Books - उपासना और साधना का समन्वय
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Language: HINDI
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साधना और उसकी सिद्धि
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मानवी व्यक्तित्व एक प्रकार का उद्यान है। उसके साथ अनेकों आत्मिक और भौतिक विशेषताएं जुड़ी हुई हैं। उनमें से यदि कुछ को क्रमबद्ध, व्यवस्थित और विकसित बनाया जा सके तो स्वादिष्ट फल खाते-खाते गहरी तृप्ति का आनन्द मिलता है। पर यदि चित्तगत वृत्तियों और शरीरगत प्रवृत्तियों को ऐसे ही अनियन्त्रित छोड़ दिया जाय तो वे भोंड़े, गंवारू एवं उद्धत स्तर पर बढ़ती है और दिशा विहीन उच्छृंखलता के कारण जंगली झाड़ियों की तरह उस समूचे क्षेत्र को अगम्य एवं कंटकाकीर्ण बना देती है।
जीवन कल्प वृक्ष की तरह असंख्य सत्परिणामों से भरा-पूरा है पर उसका लाभ मिलता भी है जब उसे ठीक तरह साधा, संभाला जाय। इस क्षेत्र की सुव्यवस्था के लिए की गई चेष्टा को साधना कहते हैं। कितने ही देवी देवताओं की साधना की जाती है। और उससे कतिपय वरदान पाने की बात पर विश्वास किया जाता है। इस मान्यता के पीछे सत्य और तथ्य इतना ही है कि इस मार्ग पर चलते हुए अन्तःक्षेत्र की श्रद्धा को विकसित किया जाता है। आदतों को नियन्त्रित किया जाता है। चिन्तन प्रवाह को दिशा विशेष में नियोजित रखा जाता है। और सात्विक जीवन में नियमोपनियमों का तत्परता पूर्वक पालन किया जाता है। इस सबका मिला-जुला परिणाम व्यक्तित्व पर चढ़ी हुई दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण करने तथा सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अंग बनाने में सहायक सिद्धि होता है। सुसंस्कारों का अभिवर्धन प्रत्यक्षतः दैवी वरदान है। उसके मूल्य पर हर व्यक्ति अभीष्ट प्रयोजन की दिशा में अग्रसर हो सकता है और उत्साहवर्धक सत्परिणाम प्राप्त कर सकता है।
साधना आत्मिक क्षेत्र में भी होती है और भौतिक क्षेत्र में भी। कदम जिस भी दिशा में बढ़ते हैं, प्रगति उसी ओर होती है। अपनी सतर्कता पूर्ण सुव्यवस्था जिस भी मार्ग पर गतिशील कर दी जाय उसी में एक के बाद एक सफलता के मील के पत्थर मिलते चले जाएंगे।
साधना का महत्व किसान जानता है। पूरे वर्ष अपने खेत की मिट्टी के साथ अनवरत गति से लिपटा रहता है और फसल को स्वेद कणों से नित्य ही सींचता रहता है। सर्दी गर्मी की परवाह नहीं—जुकाम खांसी की चिन्ता नहीं। शरीर की तरह ही खेद उनका कर्म क्षेत्र होता है। एक-एक पौधे पर नजर रहती है। खाद, पानी निराई, गुड़ाई से लेकर रखवाली तक के अनेकों कार्य करने से पूर्व वह उनकी आवश्यकता समझता है और किसी के निर्देश से नहीं अपनी यति से ही निर्णय करता है कि कब, क्या और कैसे किया जाना चाहिए। किसी के दबाव से नहीं— अपनी इच्छा और प्रेरणा से ही उसे खेत की, उसे संभालने वाले बैलों, हल, कुदाल आदि सम्बद्ध उपकरणों की व्यवस्था जुटाये रहने की सूझ बूझ सहज ही उठती और स्वसंचालित रूप से गतिशील होती रहती है। यह सब होता है बिना थके, बिना ऊबे, बिना अधीर हुए। आज का श्रम कल ही फलप्रद होना चाहिए, इसे आग्रह उसे तनिक भी नहीं होता। फसल अपने समय पर पकेगी—तब तक उसे धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी होगी यह जानने के कारण अनाज की ढेरी कोठे में भरने को आतुरता भी उसे नहीं होती। इतने मन अनाज निश्चित रूप से होना चाहिए, इससे लम्बे चौड़े मनसूबे बांधना भी उसे अनावश्यक प्रतीत होता है। मनोयोगपूर्वक सतत् श्रम की साधना चलती ही रहती है, विघ्न अवरोध न आते हों सो बात भी नहीं— उनसे भी जैसे बनता है, निपटता रहता है, पर उपेक्षा कभी भी खेत की नहीं होती उसकी आवश्यकता पूरी किये बिना चैन ही नहीं पड़ता। समयानुसार फसल पकती भी है। अनाज भी पैदा होता है। उसे ईश्वर को धन्यवाद देता हुआ घर ले जाता है कितने मन अनाज पैदा होना है यह कभी सोचा ही नहीं तो फिर असन्तोष का कोई भी कारण नहीं। जो मिला उसे ईश्वरीय उपहार समझा गया। यही किसान की साधना जिसे वह होश सम्हालने के दिन से लेकर मरण पर्यन्त सतत् निष्ठा के साथ चलाता ही रहता है। न विश्राम—न थकान, न ऊब-न अन्यमनस्कता। साधना कैसे की जाती है और साधक को होना कैसा चाहिए- यह किसान से सीखा जा सकता है।
