Books - विशिष्ट समय को समझें, अपनी रीति-नीति बदलें
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
विशिष्ट समय को समझें, अपनी रीति-नीति बदलें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो!
यह समय बहुत ही संकटमय है। हर जगह असुरता छाई हुई है। इस समय ताड़का, कुम्भकरण, सुबाहु- सभी अपना ताण्डव नृत्य दिखा रहे हैं। इस समय महान व्यक्तियों को महान कार्य करना है। हर युग में ऐसे व्यक्तियों ने विशेष काम किया है। बड़े आदमी ही बड़े काम कर सकते हैं। छोटे आदमी छोटे काम कर सकते हैं। बड़े काम करने के लिए आत्मा को जगाना पड़ता है, उसे गरम करना पड़ता है। छोटे आदमी बड़े काम नहीं कर सकते। हाथी जो काम कर सकता है, छोटे जीव- जन्तु उसे नहीं कर सकते। सामान्य जीव का केवल उद्देश्य होता है- पेट एवं प्रजनन, परन्तु असामान्य व्यक्ति का उद्देश्य यह नहीं होता है। यह मनुष्य, जो देवता बन सकता था, उसकी महत्त्वाकाँक्षाओं ने उसे बरबाद कर दिया। वह मकड़ी के जाल में फँस गया, मिट्टी में मिल गया। वह सारे जीवन भर केवल दो ही काम करता रहता है- एक पेट तथा दूसरा प्रजनन, परन्तु असामान्य व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता है। उसके अन्दर एक हलचल होती है, एक हूक उठती है। समय की पुकार को वह अनसुनी नहीं कर सकता, संकटों से जूझने के लिए उठ खड़ा होता है।
महर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास पहुँचे। उन्होंने कहा कि यह असामान्य समय है। इन बच्चों का यदि आप भविष्य बनाना चाहते हैं, इन्हें देवता बनाना चाहते हैं, तो इन्हें हमें सौंप दीजिए। दशरथ ने कहा- जैसा आपका आदेश। विश्वामित्र उन बच्चों को ले गये तथा शुरू से अन्त तक उन बच्चों ने असामान्य काम किया। असामान्य समय में, असामान्य व्यक्ति असामान्य काम करता है। राम तथा लक्ष्मण ने असामान्य जीवन जिया। वे सिद्धान्तवादी तथा आदर्शवादी थे। ऐसे ही व्यक्ति समाज को नयी दिशा देते हैं तथा लोग उनके बनाए रास्ते पर चलते हैं। जब आवश्यकता पड़ी, तो हनुमान् जी आ गये, सुग्रीव आ गये तथा अन्य हजारों रीछ- बन्दर आ गये। अगर रामचन्द्र जी अयोध्या में रहकर अन्य राजा- महाराजाओं जैसे मौज- मस्ती में डूबे रहते, तो कोई भी उनकी बात नहीं मानता। परन्तु उनके असामान्य व्यक्तित्व को देखकर हनुमान् जी भी प्रभावित हो गए तथा असामान्य समय में असामान्य काम- जैसे समुद्र को लाँघना, सीता की खोज करना, पर्वत उठा लाना, राम- लक्ष्मण को कंधे पर बिठाकर ले जाना आदि न जाने कितने महान कार्य कर दिखाये।
अगली पंक्ति में बैठने तथा काम करने के लिए मौका केवल असामान्य व्यक्तियों को मिलता है। वे ही असामान्य समय को पहचान पाते हैं। सामान्य आदमी को तो विशेष समय दिखाई ही नहीं पड़ता। गुरुगोविन्द सिंह जी को विशेष समय दिखाई पड़ा। वे असामान्य आदमी थे। उन्होंने देखा कि यह देश गुलामी की जंजीरों से कैसे छुटकारा पा सकता है। उन्होंने सोचा कि हर व्यक्ति अपने- अपने बच्चों को बहादुर सैनिकों की तरह बनाता और उनसे साहस का काम कराता, तो समाज में एक आदर्श उपस्थित होता। उन्होंने इस आवश्यकता को समझा और सोचा कि उसकी शुरुआत अपने आप से करनी चाहिए। पराये बच्चों को माँगने से पहले अपने बच्चों को इस काम में लगा देना उचित होगा। ऐसा सोचकर उन्होंने एक, दो, तीन, चार- इस तरह सभी बच्चों को बारी- बारी से उस आन्दोलन के लिए अर्पित कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि चार लाख आदमियों ने गुलामी की जंजीरों से मुक्ति के लिए उस आन्दोलन में अपने आपको झोंक दिया। उन्होंने दम तब लिया, जब आन्दोलन में गर्मी आ गयी।
मित्रो! आजादी का आन्दोलन कहाँ से शुरू हुआ? पंजाब से शुरू हुआ था। पंजाब के राजा रणजीत सिंह सबसे पहले राजा थे, जिन्होंने इस आजादी के आन्दोलन में अपना सहयोग सबसे पहले दिया था तथा आजादी की लड़ाई को गति प्रदान की थी। इसके बाद अन्य लोग आते गए। गुरुगोविन्द सिंह, रणजीत सिंह जैसे योद्धा धर्मतंत्र व राजतंत्र दोनों ओर से पहली पंक्ति में आगे आए। इसके बाद काम बढ़ता गया तथा उसमें लोग सहभागी बनते चले गए। इतिहास को देखते हैं, तो मालूम पड़ता है कि असामान्य समय में लोगों को कुर्बानी देनी पड़ती है। यह काम जबरदस्ती से नहीं होता है, वरन् लोगों के भीतर एक हूक पैदा होती है और लोग स्वेच्छा से अपनी कुर्बानी देते हैं। गाँधी जी ने अपने आपको अर्पित किया उसके बाद लाखों आदमी उनके साथ आ गए। ७९ आदमियों को लेकर गाँधीजी जब साबरमती आश्रम से चल पड़े और नमक आन्दोलन शुरू कर दिया, तो पीछे लाखों लोग आ गये। अगर गाँधी जी स्वयं बैठे रहते तथा दूसरों से कहते, तो शायद यह काम नहीं होता। गाँधी जी सभी आन्दोलनों में आगे रहे। गाँधी जी के जेल जाने के बाद सारे देश में आग लग गयी। स्वराज्य आन्दोलन कहाँ से शुरू हुआ? अपने आप से शुरू हुआ। आपत्तिकाल की समस्या का हल केवल अपने आप से ही सम्भव है। ऐसा साहस भरा कार्य वे असामान्य आदमी ही कर पाते हैं, जो असामान्य समय को पहचानते हैं।
मित्रो! असामान्य आदमी स्वयं आगे चलकर समाज को यह बतलाता है कि यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसके लिए कुर्बानी देना चाहिए, तो लोग आगे आकर कार्य करते हैं। ऐसा साहस असामान्य आदमी ही कर सकता है। व्यक्ति पहले इस आदमी को परखते हैं कि यह मजबूत आदमी है, सिद्धान्त का आदमी है और कसौटी पर खरा सिद्ध होने के पश्चात् उसके कहने पर आगे आते हैं। भगवान् बुद्ध के जो सबसे प्यारे शिष्य थे, सबसे पहले उनको अपना घर- बार छोड़ने के लिए निवेदन किया गया था। अगर भगवान् बुद्ध ने केवल लोगों को आशीर्वाद से धन व बच्चे दे दिए होते, तो सारे विश्व में जो धर्म- चक्र प्रवर्तन की क्रान्ति हुई, शायद वह न हुई होती।
ऋषि क्या करते थे? क्या वे माला घुमाते थे? नहीं बेटे, वे माला नहीं घुमाते थे, वरन् वे सारे दिन समाज की सेवा किया करते थे। आज तो जो सबसे घटिया काम है, उसके लिए लोग आगे आते हैं। महान कार्य करने की किसी की भावना ही नहीं है। तपस्वी, संत, ऋषि जो सबसे छोटा काम करते थे सेवा का, अगर आप भी करने लगें, तो आपके जीवन में भी चमत्कार आ जाएगा। उन्होंने व्यक्ति की, समाज की, देश और धर्म की, संस्कृति की सेवा की थी। लोगों के दुःख, तकलीफों को दूर किया था। भगवान् बुद्ध ने एशिया को ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया को बदल दिया था। वे त्याग- तपस्या की मूर्ति थे। आप नाटक का मुखौटा पहन कर हनुमान् जी नहीं बन सकते हैं। उसके लिए त्याग करना पड़ता है। ऋषियों के अन्दर सबसे महत्त्वपूर्ण एक बात होती है कि वे समय को पहचानते हैं। वे समय का परिचय प्राप्त कर अग्रिम पंक्ति में आ खड़े होते हैं तथा दूसरों को नसीहत देने से पहले अपने आपको इस योग्य बनाने का प्रयास करते हैं कि इसका प्रभाव समाज पर पड़ सके। इसके बाद ढेरों आदमी उस रास्ते पर चलना शुरू कर देते हैं।
मित्रो! इंजन जब पटरी पर चलना शुरू कर देता है, तो डिब्बे अपने आप चलना शुरू कर देते हैं। बड़े आदमी, जिनका कि व्यक्तित्व होता है, जब वे आगे चलते हैं, तो उनके सहयोगी, अनुयायी स्वयं पीछे चलने लगते हैं। रामचन्द्र जी के सबसे प्यारे हनुमान् तथा लक्ष्मण थे। उनसे उन्होंने कहा कि आपको आगे चलना चाहिए, वे चले। बुद्ध के भी जो सबसे प्रिय शिष्य थे, जब उनसे उन्होंने कहा कि आपको सबसे आगे चलना चाहिए, तो वे चले। युग निर्माण योजना की भी यही कहानी है। हमारे गुरु ने हमसे कहा कि चलना होगा और हम चले। इसके बाद लाखों लोग चलने लगे। लक्ष्मण का अनुकरण भरत ने किया। भरत का अनुसरण शत्रुघ्न ने किया। इस प्रकार रामचन्द्र जी के अनुकरण का सिलसिला चल पड़ा। सारे के सारे लोग उनके अनुयायी हो गये। इसका परिणाम यह हुआ कि सारी प्रजा चल पड़ी। इसके फलस्वरूप रामराज्य की स्थापना हो गयी।
मित्रो, दुनिया में एक ही तरीका है, जब असामान्य लोग असामान्य काम के लिए चलते हैं, तभी काम बनता है। इस दुनिया के अन्तर्गत जो छोटे- छोटे व्यक्ति थे, जिसके अन्दर प्राण था, जो जीवन्त थे, उन्होंने ही आगे कदम बढ़ाया तथा उनके पीछे लोग चले। हमें महाराणा प्रताप का जीवन दिखाई पड़ता है। महाराणा प्रताप को क्या कमी थी? उनके पास सभी चीजें थीं। वे अच्छे खाते- पीते व्यक्ति थे, पर जब उनके भीतर स्वराज्य की भावना जाग्रत हुई, उन्होंने राजपाट छोड़कर जंगल का रास्ता पकड़ लिया। वे अपने बीबी- बच्चों को कहीं भी रख देते थे। थे तो वे राजा ही, चाहते तो उनके खाने- पीने की व्यवस्था कहीं भी हो जाती, परन्तु वे बहुत तबाह हुए, जंगलों में भटकते रहे, घास की रोटी खाते रहे, लेकिन अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ा। बंदा बैरागी जैसे लोग किस तरह तबाह हुए, आप नहीं जानते हैं। उन दिनों कुछ लोगों ने अपनी लड़कियों की शादी मुगल राजाओं के साथ कर दी थी। वे अपने को राजपूत कहते थे और अपने को बड़ा राजा कहते थे। उसी जमाने में बहुत से ऐसे भी लोग थे, जो उन आक्रान्ताओं से लोहा ले लिया करते थे तथा अपने को कुर्बान तक कर देने में कोई कमी नहीं रखते थे। उन्होंने अपने सारे परिवार के लोगों को इस आग में झोंक दिया, परन्तु अपनी शान को नहीं जाने दिया। वे असामान्य लोग थे, जिन्होंने परिस्थिति को समझा तथा मुकाबला किया।
आप बहुत समझदार आदमी हैं? आप अगर समझदार नहीं होते, तो इस जमाने में जब सारी दुनिया मरने की तैयारी में बैठी है, उस समय आप लोभ, मोह, वासना, तृष्णा का जीवन जी रहे हैं। इसके साथ ही यह सोच रहे हैं कि हमें यह फायदा कैसे हो जाए, वह फायदा कैसे हो जाए? हमारे बच्चे कैसे ऑफिसर बन जाएँ, ताकि अधिक पैसा कमा सकें। इस मामले में आप बहुत समझदार आदमी हैं, परन्तु आप सिद्धान्तों से, आदर्शों से, अक्ल से समझदार नहीं हैं। आप कैसे समझदार हैं? कौए की तरह से समझदार हैं। वह हर मामले में चौकस होता है, चालाक होता है, उस्ताद होता है। उस्ताद होते हुए भी उसके हिस्से में खाने- पीने की जो चीजें होती हैं, उसको वह अपने लिए रखता है, परन्तु अन्य जीव उसे छीनकर खा लेते हैं, इसलिए वह नासमझ माना जाता है। सारे पक्षियों में बेकार माना जाता है। मित्रो, मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह विशेष समय है, इसे पहचानने की कोशिश करें। अगर आपकी आँखें हैं, तो देखें, अगर नहीं हैं, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं कुछ नहीं कहना चाहता हूँ। आप अध्यात्मवादी हैं, तो आपको कुछ करना चाहिए। आपको सिद्धि मिली है, मुक्ति मिली है, तो आपको समाज की सेवा करनी चाहिए।
आदमी को अध्यात्मवादी तब माना जा सकता है, जब वह दूसरों के दुःख- दर्द को बाँटकर उसे सुखी, प्रसन्न बनाने का प्रयत्न करे। ऐसे व्यक्ति को दूसरों के दुःख- दर्द को दूर करने के लिए बलिदान होना पड़ता है। भजन करने से कोई कुछ मिलता है? भजन करने वाले की नीयत क्या है, यह भगवान् जानना चाहता है। आप पैसा कमाने के लिए, औलाद प्राप्त करने के लिए भजन करते हैं, तो आपके इस उद्देश्य को भी वह जानता है। आप भजनानन्दी हो सकते हैं, लेकिन व्यक्तिगत लाभ के लिए भजन करने वाले अध्यात्मवादी नहीं होते हैं। ऐसे व्यक्ति से अध्यात्मवादी की उपाधि हम छीन लेते हैं, जो व्यक्तिगत लाभ के लिए भजन करते हैं। उनकी जो अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए, सिद्धि के लिए भजन करते हैं, उनको मैं अध्यात्मवादी नहीं कह सकता हूँ। उनको मैं भौतिकवादी ही कहूँगा। ऐसे लोगों को ब्रह्मवर्चस का वह ब्रह्मतेज प्राप्त नहीं हो सकता है, जो लोकसेवी, संत, ऋषियों को मिलता रहा है। अतः आपको भी अपने आपको तपाना चाहिए। जप करना चाहिए, परन्तु उस शक्ति को, उस ऊर्जा को समाज के कष्ट के, दुःख- दर्द के निवारण के लिए बाँट देना चाहिए। तभी आप संत, ऋषि कहला सकते हैं।
