर घटाटोप की तरह उमड़ती-घुमड़ती चली आ रही है; पर उस दैवी अनुदान का लाभ सबको समान रूप में नहीं मिल सकेगा। विजय निश्चित होने पर भी मोर्चा जीतने का श्रेय और उपहार उन सेनापतियों को ही मिलता है, जिनने रणनीति बनाने से लेकर व्यूह रचना, विधि-व्यवस्था, साधन-सुविधा आदि का सही निर्धारण करने में अपने कौशल का परिचय दिया होता है। शेष तो उस युद्ध विजय की प्रसन्नता भर व्यक्त करते रह जाते हैं।
प्राचीन काल में, ऐसा ही महत्त्वपूर्ण अवसर एक बार सतयुग में भी आया था। वह भी अनायास ही स्वर्ग से धरती पर नहीं आ टपका था। ऋषियों-तपस्वियों की प्रचण्ड सेवा-साधनाओं ने उसे विनिर्मित किया और अपनी गरिमा दिखाने के लिए बाधित किया था। इन दिनों का विपन्न वातावरण भी, मनुष्य समुदाय के भ्रष्ट-चिन्तन और दुष्ट-आचरण का ही परिणाम है। जब तक आधारभूत कारणों में परिवर्तन न होगा, तब तक प्रचलन -प्रवाह को उलटना भी कहाँ संभव हो सकेगा?
भविष्य में सतयुग की वापसी की आशा और उसके स्वागत की व्यवस्था की जा रही है; पर वह व्यापक गंगावतरण, अनेकानेक भगीरथों की तपश्चर्या सन्निहित होने की प्रतीक्षा भी तो करेगी ही। समय बदलने में दैवी अनुग्रह का निर्धारण प्रमुख होगा, सो ठीक है; पर उसे प्रत्यक्ष कर दिखाने का अभीष्ट श्रेय-सम्मान पाने में वरिष्ठ प्रतिभाएँ ही समर्थ होंगी। अनायास तो कभी कुछ हुआ ही नहीं। सुयोग या कुयोग भी मनुष्य के अपने व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के अनुरूप ही उपलब्ध होते देखा जाता है। यह दूसरी बात है कि आदर्शों के प्रति निष्ठावान् होने वालों की अपनी क्षमता से जो बाहर हो, उसके लिए अदृश्य सत्ता का अदृश्य सहयोग बड़ी मात्रा में मिल जाय, उस सहयोग के आधार पर प्राप्त सफलता के कारण किसी अग्रगामी को पुरुषार्थ का धनी घोषित किया जाय और श्रेय-सम्मान से लाद दिया जाय।
भगीरथ गंगावतरण के लिए तप-साधना में निरत थे। गंगा स्वर्ग से धरती पर आने के लिए सहमत भी हो गयीं; पर प्रमुख कठिनाई यही थी कि जब वह प्रचण्ड धारा इतनी ऊँचाई से नीचे आए, तब उसे धारण कौन करे? अन्यथा जोखिम था कि वह धरती में छेद करती हुई पाताल को चली जाती। इस कठिनाई को आशुतोष शिव ने समझा और वे सहज हो अपनी जटाएँ बिखेर कर नियत स्थान पर जा पहुँचे। गंगा शिव जी की जटाओं पर उतरी। बाद में भी भगीरथ आगे-आगे चलते रहे और पीछे दौड़ते गंगा के प्रवाह का मार्गदर्शन करते हुए उसे नियत लक्ष्य तक पहुँचाने में सफल हुए। गंगा का नामकरण भागीरथी हुआ था। यों तो श्रेय असंभव को संभव कर दिखाने वाली शिव-शक्ति को जाना चाहिए था; पर भगवान् तो भक्तों को ही यशस्वी बनाने में रुचि लेते रहते हैं।
बात इतनी भर आ जाती है कि भक्त कहलाने वालों को नारद जैसा समर्पित होना चाहिए; जिसे अपने स्वार्थ की नहीं, भगवान् के कार्य की ही चिन्ता रहे। युग परिवर्तन के इस महान् अवसर पर ऐसे ही प्रह्लादों की आवश्यकता है, जिसकी श्रद्धा को देखकर नृसिंह के रूप में भगवान् दौड़े आयें और समय की विभीषिका को रौद्र रूप धारण करके मार भगायें। यही है आज की अपेक्षा। तलाश मात्र ऐसे श्रेयार्थियों की है, जो युग निर्माता-महामानवों की तरह अपनी यश-गाथा को अमर बनाने का पुरस्कार पायें। उन्हें भी अपनी पात्रता और प्रामाणिकता तो सिद्ध करनी ही होगी। सुअवसरों का लाभ सुपात्रों को
स्वाति वर्षा आकाश से होती है, उसकी सत्ता और महत्ता भी असाधारण होती है; पर उसका लाभ हर किसी को नहीं मिलता। कुछ विशिष्ट सीपियाँ ही ऐसी होती हैं, जो उन बूँदों को गर्भ में धारण करती और मोती उगाती हैं। सभी बाँसों में उन दिनों बंसलोचन कहाँ उत्पन्न होता है? सभी केलों में कपूर कहाँ निर्मित होता है? स्वाति वर्षा समदर्शी कही जा सकती है। फिर भी कुछ ऐसे सौभाग्यशाली होते हैं, जो उससे कुछ विशेष अधिकार प्राप्त कर लेते हैं। उन्हीं की बिरादरियों में ऐसे भी असंख्य रह जाते हैं, जिन्हें अपने दुर्भाग्य को कोसते या स्वाति वर्षा पर दोषारोपण करते हुए किसी प्रकार मन को समझाना पड़ता है।