साधना का क्षेत्र अन्तःजगत है। अपने ही भीतर इतने खजाने दबे गढ़े हैं कि उन्हें उखाड़ लेने पर ही कुबेर जितना सुसम्पन्न बना जा सकता है फिर किसी बाहर वाले से मांगने-जांचने की दीनता दिखाकर आत्म सम्मान क्यों गंवाया जाये? भीतरी विशिष्ट क्षमताओं को ही तत्वदर्शियों ने देवी-देवता माना है और बाह्योपचारों के माध्यम से अन्तः संस्थान के भाण्डागार को करतलगत करने का विधि विधान बताया है। शारीरिक बल वृद्धि के लिए डम्बल मुद्गर उठाने घुमाने जैसे कर्मकाण्ड करने पड़ते हैं। बल इन उपकरणों से कहां होता है? वह तो शरीर की मांसपेशियों से ही उभरता है। उस उभार में व्यायामशाला में साधन-प्रसाधन सहायता भर करते हैं। उनसे मिलना कुछ नहीं। जो मिलना है वह भीतर से ही मिलना है। ठीक यही बात आत्म साधना के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। इस सन्दर्भ में प्रयुक्त होने वाले देवी देवता एवं विधि-विधान अपनी जेब से कुछ नहीं देते। साधक की निष्ठा भर पकाते हैं उसे कार्य-पद्धति भर सिखाते हैं। इतने का अभ्यस्त बनना ही साधनात्मक कर्मकाण्डों का प्रयोजन है। इतने भर से बात बन जाती है और राह मिल जाती है। साधक अपनी मूर्च्छना जगाकर उज्ज्वल भविष्य की असीम सम्भावनायें स्वयं जगा लेता है।
आत्म-चेतना की जागृति ही साधना-विज्ञान का लक्ष्य है। इसके लिए अपने चिन्तन एवं कर्तृत्व का बिखराव रोककर अभीष्ट प्रयोजन के केन्द्र बिन्दु पर केन्द्रीभूत करना पड़ता है। इसके लिए अपनी गति-विधियां लगभग उसी स्तर की रखनी पड़ती हैं जैसी कि भौतिक क्षेत्र में सफलतायें पाने वाले लोगों को अपनानी होती हैं।
सधाने के सामान्य स्तर के प्राणी आश्चर्यजनक कार्य करके दिखाते हैं। वव-गायें मनुष्य को पास भी नहीं आने देतीं और खेतों को उजाड़ कर रख देती हैं, पर जब वे पालतू हो जाती हैं तो दूध, बछड़े, गोबर आदि बहुत कुछ देती हैं। स्वयं सुखी रहती है और उसके पालने वाले भी लाभान्वित होते हैं। यही बात अन्य पशुओं के बारे में लागू होती है। जंगली घोड़े, कुत्ते, सुअर, हाथी आदि स्वयं भूखे मरते, कष्ट उठाते और अनिश्चित जीवन जीते हैं। पालतू बन जाने पर वे स्वयं निश्चिंततापूर्वक रहते हैं और अपने पालने वालों को लाभ पहुंचाते हैं। अपने भीतर शरीर तथा मनःक्षेत्र में एक से एक बढ़कर शक्तिशाली धारायें प्रवाहित होती हैं। वे निरुद्देश्य और अनियन्त्रित स्थिति में रहकर वन्य पशुओं जैसी असंगत बनी रहती है। फलतः विकृत होकर वे सड़ी दुर्गन्ध की तरह अपने समूचे प्रभाव क्षेत्र को विषैला बना देती हैं। आग जहां भी रहती है वहीं जलाती है, तेजाब की बोतल जहां भी फैलती है वहीं गलाती है। विकृत प्रवृत्तियां छितराई हुई आग और फूटी तेजाब की बोतल की तरह है; उनसे केवल विनाश ही संभव होता है। यह दोनों ही वस्तुयें यदि सुनियोजित रखी जा सकें तो उनसे उपयोगी लाभ मिलते हैं और वे इतने बढ़े-चढ़े होते हैं कि सामान्य दीखने वाला मनुष्य पग-पग पर अपनी असामान्य स्थिति का परिचय देता है। साधना जीवन के बहिरंग और अन्तरंग क्षेत्रों में सुसंस्कारित सुव्यवस्था उत्पन्न करने का नाम है। इसे समझ पाने और कर पाने का प्रतिफल, जंगली जानवरों को पकड़कर पालतू बनाने की कला में प्रवीण व्यवसाइयों जैसा ही प्राप्त होता है।
सरकस के जानवर कितने आश्चर्यजनक करतब दिखाते हैं। देखने वाले बाग-बाग हो उठते हैं। इस सधे जानवरों को प्रशंसा मिलती है—प्रतिष्ठा होती है और अच्छी खुराक मिलती है। सधाने वाले और सिखाने वालों को अच्छा वेतन मिलता है और सरकस के मालिकों को उन्हीं जानवरों के सहारे धनवान बनने का अवसर मिलता है जो उच्छृंखल होने की स्थिति में स्वयं असन्तुष्ट रहते और दूसरों को रुष्ट करते थे।
घरेलू उपयोग में आने वाले जानवर भी बिना सिखाये, सधाये अपना काम कहां ठीक तरह कर पाते हैं। बछड़ा युवा हो जाने पर भी अपनी मर्जी से हल, गाड़ी आदि में चल नहीं पाता। घोड़े की पीठ पर सवारी करना, उसे दुरकी चाल चलाना सहज ही सम्भव नहीं होता। ऊंटगाड़ी, तांगा, बैलगाड़ी में जुतने वाले पशु अपने आप चलने नहीं लग जाते, उन्हें कठिनाई से प्यार, फटकार के सहारे—धीरे-धीरे बहुत दिन में इस योग्य बनाया जाता है कि अपना काम ठीक तरह अन्जाम देने लगें। साधना इसी का नाम है। इन्द्रियों के समूह को— मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के अन्तःकरण चतुष्टय को वन्य पशुओं के समकक्ष गिना जा सकता है। अपने स्वाभाविक रूप से यह सारा ही चेतना परिवार उच्छृंखल होता है। जन्म-जन्मान्तरों के पाशविक कुसंस्कारों की मोटी परत उस पर जमा होती है। उसे उतारने के लिए जिस खराद का उपयोग किया जाता है उसे साधना कह सकते हैं। पशुता को परिष्कृत करके उसे मनुष्यता के—देवत्व के रूप में विकसित करना, अनगढ़ पत्थर को कलात्मक प्रतिमा के रूप में गढ़ देने के सदृश एक विशिष्ट कौशल है। इस प्रवीणता में पारंगत होने का नाम ही आत्म-साधना है। पशुओं को प्रशिक्षित करने और पत्थर से मूर्तियां बनाने की तरह कार्य कुछ कठिन तो है—पर है ऐसा जिसमें लाभ ही लाभ भरा पड़ा है।