मित्रो, ऐसा कौन है, जो कन्या के सयानी हो जाने पर उसके लिए योग्य लड़का अर्थात् वर की तलाश न करे तथा उसकी शादी अपनी सामर्थ्य के अनुसार न करे। कोई भी व्यक्ति ऐसा निष्ठुर नहीं होता, जो अपने बच्चों के लिए कुछ न करे। हम आप लोगों को प्यार करते हैं तथा आपको हमेशा देने के लिए तैयार रहते हैं। हर सामर्थ्यवान का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह अपने से कम सामर्थ्यवान वाले व्यक्ति को प्यार दे। अगर हम एक- दूसरे को प्यार नहीं करते हैं, तो हमारा गायत्री परिवार, युग निर्माण परिवार बनाना बेकार है। हमने हमेशा प्यार बाँटा है और चाहते हैं कि आप भी प्यार बाँटें। हम एक संत हैं तथा संत परम्परा के अनुसार हमारा नैतिक दायित्व है कि हम दूसरों की सहायता करें, उन्हें ऊँचा उठाएँ, उनकी प्रगति के रास्ते खोल दें। हमें अपने समीपवर्ती लोगों, पड़ोसियों का ध्यान रखना चाहिए। अगर किसी को बुखार हो, तो हमें उसकी मदद करनी चाहिए और चिकित्सक के पास ले जाना चाहिए। मित्रो, इसी तरह हमें उस समय का भी ख्याल रखना चाहिए, जिसमें हम जी रहे हैं। उस समय में हमें आगे बढ़कर युग- समस्याओं को हल करना चाहिए।
मित्रो, यह आपत्तिकालीन समय है। मानव जाति आज संकट के एक कगार पर खड़ी है। ऐसे कगार पर खड़ी है कि उसके किनारे अगर ढह गये, तो वह औंधे मुँह सीधे खाई में चली जाएगी। तथा मनुष्य का बहुत बड़ा अहित होगा। इस प्रकार मनुष्य का भविष्य अन्धकारमय है। ऐसी विषम परिस्थिति में असामान्य मनुष्यों को शांत नहीं बैठना है। यह आपत्तिकाल है। आपको तो दिखाई नहीं पड़ रहा है, परन्तु हमें दिखाई पड़ रहा है। ऐसे व्यक्ति जिनकी आँखों में माइक्रोस्कोप फिट होता है, सूक्ष्म चीजें भी देख लेते हैं। हमें भी दिखाई पड़ रहा है कि भविष्य में अगले दिनों क्या होने वाला है। बहुत भयानक स्थिति है। मनुष्य एक ऐसे कगार पर खड़ा है, जहाँ से गिरने पर वह खाई में जा सकता है तथा विनाश की स्थिति आ सकती है। दूसरी ओर अच्छा भी हो सकता है, परन्तु इसकी सम्भावना कम है।
यह आपत्तिकालीन समय है। इस समय वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी तथा अर्थशास्त्री- तीनों मिलकर यानि विज्ञान बुद्धि और अर्थ तीनों ने मिलकर ऐसी रचना की है, जिसे रावण, कुम्भकरण एवं मेघनाद की संज्ञा दी जा सकती है। बुद्धिवाद में ऐसी जकड़न आ गयी है कि सिद्धान्तवाद, आदर्शवाद पूर्णतः समाप्त हो गया है। आज आदमी का हृदय समाप्त हो गया है। आदमी आज जानवर हो गया है। जानवर तो भी मर्यादा में रहता है, परन्तु आदमी आज नर- पिशाच होता चला जा रहा है। उसे मर्यादा का भी ध्यान नहीं है। उसकी नीयत, ईमान को खोलकर देखें, तो आपको मालूम पड़ेगा कि मनुष्य ने न जाने किसका कलेवर पहन रखा है। उसके भीतर न जाने साँप बैठा है, न जाने राक्षस बैठा है, यह पता ही नहीं चलता है। आदमी के भीतर अगर आप झाँकें, तो अन्दर बैठे राक्षस को देखकर आपको नफरत हो जाएगी। आज चारों तरफ नफरत की दुनिया दिखाई पड़ रही है। विज्ञान, बुद्धि और अर्थ- तीनों ने मिलकर शालीनता की सीता का अपहरण कर लिया है। राम- लक्ष्मण रूपी धर्म- अध्यात्म बिलखते हुए मारे- मारे फिर रहे हैं। इन तीनों ने न जाने कैसा- कैसा षड्यंत्र रच दिया है। आदमी प्यार को, आदर्श को, शालीनता को भुला बैठा है और मनुष्य कलेवर में पिशाच बन बैठा है।
साथियो, भूत- पलीत का नाम आपने सुना है न, वह भी उतनी हानि नहीं पहुँचा रहा है, क्योंकि उसके हाथ- पैर नहीं हैं। जिसके हाथ- पाँव न हों, भला वह क्या कर सकता है? वह चल- फिर नहीं सकता है, दौड़ नहीं सकता है। अतः उससे डर नहीं है, लेकिन जिन्दा आदमी का भूत इनसान को परेशान कर रहा है, क्योंकि उसके पास हाथ भी हैं, पाँव भी हैं और अक्ल भी है। उसके पास दूसरी चीजें भी हैं। उसके पास ताकत है। आदमी का भूत अगर किसी पर हावी होगा, तो जिन्न, भूत, पिशाच, राक्षस सभी एक कोने पर रखे रह जाएँगे, आदमी का भूत अगर सवार हो जाएगा, तो वह मुर्दा भूतों से ज्यादा खतरनाक साबित होगा। हो भी यही रहा है। वास्तव में आज आदमी के भीतर की शालीनता समाप्त हो गयी है। वह राक्षस एवं पिशाच बन गया है।
आज परिस्थितियाँ इस तरह बनती जा रही हैं कि आदमी मरेगा, तबाह हो जाएगा। आज जनसंख्या इस कदर बढ़ रही है कि उसका क्या कहना? अगर यह इसी हिसाब से बढ़ती रही, तो एटम बम की कोई आवश्यकता नहीं होगी। आदमी भूख से, प्यास से तड़प- तड़प कर मर जाएगा। जिस तरह बंगाल में अकाल पड़ा था और उस समय भूख से तड़प- तड़प कर हजारों लोग मर गये थे। जापान के नागासाकी शहर पर डाले गये बम से लोग तबाह हो गये थे। इसी तरह जनसंख्या बढ़ाने के फेर में आदमी लगा रहा, तो उसका विनाश सुनिश्चित है। कितने ही लोग ज्योतिषियों को हाथ दिखाते हैं और यह कहते हैं कि देखना हमारे हाथ में बेटा है या नहीं? अरे! तेरे हाथ में तो सत्यानाश लिखा है। कई लोग आकर कहते हैं कि गुरुजी मेरे औलाद नहीं है। उनसे मैं यही कहता हूँ कि बेटा, अभी तो तू भी शान्ति से रह रहा है, अन्यथा बेटा- बेटी तेरी चमड़ी नोंच डालेंगे। अरे तू समझता नहीं, अगर इसी तरह से आबादी बढ़ती रही, तो पानी की एक- एक बूँद के लिए लोग तरस जाएँगे। सड़क पर चलने के लिए रास्ता नहीं मिलेगा। आदमी परेशान हो जाएगा। आप समझते नहीं, तबाही की दुनिया आ रही है। आपत्तिकाल का समय आ रहा है। अगर किसी वैज्ञानिक के मन में खुराफात आ जाए और वह एटमी हथियारों के भण्डार में माचिस की एक तीली सुलगा दे, तो सारा विश्व जलकर तहस- नहस हो जाएगा।
मित्रो, परिवार में, खानदान में जितने अधिक सदस्य बढ़ेंगे, उतनी ही मनुष्यों को परेशानियाँ आएँगी, वह परेशान होगा। किसी आदमी के परिवार में अट्ठाइस सदस्य हैं अर्थात् २८ आदमी एक परिवार में हैं। उनमें आपस में प्रेम, सहकार है नहीं, चूहे- बिल्ली की तरह से रह रहे हैं। चूहे बिल्ली से डरते हैं, बिल्ली चूहे से डरती है। ऐसे परिवार में आदमी की स्थिति ठीक उसी प्रकार है। आज के जमाने में जिसका जितना बड़ा परिवार है, वह उतना ही अधिक अशान्त है। विदेशों में बच्चों के बड़े होते ही माँ- बाप उन्हें अलग कर देते हैं और कहते हैं कि जाओ अपनी अलग व्यवस्था बनाओ। योरोप इस मामले में सही है, जो इस डाकू को पहले से ही अलग कर देता है। उसे गले लगाने से क्या फायदा? वहाँ लोग औलाद को घर से निकाल देते हैं और कहते हैं कि चल यहाँ तेरा कोई काम नहीं है। कारण वहाँ परिवार में प्रेम- मोहब्बत सहकार नहीं है। बेटे के भीतर यह भावना नहीं है कि जब हमारा बाप बूढ़ा होगा, तो हमें उसकी सेवा करनी है, व्यवस्था बनानी है। बहिन- भाई में प्रेम नहीं है। बहिन की शादी से पहले भाई की जो बहू आती है, वह नर- पिशाचिनी यह कहती है कि हमें ६५० रुपये मिलते हैं। इसे घर से निकाल दीजिए, फिर हम दोनों होटल में खाना खाएँगे, क्लबों में डाँस करेंगे और सिनेमा देखेंगे।
यह तो योरोप की स्थिति है। अपने यहाँ भी अगर आपके पास पन्द्रह हजार रुपये हैं, तथा बच्चे हैं- पाँच तो हर एक के हिस्से में तीन हजार रुपया आते हैं। उसके लिए भी मारकाट है। उसे आप अगर एक को पढ़ाने में, गजेटेड ऑफिसर बनाने में खर्च कर देंगे, तो बाकी बच्चों के गले में क्या फाँसी लगा देंगे या मार देंगे? या फिर उसे मैट्रिक तक पढ़ाने के बाद घर से निकालिए तथा यह कहिए कि निकल घर से, अपने आप पढ़ तथा अपने पैरों पर खड़ा हो। बेटे, आज की परिस्थितियों में आपको दुश्मन से भी होशियार रहना चाहिए तथा बड़े बेटे से भी होशियार रहना चाहिए। दुश्मनी के मामले में बड़ा बेटा, जिसके लिए आपने सब कुछ दाँव पर लगा दिया, उसमें तथा साँप- बिच्छू में कोई फर्क नहीं पड़ता है। आज इस बारे में हर आदमी को यह विचार करना चाहिए कि कुटुम्ब बढ़ाने में हमें कोई फायदा नहीं है, वरन् इसके द्वारा केवल बरबादी ही बरबादी है। जापान इस मामले में काफी होशियार है। यदि वहाँ मियाँ- बीबी मिलकर नौ सौ रुपये भी कमाते हैं, तो कहते हैं कि हम दोनों सिनेमा देखेंगे, होटलों में खाएँगे, मस्ती में रहेगें। बच्चों से क्या फायदा? उन्हें पढ़ाने में, योग्य बनाने में, उनकी शादी- ब्याह करने में काफी खर्च होगा। इसके अलावा हमारी मौज- मस्ती में भी वे विघ्न डालेंगे। जापानी इस मामले में विचार करते हैं। वे चाहते हैं कि बच्चे न हों।
बेटे! यह क्या होने जा रहा है? यह संयुक्त प्रणाली का सत्यानाश होने जा रहा है। आज सामाजिक सहयोग- सहकार का वातावरण समाप्त होता जा रहा है। आदमी इतना स्वार्थी, लोभी होता जा रहा है, जिसे देखकर लगता है कि मानवजाति की सारी की सारी श्रेष्ठ परम्पराएँ नष्ट होने वाली हैं। आदमी को दुश्मनों से डर लगे या न लगे, परन्तु अपने कुटुम्बीजनों से काफी भयभीत रहता है कि न जाने वे कब किस चक्कर में डाल सकते हैं। बरबाद कर सकते हैं। आज ऐसी ही स्थिति बन रही है। बुढ़ापे में व्यक्ति फूट- फूटकर रोएगा, कलपेगा कि हाय रे! औलादों ने, सम्बन्धियों ने हमें लूट लिया, बरबाद कर दिया। मित्रो, यह जमाना आता हुआ चला जा रहा है। आदमी मरे या जिये, यह मैं नहीं कहता, परन्तु आदमी के भीतर जो आत्मीयता थी, मनुष्यता थी, वह नष्ट हो जाएगी, बढ़ती हुई जनसंख्या की वजह से, बढ़ते हुए विज्ञान की वजह से, बढ़ती हुई अक्ल की भरमार की वजह से, आदमी की स्वार्थपरता की वजह से। हम और आप ऐसे ही बुरे समय में रह रहे हैं।
अगर इसी तरह की स्थिति बढ़ती चली गयी, तो हमारा और आपका भविष्य बहुत अन्धकारमय होता चला जाएगा। राजनीतिज्ञ जिस रास्ते पर आपको ले जा रहे हैं, वह हमें अन्धकारमय लग रहा है। संत- महात्माओं की प्रवृत्ति और विचारों को देखकर तो हमें रोना आता है। उनके क्रिया- कलापों को देखकर मैं काँप जाता हूँ और सोचता हूँ, हे भगवान्! ये क्या कर रहे हैं? हम भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान्! अगर इस संसार से कोई वर्ग नष्ट होना हो, तो सबसे पहले बाबाजियों का वर्ग नष्ट होना चाहिए। आप कहेंगे कि गुरुजी आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? बेटे, यह इसलिए कह रहा हूँ कि कतिपय संत- महात्मा अपने कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों से भटक गये हैं। मनुष्य को जिस मानवता का शिक्षण उन्हें देना चाहिए था, वे उससे दूर हो गए हैं, जिसके कारण आदमी अपनी महानता के जिस बलबूते पर इस सृष्टि का मुकुटमणि बना था, वह गिरते- गिरते समाप्त होता चला जा रहा है।
गुरुजी! फिर क्या होगा? मित्रो, इस दुनिया में मक्खी- मच्छर रहते हैं, तो क्या इनसे दुनिया की कोई शान है। कीड़े- मकोड़े टिड्डी, खटमल भी दुनिया में रहते हैं, पर उनसे कुछ लाभ है क्या? मैं नहीं जानता कि क्या लाभ है, लेकिन अगर आदमी भी इसी प्रकार से ज्यादा पैदा होंगे, तो निश्चय ही दुनिया में तबाही आयेगी। लोग परेशान होंगे। आज जो दुनिया में मनुष्यता समाप्त हो रही है, आदमी के अन्दर जो श्रेष्ठ माद्दा था, जो महानता थी, आदमी के भीतर जो देवत्व था, आज वह समाप्त होता चला जा रहा है। आदमी के भीतर जो भगवान् बैठा था वह धूमिल होता चला जा रहा है। भगवान् माने आदर्श, आदर्श माने श्रेष्ठ विचार। मित्रो, हमें जिस भगवान् की आवश्यकता है, जो हमें ऊँचा उठाता है, उसका नाम है- सिद्धांत आदर्श। उसका नाम है- मानवी गरिमा, जो समाप्त होती चली जा रही है। ऐसे अंधकार को देखकर हमें दुःख होता है कि इसी प्रकार की यदि स्थिति रही, तो आगे आदमी, आदमी की जान का ग्राहक बन जायेगा। उसके जीवन में तबाही आएगी।
