Books - उपासना और साधना का समन्वय
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
उपासना—ईश्वर के समीप बैठना
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
अध्यात्म साधना को ज्ञान और विज्ञान—इन दो पक्षों में विभाजित कर सकते हैं। ज्ञान पक्ष वह है जो पशु और मनुष्य के बीच का अन्तर प्रस्तुत करता है और प्रेरणा देता है कि इस सुरदुर्लभ अवसर का उपयोग उसी प्रयोजन के लिए किया जाना चाहिए जिसके लिए वह मिला है। इसके लिए किस तरह सोचना और किस तरह की रीति-नीति अपनाना उचित है इसे हृदयंगम करना ज्ञान पक्ष का काम है। स्वाध्याय, सत्संग, कथा, प्रवचन, पाठ, मनन, चिन्तन जैसी प्रक्रियाओं का सहारा इसी प्रयोजन के लिए लिया जाता है।
इसी पक्ष का दूसरा चरण यह है कि धर्म, सदाचार, संयम, कर्तव्यपालन के उच्च सिद्धान्तों को अपनाकर आदर्शवादी जीवन जिया जाये। अवांछनीय चिन्तन और कर्तृत्व में ही मनुष्य की अधिकांश शक्तियों का अपव्यय होता रहता है, दुर्बुद्धिग्रस्त और दुष्कर्म निरत व्यक्ति अपना ओजस नष्ट करते रहते हैं और उस प्राणशक्ति को गंवा बैठते हैं जो उच्चस्तरीय प्रगति के लिए उसी प्रकार आवश्यक है जैसे मोटर के लिए पैट्रोल। बिना तेल के मीटर कैसे चलेगी, बिना प्रखर प्राणशक्ति के आत्मिक प्रगति किस प्रकार सम्भव होगी। अस्तु ज्ञान साधना द्वारा चिन्तन को उत्कृष्ट और कर्तृत्व को आदर्श बनाया जाता है। यह जमीन को जोतकर खाद, पानी लगाकर उर्वर बनाया जाता है। ऐसी ही परिष्कृत मनोभूमि पर उपासना का बीजारोपण किया जाता है। तभी बोई हुई फसल लहलहाती है। ऐसी ही उर्वरा भूमि पर लगाया गया उद्यान फलता-फूलता देखा जाता है।
आत्मोत्कर्ष की आकांक्षा बहुत लोग करते हैं, पर उसके लिए न तो सही मार्ग जानते हैं और न उस पर चलने के लिए अभीष्ट सामर्थ्य एवं साधन जुटा पाते हैं। दिग्भ्रान्त प्रयासों का प्रतिफल क्या हो सकता है? अन्धा अन्धे को कहां पहुंचा सकता है? भटकाव में भ्रमित लोग लक्ष्य तक किस प्रकार पहुंच सकते हैं? आज की यह सबसे बड़ी कठिनाई है कि आत्म विज्ञान का न तो सही स्वरूप स्पष्ट रह गया है और न उसका क्रिया पक्ष—साधन विधान ही निभ्रान्त है। इस उलझन में एक सत्यान्वेषी जिज्ञासु को निराशा ही हाथ लगती है।
हमें यहां अध्यात्म के मौलिक सिद्धान्तों को समझना होगा। व्यक्ति के व्यक्तित्व में से अनगढ़ तत्वों को निकाल बाहर करना और उसके स्थान पर उस प्रकाश को प्रतिष्ठापित करना है जिसके आलोक में जीवन को सच्चे अर्थों में विकसित एवं परिष्कृत बनाया जा सके। इसके लिए मान्यता और क्रिया क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन प्रस्तुत करने पड़ते हैं। वे क्या हों, किस प्रकार हों, इनका शिक्षण थ्योरी और प्रैक्टिस के दोनों ही अवलम्बन साथ-साथ लेकर चलना होता है। थ्योरी का तात्पर्य है वह सद्ज्ञान, वह आस्था विश्वास जो जीवन को उच्चस्तरीय लक्ष्य की ओर बढ़ चलने के लिए सहमत कर सके। इसे आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, तत्वज्ञान और सद्ज्ञान के नामों से जाना समझा जाता है—योग इसी को कहते हैं। ब्रह्म विद्या का तत्वदर्शन यही है। प्रैक्टिस का तात्पर्य है—वे साधन विधान जो हमारी क्रियाशीलता को दिशा देते हैं और बताते हैं कि जीवन-यापन की रीति-नीति क्या होनी चाहिए और गतिविधियां किस क्रम में निर्धारित की जानी चाहिए? साधनात्मक क्रिया-कृत्यों का यह उद्देश्य समझ लिया जाये तो फिर किसी को भी न तो अनावश्यक आशा बांधनी पड़ेगी और न अवांछनीय रूप से निराश होना पड़ेगा।
साधना का दूसरा पक्ष उत्तरार्ध उपासना है। विविध विधि शारीरिक और मानसिक क्रिया कृत्य इसी प्रयोजन के लिए पूरे किये जाते हैं। शरीर से व्रत, मौन, अस्वाद, ब्रह्मचर्य, तीर्थयात्रा, परिक्रमा, आसन, प्राणायाम, जप, कीर्तन, पाठ, बन्ध, मुद्राएं, नेति, धोति, वस्ति, न्योलि, वज्रोली, कपाल भांति जैसे क्रियाकृत्य किये जाते हैं। मानसिक साधनाओं में प्रायः सभी चिन्तन परक होती हैं और उनमें कितने ही स्तर के ध्यान करने पड़ते हैं। नादयोग, बिन्दुयोग, लययोग, ऋजुयोग, प्राणयोग, हंसयोग, षट्चक्र वेधन, कुण्डलिनी जागरण जैसे बिना किसी श्रम या उपकरण के किये जाने वाले मात्र मनोयोग के सहारे सम्पन्न किये जाने वाले सभी कृत्य ध्यान योग की श्रेणी में गिने जाते हैं। स्थूल शरीर से श्रम परक, सूक्ष्म शरीर से चिन्तन परक उपासनाएं की जाती हैं। कारण शरीर से केवल भावना की पहुंच है। निष्ठा, आस्था, श्रद्धा का भाव भरा समन्वय ‘भक्ति’ कहलाता है। प्रेम सम्वेदना इसी को कहते हैं। यह स्थिति तर्क से ऊपर है। मन और बुद्धि का इसमें अधिक उपयोग नहीं हो सकता है। भावनाओं की उमंग भरी लहरें ही अन्तःकरण के मर्मस्थल का स्पर्श कर पाती हैं।
उपासना क्षेत्र में लोगों की असफलता का कारण यही है कि लोग उसे एकांगी बना देते हैं। उपासनात्मक कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मानकर चलने से उसके साथ अन्तःकरण की गहराई तक उसका प्रभाव नहीं होने पाता। उपासना स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों से की जानी चाहिए, उन्हें उपासना के योग्य बनाया जाना चाहिए, तभी उसका समुचित लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इस दृष्टि से तीनों शरीरों के क्षेत्र और क्षमता के सम्बन्ध में हमें भली प्रकार जानकारी रखनी चाहिए।