कठपुतली नचाने वाले, हाथ की सफाई से बाजीगरी के कौतुक दिखाने वाले, बन्दर और रीछ का तमाशा करने वाले, जादूगर जैसे लगते हैं और उन्हें चमत्कारी समझा जाता है। यह चमत्कार और कुछ नहीं किसी विशेष दिशा में तन्मयतापूर्वक धैर्य और उत्साह के साथ लगे रहने का प्रतिफल मात्र है। ऐसा चमत्कार कौतूहल प्रदर्शन से लेकर किसी भी साधारण असाधारण कार्य में आशाजनक सफलता प्राप्त करने के रूप में कभी भी, कहीं भी देखा जा सकता है। अपनी ईश्वर प्रदत्त विशेषताओं को उभारने और महत्वपूर्ण प्रयोजन में नियुक्त करने का नाम साधना है। साधना का परिणाम सिद्धि के रूप में सामने आता है। यह नितान्त स्वाभाविक और सुनिश्चित है। यदि अपने आपे को साधा जाये—व्यक्तित्व को खरादा जाये तो वह सब कुछ प्रचुर परिणाम में अपने घर पाया जा सकता है, जिसकी तलाश में जहां-तहां मारे-मारे फिरना और मृग तृष्णा की तरह निराश भटकना पड़ता है।
जीवन साधना का मूल प्रयोजन है— सुसंस्कारों का अभिवर्धन। व्यक्तित्व के साथ संस्कार की अविच्छिन्न रूप से जुड़ होते हैं। लाखों योनियों में भ्रमण करते समय जो चिन्तन और कर्म अभ्यास में आता रहा है वही हमारी आज की मनःस्थिति पर छाया हुआ है। हटाने के सामान्य प्रयत्न उन्हें निरस्त करने में सफल नहीं हो पाते, निकृष्ट योनियों में मात्र पेट और प्रजनन—यही दो लक्ष्य रहते हैं, इसी की पूर्ति में निम्न स्तरीय प्राणियों की जीवन सम्पदा निमग्न रहती है। वे अपने को शरीर ही मानते हैं उसी की परिधि में सोचते और उसी की सुविधा को लिए विभिन्न कर्म करते हैं। यह प्रक्रिया प्राणी स्वभाव का अंग बन जाती है और मनुष्य जन्म पाने पर भी उसी अभ्यस्त ढर्रे में घूमने लगती है।
मनुष्य को विकसित स्थिति मिली है। उसका उपयोग उच्चस्तरीय उद्देश्यों में ही होना चाहिए। किन्तु चेतना पर जमे हुए कुसंस्कार वैसा करने नहीं देते और घूम-फिरकर ढर्रा उसी पशु प्रवृत्ति की पुरानी परिधि में चक्रवत् घूमने लगती है। स्वल्पबुद्धि प्राणी पेट भरने के लिए खाद्य पदार्थ भर तलाश करता है। मनुष्य बुद्धिमान होने के कारण शरीर की आवश्यकता जुटाने के लिए ही कमाता और उसे बढ़ाता है। कामेच्छा प्राणियों को भी होती है और वे जोड़े मिलाने, बच्चे पैदा करने और उस तैयारी में नर—मादा किसी कदर घोंसला बनाने, अण्डा सेने आदि में सहयोगी बनते हैं। मनुष्य जीवन में भी यही चलता है। क्षुधा की आवश्यकता का बढ़ा-चढ़ा रूप लोभ है और प्रजनन का विकसित स्वरूप मोह है। देखा जाता है कि मनुष्यों में भी यही दो प्रवृत्तियां प्रेरणा केन्द्र बनकर रहती हैं और इन्हीं के लिए उनका सारा चिन्तन एवं क्रिया-कलाप संलग्न रहता है।
विकसित मनुष्य की प्रगतिशील स्थिति के अनुरूप वही पशु प्रवृत्तियां वासना एवं तृष्णा बन जाती हैं। शरीर की इन्द्रियां अपने भोग मांगती हैं उनकी बढ़ी-चढ़ी स्थिति वासना कहलाती है। मन, अहंकार की तृप्ति के लिए स्वामित्व की परिधि बढ़ाना चाहता है व्यक्तियों पर शासन और वस्तुओं पर आधिपत्य करने की ललक तृष्णा कहलाती है। लोभ और मोह के, वासना और तृष्णा के अतिरिक्त और कोई लक्ष्य सामान्य मनुष्यों का रहता नहीं। कठिनाई एक और भी है कि वे मांगें क्रमशः अति की सीमा तक जा पहुंचती हैं और नीति—धर्म की मर्यादाओं का उल्लंघन करके अपराधी स्थिति तक अपना ली जाती हैं और उचित अनुचित का भेद किये बिना किसी भी प्रकार इन लिप्साओं की पूर्ति में जुट पड़ने के लिए कदम उठते चले जाते हैं। उपलब्ध चतुरता के सहारे वे अनर्थ मूलक अवांछनीय गतिविधियां गुप्त एवं प्रकट रूप में चलती रहती हैं और बहुमूल्य जीवन सम्पदा उसी कुचक्र में नष्ट हो जाती है। जबकि इस अलभ्य अवसर का उपयोग उस प्रयोजन में होना चाहिए था जो मनुष्य जीवन के वरदान का सार्थक सदुपयोग कर सके।
पशु प्रवृत्तियों के सघन कुसंस्कारों से चेतना को मुक्ति दिलाना कुत्साओं और कुण्ठाओं के नरक से निकल कर स्वर्गीय दृष्टिकोण अपनाना और उस दिव्य मनःस्थिति के आधार पर स्वर्गीय परिस्थितियों का आनन्द लेना। यही है सार्थक मानव जीवन का स्वरूप। इस स्थिति को अति सरलता पूर्वे प्राप्त करने की स्थिति मनुष्य जीवन में है। किन्तु सबसे बड़ी बाधा जन्म जन्मान्तरों से संग्रहित उन कुसंस्कारों की है जो क्षुद्र प्राणियों की स्थिति में भले ही उपयोगी रहे हों विकसित मनुष्य जीवन की दृष्टि से नितान्त पिछड़ेपन के चिन्ह ही माने जा सकते हैं। इन्हें निरस्त करना और मानवोचित चिन्तन एवं कर्तृत्व विकसित करके देव संस्कारों की स्थापना करना यही है परम पुरुषार्थ इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए जो प्रयास किये जाते हैं उन्हें जीवन साधना कहते हैं।
संस्कार, चेतना पर जमी हुई उस पर्त का नाम है जो विचार और कार्यों के समन्वय में धीरे-धीरे जमती है किन्तु पीछे वह स्वभाव का अंग बनकर अन्तःचेतना में अपनी जड़े बहुत गहराई तक जमा लेती हैं। इन्हें उखाड़ कर नई पौध लगानी हो तो उसके लिए मरुस्थल को सुरम्य उद्यान बनाने वाले कुशल कृषक एवं माली जैसी पूरी तत्परता और कुशलता का परिचय देना पड़ता है। व्यक्तित्व के स्तर में ऐसे ही प्रयासों को जीवन साधना की संज्ञा दी जा सकती है। इसके लिए विचारों का और कार्यों का स्तर ऊंचा उठाने के लिए अनवरत प्रयत्न दीर्घ काल तक जारी रखना पड़ता है ताकि सद्भावनाएं और सत्प्रवृत्तियां स्वभाव का उसी प्रकार अंग बन जायें जिस प्रकार अविकसित जीवन की पशु प्रवृत्तियां पूरी गहराई तक जमी होती हैं और अपनी प्रेरणाओं से फिनर पेण्डुलम की तरह सारी मशीन को बल पूर्वक घुमाती रहती हैं।
साधकों को यह समझ लेना चाहिए कि उन्हें मानवी स्तर का दिव्य जीवन जीने के लिए क्या करना होगा। साधारणतया इसके लिए दो कदम उठाते हुए आगे बढ़ते चलना होता है। एक को उपासना कहते हैं दूसरे को साधना। उपासना में ईश्वर स्मरण, पूजा पाठ, जप, ध्यान, स्वाध्याय, सत्संग, तीर्थ, दर्शन आदि मुख्य हैं। इनका आधार अपने उद्गम केन्द्र एवं अन्तिम लक्ष्य ईश्वर के सम्बन्ध में छाई रहने वाली उपेक्षा वृत्ति को दूर करता है। जीवन का उद्देश्य लक्ष्य प्रायः विस्मृति के गति में पड़ा रहता है। मस्तिष्कीय जानकारी और तोता रटन्त की दृष्टि से तो कई व्यक्ति अध्यात्म विषयों के विवेचन कर्ता और प्रवक्ता होते हैं पर उनकी निजी आस्थाएं गई गुजरी ही देखी जाती हैं। ऐसी स्थिति में वे विकसित व्यक्तित्व का लाभ नहीं उठा पाते और गधे की पीठ पर सोना लदा रहने पर भी उसकी गरीबी दूर न होने का उदाहरण बनते रहते हैं। उपासना एक आत्मिक व्यायाम है जिसके सहारे अन्तःचेतना का गहराई तक प्रशिक्षण करना और आध्यात्म तत्वों को हृदयंगम करना होता है।
आत्मोत्कर्ष का दूसरा चरण है साधना। इसमें अपने चिन्तन को उत्कृष्ट और कर्तृत्व को आदर्श बनाने के लिए हर घड़ी प्रयत्नशील रहने की सुनिश्चित योजना बनाकर चलना पड़ता है। उपासना कुछ मिनट या कुछ घण्टे की होने से काम चल सकता है, किन्तु साधना तो अनवरत चलनी चाहिए। उसमें ढील या छूट की तनिक भी गुंजाइश नहीं है।
उपासना के लिए अमुक विधि विधान निश्चित हैं पर साधना में तो जो भी कार्य परिस्थितिवश करने पड़ें उन्हीं को सुसंस्कृत बनाने के लिए परिष्कृत दृष्टिकोण एवं विवेक सम्मत कार्य पद्धति का निर्धारण करना होता है। इसके लिए उपासना जैसी अमुक स्तर की, अमुक विधि विधान की क्रिया-प्रक्रिया निर्धारित नहीं की जा सकती। शरीर निर्वाह, परिवार पोषण एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए अर्थ उपार्जन, व्यवस्था, योजना तथा अन्य कई प्रकार के काम हर व्यक्ति को अनिवार्यतः करने पड़ते हैं। उनसे छुटकारा नहीं मिल सकता। छोड़ देने पर तो शरीर यात्रा तक न चल सकेगी फिर अन्य अनिवार्य उत्तरदायित्वों का निर्वाह तो हो ही कैसे सकेगा। अस्तु जीवन यापन के विभिन्न पक्ष पूरे करने के लिए किये जाने वाले कार्यों को ही सुसंतुलित बनाना पड़ता है। अव्यवस्था तो अतिवाद से फैलती है। सन्तुलन को ही कर्म कौशल अथवा योग कहा गया है। जीवन साधना को भौतिक और आत्मिक उभय पक्षीय सुव्यवस्था की सन्तुलित नीति भी कहा जा सकता है।
इसके लिए आवश्यक है कि अपने समय, श्रम, मनोयोग, प्रभाव, साधना, सम्पदा जैसी ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का सदुपयोग करने की व्यवस्था बनाई जाय और उन्हें किस कार्य में, कितनी मात्रा में, किस प्रकार नियोजित किया जाता है इसकी दूरदर्शिता पूर्ण क्रम व्यवस्था बनाई जाय। यह ठीक तरह बन पड़े तो समझना चाहिए कि जीवन साधना का वह मार्ग मिल गया जिस पर चलते हुए सुनिश्चित रूप से लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।
जीवन साधना के साधक को अपना जीवन एकांगी नहीं बनने देना चाहिए। शरीर और उसके साथ जुड़े हुए पारिवारिक, सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए धन उपार्जन आवश्यक है। पर वह सन्तुलित सीमा में होना चाहिए। इसी प्रकार परिवार के लोगों को सुविकसित बनाने का कर्त्तव्य पूरा करना चाहिए पर यह सब सन्तुलित मात्रा में होना चाहिए ताकि लोभ और मोह की अति अपने ऊपर उन्माद की तरह सवार न हो जाय। इसी उन्माद को माया कहते हैं। इसी स्थिति में पड़े हुए जीव के लिए आदर्शवादी चिन्तन सम्भव नहीं रहता वे आत्म समीक्षा भी नहीं कर पाते और आत्मोत्कर्ष के लिए जिस चरित्र निष्ठा और परमार्थ परायणता की आवश्यकता होती है उसके लिए भी कुछ सोच या कर नहीं पाते। जीवन ऐसी ही उथली बाल क्रीड़ाओं में उलझते-उलझते समाप्त हो जाता है। ‘जब चिन्तन और कर्म की समस्त धारायें’ लिप्साओं की पूर्ति में ही जुट पड़ी तो उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ बच ही न पड़ेगा और फिर उस क्षेत्र की उपलब्धियों की सम्भावना ही कहां रहेगी?
जीवन साधना में सन्तुलित नीति निर्धारण और श्रम विभाजन यही दो पक्ष मुख्य हैं। चिन्तन को नीति प्रभावित करती है और कर्म का सीधा सम्बन्ध श्रम से ही है। अस्तु इन्हीं दो को प्रधान इकाई मानते और उन्हें सुनियोजित करने से आत्मोत्कर्ष का प्रयोजन पूरा होता है।
किन कार्यों के सम्बन्ध में कितनी मात्रा में किस प्रकार सोचा और किया जाय यह अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य है। इसमें भौतिक आकांक्षाओं को सीमित करना पड़ता है ताकि बची हुई शक्तियों को उच्च उद्देश्यों के लिए लगाया जा सके। उच्च उद्देश्यों के लिए किये जाने वाले सामान्य से क्रिया-कलाप, कर्मकाण्ड भी साधना की परिभाषा में आ जाते हैं। जीवन की गतिविधियों में तो उनकी अपेक्षा कई गुना अधिक समय, श्रम और मनोयोग लगता है। यदि उन्हें उच्च उद्देश्यों का लक्ष्य करके किया जा सके तो सारा जीवन की साधना मय हो सकता है। वस्तुतः जीवन के हर क्रिया कलाप के साथ साधनात्मक उद्देश्य और तत्परता जोड़कर ही जीवन साधना का लाभ सही अर्थों में पाया जा सकता है।
जीवन साधना के साधक को कोई भिन्न प्रकार के क्रियाकलाप नहीं करने पड़ते किन्तु बाहर से वे सब सामान्य लोगों जैसे दिखते हैं, किन्तु उनके कार्य जिस आधार भूमि पर खड़े होते हैं तथा उनका लक्ष्य जो उपलब्धियां होती हैं उनमें सामान्य जीवन जीने वालों की अपेक्षा जमीन आसमान जैसा अन्तर होता है। जीवन साधना के मर्म को स्पष्ट करने के लिए कुछ सूत्र इस प्रकार समझे जा सकते हैं।
1) शारीरिक:— सामान्य मनुष्य शरीर को अपने मौज मजे का साधन मानकर चलते हैं और इन्द्रिय सुखों के पीछे भटकते रहते हैं। साधक शरीर और उसकी क्षमताओं को ईश्वर की पवित्र अमानत मानते समय का एक-एक क्षण, पसीने की एक-एक बूंद और जीवनी शक्ति का एक-एक कण श्रेष्ठतम कार्यों के लिए लगाने की तत्परता बरतते हैं।
साधक को भोगों के आकर्षण और इन्द्रियों के भोग डिगा नहीं सकते क्योंकि वह उन्हें प्रधान नहीं मानता उनसे प्रेरित होकर वह कार्यों का निर्धारण करने का आदी नहीं होता। वह इन्द्रियों आदि को अपना अधीनस्थ कर्मचारी सहयोगी भर मानता है इसलिए उनका उपयोग करते हुए भी उन्हें बहकाने से रोकने में समर्थ होता है जो इन्द्रियां सामान्य व्यक्ति के लिए भयंकर समस्यायें खड़ी करती रहती हैं उन्हें साधक अपने संकल्प से वफादार, सहयोगी बनाकर जीवन का सच्चा आनन्द अर्जित करने में समर्थ होता है।
2) मानसिक:— बीज रूप में मनुष्य की गतिविधियों की धुरी उसके चिन्तन पर आधारित रहती है। जीवन साधक को मस्तिष्क में केवल उपयोगी रचनात्मक एवं नैतिक सद्विचारों को स्थान देना होता है। हर विचार हर चिन्तन को मस्तिष्क में प्रवेश देने उसकी हलचल पैदा होने देने के पूर्व ही उसकी औचित्य की कसौटी पर कस लेना आवश्यक होता है। अनैतिक कुविचारों और मनोविकारों को मस्तिष्क में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए।
यहां स्मरणीय यह है कि मस्तिष्क खाली नहीं रहता। यदि उसे सतत् विधेयात्मक चिन्तन के प्रयास पूर्वक न लगाये रखा जाय तो वह शैतान की दुकान बनने लगता है। यदि बाह्य वातावरण के प्रभाव से अशुभ विचार मस्तिष्क में प्रवेश करें तो साधक सद्विचारों से उनकी काट करता है। प्रखर सद्विचारों की सेना साधक के मस्तिष्क में बराबर सतर्क रहनी चाहिए।
3) पारिवारिक:— परिवार को लोग, मानो जंजाल गिनते हैं। जब उसे अपनी अनियंत्रित अवांछनीय आकांक्षाओं की पूर्ति का, स्वार्थों की सिद्धि का साधन मानकर चला जाता है तब तो सचमुच परिवार माया बन्धन के ही रूप में विकसित होता जाता है। किन्तु जीवन साधना का साधक उसे आत्मीयता विकास की सीढ़ी, आत्मिक क्षमताओं को पुष्ट बनाने की व्यायामशाला के रूप में मानकर चलता है। उस स्थिति में गृहस्थ तपोवन बन जाता है तथा उसमें रहने वाला व्यक्ति उसके माध्यम से उच्चस्तरीय साधना करता है।
अपने शरीर की ही तरह परिवार के अन्य सदस्यों की आवश्यकताओं को अनुभव करना, आत्मीयता का क्षेत्र विकसित करना, संवेदना और सहानुभूति जैसे उच्च गुणों का विकास परिवार के सहारे ही जीवन साधक करने में समर्थ होता है।
सन्तान के प्रति साधक का दृष्टिकोण साफ रहना चाहिए। समाज को योग्य नागरिक प्रदान करना ही उसका वास्तविक उद्देश्य है, साधक निरुद्देश्य सन्तानोत्पादक के चक्कर में न पड़कर अपनी शक्ति और सामर्थ्य सीधे श्रेष्ठ व्यक्तित्वों के निर्माण में लगा सकता है, स्नेह वात्सल्य की अनुभूति अन्य बच्चों के माध्यम से ही की जा सकती है। व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर साधक सन्तानोत्पादन के भार से स्वयं को और समाज को मुक्त रखते हुए कहीं अधिक सार्थक जीवन जी सकता है तथा अधिक पुण्य का भागीदार हो सकता है।
4) आर्थिक:— धन को माया भी कहते हैं और लक्ष्मी भी। जब सम्पत्ति का उपयोग भोगों के लिए मनमाने ढंग से किया जाता है तो वह माया बन जाती है और जब उसे आदर्शों, ईश्वरीय कार्यों के लिए नियोजित किया जाता है तो वह लक्ष्मी रूप में सामने आती है। साधक धन-सम्पत्ति को उपयोगी और आवश्यक तो माने किन्तु उसकी सीमा और सार्थकता पर भी दृष्टि रखे। न उसकी उपेक्षा करके अव्यवहारिक बने और न उसी में डूबकर मूर्ख कहलाये।
अर्थोपार्जन के लिए आठ घंटे पर्याप्त समझे जावें। तत्परता और मनोयोग के साथ इतने समय में प्रचुर साधन सम्पत्ति अर्जित की जा सकती है। एक व्यक्ति ही उपार्जन करे अन्य खायें यह भी भूल है। परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने ढंग से आर्थिक संतुलन का प्रयास करें तो जीवन की जटिलता सरसता में बदलते देरी न लगे। उपार्जन और उसके अनुरूप सदुपयोग की सम्यक् व्यवस्था इसी ढंग से बन सकती है।
साधक स्तर का व्यक्ति सादगी का जीवन ही जीता है। अधिक उपार्जन के कारण अधिक निरर्थक खर्चे करना विकृत दृष्टिकोण है। जहां सामान्य व्यक्ति अपव्यय की होड़ में बड़प्पन दिखाना चाहता है वहां साधक संतुलन में अपना गौरव मानता है और एक-एक पाई उपयोगी कार्यों में नियोजित करता है।
5) सामाजिक:— सामान्य व्यक्ति के सामाजिक क्रिया-कलाप अपने स्वार्थों की धुरी पर घूमते हैं जबकि साधक उन्हें परमार्थ वृत्ति से करता है। समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन और वितरण के लिए कृषि उद्योग और व्यापार, समाजतन्त्र एक विशाल यन्त्र के एक पुर्जे के रूप में नौकरी, रोग पीड़ा से जन समाज की मुक्ति के लिए चिकित्सा, न्यायिक अधिकारों की रक्षा के लिए वकालत तथा जीवन सार्थकता को दिशा देने के लिए पौरोहित्य आदि कार्य करते हुए हर व्यक्ति साधना परक जीवन जी सकता है।
साधक स्तर के व्यक्तियों में से हर एक अपनी-अपनी स्थिति के अनुरूप लोक मंगल के कार्य चुन सकता है और उन्हें जीवन में समुचित स्थान दे सकता है। ऐसी योजना बनाते समय समाज के भावनात्मक परिष्कार की बात को प्राथमिकता देना उचित है। युग निर्माण मिशन के अन्तर्गत घरेलू ज्ञान मन्दिर, झोला पुस्तकालय, ज्ञानघट, एक घण्टा नित्य समय दान आदि उच्च प्रयोजनों के लिए लगाने का आग्रह उसके दूरगामी महत्वपूर्ण परिणामों को लक्ष्य करके ही किया जाता है उन्हें उच्च स्तरीय सेवा परमार्थ के रूप में स्वीकारा और अपनाया जा सकता है।
भौतिक समृद्धि और आत्मिक परिष्कृति की तुलना की जाय तो उनके बीच हजारों गुना अन्तर पाया जायेगा। सम्पत्ति से सुविधा भर बढ़ती है पर संस्कारों की उत्कृष्टता तो मनुष्य को अपना और असंख्यों का उद्धार कर सकने वाले देवत्व का अनुदान ही सामने लाकर खड़ा कर देती है। अस्तु हमारी परमार्थ परायणता, लोक मंगल की समाज सेवा सुविधा का स्तर भौतिक सुविधाएं बढ़ाने की अपेक्षा आत्मिक उत्कृष्टता बढ़ा सकने वाली योजनाओं में ही अधिक संलग्न रहना चाहिए। यों उपेक्षा तो भौतिक साधनों के सम्वर्धन की भी नहीं करनी है, अपने स्थान पर उपयोगिता तो उनकी भी है।
उपरोक्त दस सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर चला जाय तो ईश्वर प्रदत्त जीवन सम्पदा के समय, श्रम, मनोयोग, प्रभाव एवं साधनों का उपयोग उस प्रक्रिया में हो सकता है जिसमें जीवन साधना का प्रयोजन पूरा हो सके।
मोटर ड्राइवर के सामने कई मीटर लगे होते हैं जिनके माध्यम से वह हर समय यह देखता रहता है कि गाड़ी की चाल कितनी है। तेल कितना है। बैटरी की स्थिति क्या है। गर्मी कितनी है। मीटर खराब हो जाने पर यह जानकारी न मिले तो ड्राइवर के लिए गाड़ी चलाना कठिन हो जायेगा। हमें अपनी गति विधियों पर सूक्ष्म समीक्षा का मीटर बिठाना चाहिए और उसे निरन्तर चालू रहने देना चाहिए। देखना चाहिए कि निर्धारित दिनचर्या का अकारण उल्लंघन तो नहीं हो रहा है? आलस्य के कारण शारीरिक श्रम में मन्द गति या अस्त-व्यस्तता तो उत्पन्न नहीं हो रही है? मन में प्रमाद तो नहीं घुस रहा है और अनुत्साह, उपेक्षा, अन्यमनस्कता, चंचलता की मानसिक रुग्णता तो नहीं पनप रही है। जहां भी गड़बड़ी दिखाई पड़े इन दोनों वाहनों को चाबुक मारकर तुरन्त सही करना चाहिए। शरीर और मन को जब प्रतीत हो जाता है कि संचालक चेतना सतर्क है और हमारे अन्धेर पर हंटर पड़ता है तो वे कुछ ही समय में सीधे हो जाते हैं और अनुशासित व्यवस्था के अनुरूप अपनी हरकतें स्वयं सुधार लेते हैं।
एक मीटर अपनी गतिविधियों पर यह रखना चाहिए कि उनमें अनैतिकता के तत्व घुसपैठ तो नहीं कर रहे हैं। काम भले ही भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किये गये हों पर वे सभी नैतिक होने चाहिए। उनके पीछे निर्वाह, उत्पादन एवं सर्वोपयोगिता की दृष्टि रहनी चाहिए। ऐसा कुछ न किया जाय जिससे प्रत्यक्ष या परोक्ष में सामाजिक सुव्यवस्था पर आंच आती हो और लोगों को गलत मार्ग अपनाने का मार्ग एवं प्रोत्साहन मिलता हो।
साधारण काम की संकुचित स्वार्थपरता से ऊंचे उठकर समाज की आवश्यकताएं पूरी करने और व्यक्तिगत कर्त्तव्य पालन की दृष्टि रखकर किये जायें तो वे चित्त में हलकापन और सन्तोष बनाये रख सकने में समर्थ रहेंगे। उनमें अनैतिकता का समावेश न हो सकेगा। किसान यदि समाज की अन्न की आवश्यकता पूरी करने में अपने आप को स्वयं सेवक भर माने तो वह कार्य उसके स्वयं के लिए संतोषप्रद तो होगा ही साथ ही उत्कृष्टता की दृष्टि भी बनी रहेगी, वह उत्तम कोटि का अधिक अन्न उपजाना अपने लिए गर्व की बात अनुभव करेगा। इसके विपरीत यदि उसकी दृष्टि स्वार्थपरता से सनी हुई है तो फिर तमाखू जैसी हानिकारक फसलें भी अर्थ लोलुपता के कारण उत्पन्न करने में संकोच अनुभव न करेगा। उच्च दृष्टिकोण रखकर काम करने वाले श्रमिक, व्यवसायी, अध्यापक, शिल्पी, कलाकार आदि सभी वर्ग के लोग अपने कार्यों का स्तर एवं विस्तार बढ़ाने में लोक हित पूरा होते देखेंगे और अधिक उत्साह एवं अधिक मनोयोग से अधिक काम करेंगे। स्पष्ट है कि उससे उनकी निज की सम्पत्ति और प्रतिष्ठा बढ़ेगी साथ ही समाज को भी समृद्धि एवं प्रगति का लाभ मिलेगा।
एक दिन का जीवन उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग यह दृष्टिकोण लेकर क्रमबद्ध सर्वतोमुखी कार्य पद्धति बनाई जाय और उसमें अपने श्रम, मन और साधनों की त्रिविध सम्पदाओं को नियोजित रखा जाय तो प्रतीत होगा कि वस्तुतः कर्मयोगी जैसी साधना चल रही हैं और व्यक्तिगत का स्तर हर दृष्टि से समुचित बनता चला जा रहा है, यह निर्धारण, निरीक्षण एवं प्रताड़ना का क्रम यदि प्रतिज्ञापूर्वक एक वर्ष तक चला लिया जाय तो सरकस के जानवरों की तरह अपनी सभी प्रवृत्तियां सध जाती हैं और सिद्ध पुरुषों जैसा देवत्व अपने भीतर से ही उदय हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है। पीछे तो स्वभाव ही बदल जाता है और जिस प्रकार निकृष्टता स्वभाव का अंग बनी हुई थी उसी प्रकार उत्कृष्टता भी साधारण अभ्यास का अंग बन जाती है और फिर बिना किसी प्रयत्न के स्वभावतः देव जीवन जिया जाने लगता है।
जीवन साधना के साधक को अपना जीवन साधनात्मक संपुट में बांध लेना चाहिए। सन्ध्या वन्दन के लिए सूर्योदय का प्रभात काल और सूर्यास्त का सायंकाल निर्धारित है। यह दोनों ही समय रात्रि और दिन के मिलन की सन्धि बेला है। इसलिए उस समय किये जाने वाले उपासना कृत्य को सन्ध्या कहते हैं। यह साधारण सन्ध्या वन्दन का समय हुआ। व्यक्तिगत जीवन में सुषुप्ति को रात्रि और जागृति का दिन कहा जा सकता है। इन दोनों के मिलन काल को वैयक्तिक सन्ध्या समय कह सकते हैं। जिस प्रकार निजी सन्ध्या बेला में चिन्तन और मनन की प्रक्रिया सम्पन्न करनी चाहिए। उसे उपासना का आवश्यक अंग बनाना चाहिये। इससे जीवन साधना सम्पन्न करने में भारी सहायता मिलती है।
मस्तिष्क और शरीर की हलचलें अन्तःकरण में जड़ जमाकर बैठने वाली आस्थाओं की प्रेरणा पर अवलम्बित रहती है। आध्यात्मिक साधनाओं का उद्देश्य इस संस्थान को प्रभावित एवं परिष्कृत करना ही होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति में वह साधना बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती है, जिसमें उठते ही नये जन्म की और सोते ही नई मृत्यु की मान्यता को जीवन्त बनाया जाता है।
प्रातः बिस्तर पर जब आंख खुलती है तो कुछ समय आलस को दूर करके शैया से नीच उतरने में लग जाता है। प्रस्तुत उपासना के लिए यही सर्वोत्तम समय है। मुख से कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं पर यह मान्यता-चित्र मस्तिष्क में अधिकाधिक स्पष्टता के साथ जमाना चाहिए कि ‘‘आप का एक दिन एक पूरे जीवन की तरह है, इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जाना चाहिए। समय का एक भी क्षण न तो व्यर्थ गंवाया जाना चाहिए और न अनर्थ कार्यों में लगाना चाहिए।’’ सोचा जाना चाहिए कि ‘‘ईश्वर ने अन्य किसी जीवधारी को वे सुविधाएं नहीं दीं जो मनुष्य को प्राप्त हैं। यह पक्षपात या उपहार नहीं, वरन् विशुद्ध अमानत है। जिसे उत्कृष्ट आदर्शवादी रीति-नीति अपनाकर पूर्णता प्राप्त करने—स्वर्ग और मुक्ति का आनन्द इसी जन्म में लेने के लिए दिया गया है। यह प्रयोजन तभी पूरा होता है जब ईश्वर की इस सृष्टि को सुन्दर, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए उपलब्ध जीवन सम्पदा का उपयोग किया जाय। उपयोग के लिए सुर-दुर्लभ अवसर मिला है। यह योजनाबद्ध सदुपयोग करने में ही ईश्वर की प्रसन्नता और जीवन की सार्थकता है।’’
मन्त्र जाप की तरह इन शब्दों को दुहराने की जरूरत नहीं है वरन् अत्यन्त गम्भीरता पूर्वक इस तथ्य को हृदयंगम किया जाना चाहिए। कल्पना चित्र सिनेमा फिल्म की तरह स्पष्ट उभरने चाहिए और उनके साथ इतनी गहरी, आस्था का पुट देना चाहिए कि यह चिन्तन-वस्तु स्थिति बनकर मस्तिष्क को पूरी तरह आच्छादित कर ले।
शौच जाने की आवश्यकता अनुभव हो तो विलम्ब नहीं करना चाहिए और शय्या त्याग कर नित्य कर्म में लग जाना चाहिए। थोड़ी गुंजायश हो तो उठने से लेकर सोने के समय तक की दिनचर्या इसी समय बना लेना चाहिये यों नित्य कर्म करते हुए भी दिन भर का समय विभाजन कर लेना कुछ कठिन नहीं है। फुर्ती और चुस्ती से काम निपटाये जांय तो कम समय में अधिक काम हो सकता है। सुस्ती और उदासी में ही समय का तो भारी अपव्यय होता है, योजनाबद्ध दिनचर्या बनाई जाय और उसका मुस्तैदी से पालन किया जाय तो ढेरों समय बच सकता है। एक काम के साथ दो काम हो सकते हैं। जैसे आजीविका उपार्जन के बीच खाली समय में स्वाध्याय तथा मित्रों से परामर्श हो सकता है। निद्रा, नित्य कर्म, आजीविका उपार्जन, स्वाध्याय, उपासना, परिवार व्यवस्था, लोक-मंगल आदि कार्यों में, कौन, कब, किस प्रकार कितना समय देगा यह हर व्यक्ति की अपनी परिस्थिति पर निर्भर है, पर समन्वय इन सब बातों का रहना चाहिए। दृष्टिकोण यह रहना चाहिए कि आलस्य, प्रमाद में एक क्षण भी नष्ट न हो और सारी गतिविधियां इस प्रकार चलती रहें जिनमें आत्म-कल्याण परिवार निर्माण एवं लोक-मंगल के तीनों तथ्यों का समुचित समावेश बना रहे। इन सारे क्रिया-कलापों में आदर्शवादी दृष्टिकोण अपनाया जाय। दुष्प्रवृत्तियों को, दुर्भावनाओं को स्थान न मिलने दिया जाय। जहां भी जब भी गड़बड़ दिखाई पड़े तब वहीं उसकी रोकथाम की जाय और गिरते कदमों को संभाल लिया जाय। समय, श्रम, चिन्तन एवं धन का तनिक सा अंश भी अवांछनीय प्रयोजन में नष्ट न होने दिया जाय। इन चारों की सम्पदाओं का एक-एक कण सदुपयोग में लगता रहे, इस तथ्य पर तीखी दृष्टि रखी जाय, भूलों को तत्काल सुधारते रहा जाय तो उस दिन के—उस जीवन को सन्तोष जनक रीति से जिया जा सकता है।
जल्दी सोने से और जल्दी उठने का नियम जीवन साधना में रुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बनाना ही चाहिए। ब्रह्म-मुहूर्त का समय अमृतोपम है, उस समय किया गया हर कार्य बहुत ही सफलतापूर्वक सम्पन्न होता है। अस्तु जो भी अधिक महत्वपूर्ण कार्य प्रतीत होता हो उसे उसी समय करना चाहिए। सवेरे जल्दी उठना उन्हीं के लिए सम्भव है जो रात्रि को जल्दी सोते हैं। इस मार्ग में जो भी अड़चने हों उन्हें बुद्धिमत्तापूर्वक हल करना चाहिए, किन्तु जल्दी सोने और जल्दी उठने की परम्परा तो अपने लिए ही नहीं पूरे परिवार के लिए बना ही लेनी चाहिए।
रात्रि को सोते समय वैराग्य एवं संन्यास जैसी स्थिति बनानी चाहिए। बिस्तर पर जाते ही यह सोचना चाहिए कि निद्रा काल एक प्रकार का मृत्यु विश्राम है। आज का नाटक समाप्त-कल दूसरा खेल खेलना है। परिवार ईश्वर का उद्यान है उसमें अपने को कर्तव्य-निष्ठ माली की भूमिका निभानी थीं। शरीर, मन ईश्वरीय प्रयोजनों को पूरा करने के लिए मिले जीवन रथ के दो पहिये हैं, इन्हें सही राह पर चलाना था। धन, प्रभाव, पद यह विशुद्ध धरोहर है उन्हें सत्प्रयोजनों में ही लगाना था। देखना चाहिए कि वैसा ही हुआ या नहीं? जहां गड़बड़ी हुई दिखाई दे वहां पश्चाताप करना चाहिए। और अगले दिन वैसी भूल न होने देने में कड़ी सतर्कता बरतने की अपने आपको चेतावनी देना चाहिए।
संन्यासी अपना सब कुछ ईश्वर अर्पण करके परमार्थ प्रयोजन में लगाता है। सोते समय साधक की वैसी ही मनःस्थिति होनी चाहिए। मिली हुई अमानतें और सौंपी हुई जिम्मेदारियां आज ईमानदारी के साथ संभाली गईं। यदि कल वे फिर मिलीं तो फिर उन्हें ईश्वरीय आदेश मानकर संभाला जायेगा। अपना स्वामित्व किसी भी व्यक्ति या पदार्थ पर नहीं यहां जो कुछ है सो सब ईश्वर का है। अपना तो केवल कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व भर है। उसे पूरी ईमानदारी और पूरी तत्परता से निभाते भर रहना अपने लिये पर्याप्त है। परिणाम क्या होते है, क्या नहीं, यह परिस्थितियों पर निर्भर है, अस्तु सफलता असफलता की चिन्ता न करते हुये हमें आदर्शवादी कर्तव्य परायणता अपनाये रहने मात्र में पूरा-पूरा सन्तोष अनुभव करना चाहिए।
सोते समय ईश्वर की अमानत ईश्वर को सौंपने और स्वयं खाली हाथ प्रसन्न चित्त विदा होने की—निद्रा देवी की गोद में जाने की बात सोचनी चाहिए। हलके मन में शान्तिपूर्वक गहरी नींद में सो जाना चाहिए। चिन्ता, आशंका, खीज, क्रोध जैसी किसी भी उद्विग्नता को मन पर लाद कर नहीं सोना चाहिये। यह प्रयास शान्त निद्रा लगने की दृष्टि से भी उपयोगी है। साथ ही आत्म परिष्कार की दृष्टि से भी अति महत्वपूर्ण है।
मृत्यु को भूलने से ही जीवन सम्पदा को निरर्थक कामों में गंवाते रहने की चूक होती है, दुष्कर्म बन पड़ते हैं और वासना, तृष्णा, अहंता की क्षुद्रताओं में समय गुजरता है। यदि यह ध्यान बना रहे कि मृत्यु का निमन्त्रण कभी भी सामने आ सकता है तो यह ध्यान बना रहेगा कि इस महान अक्सर का सही उपयोग किया जाय और पूरा लाभ उठाया जाय। निद्रा की तुलना मृत्यु के करते रहने पर मौत का भय मन से निकल जाता है और अलभ्य अवसर के सदुपयोग की बात चित्त पर छाई रहती है।
सिकन्दर मौत को भूला रहा उसे मरते समय अपनी कमाई सम्पदा साथ न ले चल सकने की विवशता पर भारी दुःख हुआ और सिर धुन कर पछताया कि यदि वस्तु स्थिति को अन्तःचेतना समझ सकी होती तो मैं वैभव कमाने के स्थान पर महामानवों की तरह आदर्श जीवन जीने की नीति अपनाता और अपने साथ-साथ असंख्यों का उद्धार करता। उसने अपनी शव यात्रा में मृत शरीर के दोनों हाथ ताबूत से बाहर निकले रहने का आदेश दिया ताकि दर्शक देख सकें कि सिकन्दर कितना बुद्धिमान होते हुए भी कितना मूर्ख था। वह खाली हाथ आया और खाली हाथ चला गया।
राजा परीक्षित को शाप लगा था कि सातवें दिन सर्प के काटने से उसकी मृत्यु होगी। बची हुई थोड़ी सी अवधि का उसने श्रेष्ठतम उपयोग करने का निर्णय किया और शुकदेव जी की सहायता से किसी महत्वपूर्ण धर्मानुष्ठान में संलग्न होकर आत्म कल्याण सम्पन्न कर लिया।
मृत्यु के स्मरण को न तो डरावना माना जाना चाहिए और न अशुभ उससे सिकन्दर की तरह शिक्षा लेनी चाहिए कि व्यर्थ और अनर्थ के कामों में इस सम्पदा का अपव्यय न हो जाय। इस सतर्कता के साथ-साथ परीक्षित की तरह यह दूर दर्शिता भी प्रदर्शित करनी चाहिए कि बचे हुए समय का जीवन साधना के रूप में श्रेष्ठतम सदुपयोग कर लेने का साहस जुटाने के लिए कटिबद्ध हुआ जाय।
हर दिन नया जन्म हर रात नई मौत की मान्यता यदि गहराई तक हृदयंगम कर ली जाय तो निरर्थक एवं अनर्थ मूलक चिन्तन एवं कर्म निरन्तर घटते चले जायेंगे और सद्भावनाओं का, सत्प्रवृत्तियों का उत्कर्ष द्रुतगति से होता चला जायेगा। यही है वह मार्ग जिस पर चलने को जीवन साधना कहते हैं और जिसे दृढ़ता पूर्वक गतिशील रहने से जीवन लक्ष्य की पूर्ति होती है।
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*समाप्त*