मित्रो! उस समय आदमी- आदमी का खून पियेगा। आदमी- आदमी का माँस खायेगा। आदमी- आदमी को गिरायेगा। आदमी- आदमी को दुःख देगा, परेशान करेगा। आदमी, आदमी का प्राण पियेगा। मर्द औरत का प्राण पियेगा और औरत, मर्द का। भाई, भाई का प्राण पियेगा। भाई, बहिन का प्राण पियेगा। बेटा, बाप का और बाप, बेटे का प्राण पियेगा। साथ रहकर भी लोग एक- दूसरे का प्राण पियेंगे। यह आपत्तिकाल का सपना, जो हमने आपको दिखाया है, वह गलत नहीं है। इस समय पैसा, अक्ल, रोटी बढ़ेगी, परंतु यही अक्ल, पैसा और रोटी अपने को खाएगी। इंसान परेशान हो जायेगा। अगले दिनों विश्वविद्यालय बहुत बनने वाले हैं, कारखाने बहुत बनने वाले हैं, परंतु हम आपको सावधान कर रहे हैं कि आने वाले समय में हर चीज की कीमत बढ़ने वाली है। हर चीज हमें मुश्किल से प्राप्त होगी। लोहे जैसी चीज का भी मूल्य बढ़ने वाला है। लोहे का मूल्य सोने के बराबर होगा। मुसीबत ही मुसीबत आने वाली है, यदि अभी से हम सचेत नहीं हुए तो।
इस आपत्तिकालीन समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है, आदमी का आध्यात्मिकता से जुड़ना। आध्यात्मिक पारस से जो जुड़े हैं, वे पारस बन गये। विवेकानन्द, दयानंद पारस बन गये। लोहे को पारस से छुलाने पर वह सोना बनता है, कहा नहीं जा सकता, परंतु यह एक सच्चाई है कि आध्यात्मिक पारस से जुड़ने पर ही लोहे जैसा व्यक्ति यानि प्राणवान, तेजवान, गुणवान, समृद्धिवान बन जाता है। उनकी अक्ल, आदर्श, सिद्धान्त महान होते हैं। वे श्रेष्ठ व महान बन जाते हैं।
मित्रो, अमृत के बारे में हमें यह पता नहीं कि कोई मरने के समय पी ले, तो वह बच सकता है। ऐसा तो हमने सुना नहीं है। यदि ऐसा अमृत हुआ होता, तो रामचंद्र जी को मरने की आवश्यकता नहीं पड़ती। नरसिंह भगवान् को मरने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बहुत सारे भगवान् हुए थे, उनको भी मरने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए मैं सोचता हूँ कि ऐसा अमृत कोई नहीं है। नहीं महाराज जी, शास्त्रों में, पुराणों में अमृत के बारे में बहुत लिखा है। बेटे, उसी के बारे में मैं कह रहा हूँ, जिसे पीकर लोग अजर- अमर हो जाते हैं- जैसे राजा हरिश्चंद्र। गाँधीजी ने एक ड्रामा देखा और वे हरिश्चंद्र हो गए। गाँधी जी मर गये? नहीं बेटे, गाँधी जी कैसे मर सकते हैं। ईसामसीह मर गये? नहीं बेटे, वे कैसे मर सकते हैं। भगवान् बुद्ध मर गये? नहीं, वे नहीं मरे। वे अमर हो गये। कैसे व्यक्ति अमर होते हैं? ऐसे व्यक्ति जिनके अंदर शालीनता पैदा हो जाती है। आदर्श और सिद्धान्त जिनके रोम- रोम में समा जाता है, वही व्यक्ति अमर हो जाते हैं।
आदमी के अंदर अगर शालीनता न हो, तो वह नर- पिशाच बन जाता है। जिस आदमी के मुँह से पिशाच अट्टहास करता हुआ चला जाता है, अगर उसे उसी तरह बढ़ने दिया जाये, तो वह बहुत खतरनाक हो सकता है। आज मनुष्य ने न जाने क्या- क्या बना लिया है। पहले हवाई जहाज ६०० कि.मी. प्रति घण्टे की रफ्तार से उड़ता था। आदमी ने इस दूरी को समाप्त कर दिया है। चंद्रमा पर जो राकेट भेजा गया था, उसकी गति छह हजार से सात हजार मील थी। वह सारी पृथ्वी पर ढाई घंटे में घूम जाता है। आज तो हर चीज की चाल तेज हो रही है। विनाश की भी चाल तेज हो रही है।
यह समय आपत्तिकाल का है, जो एक ओर सुंदर सपने सँजोये हुए है, तो दूसरी तरफ विनाश की लीला भी। मुँह बाएँ खड़ी दिखाई पड़ रही है। आप दोनों के बीच में खड़े हैं। आपको यह दिखाई नहीं पड़ता है। आप कौन हैं? आप जाग्रत आत्मा हैं। हमने जो हार युगदेवता के लिए बनाया है, वह भगवान् के इस बगीचे से अच्छे से अच्छे फूलों को लेकर बनाया है, ताकि अच्छी से अच्छी माला युगदेवता के चरणों में चढ़ाई जा सके। आपको हमने बड़ी मुश्किल से ढूँढ़ा है। आपने ढूँढ़ा है हमें? नहीं बेटे, हमने आपको ढूँढ़ा है। हमने अच्छे- अच्छे रत्नों को ढूँढ़ा है। हमने अखण्ड- ज्योति आपके पास भेजी थी। आपने मँगायी थी? नहीं, हमने भेजी थी। बेटे, जिस तरह राम- लक्ष्मण को लेने विश्वामित्र दशरथ के पास गये थे, वैसे ही हमने आपके बाप के पास जाकर आपको ढूँढ़ा है। आप समझते नहीं हैं कि हमने कैसे आपको ढूँढ़ा है। रामकृष्ण परमहंस विवेकानन्द के पास गये थे? वे कहते थे कि तू क्या करेगा- नौकरी करेगा? अरे हमारा काम हर्ज हो रहा है और तू नौकरी के फेर में पड़ा है। हम लोगों को मुक्त करने आये हैं। हमारा काम अलग है। हमारा ‘जीव’ अलग है। हम देश, समाज, राष्ट्र को दिशा देने आये हैं। तू नौकरी करने के लिए नहीं पैदा हुआ है। उनको रामकृष्ण परमहंस ने मजबूर किया और वे चल पड़े।
बेटे, तू भी नहीं समझ रहा है। हम भी तुझे मजबूर कर रहे हैं। हमारे पास तू आता रहता है, परन्तु मनोकामनाएँ लेकर आता है। अगर ऊँची तमन्ना लेकर आया होगा, तो तू धन्य हो जाता। हम जब अपने गुरु के पास जाते हैं, तो हमारी तमन्नाएँ ऊँची रहती हैं तथा हम महान् बन जाते हैं। वहाँ से हम महान् बनकर आते हैं। हम उनसे कहते रहते हैं कि गुरुदेव हमारा जीवन कुछ और होना चाहिए। हमारे ब्राह्मण तथा संत जीवन में कुछ कमी रह गयी है। उसमें कुछ और प्रखरता, तेजस्विता आनी चाहिए। तलवार पर धार दी जाती है, तो वह ज्यादा मूल्यवान बन जाती है। हम चाहते हैं कि हमारे ब्राह्मण तथा संत के जीवन में भी कुछ धार आवे, ताकि हम और काम कर सकें। जब कभी हिमालय जाता हूँ, तो हमारे और हमारे गुरु के बीच बातचीत होती है, लड़ाई- झगड़ा होता है। हम केवल एक ही बात कहते हैं कि हमारे भीतर कसक है, जान है, दम है। गुरुवर हमसे आप और अधिक काम कराइए, काम लीजिए। हमारी धार को तेज कर दीजिए, ताकि हम अधिक काम कर सकें। समाज की सेवा कर सकें। यही हम दोनों में लड़ाई- झगड़ा होता रहता है। वे कहते हैं कि तू तो बच्चा है और हम कहते हैं कि हम बच्चे नहीं बड़े हैं, आप हमें लड़ाई में भेजिए, फिर देखिए कि हम अपनी पैनी तलवार से क्या करके आते हैं।
परन्तु हमें दुःख है कि आपकी और हमारी लड़ाई कुछ घटिया किस्म की होती है। मैं आपको यह बतलाना नहीं चाहता, किन्तु हम जब आपके ख्यालों को, ख्वाबों को पढ़ते हैं तथा देखते हैं, तो हमारा अन्तःकरण रो पड़ता है। तब हम यह चाहते हैं कि आपकी सहायता करनी चाहिए। मित्रो, मुझे आदमी की सहायता करनी चाहिए, परन्तु आप जब सहायता माँगते हैं, तो हमें दुःख होता है। अब आप बड़े हो गये हैं, तो आपको यह कहना चाहिए कि पिताजी! हम आपकी सहायता करेंगे, परन्तु आप कहते हैं कि पिताजी हम बच्चे हैं, आप हमारी सहायता कीजिए। अभी आप दो सौ मन लेकर चल रहे थे, अब हमारा भी ढाई सौ मन वजन ले लीजिए। ठीक है बेटे, हम तो लेकर चल देंगे। हम तो देश, समाज, राष्ट्र, धर्म, संस्कृति का वजन लेकर चल रहे हैं, तेरा भी लेकर चलेंगे। हमारे अन्दर क्षमता है कि इतना वजन लेकर चल सकें, परन्तु बेटे, इससे बनता क्या है? क्या आपको संतोष हो जाएगा?
मित्रो, इस शिविर में आप को बुलाने के पीछे हमारा विशेष उद्देश्य सन्निहित था। आप कहते हैं कि हमें कुण्डलिनी जागरण सिखा दीजिए, ब्रह्मवर्चस साधना सिखा दीजिए। बेटे यह मत कह, बल्कि यह कह कि हमें बाजीगरी सिखा दीजिए। मित्रो, बाजीगरी में व्यक्तित्व- निर्माण की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। केवल बाहरी क्रियाकलापों से, आडम्बरों से वह पूरी हो जाती है। किसान को मेहनत करनी पड़ती है, पसीना बहाना पड़ता है, तब फसल मिलती है, लेकिन बाजीगर बिना किसी मेहनत के केवल जमीन पर से मिट्टी उठाता है तथा हाथों की हेरा- फेरी करके पैसा कमा लेता है। इससे क्या मतलब है? हम अच्छी तरह से जानते हैं कि पूजा से, भजन से, सिद्धियों से तेरा क्या मकसद है। यह मैं सब अच्छी तरह जानता हूँ। तू जो देखना चाहता है, वह तो मैं इसी तरह दिखा सकता हूँ। आपको पाने की लालसा कम है, सो दिखाने से काम चल सकता है। आप लोग सिद्धियों के नाम पर जो पाना चाहते हैं, उन चीजों को मैं दिखा दूँ, तो आपको संतोष हो जाएगा। वह चीजें जो आपको मिलेंगी, तो आप बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे। आप छोड़कर भाग जाएँगे।
साथियो, अगर असली भगवान् आपको दिखा दूँ एवं असली भगवान् से साक्षात्कार करा दूँ, तो नारदजी की तरह से आपको अविवाहित रहकर काम करना पड़ेगा। बुद्ध की तरह से बीबी- बच्चों को छोड़कर जाना पड़ेगा। ऐसा भगवान् आपको दिखा दूँ, जो बुद्ध की तरीके से हाथ घसीटते हुए ले जाएँ। शंकराचार्य की तरह माँ को छोड़कर ले जाएँ। ऐसा भगवान् दिखा दूँ जो चाणक्य की तरह से वनवास में रहने के लिए मजबूर कर दे। ऐसा भगवान् आपको दिखा दूँ, जो समर्थ गुरु रामदास की तरह से हाथ पकड़ कर खींचता हुआ चला जाए। आप कहेंगे कि ऐसा भगवान् हमें नहीं चाहिए। गोली मारिए ऐसे भगवान् को, हमें तो तमाशा वाला भगवान् चाहिए जो हनुमान् बनकर दिख जाए, प्रकाश बनकर दिख जाए। अच्छा तो बच्चों के भगवान् चाहिए आपको। आपको मैस्मेरिज्म चाहिए।
गुरुजी! आपको समाधि लगाना आता है। हाँ बेटे, आता है और तेरी भी समाधि लगा देंगे तथा पाँच मिनट में ध्यान लगा देंगे, ऐसा मैजिक हमें आता है। हम तुझे दिखा सकते हैं। हिप्नोटिज्म करके हम तुमको न जाने क्या- क्या दिखा देंगे, तू कहेगा कि हमें खजाने दिखा दीजिए, तो दिखा देंगे। तू कहेगा कि हमें सोने से भरा हुआ एक टोकरा दिखा दीजिये, तो हम तुझे दिखा देंगे। सोने की तिजोरी हमें दिला दीजिए, तो दिला देंगे। क्यों महाराज जी! वह हमारे पास रहेगा कि नहीं? नहीं बेटे, जब तक तू हमारे कब्जे में है, तब तक तो रहेगा, उसके बाद वह नहीं रहेगा। जब तक हमारा असर रहेगा, वह भी रहेगा। इसका क्या मतलब है महाराज? यही मतलब है कि बच्चों जैसा बचकाना मनोरंजन हो जाएगा, बाकी कुछ नहीं। वह तबियत बहलाने का केवल माध्यम होगा। अध्यात्म से इसका कुछ भी लेना- देना नहीं है।
साथियो, मेरा उद्देश्य यह है कि जो असली ब्रह्मवर्चस् का स्रोत है, उसे आप जानें। हमने इसलिए आपको बुलाया है कि यह विशेष समय है तथा आप महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं, इसलिए आपको बताने के लिए बुलाया है। हमारे गुरु ने भी हमें दिखा दिया था कि हम विशेष व्यक्ति हैं, जाग्रत् आत्मा हैं। उन्होंने कहा कि तुम साधारण आदमी नहीं हो, तुझे असाधारण कार्य करना है। हमने यह महसूस कर लिया है कि हम एक साधारण आदमी की तरह नहीं रह सकते हैं। हमने घरवालों को कह दिया था कि हमने आपके यहाँ जन्म अवश्य ले लिया, लेकिन मैं आपकी बिरादरी का नहीं हूँ तथा आपकी तरह नहीं रह सकता। हमारा काम दूसरा है। आपकी समझ एवं सलाह के मुताबिक़ मैं नहीं चल सकता। हमें अपनी समझ के मुताबिक़ चलना होगा, हमारे रास्ते अलग होंगे। अपनी अक्ल के मुताबिक़ चलना ही सम्भव हो सकेगा। मैं चाहता था कि ऐसा सौभाग्य आपको भी मिल जाता। काश! मैं भी आपको दिखा पाता कि आप कौन हैं? आप एक सामान्य आदमी नहीं हैं, वरन् असामान्य आदमी हैं। मैं चाहता था कि इस युगपरिवर्तन की संधिवेला में आप भी महत्त्वपूर्ण काम कर सके होते, तो मजा आ जाता।
मेरे गुरु जितने सामर्थ्यवान हैं, उतना तो मैं नहीं हूँ। उन्होंने हमारे पिछले जन्मों को दिखा दिया था, लेकिन हम तो नहीं दिखा सकते कि आप पिछले जन्मों में क्या थे। आप जिस हैसियत का जीवन जी रहे हैं, वह आपके मुताबिक़ नहीं है, यह हम जरूर बता सकते हैं। आपकी महत्त्वाकाँक्षाएँ व्यक्तिगत जीवन के लिए नहीं होनी चाहिए। अगर कहीं रेलगाड़ी का एक्सीडेंट हो जाए तथा हजारों लोग कराह रहे हो, तो डॉक्टरों का यह कहना मुनासिब नहीं होगा कि हम सो रहे हैं तथा हमें समय नहीं है। आपको उन घायलों के लिए एक रात जागना चाहिए। एक रात जागने से आप मर नहीं सकते हैं। आपको इस जिम्मेदारी को समझना चाहिए तथा इसके लिए काम करना चाहिए।