मनुष्य के अस्तित्व को तीन हिस्सों में बांटा गया है— सूक्ष्म-स्थूल-कारण। यह तीन शरीर माने गये हैं। दृश्य सत्ता के रूप में हाड़ मांस का बना सबको दिखाई पड़ने वाला चलता—फिरता, खाता—सोता, स्थूल शरीर है। क्रियाशीलता इसका प्रधान गुण है। इसके नीचे वह सत्ता है जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं। इसका कार्य समझ और केन्द्र मस्तिष्क है। शरीर विज्ञान में एनाटॉमी—फिजियोलॉजी—दो विभाजन हैं। मनःशास्त्र को साइकोलॉजी और पैरासाइकोलॉजी इन दो भागों में बांटा गया है। मन के भी दो भाग हैं— एक सचेतन जो सोचने विचारने के काम आता है और दूसरा अचेतन जो स्वभाव एवं आदतों का केन्द्र है। रक्त संचार, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष जैसी स्वसंचालित रहने वाली क्रियाएं इस अचेतन मन की प्रेरणा से ही सम्भव होती हैं। तीसरा करण शरीर भावनाओं का—मान्यताओं एवं आकांक्षाओं का केन्द्र है, इसे अन्तःकरण कहते हैं। इन्हीं में ‘स्व’ बनता है। जीवात्मा की मूल सत्ता का सीधा सम्बन्ध इसी ‘स्व’ से है यह ‘स्व’ जिस स्तर का होता है उसी के अनुसार विचार तंत्र और क्रिया तन्त्र काम करने लगते हैं। जीवन की सूत्र संचालक सत्ता यही है। कारण शरीर का स्थान हृदय माना गया है। रक्त फेंकने वाली और धड़कते रहने वाली थैली से यह केन्द्र भिन्न है। इसका स्थान दोनों ओर की पसलियों के मिलने वाले आमाशय के ऊपर वाले स्थान को माना गया है। साधना विज्ञान में हृदय गुफा में अंगुष्ठ प्रमाण प्रकाश ज्योति का ध्यान करने का विधान है। यहां जीवात्मा की ज्योति और उसका निवास ‘अहम्’ मान्यता के भाव केन्द्र में माना गया है। शरीर में इसका केन्द्र जिस ‘हृदय’ में है उसे अन्तःकरण नाम दिया गया है। ‘कारण शरीर’ के रूप में इसी की व्याख्या की जाती है।
यह तीनों शरीर एक से एक बढ़कर क्षमतायें अपने भीतर दबाये बैठे हैं। इनमें अस्त—व्यस्तता एवं विकृति भर जाने से वे अपनी विलक्षण शक्ति गंवा बैठते हैं। और उनके द्वारा जो लाभ मिलना चाहिए था, मिल नहीं पाता। इतना ही नहीं वे रुग्ण होकर उलटे त्रास देने लगते हैं। तब इन विभूतियों भरे शक्ति परिवार द्वारा जो हर्षोल्लास युक्त चमत्कारी उपलब्धियां मिल सकती थीं और सुर दुर्लभ कहलाने वाला मनुष्य जीवन सार्थक हो सकता था उसकी सम्भावना नष्ट हो जाती है। उल्टे उस दुर्गति में पड़ना होता है, जिसमें आजकल अधिकांश मनुष्य फंसे हुए हैं।
स्थूल शरीर यदि स्वस्थ है तो उसके द्वारा जो लाभ मिलते हैं उनकी थोड़ी बहुत जानकारी हम सभी को है। निरोग शरीर देखने में सुडौल सुन्दर लगता है—उसका आकर्षण खिले फूल की तरह सभी को मोहता और आकर्षित करता है। अधिक श्रम करना, कठिन कामों को सहज निपटा कर स्वयं लाभान्वित होना और दूसरों पर छाप छोड़ना निरोगिता की स्थिति में ही संभव हो सकता है। इन्द्रियों के दुहरे काम हैं उनके माध्यम से क्रिया शक्ति कार्यान्वित होती है और बदले में धन, ज्ञान, अनुभव, कौशल आदि उपलब्ध करती हैं। ज्ञानेन्द्रियों के अपने उपयोग आनन्द भी हैं। जीभ से स्वाद—कामेन्द्रियों से विषय सुख—नेत्रों से सौन्दर्यानुभूति —कान से मधुर श्रवण—त्वचा से कोमल स्पर्श के आनन्द मिलते हैं। आहार की तृप्ति गहरी निद्रा, स्फूर्ति एवं सक्रियता कितनी उपयोगी और सुखद है, इसे हर कोई जानता है। शरीर की विशेष साधना कर लेने पर लोग चमत्कारी प्रदर्शन करके गौरवान्वित होते हैं। शिल्पी, कलाकार, पहलवान, खिलाड़ी, सरकस के जादूगर—दुस्साहस भरे कीर्तिमान स्थापित करने वाले वस्तुतः शरीर साधना के निष्णात ही कहे जा सकते हैं। यों मनोयोग का समन्वय भी उनकी सफलताओं में जुड़ा रहता है। अकेला पंचतत्वों का शरीर तो बिना चेतन मन की सहायता के हिल-डुल तक नहीं सकता, फिर बड़ी उपलब्धियां तो उसके लिए सम्भव कैसे हो सकती हैं। यह मनोयोग जो शरीर संचालन के काम आता है, स्थूल शरीर का ही एक भाग माना गया है। इसी से मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय कहते हैं।
स्थूल शरीर की सक्षमता के फलस्वरूप ही संसार की अनेकानेक भौतिक उपलब्धियां मिलती हैं। सांसारिक सुखद वस्तुओं को प्राप्त करने और व्यक्तियों को सहयोग देकर बदले में सहयोग पाने का आनन्द देने में शरीरगत सक्रियता ही प्रधान कारण होती है। कर्म की महिमा सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है कर्मफल से ही सुख-दुःख मिलते हैं। कर्म का स्थूल परिणाम शरीरगत सक्रियता के साथ ही जुड़ता है। दण्ड, पुरस्कार इसी कर्मशीलता के आधार पर मिलते हैं।
पहलवानों में देखी जाने वाली बलिष्ठता, कलाकारों में पाई जाने वाली फुर्ती और सैनिकों जैसी चुस्ती ही मात्र आरोग्य की निशानी नहीं है। इसका महत्वपूर्ण अंश है जीवनी शक्ति की प्रचुरता, जिसे जीवट भी कह सकते हैं। रक्त अशुद्ध होने या कोई भीतरी अवयव क्षीण हो जाने पर भी इस जीवट के आधार पर कोई रुग्ण दीखने वाला मनुष्य स्वस्थ लोगों की तुलना में अधिक सक्रिय रह सकता है और अधिक महत्वपूर्ण काम निपटा जा सकता है। इसे ‘जिजीविषा’ का नाम ही दिया जा सकता है। इसके सहारे मौत से जूझा जा सकता है और अस्वस्थता के भार से दबे होने पर भी प्रबल पुरुषार्थियों जैसे प्रखर कर्तृत्व सम्पन्न करते रहा जा सकता है। भीष्म के शर शैया पर पड़े रहने पर भी उत्तरायण सूर्य आने तक की प्रतीक्षा में जीवित रहना और आद्य शंकराचार्य के भयंकर फोड़े से संत्रस्त रहने पर भी आश्चर्यजनक सक्रियता का प्रमाण देना जैसे असंख्यों प्रमाण ऐसे मिलते हैं जिनमें गांधी जैसे दुर्बल और राजेन्द्र बाबू जैसे रुग्ण मनुष्यों ने पूर्ण स्वस्थ मनुष्यों से भी आगे बढ़कर ऐसे काम करके दिखाये जिन पर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है।
