• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • सह-अस्तित्व का नैसर्गिक नियम
    • मनुष्य पूरी तरह मशीन न बने
    • ‘सांस मत लो इस हवा में जहर है’
    • खबरदार इस पानी को पीना मत—खतरा है
    • चिल्लाइये मत कान फट रहे हैं
    • रोगों की जड़े काटी जायें पत्ते नहीं
    • कीटनाशक अन्ततः अपने लिये घातक
    • धरती को मार डालने का कुचक्र
    • अनियन्त्रित प्रगति अर्थात् महामरण की तैयारी
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • सह-अस्तित्व का नैसर्गिक नियम
    • मनुष्य पूरी तरह मशीन न बने
    • ‘सांस मत लो इस हवा में जहर है’
    • खबरदार इस पानी को पीना मत—खतरा है
    • चिल्लाइये मत कान फट रहे हैं
    • रोगों की जड़े काटी जायें पत्ते नहीं
    • कीटनाशक अन्ततः अपने लिये घातक
    • धरती को मार डालने का कुचक्र
    • अनियन्त्रित प्रगति अर्थात् महामरण की तैयारी
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - विज्ञान को शैतान बनने से रोकें

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


सह-अस्तित्व का नैसर्गिक नियम

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


2 Last
जर्मन प्राणिशास्त्र वेत्ता हेकल लगभग एक शताब्दी पूर्व इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि सृष्टि क्रम विविध इकाइयों के सहयोग सन्तुलन पर चल रहा है। जिस प्रकार शरीर के कलपुर्जे कोशिकाएं और ऊतक—मिल-जुलकर जीवन की गतिविधियों का संचालन करते हैं उसी प्रकार संसार के विविध घटक एक दूसरे के पूरक बनकर सृष्टि सन्तुलन को यथाक्रम बनाये हुए हैं। यह अन्यान्योश्रय व्यवस्था सृष्टिकर्त्ता ने बहुत ही समझ-सोचकर बनाई है और आशा रखी है कि सामान्य उपयोग के समय मामूली हेर-फेरों के अतिरिक्त किसी के द्वारा इसमें भारी उलट-पुलट नहीं की जायेगी। सृष्टा की यह इच्छा और व्यवस्था जब तक बनी रहेगी तब तक इस धरती का अद्भुत सौन्दर्य और मनोरम क्रिया-कलाप भी जारी रहेगा।

उपरोक्त प्रतिपादन को हेकल ने ‘इकालोजी’ नाम दिया है। तब से लेकर अब तक इस ओर विज्ञानवेत्ताओं की रुचि घटी नहीं, वरन् बढ़ी ही है और शोध क्षेत्र के इन नये पक्ष को एक स्वतन्त्र शास्त्र ही मान लिया गया है। अब सृष्टि सन्तुलन विज्ञान को इकालोजी शब्द के अन्तर्गत लिया जाता है।

इकालोजी शोध प्रयासों द्वारा निष्कर्ष पर अधिकाधिक मजबूती के साथ पहुंचा जा रहा है कि प्रकृति की हर वस्तु एक दूसरी के साथ घनिष्ठता पूर्वक जुड़ी हुई है। ऑक्सीजन, पानी, रोशनी, पेड़-पौधे, कीटाणु, पशु-पक्षी और मनुष्य यह सब एक ही धारा-प्रवाह की अलग-अलग दीखने वाली लहरें हैं जो वस्तुतः एक दूसरे के साथ विविध सूत्रों द्वारा आबद्ध हो रही हैं।

सृष्टि सन्तुलन शास्त्र के अन्वेषक तीन ऐसे सिद्धान्त निश्चित कर चुके हैं जिनके आधार पर प्रकृति-गत सहयोग श्रृंखला इस जगत की व्यवस्था को धारण कर रही है। पहला सिद्धान्त है—परस्परावलम्बन—इन्टरडिपेन्डेंस दूसरा है—मर्यादा—लिमिटेशन और तीसरा—सम्मिश्रता—काप्लोक्सिटी। यही तीनों भौतिक सिद्धान्त अपने मिले जुले क्रम से विश्व प्रवाह को गतिशील कर रहे हैं। जिस प्रकार अध्यात्म जगत में सत्-चित आनन्द की, सत्यं शिवं सुन्दरम् की, सत-रज-तम की, ईश्वर जीव प्रगति की—मान्यता है और माना जाता है कि इन्हीं चेतन तत्वों के आधार पर जीवधारियों की प्रवृत्ति, मनोवृत्ति की क्रम-व्यवस्था चलती है। ठीक इसी तरह सन्तुलन शास्त्री यह मानते हैं कि सृष्टि क्रम की सुव्यवस्था इन्टरडिपेन्डेंस, लिमिटेशन और काप्लोक्सिटी पर निर्भर है।