मित्रो, हम आपसे यही कह रहे हैं कि आपके महत्त्वपूर्ण जीवन के एक- एक दिन यों ही समाप्त होते जा रहे हैं। उसमें कुसंस्कार भरते जा रहे हैं। आपको यह समझना चाहिए तथा बचे हुए जीवन को समाज के लिए अर्पित करना चाहिए। लोग सोचते हैं कि बुढ़ापे में काम करेंगे, पर यह संभव नहीं है। उस समय कुसंस्कार कुछ करने नहीं देते। हम बार- बार यही कह रहे हैं कि यह विशेष समय है। इसमें आपको कुछ करना है। हमने शिविर में आपको इसी उद्देश्य से बुलाया है। अगर आप समझ सकें, तो आपका जीवन धन्य हो जायेगा। अगर आनाकानी करते रहे, तो फिर मैं क्या कर सकता हूँ। विवेकानन्द इसी प्रकार आनाकानी कर रहे थे, तब रामकृष्ण परमहंस ने उनके कंधे पर अपना पैर रखा। विवेकानन्द चकमका गये। रामकृष्ण ने कहा कि अब हम मरने जा रहे हैं। हमने तुम्हें अपना सारा तप दे दिया है। अब तुम्हें तप करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी शक्ति आज भी विद्यमान है, जो आपको प्राप्त हो सकती है। पर आपको तो बाजीगरी पसंद है। आप मिट्टी से सोना बनाना चाहते हैं। ब्रह्मवर्चस् की साधना से गलना नहीं चाहते, तो हम क्या करें।
हमारे गुरुजी ने हमें बुलाया एवं शक्ति प्रदान की। हमने भी आपको एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य हेतु यहाँ शिविर में बुलाया, ताकि आप आपत्तिकाल के समय को समझ सकें और आगे आकर कुछ करने को तैयार हो जाते, तो यह शिविर धन्य हो जाता और आप भी धन्य बन जाते। हनुमान् जी ने रामचंद्र जी के लिए अपने आपको झोंका, तो वे सारी की सारी चीजें जो एक संत, तपस्वी को मिलनी चाहिए, वह हनुमान् जी को प्राप्त हो गयीं। हमारे बारे में भी यही बात है। हमने कितना तप किया, यह आप नहीं जानते हैं। हम चार घंटे केवल दूसरे काम में खर्च करते हैं, बाकी समय भगवान् के कार्य में खर्च करते हैं। हमने अपने आपको एक समर्थ सत्ता के साथ जोड़ दिया है। हम उनका काम करते हैं और वे हमारा काम करते हैं। हम दोनों आपस में गुँथे हुए हैं। मैं चाहता था कि हमारा और आपका संबंध भी हमारे गुरु की तरह होना चाहिए। आजकल हम जब साधना करते हैं, तो गुरु का चित्र हमारे सामने होता है। हम चाहते हैं कि हम दोनों घुल- मिल जाएँ। हम भजन तो नहीं करते हैं, परंतु हमारा मन केवल एक ही भजन में रमता है और वह है हम और हमारा गुरु। हम चाहते थे कि आप और हम भी उसी तरह घुल- मिल जाते, तो कितना अच्छा होता। बिजली के निगेटिव और पॉजिटिव तार जब एक हो जाते हैं, तो विद्युत आ जाती है- शक्ति आ जाती है। दोस्ती के बिना आदान- प्रदान की परम्परा कैसे शुरू हो जायेगी? गुरु- शिष्य के प्रेम के बिना आदान- प्रदान कैसे शुरू हो जायेगा? मैं यह चाहता था कि इस शिविर के अंत तक आप एवं हम जरा नजदीक आ जाते तथा आपस में घुल- मिल जाते, तो मजा आ जाता।
मित्रो, हमारा एवं हमारे गुरु का मिलना बड़ा ही महत्त्वपूर्ण रहा। हमारे गुरु की आकांक्षा कामना जो भी हमारे प्रति रही होगी, हमने उसे पूरा करने का पूरा- पूरा प्रयास किया है। जब हम उन दोनों दिनों की अर्थात् गुरु से जुड़ने से पूर्व एवं बाद के दिनों की समीक्षा करते हैं और देखते हैं, तो पाते हैं कि गुरु के आदेश पर जो जीवन हमने जीने का प्रयास किया है, वह ज्यादा फायदेमन्द रहा है, लाभ का रहा है। अंधे- लँगड़े की जोड़ी का अपना महत्त्व है। अंधे ने चलकर तथा लँगड़े ने देखकर सारे का सारा काम पूरा किया है। अंधे ने रास्ता तय किया तथा लँगड़े ने रास्ता दिखाया। मित्रो, आप एवं हम मिलकर अगर इस प्रकार कर पाते, तो कितना अच्छा होता। हम आपका सहयोग करते और आप हमारा सहयोग करते, तो मजा आ जाता। आप तो यह कहते हैं कि गुरुजी आप ही हमारा सहयोग कीजिए। बेटे, यही बात आपके काम की नहीं है। हम आपको आशीर्वाद दें, परंतु आप कुछ न दें, तो फिर आपका काम नहीं चलेगा। किसी का रक्त किसी दूसरे के शरीर में लगा दिया जाये, तो वह उस शरीर में केवल तीन दिन तक ही काम देता है। तीन दिन में ग्रहिता के शरीर का सिस्टम काम करने लगता है और वह व्यक्ति अपना काम कर लेता है। आपका सिस्टम जब तक काम नहीं करेगा, हमारा आशीर्वाद काम नहीं करेगा। आप समझते नहीं हैं? दूसरे का आशीर्वाद एवं वरदान आपकी सामयिक आवश्यकताएँ तो पूरी कर सकता हैं, परंतु आगे केवल आपका पुरुषार्थ, श्रम ही काम करेगा।
इस शिविर में पुनर्गठन के अंतर्गत हमने आपको एक योजना दी है। आप कहेंगे कि गुरुदेव क्या इसके बिना काम नहीं चलेगा? साथियो, आप समझते नहीं हैं कि इन दिनों हिन्दुस्तान के सामने बहुत सी समस्यायें हैं। असम की समस्या है, जो अरबों- खरबों रुपये से भी हल नहीं हो सकती। बंगलादेश की समस्या इतना विकराल रूप ले चुकी थी कि रुपयों से इसका हल नहीं हो सकता था। हमने उस समस्या का हल अध्यात्म- शक्तियों के द्वारा निकालने का सोचा है। आध्यात्मिक शक्तियाँ ही आड़े समय में कारगर सिद्ध होती हैं। यही शक्तियाँ मनुष्य को बदलने जा रही हैं, युग को बदलने जा रही हैं। हम स्पष्ट रूप से देख रहे हैं कि युगद्रष्टा अपनी कलाकृति को, अपनी इस सुंदर दुनिया को नष्ट नहीं होने देगा। ऐसा समय इस सृष्टि पर बीसों बार आ चुका है। जब भगवान् यानि स्रष्टा तथा जीवन्त आत्माओं ने सहयोग करके इस कार्य को पूरा किया है। आज भी वैसी ही स्थिति है, जिसमें आप जैसे मूर्धन्य आत्माओं को इस प्रकार का काम करना है।
स्रष्टा अपने द्वारा हमेशा सृजन करता है। कहा गया है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
ऐसी परिस्थितियों में उस समय स्रष्टा तो अपना काम करता ही है, परन्तु वैसी संकटकालीन स्थिति में उनके सहयोगियों को भी काम करना पड़ता है। बड़े- बड़े जो काम होते हैं, युग परिवर्तन जो होता है, महाक्रान्तियाँ जो होती हैं, वह भगवान् की इच्छा तथा शक्ति से होती हैं। हमें तथा आपको तो केवल निमित्त मात्र बनना है। अगर आप श्रेय लेने की स्थिति में हों, इस जमाने का महत्त्वपूर्ण कार्य करने की स्थिति में हों, तो हमारा एक ही निवेदन है कि आप हमारे साथ- साथ चलें, हमारे साथ आएँ। आपको घाटा नहीं पड़ेगा। चिन्ता मत कीजिए, यह घाटे का कोई सौदा नहीं है। मित्रो, कृपणता के अलावा कोई घाटे की बात नहीं होगी। यदि इस क्षुद्रता को आप लोग छोड़ दें, तो फायदा ही फायदा है। मैं आपके भविष्य की गारण्टी ले सकता हूँ, लेकिन आपकी क्षुद्रता एवं कृपणता की गारण्टी नहीं ले सकता। इसे छोड़ने की एवज में जो महानता तथा दूसरी चीजें मिलेंगी, वह बड़े ही फायदे की होंगी।
इस शिविर में हमने आपको इसीलिए बुलाया था और बार- बार पूछा था कि क्या ऐसा करना सम्भव है? मैं जानता हूँ कि आपके पास अक्ल बहुत ज्यादा है, परन्तु क्या आप हिम्मत कर सकते हैं? हम तो चाहते हैं कि आपकी अक्ल कम हो जाए, आपकी महत्त्वाकाँक्षाएँ कम हो जाएँ तथा आपकी भावना एवं अन्तरात्मा विकसित हो, तो काम बन जाएगा। इसलिए आपको बुलाया था और आज विदा कर रहे हैं। आप हमारे आदर्श और सिद्धान्त यहाँ से ले जाएँ तथा अपने चिन्तन, चरित्र को नये युग के निर्माण में लगा दें। मैं चाहता हूँ कि आपके सोचने के तरीके बदल जाएँ। आप नये युग के अनुरूप ढलते चले जाएँ। अभी तो आपने अपना सारा का सारा समय भौतिक आवश्यकताओं के लिए लगाया है। आपने तो जीवन केवल अपने लिए जिया है। आपने पूजा की है, लेकिन अगर आपने वास्तव में पूजा के स्थान पर भजन किया होता, सेवा- साधना की होती, तो आपकी आँखों के अन्दर से एक तेज दिखाई पड़ता। आपकी निगाहों के सामने जो भी आते, बदलते हुए चले जाते, परन्तु आपने कभी भी इस तरह का प्रयास नहीं किया। नये युग के लिए अगर आप अपने चिन्तन, भावना, चरित्र को लगा देते, तो आप तथा हम दोनों महान् हो जाते। जैसे कि हमारे गुरु और हम हो गए। पूजा तो पुजारी करता है और वह भी नौकरी के लिए, धन के लिए, औलाद के लिए करता है। यही कारण है कि किसी पुजारी के पास भगवान् नहीं जाता। यदि आप भी इसी तरह पुजारी हैं, तो आपके भी भगवान् एक लाख कोस दूर हैं।
मित्रो, हम आपसे यह निवेदन कर रहे थे कि आपकी पूजा यहाँ से जाने के बाद ऐसी चमके कि आपकी महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति करने की माँगने की बात समाप्त हो जाए और आप निरन्तर भगवान् के लिए गलने की बात सोचने लगें। इसी उद्देश्य से आपको यहाँ बुलाया था। हम चाहते हैं कि समाज में एक- दूसरे से प्रेम करने की पद्धति आप प्रारम्भ करें। आप पति- पत्नी आपस में प्रेम करें। अभी तो आपका प्रेम बिल्ली- चूहे की तरह है, राक्षसों की तरह है। आपको अपने साथी को- सहधर्मिणी को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने, तरक्की की ओर ले जाने की भावना आए। हम चाहते थे कि आप यहाँ से भगवान् को गोद लेकर जाएँ। आपके तीन बेटे हैं, तो आज से चार बच्चे मान लें। अगर बच्चे को फीस देते हैं, भोजन कराते हैं, तो भगवान् को केवल अक्षत, फूल न चढ़ाएँ, उनके लिए भी त्याग करें। देश, समाज, धर्म, संस्कृति के लिए आप अपने प्यार, अक्ल, भावना, श्रम, पैसे का एक हिस्सा यानि अंशदान देना चाहिए। हमने आपको अपने कुटुम्ब में सम्मिलित होते समय अंशदान, समयदान की बातें बतलायी थीं। हम चाहते है कि आपको फूल, अगरबत्ती चढ़ाने की अपेक्षा आदर्शों के लिए- सिद्धान्तों के लिए अंशदान देना चाहिए।
साथियों, आप यहाँ से जाएँ, तो एक नमूना बनकर जाएँ, ताकि समाज में आपका प्रभाव पड़े। आप जब लोगों को सिखाने जाएँगे, तो लोग यह पूछेंगे कि आप तो हमें प्यार, त्याग, श्रम, सेवा की बात बतला रहे हैं, पर क्या आपने इसमें से कुछ ग्रहण किया है? अपने आप में धारण किया है? इसका जवाब दे देंगे, तो आपकी बात लाखों- करोड़ों आदमी मानेंगे। हमने जो लोगों को सिखाया है, बताया है, पहले उसे हमने अपने जीवन में धारण किया है। इसी का प्रभाव है कि लोग हमारी बातें मानते हैं। आप शिकायत करते हैं कि गुरुजी शाखा वाला ठण्डा पड़ गया है। बेटे, तू अपने आपको गरम कर ले, सब तेरी बातों को मानेंगे तथा तेरे रास्ते पर चलेंगे। हम आपको युग- सृजेता प्रज्ञापुत्र के रूप में, जाग्रत आत्मा, महामानव के रूप में देखना चाहते हैं। आप यहाँ से जाने के बाद अपनी वाणी के अन्दर ब्रह्मतेज पैदा करें। आप सभ्य आदमी की तरह से जीवन यापन करें। आप वकील हैं, तो आपको काले कपड़े पहनकर कार्य तो करना चाहिए, पर हृदय के अंतरंग की मिठास को भी विकसित करना चाहिए। आप को अपनी वाणी का, व्यवहार का, सभ्यता का विकास करना चाहिए।
आप यहाँ से जाएँ, तो कुछ लेकर जाएँ। आप यहाँ आते हैं, तो कुछ लेकर जाएँ, बनकर जाएँ। हमारे पास जो लोग आते हैं और आपके बारे में पूछते हैं, तो उनको हम क्या जवाब देंगे। आपके अन्दर संयमशीलता, विनम्रता, सहिष्णुता आनी ही चाहिए। आपको जो कुछ भी मिला है, उसे केवल शरीर के लिए न खर्च करे, भगवान् के लिए भी खर्च करना चाहिए। आप माँ- बाप से चार आना कब तक माँगते रहेंगे। भगवान् से माँगने की अपेक्षा भगवान् को देने के लिए आगे आना चाहिए। गुरुजी से माँगने की अपेक्षा गुरुजी को देने के लिए आगे आना चाहिए। आपके कुर्ते के ऊपर तथा अंतःकरण में ज्ञान यज्ञ की लाल मशाल जलनी चाहिए, ताकि भीतर का अंधकार दूर हो सके। हमारे स्वार्थ में से कुछ परमार्थ के लिए उपयोग होना चाहिए। आप थोड़ा- सा हिस्सा लोकहित के लिए, जनकल्याण के लिए, आदर्शों के लिए निकालिए।
मित्रो, हमने इसीलिए यह शिविर बुलाया था। यह विशेष समय है, विशेष काल है, यह बतलाने के लिए आपको बुलाया था। पेट भरने और औलाद पैदा करने की समस्या तो जब से दुनिया बनी है, तब से रही है और रहेगी। यदि आप भी इसी में लगे रहें, तो यह जीवन बेकार हो जाएगा। उठिए, जागिए और श्रेष्ठ कामों के लिए तनकर खड़े हो जाइए। इसी अध्यात्म को बतलाने के लिए हमने आपको बुलाया था, अगर आप समझ सकें, तो हमारा यह श्रम सार्थक हो जाएगा और आप भी धन्य हो जाएँगे।
आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शान्ति॥
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो!