योग साधना का प्रतिफल आरोग्य के मूल संस्थानों तक पहुंचता और उस जीवट—जिजीविषा को जगाता है जिसे पाकर हर स्तर का शरीर ऐसे काम कर सकता है जो सामान्य लोगों को चमत्कार जैसे प्रतीत हों।
सूक्ष्म शरीर अर्थात् चिन्तन चेतना की दिव्य ज्योति। इसका मोटा लाभ मस्तिष्क की तीक्ष्णता, स्मरण शक्ति, दूरदृष्टि, गहराई में जा पहुंचने वाला पर्यवेक्षण—सूझबूझ आदि के रूप में देखा जाता है। मन्दबुद्धि और तीक्ष्ण बुद्धि होने का फैसला इस आधार पर किया जाता है कि उसकी सूझबूझ एवं समझदारी किस स्तर की है। शारीरिक बलिष्ठता और सक्रियता के आधार पर मिलने वाले सुखों और लाभों की तरह मानसिक सक्षमता के सुखद प्रतिफल भी कम नहीं हैं। स्कूली पढ़ाई ऊंची श्रेणी में उत्तीर्ण करने वाले लोगों को अफसरी से ऊंचे पद मिलते हैं, वकील, डॉक्टर, साहित्यकार, वैज्ञानिक आदि बुद्धिजीवी वर्ग के लोग अकल की कमाई ही खाते हैं। व्यापारी, शिल्पी, कलाकार मात्र शारीरिक मेहनत के आधार पर उन्नतिशील नहीं बनते उनकी चिन्तन प्रक्रिया भी उन कार्यों में तन्मयता पूर्वक संलग्न रहती हैं। शरीर की सक्रियता और मन की तन्मयता का संयोग जहां जितनी अधिक मात्रा में हो रहा होगा वहां उसी अनुपात में एक से एक बड़ी-चढ़ी सफलताएं भी सामने प्रस्तुत होती चली जा रही होंगी।
बुद्धि वैभव का मूल्य समझा जाता है और ज्ञान प्राप्ति के लिए स्कूल कॉलेजों के माध्यम से बहुत श्रम-समय एवं धन खर्च करके उसके लिए अथक प्रयत्न किया जाता है। स्वाध्याय सम्पर्क, परिभ्रमण, विचार विनिमय, अभ्यास आदि के अन्य उपाय भी ऐसे हैं जिनके सहारे ज्ञानवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है। शरीर कौशल की तरह बुद्धि वैभव की भी अपनी उपलब्धियां हैं। अभिनव शोध कार्यों में—अन्वेषण पर्यवेक्षणों में—आवरणों के परत भेदकर वस्तुस्थिति समझने में सूक्ष्मबुद्धि ही काम करती है। यह उस अक्लमन्दी से ऊपर की चीज है जो दैनिक कार्य-व्यवस्थाओं में कोई तरह की सफलताएं प्रस्तुत करती है। यह किस प्रकार पाई या बढ़ाई जा सकती है इसका कोई बहिरंग आधार अभी बन नहीं पाया। साधारण अक्लमन्दी की दृष्टि से एक से एक चतुर और उस्ताद लोग हर जगह भरे पड़े हैं। पर गहराई में गोता मार कर मोती बीन लाने का सौभाग्य किन्हीं बिरलों को ही मिला होता है। यह कौशल जिनके भी हाथ लग जाता है वे सामान्य परिस्थितियों में जन्मते और सामान्य लोगों के बीच पलने पर भी विचित्र तरीकों से आगे बढ़ते हैं और आड़ी-टेढ़ी पगडंडियां पार करते हुए कहीं से कहीं जा पहुंचते हैं। उनके दूसरे साथी आश्चर्य करते रह जाते हैं कि बहुत समय तक एक सी स्थिति में रहने पर भी एक इतना आगे निकल गया और दूसरा जहां का तहां रह गया। इस अन्तर का एक ही कारण है— प्रस्तुत परिस्थितियों में श्रेष्ठतम लाभ उठा लेने की संतुलित सूझबूझ का बाहुल्य। एक को सब कुछ सामान्य ही दिखता है, पर दूसरा उसी स्थिति या सामग्री में से बहुत कुछ असामान्य खोज निकालता है। खोजता ही नहीं अवसर का उपयोग भी करता है। प्रगति के चरण सदा इसी आधार पर बढ़ते हैं। सामान्य पुरुष इसी आधार पर असामान्य बनते हैं और सफलता प्राप्त सम्मानित ऐतिहासिक व्यक्तियों की पंक्ति में जा बैठते हैं। कालिदास, वोपदेव, वरदराज जैसे आरम्भ में अति मूर्ख समझे जाने वाले लोगों के कालान्तर में प्रत्युत्पन्न मति महा मनीषियों की श्रेणी में गिने जाने लगने के उदाहरण यही बताते हैं कि हर किसी में प्रसुप्त पड़ी चिन्तन चेतना की दिव्य ज्योति को यदि जाज्वल्यमान किया जा सके तो कोई भी व्यक्ति वर्तमान की तुलना में अपने भविष्य को निश्चित रूप से उज्ज्वल बना सकता है।
मनुष्य यदि अपने तीनों शरीर की क्षमताओं का ठीक-ठीक उपयोग कर सके तो देव दुर्लभ जीवन और सद्गति प्राप्त कर सकता है। किन्तु आत्मबल के अभाव में वैसा हो नहीं पाता। उपासना, साधना द्वारा मनुष्य में जब आत्मबल का विकास होता है तो स्वेच्छाचारी मन और इन्द्रियां उसके आज्ञाकारी बन जाते हैं। अन्तरंग आस्थायें इतनी सबल हो जाती हैं कि उनके आगे स्वेच्छाचारिता चल नहीं पाती। मानवीय चेतना इस शरीर संस्थान की स्वामी है शरीर, मन, बुद्धि आदि तो उसके सेवक सहयोगी भर हैं। वे समर्थ सशक्त तो हैं किन्तु उनमें अवज्ञा करने की कोई शक्ति नहीं। आस्थाएं ही प्रेरणा देती है और उसी पैट्रोल से धकेले जाने पर जीवन स्कूटर के दोनों पहिये—चिन्तन और कर्तृत्व सरपट दौड़ने लगते हैं। व्यक्तित्व क्या है- आस्था। मनुष्य क्या है- श्रद्धा। चेष्टायें क्या हैं, आकांक्षा की प्रतिध्वनि। गुण, कर्म, स्वभाव न अपने आप बनते हैं न बिगड़ते हैं। आस्थाएं ही आदतें बनकर परिपक्व हो जाती हैं तो उन्हें स्वभाव कहते हैं। अभ्यासों को ही गुण कहते हैं। कर्म आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए शरीर और मन को संयुक्त रूप से जो श्रम करना पड़ता है, उसी को कर्म कहते हैं। इन तथ्यों को समझ लेने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्तित्व के स्तर और उसकी प्रतिक्रिया के रूप में आने वाले सुख-दुःख की अनुभूति होती रहती है। प्रसन्नता और उद्विग्नता को यों परिस्थितियों के उतार चढ़ावों से जोड़ा जाता है, पर वस्तुतः वे मनःस्थिति के सुसंस्कृत और अनगढ़ होने के कारण सामान्य जीवन में नित्य ही आती रहने वाली घटनाओं से ही उत्पन्न अनुभूतियां भर होती हैं। कोई घटना न अपने आप में महत्वपूर्ण है और न महत्व हीन। यहां सब कुछ अपने ढर्रे पर लुढ़क रहा है। सर्दी-गर्मी की तरह भाव और अभाव का जन्म-मरण और हानि-लाभ का क्रम चलता रहता है। हमारे चिन्तन का स्तर ही उनमें कभी प्रसन्नता अनुभव करता और कभी उद्विग्न हो उठता है। अनुभूतियों में परिस्थितियां नहीं, मनःस्थिति की भूमिका ही काम करती है।
