Books - विज्ञान को शैतान बनने से रोकें
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Language: HINDI
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अनियन्त्रित प्रगति अर्थात् महामरण की तैयारी
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सामान्य व्यक्ति का मस्तिष्क विकृत हो तो वह थोड़े ही व्यक्तियों का अहित कर सकता है। उसी तरह की दुर्बुद्धि वाले लोगों का एक समूह निकल पड़े तो हानि की संभावनायें निश्चित बढ़ती हैं। किन्तु यदि यही रोग राजसत्ताओं में व्याप्त हो जाये तब तो यह समझना चाहिए कि महायुद्ध, महामरण की संभावनायें ही सुनिश्चित हैं।
राज सत्ता भी कोई जड़ वस्तु नहीं है उस पर भी नियंत्रण मनुष्य का ही रहता है चाहे वह राजतंत्र हो अथवा प्रजातंत्र। एक ओर मनुष्य की सुरसा की तरह बढ़ रही लालसायें और महत्वाकांक्षायें अनियंत्रित विज्ञान का योगदान और उस पर भी निरंकुश औद्धत। आज विश्व के रंगमंच पर यह परिस्थितियां पूरी तरह घटाटोप छाई हुई हैं। वह मारण अस्त्र तेजी से बनते चले जा रहे हैं कि सृष्टि का किसी क्षण विनाश संभव है आइंस्टीन का यह कथन—तृतीय विश्व युद्ध होगा नहीं यह तो ज्ञात नहीं, पर यदि हुआ तो अगला युद्ध ईंट और पत्थरों से लड़ा जायगा—नितान्त सत्य है इस कथन में सृष्टि के महा-विनाश का दृश्य पूरी तरह झांक रहा है।
संख्या घटाने पर सहमति प्रकट की है पर वह एक चाल मात्र है। संख्या घटाने की आड़ में अस्त्रों की गुणात्मक श्रेष्ठता बढ़ाई जा रही है। स्थान घिरने और गिनती कम होने भर की सुविधा मिलेगी वैसे उससे संहारक शक्ति में कोई कटौती होने वाली नहीं समझौते की स्याही सूखने भी नहीं पाई थी कि पुरानी अधिकाधिक घातक अस्त्रों का भण्डार भरने की नीति का ही तुमुल घोष किया जाने लगा। अमेरिका के डिफैन्स सेक्रेटरी मेल्विन लायर्ड ने कहा—समझौता व्यर्थ है हमें जिन्दा रहना है तो पनडुब्बियों से फेंकी जाने वाली दूरमारक मिसाइलें बनानी ही होंगी, नहीं तो रूस हमें खा जायगा। अखबारों ने समझौते का मजाक उड़ाते हुए कहा इससे हम आणविक सर्वोच्चता की नीति को आणविक न ही आत्मनिर्भरता कहने लगेंगे। अब अणु शस्त्रों की दौड़ क्वान्टिटी में न होकर क्वालिटी में होगी।
विश्व के हर नागरिक स्त्री-पुरुष-बच्चे के लिए 20 टन बारूद तैयार है। बच्चा पैदा होने पर उसकी आवाज जितनी देर में उसकी मां के कानों तक पहुंचती है उतनी देर में उस जैसे बीस की जीवनसत्ताओं का अन्त कर देने वाली अणुशक्ति आज के कारखानों में उत्पन्न हो जाती है। इसका विस्तृत विवरण ब्रिटिश कार्स्टिग कॉरपोरेशन द्वारा बनाई गई वृत्त फिल्म ‘दि डैथ गेम’ में दिखाया गया है।