यह समय बहुत ही संकटमय है। हर जगह असुरता छाई हुई है। इस समय ताड़का, कुम्भकरण, सुबाहु- सभी अपना ताण्डव नृत्य दिखा रहे हैं। इस समय महान व्यक्तियों को महान कार्य करना है। हर युग में ऐसे व्यक्तियों ने विशेष काम किया है। बड़े आदमी ही बड़े काम कर सकते हैं। छोटे आदमी छोटे काम कर सकते हैं। बड़े काम करने के लिए आत्मा को जगाना पड़ता है, उसे गरम करना पड़ता है। छोटे आदमी बड़े काम नहीं कर सकते। हाथी जो काम कर सकता है, छोटे जीव- जन्तु उसे नहीं कर सकते। सामान्य जीव का केवल उद्देश्य होता है- पेट एवं प्रजनन, परन्तु असामान्य व्यक्ति का उद्देश्य यह नहीं होता है। यह मनुष्य, जो देवता बन सकता था, उसकी महत्त्वाकाँक्षाओं ने उसे बरबाद कर दिया। वह मकड़ी के जाल में फँस गया, मिट्टी में मिल गया। वह सारे जीवन भर केवल दो ही काम करता रहता है- एक पेट तथा दूसरा प्रजनन, परन्तु असामान्य व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता है। उसके अन्दर एक हलचल होती है, एक हूक उठती है। समय की पुकार को वह अनसुनी नहीं कर सकता, संकटों से जूझने के लिए उठ खड़ा होता है।
महर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास पहुँचे। उन्होंने कहा कि यह असामान्य समय है। इन बच्चों का यदि आप भविष्य बनाना चाहते हैं, इन्हें देवता बनाना चाहते हैं, तो इन्हें हमें सौंप दीजिए। दशरथ ने कहा- जैसा आपका आदेश। विश्वामित्र उन बच्चों को ले गये तथा शुरू से अन्त तक उन बच्चों ने असामान्य काम किया। असामान्य समय में, असामान्य व्यक्ति असामान्य काम करता है। राम तथा लक्ष्मण ने असामान्य जीवन जिया। वे सिद्धान्तवादी तथा आदर्शवादी थे। ऐसे ही व्यक्ति समाज को नयी दिशा देते हैं तथा लोग उनके बनाए रास्ते पर चलते हैं। जब आवश्यकता पड़ी, तो हनुमान् जी आ गये, सुग्रीव आ गये तथा अन्य हजारों रीछ- बन्दर आ गये। अगर रामचन्द्र जी अयोध्या में रहकर अन्य राजा- महाराजाओं जैसे मौज- मस्ती में डूबे रहते, तो कोई भी उनकी बात नहीं मानता। परन्तु उनके असामान्य व्यक्तित्व को देखकर हनुमान् जी भी प्रभावित हो गए तथा असामान्य समय में असामान्य काम- जैसे समुद्र को लाँघना, सीता की खोज करना, पर्वत उठा लाना, राम- लक्ष्मण को कंधे पर बिठाकर ले जाना आदि न जाने कितने महान कार्य कर दिखाये।
अगली पंक्ति में बैठने तथा काम करने के लिए मौका केवल असामान्य व्यक्तियों को मिलता है। वे ही असामान्य समय को पहचान पाते हैं। सामान्य आदमी को तो विशेष समय दिखाई ही नहीं पड़ता। गुरुगोविन्द सिंह जी को विशेष समय दिखाई पड़ा। वे असामान्य आदमी थे। उन्होंने देखा कि यह देश गुलामी की जंजीरों से कैसे छुटकारा पा सकता है। उन्होंने सोचा कि हर व्यक्ति अपने- अपने बच्चों को बहादुर सैनिकों की तरह बनाता और उनसे साहस का काम कराता, तो समाज में एक आदर्श उपस्थित होता। उन्होंने इस आवश्यकता को समझा और सोचा कि उसकी शुरुआत अपने आप से करनी चाहिए। पराये बच्चों को माँगने से पहले अपने बच्चों को इस काम में लगा देना उचित होगा। ऐसा सोचकर उन्होंने एक, दो, तीन, चार- इस तरह सभी बच्चों को बारी- बारी से उस आन्दोलन के लिए अर्पित कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि चार लाख आदमियों ने गुलामी की जंजीरों से मुक्ति के लिए उस आन्दोलन में अपने आपको झोंक दिया। उन्होंने दम तब लिया, जब आन्दोलन में गर्मी आ गयी।
मित्रो! आजादी का आन्दोलन कहाँ से शुरू हुआ? पंजाब से शुरू हुआ था। पंजाब के राजा रणजीत सिंह सबसे पहले राजा थे, जिन्होंने इस आजादी के आन्दोलन में अपना सहयोग सबसे पहले दिया था तथा आजादी की लड़ाई को गति प्रदान की थी। इसके बाद अन्य लोग आते गए। गुरुगोविन्द सिंह, रणजीत सिंह जैसे योद्धा धर्मतंत्र व राजतंत्र दोनों ओर से पहली पंक्ति में आगे आए। इसके बाद काम बढ़ता गया तथा उसमें लोग सहभागी बनते चले गए। इतिहास को देखते हैं, तो मालूम पड़ता है कि असामान्य समय में लोगों को कुर्बानी देनी पड़ती है। यह काम जबरदस्ती से नहीं होता है, वरन् लोगों के भीतर एक हूक पैदा होती है और लोग स्वेच्छा से अपनी कुर्बानी देते हैं। गाँधी जी ने अपने आपको अर्पित किया उसके बाद लाखों आदमी उनके साथ आ गए। ७९ आदमियों को लेकर गाँधीजी जब साबरमती आश्रम से चल पड़े और नमक आन्दोलन शुरू कर दिया, तो पीछे लाखों लोग आ गये। अगर गाँधी जी स्वयं बैठे रहते तथा दूसरों से कहते, तो शायद यह काम नहीं होता। गाँधी जी सभी आन्दोलनों में आगे रहे। गाँधी जी के जेल जाने के बाद सारे देश में आग लग गयी। स्वराज्य आन्दोलन कहाँ से शुरू हुआ? अपने आप से शुरू हुआ। आपत्तिकाल की समस्या का हल केवल अपने आप से ही सम्भव है। ऐसा साहस भरा कार्य वे असामान्य आदमी ही कर पाते हैं, जो असामान्य समय को पहचानते हैं।
मित्रो! असामान्य आदमी स्वयं आगे चलकर समाज को यह बतलाता है कि यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसके लिए कुर्बानी देना चाहिए, तो लोग आगे आकर कार्य करते हैं। ऐसा साहस असामान्य आदमी ही कर सकता है। व्यक्ति पहले इस आदमी को परखते हैं कि यह मजबूत आदमी है, सिद्धान्त का आदमी है और कसौटी पर खरा सिद्ध होने के पश्चात् उसके कहने पर आगे आते हैं। भगवान् बुद्ध के जो सबसे प्यारे शिष्य थे, सबसे पहले उनको अपना घर- बार छोड़ने के लिए निवेदन किया गया था। अगर भगवान् बुद्ध ने केवल लोगों को आशीर्वाद से धन व बच्चे दे दिए होते, तो सारे विश्व में जो धर्म- चक्र प्रवर्तन की क्रान्ति हुई, शायद वह न हुई होती।
ऋषि क्या करते थे? क्या वे माला घुमाते थे? नहीं बेटे, वे माला नहीं घुमाते थे, वरन् वे सारे दिन समाज की सेवा किया करते थे। आज तो जो सबसे घटिया काम है, उसके लिए लोग आगे आते हैं। महान कार्य करने की किसी की भावना ही नहीं है। तपस्वी, संत, ऋषि जो सबसे छोटा काम करते थे सेवा का, अगर आप भी करने लगें, तो आपके जीवन में भी चमत्कार आ जाएगा। उन्होंने व्यक्ति की, समाज की, देश और धर्म की, संस्कृति की सेवा की थी। लोगों के दुःख, तकलीफों को दूर किया था। भगवान् बुद्ध ने एशिया को ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया को बदल दिया था। वे त्याग- तपस्या की मूर्ति थे। आप नाटक का मुखौटा पहन कर हनुमान् जी नहीं बन सकते हैं। उसके लिए त्याग करना पड़ता है। ऋषियों के अन्दर सबसे महत्त्वपूर्ण एक बात होती है कि वे समय को पहचानते हैं। वे समय का परिचय प्राप्त कर अग्रिम पंक्ति में आ खड़े होते हैं तथा दूसरों को नसीहत देने से पहले अपने आपको इस योग्य बनाने का प्रयास करते हैं कि इसका प्रभाव समाज पर पड़ सके। इसके बाद ढेरों आदमी उस रास्ते पर चलना शुरू कर देते हैं।
मित्रो! इंजन जब पटरी पर चलना शुरू कर देता है, तो डिब्बे अपने आप चलना शुरू कर देते हैं। बड़े आदमी, जिनका कि व्यक्तित्व होता है, जब वे आगे चलते हैं, तो उनके सहयोगी, अनुयायी स्वयं पीछे चलने लगते हैं। रामचन्द्र जी के सबसे प्यारे हनुमान् तथा लक्ष्मण थे। उनसे उन्होंने कहा कि आपको आगे चलना चाहिए, वे चले। बुद्ध के भी जो सबसे प्रिय शिष्य थे, जब उनसे उन्होंने कहा कि आपको सबसे आगे चलना चाहिए, तो वे चले। युग निर्माण योजना की भी यही कहानी है। हमारे गुरु ने हमसे कहा कि चलना होगा और हम चले। इसके बाद लाखों लोग चलने लगे। लक्ष्मण का अनुकरण भरत ने किया। भरत का अनुसरण शत्रुघ्न ने किया। इस प्रकार रामचन्द्र जी के अनुकरण का सिलसिला चल पड़ा। सारे के सारे लोग उनके अनुयायी हो गये। इसका परिणाम यह हुआ कि सारी प्रजा चल पड़ी। इसके फलस्वरूप रामराज्य की स्थापना हो गयी।
मित्रो, दुनिया में एक ही तरीका है, जब असामान्य लोग असामान्य काम के लिए चलते हैं, तभी काम बनता है। इस दुनिया के अन्तर्गत जो छोटे- छोटे व्यक्ति थे, जिसके अन्दर प्राण था, जो जीवन्त थे, उन्होंने ही आगे कदम बढ़ाया तथा उनके पीछे लोग चले। हमें महाराणा प्रताप का जीवन दिखाई पड़ता है। महाराणा प्रताप को क्या कमी थी? उनके पास सभी चीजें थीं। वे अच्छे खाते- पीते व्यक्ति थे, पर जब उनके भीतर स्वराज्य की भावना जाग्रत हुई, उन्होंने राजपाट छोड़कर जंगल का रास्ता पकड़ लिया। वे अपने बीबी- बच्चों को कहीं भी रख देते थे। थे तो वे राजा ही, चाहते तो उनके खाने- पीने की व्यवस्था कहीं भी हो जाती, परन्तु वे बहुत तबाह हुए, जंगलों में भटकते रहे, घास की रोटी खाते रहे, लेकिन अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ा। बंदा बैरागी जैसे लोग किस तरह तबाह हुए, आप नहीं जानते हैं। उन दिनों कुछ लोगों ने अपनी लड़कियों की शादी मुगल राजाओं के साथ कर दी थी। वे अपने को राजपूत कहते थे और अपने को बड़ा राजा कहते थे। उसी जमाने में बहुत से ऐसे भी लोग थे, जो उन आक्रान्ताओं से लोहा ले लिया करते थे तथा अपने को कुर्बान तक कर देने में कोई कमी नहीं रखते थे। उन्होंने अपने सारे परिवार के लोगों को इस आग में झोंक दिया, परन्तु अपनी शान को नहीं जाने दिया। वे असामान्य लोग थे, जिन्होंने परिस्थिति को समझा तथा मुकाबला किया।
आप बहुत समझदार आदमी हैं? आप अगर समझदार नहीं होते, तो इस जमाने में जब सारी दुनिया मरने की तैयारी में बैठी है, उस समय आप लोभ, मोह, वासना, तृष्णा का जीवन जी रहे हैं। इसके साथ ही यह सोच रहे हैं कि हमें यह फायदा कैसे हो जाए, वह फायदा कैसे हो जाए? हमारे बच्चे कैसे ऑफिसर बन जाएँ, ताकि अधिक पैसा कमा सकें। इस मामले में आप बहुत समझदार आदमी हैं, परन्तु आप सिद्धान्तों से, आदर्शों से, अक्ल से समझदार नहीं हैं। आप कैसे समझदार हैं? कौए की तरह से समझदार हैं। वह हर मामले में चौकस होता है, चालाक होता है, उस्ताद होता है। उस्ताद होते हुए भी उसके हिस्से में खाने- पीने की जो चीजें होती हैं, उसको वह अपने लिए रखता है, परन्तु अन्य जीव उसे छीनकर खा लेते हैं, इसलिए वह नासमझ माना जाता है। सारे पक्षियों में बेकार माना जाता है। मित्रो, मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह विशेष समय है, इसे पहचानने की कोशिश करें। अगर आपकी आँखें हैं, तो देखें, अगर नहीं हैं, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं कुछ नहीं कहना चाहता हूँ। आप अध्यात्मवादी हैं, तो आपको कुछ करना चाहिए। आपको सिद्धि मिली है, मुक्ति मिली है, तो आपको समाज की सेवा करनी चाहिए।
आदमी को अध्यात्मवादी तब माना जा सकता है, जब वह दूसरों के दुःख- दर्द को बाँटकर उसे सुखी, प्रसन्न बनाने का प्रयत्न करे। ऐसे व्यक्ति को दूसरों के दुःख- दर्द को दूर करने के लिए बलिदान होना पड़ता है। भजन करने से कोई कुछ मिलता है? भजन करने वाले की नीयत क्या है, यह भगवान् जानना चाहता है। आप पैसा कमाने के लिए, औलाद प्राप्त करने के लिए भजन करते हैं, तो आपके इस उद्देश्य को भी वह जानता है। आप भजनानन्दी हो सकते हैं, लेकिन व्यक्तिगत लाभ के लिए भजन करने वाले अध्यात्मवादी नहीं होते हैं। ऐसे व्यक्ति से अध्यात्मवादी की उपाधि हम छीन लेते हैं, जो व्यक्तिगत लाभ के लिए भजन करते हैं। उनकी जो अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए, सिद्धि के लिए भजन करते हैं, उनको मैं अध्यात्मवादी नहीं कह सकता हूँ। उनको मैं भौतिकवादी ही कहूँगा। ऐसे लोगों को ब्रह्मवर्चस का वह ब्रह्मतेज प्राप्त नहीं हो सकता है, जो लोकसेवी, संत, ऋषियों को मिलता रहा है। अतः आपको भी अपने आपको तपाना चाहिए। जप करना चाहिए, परन्तु उस शक्ति को, उस ऊर्जा को समाज के कष्ट के, दुःख- दर्द के निवारण के लिए बाँट देना चाहिए। तभी आप संत, ऋषि कहला सकते हैं।