जीवन के सफेद और काले पक्ष को समझ लेने के उपरान्त, सहज ही यह प्रश्न उठता है कि—क्या ऐसा सम्भव नहीं है कि परिस्थितियों के ढांचे में ढले— लोक प्रवाह में बहते हुए, संग्रहीत कुसंस्कारों से प्रेरित वर्तमान अनगढ़ जीवन को, अपनी इच्छानुसार— अपने स्तर का फिर गढ़ा जाय और प्रस्तुत निकृष्टता को उत्कृष्टता में बदल दिया जाय? उत्तर ‘ना और हां, दोनों में दिया जा सकता है। ‘ना उस परिस्थिति में जब आन्तरिक परिवर्तन की उत्कट आकांक्षा का अभाव हो और उसके लिए आवश्यक साहस जुटाने की उमंगे उठती न हों। दूसरों की कृपा सहायता के बलबूते उज्ज्वल भविष्य के सपने तो देखे जा सकते हैं, पर वे पूरे कदाचित ही कभी किसी के होते हैं, बाहरी दैवी और संसारी सहायताएं मिलती तो हैं, पर उन्हें पाने के लिए पात्रता की अग्नि-परीक्षा में गुजरते हुए अपनी प्रामाणिकता का परिचय देना पड़ता है। उतना झंझट सिर पर उठाने का मन न हो— सहज ही कुछ इधर-उधर की ‘हाथफेरी’ करके भौतिक सम्पदाएं, आत्मिक विभूतियां पाने के लिए जो ललचाता भर हो तो कहा जा सकता है कि व्यक्तित्व को महामानवों के स्तर पर गठित करना और उसके फलस्वरूप उच्चस्तरीय सिद्धियां प्राप्त कर सकना एक प्रकार से असम्भव ही है। उत्तर नकारात्मक समझा जा सकता है।
‘हां, उस स्थिति में कहा जा सकता है, जबकि साधक में यह विश्वास उभरा हो कि वह अपना स्वामी आप है— अपने भाग्य का निर्माण कर सकना उसके अपने हाथ की बात है। दूसरों पर न सही अपने शरीर और मन पर तो अपना अधिकार है ही और उस अधिकार का उपयोग करने में किसी प्रकार का कोई व्यवधान या हस्तक्षेप कहीं से भी नहीं हो सकता। मन की दुर्बलता ही है जो ललचाती, भ्रमाती और गिराती है। तन कर खड़ा हो जाने पर भीतरी और बाहरी सभी दबाव समाप्त हो जाते हैं। और अभीष्ट दिशा में निर्भयता एवं निश्चिन्तता के साथ बढ़ा जा सकता है। समुद्र की गहराई में उतरकर मोती ढूंढ़ने में विशिष्ट प्रकार के साधन एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। जीवन समुद्र की गहराई में उतर कर एक से एक बहुमूल्य रत्न ढूंढ़ लाना सरल है। इसमें किसी बाहरी साधन या उपकरण की जरूरत नहीं— मात्र प्रचण्ड संकल्प शक्ति चाहिए। प्रचण्ड का तात्पर्य है— धैर्य और साहस का उतनी मात्रा में समन्वय जिससे संकल्प के डगमगाते रहने की बाल बुद्धि उभर आने की आशंका न हो। स्थिर बुद्धि से सतत् प्रयत्न करते रहने और फल-प्राप्ति में देर होते देखकर अधीर न होने की वरन् दूने उत्साह से प्रयत्न करने की सजीवता जहां भी होगी, वहां सफलता पैर चूमने के लिए सामने हाथ जोड़े- सिर झुकाये खड़ी होगी। ऐसे मनस्वी व्यक्ति अपने को, अपने वातावरण को यहां तक कि, अपने प्रभाव क्षेत्र को काया कल्प की तरह बदल सकने में सफल हो सकते हैं। जीवन परिष्कार की भविष्यवाणी करते हुए ऐसे लोगों की सफलता सम्भावना हो ‘हां’ कहकर आश्वस्त किया जा सकता है। उपासनात्मक विधि-विधानों का सृजन तत्वदर्शी ऋषियों ने इसी उच्चस्तरीय सफलता की प्राप्ति के लिए तैयार किया है।
उपासना का अर्थ है— समीपता। ईश्वर और जीव में यों समीपता ही है। जब भगवान कण-कण में संव्याप्त हैं, तब मानवी काया एवं चेतना में भी वे समाये हुए क्यों नहीं होंगे। जो अपने में ओत-प्रोत ही है वह दूर कैसे? और जो दूर नहीं है उसकी समीपता का क्या अर्थ? इस असमंजस की विवेचना इस प्रकार होती है कि यह समीपता उथली है, गहरी नहीं। माना कि शरीर में हलचलों के रूप में और मन में चिन्तन के रूप में विश्वव्यापी चेतना ही काम कर रही है तो भी स्पष्ट है कि जीव की आस्थायें एवं आकांक्षायें दिव्य सत्ता के अनुरूप नहीं हैं। उनमें निकृष्टता का आसुरी अंश भी भरा पड़ा है, मनुष्यता की सार्थकता तभी है जब उसका स्वरूप एवं स्तर भी उसी के अनुरूप ऊंचा उठ सके। निम्न योनियों के जीवधारी पेट और प्रजनन के लिए जीते हैं। स्वार्थ सिद्धि ही उनकी नीति होती है। शरीरगत लाभ ही उनके प्रेरणा स्रोत होते हैं। दूसरों के साथ वे आत्मीयता बहुत थोड़ी मात्रा में मिला पाते हैं और परमार्थ के अंश नगण्य जितने ही देखे जाते हैं। यदि यही अन्तःस्थिति मनुष्य में बनी रहे तो समझना चाहिए कि कायिक विकास ही हुआ—चेतनात्मक नहीं। नर-कीट नर-पशु उन्हें कहते हैं, जो शरीर संरचना भर से मनुष्य हैं उनके दृष्टिकोण में पिछड़ी योनियों जैसी निकृष्ट स्वार्थपरता ही भरी पड़ी है। आयु की दृष्टि से प्रौढ़ हो जाने पर भी यदि सारा आचार-व्यवहार बच्चे जैसा ही बना रहे तो उस अविकसित स्थिति पर चिन्ता व्यक्त की जायेगी। ठीक यही स्थिति उन मनुष्यों की है जो शरीर से तो सुरदुर्लभ काया में प्रवेश पा गये पर उनने अपने दृष्टिकोण में क्रिया-कलाप में वही पिछड़ा हुआ क्रिया-कलाप संजोये रखा।
इस दयनीय स्थिति से पीछा छुड़ाने के लिए ईश्वर की समीपता का-उपासना का उपक्रम बनाना पड़ता है। शरीर ठण्ड से कांप रहा हो तो आग की समीपता से आवश्यक गर्मी प्राप्त की जा सकती है। आदर्शवादिता से रहित मानव जीवन घिनौना ही कहा जायेगा जो पशु के लिए क्षम्य है वही मनुष्य के लिए अक्षम्य। पशु निर्वासन रहते, खुले में मल-मूत्र त्यागते और रति कर्म करते हैं। मनुष्य वैसा करेगा तो भर्त्सना का पात्र बनेगा। शिश्नोदर परायणता निकृष्ट कृमि-कीटकों के लिए स्वाभाविक हो सकती है—मनुष्य के लिए तो वह स्थिति निन्दनीय ही मानी जायेगी।