सन् 1969 में विश्व के 120 देशों की एक सर्वेक्षण समिति ने शस्त्रों पर संसार भर में होने वाले खर्चे का लेखा जोखा एकत्रित किया था तदनुसार संसार भर में जमा हुए शस्त्रों का मूल्य सन् 1967 तक 136, 500 करोड़ रुपया पहुंच चुका था। इसके बाद अब तक जो उत्पादन हुआ है उसे कम से कम दूना तो कहा ही जा सकता है। सन् 67 तक के आंकड़े बताते हैं—संसार के हर मनुष्य पीछे मारने वाली सामग्री 420 रुपया लागत की जमा हो चुकी है। संसार भर में 142 देश हैं उनमें से 28 देश ऐसे हैं जिनकी प्रति व्यक्ति पीछे औसत आय 420 रूप. से कम है। इनमें एक भारत भी शामिल है। अनुमान है कि यह व्यय इसी दशाब्दी में 300000 करोड़ से ऊपर निकल जायगा। यह राशि इतनी बड़ी होगी कि यदि सौ रुपये के नोटों की माला बनाई जाय तो वह धरती से चन्द्रमा की दूरी की साड़े सात बार परिक्रमा कर लेगी। दरिद्रता मिटाने के लिए विश्व भर में जितना धन खर्च किया जाता है उसकी तुलना में शस्त्रों पर 20 गुना अधिक खर्च होता है। स्वास्थ्य पर खर्च होने वाली राशि से यह तीन गुना अधिक है। इस धन से दो करोड़ लोगों के निवास के लिए बढ़िया मकान बना कर दिये जा सकते हैं।
युद्ध में आदमी को मारने की लागत दिन-दिन महंगी होती चली जा रही है। जूलियस सीजर के जमाने में एक सैनिक मारने में सिर्फ 5 रु. खर्च आते थे। नैपोलियन के जमाने में दो हजार तक हो गई थी। प्रथम युद्ध में अमेरिका ने एक व्यक्ति मारने पर डेढ़ लाख रुपया खर्च किया। दूसरे युद्ध में यह लागत दस गुनी बढ़ गई। अभी-अभी वियतनाम युद्ध में हरगुरिल्ला को मारने में 13 लाख रुपया खर्च का औसत आया है।
अमेरिका का प्रमुख उद्योग युद्ध सामग्री का उत्पादन है। इसे वह विश्व भर में सप्लाई करता है। द्वितीय युद्ध के बाद उसने 20 लाख राइफलें, 1 लाख मशीनगनें, 1 लाख लड़ाकू जहाज, 20 हजार टेंक, 30 हजार प्रक्षेपणास्त्र, 2500 पनडुब्बियां दूसरे देशों को बेची हैं। यह आंकड़े पांच वर्ष पुराने हैं। यह संख्या इस बीच दूनी हो गई हो तो कुछ भी अचम्भे की बात नहीं है। सन् 71 में अमेरिका का युद्ध बजट 77.5 अरब रुपया था अब वह जल्दी ही 100 अरब वार्षिक सीमा तोड़ कर आगे बढ़ जायगा। तीर, तलवार, बन्दूक और तोपों का जमाना अब चला गया, उन साधनों से थोड़ी,-थोड़ी संख्या में मनुष्य मरते थे और चलाने वाले के पराक्रम एवं कौशल की परीक्षा होती थी। अब तो एक दुर्बल बीमार के लिए भी यह सम्भव हो गया है कि वह समस्त सृष्टि का नामोनिशान मिटाकर रखदे। विशाल क्षेत्र को प्राण रहित बना दे। मिसाइल—एन्टीमिसाइल—बनते चले जा रहे हैं। इन पर लाद कर अणुबम संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक भेजा जा सकता है और प्रयोगशाला की कोठरी में बैठे हुए बटन दबाने मात्र से किसी भी क्षेत्र का सर्वनाश किया जा सकता है।
अमेरिका में अणु प्रहार कर सकने की सामर्थ्य वाले केन्द्रों की संख्या अब से कुछ वर्ष 4600 थी। सन् 75 तक वह 11000 हो गई। रूस में ऐसे केन्द्र तो 2000 ही हैं पर उनमें गुण परक श्रेष्ठता बढ़ाने के प्रयत्न तेजी से चल रहे हैं।