परस्परावलम्बन, (इन्टर डिपेन्डेंस) का सिद्धान्त यह बताता है कि प्रकृति की हर चीज अन्य सब वस्तुओं के साथ जुड़ी बंधी है। किसी भी जीव की सत्ता अन्य असंख्य जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है। मानवी सत्ता स्वतन्त्र नहीं है। यदि पेड़-पौधे ऑक्सीजन पैदा करना बन्द करदें तो वह बेमौत मर जायगा। विशालकाय वृक्ष का जीवन उन छोटे कीटाणुओं पर निर्भर है जो सूखे पत्तों को विघटन कर उन्हें खाद के रूप में परिणत करते हैं और जड़ों के पोषण की व्यवस्था जुटाते हैं। जमीन में रहने वाले बैक्टीरिया किस प्रकार जड़ों को खुराक पहुंचाते हैं और चींटी, दीमक आदि छोटे कीड़े किस प्रकार जड़ों तक हवा, रोशनी और नमी पहुंचाने में अधिक परिश्रम करते हैं इसे जाने बिना हम वृक्ष के जीवन आधार का सही मूल्यांकन कर ही नहीं सकते। वृक्ष अपने आप में स्वतन्त्र नहीं है वह कोटि-कोटि जीवन घटकों के अनुग्रह पर आश्रित और जीवित है। अफ्रीकी वन जन्तुओं की प्रमुख खाद्य आवश्यकता जो पौधा पूरी करता है वह भी पराश्रयी पाया गया है। छोटे-कीड़े कई तरह के बीज और खाद इधर से उधर लिए फिरते हैं यह पौधा उसी से अपना जीवन ग्रहण करता है कीड़ों की हरकतें बन्द करने के उपरान्त प्रयोगकर्ताओं ने देखा कि खाद, पानी की सुविधा देने के बाद पौधा उगने और बढ़ने की क्षमता खोता चला गया।

सन्तुलन शास्त्र का दूसरा नियम मर्यादा-लिमिटेशन—यह सिद्ध करता है कि हर प्राणी और हर पदार्थ की एक मर्यादा है जब वह उससे आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है तभी रोक दिया जाता है। वंश वृद्धि की क्षमता प्राणियों में निस्संदेह अद्भुत है, पर इससे भी तेज कुल्हाड़ी इस अभिवर्धन को नियन्त्रित करने के लिए कोई अदृश्य सत्ता सहज ही चलाती रहती है। प्राणी सृजन कितना ही क्यों न करें पर दौड़ में मृत्यु को नहीं जीत सकता है। जैसे ही जन्म दर की दौड़ बढ़ती है वैसे ही मृत्यु की बाधिन उसे दबोच कर रख देती है। प्राणियों का शरीर—पेड़ों का विस्तार एक सीमा पर जाकर रुक जाता है। पौधे एक सीमा तक ही सूर्य किरणों को सोखते हैं और निर्धारित मात्रा में ही ऑक्सीजन पैदा करते हैं। उपभोक्ताओं की संख्या और उपयोग की मात्रा जब तक उत्पादन के अनुरूप रहती है तब तक ढर्रा ठीक तरह चलता रहता है पर जब उत्पादन से उपभोग की तैयारी की जाती है तो विनाश का देवता उन उपभोक्ताओं के गले मरोड़ देता है। सन्तुलन जब तक रहेगा तब तक शान्ति रहेगी, पर जहां भी जिसमें भी मर्यादा का उल्लंघन करने वाला सिर उठाया वहीं कोई छिपा हुआ भैरव बैताल उठे हुए सिर को पत्थर मार कर कुचल देता है। आततायी और उच्छृंखल मनुष्यों के अहंकार को किसी न किसी कोने से उभर पड़ने वाली प्रतिक्रिया का शिकार बनना पड़ता है। पेट की आवश्यकता से अधिक आहार करने वाले अपच और उदर शूल का कष्ट सहते हैं। प्रकृति उल्टी और दस्त कराकर उस अपहरण को वापिस करने के लिए बाध्य करती है।