संगति का- समीपता का प्रभाव सर्वविदित है। चन्दन के समीप उगे हुए झाड़-झंखाड़ सुगन्धित हो जाते हैं। कोयले की और गन्धी की दुकान पर बैठने वाले कालोंच का धब्बा और सुगन्ध का छींटा साथ लेकर जाते हैं। दुष्टों की समीपता से दुर्गति और सज्जनों के सान्निध्य से सद्गुणों की वृद्धि और प्रगति की सम्भावना का साकार होना सर्वविदित है। ईश्वर उत्कृष्टताओं का भाण्डागार है। उसकी समीपता उपासना में वैसी ही विशेषताओं का बढ़ना स्वाभाविक है। कीट-भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है। टिड्डे हरी घास में रहते हैं तो उनका शरीर हरा रहता है, पर जब वे सूखी घास में रहने लगते हैं तो पीले पड़ जाते हैं। तितलियां फूलों के अनुरूप अपने रंग बदलती रहती हैं। समीपता के अनुरूप ढलने के अगणित उदाहरण सर्वत्र पाये जाते हैं। वातावरण की प्रभाव शक्ति को कौन नहीं जानता। व्यक्तित्वों का भला बुरा निर्माण करने में वातावरण की असाधारण भूमिका रहती है।
उपासना का क्रिया-कृत्य अन्तरंग और बहिरंग स्तर का ऐसा ‘माहौल’ बनाना चाहिए जिससे व्यक्ति के भावनात्मक स्तर में उत्कृष्टता की अभिवृद्धि होती हो। बहिरंग वातावरण बनाने में पूजा उपासना में प्रयुक्त होने वाली प्रतीक प्रतिमा—उसका सज्जा श्रृंगार पूजा उपचार में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ उपकरण आदि का मिला जुला स्वरूप अपना काम करता है। पूजा वेदी के समीप बैठने पर ऐसा लगना चाहिए, मानो किन्हीं असाधारण दिव्य परिस्थितियों में जा पहुंचे हों। मन्दिर, देवालय, पूजागृह, देवपीठ, आराधना कक्ष को बनाने में उपयुक्त वातावरण बनाने का तथ्य ही प्रधान रूप से काम करता है। वहां के सुसज्जा साधन संजोने में इसी बात का ध्यान रखा जाता है। कि उस स्थान में जाते ही मन अपने आपको पवित्रता की दिव्य परिस्थितियों से घिरा हुआ अनुभव करने लगे। सामान्य वातावरण से उपासना कक्ष का वातावरण भिन्न रखा जाता है। और वहां की परिस्थितियां ऐसी बनाई जाती हैं जिनमें बैठने पर उत्कृष्टता की अनुभूति बढ़ने से सुविधा मिल सके।
देवालयों, तीर्थों एवं निजी पूजागृहों में स्थापित देव प्रतिमा के आधार पर की गई पूजा-आराधना सर्वसुलभ एवं सामान्य मनोभूमि के लिए सर्वथा उपयुक्त है। यदि उसके पीछे जुड़ गई भ्रान्तियों और अवांछनीयताओं को हटा दिया जाये तो इस माध्यम को व्यक्ति एवं समाज के भावनात्मक एवं नैतिक स्तर को ऊंचा उठाने में बहुत सहायक सिद्ध पाया जायेगा। मूर्ति, चित्र, पुष्प आदि की साज-सज्जा शान्त वातावरण आदि उपासना के उपयुक्त मनोभूमि बनाने में सहायता करते हैं। मूर्ति आदि को ही सब कुछ मान लेना बुरा है उनका समुचित उपयोग बुरा नहीं है। मूर्ति एक संकेत है, प्रतीक है। पुस्तक भी एक मूर्ति है। उसमें छपी हुई आड़ी-टेढ़ी लकीरों के रूप में अक्षर होते हैं। देखने में यह पुस्तक प्रतिमा सर्वथा जड़ है, उसमें चेतन नहीं खोजा जा सकता, पर उस पुस्तक के सहारे हमारे मनःक्षेत्र में मनीषियों द्वारा प्रतिपादित अत्यन्त महत्वपूर्ण विचार उत्पन्न होते और पनपते हैं। इस मानी में वह चेतन भी है। गीता की पुस्तक जड़ है, उसे झींगुर, कीड़े, चूहे आसानी से काट सकते हैं। पर इतने भर से उस ज्ञान-प्रतिमा का मूल्य किसी भी प्रकार घट नहीं जाता। भगवान कृष्ण और अर्जुन के बीच हुआ दिव्य सम्वाद उसके पृष्ठों पर पढ़ा जा सकता है। और वैसा ही लाभ लिया जा सकता है, जैसा कि उस अवसर पर स्वयं उपस्थित रह सकने पर हो सकता था। पत्र-व्यवहार में कितना महत्वपूर्ण आदान-प्रदान होता है यह किसी से छिपा नहीं है। महत्वपूर्ण इकरारनामे और दस्तावेज जड़ कागज होता है, पर उनके आधार पर कितने बड़े फैसले होते हैं, इसे कौन नहीं जानता। चूंकि कागज पानी से गल सकता है, इसलिए इस पर लिखे आलेखों का कोई महत्व नहीं, ऐसा सोचना उपहासास्पद है। हम अपने पूर्वजों, गुरुजनों अथवा मान्य प्रतीकों के प्रति असीम सम्मान रखते हैं और उनकी अवज्ञा पर दुःख मानते एवं रोष प्रकट करते हैं। भगवान जड़ तो नहीं हैं, पर वह जड़ पदार्थों में समाया हुआ न हो, ऐसी भी कोई बात नहीं है। जब जड़-चेतन सभी में उसकी सत्ता विद्यमान है, तो प्रतिमा में उसकी उपस्थिति न होने की बात भी क्यों सोची जाये।
चित्र अथवा मूर्ति के आधार पर की जाने वाली उपासना के समय मन में यह निष्ठा जमनी चाहिए कि जिस दिव्य सत्ता के साथ घनिष्ठता जोड़नी है वह उपासना स्थल पर असामान्य स्थिति में विद्यमान है। इसके लिए प्रतीक प्रतिमा की स्थापना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। आद्य शक्ति गायत्री माता की अथवा अपने विश्वास के आधार पर कोई अन्य प्रतिमा—एक छोटे किन्तु सुसज्जित सिंहासन पर स्थापित रहनी चाहिए। जब भी पूजा करनी हो तब उसी के सामने बैठकर करनी चाहिए। जिस स्थान पर जो कार्य बहुत समय तक किया जाता रहता है वहां अनायास ही ऐसी विशेषता उत्पन्न हो जाती है जिससे प्रेरित होकर उन कार्यों की पुनरावृत्ति के लिए मन चलने लगता है। चाहे जब बैठकर—भजन करने पर मन लगा लेना कठिन है, पर नियत स्थान पर, नियत समय पर, पूजा स्थल पर बैठते ही मन स्वभावतः उन अभ्यस्त क्रियाओं को स्वेच्छापूर्वक दुहराने लग जायेगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए नियत स्थान पर पूजा कक्षा का स्थापित करना और नियत समय पर नियत विधि से उपासना कृत्य को क्रियान्वित करना ही उपयुक्त रहता है।