पिछले दिनों जितने अणु अस्त्र बन चुके थे उनसे इस सुन्दर पृथ्वी को 24 बार ध्वस्त किया जा सकता था। पर तब से अब तक तो वह क्षमता लगातार बढ़ती ही चली आ रही है। और अनुमान लगाया जाता है कि इन अणुओं से अपनी जैसी 50 धरती एक साथ चूर्ण विचूर्ण करके आकाश में धूलि की तरह उड़ाई जा सकती हैं। विशेषज्ञ प्रो. बैरी कामनर ने कहा था—टेक्नालॉजी द्वारा प्रकृति के साथ असामान्य छेड़-छाड़ करने का वर्तमान क्रम यदि इसी तरह जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब यह धरती मनुष्यों के रहने योग्य ही नहीं रहेगी। प्रकृति आज हमारी रक्षक है पर सन्तुलन बिगड़ जाने पर वही भक्षक बन जायगी। प्रकृति पर विजय पाने की धुन में हम उसका सन्तुलन बिगाड़ते जा रहे हैं। प्रकृति की खोज करना और उसके रहस्यों से परिचित होकर लाभान्वित होना तो ठीक है पर इससे पहले हमें यह निश्चित करना चाहिए कि सन्तुलन बिगाड़ने की सीमा तक छेड़खानी न की जायगी। अविवेक पूर्ण ढंग से हवा, पानी और मिट्टी को बिगाड़ते चले जाना, इस धरती पर रहने वाले समस्त प्राणियों का जीवन संकट में डालना है।
केवल परमाणु परीक्षणों की ही बात पर विचार करें तो उसके खतरे भी कम नहीं आंके जा सकते हैं। अब तक जितने परीक्षण हो चुके हैं उनका दुष्परिणाम भी असंख्य लोगों को कितनी ही पीढ़ियों तक भुगतना पड़ेगा। यदि अणु युद्ध नहीं भी हों किन्तु परीक्षणों का वर्तमान सिलसिला इसी क्रम से चलता रहे तो भी उससे सर्वनाश की विभीषिका बढ़ती ही चली जायगी। परीक्षणों से निकलने वाले रेडियो सक्रिय तत्व मारक विष ही होते हैं।
हवा, पानी और वनस्पतियों के सहारे शरीरों में प्रवेश करते हैं और रक्तचाप, कैन्सर जैसे जटिल रोग उत्पन्न करते हैं। अणु विशेषज्ञ डा. रैल्फलाफ ने चेतावनी दी है कि मनुष्य में रेडियो सक्रियता सहने की जितनी शक्ति है उसका उल्लंघन परीक्षण की वर्तमान श्रृंखला करती चली जा रही है। अणु युद्ध की एक भयानक भूमिका तो यह परीक्षण ही करते चले जा रहे हैं। यह कदम न रुके तो हम सब बिना युद्ध के इस परीक्षण युद्ध के विनाश गर्त में गिर कर ही समाप्त हो जायेंगे। अनुमान है कि प्रत्येक अणु परीक्षण देर सवेर में 50 हजार मनुष्यों की अकाल मृत्यु का कारण बनना है। यों वह फैलती तो हजार मील तक जायगी और न्यूनाधिक मात्रा में उस क्षेत्र के निवासियों को भयानक रुग्णता में ग्रसित करेगी और वह संकट पीढ़ी-दर पीढ़ी चलेगा।
रासायनिक और जीवाणु आयुधों का विरोध भी प्रबुद्ध जनता द्वारा होता रहा है, पर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ अमेरिका के जिन विश्व विद्यालयों में जीव विषय पर खोज हो रही है। वहां के छात्र उस खोज का विरोध और बहिष्कार कर रहे हैं पोन्सिल वानिया विश्व विद्यालय के फिजीकल बायो केमिस्ट्री विभाग के 11 प्रोफेसरों ने पदवी दान समारोह में गैस मास्क पहन कर इन शोधों पर विरोध प्रदर्शन किया था 17 नोबेल पुरस्कार विजेता और विज्ञान एकादमी के 117 सदस्य इन प्रयोगों पर रोष प्रदर्शित कर चुके हैं।