एक बार असंख्य मृतकों को पुनर्जीवित करने के लिए देवताओं ने अमृत वर्षा की। सभी मृतक जी उठे; पर एक ऐसा भी था, जो मरा हुआ ही पड़ा रहा। इस भेद-भाव का कारण जाना गया, तो पता चला कि अन्य मुर्दे तो आकाश की ओर मुँह किये हुए थे, उनके नासिका, मुख आदि छिद्रों से होकर अमृत भीतर चला गया और वे जी उठे। किन्तु जिसने मुँह धरती पर गड़ा रखा था, उस उल्टे पड़े मृतक के लिए अमृत वर्षा भी क्या करती? जो ग्रहण न कर सके, उसके लिए समर्थ दाता भी कुछ न कर सकने की स्थिति में विवश रहता देखा जाता है। चतुर्मास में वर्षा की झड़ी लगी रहती है। भुरभुरी जमीन गीली हो जाती है। जहाँ उर्वरता वगैरह है, वहाँ घास-पात की हरियाली उग आती है। फसलें लहलहाती हैं और एक बीज के बदले हजार दानों वाली बालें विनिर्मित कर देते हैं। पर उन चट्टानों और रेगिस्तानों के लिए क्या कहा जाय, जहाँ मेघ-मालाएँ भी अपना कुछ प्रभाव दिखा नहीं पातीं। जहाँ न पानी टिकता है और न हरियाली उगने जैसी व्यवस्था ही बनती है। इसे दाता का पक्षपात नहीं, गृहीता की कुपात्रता ही कह सकते हैं। उन दिनों छोटे-बड़े तालाब अपनी-अपनी पात्रता के अनुरूप लबालब भर जाते हैं और गहरी नदियाँ असीम जल-राशि को बटोरती, द्रुतगति से दौड़ती चली जाती हैं। वर्षा का अनुग्रह उन छोटे गड्ढों को तनिक सा ही मिल पाता है, जो अधिक गहराई न होने के कारण थोड़ा सा ही पानी जमा कर पाते हैं और कड़ी धूप पड़ते ही सूखकर नीरस और निरुपयोगी बन जाते हैं।
अगले दिनों हर कहीं सौभाग्य बरसने वाले हैं। उज्ज्वल भविष्य का अवतरण सुनिश्चित है, प्रश्न इतना भर है कि उस सुयोग में भी अपनी भागीदारी सिद्ध करने वाले भी तो कुछ हों? अर्जुन कटिबद्ध न होता, तो उसके लिए भगवान् का सारथी होना भी क्या कर पाता? रीछ-वानरों ने आदर्शवादी साहसिकता का परिचय न दिया होता, तो उन्हें भक्त शिरोमणि और भगवान् का कृपा-पात्र बनने का सौभाग्य भला कहाँ मिल पाता? गलने वाला ही उगता है। बीज का वृक्ष बन जाना आश्चर्यजनक तो है, पर प्रकृति व्यवस्था से पृथक् नहीं। वही फल पुनः वृक्ष बनता है, जो पकने पर वृक्ष से टूटने अथवा मिट्टी में मिलने से जी नहीं चुराता। कृपण, जो जी चुराते हैं। पेड़ के साथ चिपके रहने वाले फलों को घिनौने कीड़े ही खा जाते हैं। दैवी अनुदान भी सशर्त
भगवान् को उदार कहा जाता है, पर वह विशेषण सशर्त ही क्रियान्वित होता है। सुदामा की बगल से चावलों की पोटली छीन लेने के उपरान्त ही, उनके खाली हाथ हो जाने पर ही भगवान् ने बहुत कुछ देने का मन बनाया था। जो अनुदान दिया जायेगा, वह मात्र गुरुकुल चलाने के लिए प्रयुक्त होगा, यह विश्वास कर लेने के उपरान्त ही उस उदारचेता कहलाने वाले ने द्वारिकापुरी को सुदामापुरी के लिए हस्तान्तरित किया था। भक्तजन कहलाने वालों को मात्र जीभ की लपा-लपी से ही मनोवांछा पूरा करने का अवसर मिल जायेगा, इस भ्रान्ति से जितनी जल्दी पीछा छुड़ा लिया जाये, उतना ही अच्छा है। यहाँ इस हाथ दे और उस हाथ ले की नीति का ही बोल-बाला है। भगवान् भी इसके अपवाद नहीं हो सकते। वे पहले माँगते हैं और पा जाने के उपरान्त ही ऐसा कुछ देने का मन बनाते हैं, जिसे भारी-भरकम और महत्त्वपूर्ण कहा जा सके।
समर्पण और विसर्जन के बिना द्विधा को एकता में परिणत होने का अवसर ही नहीं मिलता। भक्त ही भगवान् बनकर विचरण क रते देखे जाते हैं, पर वे होते ऐसे हैं, जिनने अपनी संकीर्ण-स्वार्थपरता के विसर्जन में कोताही नहीं बरती। पानी को दूध के भाव बिकने का अवसर अपनी सत्ता गँवा बैठने के उपरान्त ही मिलता है। नाले का नदी के रूप में परिणत होना इसी समर्पण प्रक्रिया के अन्तर्गत संभव होता है। दाम्पत्य जीवन का आनन्द, किसी का सघन समर्पण किये बिना, किसी को मिला ही नहीं। गुरु और शिष्य के बीच भी क्षमताओं का आदान-प्रदान ही होता रहता है। यदि वह प्रक्रिया चरण-स्पर्श और बदले में आशीर्वाद पाने की विडम्बना भर बनी रहे, तो उससे कभी कोई शानदार प्रतिफल