उपासनात्मक वातावरण के बाद उपासनात्मक कर्मकाण्डों का क्रम आता है। यह कर्मकाण्ड वास्तव में साधक की मनोभूमि के लिए समुद्र मंथन जैसा महत्व रखते हैं। देव-दानवों ने समुद्र मथ कर कुछ ही समय में चौदह बहुमूल्य रत्न पाये थे। यह मंथन यदि अधिक समय तक—अधिक गहराई तक जारी रखा जा सके, तो उस आधार पर मिलती रहने वाली उपलब्धियों का कोई अन्त नहीं मिल सकता।
यह मंथन प्रक्रिया ही उपासना के अन्तर्गत किये जाने वाले सरल संक्षिप्त कर्मकाण्डों द्वारा आरम्भ होती है और इस आधार पर स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण और कारण से अनन्त में— प्रवेश करती चली जाती हैं। आरम्भ के छात्रों को जो कृत्य बताये जाते हैं वे उपहासास्पद लगते हैं और यह समझ में नहीं आता कि इतनी स्वल्प सी शारीरिक, मानसिक हलचलों में इतनी बड़ी उपलब्धियां किस प्रकार करतल गत हो सकती हैं यहां इतना ही समाधान प्रस्तुत किया जा सकता है कि उपासनात्मक कर्मकाण्ड दिशा निर्देश है। दिशा सही होने और पहिया लुढ़कने लगने पर उसके परिणाम दूरगामी होना आश्चर्यजनक नहीं है।
रेलगाड़ी के चलने, खड़े होने की झण्डी और सिगनल की बड़ी भूमिका होती है। उनके हरे होने से गाड़ी चलती है और लाल होने से रुक जाती है। निस्सन्देह झण्डी या बत्ती के रंग में इतनी शक्ति नहीं है कि वे रेल को रोक या धकेल सकें, फिर भी उनके द्वारा दिशा निर्देश का अपना महत्व है। इस प्रक्रिया में गड़बड़ी हो जाय तो गाड़ियां या तो खड़ी रहेंगी अथवा आपस में टकरा कर नष्ट होंगी।
जंकशन पर बराबर-बराबर कितनी ही गाड़ियां खड़ी रहती हैं। इनमें से किस को किधर जाना है, इसका निर्धारण एक छोटा सा ‘लीवर’ करता है। पटरियों में से किसे किस के साथ मिला दिया जाय यह निर्णय और कार्य तनिक सा है और उसे छोटा सा खलासी बड़ी आसानी से पूरा कर देता है। देखने सुनने में बात जरासी हुई, पर पता चलता है कि एक गाड़ी उत्तर को घूमी और दूसरी दक्षिण को। इस थोड़ी सी अवधि में दोनों के बीच सैकड़ों हजारों मील का फासला बन गया। जीवन के चौराहे पर से जिस दिशा में मोड़ दिया जाय वह अपने क्रम से चल पड़ता है और भिन्न दिशा में चलने वालों की तुलना में असाधारण रूप से भिन्न दिखाई पड़ता है। अनर्थ मूलक प्रवृत्ति में निरत और निरर्थक भटकाव में संलग्न लोगों की तुलना में परमार्थ परायण की प्रगति कितनी अधिक उत्साहवर्धक है इसे ऐतिहासिक महामानवों को मिली विभूतियों का पर्यवेक्षण करके आसानी से जाना जा सकता है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों में से प्रत्येक जीवन धारा की दिशा मोड़ने में सहायक होता है। रेल की पटरियां सरल और सस्ती होती हैं, पर उनके बिना बहुमूल्य और जटिल इंजन अनेक डिब्बों सहित दौड़ते चले जाने में समर्थ नहीं हो सकता। उपासनात्मक कर्मकाण्डों की रेल की पटरी से उपमा दी जा सकती है।
कर्मकाण्ड वे कृत्य हैं जो शरीर के विभिन्न अवयवों की सहायता से—उपचार उपकरणों के द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। षोडशोपचार देव पूजन-आत्मशोधन के विभिन्न क्रिया-कृत्य इसी श्रेणी में आते हैं। मन पर छाप डालने में विचार और कर्म का समन्वय करना पड़ता है। चित्त पर स्थिर संस्कार डालने के लिए अभीष्ट विचारों के साथ-साथ उनके पूरक कृत्य होने ही चाहिए अन्यथा कल्पना केवल कल्पना बन कर हवा में उड़ जाती है। विचारणा के साथ क्रिया का समन्वय न कर सकने पर भी जो लोग सफलताएं चाहते हैं उन्हें शेख चिल्ली कह कर उपहासास्पद किया जाता है। हर क्षेत्र में विचार और कर्म का समन्वय ही प्रतिफल उत्पन्न करता है। उपासना में ईश्वरीय सान्निध्य की कल्पना ही नहीं अनुभूति भी अपेक्षित होती है। भावनिष्ठा को कार्यान्वित होते देखकर ही ऐसी मनःस्थिति बनती है। इसलिए यह सोचना होता है कि परमेश्वर प्रत्यक्ष ही सचमुच ही सामने विराजमान है और उनकी किसी जीवित व्यक्ति के उपस्थित होने पर की जाने जैसी अभ्यर्थना की जा रही है। आत्मशोधन और देवपूजन के दोनों ही कृत्यों में इसी प्रकार का भाव समन्वय होता है। वह यदि बेगार भुगतने के उथले मन से किया गया है और जैसे-तैसे परम्परा गत लकीर पीटी गई हो तो बात दूसरी है अन्यथा जिस प्रयोजन के लिए यह प्रचलन हुआ है, उसे ध्यान में रखकर चला जाय तो अन्तःक्षेत्र में अभीष्ट निष्ठा होगी और लगेगा कि निराकार परमेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सघन-अधिक साकार बनकर सामने आया है।
उपासनात्मक कर्मकाण्ड के अंग देवपूजन, जप, ध्यान आदि हैं, जिनके माध्यम से साधक अपनी चेतना को उस परम चेतना के सान्निध्य के लिए उसके साथ जोड़ने के लिए प्रयास करता है। किन्तु इसके पूर्व कुछ क्रियायें अपने आपको उपासना की उपयुक्त स्थिति में पहुंचाने के लिए की जाती हैं। इन्हें आत्म शुद्धि के षट् कर्मों के रूप में जाना जाता है इनका उद्देश्य अपने में सर्वतोमुखी पवित्रता की भाव मान्यता को सघन बनाना है। हमारे कार्य विचार और विश्वास तीनों ही आत्मिक प्रगति के मूलभूत आधार हैं। कपड़ा पहले धोया जाता है, फिर रंगा जाता है। धुलाई अर्थात् आत्म शुद्धि, रंगाई अर्थात् व्यक्तित्व में ब्रह्म चेतना का अवतरण। मैले कपड़े पर रंग नहीं चढ़ता और दुष्ट एवं भ्रष्ट जीवन-क्रम अपनाये रहने वाला ईश्वर की उस विशेष अनुकम्पा का अधिकारी नहीं बन सकता है, जिसे ब्रह्मवर्चस की उपलब्धि करते हैं और जिसके साथ देवोपम विशेषताओं के ऋद्धि-सिद्धि भरे भण्डार जुड़े हुए हैं।