संसार के प्रमुख 14 राजनीतिज्ञों, युद्ध विशारदों और वैज्ञानिकों ने एक-एक अध्याय लिखा है सभी लेख बहुत ही तथ्यपूर्ण तथा माननीय हैं। इसमें भावी युद्ध की विभीषिकाओं का विवेचन, निरूपण करते हुए निष्कर्ष निकाला गया है कि विज्ञान और युद्ध दोनों एक साथ जीवित नहीं रह सकते। दोनों में से एक को तो हर हालत में मरना ही पड़ेगा, भले ही यह फैसला तीसरे महायुद्ध के उपरान्त हो अथवा पहले।
विज्ञान की शोधें आणविक, रासायनिक तथा विषाणु आयुध जिस तेजी से बना रही हैं उसका विस्तार क्रमशः होता ही चला जायगा। आज जो निर्माण महंगा है उसी के कल सस्ता होने का रास्ता निकल आवेगा। यह घातक अस्त्र अभी थोड़े देशों के पास हैं पर अगले दिनों वे प्रायः सभी के पास हो जायेंगे। गरीब देश भी सस्ते किस्म के घातक अस्त्र बना लेंगे। उत्कृष्टता भले ही कम हो पर मरण पर्व तो वे भी रच सकेंगे। तब उन पर नियंत्रण कर सकना कठिन हो जायगा। कोई भी शिर फिरा आदमी किसी भी देश में नहीं निकलेगा ऐसी कोई गारन्टी नहीं। राजनीति और विज्ञान के क्षेत्र में घुसा हुआ एक ही सनकी व्यक्ति सारी दुनिया का सफाया करने के लिए काफी है।
क्या सत्ता धारियों के पागलपन के विरुद्ध गरीब आदमी नहीं जूझ सकता? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि आयुधों के सम्मुख खड़ा होकर लड़ने की ताकत मनुष्य में नहीं रहेगी। पर एक नई शक्ति विकसित होगी वह है—छापा मार ताकत। गरीब आदमी की इस ताकत को कोई छीन न सकेगा और इस आधार पर उच्छृंखल अहमन्यता को चुनौती दी जा सकेगी। कहा गया है कि ‘छापा मार’ आन्दोलन एक दर्शन के रूप में विकसित होगा और उसमें पीड़ित, प्रताड़ित और पददलित जनता अपने को सेना के रूप में विकसित करके लड़ना आरम्भ करेगी और अधिनायकों के प्रचार, संगठन और आक्रमणकारी तंत्रों को निरर्थक निष्फल बना देगी।
संख्या घटाने पर सहमति प्रकट की है पर वह एक चाल मात्र है। संख्या घटाने की आड़ में अस्त्रों की गुणात्मक श्रेष्ठता बढ़ाई जा रही है। स्थान घिरने और गिनती कम होने भर की सुविधा मिलेगी वैसे उससे संहारक शक्ति में कोई कटौती होने वाली नहीं समझौते की स्याही सूखने भी नहीं पाई थी कि पुरानी अधिकाधिक घातक अस्त्रों का भण्डार भरने की नीति का ही तुमुल घोष किया जाने लगा। अमेरिका के डिफैन्स सेक्रेटरी मेल्विन लायर्ड ने कहा—समझौता व्यर्थ है हमें जिन्दा रहना है तो पनडुब्बियों से फेंकी जाने वाली दूरमारक मिसाइलें बनानी ही होंगी, नहीं तो रूस हमें खा जायगा। अखबारों ने समझौते का मजाक उड़ाते हुए कहा इससे हम आणविक सर्वोच्चता की नीति को आणविक न ही आत्मनिर्भरता कहने लगेंगे। अब अणु शस्त्रों की दौड़ क्वान्टिटी में न होकर क्वालिटी में होगी।