प्रस्तुत करते नहीं बनता। चाणक्य-चन्द्रगुप्त, समर्थ-शिवाजी, परमहंस-विवेकानन्द, गान्धी-विनोबा आदि की गुरु-शिष्य परम्परा एक ओर से समर्पण और दूसरी ओर से संचित क्षमता के हस्तान्तरण के रूप में ही सम्पन्न होती रही है। भगवान् के यहाँ भी उसी आधार पर आदान-प्रदान का क्रम चलता है। वहाँ उठाईगीरों, जेबकतरों और ठग-चापलूसों की दाल गलती ही नहीं। इक्कीसवीं सदी यों परमसत्ता के तत्त्वावधान में सम्पन्न होने जा रही है, पर उसे प्रत्यक्ष प्रकट करने का श्रेय तो शरीरधारी मनुष्यों में से ही किन्हीं को मिलेगा। निराकार सत्ता अपने हाथों कुछ दृश्य क्रियाकलाप कर दिखाने के झंझट में पड़ती नहीं। प्रेत तक को जब अपनी उपस्थिति का प्रमाण देने के लिए किसी व्यक्ति को ही माध्यम बनाना पड़ता है, फिर भगवान् को ही अपने हाथों स्वयं ही कुछ क्रिया-कौतुक दिखाते फिरने की झंझट में पड़ना क्यों पड़ेगा? वे अपना कार्य उच्चस्तरीय प्रतिभाओं के माध्यम से ही कराते हैं। । सरकार के नियत-निर्धारणों को क्रियान्वित करना अफसरों के जिम्मे ही रहता है। राजा कहाँ तक पोस्ट कार्ड बेचता फिरेगा? इन कार्यों के लिए उपयुक्त कर्मचारी ही नियुक्त किये जाते और अभीष्ट कार्यों को सम्पन्न करने में जुटे रहते हैं।
भगवान् को माँगने की आदत है, देते तो वे बाद में हैं। पृथ्वी में बीज गलता पहले है, फलों का अवसर बाद में आता है। गाय घास पहले माँगती है, दूध बाद में देती है। भगवान् को विश्व मानव के लिए बहुत कुछ देना है। इसके लिए उसे प्रतिभावानों की श्रद्धा सम्पदा प्रचुर परिमाण में अपेक्षित है। महाकाल ने इसकी घोषणा सर्वत्र मुनादी पिटवा कर करा दी है। जो भगवान् को उसकी इच्छानुसार दे सकें, उन्हीं की इन दिनों पुकार हो रही है। इसकी परिणति के रूप में प्रतिफल प्राप्त करने का अवसर तो क्रिया की प्रतिक्रिया वाले सिद्धान्त के अनुरूप उन्हीं दाताओं को विशेष रूप से और सर्वसाधारण को सामान्य रूप से सहज ही मिल जायेगा।
सामान्य रूप में, पैसे देकर दान की प्रतिक्रिया का निर्वाह कोई भी कर लेता है और यश, सन्तोष आदि के रूप में उसका परिणाम भी यथा समय मिल जाता है। पर देने में सबसे बड़ा दान - समयदान है, क्योंकि वही ईश्वर प्रदत्त दैवी सम्पदा है। हर किसी को समान रूप से उपलब्ध भी है। इस दृष्टि से न कोई गरीब है, न सम्पन्न। सभी का दिन ख्ब् घण्टे का होता है। यदि कोई अत्यन्त कृपण दिग्भ्रान्त और असाधारण रूप से स्वार्थ-बन्धनों से जकड़ा हुआ न पड़ा हो, तो वह भगवान् की इच्छा और आवश्यकता को देखते हुए समयदान की बात उदारतापूर्वक सोच सकता। तनिक सी सूझ-बूझ भरी साहसिकता के सहारे ऐसी व्यवस्था भी बना सकता है, कि निर्वाह भी चलता रहे, कुटुम्ब भी चलता रहे और साथ-साथ ही युग-धर्म के निर्वाह में भी कमी न पड़े।
व्यस्तता और अभावग्रस्तता का बहाना मात्र उन्हीं से बनाते बन पड़ता है, जो आत्मा और परमात्मा को बहका सकने में अपनी चतुरता दिखाने की धूर्तता के सफल होने पर विश्वास करते हैं। अन्यथा बीस घण्टे में रोटी कमाने और शरीर निर्वाह चलाते रहने के लिए पर्याप्त होने चाहिए। चार घण्टा नित्य आत्मा की गुहार और परमात्मा की पुकार के लिए लगाये जा सकते हैं। दूरदर्शी, विवेकशील और उदारचेताओं को इतना या इससे आधा - दो घण्टे नित्य का समयदान करते रहने में किसी प्रकार की अड़चन-बाधा प्रतीत नहीं हो सकती। पैसे का भी महत्त्व तो है, पर वस्तुतः भावश्रद्धा, पुण्य-परमार्थ जैसे उच्चस्तरीय प्रयोजनों की पूर्ति समयदान से ही बन पड़ती है। यदि ऐसा न होता, तो जिस-तिस प्रकार तिजोरी भर लेने वाले, यश खरीदने के लिए या आत्म-श्रद्धा को उजागर करने के लिए, कुछ फालतू पैसा दान-पुण्य में लगाकर लोक और परलोक दोनों पर भी कब्जा कर लिया करते; पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। धनी और निर्धन दोनों ही इस कसौटी पर समान रूप से परखे जाते हैं कि उनसे जीवन का सर्वोत्तम अंश, समयदान के रूप में किस अनुपात में निकालते बन पड़ा?