‘‘देवता बनकर देव पूजन करना चाहिए’’ इस शास्त्र निर्देश का प्रयोजन यह है कि उपासना काल में अपने आपे को पवित्रता से ओत-प्रोत अनुभव करना चाहिए। सम्मिलन सजातियों का ही होता है। पानी में घुलनशील पदार्थ ही घुल सकते हैं। लोहे जैसी भारी धातुओं का पानी में घुलना सम्भव नहीं। ईश्वर का सजातीय अपना व्यक्तित्व होगा तो इसमें दिव्य अवतरण की अपेक्षा की जा सकती है। अपने में देवत्व की स्थापना करके तब उपासना कृत्य आरम्भ करने की बात इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए कही गई है।
आत्म शुद्धि के लिए पवित्रीकरण, आचमन, शिखाबन्धन, प्राणायाम न्यास यह पांच कृत्य करने पड़ते हैं। इसके बाद सर्व प्रथम मातृभूमि का- पृथ्वी पूजन है। अदृश्य भगवान के प्रतीकाह्वान से भी पहले भगवान की साकार प्रतिमा— अपनी धरती का पूजन किया जाता है। विराट् ब्रह्म का प्रत्यक्ष शरीर यह संसार है, इसकी जड़ सम्पदा को सुविकसित और प्राणि सत्ता को सुसंस्कृत बनाने के लिए जो प्रयत्न किये जाते हैं वे सभी पृथ्वी पूजन में— मातृभूमि अर्चन में आ जाते हैं।
इन उपचारों में शारीरिक क्रियायें तो होती ही हैं किन्तु उनके साथ मानसिक एवं भावनात्मक सक्रियता भी अनिवार्य रूप से जुड़ी रहनी चाहिए। शारीरिक क्रिया इन उपचारों का कलेवर मात्र है- उपेक्षा उसकी भी नहीं करनी चाहिए, किन्तु उसके प्राण को अपनी विचारणा और भावना को उसके साथ साथ प्रखर बनाना आवश्यक है।
पवित्रीकरण के साथ यह भावना उठनी चाहिए कि ईश्वर की सर्वव्यापी पवित्रता में हम ओत-प्रोत हो रहे हैं और वैसी ही पवित्रता हमारे अन्दर जागृत और स्थापित हो रही है। तीन आचमनों के साथ क्रमशः वाणी की शुद्धि, चिन्तन की शुद्धि तथा भाव शुद्धि तथा इन तीनों को ईश्वरीय कार्यों में प्रयुक्त करने के लिए सशक्त और तेजस्वी बनाने का ध्यान रखा जाय। शिखा-बन्धन के समय अपने संस्कृति गौरव का स्मरण करते हुए अपनी आदर्श निष्ठा तथा आस्थाओं को सबल बनाने अपने सूक्ष्म केन्द्र मस्तिष्क को ईश्वरीय दिव्य चेतना से जोड़े रहने का भाव उभारना चाहिए। प्राणायाम के समय वायु के साथ विश्वव्यापी महाप्राण को अन्दर खींचने, उसे अपने सभी शरीरों में स्थापित करने तथा अन्दर के विकारों को बाहर फेंक देने का संकल्प बनाये रखा जाता है। न्यास अपने प्रमुख अंगों को ईश्वरीय कार्यों के लिए उपयुक्त बनाने के उद्देश्य से किया जाता है। पृथ्वी पूजन के साथ अपनी सीमित स्वार्थपरता को छोड़कर विशाल उत्तरदायित्वों के बोध, मातृभूमि-विश्ववसुधा के प्रति अपने कर्तव्यों का स्मरण किया जाना और अपनी कृतज्ञता की भावना को विकसित करना आवश्यक है।
षट्कर्मों द्वारा अपने आपको देवशक्तियों के अनुरूप बनाकर, फिर प्रतीक पूजा का क्रम चलाया जाता है। उसके लिए अपनी रुचि के अनुरूप इष्टदेव की प्रतिमा, चित्र, दीपक, सुपारी, नारियल जैसे प्रतीक रखकर उनका पूजन किया जाता है। पूजन में चढ़ाये जाने वाले पदार्थों की तरह अपनी क्षमताओं साधन सम्पदाओं को प्रभु चरणों में अर्पित करने का भाव उसके साथ जुड़ा रहना चाहिए। सही ढंग से किए जाने पर प्रतीक पूजन की प्रक्रिया में स्थूल और सूक्ष्म समर्पण का संयोग उपासक की अन्तःचेतना को ऊंचा उठाने में असाधारण रूप से उपयोगी सिद्ध होता है।
सार्वजनिक मन्दिरों में अथवा व्यक्तिगत पूजा कक्षा में—भगवान के विविध प्रतीकों की स्थापना करके उनका महामानव गुरुजनों जैसा स्वागत सत्कार किया जाता है। पंचोपचार षोडशोपचार के विधान उसी के लिए बनाये गये हैं। जितनी देर प्रतिमा सामने रहती है, उतने समय ईश्वर के सान्निध्य का अनुभव होता है—उसका बड़प्पन स्वीकारा जाता है। और श्रद्धाभिव्यक्ति से सम्मानित करने वाले शिष्टाचारों का प्रदर्शन किया जाता है। पाद्य, अर्घ्य आचमन, स्नान, पुष्प, चन्दन, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, आरती नमस्कार आदि के विधि कृत्य समीपता और श्रद्धा की अनुभूति को विकसित करने में सहायता करते हैं। निष्ठा की परिपक्वता के लिए कल्पित देव प्रतिमाओं को यथार्थ मानने की मनःस्थिति, उत्पन्न की जाती है।
इससे आगे की सूक्ष्म प्रतीक पूजा वह है। जिसमें आंखें बन्द करके अथवा अधखुली रखकर इष्टदेव की प्रतिमा का ध्यान किया जाता है। और श्रद्धा, समीपता एवं एकता की वैसी ही भावना की जाती है, जैसी की मूर्तिपूजा में स्थूल प्रतिमा की। अन्तर इतना ही रहता है कि मूर्तिपूजा में प्रतीक उपकरणों की प्रत्यक्ष आवश्यकता पड़ती है। और जबकि ध्यान में वह सारे कार्य मात्र कल्पना के सहारे ही पूरे हो जाते हैं। ध्यान में इष्टदेव को हंसता, मुस्कराता और श्रद्धा समर्पण के अनुरूप प्रत्युत्तर देता हुआ सोचा जा सकता है। यह स्थिति अधिक उत्साहवर्धक होती है। और एकाग्रता का लाभ भी अधिक देती है। इसलिए इस मानस पूजा को भावनाशील, कल्पनाशील साधकों के लिये प्रयुक्त होने वाली उपासना का अगला ऊंचा चरण माना गया है।
आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाली योग साधना के पथ पर अग्रसर होने की दिशा में प्रथम कक्षा साकार उपासना की है। उसमें आकृति सहित परमात्मा की कल्पना करनी पड़ती है। उसे उच्चस्तरीय श्रेष्ठताओं से सम्पन्न माना जाता है, समीप उपस्थित अनुभव किया जाता है, सघन श्रद्धा का आरोपण करते हैं, गहरी प्रेम भावना उमगाते हैं। और उनके साथ घनिष्ठता बनाते हैं। इसी कृत्य के अन्तर्गत आने वाले विविध उपचार भक्ति साधना कहे जाते हैं। ‘लय’ प्रक्रिया का यह प्रथम सोपान है। अचिन्त्य चिन्तन में असमर्थ—स्थूल भूमिका की मनःस्थिति के लिए यही कृत्य सरल पड़ता है। और चेतना का स्तर आगे बढ़ाने में सहायता करता है। प्रतीक उपासना का सारा ढांचा इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुआ समझा जाना चाहिए।