सम्मिश्रता—काप्लेक्सिटी का सिद्धान्त बताता है कि जिनके साथ हमारा प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं दीखता उनके साथ भी दूर का सम्बन्ध रहता है और घटना क्रम प्रकारान्तर से—परोक्ष रूप में उन्हें भी प्रभावित करता है जो उससे सीधा सम्बन्ध नहीं समझते। विश्व में कहीं भी घटित होने वाले घटना क्रम को हम यह कह कर उपेक्षित नहीं कर सकते कि इससे हमारा क्या सम्बन्ध है? प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप से सही हम कहीं भी—किसी भी स्तर की घटना से अवश्यमेव प्रभावित होते हैं।

अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी गरुड़ अब तक अपना अस्तित्व गंवाने की ही तैयारी में है। इस आत्म-हत्या जैसी सत्ता निसृति का क्या कारण हुआ इसकी खोज करने वाले जीव शास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पौधों को कीड़ों से बचाने के लिए जिन डी.डी.टी. सरीखे रासायनिक द्रवों का उपयोग होता रहा है उससे गरुड़ के स्वाभाविक आहार में प्रतिकूलता भर गई फलस्वरूप वह प्रजनन क्षमता खो बैठा। अब वह पक्षी वंशवृद्धि की दृष्टि से प्रायः निखट्टू ही बन कर रह गया है। ऐसी दशा में इसके अस्तित्व का अन्त होना स्वाभाविक ही था। यों रासायनिक घोलों का गरुड़ की प्रजनन शक्ति से सीधा सम्बन्ध नहीं बैठता, पर सम्बन्ध सूत्र मिलाने पर एक के लिए किया गया प्रयोग दूसरे के लिए वंशनाश जैसी विपत्ति का कारण बन गया। इसी प्रकार की सम्बन्ध सूत्रता हमें अन्य प्राणियों की हलचलों अथवा अन्यत्र होने वाली घटनाओं के साथ जोड़ती है।

साइकोलॉजी विशेषज्ञ वरी कामगर यह कहते हैं—देश और जाति का अन्तर कृत्रिम है। मनुष्य-मनुष्य के बीच की दीवार निरर्थक है। इतना ही नहीं प्राणधारियों और जड़ समझे जाने वाले पदार्थों को एक दूसरे से स्वतन्त्र समझना भूल है। हम सब एक ऐसी नाव पर सवार हैं जिसके डूबने उतारने का परिणाम सभी को समान रूप से भुगतना पड़ेगा। राक फेलर युनिवर्सिटी (न्यूयार्क) के पैथालॉजी एण्ड माइक्रो बायोलॉजी के प्राध्यापक अयुवांस का कथन है वैश्विक चक्रों कॉस्मिक साइकल्सन के थपेड़ों से हम इधर-उधर गिरते पड़ते चल रहे हैं। हमारे पुरुषार्थ की अपनी महत्ता है, पर ब्रह्माण्डीय हलचलें हमें कम विवश और बाध्य भी नहीं करतीं।

वे कहते हैं विज्ञान की सभी शाखाएं परस्पर जुड़ी हुई हैं। इसलिए उनका सर्वथा प्रथम विभाजन उचित नहीं। भौतिक विज्ञान और जीव विज्ञान की विविध शाखाओं का समन्वयात्मक अध्ययन करके ही हम किसी पूर्ण निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं।

मिश्र में आस्वान बांध बंधने से अब नील नदी के तटवर्ती खेतों को प्राकृतिक खाद पहुंचने का लाभ मिलना बन्द हो गया है फलस्वरूप उस क्षेत्र की उर्वरा शक्ति का भारी क्षति पहुंची है।

अफ्रीका महाद्वीप के जाम्बिया और रोडेशिया देशों में पिछले दिनों कई बांध बने हैं इनके कारण अनपेक्षित समस्याएं उत्पन्न हुई हैं और वे बांधों से मिलने वाले लाभ की तुलना में कम नहीं, वरन् अधिक ही हानिकारक एवं जटिल हैं। समुद्रों के मध्य जहां तहां बिखरे हुए छोटे टापुओं पर चालू की गई उत्साहवर्धक विकास योजनाओं का बुरा असर पड़ता है और उन प्रयासों को घाटे का सौदा माना गया है।