विश्व के हर नागरिक स्त्री-पुरुष-बच्चे के लिए 20 टन बारूद तैयार है। बच्चा पैदा होने पर उसकी आवाज जितनी देर में उसकी मां के कानों तक पहुंचती है उतनी देर में उस जैसे बीस की जीवनसत्ताओं का अन्त कर देने वाली अणुशक्ति आज के कारखानों में उत्पन्न हो जाती है। इसका विस्तृत विवरण ब्रिटिश कार्स्टिग कॉरपोरेशन द्वारा बनाई गई वृत्त फिल्म ‘दि डैथ गेम’ में दिखाया गया है।
सन् 1969 में विश्व के 120 देशों की एक सर्वेक्षण समिति ने शस्त्रों पर संसार भर में होने वाले खर्चे का लेखा जोखा एकत्रित किया था तदनुसार संसार भर में जमा हुए शस्त्रों का मूल्य सन् 1967 तक 136, 500 करोड़ रुपया पहुंच चुका था। इसके बाद अब तक जो उत्पादन हुआ है उसे कम से कम दूना तो कहा ही जा सकता है। सन् 67 तक के आंकड़े बताते हैं—संसार के हर मनुष्य पीछे मारने वाली सामग्री 420 रुपया लागत की जमा हो चुकी है। संसार भर में 142 देश हैं उनमें से 28 देश ऐसे हैं जिनकी प्रति व्यक्ति पीछे औसत आय 420 रूप. से कम है। इनमें एक भारत भी शामिल है। अनुमान है कि यह व्यय इसी दशाब्दी में 300000 करोड़ से ऊपर निकल जायगा। यह राशि इतनी बड़ी होगी कि यदि सौ रुपये के नोटों की माला बनाई जाय तो वह धरती से चन्द्रमा की दूरी की साड़े सात बार परिक्रमा कर लेगी। दरिद्रता मिटाने के लिए विश्व भर में जितना धन खर्च किया जाता है उसकी तुलना में शस्त्रों पर 20 गुना अधिक खर्च होता है। स्वास्थ्य पर खर्च होने वाली राशि से यह तीन गुना अधिक है। इस धन से दो करोड़ लोगों के निवास के लिए बढ़िया मकान बना कर दिये जा सकते हैं।
युद्ध में आदमी को मारने की लागत दिन-दिन महंगी होती चली जा रही है। जूलियस सीजर के जमाने में एक सैनिक मारने में सिर्फ 5 रु. खर्च आते थे। नैपोलियन के जमाने में दो हजार तक हो गई थी। प्रथम युद्ध में अमेरिका ने एक व्यक्ति मारने पर डेढ़ लाख रुपया खर्च किया। दूसरे युद्ध में यह लागत दस गुनी बढ़ गई। अभी-अभी वियतनाम युद्ध में हरगुरिल्ला को मारने में 13 लाख रुपया खर्च का औसत आया है।
अमेरिका का प्रमुख उद्योग युद्ध सामग्री का उत्पादन है। इसे वह विश्व भर में सप्लाई करता है। द्वितीय युद्ध के बाद उसने 20 लाख राइफलें, 1 लाख मशीनगनें, 1 लाख लड़ाकू जहाज, 20 हजार टेंक, 30 हजार प्रक्षेपणास्त्र, 2500 पनडुब्बियां दूसरे देशों को बेची हैं। यह आंकड़े पांच वर्ष पुराने हैं। यह संख्या इस बीच दूनी हो गई हो तो कुछ भी अचम्भे की बात नहीं है। सन् 71 में अमेरिका का युद्ध बजट 77.5 अरब रुपया था अब वह जल्दी ही 100 अरब वार्षिक सीमा तोड़ कर आगे बढ़ जायगा। तीर, तलवार, बन्दूक और तोपों का जमाना अब चला गया, उन साधनों से थोड़ी,-थोड़ी