मित्रो, ऐसा कौन है, जो कन्या के सयानी हो जाने पर उसके लिए योग्य लड़का अर्थात् वर की तलाश न करे तथा उसकी शादी अपनी सामर्थ्य के अनुसार न करे। कोई भी व्यक्ति ऐसा निष्ठुर नहीं होता, जो अपने बच्चों के लिए कुछ न करे। हम आप लोगों को प्यार करते हैं तथा आपको हमेशा देने के लिए तैयार रहते हैं। हर सामर्थ्यवान का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह अपने से कम सामर्थ्यवान वाले व्यक्ति को प्यार दे। अगर हम एक- दूसरे को प्यार नहीं करते हैं, तो हमारा गायत्री परिवार, युग निर्माण परिवार बनाना बेकार है। हमने हमेशा प्यार बाँटा है और चाहते हैं कि आप भी प्यार बाँटें। हम एक संत हैं तथा संत परम्परा के अनुसार हमारा नैतिक दायित्व है कि हम दूसरों की सहायता करें, उन्हें ऊँचा उठाएँ, उनकी प्रगति के रास्ते खोल दें। हमें अपने समीपवर्ती लोगों, पड़ोसियों का ध्यान रखना चाहिए। अगर किसी को बुखार हो, तो हमें उसकी मदद करनी चाहिए और चिकित्सक के पास ले जाना चाहिए। मित्रो, इसी तरह हमें उस समय का भी ख्याल रखना चाहिए, जिसमें हम जी रहे हैं। उस समय में हमें आगे बढ़कर युग- समस्याओं को हल करना चाहिए।
मित्रो, यह आपत्तिकालीन समय है। मानव जाति आज संकट के एक कगार पर खड़ी है। ऐसे कगार पर खड़ी है कि उसके किनारे अगर ढह गये, तो वह औंधे मुँह सीधे खाई में चली जाएगी। तथा मनुष्य का बहुत बड़ा अहित होगा। इस प्रकार मनुष्य का भविष्य अन्धकारमय है। ऐसी विषम परिस्थिति में असामान्य मनुष्यों को शांत नहीं बैठना है। यह आपत्तिकाल है। आपको तो दिखाई नहीं पड़ रहा है, परन्तु हमें दिखाई पड़ रहा है। ऐसे व्यक्ति जिनकी आँखों में माइक्रोस्कोप फिट होता है, सूक्ष्म चीजें भी देख लेते हैं। हमें भी दिखाई पड़ रहा है कि भविष्य में अगले दिनों क्या होने वाला है। बहुत भयानक स्थिति है। मनुष्य एक ऐसे कगार पर खड़ा है, जहाँ से गिरने पर वह खाई में जा सकता है तथा विनाश की स्थिति आ सकती है। दूसरी ओर अच्छा भी हो सकता है, परन्तु इसकी सम्भावना कम है।
यह आपत्तिकालीन समय है। इस समय वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी तथा अर्थशास्त्री- तीनों मिलकर यानि विज्ञान बुद्धि और अर्थ तीनों ने मिलकर ऐसी रचना की है, जिसे रावण, कुम्भकरण एवं मेघनाद की संज्ञा दी जा सकती है। बुद्धिवाद में ऐसी जकड़न आ गयी है कि सिद्धान्तवाद, आदर्शवाद पूर्णतः समाप्त हो गया है। आज आदमी का हृदय समाप्त हो गया है। आदमी आज जानवर हो गया है। जानवर तो भी मर्यादा में रहता है, परन्तु आदमी आज नर- पिशाच होता चला जा रहा है। उसे मर्यादा का भी ध्यान नहीं है। उसकी नीयत, ईमान को खोलकर देखें, तो आपको मालूम पड़ेगा कि मनुष्य ने न जाने किसका कलेवर पहन रखा है। उसके भीतर न जाने साँप बैठा है, न जाने राक्षस बैठा है, यह पता ही नहीं चलता है। आदमी के भीतर अगर आप झाँकें, तो अन्दर बैठे राक्षस को देखकर आपको नफरत हो जाएगी। आज चारों तरफ नफरत की दुनिया दिखाई पड़ रही है। विज्ञान, बुद्धि और अर्थ- तीनों ने मिलकर शालीनता की सीता का अपहरण कर लिया है। राम- लक्ष्मण रूपी धर्म- अध्यात्म बिलखते हुए मारे- मारे फिर रहे हैं। इन तीनों ने न जाने कैसा- कैसा षड्यंत्र रच दिया है। आदमी प्यार को, आदर्श को, शालीनता को भुला बैठा है और मनुष्य कलेवर में पिशाच बन बैठा है।
साथियो, भूत- पलीत का नाम आपने सुना है न, वह भी उतनी हानि नहीं पहुँचा रहा है, क्योंकि उसके हाथ- पैर नहीं हैं। जिसके हाथ- पाँव न हों, भला वह क्या कर सकता है? वह चल- फिर नहीं सकता है, दौड़ नहीं सकता है। अतः उससे डर नहीं है, लेकिन जिन्दा आदमी का भूत इनसान को परेशान कर रहा है, क्योंकि उसके पास हाथ भी हैं, पाँव भी हैं और अक्ल भी है। उसके पास दूसरी चीजें भी हैं। उसके पास ताकत है। आदमी का भूत अगर किसी पर हावी होगा, तो जिन्न, भूत, पिशाच, राक्षस सभी एक कोने पर रखे रह जाएँगे, आदमी का भूत अगर सवार हो जाएगा, तो वह मुर्दा भूतों से ज्यादा खतरनाक साबित होगा। हो भी यही रहा है। वास्तव में आज आदमी के भीतर की शालीनता समाप्त हो गयी है। वह राक्षस एवं पिशाच बन गया है।
आज परिस्थितियाँ इस तरह बनती जा रही हैं कि आदमी मरेगा, तबाह हो जाएगा। आज जनसंख्या इस कदर बढ़ रही है कि उसका क्या कहना? अगर यह इसी हिसाब से बढ़ती रही, तो एटम बम की कोई आवश्यकता नहीं होगी। आदमी भूख से, प्यास से तड़प- तड़प कर मर जाएगा। जिस तरह बंगाल में अकाल पड़ा था और उस समय भूख से तड़प- तड़प कर हजारों लोग मर गये थे। जापान के नागासाकी शहर पर डाले गये बम से लोग तबाह हो गये थे। इसी तरह जनसंख्या बढ़ाने के फेर में आदमी लगा रहा, तो उसका विनाश सुनिश्चित है। कितने ही लोग ज्योतिषियों को हाथ दिखाते हैं और यह कहते हैं कि देखना हमारे हाथ में बेटा है या नहीं? अरे! तेरे हाथ में तो सत्यानाश लिखा है। कई लोग आकर कहते हैं कि गुरुजी मेरे औलाद नहीं है। उनसे मैं यही कहता हूँ कि बेटा, अभी तो तू भी शान्ति से रह रहा है, अन्यथा बेटा- बेटी तेरी चमड़ी नोंच डालेंगे। अरे तू समझता नहीं, अगर इसी तरह से आबादी बढ़ती रही, तो पानी की एक- एक बूँद के लिए लोग तरस जाएँगे। सड़क पर चलने के लिए रास्ता नहीं मिलेगा। आदमी परेशान हो जाएगा। आप समझते नहीं, तबाही की दुनिया आ रही है। आपत्तिकाल का समय आ रहा है। अगर किसी वैज्ञानिक के मन में खुराफात आ जाए और वह एटमी हथियारों के भण्डार में माचिस की एक तीली सुलगा दे, तो सारा विश्व जलकर तहस- नहस हो जाएगा।
मित्रो, परिवार में, खानदान में जितने अधिक सदस्य बढ़ेंगे, उतनी ही मनुष्यों को परेशानियाँ आएँगी, वह परेशान होगा। किसी आदमी के परिवार में अट्ठाइस सदस्य हैं अर्थात् २८ आदमी एक परिवार में हैं। उनमें आपस में प्रेम, सहकार है नहीं, चूहे- बिल्ली की तरह से रह रहे हैं। चूहे बिल्ली से डरते हैं, बिल्ली चूहे से डरती है। ऐसे परिवार में आदमी की स्थिति ठीक उसी प्रकार है। आज के जमाने में जिसका जितना बड़ा परिवार है, वह उतना ही अधिक अशान्त है। विदेशों में बच्चों के बड़े होते ही माँ- बाप उन्हें अलग कर देते हैं और कहते हैं कि जाओ अपनी अलग व्यवस्था बनाओ। योरोप इस मामले में सही है, जो इस डाकू को पहले से ही अलग कर देता है। उसे गले लगाने से क्या फायदा? वहाँ लोग औलाद को घर से निकाल देते हैं और कहते हैं कि चल यहाँ तेरा कोई काम नहीं है। कारण वहाँ परिवार में प्रेम- मोहब्बत सहकार नहीं है। बेटे के भीतर यह भावना नहीं है कि जब हमारा बाप बूढ़ा होगा, तो हमें उसकी सेवा करनी है, व्यवस्था बनानी है। बहिन- भाई में प्रेम नहीं है। बहिन की शादी से पहले भाई की जो बहू आती है, वह नर- पिशाचिनी यह कहती है कि हमें ६५० रुपये मिलते हैं। इसे घर से निकाल दीजिए, फिर हम दोनों होटल में खाना खाएँगे, क्लबों में डाँस करेंगे और सिनेमा देखेंगे।
यह तो योरोप की स्थिति है। अपने यहाँ भी अगर आपके पास पन्द्रह हजार रुपये हैं, तथा बच्चे हैं- पाँच तो हर एक के हिस्से में तीन हजार रुपया आते हैं। उसके लिए भी मारकाट है। उसे आप अगर एक को पढ़ाने में, गजेटेड ऑफिसर बनाने में खर्च कर देंगे, तो बाकी बच्चों के गले में क्या फाँसी लगा देंगे या मार देंगे? या फिर उसे मैट्रिक तक पढ़ाने के बाद घर से निकालिए तथा यह कहिए कि निकल घर से, अपने आप पढ़ तथा अपने पैरों पर खड़ा हो। बेटे, आज की परिस्थितियों में आपको दुश्मन से भी होशियार रहना चाहिए तथा बड़े बेटे से भी होशियार रहना चाहिए। दुश्मनी के मामले में बड़ा बेटा, जिसके लिए आपने सब कुछ दाँव पर लगा दिया, उसमें तथा साँप- बिच्छू में कोई फर्क नहीं पड़ता है। आज इस बारे में हर आदमी को यह विचार करना चाहिए कि कुटुम्ब बढ़ाने में हमें कोई फायदा नहीं है, वरन् इसके द्वारा केवल बरबादी ही बरबादी है। जापान इस मामले में काफी होशियार है। यदि वहाँ मियाँ- बीबी मिलकर नौ सौ रुपये भी कमाते हैं, तो कहते हैं कि हम दोनों सिनेमा देखेंगे, होटलों में खाएँगे, मस्ती में रहेगें। बच्चों से क्या फायदा? उन्हें पढ़ाने में, योग्य बनाने में, उनकी शादी- ब्याह करने में काफी खर्च होगा। इसके अलावा हमारी मौज- मस्ती में भी वे विघ्न डालेंगे। जापानी इस मामले में विचार करते हैं। वे चाहते हैं कि बच्चे न हों।
बेटे! यह क्या होने जा रहा है? यह संयुक्त प्रणाली का सत्यानाश होने जा रहा है। आज सामाजिक सहयोग- सहकार का वातावरण समाप्त होता जा रहा है। आदमी इतना स्वार्थी, लोभी होता जा रहा है, जिसे देखकर लगता है कि मानवजाति की सारी की सारी श्रेष्ठ परम्पराएँ नष्ट होने वाली हैं। आदमी को दुश्मनों से डर लगे या न लगे, परन्तु अपने कुटुम्बीजनों से काफी भयभीत रहता है कि न जाने वे कब किस चक्कर में डाल सकते हैं। बरबाद कर सकते हैं। आज ऐसी ही स्थिति बन रही है। बुढ़ापे में व्यक्ति फूट- फूटकर रोएगा, कलपेगा कि हाय रे! औलादों ने, सम्बन्धियों ने हमें लूट लिया, बरबाद कर दिया। मित्रो, यह जमाना आता हुआ चला जा रहा है। आदमी मरे या जिये, यह मैं नहीं कहता, परन्तु आदमी के भीतर जो आत्मीयता थी, मनुष्यता थी, वह नष्ट हो जाएगी, बढ़ती हुई जनसंख्या की वजह से, बढ़ते हुए विज्ञान की वजह से, बढ़ती हुई अक्ल की भरमार की वजह से, आदमी की स्वार्थपरता की वजह से। हम और आप ऐसे ही बुरे समय में रह रहे हैं।
अगर इसी तरह की स्थिति बढ़ती चली गयी, तो हमारा और आपका भविष्य बहुत अन्धकारमय होता चला जाएगा। राजनीतिज्ञ जिस रास्ते पर आपको ले जा रहे हैं, वह हमें अन्धकारमय लग रहा है। संत- महात्माओं की प्रवृत्ति और विचारों को देखकर तो हमें रोना आता है। उनके क्रिया- कलापों को देखकर मैं काँप जाता हूँ और सोचता हूँ, हे भगवान्! ये क्या कर रहे हैं? हम भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान्! अगर इस संसार से कोई वर्ग नष्ट होना हो, तो सबसे पहले बाबाजियों का वर्ग नष्ट होना चाहिए। आप कहेंगे कि गुरुजी आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? बेटे, यह इसलिए कह रहा हूँ कि कतिपय संत- महात्मा अपने कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों से भटक गये हैं। मनुष्य को जिस मानवता का शिक्षण उन्हें देना चाहिए था, वे उससे दूर हो गए हैं, जिसके कारण आदमी अपनी महानता के जिस बलबूते पर इस सृष्टि का मुकुटमणि बना था, वह गिरते- गिरते समाप्त होता चला जा रहा है।
गुरुजी! फिर क्या होगा? मित्रो, इस दुनिया में मक्खी- मच्छर रहते हैं, तो क्या इनसे दुनिया की कोई शान है। कीड़े- मकोड़े टिड्डी, खटमल भी दुनिया में रहते हैं, पर उनसे कुछ लाभ है क्या? मैं नहीं जानता कि क्या लाभ है, लेकिन अगर आदमी भी इसी प्रकार से ज्यादा पैदा होंगे, तो निश्चय ही दुनिया में तबाही आयेगी। लोग परेशान होंगे। आज जो दुनिया में मनुष्यता समाप्त हो रही है, आदमी के अन्दर जो श्रेष्ठ माद्दा था, जो महानता थी, आदमी के भीतर जो देवत्व था, आज वह समाप्त होता चला जा रहा है। आदमी के भीतर जो भगवान् बैठा था वह धूमिल होता चला जा रहा है। भगवान् माने आदर्श, आदर्श माने श्रेष्ठ विचार। मित्रो, हमें जिस भगवान् की आवश्यकता है, जो हमें ऊँचा उठाता है, उसका नाम है- सिद्धांत आदर्श। उसका नाम है- मानवी गरिमा, जो समाप्त होती चली जा रही है। ऐसे अंधकार को देखकर हमें दुःख होता है कि इसी प्रकार की यदि स्थिति रही, तो आगे आदमी, आदमी की जान का ग्राहक बन जायेगा। उसके जीवन में तबाही आएगी।
मित्रो! उस समय आदमी- आदमी का खून पियेगा। आदमी- आदमी का माँस खायेगा। आदमी- आदमी को गिरायेगा। आदमी- आदमी को दुःख देगा, परेशान करेगा। आदमी, आदमी का प्राण पियेगा। मर्द औरत का प्राण पियेगा और औरत, मर्द का। भाई, भाई का प्राण पियेगा। भाई, बहिन का प्राण पियेगा। बेटा, बाप का और बाप, बेटे का प्राण पियेगा। साथ रहकर भी लोग एक- दूसरे का प्राण पियेंगे। यह आपत्तिकाल का सपना, जो हमने आपको दिखाया है, वह गलत नहीं है। इस समय पैसा, अक्ल, रोटी बढ़ेगी, परंतु यही अक्ल, पैसा और रोटी अपने को खाएगी। इंसान परेशान हो जायेगा। अगले दिनों विश्वविद्यालय बहुत बनने वाले हैं, कारखाने बहुत बनने वाले हैं, परंतु हम आपको सावधान कर रहे हैं कि आने वाले समय में हर चीज की कीमत बढ़ने वाली है। हर चीज हमें मुश्किल से प्राप्त होगी। लोहे जैसी चीज का भी मूल्य बढ़ने वाला है। लोहे का मूल्य सोने के बराबर होगा। मुसीबत ही मुसीबत आने वाली है, यदि अभी से हम सचेत नहीं हुए तो।
इस आपत्तिकालीन समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है, आदमी का आध्यात्मिकता से जुड़ना। आध्यात्मिक पारस से जो जुड़े हैं, वे पारस बन गये। विवेकानन्द, दयानंद पारस बन गये। लोहे को पारस से छुलाने पर वह सोना बनता है, कहा नहीं जा सकता, परंतु यह एक सच्चाई है कि आध्यात्मिक पारस से जुड़ने पर ही लोहे जैसा व्यक्ति यानि प्राणवान, तेजवान, गुणवान, समृद्धिवान बन जाता है। उनकी अक्ल, आदर्श, सिद्धान्त महान होते हैं। वे श्रेष्ठ व महान बन जाते हैं।
मित्रो, अमृत के बारे में हमें यह पता नहीं कि कोई मरने के समय पी ले, तो वह बच सकता है। ऐसा तो हमने सुना नहीं है। यदि ऐसा अमृत हुआ होता, तो रामचंद्र जी को मरने की आवश्यकता नहीं पड़ती। नरसिंह भगवान् को मरने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बहुत सारे भगवान् हुए थे, उनको भी मरने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए मैं सोचता हूँ कि ऐसा अमृत कोई नहीं है। नहीं महाराज जी, शास्त्रों में, पुराणों में अमृत के बारे में बहुत लिखा है। बेटे, उसी के बारे में मैं कह रहा हूँ, जिसे पीकर लोग अजर- अमर हो जाते हैं- जैसे राजा हरिश्चंद्र। गाँधीजी ने एक ड्रामा देखा और वे हरिश्चंद्र हो गए। गाँधी जी मर गये? नहीं बेटे, गाँधी जी कैसे मर सकते हैं। ईसामसीह मर गये? नहीं बेटे, वे कैसे मर सकते हैं। भगवान् बुद्ध मर गये? नहीं, वे नहीं मरे। वे अमर हो गये। कैसे व्यक्ति अमर होते हैं? ऐसे व्यक्ति जिनके अंदर शालीनता पैदा हो जाती है। आदर्श और सिद्धान्त जिनके रोम- रोम में समा जाता है, वही व्यक्ति अमर हो जाते हैं।
आदमी के अंदर अगर शालीनता न हो, तो वह नर- पिशाच बन जाता है। जिस आदमी के मुँह से पिशाच अट्टहास करता हुआ चला जाता है, अगर उसे उसी तरह बढ़ने दिया जाये, तो वह बहुत खतरनाक हो सकता है। आज मनुष्य ने न जाने क्या- क्या बना लिया है। पहले हवाई जहाज ६०० कि.मी. प्रति घण्टे की रफ्तार से उड़ता था। आदमी ने इस दूरी को समाप्त कर दिया है। चंद्रमा पर जो राकेट भेजा गया था, उसकी गति छह हजार से सात हजार मील थी। वह सारी पृथ्वी पर ढाई घंटे में घूम जाता है। आज तो हर चीज की चाल तेज हो रही है। विनाश की भी चाल तेज हो रही है।
यह समय आपत्तिकाल का है, जो एक ओर सुंदर सपने सँजोये हुए है, तो दूसरी तरफ विनाश की लीला भी। मुँह बाएँ खड़ी दिखाई पड़ रही है। आप दोनों के बीच में खड़े हैं। आपको यह दिखाई नहीं पड़ता है। आप कौन हैं? आप जाग्रत आत्मा हैं। हमने जो हार युगदेवता के लिए बनाया है, वह भगवान् के इस बगीचे से अच्छे से अच्छे फूलों को लेकर बनाया है, ताकि अच्छी से अच्छी माला युगदेवता के चरणों में चढ़ाई जा सके। आपको हमने बड़ी मुश्किल से ढूँढ़ा है। आपने ढूँढ़ा है हमें? नहीं बेटे, हमने आपको ढूँढ़ा है। हमने अच्छे- अच्छे रत्नों को ढूँढ़ा है। हमने अखण्ड- ज्योति आपके पास भेजी थी। आपने मँगायी थी? नहीं, हमने भेजी थी। बेटे, जिस तरह राम- लक्ष्मण को लेने विश्वामित्र दशरथ के पास गये थे, वैसे ही हमने आपके बाप के पास जाकर आपको ढूँढ़ा है। आप समझते नहीं हैं कि हमने कैसे आपको ढूँढ़ा है। रामकृष्ण परमहंस विवेकानन्द के पास गये थे? वे कहते थे कि तू क्या करेगा- नौकरी करेगा? अरे हमारा काम हर्ज हो रहा है और तू नौकरी के फेर में पड़ा है। हम लोगों को मुक्त करने आये हैं। हमारा काम अलग है। हमारा ‘जीव’ अलग है। हम देश, समाज, राष्ट्र को दिशा देने आये हैं। तू नौकरी करने के लिए नहीं पैदा हुआ है। उनको रामकृष्ण परमहंस ने मजबूर किया और वे चल पड़े।
बेटे, तू भी नहीं समझ रहा है। हम भी तुझे मजबूर कर रहे हैं। हमारे पास तू आता रहता है, परन्तु मनोकामनाएँ लेकर आता है। अगर ऊँची तमन्ना लेकर आया होगा, तो तू धन्य हो जाता। हम जब अपने गुरु के पास जाते हैं, तो हमारी तमन्नाएँ ऊँची रहती हैं तथा हम महान् बन जाते हैं। वहाँ से हम महान् बनकर आते हैं। हम उनसे कहते रहते हैं कि गुरुदेव हमारा जीवन कुछ और होना चाहिए। हमारे ब्राह्मण तथा संत जीवन में कुछ कमी रह गयी है। उसमें कुछ और प्रखरता, तेजस्विता आनी चाहिए। तलवार पर धार दी जाती है, तो वह ज्यादा मूल्यवान बन जाती है। हम चाहते हैं कि हमारे ब्राह्मण तथा संत के जीवन में भी कुछ धार आवे, ताकि हम और काम कर सकें। जब कभी हिमालय जाता हूँ, तो हमारे और हमारे गुरु के बीच बातचीत होती है, लड़ाई- झगड़ा होता है। हम केवल एक ही बात कहते हैं कि हमारे भीतर कसक है, जान है, दम है। गुरुवर हमसे आप और अधिक काम कराइए, काम लीजिए। हमारी धार को तेज कर दीजिए, ताकि हम अधिक काम कर सकें। समाज की सेवा कर सकें। यही हम दोनों में लड़ाई- झगड़ा होता रहता है। वे कहते हैं कि तू तो बच्चा है और हम कहते हैं कि हम बच्चे नहीं बड़े हैं, आप हमें लड़ाई में भेजिए, फिर देखिए कि हम अपनी पैनी तलवार से क्या करके आते हैं।
परन्तु हमें दुःख है कि आपकी और हमारी लड़ाई कुछ घटिया किस्म की होती है। मैं आपको यह बतलाना नहीं चाहता, किन्तु हम जब आपके ख्यालों को, ख्वाबों को पढ़ते हैं तथा देखते हैं, तो हमारा अन्तःकरण रो पड़ता है। तब हम यह चाहते हैं कि आपकी सहायता करनी चाहिए। मित्रो, मुझे आदमी की सहायता करनी चाहिए, परन्तु आप जब सहायता माँगते हैं, तो हमें दुःख होता है। अब आप बड़े हो गये हैं, तो आपको यह कहना चाहिए कि पिताजी! हम आपकी सहायता करेंगे, परन्तु आप कहते हैं कि पिताजी हम बच्चे हैं, आप हमारी सहायता कीजिए। अभी आप दो सौ मन लेकर चल रहे थे, अब हमारा भी ढाई सौ मन वजन ले लीजिए। ठीक है बेटे, हम तो लेकर चल देंगे। हम तो देश, समाज, राष्ट्र, धर्म, संस्कृति का वजन लेकर चल रहे हैं, तेरा भी लेकर चलेंगे। हमारे अन्दर क्षमता है कि इतना वजन लेकर चल सकें, परन्तु बेटे, इससे बनता क्या है? क्या आपको संतोष हो जाएगा?
मित्रो, इस शिविर में आप को बुलाने के पीछे हमारा विशेष उद्देश्य सन्निहित था। आप कहते हैं कि हमें कुण्डलिनी जागरण सिखा दीजिए, ब्रह्मवर्चस साधना सिखा दीजिए। बेटे यह मत कह, बल्कि यह कह कि हमें बाजीगरी सिखा दीजिए। मित्रो, बाजीगरी में व्यक्तित्व- निर्माण की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। केवल बाहरी क्रियाकलापों से, आडम्बरों से वह पूरी हो जाती है। किसान को मेहनत करनी पड़ती है, पसीना बहाना पड़ता है, तब फसल मिलती है, लेकिन बाजीगर बिना किसी मेहनत के केवल जमीन पर से मिट्टी उठाता है तथा हाथों की हेरा- फेरी करके पैसा कमा लेता है। इससे क्या मतलब है? हम अच्छी तरह से जानते हैं कि पूजा से, भजन से, सिद्धियों से तेरा क्या मकसद है। यह मैं सब अच्छी तरह जानता हूँ। तू जो देखना चाहता है, वह तो मैं इसी तरह दिखा सकता हूँ। आपको पाने की लालसा कम है, सो दिखाने से काम चल सकता है। आप लोग सिद्धियों के नाम पर जो पाना चाहते हैं, उन चीजों को मैं दिखा दूँ, तो आपको संतोष हो जाएगा। वह चीजें जो आपको मिलेंगी, तो आप बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे। आप छोड़कर भाग जाएँगे।
साथियो, अगर असली भगवान् आपको दिखा दूँ एवं असली भगवान् से साक्षात्कार करा दूँ, तो नारदजी की तरह से आपको अविवाहित रहकर काम करना पड़ेगा। बुद्ध की तरह से बीबी- बच्चों को छोड़कर जाना पड़ेगा। ऐसा भगवान् आपको दिखा दूँ, जो बुद्ध की तरीके से हाथ घसीटते हुए ले जाएँ। शंकराचार्य की तरह माँ को छोड़कर ले जाएँ। ऐसा भगवान् दिखा दूँ जो चाणक्य की तरह से वनवास में रहने के लिए मजबूर कर दे। ऐसा भगवान् आपको दिखा दूँ, जो समर्थ गुरु रामदास की तरह से हाथ पकड़ कर खींचता हुआ चला जाए। आप कहेंगे कि ऐसा भगवान् हमें नहीं चाहिए। गोली मारिए ऐसे भगवान् को, हमें तो तमाशा वाला भगवान् चाहिए जो हनुमान् बनकर दिख जाए, प्रकाश बनकर दिख जाए। अच्छा तो बच्चों के भगवान् चाहिए आपको। आपको मैस्मेरिज्म चाहिए।
गुरुजी! आपको समाधि लगाना आता है। हाँ बेटे, आता है और तेरी भी समाधि लगा देंगे तथा पाँच मिनट में ध्यान लगा देंगे, ऐसा मैजिक हमें आता है। हम तुझे दिखा सकते हैं। हिप्नोटिज्म करके हम तुमको न जाने क्या- क्या दिखा देंगे, तू कहेगा कि हमें खजाने दिखा दीजिए, तो दिखा देंगे। तू कहेगा कि हमें सोने से भरा हुआ एक टोकरा दिखा दीजिये, तो हम तुझे दिखा देंगे। सोने की तिजोरी हमें दिला दीजिए, तो दिला देंगे। क्यों महाराज जी! वह हमारे पास रहेगा कि नहीं? नहीं बेटे, जब तक तू हमारे कब्जे में है, तब तक तो रहेगा, उसके बाद वह नहीं रहेगा। जब तक हमारा असर रहेगा, वह भी रहेगा। इसका क्या मतलब है महाराज? यही मतलब है कि बच्चों जैसा बचकाना मनोरंजन हो जाएगा, बाकी कुछ नहीं। वह तबियत बहलाने का केवल माध्यम होगा। अध्यात्म से इसका कुछ भी लेना- देना नहीं है।
साथियो, मेरा उद्देश्य यह है कि जो असली ब्रह्मवर्चस् का स्रोत है, उसे आप जानें। हमने इसलिए आपको बुलाया है कि यह विशेष समय है तथा आप महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं, इसलिए आपको बताने के लिए बुलाया है। हमारे गुरु ने भी हमें दिखा दिया था कि हम विशेष व्यक्ति हैं, जाग्रत् आत्मा हैं। उन्होंने कहा कि तुम साधारण आदमी नहीं हो, तुझे असाधारण कार्य करना है। हमने यह महसूस कर लिया है कि हम एक साधारण आदमी की तरह नहीं रह सकते हैं। हमने घरवालों को कह दिया था कि हमने आपके यहाँ जन्म अवश्य ले लिया, लेकिन मैं आपकी बिरादरी का नहीं हूँ तथा आपकी तरह नहीं रह सकता। हमारा काम दूसरा है। आपकी समझ एवं सलाह के मुताबिक़ मैं नहीं चल सकता। हमें अपनी समझ के मुताबिक़ चलना होगा, हमारे रास्ते अलग होंगे। अपनी अक्ल के मुताबिक़ चलना ही सम्भव हो सकेगा। मैं चाहता था कि ऐसा सौभाग्य आपको भी मिल जाता। काश! मैं भी आपको दिखा पाता कि आप कौन हैं? आप एक सामान्य आदमी नहीं हैं, वरन् असामान्य आदमी हैं। मैं चाहता था कि इस युगपरिवर्तन की संधिवेला में आप भी महत्त्वपूर्ण काम कर सके होते, तो मजा आ जाता।
मेरे गुरु जितने सामर्थ्यवान हैं, उतना तो मैं नहीं हूँ। उन्होंने हमारे पिछले जन्मों को दिखा दिया था, लेकिन हम तो नहीं दिखा सकते कि आप पिछले जन्मों में क्या थे। आप जिस हैसियत का जीवन जी रहे हैं, वह आपके मुताबिक़ नहीं है, यह हम जरूर बता सकते हैं। आपकी महत्त्वाकाँक्षाएँ व्यक्तिगत जीवन के लिए नहीं होनी चाहिए। अगर कहीं रेलगाड़ी का एक्सीडेंट हो जाए तथा हजारों लोग कराह रहे हो, तो डॉक्टरों का यह कहना मुनासिब नहीं होगा कि हम सो रहे हैं तथा हमें समय नहीं है। आपको उन घायलों के लिए एक रात जागना चाहिए। एक रात जागने से आप मर नहीं सकते हैं। आपको इस जिम्मेदारी को समझना चाहिए तथा इसके लिए काम करना चाहिए।