इसके बाद उपासना की अधिक गहन प्रक्रियाओं जप ध्यान आदि का प्रयोग किया जाता है। अपनी चेतना को क्रमशः ईश्वर सान्निध्य की अधिक गहन अनुभूति की ओर ले जाने के लिए यह सीढ़ियां बनायी गयी हैं। इस स्तर की उपासना का प्रयोजन है मनःक्षेत्र पर ईश्वरीय सान्निध्य का चिन्तन घटाटोप की तरह छाये रहना। सामान्य जीवन में आत्म सत्ता शरीर रूप में ही काम करती है अस्तु अपना आपा शरीर मात्र ही अनुभव होने लगता है। शरीर से सम्बन्धित समस्याओं का विस्तार अत्यधिक है। उनके खट्टे मीठे स्वाद भी चित्र-विचित्र हैं और वे सभी बड़े आकर्षक हैं। यों प्रिय अप्रिय स्तर की परस्पर विरोधी अनुभूतियां सामने आती हैं, पर वे दोनों ही अपने-अपने ढंग के गहरे प्रभाव चेतना पर छोड़ती हैं। सफलताएं अपने ढंग का प्रभाव डालती हैं, असफलताएं दूसरे ढंग का। लाभ में एक प्रकार का अनुभव होता है, हानि में दूसरे तरह का। एक स्थिति प्रिय लगती है, दूसरी अप्रिय। इतना होते हुए भी दोनों की स्थितियों की गहरी छाप पड़ती है। सफलता का हर्षोन्माद और असफलता का शोक सन्ताप दोनों ही अपना प्रभाव छोड़ते और चेतना को आवेशग्रस्त बनाते हैं। ज्वार-भाटे जैसे—यह आवेश अवसाद सामयिक अनुभूति बनकर ही समाप्त नहीं हो जाते वरन् पीछे भी बहुत समय तक उनकी उत्तेजित प्रतिक्रिया बनी रहती है। ऐसे क्षण बहुत ही कम आते हैं जिनमें चित्त शान्त सन्तुलित रहता हो और आत्म सत्ता के साथ जुड़ी हुई समस्याओं को हल करने की बात सूझ पड़ती हो। यही कारण है कि हम भौतिक आवश्यकता और समस्याओं को ही सब कुछ मान लेते हैं और उन्हीं के जाल जंजाल में उलझे जकड़े पड़े रहते हैं। आत्मिक जीवन का स्वरूप भी सामने नहीं आ पाता फिर उनका समाधान सूझे तो कैसे? स्पष्ट है कि आत्मिक समस्याओं का समाधान हुए बिना न तो भौतिक जीवन का रस लिया जा सकता है और न जीवन लक्ष्य को पूरा करने की बात बनती है।
आवश्यक है कि कुछ समय हमारे पास ऐसा हो जिसमें भौतिक जीवन को एक प्रकार से पूरी तरह ही भुला दिया जाय और उन क्षणों में केवल आत्मा का स्वरूप जीवन लक्ष्य एवं परमात्म सान्निध्य के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही न पड़े यही उपासना काल की मर्यादा है। यह सही हुई या गलत, इसकी पहचान इतनी है कि उन क्षणों में मनःक्षेत्र पर आत्मिक स्तर का चिन्तन छाया रहा या भौतिक स्तर का। यदि सांसारिक मनोकामनाओं की उथल-पुथल मची हुई है और इष्टदेव से तरह-तरह के भौतिक वरदान पाने की ललक उठ रही हो तो समझना चाहिए कि यह उपासना कृत्य भी विशुद्ध रूप से भौतिक है। इससे आत्मिक प्रगति जैसा कोई लाभ मिल नहीं सकेगा। यदि उतने समय शरीर रहित—भौतिक प्रभावों से मुक्त—ज्योतिर्मय आत्मा ही ध्यान में है और उसमें महाज्योति के साथ समन्वित हो जाने की दीप-पतंग जैसी आकांक्षा उठ रही है, तो समझना चाहिए कि उपासना का सच्चा स्वरूप अपना लिया गया और उससे अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो सकने की सम्भावना बन रही है।
परब्रह्म एक सर्वव्यापी चेतना शक्ति है। उसके साथ जितनी अधिक घनिष्ठता जुड़ती चली जाती है उसी अनुपात से जीवात्मा की उत्कृष्टता एवं क्षमता बढ़ती जाती है। चेतना को चेतना के साथ घनिष्ठता के बन्धनों में बांधने के लिए एक ही आधार है—सद्भाव भरी स्थिर आतुरता। इसी स्थिति को दूसरे शब्दों में प्रेम या भक्ति कहा गया है। लौकिक जीवन में भी इसी प्रकार की आतुरता जिस पदार्थ, व्यक्ति या स्थिति के प्रति होती है उसके लिए समूचा व्यक्तित्व प्रयत्नरत हो जाता है और देर-सवेर इष्ट प्रायः पूरा होकर ही रहता है। चेतना को चेतना से मिलाने के लिए भी यह भावभरी किन्तु स्थिर आतुरता अभीष्ट है। भक्ति भावना उत्पन्न करने के लिए ईश्वर का स्वरूप बनाने— उस पर श्रद्धा, आत्मीयता, समीपता एवं एकता आरोपित करने के प्रयास किये जाते हैं और वे अभीष्ट प्रयोजन पूरा भी करते हैं।
उपासना के समय ही नहीं बाद में भी यह भावनात्मक प्रखरता बनी रहे यह आवश्यक है। उपासना काल में दिव्यसत्ता की समीपता का जो बोध हुआ, अपने आपको उससे जोड़ देने, उस पर समर्पित कर देने की जो ललक उठी उसकी अनुभूति सामान्य जीवनक्रम में भी बनी रहनी चाहिए। साधक अपनी इसी भावना के विकास और पुष्टि का संकल्प करते हुए उपासना के अंत में सूर्यार्घ्यदान करता है। जैसे कलश की सीमा में बंधा जल सूर्य के समाने अर्पित करते ही गर्मी और वायु के संसर्ग से असीम में मिल जाता है, उसी तरह अपने शरीर में सीमित हमारी चेतना भी प्रभु चरणों पर अर्पित होकर अनन्त में मिल जाय, हम अणु से विभु बने यही भाव सूर्यार्घ्यदान के समय रहना चाहिए।
इस प्रकार उपासना के साथ उपयुक्त वातावरण, उपयुक्त कर्मकाण्ड तथा उपयुक्त भावोद्रेक का क्रम अपना कर उसे अति प्रभावशाली बनाया जा सकता है। इसके साथ क्रिया, चिन्तन और भाव समन्वय द्वारा स्थूल सूक्ष्म और कारण- तीनों शरीरों को उपासनामय बनाया जा सकता है। यही सभी क्रम एक साथ चल सकते है आवश्यक नहीं कि एक को पूरा करके ही दूसरी को छुआ जाय। खेलों में शारीरिक स्फूर्ति और मानसिक सूझबूझ का एक साथ उपयोग होता है। शरीर में पाचन, श्वास प्रश्वास तथा रक्त संचार आदि क्रम एक साथ चलते रहते हैं। इसी प्रकार उपासना में भी सभी धारायें एक साथ प्रवाहित होती हैं। तथा साधक उसका अद्भुत लाभ प्राप्त करता चला जाता है।
***