इस तथ्य को मनुष्य जीवन के हर क्षेत्र में क्रियाशील बनाये रखकर ही मानवीय प्रगति सुख-शान्ति और सुव्यवस्था की कल्पना की जा सकती है। नियम व्यवस्थाओं की चादर छोटी है किन्तु मनुष्य की महत्वाकांक्षाएं विशालकाय। लालसाएं सुरसा की तरह बढ़ती जायें और ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र उसी के समर्थन में जुट पड़ें तो इस खींचतान में उस चादर का फटना और मनुष्यों का शीत में ठिठुरना, प्रकृति की निष्ठुर नियम व्यवस्था में दबोचे जाना स्वाभाविक है। चाहे वह वातावरण जल, वायु और पृथ्वी के विषाक्त होने के रूप में हो या युद्ध की विभीषिका के रूप में—अर्थ एक ही होगा कि मनुष्य के पांव भौतिक लालसाओं की ओर तृष्णा, अहंता और विलासिता की ओर तेजी से बढ़ते रहे तो कल न सही परसों वह विभीषिका निश्चित रूप से आयेगी जो इस धरती के साथ उसकी सन्तति को भी चाट जायेगी, महत्वाकांक्षाएं तो नष्ट होगी ही। प्रकृति की सुव्यवस्था को छेड़ने की मानवीय भूल

22 अप्रैल 1971 को अमेरिका में अनेक स्थानों पर ‘‘पृथ्वी दिवस’’ (अर्थ-डे) मनाया गया। उस दिन लोगों से पैदल रिक्शा या तांगा में चलने की अपील की गई किसी भी मशीन वाली फैक्ट्री या कारखाने न चलाने का आग्रह किया गया। उस दिन सब काम अपने हाथों से करने को कहा गया—उसी दिन के लिए ‘‘अर्थ-टाइम्स’’ नाम का एक विशेष समाचार बुलेटिन निकाला गया, सभायें हुईं, जुलूस निकाले गये इसका उद्देश्य जन-मानस का ध्यान इस ओर आकर्षित करना था कि आज की जीवन-पद्धति, मशीनों, कारखानों से पर्यावरण इस तरह दूषित हो रहा है कि पृथ्वी में विनाश की सम्भावनायें अभिव्यक्त हो चलीं अतएव, मनुष्य को उससे बचना चाहिए। इस अभूतपूर्व आयोजन से संसार भर के लोगों को झकझोर दिया।

आज मनुष्य जाति ने अत्यधिक वैभव विलासिता का जो अदूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाया है और जिसके लिए वह प्रकृति की गोद से उतर कर निरन्तर कृत्रिमता की ओर, यन्त्रीकरण की ओर दौड़ता चला जा रहा है क्या वह उसके लिए हितकारक भी है? या फिर उस चिन्तन, उस दृष्टिकोण में किसी तरह संशोधन की आवश्यकता है। अब तक परिस्थितियों ने जो मोड़ लिया, प्रगति जिस चौराहे तक पहुंची है उससे प्रगति कम, भटकाव अधिक प्रतीत हो रहा है आज का मनुष्य उस कगार पर आ गया है जिससे आगे बढ़ने पर सर्वनाश ही सुनिश्चित है। अभियान्त्रिकी आधुनिक सभ्यता के वह दुष्परिणाम अब पूरी तरह सामने आ गये हैं।

राष्ट्र संघ के तत्वावधान में वातावरण को जीवन योग्य बनाये रहने की समस्या पर विचार करने के लिए जो अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन स्टॉक होम में हुआ था उसका सम्मिलित स्वर भी यही था—‘‘हमारे पास एक ही पृथ्वी है। इसे जीने लायक बनाये रखना चाहिए।’’ सम्मेलन का सुझाव था प्राकृतिक भण्डारों का मितव्ययिता के साथ उपयोग किया जाय, प्रयोग की हुई वस्तुओं को पुनः काम के लायक बनाया जाय, बढ़ते हुए शोर को रोका जाय और वायु एवं जल के बढ़ते हुए प्रदूषण को रोका जाय।