संख्या में मनुष्य मरते थे और चलाने वाले के पराक्रम एवं कौशल की परीक्षा होती थी। अब तो एक दुर्बल बीमार के लिए भी यह सम्भव हो गया है कि वह समस्त सृष्टि का नामोनिशान मिटाकर रखदे। विशाल क्षेत्र को प्राण रहित बना दे। मिसाइल—एन्टीमिसाइल—बनते चले जा रहे हैं। इन पर लाद कर अणुबम संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक भेजा जा सकता है और प्रयोगशाला की कोठरी में बैठे हुए बटन दबाने मात्र से किसी भी क्षेत्र का सर्वनाश किया जा सकता है।
अमेरिका में अणु प्रहार कर सकने की सामर्थ्य वाले केन्द्रों की संख्या अब से कुछ वर्ष 4600 थी। सन् 75 तक वह 11000 हो गई। रूस में ऐसे केन्द्र तो 2000 ही हैं पर उनमें गुण परक श्रेष्ठता बढ़ाने के प्रयत्न तेजी से चल रहे हैं।
पिछले दिनों जितने अणु अस्त्र बन चुके थे उनसे इस सुन्दर पृथ्वी को 24 बार ध्वस्त किया जा सकता था। पर तब से अब तक तो वह क्षमता लगातार बढ़ती ही चली आ रही है। और अनुमान लगाया जाता है कि इन अणुओं से अपनी जैसी 50 धरती एक साथ चूर्ण विचूर्ण करके आकाश में धूलि की तरह उड़ाई जा सकती हैं। विशेषज्ञ प्रो. बैरी कामनर ने कहा था—टेक्नालॉजी द्वारा प्रकृति के साथ असामान्य छेड़-छाड़ करने का वर्तमान क्रम यदि इसी तरह जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब यह धरती मनुष्यों के रहने योग्य ही नहीं रहेगी। प्रकृति आज हमारी रक्षक है पर सन्तुलन बिगड़ जाने पर वही भक्षक बन जायगी। प्रकृति पर विजय पाने की धुन में हम उसका सन्तुलन बिगाड़ते जा रहे हैं। प्रकृति की खोज करना और उसके रहस्यों से परिचित होकर लाभान्वित होना तो ठीक है पर इससे पहले हमें यह निश्चित करना चाहिए कि सन्तुलन बिगाड़ने की सीमा तक छेड़खानी न की जायगी। अविवेक पूर्ण ढंग से हवा, पानी और मिट्टी को बिगाड़ते चले जाना, इस धरती पर रहने वाले समस्त प्राणियों का जीवन संकट में डालना है।
केवल परमाणु परीक्षणों की ही बात पर विचार करें तो उसके खतरे भी कम नहीं आंके जा सकते हैं। अब तक जितने परीक्षण हो चुके हैं उनका दुष्परिणाम भी असंख्य लोगों को कितनी ही पीढ़ियों तक भुगतना पड़ेगा। यदि अणु युद्ध नहीं भी हों किन्तु परीक्षणों का वर्तमान सिलसिला इसी क्रम से चलता रहे तो भी उससे सर्वनाश की विभीषिका बढ़ती ही चली जायगी। परीक्षणों से निकलने वाले रेडियो सक्रिय तत्व मारक विष ही होते हैं।
हवा, पानी और वनस्पतियों के सहारे शरीरों में प्रवेश करते हैं और रक्तचाप, कैन्सर जैसे जटिल रोग उत्पन्न करते हैं। अणु विशेषज्ञ डा. रैल्फलाफ ने चेतावनी दी है कि मनुष्य में रेडियो सक्रियता सहने की जितनी शक्ति है उसका उल्लंघन परीक्षण की वर्तमान श्रृंखला करती चली जा रही है। अणु युद्ध की एक भयानक भूमिका तो यह परीक्षण ही करते चले जा रहे हैं। यह कदम न रुके तो हम सब बिना युद्ध के इस परीक्षण युद्ध के विनाश गर्त में गिर कर ही समाप्त हो जायेंगे। अनुमान है कि प्रत्येक अणु परीक्षण देर सवेर में 50 हजार मनुष्यों की अकाल मृत्यु का कारण बनना है। यों वह फैलती तो हजार मील तक जायगी और न्यूनाधिक मात्रा में उस क्षेत्र के निवासियों को भयानक रुग्णता में ग्रसित करेगी और वह संकट पीढ़ी-दर पीढ़ी चलेगा।