मित्रो, हम आपसे यही कह रहे हैं कि आपके महत्त्वपूर्ण जीवन के एक- एक दिन यों ही समाप्त होते जा रहे हैं। उसमें कुसंस्कार भरते जा रहे हैं। आपको यह समझना चाहिए तथा बचे हुए जीवन को समाज के लिए अर्पित करना चाहिए। लोग सोचते हैं कि बुढ़ापे में काम करेंगे, पर यह संभव नहीं है। उस समय कुसंस्कार कुछ करने नहीं देते। हम बार- बार यही कह रहे हैं कि यह विशेष समय है। इसमें आपको कुछ करना है। हमने शिविर में आपको इसी उद्देश्य से बुलाया है। अगर आप समझ सकें, तो आपका जीवन धन्य हो जायेगा। अगर आनाकानी करते रहे, तो फिर मैं क्या कर सकता हूँ। विवेकानन्द इसी प्रकार आनाकानी कर रहे थे, तब रामकृष्ण परमहंस ने उनके कंधे पर अपना पैर रखा। विवेकानन्द चकमका गये। रामकृष्ण ने कहा कि अब हम मरने जा रहे हैं। हमने तुम्हें अपना सारा तप दे दिया है। अब तुम्हें तप करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी शक्ति आज भी विद्यमान है, जो आपको प्राप्त हो सकती है। पर आपको तो बाजीगरी पसंद है। आप मिट्टी से सोना बनाना चाहते हैं। ब्रह्मवर्चस् की साधना से गलना नहीं चाहते, तो हम क्या करें।
हमारे गुरुजी ने हमें बुलाया एवं शक्ति प्रदान की। हमने भी आपको एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य हेतु यहाँ शिविर में बुलाया, ताकि आप आपत्तिकाल के समय को समझ सकें और आगे आकर कुछ करने को तैयार हो जाते, तो यह शिविर धन्य हो जाता और आप भी धन्य बन जाते। हनुमान् जी ने रामचंद्र जी के लिए अपने आपको झोंका, तो वे सारी की सारी चीजें जो एक संत, तपस्वी को मिलनी चाहिए, वह हनुमान् जी को प्राप्त हो गयीं। हमारे बारे में भी यही बात है। हमने कितना तप किया, यह आप नहीं जानते हैं। हम चार घंटे केवल दूसरे काम में खर्च करते हैं, बाकी समय भगवान् के कार्य में खर्च करते हैं। हमने अपने आपको एक समर्थ सत्ता के साथ जोड़ दिया है। हम उनका काम करते हैं और वे हमारा काम करते हैं। हम दोनों आपस में गुँथे हुए हैं। मैं चाहता था कि हमारा और आपका संबंध भी हमारे गुरु की तरह होना चाहिए। आजकल हम जब साधना करते हैं, तो गुरु का चित्र हमारे सामने होता है। हम चाहते हैं कि हम दोनों घुल- मिल जाएँ। हम भजन तो नहीं करते हैं, परंतु हमारा मन केवल एक ही भजन में रमता है और वह है हम और हमारा गुरु। हम चाहते थे कि आप और हम भी उसी तरह घुल- मिल जाते, तो कितना अच्छा होता। बिजली के निगेटिव और पॉजिटिव तार जब एक हो जाते हैं, तो विद्युत आ जाती है- शक्ति आ जाती है। दोस्ती के बिना आदान- प्रदान की परम्परा कैसे शुरू हो जायेगी? गुरु- शिष्य के प्रेम के बिना आदान- प्रदान कैसे शुरू हो जायेगा? मैं यह चाहता था कि इस शिविर के अंत तक आप एवं हम जरा नजदीक आ जाते तथा आपस में घुल- मिल जाते, तो मजा आ जाता।
मित्रो, हमारा एवं हमारे गुरु का मिलना बड़ा ही महत्त्वपूर्ण रहा। हमारे गुरु की आकांक्षा कामना जो भी हमारे प्रति रही होगी, हमने उसे पूरा करने का पूरा- पूरा प्रयास किया है। जब हम उन दोनों दिनों की अर्थात् गुरु से जुड़ने से पूर्व एवं बाद के दिनों की समीक्षा करते हैं और देखते हैं, तो पाते हैं कि गुरु के आदेश पर जो जीवन हमने जीने का प्रयास किया है, वह ज्यादा फायदेमन्द रहा है, लाभ का रहा है। अंधे- लँगड़े की जोड़ी का अपना महत्त्व है। अंधे ने चलकर तथा लँगड़े ने देखकर सारे का सारा काम पूरा किया है। अंधे ने रास्ता तय किया तथा लँगड़े ने रास्ता दिखाया। मित्रो, आप एवं हम मिलकर अगर इस प्रकार कर पाते, तो कितना अच्छा होता। हम आपका सहयोग करते और आप हमारा सहयोग करते, तो मजा आ जाता। आप तो यह कहते हैं कि गुरुजी आप ही हमारा सहयोग कीजिए। बेटे, यही बात आपके काम की नहीं है। हम आपको आशीर्वाद दें, परंतु आप कुछ न दें, तो फिर आपका काम नहीं चलेगा। किसी का रक्त किसी दूसरे के शरीर में लगा दिया जाये, तो वह उस शरीर में केवल तीन दिन तक ही काम देता है। तीन दिन में ग्रहिता के शरीर का सिस्टम काम करने लगता है और वह व्यक्ति अपना काम कर लेता है। आपका सिस्टम जब तक काम नहीं करेगा, हमारा आशीर्वाद काम नहीं करेगा। आप समझते नहीं हैं? दूसरे का आशीर्वाद एवं वरदान आपकी सामयिक आवश्यकताएँ तो पूरी कर सकता हैं, परंतु आगे केवल आपका पुरुषार्थ, श्रम ही काम करेगा।
इस शिविर में पुनर्गठन के अंतर्गत हमने आपको एक योजना दी है। आप कहेंगे कि गुरुदेव क्या इसके बिना काम नहीं चलेगा? साथियो, आप समझते नहीं हैं कि इन दिनों हिन्दुस्तान के सामने बहुत सी समस्यायें हैं। असम की समस्या है, जो अरबों- खरबों रुपये से भी हल नहीं हो सकती। बंगलादेश की समस्या इतना विकराल रूप ले चुकी थी कि रुपयों से इसका हल नहीं हो सकता था। हमने उस समस्या का हल अध्यात्म- शक्तियों के द्वारा निकालने का सोचा है। आध्यात्मिक शक्तियाँ ही आड़े समय में कारगर सिद्ध होती हैं। यही शक्तियाँ मनुष्य को बदलने जा रही हैं, युग को बदलने जा रही हैं। हम स्पष्ट रूप से देख रहे हैं कि युगद्रष्टा अपनी कलाकृति को, अपनी इस सुंदर दुनिया को नष्ट नहीं होने देगा। ऐसा समय इस सृष्टि पर बीसों बार आ चुका है। जब भगवान् यानि स्रष्टा तथा जीवन्त आत्माओं ने सहयोग करके इस कार्य को पूरा किया है। आज भी वैसी ही स्थिति है, जिसमें आप जैसे मूर्धन्य आत्माओं को इस प्रकार का काम करना है।
स्रष्टा अपने द्वारा हमेशा सृजन करता है। कहा गया है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
ऐसी परिस्थितियों में उस समय स्रष्टा तो अपना काम करता ही है, परन्तु वैसी संकटकालीन स्थिति में उनके सहयोगियों को भी काम करना पड़ता है। बड़े- बड़े जो काम होते हैं, युग परिवर्तन जो होता है, महाक्रान्तियाँ जो होती हैं, वह भगवान् की इच्छा तथा शक्ति से होती हैं। हमें तथा आपको तो केवल निमित्त मात्र बनना है। अगर आप श्रेय लेने की स्थिति में हों, इस जमाने का महत्त्वपूर्ण कार्य करने की स्थिति में हों, तो हमारा एक ही निवेदन है कि आप हमारे साथ- साथ चलें, हमारे साथ आएँ। आपको घाटा नहीं पड़ेगा। चिन्ता मत कीजिए, यह घाटे का कोई सौदा नहीं है। मित्रो, कृपणता के अलावा कोई घाटे की बात नहीं होगी। यदि इस क्षुद्रता को आप लोग छोड़ दें, तो फायदा ही फायदा है। मैं आपके भविष्य की गारण्टी ले सकता हूँ, लेकिन आपकी क्षुद्रता एवं कृपणता की गारण्टी नहीं ले सकता। इसे छोड़ने की एवज में जो महानता तथा दूसरी चीजें मिलेंगी, वह बड़े ही फायदे की होंगी।
इस शिविर में हमने आपको इसीलिए बुलाया था और बार- बार पूछा था कि क्या ऐसा करना सम्भव है? मैं जानता हूँ कि आपके पास अक्ल बहुत ज्यादा है, परन्तु क्या आप हिम्मत कर सकते हैं? हम तो चाहते हैं कि आपकी अक्ल कम हो जाए, आपकी महत्त्वाकाँक्षाएँ कम हो जाएँ तथा आपकी भावना एवं अन्तरात्मा विकसित हो, तो काम बन जाएगा। इसलिए आपको बुलाया था और आज विदा कर रहे हैं। आप हमारे आदर्श और सिद्धान्त यहाँ से ले जाएँ तथा अपने चिन्तन, चरित्र को नये युग के निर्माण में लगा दें। मैं चाहता हूँ कि आपके सोचने के तरीके बदल जाएँ। आप नये युग के अनुरूप ढलते चले जाएँ। अभी तो आपने अपना सारा का सारा समय भौतिक आवश्यकताओं के लिए लगाया है। आपने तो जीवन केवल अपने लिए जिया है। आपने पूजा की है, लेकिन अगर आपने वास्तव में पूजा के स्थान पर भजन किया होता, सेवा- साधना की होती, तो आपकी आँखों के अन्दर से एक तेज दिखाई पड़ता। आपकी निगाहों के सामने जो भी आते, बदलते हुए चले जाते, परन्तु आपने कभी भी इस तरह का प्रयास नहीं किया। नये युग के लिए अगर आप अपने चिन्तन, भावना, चरित्र को लगा देते, तो आप तथा हम दोनों महान् हो जाते। जैसे कि हमारे गुरु और हम हो गए। पूजा तो पुजारी करता है और वह भी नौकरी के लिए, धन के लिए, औलाद के लिए करता है। यही कारण है कि किसी पुजारी के पास भगवान् नहीं जाता। यदि आप भी इसी तरह पुजारी हैं, तो आपके भी भगवान् एक लाख कोस दूर हैं।
मित्रो, हम आपसे यह निवेदन कर रहे थे कि आपकी पूजा यहाँ से जाने के बाद ऐसी चमके कि आपकी महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति करने की माँगने की बात समाप्त हो जाए और आप निरन्तर भगवान् के लिए गलने की बात सोचने लगें। इसी उद्देश्य से आपको यहाँ बुलाया था। हम चाहते हैं कि समाज में एक- दूसरे से प्रेम करने की पद्धति आप प्रारम्भ करें। आप पति- पत्नी आपस में प्रेम करें। अभी तो आपका प्रेम बिल्ली- चूहे की तरह है, राक्षसों की तरह है। आपको अपने साथी को- सहधर्मिणी को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने, तरक्की की ओर ले जाने की भावना आए। हम चाहते थे कि आप यहाँ से भगवान् को गोद लेकर जाएँ। आपके तीन बेटे हैं, तो आज से चार बच्चे मान लें। अगर बच्चे को फीस देते हैं, भोजन कराते हैं, तो भगवान् को केवल अक्षत, फूल न चढ़ाएँ, उनके लिए भी त्याग करें। देश, समाज, धर्म, संस्कृति के लिए आप अपने प्यार, अक्ल, भावना, श्रम, पैसे का एक हिस्सा यानि अंशदान देना चाहिए। हमने आपको अपने कुटुम्ब में सम्मिलित होते समय अंशदान, समयदान की बातें बतलायी थीं। हम चाहते है कि आपको फूल, अगरबत्ती चढ़ाने की अपेक्षा आदर्शों के लिए- सिद्धान्तों के लिए अंशदान देना चाहिए।
साथियों, आप यहाँ से जाएँ, तो एक नमूना बनकर जाएँ, ताकि समाज में आपका प्रभाव पड़े। आप जब लोगों को सिखाने जाएँगे, तो लोग यह पूछेंगे कि आप तो हमें प्यार, त्याग, श्रम, सेवा की बात बतला रहे हैं, पर क्या आपने इसमें से कुछ ग्रहण किया है? अपने आप में धारण किया है? इसका जवाब दे देंगे, तो आपकी बात लाखों- करोड़ों आदमी मानेंगे। हमने जो लोगों को सिखाया है, बताया है, पहले उसे हमने अपने जीवन में धारण किया है। इसी का प्रभाव है कि लोग हमारी बातें मानते हैं। आप शिकायत करते हैं कि गुरुजी शाखा वाला ठण्डा पड़ गया है। बेटे, तू अपने आपको गरम कर ले, सब तेरी बातों को मानेंगे तथा तेरे रास्ते पर चलेंगे। हम आपको युग- सृजेता प्रज्ञापुत्र के रूप में, जाग्रत आत्मा, महामानव के रूप में देखना चाहते हैं। आप यहाँ से जाने के बाद अपनी वाणी के अन्दर ब्रह्मतेज पैदा करें। आप सभ्य आदमी की तरह से जीवन यापन करें। आप वकील हैं, तो आपको काले कपड़े पहनकर कार्य तो करना चाहिए, पर हृदय के अंतरंग की मिठास को भी विकसित करना चाहिए। आप को अपनी वाणी का, व्यवहार का, सभ्यता का विकास करना चाहिए।
आप यहाँ से जाएँ, तो कुछ लेकर जाएँ। आप यहाँ आते हैं, तो कुछ लेकर जाएँ, बनकर जाएँ। हमारे पास जो लोग आते हैं और आपके बारे में पूछते हैं, तो उनको हम क्या जवाब देंगे। आपके अन्दर संयमशीलता, विनम्रता, सहिष्णुता आनी ही चाहिए। आपको जो कुछ भी मिला है, उसे केवल शरीर के लिए न खर्च करे, भगवान् के लिए भी खर्च करना चाहिए। आप माँ- बाप से चार आना कब तक माँगते रहेंगे। भगवान् से माँगने की अपेक्षा भगवान् को देने के लिए आगे आना चाहिए। गुरुजी से माँगने की अपेक्षा गुरुजी को देने के लिए आगे आना चाहिए। आपके कुर्ते के ऊपर तथा अंतःकरण में ज्ञान यज्ञ की लाल मशाल जलनी चाहिए, ताकि भीतर का अंधकार दूर हो सके। हमारे स्वार्थ में से कुछ परमार्थ के लिए उपयोग होना चाहिए। आप थोड़ा- सा हिस्सा लोकहित के लिए, जनकल्याण के लिए, आदर्शों के लिए निकालिए।
मित्रो, हमने इसीलिए यह शिविर बुलाया था। यह विशेष समय है, विशेष काल है, यह बतलाने के लिए आपको बुलाया था। पेट भरने और औलाद पैदा करने की समस्या तो जब से दुनिया बनी है, तब से रही है और रहेगी। यदि आप भी इसी में लगे रहें, तो यह जीवन बेकार हो जाएगा। उठिए, जागिए और श्रेष्ठ कामों के लिए तनकर खड़े हो जाइए। इसी अध्यात्म को बतलाने के लिए हमने आपको बुलाया था, अगर आप समझ सकें, तो हमारा यह श्रम सार्थक हो जाएगा और आप भी धन्य हो जाएँगे।
आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शान्ति॥