जिस क्रम से हमारी तथाकथित ‘प्रगति’ प्राकृतिक सन्तुलन को बिगाड़ रही है, उसे दूर दृष्टि से देखा जाय तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ेगा कि तात्कालिक लाभ में अन्धे होकर हम भविष्य को घेर अन्धकारमय बनाने के लिए आतुर हो रहे हैं। सारा दोष उस मानवीय चिन्तन को है—उस जीवन पद्धति को जिसमें प्राकृतिक व्यवस्था की ओर ध्यान दिये बिना कम से कम श्रम और अधिकतम विलासिता के साधन एकत्र करने की धुन लगी हुई है। व्यक्ति के इस उतावलेपन ने सामूहिक रूप धारण कर लिया है इससे प्राकृतिक व्यवस्थाओं का विचलित होना स्वाभाविक है। मशीनीकरण, प्राकृतिक सम्पदाओं का दोहन और उनका अन्धाधुन्ध उपभोग, राष्ट्रों के बीच सर्वशक्तिमान बनने की महत्वाकांक्षाएं और उसके फलस्वरूप आणविक अस्त्र-शस्त्रों की होड़ सब मिलाकर परिस्थितियां नियन्त्रण से बाहर हो चली हैं, इससे विचारशीलता का चिन्तित होना और तथाकथित प्रगति पर रोक लगाना आवश्यक हो गया है। यह सब एकमात्र इस बात पर आधारित है कि मनुष्य अपना चिन्तन, अपना लक्ष्य, अपने दृष्टिकोण में मानवतावादी आदर्शों का समावेश करे और वह जीवन नीति अपनाये जिसमें भरपूर श्रम में जीवनयापन का प्राकृतिक ढंग उभर कर सामने आ सके।

मनुष्य की दुर्भावनाएं जब तक व्यक्तिगत जीवन तक सीमित रहती हैं, तब तक उसका प्रभाव उतने लोगों तक सीमित रहता है जितनों से कि उस व्यक्ति का सम्पर्क रह सके, परन्तु जब राजसत्ता और विज्ञान का भी सहारा मिल जाय तो उन दुर्भावनाओं को विश्व-व्यापी होने और सर्वग्रही संकट उत्पन्न करने में कुछ भी कठिनाई नहीं रहती। स्वार्थों का संघर्ष, संकीर्णता और अनुदारता का दृष्टिकोण, शोषण और वर्चस्व का मोह आज असीम नृशंसता के रूप में अट्टाहास कर रहा है। राजसत्ता और विज्ञान की सहायता से उसका जो स्वरूप बन गया है उससे मानवता की आत्मा थर-थर कांपने लगी है। प्रगति के नाम पर मानव प्राणी की चिर-संचित सभ्यता का नामोनिशान मिटाकर रख देने वाली परिस्थितियों की विशाल परिमाण में जो तैयारी हो चुकी है, उसमें चिनगारी लगने की देर है कि यह बेचारा भू-मण्डल बात की बात में नष्ट भ्रष्ट हो जायेगा। मानव मन की दुर्भावनाओं की घातकता अत्यन्त विशाल है। 24000 मील व्यास का यह नन्हा-सा पृथ्वी ग्रह उसके लिए एक ग्रास के बराबर है।

अधिकाधिक लाभ कमाने के लोभ ने अधिकाधिक उत्पादन पर ध्यान केन्द्रित किया है। मानवी रुचि में अधिकाधिक उपयोग की ललक उत्पन्न की जा रही है ताकि अनावश्यक किन्तु आकर्षक वस्तुओं की खपत बढ़े और उससे निहित स्वार्थों को अधिकाधिक लाभ कमाने का अवसर मिलता चला जाय। इस एकांगी घुड़दौड़ ने यह भुला दिया है कि इस तथाकथित प्रगति और तथाकथित सभ्यता का सृष्टि सन्तुलन पर क्या असर पड़ेगा। इकालाजिकल वेलेन्स गंवा कर मनुष्य सुविधा और लोभ प्राप्त करने के स्थान पर ऐसी सर्प-विभीषिका को गले में लपेट लेगा जो उसके लिए विनाश का सन्देश ही सिद्ध होगी। एकांगी भौतिकवाद अनियन्त्रित उच्छृंखल दानव की तरह अपने पालने वाले को ही भक्षण करेगा। यदि विज्ञान रूपी दैत्य से कुछ उपयोगी लाभ उठाना हो तो उस पर आत्मवाद का मानवीय सदाचार का नियन्त्रण अनिवार्य अनिवार्य रूप से करना ही पड़ेगा। प्रगति करें पर विकृति न बढ़ायें