रासायनिक और जीवाणु आयुधों का विरोध भी प्रबुद्ध जनता द्वारा होता रहा है, पर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ अमेरिका के जिन विश्व विद्यालयों में जीव विषय पर खोज हो रही है। वहां के छात्र उस खोज का विरोध और बहिष्कार कर रहे हैं पोन्सिल वानिया विश्व विद्यालय के फिजीकल बायो केमिस्ट्री विभाग के 11 प्रोफेसरों ने पदवी दान समारोह में गैस मास्क पहन कर इन शोधों पर विरोध प्रदर्शन किया था 17 नोबेल पुरस्कार विजेता और विज्ञान एकादमी के 117 सदस्य इन प्रयोगों पर रोष प्रदर्शित कर चुके हैं।
संसार के प्रमुख 14 राजनीतिज्ञों, युद्ध विशारदों और वैज्ञानिकों ने एक-एक अध्याय लिखा है सभी लेख बहुत ही तथ्यपूर्ण तथा माननीय हैं। इसमें भावी युद्ध की विभीषिकाओं का विवेचन, निरूपण करते हुए निष्कर्ष निकाला गया है कि विज्ञान और युद्ध दोनों एक साथ जीवित नहीं रह सकते। दोनों में से एक को तो हर हालत में मरना ही पड़ेगा, भले ही यह फैसला तीसरे महायुद्ध के उपरान्त हो अथवा पहले।
विज्ञान की शोधें आणविक, रासायनिक तथा विषाणु आयुध जिस तेजी से बना रही हैं उसका विस्तार क्रमशः होता ही चला जायगा। आज जो निर्माण महंगा है उसी के कल सस्ता होने का रास्ता निकल आवेगा। यह घातक अस्त्र अभी थोड़े देशों के पास हैं पर अगले दिनों वे प्रायः सभी के पास हो जायेंगे। गरीब देश भी सस्ते किस्म के घातक अस्त्र बना लेंगे। उत्कृष्टता भले ही कम हो पर मरण पर्व तो वे भी रच सकेंगे। तब उन पर नियंत्रण कर सकना कठिन हो जायगा। कोई भी शिर फिरा आदमी किसी भी देश में नहीं निकलेगा ऐसी कोई गारन्टी नहीं। राजनीति और विज्ञान के क्षेत्र में घुसा हुआ एक ही सनकी व्यक्ति सारी दुनिया का सफाया करने के लिए काफी है।
क्या सत्ता धारियों के पागलपन के विरुद्ध गरीब आदमी नहीं जूझ सकता? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि आयुधों के सम्मुख खड़ा होकर लड़ने की ताकत मनुष्य में नहीं रहेगी। पर एक नई शक्ति विकसित होगी वह है—छापा मार ताकत। गरीब आदमी की इस ताकत को कोई छीन न सकेगा और इस आधार पर उच्छृंखल अहमन्यता को चुनौती दी जा सकेगी। कहा गया है कि ‘छापा मार’ आन्दोलन एक दर्शन के रूप में विकसित होगा और उसमें पीड़ित, प्रताड़ित और पददलित जनता अपने को सेना के रूप में विकसित करके लड़ना आरम्भ करेगी और अधिनायकों के प्रचार, संगठन और आक्रमणकारी तंत्रों को निरर्थक निष्फल बना देगी।