महान् कार्य समय और श्रम के सहारे ही बन पड़े हैं। पैसे से तो वस्तुओं को ही खरीदा जा सकता है। मनुष्य की वास्तविक आवश्यकता, वस्तुओं की न्यूनाधिकता से प्रभावित नहीं होती। जो वास्तविक आवश्यकता है, वह आन्तरिक प्रखरता, प्रामाणिकता और सुनियोजन पर अवलम्बित है। इसका प्रमाण-परिचय उसी आधार पर दिया जा सकता है, कि लोक मानस के परिष्कार में, सत्प्रवृत्ति-संवर्धन में किसका, कितना और किस स्तर का समयदान सम्भव हुआ? ऋषियों-मनीषियों और महामानवों ने समय-साधनों के आधार पर ही वह कर दिखाया था, जिसमें जीवन लक्ष्य की प्राप्ति और ईश्वर की प्रसन्नता का उभय-पक्षीय लाभ मिल सके।
युग सृजन के लिए बहुमुखी क्रिया-कलाप सामने उपस्थित हैं, जिनमें विचार क्रान्ति को प्रमुखता दी गयी है। प्राण-प्रतिभा से सम्पन्न लोग, इसी निमित्त समय का यथा-सम्भव अधिक नियोजन करने के लिए तत्पर हों, इसके लिए विश्व मानव ने - भगवान् ने समर्थों से समयदान की याचना की है। इससे कम में उन प्रयोजनों की पूर्ति सम्भव न हो सकेगी, जिनके ऊपर युग परिवर्तन की पृष्ठ-भूमि बन सकना अवलम्बित है। उच्चस्तरीय समयदान अनायास ही नहीं बन पड़ना, उसके साथ श्रद्धा, भाव-संवेदना, विवेकशीलता, शालीनता, उदारता जैसी दिव्य आत्मिक विभूतियों का सम्पुट जुड़ा होता है। यही कारण है, कि जिन पर ओछेपन का उन्माद सवार है, वे इस युग साधना से कन्नी काटते रहते हैं। जिनकी आत्म-चेतना में उत्कृष्टता के दैवी तत्त्वों का यत्किंचित् भी अस्तित्व है, उनके लिए इस अनुदान को युगदेवता के चरणों में प्रस्तुत करते हुए तनिक भी कठिनाई नहीं होती, वरन् भगवान् की योजना को पूरा करते हुए राजा बलि जैसी हार्दिक प्रसन्नता की अनुभूति होती रहती है।
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क्रिया की प्रतिक्रिया सृष्टि का शाश्वत नियम है। उसे हर कहीं और कभी भी चरितार्थ होते देखा जा सकता है। किसान जो बोता है, वही काटता है। सौभाग्य और दुर्भाग्य के अवसर यों अनायास ही आ उपस्थित हो जाते हैं; पर उनके पीछे भी मनुष्य के अपने कर्म ही झाँकते रहते हैं। भले ही वे अब नहीं, भूतकाल में कभी किये गये हों। यहाँ अकस्मात् कुछ नहीं होता। जो होता है, उसकी पृष्ठभूमि बहुत दिन पहले से ही बन रही होती है। बच्चे का जन्म प्रसव के उपरान्त प्रत्यक्ष आँखों से दीख पड़ता है; पर उसकी आधारशिला बहुत पहले गर्भाधान काल में ही रख गयी होती है। चर्म-चक्षुओं से प्रभात काल ही सूर्योदय का समय समझा जाता है; किन्तु वस्तुतः उसे अन्धकार के समापन की वेला के साथ जुड़ा हुआ भी समझा जा सकता है।
सुयोग के पीछे भी वही परम्परा अपने चमत्कार दिखा रही होती है। कर्मफल ही यहाँ सब कुछ है। संसार के हाट-बाजार में सब कुछ सज-धज के साथ रखा-सँजोया गया होता है। पर उसमें से मुफ्त किसी को कुछ नहीं मिलता। यहाँ क्रय-विक्रय का उपक्रम ही चलता रहता है। आदान-प्रदान का शाश्वत सत्य, निरन्तर अपनी सुनिश्चित विधि-व्यवस्था का परिचय देता रहता है। मुफ्त में तो जमीन पर बिखरी रेत-मिट्टी भी टोकरी में नहीं आ बैठती, इसके लिए भी खोदने-समेटने-उठाने का श्रम किसी-न-किसी को करना ही पड़ता है। संस्कृत की यह उक्ति ठीक ही है कि सोते सिंह के मुख में मृग नहीं घुस जाते।
मुफ्त में अनुदान-वरदान पाने की अपेक्षा, किसी को भी, किसी से भी नहीं करनी चाहिए। देवताओं से वरदान और धन-कुबेरों से अनुदान प्राप्त करने के लिए अपनी पात्रता का परिचय देना पड़ता है। मुफ्त-खोरों के लिए तो वे भी गूँगे-बहरे बनकर बैठे रहते हैं। सौभाग्य अनायास ही कहीं से आ नहीं टपकते। उस उपलब्धि के लिए बहुत पहले से ही अपनी धारण कर सकने की क्षमता अर्जित करनी पड़ती है। अक्षमों, दुर्बलों के तो हाथ में आयी सम्पदा भी चोर-उचक्कों द्वारा ठग ली या झपट ली जाती है। उपलब्ध भविष्य, यों बनता तो स्रष्टा की इच्छा, निर्धारण और व्यवस्था के अनुरूप ही है, पर उससे लाभान्वित होने के लिए इच्छुकों और उत्सुकों को भी कुछ असाधारण बनना पड़ता है।
सांसारिक उपलब्धियों के साथ भी यही क्रम जुड़ा है। अफसरों के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियाँ तो आयोग ही करता है; पर उस अनुग्रह को प्राप्त करने के लिए प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा परीक्षा में सम्मिलित ही नहीं होना पड़ता; वरन् उन कसौटियों पर खरा भी सिद्ध होना पड़ता है। अनुनय-विनय से तो उपेक्षापूर्वक यदा-कदा कुछ छोटी-मोटी वस्तु भर हाथ लगती है। शासन सत्ता में महत्त्वपूर्ण स्थान पाने के लिए चुनाव जीतना पड़ता है। वह सफलता भी तब मिलती है, जब मतदाताओं की दृष्टि में अपनी वरिष्ठता प्रमाणित करने के लिए, समय से पहले ही अपने को सही व्यक्ति सिद्ध होने के लिए, बहुत कुछ साधना कर चुकने का प्रमाण एकत्र कर लिया जाता है। कन्या के सयानी होने पर उसके लिए उपयुक्त वर तलाश करने के लिए अभिभावक बहुत दौड़-धूप करते हैं। साथ ही खुशामद करने और प्रयत्न करने वाले उपहार भी सँजोए रहते हैं। पर कोई कुपात्र, रोगी, दरिद्री, व्यसनी उसके लिए अपनी ओर से अनुरोध करें, प्रस्ताव करें, गिड़गिड़ाएँ तो भी उसे दुत्कार सहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। क्या लोक, क्या परलोक, क्या मनुष्य, क्या देवता, सर्वत्र सत्पात्रों को ही उपहार-वरदानों से निहाल करने की प्रथा-परम्परा काम आती देखी जाती है। एक अलभ्य अवसर - जो सामने है
इक्कीसवीं सदी अगणित, श्रेय-सौभाग्य की वर्षा करने के लिए घनघोर घटाटोप की तरह उमड़ती-घुमड़ती चली आ रही है; पर उस दैवी अनुदान का लाभ सबको समान रूप में नहीं मिल सकेगा। विजय निश्चित होने पर भी मोर्चा जीतने का श्रेय और उपहार उन सेनापतियों को ही मिलता है, जिनने रणनीति बनाने से लेकर व्यूह रचना, विधि-व्यवस्था, साधन-सुविधा आदि का सही निर्धारण करने में अपने कौशल का परिचय दिया होता है। शेष तो उस युद्ध विजय की प्रसन्नता भर व्यक्त करते रह जाते हैं।
प्राचीन काल में, ऐसा ही महत्त्वपूर्ण अवसर एक बार सतयुग में भी आया था। वह भी अनायास ही स्वर्ग से धरती पर नहीं आ टपका था। ऋषियों-तपस्वियों की प्रचण्ड सेवा-साधनाओं ने उसे विनिर्मित किया और अपनी गरिमा दिखाने के लिए बाधित किया था। इन दिनों का विपन्न वातावरण भी, मनुष्य समुदाय के भ्रष्ट-चिन्तन और दुष्ट-आचरण का ही परिणाम है। जब तक आधारभूत कारणों में परिवर्तन न होगा, तब तक प्रचलन -प्रवाह को उलटना भी कहाँ संभव हो सकेगा?
भविष्य में सतयुग की वापसी की आशा और उसके स्वागत की व्यवस्था की जा रही है; पर वह व्यापक गंगावतरण, अनेकानेक भगीरथों की तपश्चर्या सन्निहित होने की प्रतीक्षा भी तो करेगी ही। समय बदलने में दैवी अनुग्रह का निर्धारण प्रमुख होगा, सो ठीक है; पर उसे प्रत्यक्ष कर दिखाने का अभीष्ट श्रेय-सम्मान पाने में वरिष्ठ प्रतिभाएँ ही समर्थ होंगी। अनायास तो कभी कुछ हुआ ही नहीं। सुयोग या कुयोग भी मनुष्य के अपने व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के अनुरूप ही उपलब्ध होते देखा जाता है। यह दूसरी बात है कि आदर्शों के प्रति निष्ठावान् होने वालों की अपनी क्षमता से जो बाहर हो, उसके लिए अदृश्य सत्ता का अदृश्य सहयोग बड़ी मात्रा में मिल जाय, उस सहयोग के आधार पर प्राप्त सफलता के कारण किसी अग्रगामी को पुरुषार्थ का धनी घोषित किया जाय और श्रेय-सम्मान से लाद दिया जाय।
भगीरथ गंगावतरण के लिए तप-साधना में निरत थे। गंगा स्वर्ग से धरती पर आने के लिए सहमत भी हो गयीं; पर प्रमुख कठिनाई यही थी कि जब वह प्रचण्ड धारा इतनी ऊँचाई से नीचे आए, तब उसे धारण कौन करे? अन्यथा जोखिम था कि वह धरती में छेद करती हुई पाताल को चली जाती। इस कठिनाई को आशुतोष शिव ने समझा और वे सहज हो अपनी जटाएँ बिखेर कर नियत स्थान पर जा पहुँचे। गंगा शिव जी की जटाओं पर उतरी। बाद में भी भगीरथ आगे-आगे चलते रहे और पीछे दौड़ते गंगा के प्रवाह का मार्गदर्शन करते हुए उसे नियत लक्ष्य तक पहुँचाने में सफल हुए। गंगा का नामकरण भागीरथी हुआ था। यों तो श्रेय असंभव को संभव कर दिखाने वाली शिव-शक्ति को जाना चाहिए था; पर भगवान् तो भक्तों को ही यशस्वी बनाने में रुचि लेते रहते हैं।
बात इतनी भर आ जाती है कि भक्त कहलाने वालों को नारद जैसा समर्पित होना चाहिए; जिसे अपने स्वार्थ की नहीं, भगवान् के कार्य की ही चिन्ता रहे। युग परिवर्तन के इस महान् अवसर पर ऐसे ही प्रह्लादों की आवश्यकता है, जिसकी श्रद्धा को देखकर नृसिंह के रूप में भगवान् दौड़े आयें और समय की विभीषिका को रौद्र रूप धारण करके मार भगायें। यही है आज की अपेक्षा। तलाश मात्र ऐसे श्रेयार्थियों की है, जो युग निर्माता-महामानवों की तरह अपनी यश-गाथा को अमर बनाने का पुरस्कार पायें। उन्हें भी अपनी पात्रता और प्रामाणिकता तो सिद्ध करनी ही होगी। सुअवसरों का लाभ सुपात्रों को
स्वाति वर्षा आकाश से होती है, उसकी सत्ता और महत्ता भी असाधारण होती है; पर उसका लाभ हर किसी को नहीं मिलता। कुछ विशिष्ट सीपियाँ ही ऐसी होती हैं, जो उन बूँदों को गर्भ में धारण करती और मोती उगाती हैं। सभी बाँसों में उन दिनों बंसलोचन कहाँ उत्पन्न होता है? सभी केलों में कपूर कहाँ निर्मित होता है? स्वाति वर्षा समदर्शी कही जा सकती है। फिर भी कुछ ऐसे सौभाग्यशाली होते हैं, जो उससे कुछ विशेष अधिकार प्राप्त कर लेते हैं। उन्हीं की बिरादरियों में ऐसे भी असंख्य रह जाते हैं, जिन्हें अपने दुर्भाग्य को कोसते या स्वाति वर्षा पर दोषारोपण करते हुए किसी प्रकार मन को समझाना पड़ता है।
एक बार असंख्य मृतकों को पुनर्जीवित करने के लिए देवताओं ने अमृत वर्षा की। सभी मृतक जी उठे; पर एक ऐसा भी था, जो मरा हुआ ही पड़ा रहा। इस भेद-भाव का कारण जाना गया, तो पता चला कि अन्य मुर्दे तो आकाश की ओर मुँह किये हुए थे, उनके नासिका, मुख आदि छिद्रों से होकर अमृत भीतर चला गया और वे जी उठे। किन्तु जिसने मुँह धरती पर गड़ा रखा था, उस उल्टे पड़े मृतक के लिए अमृत वर्षा भी क्या करती? जो ग्रहण न कर सके, उसके लिए समर्थ दाता भी कुछ न कर सकने की स्थिति में विवश रहता देखा जाता है। चतुर्मास में वर्षा की झड़ी लगी रहती है। भुरभुरी जमीन गीली हो जाती है। जहाँ उर्वरता वगैरह है, वहाँ घास-पात की हरियाली उग आती है। फसलें लहलहाती हैं और एक बीज के बदले हजार दानों वाली बालें विनिर्मित कर देते हैं। पर उन चट्टानों और रेगिस्तानों के लिए क्या कहा जाय, जहाँ मेघ-मालाएँ भी अपना कुछ प्रभाव दिखा नहीं पातीं। जहाँ न पानी टिकता है और न हरियाली उगने जैसी व्यवस्था ही बनती है। इसे दाता का पक्षपात नहीं, गृहीता की कुपात्रता ही कह सकते हैं। उन दिनों छोटे-बड़े तालाब अपनी-अपनी पात्रता के अनुरूप लबालब भर जाते हैं और गहरी नदियाँ असीम जल-राशि को बटोरती, द्रुतगति से दौड़ती चली जाती हैं। वर्षा का अनुग्रह उन छोटे गड्ढों को तनिक सा ही मिल पाता है, जो अधिक गहराई न होने के कारण थोड़ा सा ही पानी जमा कर पाते हैं और कड़ी धूप पड़ते ही सूखकर नीरस और निरुपयोगी बन जाते हैं।
अगले दिनों हर कहीं सौभाग्य बरसने वाले हैं। उज्ज्वल भविष्य का अवतरण सुनिश्चित है, प्रश्न इतना भर है कि उस सुयोग में भी अपनी भागीदारी सिद्ध करने वाले भी तो कुछ हों? अर्जुन कटिबद्ध न होता, तो उसके लिए भगवान् का सारथी होना भी क्या कर पाता? रीछ-वानरों ने आदर्शवादी साहसिकता का परिचय न दिया होता, तो उन्हें भक्त शिरोमणि और भगवान् का कृपा-पात्र बनने का सौभाग्य भला कहाँ मिल पाता? गलने वाला ही उगता है। बीज का वृक्ष बन जाना आश्चर्यजनक तो है, पर प्रकृति व्यवस्था से पृथक् नहीं। वही फल पुनः वृक्ष बनता है, जो पकने पर वृक्ष से टूटने अथवा मिट्टी में मिलने से जी नहीं चुराता। कृपण, जो जी चुराते हैं। पेड़ के साथ चिपके रहने वाले फलों को घिनौने कीड़े ही खा जाते हैं। दैवी अनुदान भी सशर्त
भगवान् को उदार कहा जाता है, पर वह विशेषण सशर्त ही क्रियान्वित होता है। सुदामा की बगल से चावलों की पोटली छीन लेने के उपरान्त ही, उनके खाली हाथ हो जाने पर ही भगवान् ने बहुत कुछ देने का मन बनाया था। जो अनुदान दिया जायेगा, वह मात्र गुरुकुल चलाने के लिए प्रयुक्त होगा, यह विश्वास कर लेने के उपरान्त ही उस उदारचेता कहलाने वाले ने द्वारिकापुरी को सुदामापुरी के लिए हस्तान्तरित किया था। भक्तजन कहलाने वालों को मात्र जीभ की लपा-लपी से ही मनोवांछा पूरा करने का अवसर मिल जायेगा, इस भ्रान्ति से जितनी जल्दी पीछा छुड़ा लिया जाये, उतना ही अच्छा है। यहाँ इस हाथ दे और उस हाथ ले की नीति का ही बोल-बाला है। भगवान् भी इसके अपवाद नहीं हो सकते। वे पहले माँगते हैं और पा जाने के उपरान्त ही ऐसा कुछ देने का मन बनाते हैं, जिसे भारी-भरकम और महत्त्वपूर्ण कहा जा सके।
समर्पण और विसर्जन के बिना द्विधा को एकता में परिणत होने का अवसर ही नहीं मिलता। भक्त ही भगवान् बनकर विचरण क रते देखे जाते हैं, पर वे होते ऐसे हैं, जिनने अपनी संकीर्ण-स्वार्थपरता के विसर्जन में कोताही नहीं बरती। पानी को दूध के भाव बिकने का अवसर अपनी सत्ता गँवा बैठने के उपरान्त ही मिलता है। नाले का नदी के रूप में परिणत होना इसी समर्पण प्रक्रिया के अन्तर्गत संभव होता है। दाम्पत्य जीवन का आनन्द, किसी का सघन समर्पण किये बिना, किसी को मिला ही नहीं। गुरु और शिष्य के बीच भी क्षमताओं का आदान-प्रदान ही होता रहता है। यदि वह प्रक्रिया चरण-स्पर्श और बदले में आशीर्वाद पाने की विडम्बना भर बनी रहे, तो उससे कभी कोई शानदार प्रतिफल प्रस्तुत करते नहीं बनता। चाणक्य-चन्द्रगुप्त, समर्थ-शिवाजी, परमहंस-विवेकानन्द, गान्धी-विनोबा आदि की गुरु-शिष्य परम्परा एक ओर से समर्पण और दूसरी ओर से संचित क्षमता के हस्तान्तरण के रूप में ही सम्पन्न होती रही है। भगवान् के यहाँ भी उसी आधार पर आदान-प्रदान का क्रम चलता है। वहाँ उठाईगीरों, जेबकतरों और ठग-चापलूसों की दाल गलती ही नहीं। इक्कीसवीं सदी यों परमसत्ता के तत्त्वावधान में सम्पन्न होने जा रही है, पर उसे प्रत्यक्ष प्रकट करने का श्रेय तो शरीरधारी मनुष्यों में से ही किन्हीं को मिलेगा। निराकार सत्ता अपने हाथों कुछ दृश्य क्रियाकलाप कर दिखाने के झंझट में पड़ती नहीं। प्रेत तक को जब अपनी उपस्थिति का प्रमाण देने के लिए किसी व्यक्ति को ही माध्यम बनाना पड़ता है, फिर भगवान् को ही अपने हाथों स्वयं ही कुछ क्रिया-कौतुक दिखाते फिरने की झंझट में पड़ना क्यों पड़ेगा? वे अपना कार्य उच्चस्तरीय प्रतिभाओं के माध्यम से ही कराते हैं। । सरकार के नियत-निर्धारणों को क्रियान्वित करना अफसरों के जिम्मे ही रहता है। राजा कहाँ तक पोस्ट कार्ड बेचता फिरेगा? इन कार्यों के लिए उपयुक्त कर्मचारी ही नियुक्त किये जाते और अभीष्ट कार्यों को सम्पन्न करने में जुटे रहते हैं।
भगवान् को माँगने की आदत है, देते तो वे बाद में हैं। पृथ्वी में बीज गलता पहले है, फलों का अवसर बाद में आता है। गाय घास पहले माँगती है, दूध बाद में देती है। भगवान् को विश्व मानव के लिए बहुत कुछ देना है। इसके लिए उसे प्रतिभावानों की श्रद्धा सम्पदा प्रचुर परिमाण में अपेक्षित है। महाकाल ने इसकी घोषणा सर्वत्र मुनादी पिटवा कर करा दी है। जो भगवान् को उसकी इच्छानुसार दे सकें, उन्हीं की इन दिनों पुकार हो रही है। इसकी परिणति के रूप में प्रतिफल प्राप्त करने का अवसर तो क्रिया की प्रतिक्रिया वाले सिद्धान्त के अनुरूप उन्हीं दाताओं को विशेष रूप से और सर्वसाधारण को सामान्य रूप से सहज ही मिल जायेगा।
सामान्य रूप में, पैसे देकर दान की प्रतिक्रिया का निर्वाह कोई भी कर लेता है और यश, सन्तोष आदि के रूप में उसका परिणाम भी यथा समय मिल जाता है। पर देने में सबसे बड़ा दान - समयदान है, क्योंकि वही ईश्वर प्रदत्त दैवी सम्पदा है। हर किसी को समान रूप से उपलब्ध भी है। इस दृष्टि से न कोई गरीब है, न सम्पन्न। सभी का दिन ख्ब् घण्टे का होता है। यदि कोई अत्यन्त कृपण दिग्भ्रान्त और असाधारण रूप से स्वार्थ-बन्धनों से जकड़ा हुआ न पड़ा हो, तो वह भगवान् की इच्छा और आवश्यकता को देखते हुए समयदान की बात उदारतापूर्वक सोच सकता। तनिक सी सूझ-बूझ भरी साहसिकता के सहारे ऐसी व्यवस्था भी बना सकता है, कि निर्वाह भी चलता रहे, कुटुम्ब भी चलता रहे और साथ-साथ ही युग-धर्म के निर्वाह में भी कमी न पड़े।
व्यस्तता और अभावग्रस्तता का बहाना मात्र उन्हीं से बनाते बन पड़ता है, जो आत्मा और परमात्मा को बहका सकने में अपनी चतुरता दिखाने की धूर्तता के सफल होने पर विश्वास करते हैं। अन्यथा बीस घण्टे में रोटी कमाने और शरीर निर्वाह चलाते रहने के लिए पर्याप्त होने चाहिए। चार घण्टा नित्य आत्मा की गुहार और परमात्मा की पुकार के लिए लगाये जा सकते हैं। दूरदर्शी, विवेकशील और उदारचेताओं को इतना या इससे आधा - दो घण्टे नित्य का समयदान करते रहने में किसी प्रकार की अड़चन-बाधा प्रतीत नहीं हो सकती। पैसे का भी महत्त्व तो है, पर वस्तुतः भावश्रद्धा, पुण्य-परमार्थ जैसे उच्चस्तरीय प्रयोजनों की पूर्ति समयदान से ही बन पड़ती है। यदि ऐसा न होता, तो जिस-तिस प्रकार तिजोरी भर लेने वाले, यश खरीदने के लिए या आत्म-श्रद्धा को उजागर करने के लिए, कुछ फालतू पैसा दान-पुण्य में लगाकर लोक और परलोक दोनों पर भी कब्जा कर लिया करते; पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। धनी और निर्धन दोनों ही इस कसौटी पर समान रूप से परखे जाते हैं कि उनसे जीवन का सर्वोत्तम अंश, समयदान के रूप में किस अनुपात में निकालते बन पड़ा?
महान् कार्य समय और श्रम के सहारे ही बन पड़े हैं। पैसे से तो वस्तुओं को ही खरीदा जा सकता है। मनुष्य की वास्तविक आवश्यकता, वस्तुओं की न्यूनाधिकता से प्रभावित नहीं होती। जो वास्तविक आवश्यकता है, वह आन्तरिक प्रखरता, प्रामाणिकता और सुनियोजन पर अवलम्बित है। इसका प्रमाण-परिचय उसी आधार पर दिया जा सकता है, कि लोक मानस के परिष्कार में, सत्प्रवृत्ति-संवर्धन में किसका, कितना और किस स्तर का समयदान सम्भव हुआ? ऋषियों-मनीषियों और महामानवों ने समय-साधनों के आधार पर ही वह कर दिखाया था, जिसमें जीवन लक्ष्य की प्राप्ति और ईश्वर की प्रसन्नता का उभय-पक्षीय लाभ मिल सके।
युग सृजन के लिए बहुमुखी क्रिया-कलाप सामने उपस्थित हैं, जिनमें विचार क्रान्ति को प्रमुखता दी गयी है। प्राण-प्रतिभा से सम्पन्न लोग, इसी निमित्त समय का यथा-सम्भव अधिक नियोजन करने के लिए तत्पर हों, इसके लिए विश्व मानव ने - भगवान् ने समर्थों से समयदान की याचना की है। इससे कम में उन प्रयोजनों की पूर्ति सम्भव न हो सकेगी, जिनके ऊपर युग परिवर्तन की पृष्ठ-भूमि बन सकना अवलम्बित है। उच्चस्तरीय समयदान अनायास ही नहीं बन पड़ना, उसके साथ श्रद्धा, भाव-संवेदना, विवेकशीलता, शालीनता, उदारता जैसी दिव्य आत्मिक विभूतियों का सम्पुट जुड़ा होता है। यही कारण है, कि जिन पर ओछेपन का उन्माद सवार है, वे इस युग साधना से कन्नी काटते रहते हैं। जिनकी आत्म-चेतना में उत्कृष्टता के दैवी तत्त्वों का यत्किंचित् भी अस्तित्व है, उनके लिए इस अनुदान को युगदेवता के चरणों में प्रस्तुत करते हुए तनिक भी कठिनाई नहीं होती, वरन् भगवान् की योजना को पूरा करते हुए राजा बलि जैसी हार्दिक प्रसन्नता की अनुभूति होती रहती है।
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