मनुष्य प्रगति की दिशा में आगे बढ़े यह उचित है। विज्ञान की प्रगति इस युग की एक बड़ी उपलब्धि है। उसने मनुष्य जाति को एक नया उत्साह दिया है कि उज्ज्वल भविष्य के लिए—अधिकाधिक सुख सम्वर्धन के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है, सो किया भी जा रहा है। इन्हीं शताब्दियों में वैज्ञानिक खोजों ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है और कितने ही क्षेत्रों में आशा भरा उत्साह उत्पन्न किया है। इन उपलब्धियों के महत्व को झुठलाया नहीं जा सकता।

वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ मानवी सुख-सुविधाओं में जो वृद्धि हुई है उसकी महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। यातायात, कल-कारखाने, कृषि व शिल्प, विनोद, चिकित्सा, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में आज का मनुष्य सौ दो सौ वर्ष पूर्व के लोगों की तुलना में कहीं अधिक साधन सम्पन्न है। बिजली, रेडियो, तार, टेलीफोन, प्रेस, अखबार आदि के सहारे जो सुविधाएं मिली हैं वे अभ्यास में आने के कारण कुछ आश्चर्यजनक भले ही प्रतीत न होती हों, पर आज से पांच सौ वर्ष पूर्व का कोई मनुष्य आकर यह सब देखे और अपने जमाने की परिस्थितियों के साथ तुलना करे तो उसे प्रतीत होगा कि वह किसी अनजाने दैत्यलोक में विचरण कर रहा है। द्रुतगामी वाहनों की अपनी शान है, रेल, मोटर, वायुयान, पनडुब्बी, जल पोतों के कारण मिलने वाली सुविधाएं कम नहीं आंकी जानी चाहिए। चिकित्सा एवं शल्य क्रिया की उपलब्धियां कम नहीं हैं। सिनेमा और टेलीविजन, रेडियो के माध्यम से गरीब लोगों के लिए भी मनोरंजन की सुविधा सम्भव हो गई है। अन्तरिक्ष यात्रा के क्षेत्र में हुई प्रगति ने मनुष्य के चरण, तीन चरण में तीन लोक नाप लेने वाले वामन भगवान जितने लम्बे बना दिये हैं। शास्त्रार्थों की दुनिया में अब मारण का व्यवसाय इतना सरल बन गया है कि एक बच्चा भी पृथ्वी पर निवास करने वाले समस्त प्राणधारियों का अस्तित्व क्षण भर में समाप्त कर सकता है।

पशु-पक्षियों और वृक्ष-वनस्पतियों की वर्णशंकर जातियां उत्पन्न करने की कृत्रिम गर्भाधान, टैस्ट ट्यूबों की—सफलता प्राप्त करके मनुष्य सृष्टि निर्माता विधाता के पद पर आसीन होने की तैयारी कर रहा है। विशालकाय स्वसंचालित यन्त्रों से पौराणिक दैत्यों का काम लिया जा रहा है। वरुण से जल भराने, वायु से पंखा झलवाने, अग्नि से ऋतु प्रभाव सन्तुलित कराने का काम रावण लेता था आज जल-कल, बिजली की बत्ती, फेन, रेफ्रिजरेटर, हीटर, कूलर आदि के माध्यम से वे रावण जैसी उपलब्धियां हर किसी के लिए सम्भव हो गई हैं। पुष्पक विमान पर अब हर कोई उड़ सकता है और समुद्र लांघने की हनुमान जैसी शक्ति अब किसी भी वायुयान और जलयान यात्री को सहज ही उपलब्ध हैं।

‘सोमियोलाजी’ नामक मस्तिष्क विद्या की एक शाखा के अन्तर्गत ऐसे अनुसन्धान हो रहे हैं कि मनुष्यों की चिंतन पद्धति कुछ समय के लिए आवेश रूप में नहीं, वरन् स्थायी रूप में बदली जा सकेगी। जिस प्रकार प्लास्टिक सर्जरी से अंगों की काट-छांट करके कुरूपता को सुन्दरता में बदल दिया जाता है उसी प्रकार मस्तिष्क की विचारणा एवं सम्वेदना का आधार भी बदल दिया जाय जिससे वह सदा के लिए अपने मस्तिष्क चिकित्सक का आज्ञानुवर्ती बनने के लिए प्रसन्नतापूर्वक सहमत हो जाय।

समुद्र के खारे पानी को मीठे जल में बदलने की, कृत्रिम वर्षा कराने की, रेगिस्तानों को उपजाऊ बनाने की, अणु शक्ति से ईंधन का प्रयोजन पूरा करने की, समुद्र सम्पदा के दोहन की, जराजीर्ण अवयवों का नवीनीकरण करने की योजनाएं ऐसी ही हैं जिनसे आंखों में आशा की नई ज्योति चमकती है।

इन उपलब्धियों से मदोन्मत्त होकर मनुष्य अपने को प्रकृति का अधिपति मानने का अहंकार करने लगा है और अपने को सर्वशक्तिमान बनाने की धुन में मारक अणु आयुध बनाने से लेकर—जीवनयापन की प्रक्रिया में उच्छृंखल स्वेच्छाचार बरतने के लिए आतुरतापूर्वक अग्रसर हो रहा है। सफलताओं के जोश में उसने होश गंवाना आरम्भ कर दिया है। इसका दुष्परिणाम भी उसके सामने आ रहा है। अमर्यादित और अनैतिक प्रगति प्रकृति को स्वीकार नहीं वह उसे रोकने का प्रयास करेगी ही आखिर उसे भी तो अपना सन्तुलन बनाये रखना है।

अर्नाल्ड टायनवी ने अपने ग्रन्थ ‘ए स्टडी आव हिस्ट्री’ में पाश्चात्य सभ्यता की स्थिति और प्रगति पर अनेक दृष्टिकोणों से प्रकाश डाला है और यह निष्कर्ष निकाला है कि ‘प्रगति के अत्युत्साह में दिशा भूल कर हम जिस ओर—जिस तेजी से—बढ़ते चले जा रहे हैं उसका अन्त महाविनाश के रूप में ही सामने प्रस्तुत होगा।’ टायनवी के अन्य ग्रन्थ ‘नेशनलिटी एण्ड दि वार’ और ‘दि न्यू योरोप’ में पाश्चात्य जन-मानस का विश्लेषण करते हुए उसकी लक्ष्य विहीन प्रगति के दुष्परिणामों पर प्रकाश डाला है कि यह अग्रगमन निकट भविष्य में हमें पीछे हटने से भी अधिक महंगा पड़ेगा।
2 Last


Other Version of this book



विज्ञान को शैतान बनने से रोकें
Type: TEXT
Language: HINDI
...

विज्ञान को शैतान बनने से रोकें
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books



21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

त्योहार और व्रत
Type: SCAN
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भक्ति- एक दर्शन, एक विज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भक्ति- एक दर्शन, एक विज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक हैं
Type: TEXT
Language: HINDI
...

धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक हैं
Type: TEXT
Language: HINDI
...

वाल्मीकि रामायण से प्रगतिशील प्रेरणा
Type: TEXT
Language: HINDI
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन देवता की साधना आराधना
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन देवता की साधना आराधना
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
Type: SCAN
Language: EN
...

मनस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले
Type: SCAN
Language: EN
...

मनस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले
Type: SCAN
Language: EN
...

मनस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले
Type: SCAN
Language: EN
...

मनस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले
Type: SCAN
Language: EN
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Articles of Books

  • सह-अस्तित्व का नैसर्गिक नियम
  • मनुष्य पूरी तरह मशीन न बने
  • ‘सांस मत लो इस हवा में जहर है’
  • खबरदार इस पानी को पीना मत—खतरा है
  • चिल्लाइये मत कान फट रहे हैं
  • रोगों की जड़े काटी जायें पत्ते नहीं
  • कीटनाशक अन्ततः अपने लिये घातक
  • धरती को मार डालने का कुचक्र
  • अनियन्त्रित प्रगति अर्थात् महामरण की तैयारी
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj